साधु वंदना 4
बड़ी साधुवंदना - 31
गंगदत्त मुनि आनन्द, तारण तिरण जँहाज,
वली कौशल रोहो दियो घणा ने साज ।36।
भगवती सूत्र में गंगदत्त मुनि का वर्णन है। भगवान मुनिसुव्रत स्वामी एकबार विचरण करते हुए हस्तिनापुर के सहस्त्राम्र उद्यान में पधारे।
हस्तिनापुर में गंगदत्त नामक अति धनाढ्य श्रेष्ठी थे। भगवान के आगमन जानकर गंगदत्त प्रभुजीके दर्शन वन्दन गये। देशना सुनकर वैरागी हुए और प्रभुके पास संयम लेकर उत्कृष्ट आराधना करने लगे। 11 अंग का अध्ययन किया। काल आते जान अनशन कर समाधिमरण को प्राप्त हुए। व सातवे महाशुक्र देवलोक में 17 सागरोपम के आयुष्य वाले देव बने। एक बार एक मिथ्यादृष्टि देव से कुछ चर्चा होने पर समाधान के लिए अवधिज्ञान का उपयोग किया। उन्होंने जंबुद्वीप के भरतक्षेत्र के उल्लक तीर नगर में उद्यान में वीर प्रभुजीको देखा।
प्रभुके पास आकर दर्शन वन्दन कर विनय विधि सहित कई सवाल किए तथा समाधान प्राप्त किया। उनके एक सवाल में प्रभुने बताया कि अगले भव में वे मनुष्य बन साधना से सिद्ध बुद्ध मुक्त बन जाएंगे।
रोहा अनगार
आगे
वीर प्रभुके अंतेवासी ( पास रहने वाले ) ऐसे रोहा अनगार का वर्णन है। इस महामुनि के मनमे एकबार ध्यान करते हुए कुछ जिज्ञासा का उदभव हुआ। उन्होंने विनय विधि सहित प्रभु से प्रश्न पूछे। लोक अलोक, जीव अजीव, भव सिद्धिक, एकांत अनेकान्तवाद, आदि कई विषयक सुंदर ज्ञान वर्धक प्रश्न थे। प्रभुने उन सब के समाधान दिया।
रोहा अनगार ने उत्कृष्ट संयम पालन कर अंत समय संलेखना पूर्वक काल कर वैमानिक देव बने। वँहा से काल कर अगले भव में सिद्ध बुद्ध मुक्त बनेंगे।
इन दोनों के कथानकों में प्रश्नोत्तर का अत्यंत महत्त्व है। तत्त्वज्ञान का सुंदर खजाना है यह दोनो संवाद , जो आगम में मिलेंगे। जयमलजी महाराज साहेब ने कथा के साथ ही तत्त्वज्ञान का बेजोड़ समन्वय किया है।
धन्य है जिनवाणी।
Fb ग्रुप जैनिज़्म
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सन्दर्भ : - डॉ पद्ममुनि के ग्रंथ से,
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र भी लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।
बड़ी साधुवंदना - 32
धन्य सुनक्षत्र मुनिवर, सर्वानुभूति अणगार।
आराधक हुई ने गया देवलोक मंझार । 37।
नमो सुयदेवयाए भगवतीए
भगवती श्रुतदेवता को नमस्कार हो।
इस गाथा के विवेचन से पहले हम अपनी शुद्धि अवश्य देखे। एक परंपरा रही है कि भगवतीजी सूत्र के इस कथानक के समय कोई न कोई तप अवश्य हो। प्रभुजी का स्मरण व वन्दन हो। जाने अनजाने हुई, हो रही किन्ही अशातना के लिए आलोचना हो।
यह अध्ययन गोशालक का चरित्र बतलाता है, जो वीर प्रभुजी के स्वयं बने प्रथम शिष्य की जीवनगाथा का अंश बतलाता है। कैसे तीर्थंकर प्रभुजीके चरणों का सान्निध्य होते हुए भी जीव कषायों में अपना पतन निश्चित करता है। पर बाद में भविष्य में यही जीव मुक्त बनकर सिद्ध सुख प्राप्त करेंगे। उनका पूरा वर्णन फिर कभी अवसर मिला तो गुरु आज्ञा लेकर करेंगे। फिलहाल गाथा में वर्णित सर्वानुभूति व सुनक्षत्रजी मुनिवरों के विषय की चर्चा देखते है।
प्रभु विहार करते हुए एकबार श्रावस्ती नगरी के उद्यान में आकर बिराजे। गौतमस्वामी गोचरी हेतु जब नगर में पधारे तब वँहा एक लोक चर्चा सुनी। मन्खली पुत्र गोशालक अपने आपको जिन व सर्वज्ञ बतलाते हुए स्वयं को भगवान बता रहै है।
गौतमस्वामी ने उद्यान में आकर वीर प्रभुसे इसकी सत्यता जानना चाही, तब वीर प्रभु ने इनकार किया व गोशालक को मिथ्याभाषी बताया। वँहा उपस्थित अन्यो द्वारा यह बात हलाहला कुम्हारिन के घर रहे हुए गोशालक ने जानी तब आगबबूला हुए। जब उन्होंने गोचरी हेतु विचरण कर रहे वीर प्रभुके शिष्य आनन्द मुनि को देखा तब गोशालक ने उन्हें बुलाकर उनके द्वारा वीर प्रभुको जलाकर भस्म करने की धमकी दी। भयभीत आनन्द मुनि ने आकर वीर प्रभु को यह बतलाया। तब वीर प्रभु ने कहा : - गोशालक के पास तेजोलेश्या की लब्धि है ( जो छद्मवस्था में प्रभुकी दी हुई विधि से ही गोशालक ने प्राप्त की थी ) जो मनुष्य को जलाकर भस्म कर सकती है, परन्तु तीर्थंकर भगवान पर वह असर नही करती। वह यदि तिंर्थंकर पर लेश्या का प्रयोग करते है तो स्वयं उनको ही नुकसान करेगी।
पर है आनन्द , तुम सभी मुनियों को सूचित कर दो, की जब वह गोशालक यहां आए तो उससे कोई कुछ न कहे। सभी मौन अवश्य धारण करे। आनन्द ने यह सूचना सभी मुनियों को दे दी।
कुछ समय बाद क्रोधंवित गोशालक वँहा आये। तथा कहा कि में आपका प्रथम शिष्य नही, वह तो मरकर देवलोक गया है। में कौडिन्य गोत्रीय उदायि हु जिसने गोशालक के शरीर मे प्रवेश किया है। और यह मेरा सातवां शरीर प्रवेश है। केवलज्ञानी प्रभुने उसको गलत बताकर उसके गोशालक ही होने की पुष्टि की। तब वह प्रभुको अनर्गल बाते बोलने लगे। वँहा उपस्थित सर्वानुभूति मुनि से तीर्थंकर का अविनय देखा न गया और गोशालक को रोका, गोशालक ने तत्क्षण उनपर तेजोलेश्या फेंकी। मुनि तत्क्षण जलकर भस्म हो गए। अंतिम आलोचना का भी समय न मिला और कालकर वे 8 वे सहस्त्रार कल्प देवलोक में उत्पन्न हुए।
गोशालक फिर बोलने लगे। अब सुनक्षत्र अणगारने रोकना चाहा। तब गोशालक ने उन पर भी प्रहार किया। मुनि को थोड़ा समय मिला तब अंतिम आराधना कर सभी पापोकी आलोचना कर कालधर्म को प्राप्त हुए। ये मुनि 12 वे अच्युत देवलोक में उत्पन्न हुए।
अब गोशालक ने वीर प्रभुपर तेजो लेश्या फेंकी। पर यह जिन को स्पर्श नही कर पाई। प्रभु की प्रदक्षिणा कर वह लेश्या पुनः गोशालक के देह में प्रविष्ट हो गई। अब वीर प्रभु ने सन्तो से उनसे ज्ञान चर्चा की छूट दे दी। अब गोशालक कुछ नही कर सकता था। सन्तो ने वाद में उन्हें परास्त किया। गोशालक ने कहा कि इस लेश्या से तुम 6 माह में काल करोगे। तब वीर प्रभुने उनसे कहा कि में तो अभी करीब 16 वर्ष इस भूमि पर विचरण करूँगा। पर इसी लेश्या की वजह से तुम आज से सातवी रात्रि काल करोगे।
वँहा से निकलकर गोशालक कुम्हारिन के यहां आया। व दाह ज्वर आदि से प्रेरित हुआ। सातवी रात्री उन्हें सही समझ आई । और शिष्यों को सब जगह सत्य बतानेको कहा।
सातवी रात्री काल कर गोशालक काल कर 12 वे अच्युत देवलोक में उत्पन्न हुए। भविष्य में कुछ भव के बाद मोक्ष पधारेंगे।
धन्य है जिनवाणी।
Fb ग्रुप जैनिज़्म
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सन्दर्भ : - डॉ पद्ममुनि के ग्रंथ व तीर्थंकर चारित्र से,
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र भी लिखा हो , जाने अनजाने कोई अशातना हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।
बड़ी साधुवंदना - 33
