नवकार अरिहंताणं
📘1⃣मोक्ष का प्रथम चरण कौनसा है ?
☑ शास्त्र श्रवण ।
📘2⃣ नवकार मंत्र के एक एक अक्षर की सेवा में अधिष्टायक देव कितने ?
☑2⃣ एक हजार ।
📘3⃣ मोक्ष यानी क्या ?
☑3⃣ मो - मोह
क्ष - क्षय ( मोह का क्षय )।
📘4⃣ परमानन्द स्वरूप किसका हैं ?
☑4⃣ अपनी आत्मा का ।
📘5⃣ जिसमें अक्षर कम और भाव अधिक हो उसे क्या कहते हैं ?
☑5⃣ मंत्र ।
📘6⃣ जिससे शिक्षा मिलती हो ?
☑6⃣ शास्त्र ।
📘7⃣कितने नवकार का जाप करने से नरक के बंधन शिथिल होते है ?
☑7⃣ नौ लाख ।
📘8⃣ नवकार मंत्र का सबसे पुराना उल्लेख कहाँ मिलता हैं ?
☑8⃣ खारवेल के शिलालेख में ।
📘9⃣अरिहंत का जाप करने से कौनसी गृह पीड़ा शांत होती हैं ?
☑9⃣ चंद्र , शुक्र की ।
📘🔟 अरिहंत का ध्यान कहाँ किया जाय ?
☑🔟 मस्तिष्क यानी ज्ञान केंद्र पर ।
📘1⃣1⃣ नवपद का अधिष्ठायक देव कौनसा ?
☑1⃣1⃣ विमलेश्वर ।
📘1⃣2⃣ नवकार मंत्र के 68 अक्षरों पर कुल कितनी विद्ध्या देवियाँ हैं ?
☑1⃣2⃣ 68544.
📘1⃣3⃣ पाँच परमेष्ठि में से स्त्री कितने पद पा सकती है ?
☑1⃣3⃣ दो - साध्वी , अरिहंत ।
📘1⃣4⃣ सिद्धों का ध्यान कहाँ करना चाहिए ?
☑1⃣4⃣ चक्षु तथा दर्शन केंद्र पर ।
📘1⃣5⃣ सिद्ध भगवान के जाप से किस ग्रह की पीड़ा नाश होता हैं ?
☑1⃣5⃣ सूर्य - मंगल ग्रह की पीड़ा का ।
📘1⃣6⃣ सिद्ध भगवान की आशातना किसने की ?
☑1⃣6⃣ अभिचि कुमार ने ।
📘1⃣7⃣ क्या सिद्ध भगवान सिद्ध्शिला का स्पर्श करते हैं ?
☑1⃣7⃣ नही ।( यह तो व्यवहार भाषा है कि सिद्धशीला पर विराजमान हैं )
📘1⃣8⃣ आचार्य का स्मरण करने से कौन सी पीड़ा दूर होती हैं ?
☑1⃣8⃣ गुरु - वृहस्पति की पीड़ा ।
📘1⃣9⃣ गाणधर कौनसे पद में आते हैं ?
☑1⃣9⃣ णमो आयरियाणं ।
📘2⃣0⃣ कौन सबसे कम उम्र में आचार्य बने ?
☑2⃣0⃣ पादलिप्रसुरि ( दस साल की उम्र में )।
📘2⃣1⃣ आचार्य के वेष में अभवि कौन रहे थे ?
☑2⃣1⃣ अंगारमर्दन आचार्य ।
📘2⃣2⃣ 94 वर्ष की उम्र में संघ ने किसे आचार्य बनाया ?
☑2⃣2⃣ आर्य शय्यंभव को ।
📘2⃣3⃣ उपाध्याय का जाप करने से किसका विकाश होता हैं ?
☑2⃣3⃣ ज्ञान का अद्भुत विकाश ।
📘2⃣4⃣ भगवान महावीर के शासन में सबसे छोटे साधु कौन हुए ?
☑2⃣4⃣ वज्रस्वामी ।
📘2⃣5⃣ साधु का ध्यान कहाँ करना चाहिए ?
☑2⃣5⃣ मुख के अग्रभाग पर ।
📘2⃣6⃣ पिता द्वारा घर से निकाल दिया जाने पर नवकार के सहारे कौन सुखी बना ?
☑2⃣6⃣ धन्ना सेठ ।
📘2⃣7⃣ नवकार मंत्र का आगमिक नाम क्या हैं ?
☑2⃣7⃣ पंचमंगल महाश्रुतस्कंध ।
📘2⃣8⃣ आनुपूर्वी में कितने नवकार गिने जाते हैं ?
☑2⃣8⃣ 120 .
📘2⃣9⃣ अनार्य देश में साधु कौन बना ?
☑2⃣9⃣ आद्रक कुमार ।
📘3⃣0⃣ शूली का सिंहासन किसके शासन में हुआ ?
