कथा मेघरथ,लक्ष्मणा साध्वी
📖 *जैन बोध कथाये*📖
सुरेश - भइया नरेश! जिसको जो चीज अच्छी लगे उसको वह चीज दे देना, यही तो दान है?
नरेश - नहीं, नहीं, तुम्हें यह किसने बताया है कि किसी की रुचि की वस्तु देना दान है। हाँ, जिसके देने से अपना और लेने वाले का दोनों का हित होता है वही दान है। सुनो, मैं तुम्हें एक छोटी-सी कथा सुनाता हूँ।
पूर्व विदेह के पुष्कलावती देश में पुंडरीकिणी नाम की नगरी है। किसी समय वहाँ पर राजा मेघरथ राज्य करते थे। एक दिन वे आष्टाह्निक पर्व में उपवास करते हुए महापूजा करके जैनधर्म का उपदेश दे रहे थे कि इतने में काँपता हुआ एक कबूतर वहाँ आया और पीछे बड़े ही वेग से एक गिद्ध आया। कबूतर राजा के पास बैठ गया। तब गिद्ध ने कहा-‘‘राजन्! मैं अत्यधिक भूख की वेदना से आकुल हो रहा हूँ, अत: आप यह कबूतर मुझे दे दीजिये। हे दानवीर! यदि आप यह कबूतर मुझे नहीं देंगे तो मेरे प्राण अभी आपके सामने ही निकल जायेंगे।’’ मनुष्य की वाणी में गिद्ध को बोलते देखकर युवराज दृढ़रथ ने पूछा-‘‘हे देव! कहिये इस गिद्ध पक्षी के बोलने में क्या रहस्य है?’’ राजा मेघरथ ने कहा, सुनो- इस जम्बूद्वीप के ऐरावत क्षेत्र में पद्मिनी खेट नाम का एक नगर है। वहाँ के धनमित्र और नन्दिषेण नाम के दो भाई धन के निमित्त से आपस में लड़कर मर गये, सो ये कबूतर और गिद्ध पक्षी हो गये हैं। इस गिद्ध के शरीर में देव आ गया है सो यह ऐसे बोल रहा है। वह कौन है? सो भी सुनो-
ईशानेन्द्र ने अपनी सभा में मेरी स्तुति करते हुए यह कहा कि पृथ्वी पर मेघरथ से बढ़कर दूसरा कोई दाता नहीं है। मेरी ऐसी स्तुति सुनकर परीक्षा करने के लिये एक देव वहाँ से आकर इसके शरीर में प्रविष्ट होकर बोल रहा है। किन्तु हे भाई! दान का लक्षण आप सभी को मैं समझाता हूँ, सो चित्त स्थिर करके उसे सुनो। स्व और पर के अनुग्रह के लिये जो वस्तु दी जाती है, वही दान कहलाता है।
जो शक्ति, विज्ञान, श्रद्धा आदि गुणों से युक्त होता है वह दाता कहलाता है और जो वस्तु देने वाले तथा लेने वाले, दोनों के गुणों को बढ़ाती है उसे देय कहते हैं। ये देय आहार, औषधि, शास्त्र तथा समस्त प्राणियों पर दया करना, इस तरह से चार प्रकार का है, ऐसा श्री सर्वज्ञदेव ने कहा है अत: ये चारों ही शुद्ध देय हैं तथा क्रम से मोक्ष के साधन हैं। जो मोक्षमार्ग में स्थित हैं, अपने आपकी तथा दूसरों की संसार-भ्रमण से रक्षा करते हैं, वे पात्र कहलाते हैं। इससे अतिरिक्त माँस आदि पदार्थ देय नहीं हैं। इनकी इच्छा करने वाला पात्र नहीं है और इनका देने वाला दाता नहीं है। माँसादि वस्तु के पात्र और दाता ये दोनों तो नरक के अधिकारी हैं। कहने का सारांश यह है कि यह गिद्ध तो दान का पात्र नहीं है और कबूतर देने योग्य वस्तु नहीं है।
इस प्रकार से मेघरथ की वाणी सुनकर वह देव अपना असली रूप प्रगट कर राजा की स्तुति करने लगा और कहने लगा कि हे राजन्! तुम अवश्य ही दान के विभाग को जानने वाले दानशूर हो, ऐसी स्तुति करके वह चला गया। उन गिद्ध और कबूतर दोनों पक्षियों ने भी मेघरथ की कही सब बातें समझीं और आयु के अन्त में शरीर छोड़कर सुरूप तथा अतिरूप नाम के व्यंतर देव हो गये। तत्क्षण ही वे दोनों देव राजा मेघरथ के पास आकर स्तुति-वन्दना करके कहने लगे-हे पूज्य! आपके प्रसाद से ही हम दोनों कुयोनि से निकल सके हैं अत: आपका उपकार हमें सदा ही स्मरण करने योग्य है।
सुरेश- भइया नरेश! हमने तो एक दिन मन्दिर में कलेण्डर लगा हुआ देखा था जिसमें एक राजा कबूतर को एक पलड़े में बिठाकर और अपनी जाँघ का माँस काट-काटकर दूसरे पलड़े में रखकर वे गिद्ध को देने को तत्पर थे। किन्तु आप तो कह रहे हैं कि उन्होंने मात्र संबोधा, माँस नहीं दिया, सो इसमें कौन-सी बात सही है?
नरेश- सुरेश! मैंने तुम्हें यह इतिहास उत्तर पुराण के आधार पर सुनाया है अत: यह तो सही है, कलेण्डर सही नहीं है, क्योंकि जैन सिद्धान्त कभी भी किसी को माँस दान देकर खुश करने या स्वस्थ करने का विधान नहीं करता है और ये राजा मेघरथ इससे तीसरे भव में भगवान शान्तिनाथ हुए हैं।
‘‘‘सुरेश- अच्छा भइया! अब मैं स्वयं शास्त्रों का स्वाध्याय करूँगा जिससे कि सही जानकारी होती रहे।
*अरिहन्त शरणं - 9301860008*
*लक्ष्मणा साध्वी :-*
*(जीवन के छोटे बड़े सभी पापो की आलोचना करने के लिए दौड़ कर जाने का मन हो ऐसी शास्त्रीय घटना)*
*(आधारः महानिशीथ आगम)*
श्रमण भगवान महावीर देव कहते हैं गौतम स्वामी को....
हे गौतम ! जो आत्मा गीतार्थ नहीं बना है., यानि की जिसने छेदग्रन्थो
का बोध प्राप्त नहीं किया, अथवा तो ऐसे गीतार्थ को जो संपूर्ण समर्पित नहीं
हुआ है, वो भावशुद्धि को प्राप्त नहीं कर सकता है। और यदि भावों की शुद्धि नहीं हो, तो जीव मलिन-परिणाम वाला बनता है।
हे गौतम ! वे लक्ष्मणा साध्वीजी ! अगीतार्थता भरी हुई थी उनमें ! और गीतार्थ को संपूर्ण समर्पित भी नहीं थे, तो खुद के हृदय के अति-अति छोटे दोष के कारण भी दुःख की परंपरा को प्राप्त किया।
इसलिए गौतम! लक्ष्मणा साध्वीजी के उदाहरण को सभी जाने और
ये हकीकत समझे की यदि हम स्वयं गीतार्थ नहीं बने या ऐसे गीतार्थ को
मन-वचन-काया से समर्पित नहीं रहे, तो हमारा भी संसार बहुत-बहुत बढ़ सकता है।"
ऐसा समझकर सब गीतार्थ बने, और जब तक गीतार्थ नहीं बने, तब
तक गीतार्थ को समर्पित रहे, ऐसा बनकर खुद के मन को निर्मल बनाए, नये
दोषों का सेवन नहीं करे और यदि दोषों का सेवन हो जाय, तो उसे बराबर
समझकर, पश्चात्ताप करके, आलोचना करके, प्रायश्चित्त करके खुद के दोष को धो डाले।
गौतमस्वामी: प्रभु ! आप जिस लक्ष्मणा साध्वीजी की बात कर रहे हो, उस घटना को मैं नहीं जानता। अगीतिर्थिता के कारण उनकी मन की मलिनता क्या थी ? और दुःखों की कौन सी परंपरा उन्हें मिली ? वह मुझे बताएँगे।
प्रभुः पांच भरतक्षेत्र में और पांच ऐरावत क्षेत्र में उत्सर्पिणी काल में।
और अवसर्पिणीकाल में 24-24 तीर्थंकर होते हैं.... अनादिकाल से यहां
लोकव्यवस्था ही है, और अनंतकाल तक रहेगी।
यह जो चौबीसी चल रही है, उससे 80 चौबीसी पहले मेरे जैसे ही। चौबीसवें तीर्थंकर हुए थे।
इस तीर्थंकर के काल में एक जंबुदाडिमनाम का राजा था, उन्हें श्री नाम की पत्नी थी, उन्हें बहुत बेटे थे, परंतु बेटी नहीं थी। राजा-रानी को बेटी
की प्राप्ति की बहुत ही इच्छा थी, बहुत मेहनत भी की थी। पति के साथ बहुत
मन्नत भी मानी थी रानी ने ! देवों को, कुलदेवी को, चंद्र-सूर्यादि-
ज्योतिष देवो
को... किसी को भी बाकी नहीं रखा था।
परंतु हर एक काम काल पकता है, तब ही होता है और इन दोनों का यह
काल पका, एक सुंदर रूपवान बेटी को जन्म दिया श्री रानी ने !