चवी मुक्ति जाशे, वली सिंह मुनीश्वर सार,
बीजा पण मुनिवर, भगवती मा अधिकार।38।
गोशालक के विदा होने के कुछ समय बाद श्रावस्ती से वीर प्रभु श्रमणों सहित मेंढीय ग्राम पधारे ओर शाल कोष्ठक उद्यान में बिराजे। वँहा प्रभुको वेदनीय कर्म उदय में आया। अत्यंत तीव्र दाह ज्वर हुआ व रक्त अतिसार हो गये।
यह सब देखकर सामान्य जनों को शंका हुई की गोशालक का कथन सही होगा। तेजोलेश्या के प्रभाव से अब वीर प्रभु 6 माह में ही काल कवलित होंगे।
यह चर्चा सब जगह होने लगी। मालूकाकच्छ में एक जगह वीर प्रभुके सिंह नामक शिष्य तप कर रहे थे। उन्हें यह बात सुनने में आई। तब वीर के शिष्य सिंह अनगार को भगवान की वेदना की बात सहन न हुई। ओर कंही गोशालक की बात सत्य हो गई तो? यह सोचकर भगवान के विरह की कल्पना से ही भयभीत होकर आक्रन्द करने लगे।
भगवान ने यह जानकर अपने कुछ श्रमणों द्वारा सिंह अणगार को बुलवाकर उन्हें सांत्वना देते हुए कहा : - तेजोलेश्या कभी भी तीर्थंकर पर असर नही करती, मैं अभी भी करीब 16 वर्ष इस भूतल पर विचरण करूँगा। अतः आप शोक छोड़िए। आपकी शांति हेतु एक काम करे, इसी मेंढीक ग्राम में दृढ़ श्रमणोंपासिका रेवती श्राविका के यहां जाकर उन्होंने मेरे दर्द की कथा सुन जो कोल्हापाक बनाया है उसे न लेते हुए, अपने काम के लिए बिजोरापाक बनाया है वह आप ले आओ। आपकी संतुष्टि हेतु वह मैं औषध रूप लेकर स्वस्थ हो जाऊंगा।
सन्तो के निमित्त बनाया आहार ग्रहण नही करना, इस आचार को प्रभुने स्वयं के आचरण से समझाया।
सिंह अनगार रेवती श्राविका के यहां आये। रेवती यह जानकर अत्यंत प्रफुल्लित हुई। अत्यंत भाव से उन्होंने बिजोरापाक बहोराया। ओर उत्कृष्ट उच्च कर्म का बन्ध किया। प्रभु इस औषधि को ग्रहण कर स्वस्थ हुए। सिंह अनगार का शोक दूर हुआ।
इस गाथा में वर्णित चारो मुनिवर आनन्द जी, सिंह मुनि , सुनक्षत्रजी, सर्वानुभूतिजी चारो काल कर देवलोक में उत्पन्न हुए। आनन्दजी व सिंहमुनि अगले कुछ भव करके मोक्ष पधारेंगे। तथा सर्वानुभूतिजी व सुनक्षत्रजी मुनि देवभव करके महाविदेह से मुक्त हो जाएंगे।
बीजा पण मुनिवर, भगवती मा अधिकार,
इस कड़ी से ऊपर वर्णित 4 संतो के अलावा भी जिन महामुनियों का वर्णन है उन सभी को जयमलजी वन्दन कर रहे है।
भगवतीजी सूत्र
उत्तराध्ययन के विवेचन में हमने देखा, उसके बाद इस स्तुति में गाथा क्रम 26 से 38 तक के कथानकों का वर्णन 5 वा अंग सूत्र भगवतीजी सूत्र से लिया है। भगवतीजी सूत्र वर्तमान में काफी बड़ा आगम माना जाता है। इसमे 36000 प्रश्नोत्तर तो सिर्फ गौतमस्वामी तथा विरप्रभु के ही है। अन्य विषय वस्तु अलग । जिसका अगाध ज्ञान हमे जिनशासन की महत्ता बतलाता है। इसका मुख्य नाम विवाह पन्नति या व्याख्या प्रज्ञप्ति है। काल के असर में सभी आगमो का एक बड़ा हिस्सा नष्ट हो चुका है उसमे इस भगवतीजी सूत्र पर भी प्रभाव पड़ा। आज इसके बहुत कम अंश विद्यमान है।
धन्य है जिनवाणी।
Fb ग्रुप जैनिज़्म
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सन्दर्भ : - विभिन्न ग्रंथ से,
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र भी लिखा हो , जाने अनजाने कोई अशातना हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।
बड़ी साधुवंदना - 34
श्रेणिक नो बेटों , मोटो मुनिवर मेघ,
तजी आठ अंतेऊर आण्यो मन संवेग ।39।
वीर पे व्रत लइने , बांधी तप नी तेग,
गया विजय विमाने, चवी लेशे शिव वेग।40।
छट्ठे अंग सूत्र श्री ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र का प्रथम अध्ययन मेघकुमार।
यह अध्ययन बड़ा चमत्कारिक माना जाता है।
एक एक कथानक विभिन्न माध्यम से हमे शिक्षा दे रहा। संयमी जीवन में भी बाधाएं आती है। मन के भाव उथलपाथल मचाते है। तब कैसे हमे स्थिर रहकर संयम मार्ग में आगे बढ़ना है।
वीर प्रभु विचरण करते हुए एकबार राजगृही आकर गुणशील उद्यान में बिराजे। भगवान का आगमन जानकर प्रजा दर्शन वन्दन वाणी श्रवण हेतु आने लगी।
उस समय राजगृही के राजा श्रेणिक कुमार के पुत्र मेघकुमार भी प्रभु की महिमा सुनकर दर्शन वन्दन करने आये । प्रभुकी वाणी सुनकर विरक्त बने।
राजमहल आकर उन्होंने माता पिता से दीक्षा की आज्ञा मांगी। उनकी विरक्ति देखकर माता पिता ने आज्ञा दी। आखिर 8 - 8 रानी को छोड़कर मेघकुमार ने संयम ग्रहण किया।
मेघ मुनिकी यह संयम जीवन की प्रथम रात्री,
सन्तो ने ज्येष्ठता देखकर सभीका संथारा ( सोने की जगह ) तैयार किया। नवदीक्षित की सोने की जगह दरवाजे के पास आई। रात्रि के प्रथम व अंतिम प्रहर में सन्तो के आवागमन से, उनके अंगों के स्पर्श से, पांवों से उड़ती धुली से साधुजीवन के अनाभ्यासी मेघमुनि रातभर सो न पाये। मन खेदित हो गया। जब तक संसारी था, तब तक सब मेरा आदर करते थे। मीठा बोलते थे। अब मुंडित हो गया तो ऐसे परेशान कर रहे है। आख़िर थककर सुबह प्रभु से आज्ञा लेकर में पुनः राजमहल चला जाऊंगा , यह निश्चय कर लिया।
प्रातः काल जब वे वीर प्रभुके पास पहुचे, तब प्रभुने स्वयं उनके मन की बात बतला दी। थोड़ा चकित, थोड़े सँकोचित मेघमुनि ने प्रभुकी बात का स्वीकार किया। तब प्रभुने मेघमुनि को उनका पूर्वभव सुनाया।
एक बड़े जंगल में मेरुप्रभ नामके तुम हाथी थे। घने जंगलों में गर्मियों में आग लग जाना सहज होता है। इस जंगल में भी लगती रहती थी । पूर्वभव के ज्ञान से मेरुप्रभ हाथी ने ऐसी आग के समय सब जानवर की रक्षा हो सके ऐसा मण्डल तैयार कर दिया। यानी उस मैदान में बिना घास लकड़ी का एक साफ मैदान बना दिया जिससे उस मण्डल में आग लगे ही नही। इसके बाद एक बार फिर आग का मौका आया तब मेरुप्रभ हाथी ने सभी जानवरो को उसमे बुलाकर बचा लिया। पूरा मण्डल खचाखच भर गया। अंशमात्र जगह नही बची। पर सब प्राणी बच गये यह हर्ष की बात थी। आग चालू थी। सब प्राणी मण्डल में सुरक्षित थे। मेरुप्रभ हाथी को अचानक खुजली हुई ओर उसने पैर उठाया। पैर वापिस रखने गया तब तक नीचेकी जगह में एक छोटा खरगोश आ गया। अब ?
पैर रक्खे तो खरगोश मृत्यु प्राप्त हो जाएगा !!। उस जीव की रक्षा हेतु मेरुप्रभ ने पैर हवा में अद्धर ही रक्खा। वजनदार शरीर के लिए यह आसान नही था। पर करुणा की भावना, जब तक आग जलती रही, मेरुप्रभ करीब ढाई दिन ऐसे ही खड़ा रहा। अब आग संपूर्ण शांत हो गई। सब प्राणी उस मण्डल से निकले। मेरुप्रभ हाथी का पैर अकड़ गया। वह नीचे पैर रखने गया तो गिर गया और वंही मृत्यु को प्राप्त हुआ।
प्रभुने मेघमुनि से कहा : - ऐसे जीवो की करुणा के भाव की वजह से तुम राजकुमार बने।
अब उस करुणा को छोड़ , महाव्रतों को छोड़कर , एक रात्रि में हुए छोटे से कष्ट से घबराकर तुम जीती हुई बाजी हारने जा रहे हो?