☑3⃣0⃣ शांतिनाथ भगवान के समय ।
रिक्त स्थान भरें ( संख्या में )
📘3⃣1⃣ जीवों के ----- भेदों में से ------ स्थान से निकल कर जीव मनुष्य बन केवली हो मोक्ष जाते है इसलिए माला में ------- है ।
☑3⃣1⃣ 563 , 108 , 108 मनके ।
*
णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं। णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं।।
साध्वी ने नवकार मंत्र के महत्व को बताते हुए कहा कि नवकार को आत्मसात करना मुक्ति का दीप ज्योतिर्मान करना है। नवकार मंत्र का रचयिता कोई नहीं है। यह मंत्र शाश्वत है। अनादिकाल से प्रचलित है। इसमें कुल 68 अक्षर हैं। ये 68 तीर्थ के सूचक हैं।
संसार के सभी दूसरे मंत्रों में भगवान से या देवताओं से किसी न किसी प्रकार की मांग की जाती है लेकिन इस मंत्र में कोई मांग नहीं है। जिस मंत्र में कोई याचना की जाती है वह छोटा मंत्र होता है और जिसमें समर्पण किया जाता है वह मंत्र महान होता है। इस मंत्र में पांच पदों को समर्पण और नमस्कार किया गया है। इसलिए यह महामंत्र है।
नमो व णमों प्राकृत दृष्टि से सही
नमो व णमो में कुछ लोगों का मतभेद है, लेकिन प्राकृत व्याकरण की दृष्टि से दोनों सही हैं। एक-दूसरे को गलत कहना संप्रदाय हठ है किंतु दीर्घ अनुभवी आचार्यो का कहना है कि णमो मे अष्टसिद्धि का वास होता है। नमो अरिहंताणं में बहुवचन है। इस पद में भूतकाल में जितने अरिहंत हुए हैं, भविष्य में जितने होंगे और वर्तमान में जितने हैं, उन सबको नमस्कार करने के लिए बहुवचन का प्रयोग किया गया है। जो ओली तप की आराधना करता है उसकी ¨जदगी में आनंद ही आनंद आता है। इन दिनों में मैना सुंदरी की कथा को सुनने का बड़ा महत्व है और मैना सुंदरी की कथा को अवश्य सुनना चाहिए।
पर्यायवाची नाम
महामंत्र,बीज मंत्र,अनादि मंत्र,नमस्कार मंत्र,नवकार मंत्र,मूल मंत्र,पंच मंगल,अपराजित मंत्र,मंत्रराज,पंचपरमेष्ठी मंत्र,पंच पद मंत्र,शाश्वत मंत्र,अनादि निधन मंत्र,सर्वविघ्ननाशक मंत्र,सनातन मंत्र व मंगल सूत्र आदि नाम णमोकार मंत्र के ही हैं। ।
णमोकार मंत्र प्राकृत भाषा में लिखा गया है
णमोकार मंत्र अनादिनिधन मंत्र है, इसे किसी ने नहीं बनाया है ।
पाँच परमेष्ठियों-अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु को नमस्कार किया गया है ।
णमोकार मंत्र में ५ पद, ३५ अक्षर एवं ५८ मात्राएँ है णमोकार मंत्र
आर्या छन्द में।
-८४ लाख मंत्रो की उत्पत्ति णमोकार मंत्र से हुई है ।
सोते हुये,जागते हुए,ठहरते हुये,मार्ग मे चलते हुये,घर में चलते हुये,घूमते हुये,क्लेश दशा में मद-अवस्था में वन-गिरि और समुद्रों में अवतरण करते हुये,जो व्यक्ति (सुकृती) प्रशस्ति से वो ज्ञापित किये गये इन नमस्कार मंत्रों को अपनी स्मृतिरुप खजाने मे रखे हुये के समान धारण करता है,वह बडा भाग्यशाली (सुकृती पुण्यवान् ) है ।
दधि,दर्वा,अक्षत,चन्दन,नारियल,पूर्णकलश,स्वस्तिक,दर्पण,भद्रसन,वर्धमान,मत्स्य-युगल,श्रीवत्स,नंघावर्त आदि मंगल वस्तुओं में णमोकार मंत्र सबसे उत्कृष्ट मंगल है । णमोकार मंत्र का स्मरण और जप से अनेक प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त होती है । अमंगल दूर हो जाता है और पुण्य की वृद्धि होती है ।
तिर्यंच पशु-पक्षी, जो मांसाहारी,क्रूरू हैं जैसे सर्प,सिन्हादि,जीवन में सहस्त्रों प्रकार के पाप करते हैं । ये अनेक प्रणीयों की हिंसा करते हैं,मांसाहारी होते हैं तथा इनमें क्रोध,मान,माया और लोभ कषायों की तीव्रता होती है,फिर भी अंतिम समय में किसी दयालु द्वारा णमोकार मंत्र का श्रवण करने मात्र से उस निंघ तिर्यंच पर्याय का त्याग कर स्वर्ग में देव गति को प्राप्त होते हैं।
जैसे
मरते हुए कुत्ते को णमोकार मंत्र
जीवन्धर कुमार ने सुनाया था।
इस मंत्र के प्रभाव से वह पापाचारी श्वान देवता के रुप में उत्पन्न हुआ । अत: सिद्ध है कि मंत्र आत्मविशुद्धि का बहुत बडा कारण है ।
बैल से सुग्रीव