नाम रखने में आया उसका लक्ष्मणा !
काल पसार होने में क्या समय लगता है ? लक्ष्मणा बनी युवती !
वह खुद का मनपसंद वर पा सके, इसके लिए समझदार माता-पिता ने
स्वयंवर की रचना की।
लक्ष्मणा ने मनोहर राजकुमार को पसंद किया। वरमाला पहनाई.
परंतु कर्मसत्ता कहाँ किसी की शर्म रखती है ?
लक्ष्मणा के हाथ से गले में पड़ी हुई वरमाला उस राजकुमार के लिए ।
मानो कि फांसी का फंदा बन गयी. उसी ही समय उसे भयंकर शूल उत्पन्न
हुआ या क्या हुआ ? परंतु धरती पर गिर पडा, मृत्यु हुई।
उम्र के कारण लक्ष्मणा को संसार सुखों की वासना तो थी ही, शादी
करने वाली युवतीयों को कैसे-कैसे स्वप्न होते हैं ? वह सब स्वप्न उसने भी
देखे थे, 'पति के साथ ऐसे करूँगी, वैसे करूंगी खाऊँगी-पीऊँगी- घुमूंगी-
संसारसुख भुगतूंगी...? ऐसे तो कितने ही सपने उसने देखे थे और मात्र
चौबीस घंटे में तो वे सभी स्वप्न पूरे ही होने वाले थे ।
परंतु पत्तों का महल और मनुष्यों की आशाएँ.
लगता है ? पाप कर्मों के उदय नाम की एक हवा की लहर की जरूरत है... इस आशामहल को टूटने में में कहाँ समय...
एकदम अचानक....
ऐसे गिरे हुए.... खुद के प्राणेश्वर पति को देखकर, उनकी मौत को
देखकर लक्ष्मणा का हृदय धड़कना बंद हो गया। आघात बेहद बन गया,
बेहोश होकर धरती पर गिर पड़ी लक्ष्मणा !
एक तरफ पति का शव, दूसरी तरफ शवतुल्य बनी हुई लक्ष्मणा !
मरे की चिंता करने के बदले जिंदा मनुष्य मर नहीं जाये, उसकी
संभाल ज्यादा लेना यह ही कल्याण है'यह सीधी बात समझने वाले स्वजनों
ने लक्ष्मणा के तरफ ध्यान दिया, पानी छांटा, हवा दी.. और थोड़ी ही देर में
लक्ष्मणा होश में आई।
परंतु होश में आते ही पति के मौत का ध्यान भी आया ।
रुदन करने लगी लक्ष्मणा !
आँसुओंकी बारीश (बरसात) बरसाने लगी लक्ष्मणा !
दो हाथों से छाती और सिर कूटने लगी लक्ष्मणा !
फिर भी आघात सहन नहीं हुआ, तो महल में चारों ओर पागल की
तरह दौड़ने लगी लक्ष्मणा!
दिवार-दिवार पर सिर पटकने लगी लक्ष्मणा !
लंबे, काले, सुकोमल बालों को दो हाथ से जोर-जोर से खींचने लगी लक्ष्मणा !
सिर फूटा, खून निकला तो भी होश भूल गई लक्ष्मणा !
बहुत लोग थे, बहुतो ने उसे पकड़ने का प्रयत्न किया, परंतु आघात के जोर के कारण एक भूतनी बन चुकी थी लक्ष्मणा !
परंतु समझ लो....
संसार में सुख या दुःख लंबे समय तक नहीं टिकता।
समय ही सुख-दुःख की सत्ता को पलटता है।
Time the last Doctor!
माता-पिता ने भाईयों ने, भाभीयों ने बहुत समझाया लक्ष्मणा को!
सबसे ज्यादा.... तो समझ आई काल-समय पर !
आखिर वह शांत हुई, अंतर में से आघात दूर तो नहीं हुआ, परंतु उसे पचाने की मेहनत करने लगी लक्ष्मणा !
शादी के दिन ही नहीं, शादी के समय ही विधवा बन जाय, यह कैसा
विचित्र कर्म ! बहुत भाईयों पर एक बहन के रूप में जन्म लिया था लक्ष्मणाने! इसलिए इतने लाड़-प्यार में परवरिश हुई थी कि उसने "दुःख"शब्द शायद
सुना भी नहीं था और इसलिए ही यह महाभयानक दुःख उसके लिए अती-अति महाभयानक बन गया था।
इस तरफ तीर्थंकर परमात्मा विहार करते-करते उसी ही नगरी में पधारे।
नगर के बाहर उद्यान में उनके समवसरण की रचना हुई।
राजा-रानी-बेटे-पुत्रबहुएँ और प्राणप्यारी विधवा बनी हुई लक्षणा सब ही प्रभु का उपदेश सुनने पहुँच गये।
प्रभु का पुण्यप्रभाव !
चौथे आरे का कालप्रभाव !
जीवों में पात्रता का प्रभाव !
सभी को दीक्षा के भाव हुए और सभी ने दीक्षा का स्वीकार किया, लक्ष्मणा ने भी !
जंबुदाडिम मुनि, श्री रानी, लक्ष्मणा..... सब ही सुंदर आराधना करने लगे, चारित्र परिणाम की मस्ती में मस्त रहने लगे । ममताभाव लुप्त हो गया था.... उग्र-कष्टदायी-दुष्कर घोर तप करने लगे।
एक दिन जंबुदाडिम मुनि को और उनके पुत्रमुनियों को प्रभु ने गणीपद के जोग
में प्रवेश करवाया। पात्र आत्माओं को उत्तम पदवी देनी ही चाहिए ना !
इस क्रिया में दूसरी सभी साध्वीजीयाँ तो गई, परंतु उस दिन लक्ष्मणासाध्वीजी अंतराय में थे, इसलिए वे वहाँ जा नहीं सकते थे,
असज्झाय गिनी जाती है न ?
लक्ष्मणासाध्वीजी उपाश्रय में एकांत स्थान में बैठे थे । वहाँ वह एक छोटी भूल कर बैठे, परंतु उनके लिए तो यह महाभयानक भूल साबित हुई।
कायगुप्ति साधुजीवन का प्राण है....
इन्द्रियसंवर साधुजीवन का प्राण है....
साध्वीजी को अंतराय के समय में आत्मचिंतन, अनुप्रेक्षा करनी चाहिए। यह साध्वीजी भी ऐसे तो करते ही होंगे, परंतु, सामान्य चंचल बने ।
उनकी आँखें अस्थिर बनी, आसपास नजर गई और उन्होंने एक दृश्य देखा।
एक पक्षी और एक पक्षिणी... एक दूसरे को प्रेम कर रहे थे.....
साध्वीजी देखते रहे...
सालों पहले की अतृप्त वासना जाग्रत हो गई....
संसार के सुखों की इच्छा थी, परंतु पति मर गये थे और वासना दब गई थी, फिर तो दीक्षा ली, परंतु ये संस्कार अभी भी खत्म नहीं हुए थे, जीवित थे वे...
धन्य है इन पक्षीयों को,
सफल है उनका जीवन...
उन्हें यह भोगसुख तो मिलते हैं..
यह चिड़ीया ! उस चिड़े को किस तरह चिपक रही है, उससे वह
चिड़ा कितना खुश हो रहा है। इन दोनों के गुप्तांगों का भी कैसा संग हुआ है वाह !वाह!
लक्ष्मणा को खुद को भी ध्यान नहीं रहा कि 'वह कैसे खराब विचारों
में पहुँच गई है...
उसका चिंतन आगे बढ़ा, 'परमात्मा ने चाहे हमें इस अब्रह्म की, भोग की छूट नहीं दी, परंतु कम से कम अब्रह्म भोगते स्त्री-पुरूष को देखने की तो छुट देनी ही चाहिए। यह देखने मे भी कैसी मजा आती है........
