महावीर कथा3
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*महावीर के उपदेश ग्रुप से*
भाग 1 से 5 एक साथ📕
📕भगवान महावीर स्वामी का जीवन चरित्र📕
🦁भगवान महावीर भारत में जन्मे एक ऐसे महा मानव है, जिनके आचार और विचार ,दर्शन और चिंतन का भारतीय जनमानस पर घर प्रभाव है वे विश्व के उन महान चिंतको में से हे जिनके चिंतन ने मनुष्य को सभ्य और करुणाशील बनाया है ।हर एक जीव के प्रति।
🍁सूक्ष्म संवेदना ,प्रकृति के लिए प्रेमका जो पाठ उन्होंने पढ़ाया, वः भुलाया नही जा सकता ।
🍁वे महान धर्मगुरि ,धर्म तीर्थंकर हे ।उन्होंने समता ,मैत्री के आधार पर सभी जीवो का कल्याण के लिए सर्वोदय तीर्थ की स्थापना की,जो अपने आप में अदभुत तीर्थ है।
🦁भगवान महावीर का जीवन बड़ा ही अदभुत है ।उनकी तुलना किसी से नही की जा सकती ,वे अतुलनीय है ।उन्होंने ध्यान साधना,तपयोग की कई पद्धतिया ,विधिया दी ।उनके जीवन में इतना तेज है की उसकी चमक से हृदय दीप्त हो उठता है ।उनके जीवन में तप त्याग के ,साधना के इतने सुन्दर फूल खिले हे की उसकी महक से मन भर जाता है ।
🍁वे माता पिता,बंधु के प्रति एक कर्तव्य मानते है ,उसे स्वीकारते है इसलिये उनके वचन में कुछ समय बंधते है।वे किसी मानव की पीडा, दुख को देख नही पाते थइ।तत्काल उनकी आँख से आंसू निकल आते ऐसे करुणा के देवता ,मैत्री के अधिष्ठाता महावीर का जीवन मन को आलोकित करता है ।1⃣
*भगवान महावीर* ने जन्म लिया छब्बीस सदियो पूर्व माता त्रिशला के गर्भ से ,आज महावीर जन्म लेंगे मनुष्य के हृदय में ,याने पुनः मैत्री करुणा सत्य,अहिंसा ,समता,का झरना प्रवाहित होगा।
🍁महावीर हमारे हृदय में मन मन्दिर में आएंगे,हमे सच्ची रह दिखाएंगे,पर क्या उसके लिए हम तैयार है ❓
🦁भगवान महावीर को सम्यक्त्व की प्राप्ति नयसर के भव में प्राप्त हुई थी चलो फिर वहिसे भगवान को जाने....
🍁नयसर का भव जम्बूद्वीप के पश्चिम महाविदेह में ' महावप्र' नामक विजय हे।उस विजय की जयंती नगरी में शत्रुमर्दन राजा था ।उसके राज्यमें पृथ्वीप्रतिष्ठान नामक गांव था ।वहां नयसार नामक स्वामी भक्त एवम् जनहितैषी गृहपति रहता था।सदाचार एवम् गुण ग्राहकता उसके स्वभाव में बसी हुई थी।
🐅एक दिन राजाज्ञा से वह भवन निर्माण के योग्य बड़े बड़े काष्ट लेने के लिए, कई गाड़े ले कर महावन में गया।वृक्ष काटते हुए मध्यान्ह का समय होगया ।गरमी बढ़ गयी और भूक भी बढ़ गई थी।साथ के लोगेक सघन वृक्ष के निचे भोजन लेकर बैठेऔर नयसार को बुलाया।
🐅वः भी भूक प्यास से पीड़ित हो रहा था।किन्तु अतिथि सत्कार में उसकी रूचि थी।"यदि कोई अतिथि आवे,तो उसे भोजन कराने के बाद मै भोजन करूँ"।इस विचार से वः इधर उधर देखने लगा ।उसने देखा की कुछ मुनि इधर ही आ रहे है।
🐅उन्हें देखते ही नयसार प्रसन्न हुआ उसने मुनियो को नमस्कार किया और पूछा --महात्मन् !इस भयानक अटवी में आप कैसे आये ?