प्रभुके उपदेश से मेघमुनि को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। अपने पूर्वभवो को देखा। वे संभल गये। ओर संयम में दुगुने उत्साह से स्थिर हुए। उत्कृष्ट आराधना कर 12 वर्ष संयम पालन किया। अंतिम समय 1 माह के अनशन के साथ काल कर विजय अनुत्तर विमान में उत्पन्न हुए। आगामी भव में मोक्ष जाएंगे।
यह अध्ययन काफी विस्तार से सुंदर तरीके से समझाया गया है। पर यहां पोस्ट मर्यादा में अति संक्षिप्त कर के लिखा है।
धन्य है जिनवाणी
Fb ग्रुप जैनिज़्म
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सन्दर्भ : - विभिन्न ग्रंथ से,
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र भी लिखा हो , जाने अनजाने कोई अशातना हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।
बड़ी साधुवंदना - 35
धन्य थावच्चा पुत्र, तजी बत्तीसों नार,
तेनी साथे निकल्या पुरुष, एक हजार ।41।
शुकदेव सन्यासी , एक सहस शिष्य लार,
पांच सौ से शैलक, लीधो संयम भार।42।
सब सहस अढाई , घणा जीवां ने तार,
पुण्डरीक गिरी पर कियो पादपोप गमन संथार ।43।
आराधक हुई ने कीधो खेवो पार।
हुआ मोटा मुनिवर, नाम लिया निस्तार।44।
4 गाथा साथ मे लेने की वजह इतनी ही है कि सब एक दूसरे से संलग्न कथाएं है।
( प्रथम भाग .... )
केवलज्ञान प्राप्ति बाद तीर्थंकर प्रभु नेमनाथ विचरण करते हुए एकबार द्वारिका पधारे। निकटस्थ रैवतक पर्वत के नन्दनवन उद्यान में बिराजे।
प्रभुका आगमन जान कृष्ण वासुदेव ने कौमुदी भेरी बजवाकर सभीको प्रभुदर्शन वन्दन के लिए बुलवाया। ईस तरह सेना के साथ कृष्ण वासुदेव प्रभुदर्शन करने आये। प्रभुकी दर्शन - वन्दना बाद उनकी देशना सुनकर सब भाव विभोर हो गये।
द्वारिका नगरी में एक थावच्चा नामक ऋद्धि संपन्न, बुद्धिमती, शक्तिशाली गृहस्वामिनी रहती थी। उसके एक रूपसंपन्न भव्य मुखाकृति वाला सुंदर पुत्र था। जिसे सब थावच्चा पुत्र कहते थे। 32 सुंदर कन्याओं के साथ उनका विवाह हुआ था।
प्रभुका आगमन जानकर थावच्चापुत्र भी दर्शन वन्दन को गये। प्रभुकी देशना सुनकर वैरागी हुए। घर आकर माता से संयम ग्रहण की अनुमति मांगी। माता को दीक्षाकी आज्ञा के लिये समझाया।
थावच्चा एक ऋद्धिवन्त गृहस्वामिनी थी। वह कुमार की दीक्षा समारोह भव्य तरीके से करना चाहती थी। ताकि धर्म की प्रभावना हो। राजा कृष्ण के पास जाकर उनके छत्र, चामर, मुकुट की मांग की।
तब कृष्ण वासुदेव थावच्चा पुत्र से मिलने स्वयं आये। उन्होंने भिन्न भिन्न तरीको से प्रश्न आदि पूछकर थावच्चा पुत्र के वैराग्य की परीक्षा ली। थावच्चा पुत्र का वैराग्य दृढ़ देखकर कृष्ण वासुदेव अत्यंत हर्षित हुए। उन्होंने दीक्षा समारोह के लिए सहर्ष अपने छत्र , चामर, मुकुट देने का वचन दिया। इतना ही नही, द्वारिका में घोषणा करवाई, जो भी नेमप्रभु के पास दीक्षा अंगीकार करेगा, उनके समारोह राज्य द्वारा होगा , उन व्यक्तियों के पीछे रहे परिवार के पालन की जिम्मेदारी स्वयं राज्य उठाएगा।
थावच्चा पुत्र के स्नेह के कारण 1000 पुरुष उनके साथ दीक्षा लेने को तत्पर हुए।
यो 1000 पुरुषों के साथ थावच्चा पुत्र ने संयम लिया । भगवान ने वे 1000 शिष्य थावच्चा पुत्र को प्रदान किये। उत्कृष्ट तप संयम पालते हुए ज्ञानाभ्यास करते हुए विचरने लगे।
अपने 1000 शिष्यों के साथ सामायिक से लेकर 14 पूर्व तक का अभ्यास किया।
एकबार थावच्चा पुत्र मुनि शैलक पुर आये। वँहा के राजा ने ऊनसे प्रतिबोध पाकर श्रावक व्रत अंगीकार किये।
एकबार विचरण करते हुए वे सौगंधिका नगरी पधारे। वँहा शुक नामक परिव्राजक आचार्य के भक्त सुदर्शन ने थावच्चा पुत्र से सही धर्म समझा । व सोचमुलक धर्म त्याग श्रावक धर्म अंगीकार किया। यह जानकर उनके गुरु शुक परिव्राजकाचार्य सौगंधिका आये। सुदर्शन के कहने पर वे थावच्चा पुत्र मुनि के पास आये। तत्त्वसंबन्धी कई प्रश्न पूछे। समाधान पाकर वे इतने संतुष्ट हुए की उन्होंने उनकी संयम यात्रा की महत्ता का स्वीकार किया। निर्ग्रन्थ धर्म समझकर अपने एक सहस्त्र शिष्यों के साथ प्रवज्या ग्रहण की । थावच्चा पुत्र ने वे 1000 शिष्यों को उन्हीं को प्रदान किया। ओर शिष्यों सहित शुकचार्य जी ज्ञानाभ्यास करते हुए विचरने लगे। वे भी 14 पूर्व के पाठी बन गए।
इधर धर्म साधना करते हुए थावच्चा पुत्र अणगार अपना अंतिम समय जानकर अंतिम आराधना हेतु अपने शिष्यों के साथ पुण्डरीक गिरी पर्वत पर आकर पादपोप गमन संथारा ग्रहण किया। एक मास के संलेखना बाद सिद्ध बुद्ध मुक्त हुए।
दूसरा भाग .....
धन्य है जिनवाणी
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सन्दर्भ : - विभिन्न ग्रंथ से,
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र भी लिखा हो , जाने अनजाने कोई अशातना हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।
बड़ी साधुवंदना - 36
धन्य थावच्चा पुत्र, तजी बत्तीसों नार,
तेनी साथे निकल्या पुरुष, एक हजार ।41।
शुकदेव सन्यासी , एक सहस शिष्य लार,
पांच सौ से शैलक, लीधो संयम भार।42।
सब सहस अढाई , घणा जीवां ने तार,
पुण्डरीक गिरी पर कियो पादपोप गमन संथार ।43।
आराधक हुई ने कीधो खेवो पार।
हुआ मोटा मुनिवर, नाम लिया निस्तार।44।
दूसरा भाग ....
निर्ग्रन्थ आचार्य शुकदेव जी विहार करते हुए एकबार शैलक पुर के उद्यान में पधारे। कल की कथा में हमने देखा था, वँहा के राजा शैलक ने थावच्चा पुत्र से श्रमणोपासक के व्रत लिए थे।
आचार्य शुकदेव जी का उपदेश सुनकर शैलक राजा का वैराग्य ओर वृद्धि को प्राप्त हुआ। अब उन्होंने पुत्र मण्डूक कुमार को राज्य सौंपकर पंथक आदि 500 मंत्रियों के साथ दीक्षा ले ली।
यहां ओर अन्य कई कथानकों में हमने देखा, की कुछ मित्र आदि सिर्फ सुख या वैभव में ही साथ नही देते। परन्तु त्याग व धर्म मे भी साथ देते है। इतने हलुकर्मी आत्मा होंगे वे सभी , की एक नेता का जरा से निमित्त मिलते ही सब वैभव, सुख सुविधा का त्याग कर मोक्ष मार्ग की कठिन राह पर चल निकलते है।
शैलक राजा के साथ उनके 500 मंत्री भी निर्ग्रन्थ धर्म की आराधना में जुड़ गये।
शुकदेव जी ने शैलक मुनि को वे 500 शिष्य सौंप दिए।
अंत समय जानकर शुकदेव जी 1000 शिष्योके साथ पुंडरिक गिरी पर अनशन कर सिद्ध बुद्ध मुक्त बन गए।
शैलक राजर्षि विहार करते हुए एकबार शैलक पुर पधारे। तप संयम पालते हुए उनका देह थोड़ा अस्वस्थ हो गया था। पुत्र मण्डूक राजा जब दर्शन को आये तो उनकी अस्वस्थता देखकर विनती की, की वे कुछ समय राजभवन में ही रुक जाये, उन्हें निर्दोष आहार व औषध से स्वस्थता पुनः प्राप्त हो जाये तब विहार कर दीजियेगा। शैलक राजर्षि ने उनकी विनती स्वीकार कर अपने 500 शिष्यों समेत राजा के एक यानशाला में रुक गए।
राजाज्ञा अनुसार उन्हें चिकित्सको द्वारा यथायोग्य आहार व औषध प्राप्त होने लगा। उनका देह स्वस्थ होकर पुनः पृष्ठ होने लगा। अब रोग मिट गया, पर शैलक राजर्षि का आहार ऐसे ही चलता रहा। आहार पान में ऐसे डूबे की साधना भूल गए। विहार करना भूल गये। कुशिलियापन आ गया। यानी संयम के प्रति पूर्ण उदासीन हो गये।
अब शैलक राजर्षि का शिथिलाचार देखकर उनके 500 शिष्यों में अपने संयम साधना के प्रति चिंतित हुए। कोई अन्य उपाय न देखकर गुरु आज्ञा लेकर पंथक मुनि को गुरु की वैयावृत्य के लिये छोड़कर अन्य सभी शिष्यों ने वँहा से विहार कर दिया।
समय बीतता गया। पंथक मुनि सब कुछ भूलकर अपनी साधना के साथ गुरु की वैयावृत्य कर रहे थे। वर्षावास शुरू हुआ व धीमे धीमे पूर्ण भी हो गया। चतुर्मासिक प्रतिक्रमण की बेला आई, पंथक मुनि ने देवसिक प्रतिक्रमण कर फिर चौमासी प्रतिक्रमण किया। गुरुवंदना के लिए गुरु के पास आये। शैलक राजर्षि निंद्रा में ही थे। अचानक पँथकमुनि के मस्तक के हल्के स्पर्श से जागकर क्रोधित हो गए। पंथक मुनि ने प्रतिक्रमण के लिए गुरुवंदना की बात कही और माफी मांगी। शिष्य की नम्रता देखकर , निमित्त मिला और शैलक राजर्षि प्रमाद की निंद्रा से जाग गए। अहो , संयम रूपी रत्न को मैने गंवा दिया। देह से काम लेने की जगह देह के पोषण में संयम रत्न त्याग दिया। शिथिलाचार में डूबा रहा।
पश्चाताप के बाद मुनि ने राजा को बताकर विहार कर दिया।
पुनः शुद्ध आराधना में लग गये। उनके 499 शिष्य उनकी आराधना देखकर वापिस उनके पास लौट आये।
बहुत वर्षो तक उत्कृष्ट आराधना कर 500 शिष्यों के साथ पुण्डरीक गिरी पर अनशन कर यावत थावच्चा पुत्र, वे भी सिद्ध बुद्ध मुक्त हो गये।
धन्य है जिनवाणी
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सन्दर्भ : - विभिन्न ग्रंथ से,
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र भी लिखा हो , जाने अनजाने कोई अशातना हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।
बड़ी साधुवंदना - 37
धन्य जिनपाल मुनिवर , दोय धन्ना हुआ सार्थ,
गया प्रथम देवलोके, मोक्ष जाशे आराध ।45।
प्रथम भाग...