प्रभु ने तो हमें स्पष्ट मना कर दिया है कि मन से, वचन से, काया से किसी भी प्रकार का अब्रह्म का दर्शन भी नहीं करना।
मस्ती करते रसत्री-पुरूषों को भी देखना नहीं।
क्यों ? क्यों ऐसा कहा प्रभु ने ?
लगता है कि वह वीतराग है। इसलिए उन्हें अब्रह्म का आनंदक्या ?
और यह न मिले तो अतृप्तवासना की पीड़ा क्या, इसका अनुभव ही नहीं है।
आग का स्वभाव है कि जलाता है, परतु क्या उसे देखने मात्र से हम
थोड़े जल जाते हैं ? वैसे अब्रह्म का सेवन करते हैं, तो अपनी आत्मा को नुकसान होता है, परंतु मात्र उसे देखने से तो तकलीफ ही क्या है?
(मूवीज़ और मोबाईल में स्त्री-पुरूष का गंदा चित्र देखनेवाले, गंदे पोस्टर देखने वाले, गंदा पढ़नेवाले ऐसे ही मानते होंगे न? कि हम कहा उस
परस्त्री के साथ कुछ खराब काम कर रहे हैं, हम तो मात्र देख ही रहे हैं। और समाज ने भी ऐसा देखने में व्यभिचार कहाँ माना है ? इसकी छूट ही दी है न?
क्या किसी पत्नी ने मोबाईलादि पर स्त्री के गंदे फोटो देखने वाले पति पर
आरोप डाला है कि 'आप परर्त्री के साथ प्रेम में हो....)
अशुभ विचारों की धारा यहाँ तक चली। फिर रुक गई, वापस आत्मा
जागृत हुई और शुभ भाव के तरफ वापस फिरी।
अरेरे ! मैंने एकदम गलत सोचा, 100 प्रतिशत गलत सोचा । प्रभु ने
जो कहा है, वह बराबर सत्य ही है। 1 प्रतिशत भी उसमें फरक नहीं है। अरें,
मुझे ही अनुभव हो गया न, मैंने कहाँ अब्रह्म का सेवन किया है ? सिर्फ देखा
है, वह भी चिड़ा-चिड़ी का! फिर भी मेरे मन में कैसे विकार जगे, कैसा गंदा
बन गया मेरा मन !
प्रभु सत्य, सत्य, सत्य ही है....
अब्रह्म का सेवन तो दूर की बात, उसको, देख भी नहीं सकते।
पक्षीयों का या पशुओं का भी नहीं । मैं तो मनुष्यों के भी अब्रह्म सेवन को
देखने की इच्छा करने लगी थी।
अरे, अंदर तो मुझे भी इच्छा हो गई कि, मुझे भी एक पुरुष चाहिए,
मुझे उसके साथ Kiss, Hug से लेकर सब कुछ करना है, मैथुन सेवन करना
है....।
हे भगवान ! सपने में भी मुझे जो नहीं करना है, वह मैने आज जागृत
अवस्था में सोच लिया, एकदम गंदा ! एकदम गंदा।
मेरा जो पति बना था, बस ! उसके सिवाय पूरे जीवन के दौरान मैंने
एक भी पुरुष के लिए स्वप्न में भी छोटे भी विकार का सेवन किया नहीं था ।
महासती बनकर रही हुँ मैं !
और आज ? क्या सोचा मैंने ?
दुष्ट आचरणवाली बन गई मैं
पापी शीलवाली बन गई मैं
कमबख्त, दुर्भागी बन गई मैं
|अरे, मैने तीर्धकर प्रभु के लिए भी कैसे कैसे विचार किये । उनकी आसातना की मैंने, बीच-बीच में ऐसे अच्छे विचारों के साथ भी वापस अंत में सत्यानाश ही करने बैठ गयी लक्ष्मणा ।
विचार आगे बढ़े....
प्रभु सच्चे ही हैं, परंतु उन्होंने बताया हुआ यह
मोक्ष मार्ग, यह आचारमार्ग सब कठिन है । उसे धारण करके रखना यानि की पर्वत को उठाना...
कौन ऐसे आचारमार्ग को मन-वचन-काया से पालने के लिए समर्थ बनता है?
अरे, वचन-काया से तो एकबार पालन हो भी जाय, परतु मन से भी लेश भी विकार नहीं जगे, यह असंभव ही है। इसलिए ही मुझे भी विकार आ ही गये न! इसलिए मन के दोष तो लगेंगे ही..
इसमें ऐसा भी है कि हकीकत में तो खराब विचार आना ही मुश्किल है। मुझे कहाँ अभी तक खराब विचार आये हैं? एक बार खराब विचार आने के बाद, खराब वचन, खराब काया तो एकदम आसान है ।
इसलिए ही जो मन से कुशील बना, उसके बाद में वचन-काया से कुशील बन ही गया।
इसलिए, मैं आज कुशील बन गई।
अनजाने में, जल्दबाजी में मेरी यह भूल हो गई, खराब विचार आ गये, मैं प्रभु के पास इसकी आलोचना कर लूँ । प्रभु जो प्रायश्चित्त दे, वह
जल्दी से कर के शुद्ध बनू।
परंतु, परंतु परंतु......
जितनी शीलवती नारीयाँ हैं, उसमें मैं सर्वप्रथम गिनी जाती हूँ।
सिर्फ मनुष्यलोक में ही नहीं, परंतु स्वर्गलोक में भी मेरी श्रेष्ठ शीलवती के रूप में प्रसिद्धि है।
अरे, मैं रास्ते पर चलू ,तो मेरे चले जाने के बाद वहाँ की धूल लोग खुद
के सिर-आँखों पर लगाते हैं। लोगों को ऐसी श्रद्धा है कि इस महाशीलवती लक्ष्मणाजी के चरणों की धूल के स्पर्श से हमारे पाप खतम हो
जाएँगे, हम पवित्र बनेंगे...
अब यदि मैं प्रभु के पास मेरे मन के पापों को कहूँगी, तो मेरे पाप प्रगट हो जाएँगे, तो लोगों में मेरी इज्जत खत्म हो जाएगी । फिर कोई मुझे
स्वर्ग में याद नहीं करेंगे, फिर मेरा प्रथम नंबर नहीं रहेगा, फिर कोई मेरे चरणों की धूल नहीं लेंगे।
सभी अंदर ही अंदर सोचेंगे और बोलेंगे कि यह शीलवती नहीं है, इसे तो चिड़ा-चिड़ी के मैथुन को देखकर मैथुन की इच्छा हुई क्या करे
बिचारी ? विधवा हुई थी न ? कुछ सुख मिला नहीं था, इसलिए ऐसा ही होता है।
जब मेरे माताजी-पिताजी-भाईयों को पता चलेगा, तब वे भी कितने दुःखी होंगे न ?
यह चली अशुभ भावधारा....
परंतु वापस उसे एक मौका मिला....
नहीं, नहीं, इसमें क्या हुआ ? भूल तो सभी की होती है। मुझसे भी प्रमादवश भूल हो गई और वो भी मन से हुई है, मैंने वचन-काया से तो कोई पाप किया नहीं है। तो मेरे परिवार को पता चले तो भी वे इसमें किस कारण दुःखी होंगे ? उल्टा उन्हें मेरे लिए गर्व होगा ही कि लक्ष्मणा ने शुद्ध आलोचना की।
और निर्णय कर लिया लक्ष्मणा ने शुद्ध आलोचना करने का....
खड़ी हो गई लक्ष्मणा....
थोड़ा चलने गई लक्ष्मणा....
एक कांटा जोर से लक्ष्मणा के पैर में लगा....
धड़ाम' से धरती पर गिर गई लक्ष्मणा....
चंचल मन के चंचल विचारों का प्रवाह बदल गया...
"इस पूरे भव में मुझे कभी भी कांटा नहीं लगा और आज ही क्यों लगा ? तो अब क्या होगा ?"