यहाँ तो शस्र सज्ज योद्धा भीएकाकी नही आ सकते ।
🐅महानुभाव!!हम एक सार्थ के साथ विहार कर रहे थे।मार्ग में गांवमें हम भिक्षाचारी के लिए गये।हमे भिक्षा नही मिली।लौट कर देखा तो सार्थ प्रस्थान कर गया था।हम उसके पीछे चलते रहे और मार्ग भूल कर इस अटवी में आ गये।--अग्रगण्य महात्मा ने कहा........2⃣
🍁अहो,वह सार्थ कितना निर्दय,पापपूर्ण और विश्वासघाती है अपने साथ के साधुओ को निराधार छोड़ कर चला गया?परन्तु इस निमित्त भी मुझे तो संत महात्माओं की सेवा का लाभ मिला ही।इस प्रकार कहता हुआ और प्रसन्नता अनुभव करता हुआ नयसार महात्माओं को अपने भोजन के स्थान वृक्ष के निचे लाया और भक्ति पूर्वका आहार पानी दिया ।
🍁मुनियोंने एक वृक्ष के निचे विधिपूर्वक बैठ कर आहार किया ।तदुपरांत नयसार ने साथ चलकर नगर का मार्ग बताया ।प्रमुख महात्मा ने उसे वहीँ बैठकर धर्मोपदेश दिया।नयसार ने प्रतिबोध पाया और सम्यक्त्व लाभ लिया।
🍁नयसार अब धर्म में विशेष रूचि रखने लगा।तत्वों का अभ्यास किया।नमस्कार महामन्त्र का स्मरण करता हुआ,अंत समय में शुभ भावनायुक्त काल करके वह प्रथम स्वर्ग में एक पल्योपम की स्थिति वाला देव हुआ ।
🍁नयसार के भव में जिस भगवान को अंतर में निहारा था उसके फलस्वरूप नयसार का धरती पर दूसरा जन्म हुआ मरीचि के रूप में।
जीवन में बसंत आया
पतझड़ भी आया
🍁सिद्धि के अनुत्तर शिखरों का स्पर्श भी मिला और तेत्तीस सागरोपम की स्थिति के नरक का बीज भी।इन सभी ऊचाईयों और खाइयां का अनुभव जिसे हुआ ,वह है मरीचि!!!!
इस भरत क्षेत्र में विनीता नाम की श्रेष्ठ नगरी थी।भगवान आदिनाथ के पुत्र भरतजी राज्यधिपति थे।नयसार का जीव प्रथम स्वर्ग से च्यव कर भरत महाराज के पुत्र रूप में उत्पन हुआ। बालक के शरीर से मरीचि (किरणें)निकल रही थी।इसे उसका नाम मरीचि रखा ।3⃣
🌐भगवान ऋषभदेव का विनीत नगरी में प्रथम समवशरण था।मरीचि भी अपने पिता और भ्राताओं के साथ समवशरण में भगवान को वंदन करने गया।मरीचि का सौभाग्य की दादा ऋषभदेव जो तीर्थंकर बन चुके है उनके दर्शन करने का अवसर मिला।प्रभु की देवों और इन्द्रो द्वारा हुई महिमा देख कर और भगवान का धर्मोपदेश सुन कर वह सम्यकदृष्टि हुआ और संसार से विरक्त हो कर प्रवज्या स्वीकार कर ली ।
🌐सयंम की शुद्धतापूर्वक आराधना करने के साथ उसने 11 अंगो का ज्ञान प्राप्त किया।वर्षो तक सयंम का पालन करते हुए एक बार ग्रीष्म ऋतु आई।सूर्य के प्रचंड ताप से भूमि अति उष्ण हो गई ।उसे प्यास परिषह बहुत सताने लगा ।भूमि पर नग्न पाव धरना अत्यंत कठिन हो गया।इस निमित्त से मरीचि के मन में चरित्र मोहनिय कर्म का उदय हुआ ।
🌐वह सोचने लगा ,"निर्ग्रन्थ साधुता मेरुपर्वत जितना भार उठाने के समान है।मुझ में इतना सामर्थ्य नही हे कि मै इस भार को शांतिपूर्वक उठा सकु ।किन्तु अब इसका त्याग भी कैसे हो सकता है ?यदि में साधुता छोड़ कर पुनः गृहस्थ बनता हु तो लोग निंदा करेंगेऔर मुझे लज्जित होना पड़ेगा ।फिर क्या करूँ ?"