जिनपाल मुनिवर,
संसारी जीव के लिए प्रतिकूल उपसर्ग को जीतना शायद सरल हो भी, परन्तु अनुकूल उपसर्ग सहना अति दुष्कर हो जाते है। जो इन उपसर्गो को जीत लेते है वे अपना मोक्षमार्ग शीघ्र पा लेते है।
एक समय मे चंपा नामक नगरी में श्रेष्ठी माकंदी व पत्नी भद्रा के 2 पुत्र रहते थे। जिनपाल व जिनरक्षित । अर्थोपार्जन हेतु व्यापार हेतु 11 बार समुद्र यात्रा की थी। व बहुत धन कमाया भी था। समुद्र के रास्ते विदेश में जाकर व्यापार करते।
व्यापार व धन की भूख कभी मिटती नही। बारहवीं बार समुद्र के लिए निकले। अनुभवी पिता ने इसबार बहुत मना किया पर युवानी का जोश जल्दी कहां मानता है।
जहाजों में ढ़ेर सारा माल भरकर वे समुद्र के रास्ते निकल गए।
11 बार की सफलता का मन मे एक नशा छाया हुआ था। पर इस बार कुदरत को कुछ और मंजूर था। शांत समुद्र में अचानक तूफान आया। जहाज डूब गया , जीवनरक्षक नौका तक भी वे पँहुच नही पाये। और समुद्र में गिर पड़े। आयुष्य बलवान था ।जहाज व माल तो सारा डूब गया पर वे एक लकड़ी के बड़े पटिये का सहारा लेकर कुछ समय के बाद रत्न द्वीप आ पंहुचे।
वह द्वीप की अधिष्ठात्री रत्ना देवी ने उन्हें शरण दी। लवण समुद्र की सफाई जिनके जिम्मे थी ऐसी वह रत्नादेवी, अधमिनी, कामभोग में अत्यंत गृद्ध देवी थी। अपने भोग के लिए दो युवा पुरुष देख उसने दोनो को वंही अपने महल में रख दिया। और उनके साथ नित्य भोग भोगने लगी। बहुत दिन बीत गए। दोनो भाई भोग में डूब गए थे, जब देवी लवणसमुद्र की सफाई करने जाती तब दो भाई महल के आसपास के वनखण्डों में घूमते रहते।
देवी ने दक्षिण दिशा के वनखण्ड में जाने के लिए प्रतिबंध लगाया था। शेष तीनो दिशा में रहे वनखण्डों में घूमते दोनो भाई एकबार कुतूहल वश दक्षिण दिशा के वनखण्ड में चले गये।
उफ्फ वँहा का दृश्य देखकर वे कांप उठे। मानव अस्थियों का ढेर ,अतिशय गन्ध से वे सिहर उठे। वँहा शूली पर लटक रहे एक जिंदा इंसान को देखा।
जिसका देह क्षत विक्षत हो चुका था। कभी भी मरने को संभव उस मनुष्य ने दोनो युवानो को देखकर ऊनसे उस देवी की सच्चाई बताई। वह भी एकबार समुद्री तूफान में अपने जँहाज से बिछुड़कर यहां आ पहुंचा था। देवी की भोगकामना तृप्त करता। पर एकबार छोटी सी गलती पर उसे शूली पर लटकाकर तड़प तड़प कर मरने जिंदा छोड़ दिया। यहां यह हाल कई मनुष्योका हुआ जिनकी अस्थियां सब जगह बिखरी पड़ी दिखाई। उसने कहा कि आपकी भी यह हालत हॉगी।
जिनपाल जिनरक्षित ने बचाव का रास्ता पूछा। तब उस मनुष्य ने बताया कि पश्चिम दिशा के वनखण्ड में एक यक्ष है उसकी निश्चित समय पर आराधना करने से वह तुम्हे बचा सकेगा।।।.....
कल दूसरा भाग ...
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सन्दर्भ : - डॉ पदम् मुनि के ग्रंथ से,
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र भी लिखा हो , जाने अनजाने कोई अशातना हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।
बड़ी साधुवंदना - 39
धन्य जिनपाल मुनिवर , दोय धन्ना हुआ साध,
गया प्रथम देवलोके, मोक्ष जाशे आराध ।45।
तीसरा भाग ...
राजगृही नगरी के दोनो धन्ना नामक अत्यंत ऋद्धिशाली सार्थवाह का कथानक
प्रथम धन्ना सार्थवाह,
अत्यंत वैभव, संपत्ति के स्वामी धन्ना सेठ की पत्नी का नाम था भद्रा जी। विवाह के कई बरसो तक निसंतान रहने के बाद कई कितने उपाय करने के बाद उनके घर एक पुत्र का जन्म हुआ। घर मे खुशियों की लहर दौड़ गई। बालक का नाम देवदत्त रखा। उसकी सुश्रुषा के लिए उसके खेलने के लिए पंथक नामक दास रखा था। बालक थोड़ा बड़ा हुआ, तब पंथक उसे घर से बाहर खेलने ले जाने लगा। बालक ऋद्धिशाली गृह का था, तो स्वाभाविक उसके छोटे से देह पर अथाग आभूषण थे। यह राजगृही के विजय नामक अत्यंत नृशंस, पापी, कुरूप कपटी चोर की दृष्टि में आ गया। एक बार पंथक की दृष्टि देवदत्त से जरा हटी तब स्फूर्ति से विजय चोर ने देवदत्त बालक को उठा लिया। भागते हुए नगर के बाहर निर्जन स्थान पर आया। वँहा एक सूखा कुआँ था। विजय ने उस बालक के सारे आभूषण उतारकर बालक देवदत्तकी निर्दयी तरीके से हत्या कर उस कुएं में फेंक दिया।
इधर जब देवदत्त के गुम होने की सूचना धन्ना सार्थवाह के परिवार को मिली तब घर मे हाहाकार मच गया। सेठानी की स्थिति दयनीय बन गई। सेठ ने राज रक्षकों की मदद ली। छानबीन में नगर के बाहर के कुएं में देवदत्त की लाश मिली। राज सेवको ने कड़क खोजबीन कर विजय चोर को पकड़ लिया। और कारागार में बन्द कर दिया।
अब कुछ दिन बीत गए। किसी प्रसंग में व्यापार में कुछ घटनाक्रम ऐसे बना की धन्ना सेठ को भी राज्य का बंदी बनना पड़ा। संयोग ऐसे बना की विजय चोर व धन्ना सेठ को एक ही बेड़ी से बांधा गया।
अब सेठ तो कुछ दिन के लिए जेल के मेहमान थे। उनके घर से उच्च गुणवत्ता वाला भोजन आता। विजय चोर ने उस भोजन में हिस्सा मांगा। धन्ना सेठ को पुत्र घातक को भोजन देने में जरा भी दिलचस्पी नही थी। पर विजय चोर ने उनके साथ लघु गुरु शंका के निवारण ( बाथरूम) हेतु साथ जाने से इन्कार कर दिया। अब सेठ मजबूर। विजय के कारण वह शरीर की व्यथा कैसे रोके?
आखिरकार उन्होंने भोजन में हिस्सा देना स्वीकार किया। यह भोजन लेकर आये पंथक ने देखा तब घर जाकर भद्रा सेठानी को बताया।
कुछ दिन में जब धन्ना सेठ कारागार से छूटकर आये तब भद्रा ने नाराजगी जताई। सेठ ने उन्हें समझाया कि मैने दया, या मित्रभाव से उसे भोजन नही करवाया। पर शरीर की सुविधा देखकर जबरन हिस्सा देना पड़ा । सेठानी का क्रोध शांत हुआ।
कुछ समय बाद नगर में धर्मघोष मुनि आये। उनकी वाणी से विरक्त बनकर धन्ना सेठ ने संयम लिया। उच्च कोटि से साधना कर काल कर प्रथम देवलोक में उत्पन्न हुए। विजय चोर मरकर नरक में गया।
आगे चलकर सेठ मुक्ति प्राप्त करेंगे।
इस गाथा का अगला विवेचन कल....
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सन्दर्भ : - डॉ पदम् मुनि के ग्रंथ से,
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र भी लिखा हो , जाने अनजाने कोई अशातना हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।
बड़ी साधुवंदना - 40
धन्य जिनपाल मुनिवर , दोय धन्ना हुआ साध,
गया प्रथम देवलोके, मोक्ष जाशे आराध ।45।
चौथा भाग ...
राजगृही नगरी के दोनो धन्ना नामक अत्यंत ऋद्धिशाली सार्थवाह का कथानक
अब दूसरे धन्ना सार्थवाह,
इन धन्ना सार्थवाह के पांच पुत्र व सुंसुमा नामक एक छोटी पुत्री थी। पुत्री के खिलाने के लिए एक चिलात नामक दास पुत्र था। दास पंथक के समान यह भी सुंसुमा का ख्याल रखता , खिलाने बाहर ले जाता आदि कार्य करता। परन्तु यह बालक अत्यंत उद्दंड व थोड़ा विकृत मानस था। अन्य सभी बच्चों को बहुत परेशान करता रहता। सेठ ने उसे सुधारने की कोशिश भी की, पर वह बिगड़ैल बनता गया। आख़िर सेठ ने उसकी हरकतों से, पड़ोसियों की शिकायतों से थककर उसे घर से निकालदिया।
अब चिलात और उच्छृंखल बन गया। अब कोई रोकटोक नही थी। यहां वँहा शैतानियां कर अपना गुजारा भी कर लेता। शनै शनै सभी व्यसनों में लिप्त हो गया। एक दिन
राजगृही के बाहर एक गुफा में रहते हुए 500 चोरों के अधिपति विजय चोर से जाकर मिल गया। खुराफाती तो था ही, संग मिलते ही चोरी में निपुण बन गया। और समय बीतते, विजय के देहांत बाद वह 500 चोर का सरदार बन गया। अब युवा चिलात को सुंसुमा की याद आने लगी। अपनी एकबार इच्छा पूरी करने के लिए एकबार उसने साथियों के साथ धन्ना सेठ के यहां डाका डाला। बहुत सारा धन व सुंसुमा को उठाकर ले आया।