हां ! अभी समझ में आया, चिड़ीया उस चिड़े के साथ मेथुन सेवन कर रही थी, उसकी मैंने अनुमोदना की । 'यह पाप है' यह जानने के
मन से उसे अच्छा माना। अब मुझे तो महाव्रत है, मैथुन का सेवन नही करना, ।
सेवन करवाना नहीं, कोई सेवन करता हो तो उसकी अनुमोदना नहीं करनी।
यह है मेरा व्रत शीलव्रत! परंतु मैने तो अनुमोदना कर दी, इसलिए मैंने तो |
शील की विराधना कर दी, मेरे शीलव्रत का भंग हो गया।
और स्पष्ट बात है कि,
मनुष्य चाहे बधिर हो, अंधा हो, गूंगा हो, कोढ रोग वाला हो, पूरा शरीर सड़ गया हो, तो भी यदि वह ब्रह्मचर्य का पालन करता है, तो देव भी
उसकी स्तवना करते हैं, परंतु यदि वह शीलव्रत का भंग करता है, तो देव भी उसे याद नहीं करते हैं।
मैंने तो शीलव्रत का भंग करके घोर पाप बांधा है।
इसका फल तो अतिभयानक होता है।
मुझे तो अभी सिर्फ पैर में एक कांटा ही लगा है, मुझे ज्यादा कुछ नुकसान हुआ नहीं है। इसलिए यह तो मुझे बड़ा लाभ हुआ है। शूली की
सजा सूई में खत्म हो गई।
बाकी तो माता ने मुझे कहा था कि 'बेटी ! स्त्री यदि शील का भंग करती है, तो वह सातों नरक में जाती है।"
मेरे सिर पर वज्र - लोहा नहीं पड़ा।
मेरे पर धूल की बारीश नहीं हुई है।
मेरे हृदय के सैकड़ों टुकड़े नहीं हो गये हैं...
यह ही एक बड़ा आश्चर्य है।
बाकी तो शीलभंग करने वाली मेरे पर ऐसे घोर दुःख टूट ही पड़े,
इसलिए मुझे मेरे इस मन के पाप की आलोचना तो करनी ही चाहिए।
इसमें मेरा परिवार भी दुःखी नहीं होगा, परंतु इतना तो सही कि लोग तो
बोलेंगे ही कि 'जंबुदाडिम जैसे राजमुनि की बेटी ने मन से ऐसा पाप
किया...... हाय !
इसमें मेरे माता-पिता का खराब दिखेगा । लोगों में उनकी निंदा-टीका होगी।
ये तो बराबर नहीं है। मेरे निमित्त से उनका खराब दिखे, वह नहीं चलेगा। परंतु इस तरह कहूँ कि, कोई साध्वी मन से ऐसा विचार करती है, तो
उसका क्या प्रायश्चित्त आएगा ? फिर प्रभु जो प्रायश्चित्त देंगे, वो मैं करूँगी।
इसमें मेरे माता-पिता का भी खराब नहीं लगेगा और मेरे पाप भी खतम हो जाएँगे।
मन को मना लिया लक्ष्मणा ने....
माता पिता की इज्जत के सच्चे या झूठे बहाने के नीचे खुद के छोटे
पाप को छुपाने का बहुत बड़ा पाप कर बैठी लक्ष्मणा !
गीतार्थ नहीं थी, इसलिए ध्यान नहीं रहा कि ऐसा उसे नहीं करना चाहिए था।
गीतार्थ को समर्पित भी नहीं थी, इसलिए प्रभु को पूछ कर प्रभु जैसा कहेंगे वैसा ही करने की सदबुद्धि भी नहीं आई लक्ष्मणा को !
अरे, आलोचना कहाँ जाहिर में करनी थी ?
वह तो एकांत में ही खुद के दोष प्रभु को बोल सकती थी न?
फिर किसे पता चलने वाला था दूसरे लोगों को ?
क्यों इतनी बुद्धि भी नहीं आइ लक्ष्मणा को ?
परंतु, विनाशकाले विपरीतबुद्धि....
खुद के साथ ही चालबाजी की लक्ष्मणा ने !
शास्त्र बोध नहीं होने से महाभयंकर नुकसान का बीज आत्मा में बो दिया लक्ष्मणा ने !
सोचती है लक्ष्मणा......
भगवान जो प्रायश्चित्त कहेंगे, वह तो मैं बराबर करूँगी ही, यदि प्रभु ।
ने बताया हुआ प्रायश्चित्त नहीं करूँगी तो, मेरा पाप नहीं धुलेगा।
नहीं समझ सकी लक्ष्मणा कि सरल बनकर सीधे ही यदि खुद का पाप कह दिया होता, तो सामान्य प्रायश्चित्त ही आता।
परंतु उसे कहाँ प्रायश्चित्त का डर था ?
उसे तो खुद की इज्जत का, माता-पिता की इज्जत का भय था।
लक्ष्मणा गई प्रभु के पास....
प्रभु ! कोई साध्वीजी पक्षी के मैथुन को देखकर मन से उसकी अनुमोदना करती है, तो उसे क्या प्रायश्चित्त आएगा ?' पूछ लिया लक्ष्मणा
ने......
प्रभु ने तो प्रश्न के अनुसार उत्तर दे दिया।
प्रभु ने लक्ष्मणा को उपदेश नहीं दिया, माया-कपट छोड़ने का नहीं कहाँ....तूने ही ये पाप किया है' ऐसा नहीं कहा.....
अपात्र आत्मा को प्रभु उपदेश नहीं देते....
कितना प्रायश्चित्त किया लक्ष्मणा ने, पता है ?
सुनो
(1) 10 साल: 2 उपवास + पारणा + 3 उपवास + पारणा + 4 उपवास + पारणा + 5 उपवास + पारणा.... इस तरह लगातार 10 साल.....
(2) 16 साल: मासक्षमण
(16 x 12 = 192 मासक्षमण + 192 पारणा)
(3) 4 सालः सेके हुए चने....
(4) 20 साल: आयंबिल..
(360 x 20 = 7200 आयंबिल)
भिक्षा में संपूर्ण निर्दोष गोचरी ही लाकर वापरी लक्ष्मणा ने..
इस 50 साल में खुद के प्रतिक्रमणादि अनुष्ठानों में लेश भी प्रमाद
नहीं किया लक्ष्मणा ने ! स्वाध्याय + विहार + प्रतिक्रमण + प्रतिलेखन +
वैयावच्च + महाव्रत पालन + दस सामाचारी + अष्टप्रवचन माता + दस यति
धर्म. किसी में कमी नहीं रखी।
बस, एक ही कमी रह गई, खुद के छोटे पाप को छुपाने की !
प्रसन्न मन के साथ प्रायश्चित्त का आचरण किया।
अंतसमय आ गया उसका.....
परंतु वापस भयानक मानसिक भूल कर दी लक्ष्मणा ने....
'मैंने इतना घोर तप किया, इतना घोर प्रायश्चित्त किया, परंतु मैंने किसका प्रायश्चित्त किया ? मैथुन का ? नहीं। वह तो मैंने किया ही नहीं, मैंने
तो चिड़ा-चिड़िया के मैथुन की सिर्फ अनुमोदना ही की है । उसका इतना प्रायश्चित्त थोड़ी होता है ?
अरे, उसके बदले मैने किसी पुरूष के साथ मैथुन सेवन कर लिया होता तो ?
एक बार तो मुझे वह सुख अनुभव करने मिल जाता, उसके बाद यह प्रायश्चित किया होता तो....
यह तो सुख भोगने भी नहीं मिला और प्रायश्चित्त भी कर लिया।
हे भगवान !
अंदर पड़े हुए वासना के संस्कार अंत में वापस परेशान करने के लिए आ गये, हकीकत में, तो जो उसने प्रभु के पास सरल बनकर पाप का स्वीकार नहीं किया, इस पाप ने ही शायद उन्हें ऐसी दुर्बुद्धि करवाई हो ।
मैथुन की इच्छा !
मैथुन न सेवने का पश्चात्ताप.....
मैथुन बिना ही प्रायश्चित्त करने का पश्चात्ताप....
ऐसे भाव हृदय में चल रहे थे....
और लक्ष्मणा साध्वीजी का काल धर्म हुआ।
ध्यान में लेना है हमें...
कितना पाप लक्ष्मणा का.... कितना पाप अपना....?
कितना फल लक्ष्मणा को.....तो कितना फल हमें ?
अगर शुद्ध आलोचना, शुद्ध प्रायश्चित्त नहीं करेगे, तो क्या होगा?
इसके लिए ही जरूरी है सम्यक् शास्त्रबोध की !
इसके लिए ही जरूरी है सद्गुरू के प्रति संपूर्ण समर्पणभाव की! ।
पोस्ट लिखने में कहीं शब्दों की गलती हुई हो तो मिच्छामी दुक्कड़म
मेरी बहन:- दीपेश रेखा श्री जी महाराज द्वारा उपलब्ध कराई गई पुस्तक" लक्ष्मणा" से लिखी है जिसके लेखक युग प्रधान आचार्य परम पूज्य चंद्रशेखर विजय जी महाराज साहेब है0
सुरेश - भइया नरेश! जिसको जो चीज अच्छी लगे उसको वह चीज दे देना, यही तो दान है?