भरत क्षेत्र के अयोध्या नगरी में राजा राम व लक्ष्मण राज्य करते थें,उस समय की बात है महेन्द्र उद्यान में सकलभूषण केवली मुनिराज का आगमन हुआ अब यह बात राजा राम को पता चली तो वह अपने परिवार व मित्रों के साथ सकलभूषण केवली के दर्शन करने निकले,उद्यान में जाकर कर मुनिराज को नमस्कार कर उनकी पूजा व वन्दना कर मुनिराज के मुखार्विन्द से उपदेश सुना उसके बाद विभीषण ने मुनिराज से सुग्रीव राम का किस कारण से इतना स्नेही व वात्सल्य बना तब केवली बोले इस भरत क्षेत्र में श्रेष्ठपुर नामक नगर में छत्रछाय नाम का राजा राज्य करता था,उसकी पत्नी का नाम श्रीदत्ता था,इसी नगर में पद्मरुचि नाम का सेठ रहता था वह धर्मात्मा व सम्यग्दृष्टि था वह एक दिन मन्दिर से पूजा व आराधना कर आ रहा था तो उसने रास्ते में देखा की दो बैल आपस में लड रहे थे जिसमें एक बैल नीचे गिर गया वह मरणोन्मुख आवस्था में था उस समय पद्मरुचि सेठ में बैल के कान में पंचनमस्कार मंत्र सुनाया सेठ के मुहँ से मंत्र सुनते वह बैल मरण को प्राप्त हो गया, अंतिम समय में धर्म व णमोकार मंत्र का साथ मिलने के प्रभाव से वह बैल मर कर राजा छत्रछाय की रानी श्रीदत्ता के गर्भ से लकडे के रुप में जन्म लिया जिसका नामकरण वृषभध्वज रखा गया,जैसे जैसे समय निकलता गया वह बडा हुआ अनुक्रम से वह राजपद को प्राप्त हुआ,एक दिन वह हाथी की सवारी कर नगर का परिभ्रमण कर रहा था कि वह उस स्थान पर पहुच गया जहाँ पर वह पुर भव में बैल की पर्याय में मरण को प्राप्त हुआ था, उस स्थान को देख कर उसे पूर्व भव की सारी बात का स्मरण आ गया,राजा वृषभध्वज ने यह जानने के लिए की किस व्यक्ति ने बैल को णमोकार मंत्र सुनाया था, उसी स्थान के सामने बैल को णमोकार मंत्र देते हुए सेठ की एक प्रतिमा बनवाई तथा वहा पर एक विद्वान व्यक्ति को रखा,उसे कहा गया की आप यहा पर इस बात का ध्यान रखे की कौन व्यक्ति इस प्रतिमा को देखकर आर्श्चय में पडता है,उस व्यक्ति को समान के साथ राज भवन लेकर आए । एक दिन पद्मरुचि सेठ उसी स्थान पर गया वह प्रतिमा को देखकर आर्श्चय में पड गया यह देख नियुक्त किए विद्वान उसे राज भवन ले गया,वहा पर राजा वृषभध्वज ने पद्मरुचि सेठ से पुछा की आप उस प्रतिमा को देख कर आर्श्चय में क्यों पड गए थे। सेठ में भी वही पूर्व भव की सारी बात दी तब राजा ने सेठ से कहा वह भूतपूर्व बैल में ही हुँ । कालांतर में वह राजा तो सुग्रीव हुआ वह सेठ राम हुआ है इसी के कारण सुग्रीव राम का स्नेही बना है । इस कहानी से हमे यह प्रेरणा मिलती है की णमोकार मंत्र के प्रभाव से एक तिर्यंच बैल ने भी देव व मनुष्य पर्याय में घुमकर उत्तम सुख को प्राप्त किया । जिस हमे भी णमोकार मन्त्र का पाठ व जाप प्रति समय करते रहना चाहिए ।
मुनि और श्रावक की दिनचर्या में
मुनि एवं श्रावक अपनी प्रतिदिन की क्रिया का प्रारम्भ णमोकार मंत्र से करते हैं । जैसे समायिक,प्रतिक्रमण, देव वन्दना,भक्ति पाठ,स्वाध्याय शौच,लघुशंका,प्रत्याख्यान,प्रायच्चित,आहार चर्या आदि का प्रारम्भ णमोकार मंत्र से ही होता है । तथा अंतिम समय साधु या श्रावक समाधिमरण करता है तो उसे मात्र णमोकार मंत्र ह्री सुनाया जाता है ।
श्रावक पूजा,उपवास,दान,त्याग,पाठ भोजन आदि कार्य करता है तथा एक इन्द्रिया जीव की हिंसा होने पर णमोकार मंत्र का जाप करता है ।
णमोकार मंत्र का अपमान
सुभौम चक्रवर्ती ने किया
मंत्र के अपमान से उन्हें
नरक गति प्राप्त हुई
पंचनमस्कारस्तोत्रम् आचार्य उमास्वामी)
संग्राम,सागर,हाथी,सर्प,सिंह,दुष्ट व्याधियां,अग्नि,शत्रु और बन्धन से उत्पन्न होने वाले,चोर,ग्रहपीडाजन्य,भ्रमसम्भूत,निशाचर और शाकिनियों के द्वारा उत्पन्न भय पंच परमेष्ठी पदों के स्मरण से नष्ट हो जाते हैं।
ज्ञानपीठ पुंजाजलि)
अर्थ- पवित्र हो या अपवित्र,अच्छी स्थिति में हो या बुरी स्थिति में,पंच-नमस्कार मंत्र का ध्यान करने से सब पाप छूट जाते हैं । पवित्र हो या अपवित्र, किसी भी दशा में हो, जो पंच परमेष्ठी (परमात्मा) का स्मरण करता है वह बाह्य और अभ्यंतर से पवित्र होता है । यह नमस्कार मंत्र अपराजित मंत्र है । यह सभी विघ्नों को नष्ट करनेवाला है एवं सर्व मंगलों में यह पहला मंगल है । विघ्नों के समूह नष्ट हो जाते हैं एवं शाकिनी,डाकिनी,भूत,पिशाच,सर्प आदि का भय नहीं रहता और भयंकर हलाहल-विष भी अपना असर त्याग देते हैं।
हेमचन्द्रचार्य का योगशास्त्र (मंगलमंत्र णमोकार एक अनुचिंतन)
विशुद्धि पूर्वक इस (णमोकारमंत्र) मंत्र का 108 बार ध्यान करने से भोजन करने पर भी चतुर्थोपवास-प्रोषधोपवास का फल प्राप्त होता है ।
जाप विधि
णमोकार मंत्र का जाप -1.द्रव्य2.क्षेत्र 3.समय 4.आसन 5.विनय 6.मन 7.वचन 8.काय इन आठ प्रकार की शुद्धि के साथ जाप करने पर फल जल्दी मिलता है ।
द्रव्य शुद्धि- द्रव्य शुद्धि का अर्थ है अंतरंग शुद्धि से है । पाँचों इन्द्रिय तथा मन को वश में कर कषायों का कम करना तथा दयालुचित हो कर जाप करना चाहिए ।