धन्ना सेठ ने राजरक्षको की मदद ली। उसके आश्रय पर सेना लेकर आ पंहुचा। राजरक्षको की संख्या काफी थी व 500 चोर अधिक आत्मविश्वास में थोड़े लापरवाही में रह गये। चोर अब इधर उधर भागने लगे। इस भिड़ंत में अपनी हार देखते हुए चिलात सारा धन, सब साथियों को छोड़ सुंसुमाको लेकर भाग गया।
धन्ना सेठ ने यह देखा, पुत्रो को साथ लेकर वह भी पुत्री को बचाने उसके पीछे भागा। चिलात एक भयंकर अटवी ( जंगल ) में प्रवेश कर गया, जँहा से निकलना भी आसान नही था। धन्ना सेठ साहस कर उसी अटवी में पीछे भागे। भागते भागते बहुत समय हो गया। अब चिलात थकचुका था। उसे सुंसुमाको उठाकर भागना अब संभव नही लगा।
घातक, पापी चिलात ने वंही सुंसुमा का गला काटकर धड़ फेक दिया ओर भागने लगा।
धन्ना सेठ पर वज्रपात गिर गया। वे ओर पांचों पुत्र सुंसुमाके मृत्यु का विलाप करने लगे। पर अब सब व्यर्थ था। समय परखकर थक हारकर सब राजगृही आये।
कुछ समय बाद धन्ना सेठ ने वीर प्रभुके उपदेश से विरक्त होकर दीक्षा ले ली।
उत्कृष्ट संयम पालन किया। अंतिम समय में संलेखना सहित काल कर प्रथम देवलोक में देव बने। आगामी भव महाविदेह का कर वँहा संयम ग्रहण कर उच्च साधना से सिद्ध बुद्ध मुक्त होंगे।
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सन्दर्भ : - विविध ग्रंथ से,
नोट : - रुचि भंग न हो , सामान्यजनों को विपरीत श्रद्धा न हो उस उद्देश्य से कथा का एक हल्का सा अंश कम किया है। उसके लिए तथा जिनवाणी विपरीत अंशमात्र भी लिखा हो , जाने अनजाने कोई आशातना हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।
गंगदत्त मुनि आनन्द, तारण तिरण जँहाज,
वली कौशल रोहो दियो घणा ने साज ।36।
भगवती सूत्र में गंगदत्त मुनि का वर्णन है। भगवान मुनिसुव्रत स्वामी एकबार विचरण करते हुए हस्तिनापुर के सहस्त्राम्र उद्यान में पधारे।
हस्तिनापुर में गंगदत्त नामक अति धनाढ्य श्रेष्ठी थे। भगवान के आगमन जानकर गंगदत्त प्रभुजीके दर्शन वन्दन गये। देशना सुनकर वैरागी हुए और प्रभुके पास संयम लेकर उत्कृष्ट आराधना करने लगे। 11 अंग का अध्ययन किया। काल आते जान अनशन कर समाधिमरण को प्राप्त हुए। व सातवे महाशुक्र देवलोक में 17 सागरोपम के आयुष्य वाले देव बने। एक बार एक मिथ्यादृष्टि देव से कुछ चर्चा होने पर समाधान के लिए अवधिज्ञान का उपयोग किया। उन्होंने जंबुद्वीप के भरतक्षेत्र के उल्लक तीर नगर में उद्यान में वीर प्रभुजीको देखा।
प्रभुके पास आकर दर्शन वन्दन कर विनय विधि सहित कई सवाल किए तथा समाधान प्राप्त किया। उनके एक सवाल में प्रभुने बताया कि अगले भव में वे मनुष्य बन साधना से सिद्ध बुद्ध मुक्त बन जाएंगे।
रोहा अनगार
आगे
वीर प्रभुके अंतेवासी ( पास रहने वाले ) ऐसे रोहा अनगार का वर्णन है। इस महामुनि के मनमे एकबार ध्यान करते हुए कुछ जिज्ञासा का उदभव हुआ। उन्होंने विनय विधि सहित प्रभु से प्रश्न पूछे। लोक अलोक, जीव अजीव, भव सिद्धिक, एकांत अनेकान्तवाद, आदि कई विषयक सुंदर ज्ञान वर्धक प्रश्न थे। प्रभुने उन सब के समाधान दिया।
रोहा अनगार ने उत्कृष्ट संयम पालन कर अंत समय संलेखना पूर्वक काल कर वैमानिक देव बने। वँहा से काल कर अगले भव में सिद्ध बुद्ध मुक्त बनेंगे।
इन दोनों के कथानकों में प्रश्नोत्तर का अत्यंत महत्त्व है। तत्त्वज्ञान का सुंदर खजाना है यह दोनो संवाद , जो आगम में मिलेंगे। जयमलजी महाराज साहेब ने कथा के साथ ही तत्त्वज्ञान का बेजोड़ समन्वय किया है।
धन्य है जिनवाणी।
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सन्दर्भ : - डॉ पद्ममुनि के ग्रंथ से,
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र भी लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।
बड़ी साधुवंदना - 32
धन्य सुनक्षत्र मुनिवर, सर्वानुभूति अणगार।
आराधक हुई ने गया देवलोक मंझार । 37।
नमो सुयदेवयाए भगवतीए
भगवती श्रुतदेवता को नमस्कार हो।
इस गाथा के विवेचन से पहले हम अपनी शुद्धि अवश्य देखे। एक परंपरा रही है कि भगवतीजी सूत्र के इस कथानक के समय कोई न कोई तप अवश्य हो। प्रभुजी का स्मरण व वन्दन हो। जाने अनजाने हुई, हो रही किन्ही अशातना के लिए आलोचना हो।
यह अध्ययन गोशालक का चरित्र बतलाता है, जो वीर प्रभुजी के स्वयं बने प्रथम शिष्य की जीवनगाथा का अंश बतलाता है। कैसे तीर्थंकर प्रभुजीके चरणों का सान्निध्य होते हुए भी जीव कषायों में अपना पतन निश्चित करता है। पर बाद में भविष्य में यही जीव मुक्त बनकर सिद्ध सुख प्राप्त करेंगे। उनका पूरा वर्णन फिर कभी अवसर मिला तो गुरु आज्ञा लेकर करेंगे। फिलहाल गाथा में वर्णित सर्वानुभूति व सुनक्षत्रजी मुनिवरों के विषय की चर्चा देखते है।
प्रभु विहार करते हुए एकबार श्रावस्ती नगरी के उद्यान में आकर बिराजे। गौतमस्वामी गोचरी हेतु जब नगर में पधारे तब वँहा एक लोक चर्चा सुनी। मन्खली पुत्र गोशालक अपने आपको जिन व सर्वज्ञ बतलाते हुए स्वयं को भगवान बता रहै है।
गौतमस्वामी ने उद्यान में आकर वीर प्रभुसे इसकी सत्यता जानना चाही, तब वीर प्रभु ने इनकार किया व गोशालक को मिथ्याभाषी बताया। वँहा उपस्थित अन्यो द्वारा यह बात हलाहला कुम्हारिन के घर रहे हुए गोशालक ने जानी तब आगबबूला हुए। जब उन्होंने गोचरी हेतु विचरण कर रहे वीर प्रभुके शिष्य आनन्द मुनि को देखा तब गोशालक ने उन्हें बुलाकर उनके द्वारा वीर प्रभुको जलाकर भस्म करने की धमकी दी। भयभीत आनन्द मुनि ने आकर वीर प्रभु को यह बतलाया। तब वीर प्रभु ने कहा : - गोशालक के पास तेजोलेश्या की लब्धि है ( जो छद्मवस्था में प्रभुकी दी हुई विधि से ही गोशालक ने प्राप्त की थी ) जो मनुष्य को जलाकर भस्म कर सकती है, परन्तु तीर्थंकर भगवान पर वह असर नही करती। वह यदि तिंर्थंकर पर लेश्या का प्रयोग करते है तो स्वयं उनको ही नुकसान करेगी।
पर है आनन्द , तुम सभी मुनियों को सूचित कर दो, की जब वह गोशालक यहां आए तो उससे कोई कुछ न कहे। सभी मौन अवश्य धारण करे। आनन्द ने यह सूचना सभी मुनियों को दे दी।
कुछ समय बाद क्रोधंवित गोशालक वँहा आये। तथा कहा कि में आपका प्रथम शिष्य नही, वह तो मरकर देवलोक गया है। में कौडिन्य गोत्रीय उदायि हु जिसने गोशालक के शरीर मे प्रवेश किया है। और यह मेरा सातवां शरीर प्रवेश है। केवलज्ञानी प्रभुने उसको गलत बताकर उसके गोशालक ही होने की पुष्टि की। तब वह प्रभुको अनर्गल बाते बोलने लगे। वँहा उपस्थित सर्वानुभूति मुनि से तीर्थंकर का अविनय देखा न गया और गोशालक को रोका, गोशालक ने तत्क्षण उनपर तेजोलेश्या फेंकी। मुनि तत्क्षण जलकर भस्म हो गए। अंतिम आलोचना का भी समय न मिला और कालकर वे 8 वे सहस्त्रार कल्प देवलोक में उत्पन्न हुए।
गोशालक फिर बोलने लगे। अब सुनक्षत्र अणगारने रोकना चाहा। तब गोशालक ने उन पर भी प्रहार किया। मुनि को थोड़ा समय मिला तब अंतिम आराधना कर सभी पापोकी आलोचना कर कालधर्म को प्राप्त हुए। ये मुनि 12 वे अच्युत देवलोक में उत्पन्न हुए।
अब गोशालक ने वीर प्रभुपर तेजो लेश्या फेंकी। पर यह जिन को स्पर्श नही कर पाई। प्रभु की प्रदक्षिणा कर वह लेश्या पुनः गोशालक के देह में प्रविष्ट हो गई। अब वीर प्रभु ने सन्तो से उनसे ज्ञान चर्चा की छूट दे दी। अब गोशालक कुछ नही कर सकता था। सन्तो ने वाद में उन्हें परास्त किया। गोशालक ने कहा कि इस लेश्या से तुम 6 माह में काल करोगे। तब वीर प्रभुने उनसे कहा कि में तो अभी करीब 16 वर्ष इस भूमि पर विचरण करूँगा। पर इसी लेश्या की वजह से तुम आज से सातवी रात्रि काल करोगे।