🌐वह सोचने लगा ।उसने रास्ता बदला, चर्या बदली।वह त्रिदंडी बन गया ।जिन धर्म में भी श्रावको के देशव्रत तो है ही।मै देश विरत बन जाऊ और वेश से साधू भी रहूँ ।4⃣
🍁इस प्रकार निश्चय कर के मरीचि ने मुनिलिंग का त्याग कर के त्रिदंडी सन्यास धारण किया।उसके वेश की भिन्नता देख कर लोग उससे पूछते की- "आपने यह परिवर्तन क्यों
किया ❓"
वह कहता -"श्रमन धर्म मेरु पर्वत का महाभार उठाने के समान है।मुझ में इतना सामर्थ नही है कि मै इसका निर्वाह कर सकूँ ।इसलिए मैंने परिवर्तन किया है ।"
🍁प्रभु का उजाला सामने था और मरीचि ने अँधेरा चुना ।मरीचि को अपनी गलती ,अपनी भूल समझ आयी ही नही ।
🍁मरीचि धर्मोपदेश देता।उसके उपदेश से प्रतिबोध पा कर कोई व्यक्ति श्रमण दीक्षा धारण करना चाहता ,तो वह भ रिषभदेवजी के पास ले जा कर दीक्षा दिलवाता और विहार में भगवान के साथ ही चलता ।उसने प्रभु को छोड़ा नही।उनसे रिश्ता कायम रखा ।न छोड़ा, न तोडा।मन की गहराई से प्रभु की भक्ति की ।मन से तो स्वयं भी प्रभु का ही रहा ।
🍁भावी तीर्थंकर कालान्तर में भगवान फिर विनीता नगरी के बाहर पधारे ।महाराजाधिराज भरत भगवान को वंदन करने गया।भरत महाराज ने भविष्य में होने वाले तीर्थंकर आदि के बारे में पूछा ।प्रभु ने भविष्य में होने वालेतीर्थंकर ,चक्रवर्ती,बलदेव, वासुदेव के नाम बताए ।महाराजा ने पुनः पूछा --
🦁"भगवन ! इस सभा में ऐसा कोई व्यक्ति हे जो भविष्य में आपके समान तीर्थंकर बनेगा ?"
"हा ,तुम्हारा पुत्र मरीचि इस अवसर्पिणी काल का 'महावीर 'नामक अंतिम तीर्थंकर होगा और पोतनपुर में 'त्रिपुष्ट' नमक प्रथम वासुदेव तथा महाविदेह की मोका नगरी में प्रियमित्र नामक चक्रवर्ती होगा "-भगवान ने कहा ।👏5⃣
✍ संकलन
बेहेनसोनालीजी कटारिया
निरगुड़सर,पूना
*टीम महावीर के उपदेश ग्रुप*
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*महावीर के उपदेश ग्रुप से*
भाग 1 से 5 एक साथ📕
📕भगवान महावीर स्वामी का जीवन चरित्र📕
🦁भगवान महावीर भारत में जन्मे एक ऐसे महा मानव है, जिनके आचार और विचार ,दर्शन और चिंतन का भारतीय जनमानस पर घर प्रभाव है वे विश्व के उन महान चिंतको में से हे जिनके चिंतन ने मनुष्य को सभ्य और करुणाशील बनाया है ।हर एक जीव के प्रति।
🍁सूक्ष्म संवेदना ,प्रकृति के लिए प्रेमका जो पाठ उन्होंने पढ़ाया, वः भुलाया नही जा सकता ।
🍁वे महान धर्मगुरि ,धर्म तीर्थंकर हे ।उन्होंने समता ,मैत्री के आधार पर सभी जीवो का कल्याण के लिए सर्वोदय तीर्थ की स्थापना की,जो अपने आप में अदभुत तीर्थ है।
🦁भगवान महावीर का जीवन बड़ा ही अदभुत है ।उनकी तुलना किसी से नही की जा सकती ,वे अतुलनीय है ।उन्होंने ध्यान साधना,तपयोग की कई पद्धतिया ,विधिया दी ।उनके जीवन में इतना तेज है की उसकी चमक से हृदय दीप्त हो उठता है ।उनके जीवन में तप त्याग के ,साधना के इतने सुन्दर फूल खिले हे की उसकी महक से मन भर जाता है ।
🍁वे माता पिता,बंधु के प्रति एक कर्तव्य मानते है ,उसे स्वीकारते है इसलिये उनके वचन में कुछ समय बंधते है।वे किसी मानव की पीडा, दुख को देख नही पाते थइ।तत्काल उनकी आँख से आंसू निकल आते ऐसे करुणा के देवता ,मैत्री के अधिष्ठाता महावीर का जीवन मन को आलोकित करता है ।1⃣
*भगवान महावीर* ने जन्म लिया छब्बीस सदियो पूर्व माता त्रिशला के गर्भ से ,आज महावीर जन्म लेंगे मनुष्य के हृदय में ,याने पुनः मैत्री करुणा सत्य,अहिंसा ,समता,का झरना प्रवाहित होगा।
🍁महावीर हमारे हृदय में मन मन्दिर में आएंगे,हमे सच्ची रह दिखाएंगे,पर क्या उसके लिए हम तैयार है ❓
🦁भगवान महावीर को सम्यक्त्व की प्राप्ति नयसर के भव में प्राप्त हुई थी चलो फिर वहिसे भगवान को जाने....