नरेश - नहीं, नहीं, तुम्हें यह किसने बताया है कि किसी की रुचि की वस्तु देना दान है। हाँ, जिसके देने से अपना और लेने वाले का दोनों का हित होता है वही दान है। सुनो, मैं तुम्हें एक छोटी-सी कथा सुनाता हूँ।
पूर्व विदेह के पुष्कलावती देश में पुंडरीकिणी नाम की नगरी है। किसी समय वहाँ पर राजा मेघरथ राज्य करते थे। एक दिन वे आष्टाह्निक पर्व में उपवास करते हुए महापूजा करके जैनधर्म का उपदेश दे रहे थे कि इतने में काँपता हुआ एक कबूतर वहाँ आया और पीछे बड़े ही वेग से एक गिद्ध आया। कबूतर राजा के पास बैठ गया। तब गिद्ध ने कहा-‘‘राजन्! मैं अत्यधिक भूख की वेदना से आकुल हो रहा हूँ, अत: आप यह कबूतर मुझे दे दीजिये। हे दानवीर! यदि आप यह कबूतर मुझे नहीं देंगे तो मेरे प्राण अभी आपके सामने ही निकल जायेंगे।’’ मनुष्य की वाणी में गिद्ध को बोलते देखकर युवराज दृढ़रथ ने पूछा-‘‘हे देव! कहिये इस गिद्ध पक्षी के बोलने में क्या रहस्य है?’’ राजा मेघरथ ने कहा, सुनो- इस जम्बूद्वीप के ऐरावत क्षेत्र में पद्मिनी खेट नाम का एक नगर है। वहाँ के धनमित्र और नन्दिषेण नाम के दो भाई धन के निमित्त से आपस में लड़कर मर गये, सो ये कबूतर और गिद्ध पक्षी हो गये हैं। इस गिद्ध के शरीर में देव आ गया है सो यह ऐसे बोल रहा है। वह कौन है? सो भी सुनो-
ईशानेन्द्र ने अपनी सभा में मेरी स्तुति करते हुए यह कहा कि पृथ्वी पर मेघरथ से बढ़कर दूसरा कोई दाता नहीं है। मेरी ऐसी स्तुति सुनकर परीक्षा करने के लिये एक देव वहाँ से आकर इसके शरीर में प्रविष्ट होकर बोल रहा है। किन्तु हे भाई! दान का लक्षण आप सभी को मैं समझाता हूँ, सो चित्त स्थिर करके उसे सुनो। स्व और पर के अनुग्रह के लिये जो वस्तु दी जाती है, वही दान कहलाता है।
जो शक्ति, विज्ञान, श्रद्धा आदि गुणों से युक्त होता है वह दाता कहलाता है और जो वस्तु देने वाले तथा लेने वाले, दोनों के गुणों को बढ़ाती है उसे देय कहते हैं। ये देय आहार, औषधि, शास्त्र तथा समस्त प्राणियों पर दया करना, इस तरह से चार प्रकार का है, ऐसा श्री सर्वज्ञदेव ने कहा है अत: ये चारों ही शुद्ध देय हैं तथा क्रम से मोक्ष के साधन हैं। जो मोक्षमार्ग में स्थित हैं, अपने आपकी तथा दूसरों की संसार-भ्रमण से रक्षा करते हैं, वे पात्र कहलाते हैं। इससे अतिरिक्त माँस आदि पदार्थ देय नहीं हैं। इनकी इच्छा करने वाला पात्र नहीं है और इनका देने वाला दाता नहीं है। माँसादि वस्तु के पात्र और दाता ये दोनों तो नरक के अधिकारी हैं। कहने का सारांश यह है कि यह गिद्ध तो दान का पात्र नहीं है और कबूतर देने योग्य वस्तु नहीं है।
इस प्रकार से मेघरथ की वाणी सुनकर वह देव अपना असली रूप प्रगट कर राजा की स्तुति करने लगा और कहने लगा कि हे राजन्! तुम अवश्य ही दान के विभाग को जानने वाले दानशूर हो, ऐसी स्तुति करके वह चला गया। उन गिद्ध और कबूतर दोनों पक्षियों ने भी मेघरथ की कही सब बातें समझीं और आयु के अन्त में शरीर छोड़कर सुरूप तथा अतिरूप नाम के व्यंतर देव हो गये। तत्क्षण ही वे दोनों देव राजा मेघरथ के पास आकर स्तुति-वन्दना करके कहने लगे-हे पूज्य! आपके प्रसाद से ही हम दोनों कुयोनि से निकल सके हैं अत: आपका उपकार हमें सदा ही स्मरण करने योग्य है।
सुरेश- भइया नरेश! हमने तो एक दिन मन्दिर में कलेण्डर लगा हुआ देखा था जिसमें एक राजा कबूतर को एक पलड़े में बिठाकर और अपनी जाँघ का माँस काट-काटकर दूसरे पलड़े में रखकर वे गिद्ध को देने को तत्पर थे। किन्तु आप तो कह रहे हैं कि उन्होंने मात्र संबोधा, माँस नहीं दिया, सो इसमें कौन-सी बात सही है?
नरेश- सुरेश! मैंने तुम्हें यह इतिहास उत्तर पुराण के आधार पर सुनाया है अत: यह तो सही है, कलेण्डर सही नहीं है, क्योंकि जैन सिद्धान्त कभी भी किसी को माँस दान देकर खुश करने या स्वस्थ करने का विधान नहीं करता है और ये राजा मेघरथ इससे तीसरे भव में भगवान शान्तिनाथ हुए हैं।
‘‘‘सुरेश- अच्छा भइया! अब मैं स्वयं शास्त्रों का स्वाध्याय करूँगा जिससे कि सही जानकारी होती रहे।
*अरिहन्त शरणं - 9301860008*
*लक्ष्मणा साध्वी :-*
*(जीवन के छोटे बड़े सभी पापो की आलोचना करने के लिए दौड़ कर जाने का मन हो ऐसी शास्त्रीय घटना)*
*(आधारः महानिशीथ आगम)*
श्रमण भगवान महावीर देव कहते हैं गौतम स्वामी को....
हे गौतम ! जो आत्मा गीतार्थ नहीं बना है., यानि की जिसने छेदग्रन्थो
का बोध प्राप्त नहीं किया, अथवा तो ऐसे गीतार्थ को जो संपूर्ण समर्पित नहीं
हुआ है, वो भावशुद्धि को प्राप्त नहीं कर सकता है। और यदि भावों की शुद्धि नहीं हो, तो जीव मलिन-परिणाम वाला बनता है।
हे गौतम ! वे लक्ष्मणा साध्वीजी ! अगीतार्थता भरी हुई थी उनमें ! और गीतार्थ को संपूर्ण समर्पित भी नहीं थे, तो खुद के हृदय के अति-अति छोटे दोष के कारण भी दुःख की परंपरा को प्राप्त किया।
इसलिए गौतम! लक्ष्मणा साध्वीजी के उदाहरण को सभी जाने और
ये हकीकत समझे की यदि हम स्वयं गीतार्थ नहीं बने या ऐसे गीतार्थ को
मन-वचन-काया से समर्पित नहीं रहे, तो हमारा भी संसार बहुत-बहुत बढ़ सकता है।"
ऐसा समझकर सब गीतार्थ बने, और जब तक गीतार्थ नहीं बने, तब
तक गीतार्थ को समर्पित रहे, ऐसा बनकर खुद के मन को निर्मल बनाए, नये
दोषों का सेवन नहीं करे और यदि दोषों का सेवन हो जाय, तो उसे बराबर
समझकर, पश्चात्ताप करके, आलोचना करके, प्रायश्चित्त करके खुद के दोष को धो डाले।
गौतमस्वामी: प्रभु ! आप जिस लक्ष्मणा साध्वीजी की बात कर रहे हो, उस घटना को मैं नहीं जानता। अगीतिर्थिता के कारण उनकी मन की मलिनता क्या थी ? और दुःखों की कौन सी परंपरा उन्हें मिली ? वह मुझे बताएँगे।
प्रभुः पांच भरतक्षेत्र में और पांच ऐरावत क्षेत्र में उत्सर्पिणी काल में।
और अवसर्पिणीकाल में 24-24 तीर्थंकर होते हैं.... अनादिकाल से यहां
लोकव्यवस्था ही है, और अनंतकाल तक रहेगी।
यह जो चौबीसी चल रही है, उससे 80 चौबीसी पहले मेरे जैसे ही। चौबीसवें तीर्थंकर हुए थे।
इस तीर्थंकर के काल में एक जंबुदाडिमनाम का राजा था, उन्हें श्री नाम की पत्नी थी, उन्हें बहुत बेटे थे, परंतु बेटी नहीं थी। राजा-रानी को बेटी
की प्राप्ति की बहुत ही इच्छा थी, बहुत मेहनत भी की थी। पति के साथ बहुत
मन्नत भी मानी थी रानी ने ! देवों को, कुलदेवी को, चंद्र-सूर्यादि-
ज्योतिष देवो
को... किसी को भी बाकी नहीं रखा था।
परंतु हर एक काम काल पकता है, तब ही होता है और इन दोनों का यह
काल पका, एक सुंदर रूपवान बेटी को जन्म दिया श्री रानी ने !