क्षेत्र शुद्धि - ऐसा स्थान जहाँ हल्ला-गुल्ला नही हो, मच्छर,डाँस भी नही हो,मन को आशांत करने के साधन न हो तथा जहाँ पर न तो अधिक उष्ण हो न ही अधिक शीत हो एसे स्थान का चयन कर जाप करने बैठना क्षेत्र शुद्धि है ।
समय शुद्धि -प्रात:मध्याह और सन्ध्या के समय कम से कम 45 मिनट तक जाप करना चाहिए ।
आसन शुद्धि- काष्ठ,शिला,भूमि,चटाई या शीतल पट्टी पर पूर्वदिशा या उत्तर दिशा में मुख पद्मासन,खड्गासन या अर्धपद्मासन होकर जाप करना चाहिए ।
विनय शुद्धि- जिस आसन पर बैठक कर जाप करना है उसे ईयापथ शुद्धि के साथ साफ करना चाहिए । जाप करते समय मन में मंत्र के प्रति श्रद्धा, अनुराग और नम्रता का भाव रहना आवश्यक है ।
मन शुद्धि- अशुभ विचारोँ का त्याग कर शुभ विचार को ग्रहण करना,मन को चंचल होने से रोकना मन शुद्धि है ।
वचन शुद्धि- धीर-धीर अर्थ समझते हुए शुद्ध उच्चारण करना,मन-मन में उच्चारण करना वचन शुद्धि है।
काय शुद्धि-शौचादि जाने के बाद शरीर की यथा योग्य शुद्धि करना तथा शरीर का हलन-चलन नही होने देना काय शुद्धि है।
ग्रह की शांति
णमोकार मंत्र का पाठ व जाप नव ग्रह की पीडा को शांत करता है । णमोकार मंत्र अलग-अलग पदो से नव ग्रहों की पीडा शांत होती है ।
ऊँ णमो सिद्धाणं का जाप करने से सूर्य ग्रह की पीडा शांत होती है ।
ऊँ णमो अरिहंताणं का जाप करने से चन्द्रग्रह शुक्र ग्रह,की पीडा शांत होती है ।
ऊँ णमो सिद्धाणं का जाप करने से मंगल ग्रह की पीडा शांत होती है ।
ऊँ णमो उवज्झायाणँ का जाप करने से बुध ग्रह की पीडा शांत होती है ।
ऊँ णमो आइरियाणँ का जाप करने से गुरु ग्रह की पीडा शांत होती है ।
ऊँ णमो लोए सव्वसाहूणं का जाप करने से शनि ग्रह की पीडा शांत होती है ।
राहु और केतु ग्रह की पीडा शांत करने के लिए समस्त णमोकार मंत्र का जाप किया जाता है ।
बीज मंत्र की उत्पत्ति
ऊँ बीज समस्त णमोकार मंत्र से उत्पन्न हुआ है ।
ह्रीं बीज की उत्पत्ति णमोकार मंत्र के प्रथम पद णमो अरिहंताणं से हुई है ।
श्रीं बीज की उत्पति णमोकार मंत्र के द्वितीय पद णमो सिद्धाणं से हुई है।
क्षीं और क्ष्वीं की उत्पति णमोकार मंत्र प्रथम,द्वितीय और तृतीय पदों से हुई है ।
क्लीं बीज की उत्पति प्रथम पद में प्रतिपादित तीर्थंकरों की यक्षिणियों से हुई है ।
ह्र्रं की उत्पति णमोकार मंत्र के प्रथम पद से हुई है ।
द्रां द्रीं की उत्पत्ति णमोकार मंत्र के चतुर्थ और पंचम पद से हुई है ।
ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: ये बीजाक्षर प्रथम पद से उत्पन्न हुई है ।
क्षां क्षीं क्षूं क्षें क्षैं क्षौं: बीजाक्षर प्रथम,द्वितीय ओर पंच पद पर निष्पन्न है ।
णमोकार मंत्र के प्रभाव से इच्छा करने पर चन्द्रमा सूर्यरुप में,सूर्य चन्द्ररुप में,पाताल आकाश रुप में,पृथ्वी स्वर्गरुप में परिणत हो सकते हैं । अधिक कहने से क्या? तीनोँ लोक मेँ ऐसी कोई वस्तु नहीं है,जो णमोकार मंत्र के साधक के लिए सम चाहने पर सम और विषम चाहने पर विषम न हो जाये ।
कल्पवृक्ष से जो माँगे वह मिलता है,उसी प्रकार णमोकार मंत्र का जाप करने वाले को सब कुछ मिल जाता है ।
🙏नमस्कार सूत्र🙏
प्रश्न 1: जैन धर्म का मुख्य सूत्र पाठ कौन-सा है?
उत्तर: नमस्कार सूत्र या पंच परमेष्ठि सूत्र।
प्रश्न 2: नमस्कार सूत्र कौन-से सूत्रों से लिया गया है?
उत्तर: भगवती सूत्र के मंगलाचरण और आवश्यक सूत्र से लिया गया है।
प्रश्न 3: नमस्कार किसे कहते हैं?
उत्तर: दोनों हाथों को जोड़ कर ललाट पर लगाते हुए मस्तक झुकाना।
प्रश्न 4: परमेष्ठि किसे कहते हैं?
उत्तर: परम् अर्थात् उत्कृष्ट स्थान। लोक में उत्कृष्ट स्थान दो हैं- मोक्ष और संयम। जो मोक्ष और संयम में स्थित हैं, उन्हें परमेष्ठि कहते हैं।
प्रश्न 5: नमस्कार सूत्र पद्य है या गद्य है ?
उत्तर: नमस्कार सूत्र पद्य रूप है।
प्रश्न 6: नमस्कार सूत्र में कितनी गाथाएँ हैं?
उत्तर: दो गाथाएँ हैं।
प्रश्न 7: नमस्कार सूत्र का उच्चारण कितने श्वासोच्छ्वास में पूरा होना चाहिये? या नमस्कार सूत्र में कितने विश्राम-स्थल हैं?
उत्तर: 8 श्वासोच्छ्वास में पूरा होना चाहिये, अर्थात् 8 विश्राम स्थल होते हैं।
प्रश्न 8: नमस्कार सूत्र में किसको नमस्कार किया गया है?
उत्तर: पाँच पदों में स्थित जीवन-पर्यंत 18 पापों का त्याग करने वाली आत्माओं को नमस्कार किया गया है।
प्रश्न 9: नमस्कार सूत्र के पाँच पद कौन कौन से हैं?
उत्तर: (1) अरहंत (2) सिद्ध (3) आचार्य (4) उपाध्याय (5) साधु-साध्वी जी।
प्रश्न 10: पद किसे कहते हैं?
उत्तर: योग्यता से प्राप्त (पूज्य) स्थान को पद कहते हैं।
प्रश्न 11: अर्हन्त (अरिहन्त) किसे कहते हैं?