वँहा से निकलकर गोशालक कुम्हारिन के यहां आया। व दाह ज्वर आदि से प्रेरित हुआ। सातवी रात्री उन्हें सही समझ आई । और शिष्यों को सब जगह सत्य बतानेको कहा।
सातवी रात्री काल कर गोशालक काल कर 12 वे अच्युत देवलोक में उत्पन्न हुए। भविष्य में कुछ भव के बाद मोक्ष पधारेंगे।
धन्य है जिनवाणी।
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सन्दर्भ : - डॉ पद्ममुनि के ग्रंथ व तीर्थंकर चारित्र से,
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र भी लिखा हो , जाने अनजाने कोई अशातना हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।
बड़ी साधुवंदना - 33
चवी मुक्ति जाशे, वली सिंह मुनीश्वर सार,
बीजा पण मुनिवर, भगवती मा अधिकार।38।
गोशालक के विदा होने के कुछ समय बाद श्रावस्ती से वीर प्रभु श्रमणों सहित मेंढीय ग्राम पधारे ओर शाल कोष्ठक उद्यान में बिराजे। वँहा प्रभुको वेदनीय कर्म उदय में आया। अत्यंत तीव्र दाह ज्वर हुआ व रक्त अतिसार हो गये।
यह सब देखकर सामान्य जनों को शंका हुई की गोशालक का कथन सही होगा। तेजोलेश्या के प्रभाव से अब वीर प्रभु 6 माह में ही काल कवलित होंगे।
यह चर्चा सब जगह होने लगी। मालूकाकच्छ में एक जगह वीर प्रभुके सिंह नामक शिष्य तप कर रहे थे। उन्हें यह बात सुनने में आई। तब वीर के शिष्य सिंह अनगार को भगवान की वेदना की बात सहन न हुई। ओर कंही गोशालक की बात सत्य हो गई तो? यह सोचकर भगवान के विरह की कल्पना से ही भयभीत होकर आक्रन्द करने लगे।
भगवान ने यह जानकर अपने कुछ श्रमणों द्वारा सिंह अणगार को बुलवाकर उन्हें सांत्वना देते हुए कहा : - तेजोलेश्या कभी भी तीर्थंकर पर असर नही करती, मैं अभी भी करीब 16 वर्ष इस भूतल पर विचरण करूँगा। अतः आप शोक छोड़िए। आपकी शांति हेतु एक काम करे, इसी मेंढीक ग्राम में दृढ़ श्रमणोंपासिका रेवती श्राविका के यहां जाकर उन्होंने मेरे दर्द की कथा सुन जो कोल्हापाक बनाया है उसे न लेते हुए, अपने काम के लिए बिजोरापाक बनाया है वह आप ले आओ। आपकी संतुष्टि हेतु वह मैं औषध रूप लेकर स्वस्थ हो जाऊंगा।
सन्तो के निमित्त बनाया आहार ग्रहण नही करना, इस आचार को प्रभुने स्वयं के आचरण से समझाया।
सिंह अनगार रेवती श्राविका के यहां आये। रेवती यह जानकर अत्यंत प्रफुल्लित हुई। अत्यंत भाव से उन्होंने बिजोरापाक बहोराया। ओर उत्कृष्ट उच्च कर्म का बन्ध किया। प्रभु इस औषधि को ग्रहण कर स्वस्थ हुए। सिंह अनगार का शोक दूर हुआ।
इस गाथा में वर्णित चारो मुनिवर आनन्द जी, सिंह मुनि , सुनक्षत्रजी, सर्वानुभूतिजी चारो काल कर देवलोक में उत्पन्न हुए। आनन्दजी व सिंहमुनि अगले कुछ भव करके मोक्ष पधारेंगे। तथा सर्वानुभूतिजी व सुनक्षत्रजी मुनि देवभव करके महाविदेह से मुक्त हो जाएंगे।
बीजा पण मुनिवर, भगवती मा अधिकार,
इस कड़ी से ऊपर वर्णित 4 संतो के अलावा भी जिन महामुनियों का वर्णन है उन सभी को जयमलजी वन्दन कर रहे है।
भगवतीजी सूत्र
उत्तराध्ययन के विवेचन में हमने देखा, उसके बाद इस स्तुति में गाथा क्रम 26 से 38 तक के कथानकों का वर्णन 5 वा अंग सूत्र भगवतीजी सूत्र से लिया है। भगवतीजी सूत्र वर्तमान में काफी बड़ा आगम माना जाता है। इसमे 36000 प्रश्नोत्तर तो सिर्फ गौतमस्वामी तथा विरप्रभु के ही है। अन्य विषय वस्तु अलग । जिसका अगाध ज्ञान हमे जिनशासन की महत्ता बतलाता है। इसका मुख्य नाम विवाह पन्नति या व्याख्या प्रज्ञप्ति है। काल के असर में सभी आगमो का एक बड़ा हिस्सा नष्ट हो चुका है उसमे इस भगवतीजी सूत्र पर भी प्रभाव पड़ा। आज इसके बहुत कम अंश विद्यमान है।
धन्य है जिनवाणी।
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सन्दर्भ : - विभिन्न ग्रंथ से,
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र भी लिखा हो , जाने अनजाने कोई अशातना हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।
बड़ी साधुवंदना - 34
श्रेणिक नो बेटों , मोटो मुनिवर मेघ,
तजी आठ अंतेऊर आण्यो मन संवेग ।39।
वीर पे व्रत लइने , बांधी तप नी तेग,
गया विजय विमाने, चवी लेशे शिव वेग।40।
छट्ठे अंग सूत्र श्री ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र का प्रथम अध्ययन मेघकुमार।
यह अध्ययन बड़ा चमत्कारिक माना जाता है।
एक एक कथानक विभिन्न माध्यम से हमे शिक्षा दे रहा। संयमी जीवन में भी बाधाएं आती है। मन के भाव उथलपाथल मचाते है। तब कैसे हमे स्थिर रहकर संयम मार्ग में आगे बढ़ना है।
वीर प्रभु विचरण करते हुए एकबार राजगृही आकर गुणशील उद्यान में बिराजे। भगवान का आगमन जानकर प्रजा दर्शन वन्दन वाणी श्रवण हेतु आने लगी।
उस समय राजगृही के राजा श्रेणिक कुमार के पुत्र मेघकुमार भी प्रभु की महिमा सुनकर दर्शन वन्दन करने आये । प्रभुकी वाणी सुनकर विरक्त बने।
राजमहल आकर उन्होंने माता पिता से दीक्षा की आज्ञा मांगी। उनकी विरक्ति देखकर माता पिता ने आज्ञा दी। आखिर 8 - 8 रानी को छोड़कर मेघकुमार ने संयम ग्रहण किया।
मेघ मुनिकी यह संयम जीवन की प्रथम रात्री,
सन्तो ने ज्येष्ठता देखकर सभीका संथारा ( सोने की जगह ) तैयार किया। नवदीक्षित की सोने की जगह दरवाजे के पास आई। रात्रि के प्रथम व अंतिम प्रहर में सन्तो के आवागमन से, उनके अंगों के स्पर्श से, पांवों से उड़ती धुली से साधुजीवन के अनाभ्यासी मेघमुनि रातभर सो न पाये। मन खेदित हो गया। जब तक संसारी था, तब तक सब मेरा आदर करते थे। मीठा बोलते थे। अब मुंडित हो गया तो ऐसे परेशान कर रहे है। आख़िर थककर सुबह प्रभु से आज्ञा लेकर में पुनः राजमहल चला जाऊंगा , यह निश्चय कर लिया।
प्रातः काल जब वे वीर प्रभुके पास पहुचे, तब प्रभुने स्वयं उनके मन की बात बतला दी। थोड़ा चकित, थोड़े सँकोचित मेघमुनि ने प्रभुकी बात का स्वीकार किया। तब प्रभुने मेघमुनि को उनका पूर्वभव सुनाया।
एक बड़े जंगल में मेरुप्रभ नामके तुम हाथी थे। घने जंगलों में गर्मियों में आग लग जाना सहज होता है। इस जंगल में भी लगती रहती थी । पूर्वभव के ज्ञान से मेरुप्रभ हाथी ने ऐसी आग के समय सब जानवर की रक्षा हो सके ऐसा मण्डल तैयार कर दिया। यानी उस मैदान में बिना घास लकड़ी का एक साफ मैदान बना दिया जिससे उस मण्डल में आग लगे ही नही। इसके बाद एक बार फिर आग का मौका आया तब मेरुप्रभ हाथी ने सभी जानवरो को उसमे बुलाकर बचा लिया। पूरा मण्डल खचाखच भर गया। अंशमात्र जगह नही बची। पर सब प्राणी बच गये यह हर्ष की बात थी। आग चालू थी। सब प्राणी मण्डल में सुरक्षित थे। मेरुप्रभ हाथी को अचानक खुजली हुई ओर उसने पैर उठाया। पैर वापिस रखने गया तब तक नीचेकी जगह में एक छोटा खरगोश आ गया। अब ?
पैर रक्खे तो खरगोश मृत्यु प्राप्त हो जाएगा !!। उस जीव की रक्षा हेतु मेरुप्रभ ने पैर हवा में अद्धर ही रक्खा। वजनदार शरीर के लिए यह आसान नही था। पर करुणा की भावना, जब तक आग जलती रही, मेरुप्रभ करीब ढाई दिन ऐसे ही खड़ा रहा। अब आग संपूर्ण शांत हो गई। सब प्राणी उस मण्डल से निकले। मेरुप्रभ हाथी का पैर अकड़ गया। वह नीचे पैर रखने गया तो गिर गया और वंही मृत्यु को प्राप्त हुआ।
प्रभुने मेघमुनि से कहा : - ऐसे जीवो की करुणा के भाव की वजह से तुम राजकुमार बने।
अब उस करुणा को छोड़ , महाव्रतों को छोड़कर , एक रात्रि में हुए छोटे से कष्ट से घबराकर तुम जीती हुई बाजी हारने जा रहे हो?