नाम रखने में आया उसका लक्ष्मणा !
काल पसार होने में क्या समय लगता है ? लक्ष्मणा बनी युवती !
वह खुद का मनपसंद वर पा सके, इसके लिए समझदार माता-पिता ने
स्वयंवर की रचना की।
लक्ष्मणा ने मनोहर राजकुमार को पसंद किया। वरमाला पहनाई.
परंतु कर्मसत्ता कहाँ किसी की शर्म रखती है ?
लक्ष्मणा के हाथ से गले में पड़ी हुई वरमाला उस राजकुमार के लिए ।
मानो कि फांसी का फंदा बन गयी. उसी ही समय उसे भयंकर शूल उत्पन्न
हुआ या क्या हुआ ? परंतु धरती पर गिर पडा, मृत्यु हुई।
उम्र के कारण लक्ष्मणा को संसार सुखों की वासना तो थी ही, शादी
करने वाली युवतीयों को कैसे-कैसे स्वप्न होते हैं ? वह सब स्वप्न उसने भी
देखे थे, 'पति के साथ ऐसे करूँगी, वैसे करूंगी खाऊँगी-पीऊँगी- घुमूंगी-
संसारसुख भुगतूंगी...? ऐसे तो कितने ही सपने उसने देखे थे और मात्र
चौबीस घंटे में तो वे सभी स्वप्न पूरे ही होने वाले थे ।
परंतु पत्तों का महल और मनुष्यों की आशाएँ.
लगता है ? पाप कर्मों के उदय नाम की एक हवा की लहर की जरूरत है... इस आशामहल को टूटने में में कहाँ समय...
एकदम अचानक....
ऐसे गिरे हुए.... खुद के प्राणेश्वर पति को देखकर, उनकी मौत को
देखकर लक्ष्मणा का हृदय धड़कना बंद हो गया। आघात बेहद बन गया,
बेहोश होकर धरती पर गिर पड़ी लक्ष्मणा !
एक तरफ पति का शव, दूसरी तरफ शवतुल्य बनी हुई लक्ष्मणा !
मरे की चिंता करने के बदले जिंदा मनुष्य मर नहीं जाये, उसकी
संभाल ज्यादा लेना यह ही कल्याण है'यह सीधी बात समझने वाले स्वजनों
ने लक्ष्मणा के तरफ ध्यान दिया, पानी छांटा, हवा दी.. और थोड़ी ही देर में
लक्ष्मणा होश में आई।
परंतु होश में आते ही पति के मौत का ध्यान भी आया ।
रुदन करने लगी लक्ष्मणा !
आँसुओंकी बारीश (बरसात) बरसाने लगी लक्ष्मणा !
दो हाथों से छाती और सिर कूटने लगी लक्ष्मणा !
फिर भी आघात सहन नहीं हुआ, तो महल में चारों ओर पागल की
तरह दौड़ने लगी लक्ष्मणा!
दिवार-दिवार पर सिर पटकने लगी लक्ष्मणा !
लंबे, काले, सुकोमल बालों को दो हाथ से जोर-जोर से खींचने लगी लक्ष्मणा !
सिर फूटा, खून निकला तो भी होश भूल गई लक्ष्मणा !
बहुत लोग थे, बहुतो ने उसे पकड़ने का प्रयत्न किया, परंतु आघात के जोर के कारण एक भूतनी बन चुकी थी लक्ष्मणा !
परंतु समझ लो....
संसार में सुख या दुःख लंबे समय तक नहीं टिकता।
समय ही सुख-दुःख की सत्ता को पलटता है।
Time the last Doctor!
माता-पिता ने भाईयों ने, भाभीयों ने बहुत समझाया लक्ष्मणा को!
सबसे ज्यादा.... तो समझ आई काल-समय पर !
आखिर वह शांत हुई, अंतर में से आघात दूर तो नहीं हुआ, परंतु उसे पचाने की मेहनत करने लगी लक्ष्मणा !
शादी के दिन ही नहीं, शादी के समय ही विधवा बन जाय, यह कैसा
विचित्र कर्म ! बहुत भाईयों पर एक बहन के रूप में जन्म लिया था लक्ष्मणाने! इसलिए इतने लाड़-प्यार में परवरिश हुई थी कि उसने "दुःख"शब्द शायद
सुना भी नहीं था और इसलिए ही यह महाभयानक दुःख उसके लिए अती-अति महाभयानक बन गया था।
इस तरफ तीर्थंकर परमात्मा विहार करते-करते उसी ही नगरी में पधारे।
नगर के बाहर उद्यान में उनके समवसरण की रचना हुई।
राजा-रानी-बेटे-पुत्रबहुएँ और प्राणप्यारी विधवा बनी हुई लक्षणा सब ही प्रभु का उपदेश सुनने पहुँच गये।
प्रभु का पुण्यप्रभाव !
चौथे आरे का कालप्रभाव !
जीवों में पात्रता का प्रभाव !
सभी को दीक्षा के भाव हुए और सभी ने दीक्षा का स्वीकार किया, लक्ष्मणा ने भी !
जंबुदाडिम मुनि, श्री रानी, लक्ष्मणा..... सब ही सुंदर आराधना करने लगे, चारित्र परिणाम की मस्ती में मस्त रहने लगे । ममताभाव लुप्त हो गया था.... उग्र-कष्टदायी-दुष्कर घोर तप करने लगे।
एक दिन जंबुदाडिम मुनि को और उनके पुत्रमुनियों को प्रभु ने गणीपद के जोग
में प्रवेश करवाया। पात्र आत्माओं को उत्तम पदवी देनी ही चाहिए ना !
इस क्रिया में दूसरी सभी साध्वीजीयाँ तो गई, परंतु उस दिन लक्ष्मणासाध्वीजी अंतराय में थे, इसलिए वे वहाँ जा नहीं सकते थे,
असज्झाय गिनी जाती है न ?
लक्ष्मणासाध्वीजी उपाश्रय में एकांत स्थान में बैठे थे । वहाँ वह एक छोटी भूल कर बैठे, परंतु उनके लिए तो यह महाभयानक भूल साबित हुई।
कायगुप्ति साधुजीवन का प्राण है....
इन्द्रियसंवर साधुजीवन का प्राण है....
साध्वीजी को अंतराय के समय में आत्मचिंतन, अनुप्रेक्षा करनी चाहिए। यह साध्वीजी भी ऐसे तो करते ही होंगे, परंतु, सामान्य चंचल बने ।
उनकी आँखें अस्थिर बनी, आसपास नजर गई और उन्होंने एक दृश्य देखा।
एक पक्षी और एक पक्षिणी... एक दूसरे को प्रेम कर रहे थे.....
साध्वीजी देखते रहे...
सालों पहले की अतृप्त वासना जाग्रत हो गई....
संसार के सुखों की इच्छा थी, परंतु पति मर गये थे और वासना दब गई थी, फिर तो दीक्षा ली, परंतु ये संस्कार अभी भी खत्म नहीं हुए थे, जीवित थे वे...
धन्य है इन पक्षीयों को,
सफल है उनका जीवन...
उन्हें यह भोगसुख तो मिलते हैं..
यह चिड़ीया ! उस चिड़े को किस तरह चिपक रही है, उससे वह
चिड़ा कितना खुश हो रहा है। इन दोनों के गुप्तांगों का भी कैसा संग हुआ है वाह !वाह!
लक्ष्मणा को खुद को भी ध्यान नहीं रहा कि 'वह कैसे खराब विचारों
में पहुँच गई है...
उसका चिंतन आगे बढ़ा, 'परमात्मा ने चाहे हमें इस अब्रह्म की, भोग की छूट नहीं दी, परंतु कम से कम अब्रह्म भोगते स्त्री-पुरूष को देखने की तो छुट देनी ही चाहिए। यह देखने मे भी कैसी मजा आती है........