उत्तर: जो देवों द्वारा बनाये हुए आठ महाप्रातिहार्य (अशोक वृक्ष आदि) रूप पूजा के योग्य हैं तथा वन्दन नमस्कार एवं सत्कार के योग्य हैं, सर्वज्ञ सर्वदर्शी हैं, चार तीर्थ की स्थापना करने वाले हैं और जो सिध्दिगमन के योग्य हैं उनको अर्हंत(अर्हत्) कहते हैं अथवा अरि-आत्मशत्रुओं को (चार घातीकर्मों को) हंत-नाश करने वालों को "अरिहन्त" कहते हैं।
* घातीकर्म (घनघातीकर्म): आत्मा के मूल (स्वाभाविक) गुणों का घात करने वाले कर्म।
ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय।
** अघातीकर्म: आत्मा के मूल गुणों का घात नहीं करने वाले कर्म।
वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र।
प्रश्न 12: सिद्ध किसे कहते हैं?
उत्तर: जिन्होंने आठों कर्मों को क्षय(नष्ट) करके आत्मकल्याण साध लिया है(मोक्ष जा चुके हैं), उन्हें सिद्ध कहते हैं।
प्रश्न 13: आचार्य किसे कहते हैं ?
उत्तर: चतुर्विध संघ के नायक, जो स्वयं पाँच आचार पालते हैं और चतुर्विध संघ से भी पलवाते हैं, उन्हें आचार्य कहते हैं।
* पाँच आचार: ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार।
प्रश्न 14: क्या आचार्य श्री को धर्म के नियमों में फेरबदल करने का कोई अधिकार है?
उत्तर: धर्म के नियम बनाने वाले तीर्थंकर होते हैं। उसमें फेरबदल करने से तीर्थंकरों की आशातना होती है। अतः आचार्य श्री को तो धर्म के नियमों का स्वयं पालन करना और दूसरों को कराने का ही अधिकार है, फेरबदल करने का कोई अधिकार नहीं है।
* तीनों ही काल में सिध्द हुई वस्तु का नाम सिध्दांत है अतः सिध्दांत में कांटछांट, कम ज्यादा करनेवाले अभी तक धर्म को समझे ही नहीं है।
प्रश्न 15: उपाध्याय किसे कहते हैं?
उत्तर: जो साधु शास्त्रज्ञ हैं और दूसरों को शास्त्र पढ़ाते है, उन्हें उपाध्याय कहते हैं। अथवा
जिस काल में जितने सूत्र उपलब्ध हों उतने स्वयं पढ़े और दूसरों को पढ़ावे तथा मिथ्यात्व रूपी अन्धकार को हटाकर समकित रूपी उद्योत(प्रकाश) को फैलाने वाले उपाध्याय कहलाते हैं।
प्रश्न 16: साधु किसे कहते हैं?
उत्तर: जो पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति का पालन करते हैं तथा छह काय के जीवों की रक्षा करते हुए मान-प्रतिष्ठा की भावना तथा आडम्बर से रहित अपने आत्मकल्याण की साधना करते हैं, उन्हें साधु कहते हैं।
प्रश्न 17: नमस्कार करने से क्या लाभ हैं?
उत्तर: नम्रता आती है, विनयशीलता बढ़ती है तथा सभी पापों का नाश होता है।
प्रश्न 18: पाँच पदों में कितने गुण हैं? प्रत्येक पद के गुणों की संख्या लिखिये।
उत्तर: पाँच पदों में 108 गुण हैं, यथा- अरहंत में 12, सिद्ध में 8, आचार्य जी में 36, उपाध्याय जी में 25 तथा साधु जी में 27 गुण होते हैं।
प्रश्न 19: नमस्कार सूत्र के पाँच पदों में कितने अक्षर हैं ?
उत्तर: नमस्कार सूत्र के 5 पदों में 35 अक्षर हैं- पहले पद में 7, दूसरे में 5, तीसरे में 7, चौथे में 7 और पाँचवें पद में 9 अक्षर हैं। इस प्रकार कुल 35 अक्षर होते हैं।
प्रश्न 20: नमस्कार सूत्र की दोनों गाथाओं में कितने अक्षर हैं ?
उत्तर: 68 अक्षर हैं (35 + 33)।
प्रश्न 21: पाँचों पदों में प्रथम शब्द "णमो'' क्यों दिया गया है?
उत्तर: णमो का अर्थ है- नमस्कार, नमन करना, झुकना, विनय करना। धर्म का मूल विनय है। शास्त्रों में कहा है- विणय धम्मस्स मूलओ। जीवन में सर्वप्रथम विनय की आवश्यकता है। जिस प्रकार वृक्ष का मूल जड़ होती है, उसी प्रकार सद्गुण रूपी जीवन वृक्ष का मूल विनय है। पाँचों पदों में स्थित आत्माएँ हमारे लिये उपकारी हैं, उपकारी के प्रति विनय प्रकट करने के लिये प्रत्येक पद के आगे णमो शब्द दिया है।
प्रश्न 22: पाँचों पद हमारे लिये उपकारी हैं, यह कैसे समझेंगे?
उत्तर: जैन धर्म, व्यक्ति पूजक न होकर गुण पूजक है। अरहंत आदि पाँच पद किसी व्यक्ति का नाम नहीं है अर्थात् यह तो मात्र एक स्थान है, जिसमें वो गुण रहे हुए हैं, या जिन्होंने उन महान् गुणों की योग्यता प्राप्त कर ली है, उन्हें उस पद से जाना जाता है।
अरहंत हमें शाश्वत सुखी बनने का मार्ग बताते हैं तथा सिध्दों की पहचान भी अरहंत ही करवाते हैं। अतः अरहंत भगवान हमारे लिये मार्गदाता होने के कारण उपकारी हैं।
सिद्ध प्रभु साधना के ध्येय के रूप में होने से उपकारी हैं तथा साधना का अंतिम लक्ष्य सिद्ध अवस्था प्राप्त करना है, उस रूप में सिद्ध हमारे उपकारी हैं।
आचार्य जी स्वयं पाँच आचार का पालन करते हैं तथा चतुर्विध संघ को भी पालन करवाते हैं, अरहंत व्दारा प्ररूपित मार्ग का सही स्वरूप समझाने वाले हैं; अतः आचार्य जी भी हमारे लिये उपकारी हैं।
उपाध्याय जी स्वयं शास्त्रज्ञ होते हैं तथा चतुर्विध संघ को भी शास्त्र का ज्ञान देते हैं, उपाध्याय मौलिक पाठों को शुध्द पढा़ते हैं। ज्ञानदाता होने के कारण उपाध्याय जी हमारे उपकारी हैं।
पंचम पद में स्थित आत्माएँ साधु कहलाते हैं, साधु जी जिनेश्वर प्रभु की आज्ञा का सम्यक् रूप से पालन करने वाले होते हैं, स्वयं के आत्म-कल्याण की साधना करते हैं तथा सम्पर्क में आने वालों को भी सन्मार्ग बताने वाले होते हैं, अतः पाँचों पद हमारे लिये उपकारी हैं।
प्रश्न 23: वर्तमान अवसर्पिणी काल में इस भरत क्षेत्र में कितने अरहंत हुए हैं तथा वर्तमान में वे कहाँ हैं? हम उन्हें कौन से पद में नमस्कार करते हैं?