प्रभुके उपदेश से मेघमुनि को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। अपने पूर्वभवो को देखा। वे संभल गये। ओर संयम में दुगुने उत्साह से स्थिर हुए। उत्कृष्ट आराधना कर 12 वर्ष संयम पालन किया। अंतिम समय 1 माह के अनशन के साथ काल कर विजय अनुत्तर विमान में उत्पन्न हुए। आगामी भव में मोक्ष जाएंगे।
यह अध्ययन काफी विस्तार से सुंदर तरीके से समझाया गया है। पर यहां पोस्ट मर्यादा में अति संक्षिप्त कर के लिखा है।
धन्य है जिनवाणी
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सन्दर्भ : - विभिन्न ग्रंथ से,
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र भी लिखा हो , जाने अनजाने कोई अशातना हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।
बड़ी साधुवंदना - 35
धन्य थावच्चा पुत्र, तजी बत्तीसों नार,
तेनी साथे निकल्या पुरुष, एक हजार ।41।
शुकदेव सन्यासी , एक सहस शिष्य लार,
पांच सौ से शैलक, लीधो संयम भार।42।
सब सहस अढाई , घणा जीवां ने तार,
पुण्डरीक गिरी पर कियो पादपोप गमन संथार ।43।
आराधक हुई ने कीधो खेवो पार।
हुआ मोटा मुनिवर, नाम लिया निस्तार।44।
4 गाथा साथ मे लेने की वजह इतनी ही है कि सब एक दूसरे से संलग्न कथाएं है।
( प्रथम भाग .... )
केवलज्ञान प्राप्ति बाद तीर्थंकर प्रभु नेमनाथ विचरण करते हुए एकबार द्वारिका पधारे। निकटस्थ रैवतक पर्वत के नन्दनवन उद्यान में बिराजे।
प्रभुका आगमन जान कृष्ण वासुदेव ने कौमुदी भेरी बजवाकर सभीको प्रभुदर्शन वन्दन के लिए बुलवाया। ईस तरह सेना के साथ कृष्ण वासुदेव प्रभुदर्शन करने आये। प्रभुकी दर्शन - वन्दना बाद उनकी देशना सुनकर सब भाव विभोर हो गये।
द्वारिका नगरी में एक थावच्चा नामक ऋद्धि संपन्न, बुद्धिमती, शक्तिशाली गृहस्वामिनी रहती थी। उसके एक रूपसंपन्न भव्य मुखाकृति वाला सुंदर पुत्र था। जिसे सब थावच्चा पुत्र कहते थे। 32 सुंदर कन्याओं के साथ उनका विवाह हुआ था।
प्रभुका आगमन जानकर थावच्चापुत्र भी दर्शन वन्दन को गये। प्रभुकी देशना सुनकर वैरागी हुए। घर आकर माता से संयम ग्रहण की अनुमति मांगी। माता को दीक्षाकी आज्ञा के लिये समझाया।
थावच्चा एक ऋद्धिवन्त गृहस्वामिनी थी। वह कुमार की दीक्षा समारोह भव्य तरीके से करना चाहती थी। ताकि धर्म की प्रभावना हो। राजा कृष्ण के पास जाकर उनके छत्र, चामर, मुकुट की मांग की।
तब कृष्ण वासुदेव थावच्चा पुत्र से मिलने स्वयं आये। उन्होंने भिन्न भिन्न तरीको से प्रश्न आदि पूछकर थावच्चा पुत्र के वैराग्य की परीक्षा ली। थावच्चा पुत्र का वैराग्य दृढ़ देखकर कृष्ण वासुदेव अत्यंत हर्षित हुए। उन्होंने दीक्षा समारोह के लिए सहर्ष अपने छत्र , चामर, मुकुट देने का वचन दिया। इतना ही नही, द्वारिका में घोषणा करवाई, जो भी नेमप्रभु के पास दीक्षा अंगीकार करेगा, उनके समारोह राज्य द्वारा होगा , उन व्यक्तियों के पीछे रहे परिवार के पालन की जिम्मेदारी स्वयं राज्य उठाएगा।
थावच्चा पुत्र के स्नेह के कारण 1000 पुरुष उनके साथ दीक्षा लेने को तत्पर हुए।
यो 1000 पुरुषों के साथ थावच्चा पुत्र ने संयम लिया । भगवान ने वे 1000 शिष्य थावच्चा पुत्र को प्रदान किये। उत्कृष्ट तप संयम पालते हुए ज्ञानाभ्यास करते हुए विचरने लगे।
अपने 1000 शिष्यों के साथ सामायिक से लेकर 14 पूर्व तक का अभ्यास किया।
एकबार थावच्चा पुत्र मुनि शैलक पुर आये। वँहा के राजा ने ऊनसे प्रतिबोध पाकर श्रावक व्रत अंगीकार किये।
एकबार विचरण करते हुए वे सौगंधिका नगरी पधारे। वँहा शुक नामक परिव्राजक आचार्य के भक्त सुदर्शन ने थावच्चा पुत्र से सही धर्म समझा । व सोचमुलक धर्म त्याग श्रावक धर्म अंगीकार किया। यह जानकर उनके गुरु शुक परिव्राजकाचार्य सौगंधिका आये। सुदर्शन के कहने पर वे थावच्चा पुत्र मुनि के पास आये। तत्त्वसंबन्धी कई प्रश्न पूछे। समाधान पाकर वे इतने संतुष्ट हुए की उन्होंने उनकी संयम यात्रा की महत्ता का स्वीकार किया। निर्ग्रन्थ धर्म समझकर अपने एक सहस्त्र शिष्यों के साथ प्रवज्या ग्रहण की । थावच्चा पुत्र ने वे 1000 शिष्यों को उन्हीं को प्रदान किया। ओर शिष्यों सहित शुकचार्य जी ज्ञानाभ्यास करते हुए विचरने लगे। वे भी 14 पूर्व के पाठी बन गए।
इधर धर्म साधना करते हुए थावच्चा पुत्र अणगार अपना अंतिम समय जानकर अंतिम आराधना हेतु अपने शिष्यों के साथ पुण्डरीक गिरी पर्वत पर आकर पादपोप गमन संथारा ग्रहण किया। एक मास के संलेखना बाद सिद्ध बुद्ध मुक्त हुए।
दूसरा भाग .....
धन्य है जिनवाणी
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सन्दर्भ : - विभिन्न ग्रंथ से,
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र भी लिखा हो , जाने अनजाने कोई अशातना हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।
बड़ी साधुवंदना - 36
धन्य थावच्चा पुत्र, तजी बत्तीसों नार,
तेनी साथे निकल्या पुरुष, एक हजार ।41।
शुकदेव सन्यासी , एक सहस शिष्य लार,
पांच सौ से शैलक, लीधो संयम भार।42।
सब सहस अढाई , घणा जीवां ने तार,
पुण्डरीक गिरी पर कियो पादपोप गमन संथार ।43।
आराधक हुई ने कीधो खेवो पार।
हुआ मोटा मुनिवर, नाम लिया निस्तार।44।
दूसरा भाग ....
निर्ग्रन्थ आचार्य शुकदेव जी विहार करते हुए एकबार शैलक पुर के उद्यान में पधारे। कल की कथा में हमने देखा था, वँहा के राजा शैलक ने थावच्चा पुत्र से श्रमणोपासक के व्रत लिए थे।
आचार्य शुकदेव जी का उपदेश सुनकर शैलक राजा का वैराग्य ओर वृद्धि को प्राप्त हुआ। अब उन्होंने पुत्र मण्डूक कुमार को राज्य सौंपकर पंथक आदि 500 मंत्रियों के साथ दीक्षा ले ली।
यहां ओर अन्य कई कथानकों में हमने देखा, की कुछ मित्र आदि सिर्फ सुख या वैभव में ही साथ नही देते। परन्तु त्याग व धर्म मे भी साथ देते है। इतने हलुकर्मी आत्मा होंगे वे सभी , की एक नेता का जरा से निमित्त मिलते ही सब वैभव, सुख सुविधा का त्याग कर मोक्ष मार्ग की कठिन राह पर चल निकलते है।
शैलक राजा के साथ उनके 500 मंत्री भी निर्ग्रन्थ धर्म की आराधना में जुड़ गये।
शुकदेव जी ने शैलक मुनि को वे 500 शिष्य सौंप दिए।
अंत समय जानकर शुकदेव जी 1000 शिष्योके साथ पुंडरिक गिरी पर अनशन कर सिद्ध बुद्ध मुक्त बन गए।
शैलक राजर्षि विहार करते हुए एकबार शैलक पुर पधारे। तप संयम पालते हुए उनका देह थोड़ा अस्वस्थ हो गया था। पुत्र मण्डूक राजा जब दर्शन को आये तो उनकी अस्वस्थता देखकर विनती की, की वे कुछ समय राजभवन में ही रुक जाये, उन्हें निर्दोष आहार व औषध से स्वस्थता पुनः प्राप्त हो जाये तब विहार कर दीजियेगा। शैलक राजर्षि ने उनकी विनती स्वीकार कर अपने 500 शिष्यों समेत राजा के एक यानशाला में रुक गए।
राजाज्ञा अनुसार उन्हें चिकित्सको द्वारा यथायोग्य आहार व औषध प्राप्त होने लगा। उनका देह स्वस्थ होकर पुनः पृष्ठ होने लगा। अब रोग मिट गया, पर शैलक राजर्षि का आहार ऐसे ही चलता रहा। आहार पान में ऐसे डूबे की साधना भूल गए। विहार करना भूल गये। कुशिलियापन आ गया। यानी संयम के प्रति पूर्ण उदासीन हो गये।
अब शैलक राजर्षि का शिथिलाचार देखकर उनके 500 शिष्यों में अपने संयम साधना के प्रति चिंतित हुए। कोई अन्य उपाय न देखकर गुरु आज्ञा लेकर पंथक मुनि को गुरु की वैयावृत्य के लिये छोड़कर अन्य सभी शिष्यों ने वँहा से विहार कर दिया।
समय बीतता गया। पंथक मुनि सब कुछ भूलकर अपनी साधना के साथ गुरु की वैयावृत्य कर रहे थे। वर्षावास शुरू हुआ व धीमे धीमे पूर्ण भी हो गया। चतुर्मासिक प्रतिक्रमण की बेला आई, पंथक मुनि ने देवसिक प्रतिक्रमण कर फिर चौमासी प्रतिक्रमण किया। गुरुवंदना के लिए गुरु के पास आये। शैलक राजर्षि निंद्रा में ही थे। अचानक पँथकमुनि के मस्तक के हल्के स्पर्श से जागकर क्रोधित हो गए। पंथक मुनि ने प्रतिक्रमण के लिए गुरुवंदना की बात कही और माफी मांगी। शिष्य की नम्रता देखकर , निमित्त मिला और शैलक राजर्षि प्रमाद की निंद्रा से जाग गए। अहो , संयम रूपी रत्न को मैने गंवा दिया। देह से काम लेने की जगह देह के पोषण में संयम रत्न त्याग दिया। शिथिलाचार में डूबा रहा।
पश्चाताप के बाद मुनि ने राजा को बताकर विहार कर दिया।
पुनः शुद्ध आराधना में लग गये। उनके 499 शिष्य उनकी आराधना देखकर वापिस उनके पास लौट आये।
बहुत वर्षो तक उत्कृष्ट आराधना कर 500 शिष्यों के साथ पुण्डरीक गिरी पर अनशन कर यावत थावच्चा पुत्र, वे भी सिद्ध बुद्ध मुक्त हो गये।
धन्य है जिनवाणी
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सन्दर्भ : - विभिन्न ग्रंथ से,
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र भी लिखा हो , जाने अनजाने कोई अशातना हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।
बड़ी साधुवंदना - 37
धन्य जिनपाल मुनिवर , दोय धन्ना हुआ सार्थ,
गया प्रथम देवलोके, मोक्ष जाशे आराध ।45।
प्रथम भाग...