प्रभु ने तो हमें स्पष्ट मना कर दिया है कि मन से, वचन से, काया से किसी भी प्रकार का अब्रह्म का दर्शन भी नहीं करना।
मस्ती करते रसत्री-पुरूषों को भी देखना नहीं।
क्यों ? क्यों ऐसा कहा प्रभु ने ?
लगता है कि वह वीतराग है। इसलिए उन्हें अब्रह्म का आनंदक्या ?
और यह न मिले तो अतृप्तवासना की पीड़ा क्या, इसका अनुभव ही नहीं है।
आग का स्वभाव है कि जलाता है, परतु क्या उसे देखने मात्र से हम
थोड़े जल जाते हैं ? वैसे अब्रह्म का सेवन करते हैं, तो अपनी आत्मा को नुकसान होता है, परंतु मात्र उसे देखने से तो तकलीफ ही क्या है?
(मूवीज़ और मोबाईल में स्त्री-पुरूष का गंदा चित्र देखनेवाले, गंदे पोस्टर देखने वाले, गंदा पढ़नेवाले ऐसे ही मानते होंगे न? कि हम कहा उस
परस्त्री के साथ कुछ खराब काम कर रहे हैं, हम तो मात्र देख ही रहे हैं। और समाज ने भी ऐसा देखने में व्यभिचार कहाँ माना है ? इसकी छूट ही दी है न?
क्या किसी पत्नी ने मोबाईलादि पर स्त्री के गंदे फोटो देखने वाले पति पर
आरोप डाला है कि 'आप परर्त्री के साथ प्रेम में हो....)
अशुभ विचारों की धारा यहाँ तक चली। फिर रुक गई, वापस आत्मा
जागृत हुई और शुभ भाव के तरफ वापस फिरी।
अरेरे ! मैंने एकदम गलत सोचा, 100 प्रतिशत गलत सोचा । प्रभु ने
जो कहा है, वह बराबर सत्य ही है। 1 प्रतिशत भी उसमें फरक नहीं है। अरें,
मुझे ही अनुभव हो गया न, मैंने कहाँ अब्रह्म का सेवन किया है ? सिर्फ देखा
है, वह भी चिड़ा-चिड़ी का! फिर भी मेरे मन में कैसे विकार जगे, कैसा गंदा
बन गया मेरा मन !
प्रभु सत्य, सत्य, सत्य ही है....
अब्रह्म का सेवन तो दूर की बात, उसको, देख भी नहीं सकते।
पक्षीयों का या पशुओं का भी नहीं । मैं तो मनुष्यों के भी अब्रह्म सेवन को
देखने की इच्छा करने लगी थी।
अरे, अंदर तो मुझे भी इच्छा हो गई कि, मुझे भी एक पुरुष चाहिए,
मुझे उसके साथ Kiss, Hug से लेकर सब कुछ करना है, मैथुन सेवन करना
है....।
हे भगवान ! सपने में भी मुझे जो नहीं करना है, वह मैने आज जागृत
अवस्था में सोच लिया, एकदम गंदा ! एकदम गंदा।
मेरा जो पति बना था, बस ! उसके सिवाय पूरे जीवन के दौरान मैंने
एक भी पुरुष के लिए स्वप्न में भी छोटे भी विकार का सेवन किया नहीं था ।
महासती बनकर रही हुँ मैं !
और आज ? क्या सोचा मैंने ?
दुष्ट आचरणवाली बन गई मैं
पापी शीलवाली बन गई मैं
कमबख्त, दुर्भागी बन गई मैं
|अरे, मैने तीर्धकर प्रभु के लिए भी कैसे कैसे विचार किये । उनकी आसातना की मैंने, बीच-बीच में ऐसे अच्छे विचारों के साथ भी वापस अंत में सत्यानाश ही करने बैठ गयी लक्ष्मणा ।
विचार आगे बढ़े....
प्रभु सच्चे ही हैं, परंतु उन्होंने बताया हुआ यह
मोक्ष मार्ग, यह आचारमार्ग सब कठिन है । उसे धारण करके रखना यानि की पर्वत को उठाना...
कौन ऐसे आचारमार्ग को मन-वचन-काया से पालने के लिए समर्थ बनता है?
अरे, वचन-काया से तो एकबार पालन हो भी जाय, परतु मन से भी लेश भी विकार नहीं जगे, यह असंभव ही है। इसलिए ही मुझे भी विकार आ ही गये न! इसलिए मन के दोष तो लगेंगे ही..
इसमें ऐसा भी है कि हकीकत में तो खराब विचार आना ही मुश्किल है। मुझे कहाँ अभी तक खराब विचार आये हैं? एक बार खराब विचार आने के बाद, खराब वचन, खराब काया तो एकदम आसान है ।
इसलिए ही जो मन से कुशील बना, उसके बाद में वचन-काया से कुशील बन ही गया।
इसलिए, मैं आज कुशील बन गई।
अनजाने में, जल्दबाजी में मेरी यह भूल हो गई, खराब विचार आ गये, मैं प्रभु के पास इसकी आलोचना कर लूँ । प्रभु जो प्रायश्चित्त दे, वह
जल्दी से कर के शुद्ध बनू।
परंतु, परंतु परंतु......
जितनी शीलवती नारीयाँ हैं, उसमें मैं सर्वप्रथम गिनी जाती हूँ।
सिर्फ मनुष्यलोक में ही नहीं, परंतु स्वर्गलोक में भी मेरी श्रेष्ठ शीलवती के रूप में प्रसिद्धि है।
अरे, मैं रास्ते पर चलू ,तो मेरे चले जाने के बाद वहाँ की धूल लोग खुद
के सिर-आँखों पर लगाते हैं। लोगों को ऐसी श्रद्धा है कि इस महाशीलवती लक्ष्मणाजी के चरणों की धूल के स्पर्श से हमारे पाप खतम हो
जाएँगे, हम पवित्र बनेंगे...
अब यदि मैं प्रभु के पास मेरे मन के पापों को कहूँगी, तो मेरे पाप प्रगट हो जाएँगे, तो लोगों में मेरी इज्जत खत्म हो जाएगी । फिर कोई मुझे
स्वर्ग में याद नहीं करेंगे, फिर मेरा प्रथम नंबर नहीं रहेगा, फिर कोई मेरे चरणों की धूल नहीं लेंगे।
सभी अंदर ही अंदर सोचेंगे और बोलेंगे कि यह शीलवती नहीं है, इसे तो चिड़ा-चिड़ी के मैथुन को देखकर मैथुन की इच्छा हुई क्या करे
बिचारी ? विधवा हुई थी न ? कुछ सुख मिला नहीं था, इसलिए ऐसा ही होता है।
जब मेरे माताजी-पिताजी-भाईयों को पता चलेगा, तब वे भी कितने दुःखी होंगे न ?
यह चली अशुभ भावधारा....
परंतु वापस उसे एक मौका मिला....
नहीं, नहीं, इसमें क्या हुआ ? भूल तो सभी की होती है। मुझसे भी प्रमादवश भूल हो गई और वो भी मन से हुई है, मैंने वचन-काया से तो कोई पाप किया नहीं है। तो मेरे परिवार को पता चले तो भी वे इसमें किस कारण दुःखी होंगे ? उल्टा उन्हें मेरे लिए गर्व होगा ही कि लक्ष्मणा ने शुद्ध आलोचना की।
और निर्णय कर लिया लक्ष्मणा ने शुद्ध आलोचना करने का....
खड़ी हो गई लक्ष्मणा....
थोड़ा चलने गई लक्ष्मणा....
एक कांटा जोर से लक्ष्मणा के पैर में लगा....
धड़ाम' से धरती पर गिर गई लक्ष्मणा....
चंचल मन के चंचल विचारों का प्रवाह बदल गया...
"इस पूरे भव में मुझे कभी भी कांटा नहीं लगा और आज ही क्यों लगा ? तो अब क्या होगा ?"