उत्तर: वर्तमान अवसर्पिणी काल में चौबीस (24) तीर्थंकर (अरहंत) भगवान हुए हैं तथा अभी लोक के अग्र भाग पर सिद्ध शिला पर मोक्ष में स्थित हैं। हम उन्हें दूसरे पद "णमो सिद्धाणं" में नमस्कार करते हैं।
प्रश्न 24: भगवान महावीर स्वामी वापस कब आयेंगे?
उत्तर: कोई भी जीव मोक्ष में जाने के बाद पुनः संसार में नहीं आता है। भगवान महावीर स्वामी भी मोक्ष में चले गये हैं, अतः संसार में पुनः कभी नहीं आयेंगे। उनके स्थान पर समय-समय पर नये-नये तीर्थंकर होते रहते हैं।
प्रश्न 25: मोक्ष में जाने के बाद जीव वापस क्यों नहीं आता है ?
उत्तर: संसार में रहने का मूल कारण कर्म है । कर्मों का पूर्ण रूप से क्षय करके ही जीव मोक्ष प्राप्त करता है। कर्म से भारी बना जीव ही संसार में जन्म-मरण करता है। कर्म से मुक्त होने के बाद जीव मोक्ष में चला जाता है, फिर वहाँ जन्म, मरण, रोग और बुढ़ापा नहीं आता। कर्मों के कारण ही जीव संसार में जन्म-मरण, रोग और बुढ़ापे के दुःख से दुःखी होता है, कर्मों से मुक्त होने के बाद जन्म-मरण नहीं करना पड़ता अर्थात् अक्षय स्थिति रूप मोक्ष प्राप्त कर लेता है; जैसे अग्नि में जले हुए बीजों से फिर अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती, इसी प्रकार सिद्धों के भी कर्म बीजों पर पुनः जन्म व उत्पत्ति नहीं होती है।
प्रश्न 26: कर्मों से मुक्त होने का अर्थात् मोक्ष प्राप्त करने का क्या उपाय हैं?
उत्तर: सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन, सम्यक् चरित्र, सम्यक् तप का आचरण करने से जीव कर्मों से मुक्त हो जाता है अर्थात् ये मोक्ष प्राप्त करने के उपाय हैं।
प्रश्न 27: नमस्कार सूत्र का अर्थ लिखिये।
उत्तर: अरहंतों को नमस्कार, सिद्धों को नमस्कार, आचार्यों को नमस्कार, उपाध्यायों को नमस्कार, लोक में विराजित सभी साधुओं को नमस्कार। यह पाँच पदों को किया हुआ नमस्कार सभी पापों का नाश करने वाला है और सभी मंगलों में प्रथम मंगल है।
प्रश्न 28: मंगल किसे कहते हैं?
उत्तर: जो पापों को गलावे-नाश करे तथा जो आनंद और कल्याण देवेे, उसे मंगल कहते है।
प्रश्न 29: काल करके अरहंत कहाँ जाते हैं?
उत्तर: मोक्ष में।
प्रश्न 30: लोक में एक समय में कितने अरहंत हो सकते हैं?
उत्तर: जघन्य (कम से कम) 20 होते हैं, उत्कृष्ट (अधिक से अधिक) 160 तथा 170 अरहंत हो सकते हैं।
प्रश्न 31: वर्तमान में कितने अरहंत हैं तथा कहाँ पर हैं?
उत्तर: वर्तमान में 20 अरहंत (विहरमान जी) महाविदेह क्षेत्र में विचरते हैं।
प्रश्न 32: महाविदेह क्षेत्र कहाँ पर है?
उत्तर: उत्तर दिशा में यहाँ से लगभग 33 हजार योजन से कुछ अधिक दूरी पर जम्बुद्वीप का महाविदेह क्षेत्र है।
प्रश्न 33: महाविदेह क्षेत्र कितना लम्बा-चौड़ा है?
उत्तर: पूर्व से पश्चिम 1 लाख योजन का लम्बा और दक्षिण से उत्तर 33 हजार योजन से कुछ अधिक चौड़ाई में जम्बूद्वीप का महाविदेह क्षेत्र आया हुआ है।
प्रश्न 34: महाविदेह क्षेत्र कितने हैं?
उत्तर: महाविदेह क्षेत्र 5 हैं। एक जम्बूद्वीप में, दो धातकी खण्ड द्वीप में, दो अर्द्धपुष्कर द्वीप में।
प्रश्न 35: एक-एक महाविदेह में कितने-कितने
अरहंत हैं?
उत्तर: चार-चार।
प्रश्न 36: अभी हम कितने परमेष्ठि के दर्शन कर सकते हैं?
उत्तर: आचार्य जी, उपाध्याय जी एवं साधु जी इन तीन परमेष्ठि के दर्शन कर सकते हैं।
प्रश्न 37: पाँच पदों में कितने सशरीरी हैं, कितने अशरीरी हैं?
उत्तर: सिद्ध अशरीरी हैं, शेष 4 सशरीरी हैं।
प्रश्न 38: पाँच पदों में से मोक्ष में कितने, संयम में कितने?