जिनपाल मुनिवर,
संसारी जीव के लिए प्रतिकूल उपसर्ग को जीतना शायद सरल हो भी, परन्तु अनुकूल उपसर्ग सहना अति दुष्कर हो जाते है। जो इन उपसर्गो को जीत लेते है वे अपना मोक्षमार्ग शीघ्र पा लेते है।
एक समय मे चंपा नामक नगरी में श्रेष्ठी माकंदी व पत्नी भद्रा के 2 पुत्र रहते थे। जिनपाल व जिनरक्षित । अर्थोपार्जन हेतु व्यापार हेतु 11 बार समुद्र यात्रा की थी। व बहुत धन कमाया भी था। समुद्र के रास्ते विदेश में जाकर व्यापार करते।
व्यापार व धन की भूख कभी मिटती नही। बारहवीं बार समुद्र के लिए निकले। अनुभवी पिता ने इसबार बहुत मना किया पर युवानी का जोश जल्दी कहां मानता है।
जहाजों में ढ़ेर सारा माल भरकर वे समुद्र के रास्ते निकल गए।
11 बार की सफलता का मन मे एक नशा छाया हुआ था। पर इस बार कुदरत को कुछ और मंजूर था। शांत समुद्र में अचानक तूफान आया। जहाज डूब गया , जीवनरक्षक नौका तक भी वे पँहुच नही पाये। और समुद्र में गिर पड़े। आयुष्य बलवान था ।जहाज व माल तो सारा डूब गया पर वे एक लकड़ी के बड़े पटिये का सहारा लेकर कुछ समय के बाद रत्न द्वीप आ पंहुचे।
वह द्वीप की अधिष्ठात्री रत्ना देवी ने उन्हें शरण दी। लवण समुद्र की सफाई जिनके जिम्मे थी ऐसी वह रत्नादेवी, अधमिनी, कामभोग में अत्यंत गृद्ध देवी थी। अपने भोग के लिए दो युवा पुरुष देख उसने दोनो को वंही अपने महल में रख दिया। और उनके साथ नित्य भोग भोगने लगी। बहुत दिन बीत गए। दोनो भाई भोग में डूब गए थे, जब देवी लवणसमुद्र की सफाई करने जाती तब दो भाई महल के आसपास के वनखण्डों में घूमते रहते।
देवी ने दक्षिण दिशा के वनखण्ड में जाने के लिए प्रतिबंध लगाया था। शेष तीनो दिशा में रहे वनखण्डों में घूमते दोनो भाई एकबार कुतूहल वश दक्षिण दिशा के वनखण्ड में चले गये।
उफ्फ वँहा का दृश्य देखकर वे कांप उठे। मानव अस्थियों का ढेर ,अतिशय गन्ध से वे सिहर उठे। वँहा शूली पर लटक रहे एक जिंदा इंसान को देखा।
जिसका देह क्षत विक्षत हो चुका था। कभी भी मरने को संभव उस मनुष्य ने दोनो युवानो को देखकर ऊनसे उस देवी की सच्चाई बताई। वह भी एकबार समुद्री तूफान में अपने जँहाज से बिछुड़कर यहां आ पहुंचा था। देवी की भोगकामना तृप्त करता। पर एकबार छोटी सी गलती पर उसे शूली पर लटकाकर तड़प तड़प कर मरने जिंदा छोड़ दिया। यहां यह हाल कई मनुष्योका हुआ जिनकी अस्थियां सब जगह बिखरी पड़ी दिखाई। उसने कहा कि आपकी भी यह हालत हॉगी।
जिनपाल जिनरक्षित ने बचाव का रास्ता पूछा। तब उस मनुष्य ने बताया कि पश्चिम दिशा के वनखण्ड में एक यक्ष है उसकी निश्चित समय पर आराधना करने से वह तुम्हे बचा सकेगा।।।.....
कल दूसरा भाग ...
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सन्दर्भ : - डॉ पदम् मुनि के ग्रंथ से,
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र भी लिखा हो , जाने अनजाने कोई अशातना हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।
बड़ी साधुवंदना - 39
धन्य जिनपाल मुनिवर , दोय धन्ना हुआ साध,
गया प्रथम देवलोके, मोक्ष जाशे आराध ।45।
तीसरा भाग ...
राजगृही नगरी के दोनो धन्ना नामक अत्यंत ऋद्धिशाली सार्थवाह का कथानक
प्रथम धन्ना सार्थवाह,
अत्यंत वैभव, संपत्ति के स्वामी धन्ना सेठ की पत्नी का नाम था भद्रा जी। विवाह के कई बरसो तक निसंतान रहने के बाद कई कितने उपाय करने के बाद उनके घर एक पुत्र का जन्म हुआ। घर मे खुशियों की लहर दौड़ गई। बालक का नाम देवदत्त रखा। उसकी सुश्रुषा के लिए उसके खेलने के लिए पंथक नामक दास रखा था। बालक थोड़ा बड़ा हुआ, तब पंथक उसे घर से बाहर खेलने ले जाने लगा। बालक ऋद्धिशाली गृह का था, तो स्वाभाविक उसके छोटे से देह पर अथाग आभूषण थे। यह राजगृही के विजय नामक अत्यंत नृशंस, पापी, कुरूप कपटी चोर की दृष्टि में आ गया। एक बार पंथक की दृष्टि देवदत्त से जरा हटी तब स्फूर्ति से विजय चोर ने देवदत्त बालक को उठा लिया। भागते हुए नगर के बाहर निर्जन स्थान पर आया। वँहा एक सूखा कुआँ था। विजय ने उस बालक के सारे आभूषण उतारकर बालक देवदत्तकी निर्दयी तरीके से हत्या कर उस कुएं में फेंक दिया।
इधर जब देवदत्त के गुम होने की सूचना धन्ना सार्थवाह के परिवार को मिली तब घर मे हाहाकार मच गया। सेठानी की स्थिति दयनीय बन गई। सेठ ने राज रक्षकों की मदद ली। छानबीन में नगर के बाहर के कुएं में देवदत्त की लाश मिली। राज सेवको ने कड़क खोजबीन कर विजय चोर को पकड़ लिया। और कारागार में बन्द कर दिया।
अब कुछ दिन बीत गए। किसी प्रसंग में व्यापार में कुछ घटनाक्रम ऐसे बना की धन्ना सेठ को भी राज्य का बंदी बनना पड़ा। संयोग ऐसे बना की विजय चोर व धन्ना सेठ को एक ही बेड़ी से बांधा गया।
अब सेठ तो कुछ दिन के लिए जेल के मेहमान थे। उनके घर से उच्च गुणवत्ता वाला भोजन आता। विजय चोर ने उस भोजन में हिस्सा मांगा। धन्ना सेठ को पुत्र घातक को भोजन देने में जरा भी दिलचस्पी नही थी। पर विजय चोर ने उनके साथ लघु गुरु शंका के निवारण ( बाथरूम) हेतु साथ जाने से इन्कार कर दिया। अब सेठ मजबूर। विजय के कारण वह शरीर की व्यथा कैसे रोके?
आखिरकार उन्होंने भोजन में हिस्सा देना स्वीकार किया। यह भोजन लेकर आये पंथक ने देखा तब घर जाकर भद्रा सेठानी को बताया।
कुछ दिन में जब धन्ना सेठ कारागार से छूटकर आये तब भद्रा ने नाराजगी जताई। सेठ ने उन्हें समझाया कि मैने दया, या मित्रभाव से उसे भोजन नही करवाया। पर शरीर की सुविधा देखकर जबरन हिस्सा देना पड़ा । सेठानी का क्रोध शांत हुआ।
कुछ समय बाद नगर में धर्मघोष मुनि आये। उनकी वाणी से विरक्त बनकर धन्ना सेठ ने संयम लिया। उच्च कोटि से साधना कर काल कर प्रथम देवलोक में उत्पन्न हुए। विजय चोर मरकर नरक में गया।
आगे चलकर सेठ मुक्ति प्राप्त करेंगे।
इस गाथा का अगला विवेचन कल....
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सन्दर्भ : - डॉ पदम् मुनि के ग्रंथ से,
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र भी लिखा हो , जाने अनजाने कोई अशातना हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।
बड़ी साधुवंदना - 40
धन्य जिनपाल मुनिवर , दोय धन्ना हुआ साध,
गया प्रथम देवलोके, मोक्ष जाशे आराध ।45।
चौथा भाग ...
राजगृही नगरी के दोनो धन्ना नामक अत्यंत ऋद्धिशाली सार्थवाह का कथानक
अब दूसरे धन्ना सार्थवाह,
इन धन्ना सार्थवाह के पांच पुत्र व सुंसुमा नामक एक छोटी पुत्री थी। पुत्री के खिलाने के लिए एक चिलात नामक दास पुत्र था। दास पंथक के समान यह भी सुंसुमा का ख्याल रखता , खिलाने बाहर ले जाता आदि कार्य करता। परन्तु यह बालक अत्यंत उद्दंड व थोड़ा विकृत मानस था। अन्य सभी बच्चों को बहुत परेशान करता रहता। सेठ ने उसे सुधारने की कोशिश भी की, पर वह बिगड़ैल बनता गया। आख़िर सेठ ने उसकी हरकतों से, पड़ोसियों की शिकायतों से थककर उसे घर से निकालदिया।
अब चिलात और उच्छृंखल बन गया। अब कोई रोकटोक नही थी। यहां वँहा शैतानियां कर अपना गुजारा भी कर लेता। शनै शनै सभी व्यसनों में लिप्त हो गया। एक दिन
राजगृही के बाहर एक गुफा में रहते हुए 500 चोरों के अधिपति विजय चोर से जाकर मिल गया। खुराफाती तो था ही, संग मिलते ही चोरी में निपुण बन गया। और समय बीतते, विजय के देहांत बाद वह 500 चोर का सरदार बन गया। अब युवा चिलात को सुंसुमा की याद आने लगी। अपनी एकबार इच्छा पूरी करने के लिए एकबार उसने साथियों के साथ धन्ना सेठ के यहां डाका डाला। बहुत सारा धन व सुंसुमा को उठाकर ले आया।
धन्ना सेठ ने राजरक्षको की मदद ली। उसके आश्रय पर सेना लेकर आ पंहुचा। राजरक्षको की संख्या काफी थी व 500 चोर अधिक आत्मविश्वास में थोड़े लापरवाही में रह गये। चोर अब इधर उधर भागने लगे। इस भिड़ंत में अपनी हार देखते हुए चिलात सारा धन, सब साथियों को छोड़ सुंसुमाको लेकर भाग गया।
धन्ना सेठ ने यह देखा, पुत्रो को साथ लेकर वह भी पुत्री को बचाने उसके पीछे भागा। चिलात एक भयंकर अटवी ( जंगल ) में प्रवेश कर गया, जँहा से निकलना भी आसान नही था। धन्ना सेठ साहस कर उसी अटवी में पीछे भागे। भागते भागते बहुत समय हो गया। अब चिलात थकचुका था। उसे सुंसुमाको उठाकर भागना अब संभव नही लगा।
घातक, पापी चिलात ने वंही सुंसुमा का गला काटकर धड़ फेक दिया ओर भागने लगा।
धन्ना सेठ पर वज्रपात गिर गया। वे ओर पांचों पुत्र सुंसुमाके मृत्यु का विलाप करने लगे। पर अब सब व्यर्थ था। समय परखकर थक हारकर सब राजगृही आये।
कुछ समय बाद धन्ना सेठ ने वीर प्रभुके उपदेश से विरक्त होकर दीक्षा ले ली।
उत्कृष्ट संयम पालन किया। अंतिम समय में संलेखना सहित काल कर प्रथम देवलोक में देव बने। आगामी भव महाविदेह का कर वँहा संयम ग्रहण कर उच्च साधना से सिद्ध बुद्ध मुक्त होंगे।
Fb ग्रुप जैनिज़्म
All india jain aagam group
सन्दर्भ : - विविध ग्रंथ से,
नोट : - रुचि भंग न हो , सामान्यजनों को विपरीत श्रद्धा न हो उस उद्देश्य से कथा का एक हल्का सा अंश कम किया है। उसके लिए तथा जिनवाणी विपरीत अंशमात्र भी लिखा हो , जाने अनजाने कोई आशातना हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।
बडी साधु वंदना के प्रत्येक गाथा का भावार्थ कहा मिलेगा
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