🍁नयसर का भव जम्बूद्वीप के पश्चिम महाविदेह में ' महावप्र' नामक विजय हे।उस विजय की जयंती नगरी में शत्रुमर्दन राजा था ।उसके राज्यमें पृथ्वीप्रतिष्ठान नामक गांव था ।वहां नयसार नामक स्वामी भक्त एवम् जनहितैषी गृहपति रहता था।सदाचार एवम् गुण ग्राहकता उसके स्वभाव में बसी हुई थी।
🐅एक दिन राजाज्ञा से वह भवन निर्माण के योग्य बड़े बड़े काष्ट लेने के लिए, कई गाड़े ले कर महावन में गया।वृक्ष काटते हुए मध्यान्ह का समय होगया ।गरमी बढ़ गयी और भूक भी बढ़ गई थी।साथ के लोगेक सघन वृक्ष के निचे भोजन लेकर बैठेऔर नयसार को बुलाया।
🐅वः भी भूक प्यास से पीड़ित हो रहा था।किन्तु अतिथि सत्कार में उसकी रूचि थी।"यदि कोई अतिथि आवे,तो उसे भोजन कराने के बाद मै भोजन करूँ"।इस विचार से वः इधर उधर देखने लगा ।उसने देखा की कुछ मुनि इधर ही आ रहे है।
🐅उन्हें देखते ही नयसार प्रसन्न हुआ उसने मुनियो को नमस्कार किया और पूछा --महात्मन् !इस भयानक अटवी में आप कैसे आये ?
यहाँ तो शस्र सज्ज योद्धा भीएकाकी नही आ सकते ।
🐅महानुभाव!!हम एक सार्थ के साथ विहार कर रहे थे।मार्ग में गांवमें हम भिक्षाचारी के लिए गये।हमे भिक्षा नही मिली।लौट कर देखा तो सार्थ प्रस्थान कर गया था।हम उसके पीछे चलते रहे और मार्ग भूल कर इस अटवी में आ गये।--अग्रगण्य महात्मा ने कहा........2⃣
🍁अहो,वह सार्थ कितना निर्दय,पापपूर्ण और विश्वासघाती है अपने साथ के साधुओ को निराधार छोड़ कर चला गया?परन्तु इस निमित्त भी मुझे तो संत महात्माओं की सेवा का लाभ मिला ही।इस प्रकार कहता हुआ और प्रसन्नता अनुभव करता हुआ नयसार महात्माओं को अपने भोजन के स्थान वृक्ष के निचे लाया और भक्ति पूर्वका आहार पानी दिया ।
🍁मुनियोंने एक वृक्ष के निचे विधिपूर्वक बैठ कर आहार किया ।तदुपरांत नयसार ने साथ चलकर नगर का मार्ग बताया ।प्रमुख महात्मा ने उसे वहीँ बैठकर धर्मोपदेश दिया।नयसार ने प्रतिबोध पाया और सम्यक्त्व लाभ लिया।
🍁नयसार अब धर्म में विशेष रूचि रखने लगा।तत्वों का अभ्यास किया।नमस्कार महामन्त्र का स्मरण करता हुआ,अंत समय में शुभ भावनायुक्त काल करके वह प्रथम स्वर्ग में एक पल्योपम की स्थिति वाला देव हुआ ।
🍁नयसार के भव में जिस भगवान को अंतर में निहारा था उसके फलस्वरूप नयसार का धरती पर दूसरा जन्म हुआ मरीचि के रूप में।
जीवन में बसंत आया
पतझड़ भी आया
🍁सिद्धि के अनुत्तर शिखरों का स्पर्श भी मिला और तेत्तीस सागरोपम की स्थिति के नरक का बीज भी।इन सभी ऊचाईयों और खाइयां का अनुभव जिसे हुआ ,वह है मरीचि!!!!