उत्तर: दूसरा पद मोक्ष में, शेष चार पद संयम में हैं।
प्रश्न 39: पाँच पदों में देव कितने हैं और गुरु कितने हैं?
उत्तर: दो देव हैं- (1) अरहंत (2) सिद्ध।
तीन गुरु हैं- (1) आचार्य (2) उपाध्याय (3)साधु।
प्रश्न 40: पाँच पदों में से कौन-से पद में गुरु भी शिष्य को प्रणाम करते हैं?
उत्तर: पाँचवें पद में "णमो लोएसव्वसाहूणं" बोलते समय प्रत्येक साधु-साध्वी को भाव वंदन होता है।
प्रश्न 41: पाँच पदों में कर्म रहित कितने और कर्म सहित कितने?
उत्तर: एक सिद्ध कर्म रहित और शेष चार कर्म सहित हैं।
प्रश्न 42: पाँच पदों में कौन-से पद वाले उपदेश देते हैं, कितने नहीं देते?
उत्तर: सिध्द को छोड़कर शेष चार पद उपदेश देते हैं।
प्रश्न 43: नमस्कार सूत्र शाश्वत है या अशाश्वत?
उत्तर: नमस्कार सूत्र शाश्वत है।
प्रश्न 44: क्या नमस्कार सूत्र का जाप करने से भौतिक ऋद्धि मिलती है?
उत्तर: जैसे अनाज की खेती करने से चारा तो अपने आप मिलता है। उसी प्रकार मोक्ष प्राप्ति एवं कर्म निर्जरा की भावना से नमस्कार सूत्र का जाप करने पर, पाप कर्म की निर्जरा होकर, पुण्य की वृद्धि हो जाने से, चारे के समान भौतिक ऋद्धि तो अपने आप मिल जाती है, परन्तु जाप का लक्ष्य तो असली कमाई अनाज के समान निर्जरा का ही होना चाहिये।
प्रश्न 45: नमस्कार सूत्र बोलने से क्या लाभ है?
उत्तर: महापुरुषों के प्रति श्रद्धा बढ़ती है और श्रद्धा से उनकी आज्ञा का पालन करने की भावना जागती है तथा सम्यग् दर्शन की प्राप्ति होती है।
प्रश्न 46: क्या नवकार का जाप-माला करने मात्र से हमारा कल्याण हो सकता है?
उत्तर: नहीं! जाप-माला आदि करने से श्रद्धा बढ़ेगी और श्रद्धा से आज्ञा-पालन की भावना होनी चाहिये। जैसे- पिता के प्रति श्रद्धा होगी तो पिता की आज्ञा का पालन होगा और आज्ञा-पालन से ही पिता खुश होंगे, परन्तु पिता की आज्ञा का पालन नहीं करें और केवल पिता के नाम की माला फेरे तो पिता खुश नहीं हो सकते। इसी प्रकार निश्चय में तो भगवान की आज्ञा का पालन करने से कल्याण होगा।
जैसे- भोजन की श्रद्धा और जाप कर लेने मात्र से पेट नहीं भरेगा और बिना श्रद्धा के भोजन करेगा कैसे? अतः श्रद्धा और पुरुषार्थ दोनों ही नितान्त आवश्यक हैं। केवल माला फेरना तो कल्याण का प्रथम सोपान है और प्रथम सोपान को ही कोई मंजिल समझ ले और आगे बढ़ना बन्द कर दे तो वह अज्ञानी कहलाता है।
प्रश्न 47: माला में कितने मोती होते हैं?
उत्तर: 108 मोती होते हैं।
प्रश्न 48: माला में 108 ही मोती क्यों होते हैं?
उत्तर: क्योंकि पाँच पदों में 108 गुण होते हैं।
प्रश्न 49: नमस्कार सूत्र का जाप कब करना चाहिये?
उत्तर: किसी भी समय नमस्कार सूत्र का जाप किया जा सकता है। भगवान या महापुरुषों को नमस्कार करने में कोई भी परिस्थिति बाधक नहीं है। प्रातः उठते समय, भोजन करते समय, सोते समय तथा बाहर गाँव आदि जाते समय तो नमस्कार सूत्र का जाप अवश्य ही करना चाहिये।
प्रश्न 50: नमस्कार सूत्र का जाप या धार्मिक क्रिया करने के लिए क्या स्नान करना आवश्यक है?
उत्तर: नहीं! क्योंकि पानी की एक बूंद में असंख्याता जीव होते हैं और स्नान करने से जीवों की हिंसा होती है और हिंसा करना पाप है। अतः धर्म के लिए पाप करने की आवश्यकता नहीं है। अन्तगढ़ सूत्र में अर्जुनमाली ने हत्यारा होते हुए भी बिना स्नान किये भगवान का उपदेश सुना और दीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्त किया। अतः कोई भी धार्मिक प्रवृत्ति के पहले स्नान करना आवश्यक नहीं है।
प्रश्न 51: क्या नमस्कार सूत्र में देवी-देवताओं को नमस्कार होता है?
उत्तर: नहीं, नमस्कार सूत्र में देवी-देवताओं को नमस्कार नहीं होता है।
प्रश्न 52: देवी-देवताओं को नमस्कार करना चाहिए या नहीं?
उत्तर: नहीं, क्योंकि देवी-देवता अव्रती होते हैं और श्रावक व्रती होने से पाँचवें गुण-स्थान में आते हैं तथा अधिकांश देवी-देवता मिथ्यात्वी होने से, पहले गुण-स्थान में आते हैं और कुछ देव सम्यग् दृष्टि होते हैं तो भी चौथे गुण-स्थान में ही होने से श्रावक का दर्जा ऊँचा होने के कारण हमें देवी-देवताओं को नमस्कार नहीं करना चाहिए।
प्रश्न 53: देवी-देवताओं को नमस्कार करने में कोई दोष तो नहीं है?