हां ! अभी समझ में आया, चिड़ीया उस चिड़े के साथ मेथुन सेवन कर रही थी, उसकी मैंने अनुमोदना की । 'यह पाप है' यह जानने के
मन से उसे अच्छा माना। अब मुझे तो महाव्रत है, मैथुन का सेवन नही करना, ।
सेवन करवाना नहीं, कोई सेवन करता हो तो उसकी अनुमोदना नहीं करनी।
यह है मेरा व्रत शीलव्रत! परंतु मैने तो अनुमोदना कर दी, इसलिए मैंने तो |
शील की विराधना कर दी, मेरे शीलव्रत का भंग हो गया।
और स्पष्ट बात है कि,
मनुष्य चाहे बधिर हो, अंधा हो, गूंगा हो, कोढ रोग वाला हो, पूरा शरीर सड़ गया हो, तो भी यदि वह ब्रह्मचर्य का पालन करता है, तो देव भी
उसकी स्तवना करते हैं, परंतु यदि वह शीलव्रत का भंग करता है, तो देव भी उसे याद नहीं करते हैं।
मैंने तो शीलव्रत का भंग करके घोर पाप बांधा है।
इसका फल तो अतिभयानक होता है।
मुझे तो अभी सिर्फ पैर में एक कांटा ही लगा है, मुझे ज्यादा कुछ नुकसान हुआ नहीं है। इसलिए यह तो मुझे बड़ा लाभ हुआ है। शूली की
सजा सूई में खत्म हो गई।
बाकी तो माता ने मुझे कहा था कि 'बेटी ! स्त्री यदि शील का भंग करती है, तो वह सातों नरक में जाती है।"
मेरे सिर पर वज्र - लोहा नहीं पड़ा।
मेरे पर धूल की बारीश नहीं हुई है।
मेरे हृदय के सैकड़ों टुकड़े नहीं हो गये हैं...
यह ही एक बड़ा आश्चर्य है।
बाकी तो शीलभंग करने वाली मेरे पर ऐसे घोर दुःख टूट ही पड़े,
इसलिए मुझे मेरे इस मन के पाप की आलोचना तो करनी ही चाहिए।
इसमें मेरा परिवार भी दुःखी नहीं होगा, परंतु इतना तो सही कि लोग तो
बोलेंगे ही कि 'जंबुदाडिम जैसे राजमुनि की बेटी ने मन से ऐसा पाप
किया...... हाय !
इसमें मेरे माता-पिता का खराब दिखेगा । लोगों में उनकी निंदा-टीका होगी।
ये तो बराबर नहीं है। मेरे निमित्त से उनका खराब दिखे, वह नहीं चलेगा। परंतु इस तरह कहूँ कि, कोई साध्वी मन से ऐसा विचार करती है, तो
उसका क्या प्रायश्चित्त आएगा ? फिर प्रभु जो प्रायश्चित्त देंगे, वो मैं करूँगी।
इसमें मेरे माता-पिता का भी खराब नहीं लगेगा और मेरे पाप भी खतम हो जाएँगे।
मन को मना लिया लक्ष्मणा ने....
माता पिता की इज्जत के सच्चे या झूठे बहाने के नीचे खुद के छोटे
पाप को छुपाने का बहुत बड़ा पाप कर बैठी लक्ष्मणा !
गीतार्थ नहीं थी, इसलिए ध्यान नहीं रहा कि ऐसा उसे नहीं करना चाहिए था।
गीतार्थ को समर्पित भी नहीं थी, इसलिए प्रभु को पूछ कर प्रभु जैसा कहेंगे वैसा ही करने की सदबुद्धि भी नहीं आई लक्ष्मणा को !
अरे, आलोचना कहाँ जाहिर में करनी थी ?
वह तो एकांत में ही खुद के दोष प्रभु को बोल सकती थी न?
फिर किसे पता चलने वाला था दूसरे लोगों को ?
क्यों इतनी बुद्धि भी नहीं आइ लक्ष्मणा को ?
परंतु, विनाशकाले विपरीतबुद्धि....
खुद के साथ ही चालबाजी की लक्ष्मणा ने !
शास्त्र बोध नहीं होने से महाभयंकर नुकसान का बीज आत्मा में बो दिया लक्ष्मणा ने !
सोचती है लक्ष्मणा......
भगवान जो प्रायश्चित्त कहेंगे, वह तो मैं बराबर करूँगी ही, यदि प्रभु ।
ने बताया हुआ प्रायश्चित्त नहीं करूँगी तो, मेरा पाप नहीं धुलेगा।
नहीं समझ सकी लक्ष्मणा कि सरल बनकर सीधे ही यदि खुद का पाप कह दिया होता, तो सामान्य प्रायश्चित्त ही आता।
परंतु उसे कहाँ प्रायश्चित्त का डर था ?
उसे तो खुद की इज्जत का, माता-पिता की इज्जत का भय था।
लक्ष्मणा गई प्रभु के पास....
प्रभु ! कोई साध्वीजी पक्षी के मैथुन को देखकर मन से उसकी अनुमोदना करती है, तो उसे क्या प्रायश्चित्त आएगा ?' पूछ लिया लक्ष्मणा
ने......
प्रभु ने तो प्रश्न के अनुसार उत्तर दे दिया।
प्रभु ने लक्ष्मणा को उपदेश नहीं दिया, माया-कपट छोड़ने का नहीं कहाँ....तूने ही ये पाप किया है' ऐसा नहीं कहा.....
अपात्र आत्मा को प्रभु उपदेश नहीं देते....
कितना प्रायश्चित्त किया लक्ष्मणा ने, पता है ?
सुनो
(1) 10 साल: 2 उपवास + पारणा + 3 उपवास + पारणा + 4 उपवास + पारणा + 5 उपवास + पारणा.... इस तरह लगातार 10 साल.....
(2) 16 साल: मासक्षमण
(16 x 12 = 192 मासक्षमण + 192 पारणा)
(3) 4 सालः सेके हुए चने....
(4) 20 साल: आयंबिल..
(360 x 20 = 7200 आयंबिल)
भिक्षा में संपूर्ण निर्दोष गोचरी ही लाकर वापरी लक्ष्मणा ने..
इस 50 साल में खुद के प्रतिक्रमणादि अनुष्ठानों में लेश भी प्रमाद
नहीं किया लक्ष्मणा ने ! स्वाध्याय + विहार + प्रतिक्रमण + प्रतिलेखन +
वैयावच्च + महाव्रत पालन + दस सामाचारी + अष्टप्रवचन माता + दस यति
धर्म. किसी में कमी नहीं रखी।
बस, एक ही कमी रह गई, खुद के छोटे पाप को छुपाने की !
प्रसन्न मन के साथ प्रायश्चित्त का आचरण किया।
अंतसमय आ गया उसका.....
परंतु वापस भयानक मानसिक भूल कर दी लक्ष्मणा ने....
'मैंने इतना घोर तप किया, इतना घोर प्रायश्चित्त किया, परंतु मैंने किसका प्रायश्चित्त किया ? मैथुन का ? नहीं। वह तो मैंने किया ही नहीं, मैंने
तो चिड़ा-चिड़िया के मैथुन की सिर्फ अनुमोदना ही की है । उसका इतना प्रायश्चित्त थोड़ी होता है ?
अरे, उसके बदले मैने किसी पुरूष के साथ मैथुन सेवन कर लिया होता तो ?
एक बार तो मुझे वह सुख अनुभव करने मिल जाता, उसके बाद यह प्रायश्चित किया होता तो....
यह तो सुख भोगने भी नहीं मिला और प्रायश्चित्त भी कर लिया।
हे भगवान !
अंदर पड़े हुए वासना के संस्कार अंत में वापस परेशान करने के लिए आ गये, हकीकत में, तो जो उसने प्रभु के पास सरल बनकर पाप का स्वीकार नहीं किया, इस पाप ने ही शायद उन्हें ऐसी दुर्बुद्धि करवाई हो ।
मैथुन की इच्छा !
मैथुन न सेवने का पश्चात्ताप.....
मैथुन बिना ही प्रायश्चित्त करने का पश्चात्ताप....
ऐसे भाव हृदय में चल रहे थे....
और लक्ष्मणा साध्वीजी का काल धर्म हुआ।
ध्यान में लेना है हमें...
कितना पाप लक्ष्मणा का.... कितना पाप अपना....?
कितना फल लक्ष्मणा को.....तो कितना फल हमें ?
अगर शुद्ध आलोचना, शुद्ध प्रायश्चित्त नहीं करेगे, तो क्या होगा?
इसके लिए ही जरूरी है सम्यक् शास्त्रबोध की !
इसके लिए ही जरूरी है सद्गुरू के प्रति संपूर्ण समर्पणभाव की! ।
पोस्ट लिखने में कहीं शब्दों की गलती हुई हो तो मिच्छामी दुक्कड़म
मेरी बहन:- दीपेश रेखा श्री जी महाराज द्वारा उपलब्ध कराई गई पुस्तक" लक्ष्मणा" से लिखी है जिसके लेखक युग प्रधान आचार्य परम पूज्य चंद्रशेखर विजय जी महाराज साहेब है0
लक्ष्मणा ने अपना संसार कितनी चौबोसी तक बढ़ाया?
जवाब देंहटाएं80 चौबोसी तक
हटाएंउत्तर सही है या गलत
हां
हटाएं