इस भरत क्षेत्र में विनीता नाम की श्रेष्ठ नगरी थी।भगवान आदिनाथ के पुत्र भरतजी राज्यधिपति थे।नयसार का जीव प्रथम स्वर्ग से च्यव कर भरत महाराज के पुत्र रूप में उत्पन हुआ। बालक के शरीर से मरीचि (किरणें)निकल रही थी।इसे उसका नाम मरीचि रखा ।3⃣
🌐भगवान ऋषभदेव का विनीत नगरी में प्रथम समवशरण था।मरीचि भी अपने पिता और भ्राताओं के साथ समवशरण में भगवान को वंदन करने गया।मरीचि का सौभाग्य की दादा ऋषभदेव जो तीर्थंकर बन चुके है उनके दर्शन करने का अवसर मिला।प्रभु की देवों और इन्द्रो द्वारा हुई महिमा देख कर और भगवान का धर्मोपदेश सुन कर वह सम्यकदृष्टि हुआ और संसार से विरक्त हो कर प्रवज्या स्वीकार कर ली ।
🌐सयंम की शुद्धतापूर्वक आराधना करने के साथ उसने 11 अंगो का ज्ञान प्राप्त किया।वर्षो तक सयंम का पालन करते हुए एक बार ग्रीष्म ऋतु आई।सूर्य के प्रचंड ताप से भूमि अति उष्ण हो गई ।उसे प्यास परिषह बहुत सताने लगा ।भूमि पर नग्न पाव धरना अत्यंत कठिन हो गया।इस निमित्त से मरीचि के मन में चरित्र मोहनिय कर्म का उदय हुआ ।
🌐वह सोचने लगा ,"निर्ग्रन्थ साधुता मेरुपर्वत जितना भार उठाने के समान है।मुझ में इतना सामर्थ्य नही हे कि मै इस भार को शांतिपूर्वक उठा सकु ।किन्तु अब इसका त्याग भी कैसे हो सकता है ?यदि में साधुता छोड़ कर पुनः गृहस्थ बनता हु तो लोग निंदा करेंगेऔर मुझे लज्जित होना पड़ेगा ।फिर क्या करूँ ?"
🌐वह सोचने लगा ।उसने रास्ता बदला, चर्या बदली।वह त्रिदंडी बन गया ।जिन धर्म में भी श्रावको के देशव्रत तो है ही।मै देश विरत बन जाऊ और वेश से साधू भी रहूँ ।4⃣
🍁इस प्रकार निश्चय कर के मरीचि ने मुनिलिंग का त्याग कर के त्रिदंडी सन्यास धारण किया।उसके वेश की भिन्नता देख कर लोग उससे पूछते की- "आपने यह परिवर्तन क्यों
किया ❓"
वह कहता -"श्रमन धर्म मेरु पर्वत का महाभार उठाने के समान है।मुझ में इतना सामर्थ नही है कि मै इसका निर्वाह कर सकूँ ।इसलिए मैंने परिवर्तन किया है ।"
🍁प्रभु का उजाला सामने था और मरीचि ने अँधेरा चुना ।मरीचि को अपनी गलती ,अपनी भूल समझ आयी ही नही ।
🍁मरीचि धर्मोपदेश देता।उसके उपदेश से प्रतिबोध पा कर कोई व्यक्ति श्रमण दीक्षा धारण करना चाहता ,तो वह भ रिषभदेवजी के पास ले जा कर दीक्षा दिलवाता और विहार में भगवान के साथ ही चलता ।उसने प्रभु को छोड़ा नही।उनसे रिश्ता कायम रखा ।न छोड़ा, न तोडा।मन की गहराई से प्रभु की भक्ति की ।मन से तो स्वयं भी प्रभु का ही रहा ।
🍁भावी तीर्थंकर कालान्तर में भगवान फिर विनीता नगरी के बाहर पधारे ।महाराजाधिराज भरत भगवान को वंदन करने गया।भरत महाराज ने भविष्य में होने वाले तीर्थंकर आदि के बारे में पूछा ।प्रभु ने भविष्य में होने वालेतीर्थंकर ,चक्रवर्ती,बलदेव, वासुदेव के नाम बताए ।महाराजा ने पुनः पूछा --
🦁"भगवन ! इस सभा में ऐसा कोई व्यक्ति हे जो भविष्य में आपके समान तीर्थंकर बनेगा ?"
"हा ,तुम्हारा पुत्र मरीचि इस अवसर्पिणी काल का 'महावीर 'नामक अंतिम तीर्थंकर होगा और पोतनपुर में 'त्रिपुष्ट' नमक प्रथम वासुदेव तथा महाविदेह की मोका नगरी में प्रियमित्र नामक चक्रवर्ती होगा "-भगवान ने कहा ।👏5⃣
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बेहेनसोनालीजी कटारिया
निरगुड़सर,पूना
*टीम महावीर के उपदेश ग्रुप*
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