उत्तर: देवी-देवताओं को नमस्कार करने से मिथ्यात्व का दोष लगता है, क्योंकि देवी-देवता शस्त्र, स्त्रियाँ आदि रखते हैं तथा धूप, दीप, मान, पूजा आदि की चाहना वाले होने से वे सरागी होते हैं और हमें वीतरागी बनना है तो सरागी को नमस्कार करने से वीतरागी नहीं बन सकते तथा दशवैकालिक सूत्र की प्रथम गाथा में बताया है कि यदि हमारा मन धर्म में दृढ़ रहे तो हमें देवता भी नमस्कार करते हैं तथा देवता भी मनुष्य भव की चाहना करते हैं, क्योंकि देवलोक में धर्म नहीं है और हमें धर्म करने लायक मनुष्य भव मिला हुआ है। फिर भी हम देवों के पीछे भागते हैं तो यह हमारा उल्टा पुरुषार्थ होगा एवं मिथ्यात्व का पोषण होगा।
तीर्थंकर भगवान 64 इन्द्रों के वन्दनीय होते हैं और दूसरे सारे देव इन्द्रों की अधीनता में रहते हैं। जैसे राजा के वश में हो जाने पर प्रजा कुछ नहीं बिगाड़ सकती, इसी प्रकार यदि हम तीर्थंकर भगवान की आज्ञा का पालन श्रद्धापूर्वक करें तो ये छुटपुट देव हमारा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते तथा हजारों देवता वश में हो जाने पर भी हमारी मुक्ति सम्भव नहीं, क्योंकि चक्रवर्ती के 16 हजार देवता सेवा में रहने पर भी, अगर वह चक्रवर्ती उन देवों का त्याग कर तीर्थंकर की आज्ञा का पालन न करे तो उसे वे हजारों देव नरक से नहीं बचा सकते। इन हल्के देवों को नमस्कार करने से ये हमारे पीछे पड़ जाते हैं और अपनी मान-प्रतिष्ठा के लिये स्वयं के भक्तों को ही दु:ख देते हैं। भौतिक सुख-सम्पत्ति तो भाग्य से अधिक मिलने वाली नहीं है; अतः हमें देवी-देवता के किसी भी प्रवृत्ति के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिये। अगर हमारी श्रद्धा दृढ़ है तो जैसे सुदर्शन श्रावक की दृढ़ श्रद्धा से अर्जुनमाली के शरीर में रहा हुआ मुद्गर पाणि यक्ष घबराकर भाग गया, वैसे ही हमारा भी देवी-देवता कुछ नहीं बिगाड़ सकते।
प्रश्न 54: घर के देवी-देवता, मृतक पूर्वज आदि को वन्दन-पूजन करना चाहिए या नहीं?
उत्तर: घर के देवी-देवता, पूर्वज आदि को भी वन्दन, पूजा नहीं करना चाहिये, क्योंकि ये भी प्रायः मिथ्यात्वी होते हैं और अपनी मान पूजा के लिए, परिवार वालों को मोह के कारण भ्रमित करते हैं और बार-बार गल्तियाँ बताकर चक्कर में डालते हैं। हमने भी अनन्ती बार ऐसे देव बनकर अपनी मान-पूजा के लिए परिवार वालों को भ्रमित किया है, जिससे अज्ञान अन्धकार में डूबे हुए भोले लोग मिथ्यात्व में फँसकर जन्म-मरण बढ़ा लेते हैं। सभी जीवों के साथ हमारे सभी सम्बन्ध अनन्ती बार हो चुके हैं। अतः हमें पूर्वजों के मोह में मिथ्यात्व का सेवन नहीं करना चाहिये तथा सच्चे जैनी के घर के देव तो अरहंत भगवान ही होते हैं और जो अरहंत भगवान पर दृढ़श्रद्धा रखता है उसको कोई भी देवता दुःख नहीं दे सकते। अत: हमें घर के देवी-देवता को भी नहीं पूजना चाहिये। इन्हें पूजने से मिथ्यात्व का पाप लगता है तथा धर्म बुद्धि से पूजने पर सम्यक्त्व भंग होता है।
प्रश्न 55: स्थानकवासी धर्म ही क्यों मानना?
उत्तर: क्योंकि इसके किसी भी धार्मिक अनुष्ठान में छह काय जीवों की हिंसा क्षम्य नहीं है। जैसे सामायिक, पौषध, प्रतिक्रमण, संवर आदि क्रियाएं पूर्ण अहिंसक हैं।
- पूज्य गुरुदेव
चाहे जो मजबूरी हो,सामायिक स्वाध्याय नित्य जरूरी हो।
जय जिनेन्द्र 🙏
जय महावीर 🙏
जय जिनेन्द्र
नवकार मंत्र मे से जवाब दो
1. नवकार कितने द्विप मे बोला जाता है ? - अढाई द्वीप
2. नवकार मंत्र कोनसे आरे मे नहीं है ? - 1,2,6 आरे मे नही है
3. नवकार मंत्र में कितने संग है ? - 2
4. नवकार मंत्र कोनसा मंगल है ? - प्रथम मंगल
5. नव पद मे सफ़ेद रंग के कितने पद है ? - 5 (अरिहंत, ज्ञान, दर्शन, चरित्र, तप)
6. नवकार मंत्र में किसकी आराधना करते है ? - तत्वत्रय (देव, गुरु, धर्म)
7. नवकार मंत्र को क्या कहते है ? - मंत्राधिराज
8. नवकार मंत्र की भाषा कोनसी है ? - अर्धमागधी (देव भाषा)
9. नवकार मंत्र कोनसे आगम मे है ? - श्री भगवती सूत्र, श्री आवश्यक सूत्र
10. नवकार मंत्र के रचेता कोन है ? - कोई नही (साश्वत है)
जैन धर्म का सबसे बड़ा नवकार महामंत्र का पहला पद "नमो अरिहंताणं" है, अरि मतलब दुश्मन, शत्रु और हंत का मतलब उसका विनाश करना मतलब धर्म की राह पर चलना हो तो पहले शत्रु को महात करो उसका नाश करो फिर आप धर्म कर सकोगे, शत्रु को मारना हिंसा नहीं है, बल्कि धर्म के रास्ते पर चलने का पहला कदम है, कर्म है
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