अग्नि शर्मा 00





अग्नि शर्मा
1राजा को शिकायत
महाराजा, प्रजा में काफी विक्षोभ एवं असंतोष पैदा हो गया है ।’
नगरश्रेष्ठि प्रियमित्र ने महाजन की ओर से बात का प्रारंभ किया ।
‘क्यों ? असंतोष और विक्षोभ पैदा होने का कारण क्या है ?’ महाराजा पूर्णचन्द्र ने शांति से पूछा ।
‘महाराजा, राजकुमार गुणसेन, पिछले कुछ अरसे से पुरोहितपुत्र अग्निशर्मा का क्रूर उत्पीड़न कर रहे है । उस बच्चे का शरीर बेडोल है, बदसूरत है ।’
‘बच्चे ऐसे लड़के को देखें तो उनका हँसना, चिड़ाना… मजाक करना…यह स्वाभाविक है, पर इसलिए नगर के महाजन को यहां मेरे पास शिकायत लेकर आना पड़े , यह समझ में नही आता ।’ महाराजा पूर्णचन्द्र ने गंभीर होकर कहा ।
‘महाराजा, बात इतनी होती तो हमें यहां तक आने की आवश्यकता नही थी , पर बात इतनी ही नही है । वरन काफी हद तक बढ़ गई है। बिना इजाजत के पुरोहित के घर में घुस जाना , पुरोहित एवं उसकी पत्नी को डराना, धमकी देना… जोर जबरन उनके पुत्र अग्निशर्मा को उठा जाना, गधे पर बिठाना, कांटे का ताज पहनाना… सुपड़े का छ्त्र रखना… ढोल-काँसे बजाकर पुरे नगर में उसका जुलूस निकालना… फिर अग्निशर्मा को रस्सी से बांधकर कुँए में उतारना… उसे डुबकियां लगवाना… महाराजा,यह हद हो रही है । यह तो एक नमूना बताया है उत्पीड़न का। ऐसे तो कई कारनामे हैं हमारे राजाकुमार एवं उनके दोस्तों के । राजकुमार पाशवी आनंद मना रहे है । जबकि पुरोहित एवं पुरोहित पत्नी, पुत्र की घोर कदर्थना – पीड़ा से दुःखी-दुःखी हो गये है ।’
‘नगरश्रेष्ठि , तुम्हारी कहि हुई बात अत्यंत गंभीर है । राजकुमार का ऐसा बरताव दुष्टतापूर्ण है। मैं उसे उपालंभ दूंगा और अब अग्निशर्मा का उत्पीड़न न हो, वैसी सुचना देता हूं। तुम सब मेरी ओर से पुरोहित यज्ञदत्त को आश्वासन देना। भविष्य में जिसे प्रजावत्सल राजा होना है… उसे इस तरह की हरकतों से दूर रहना चाहिए ।’
महाजन आश्वस्त हुए। महाराजा पूर्णचन्द्र ने महाजन का उचित सत्कार करके बिदाई दी । महाजन को बिदा कर के महाराजा स्वयं रनिवास में पहुंचे । वुद्ध कंचुकी- नौकर ने रनिवास में जाकर महारानी कुमुदिनी को समाचार दिये : ‘महाराजा पधारे है ।’ रानी तुरंत रनिवास के द्वार पर पहुंची । महाराजा का स्वागत किया ।
महाराजा रत्नजडित सिंहासन पर बैठे । रानी ने विस्मय से पूछा : ‘क्या बात है नाथ । आज यकायक ऐसे वक़्त में आपको यहां पधारना पडा ? आपके चेहरे पर चिंता की रेखाएं उभरी हुई है । क्या कुछ अशुभ…?’
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2अग्नि शर्मा
महराजा ने रानी के सामने देखा । दो क्षण खामोश रह कर उन्होंने कहा :
‘देवी, कुमार से प्रजा नाराज है ।’
‘कुमार ने ऐसा कौन सा अकार्य किया है ?’
‘प्रजाजन का उत्पीड़न…’
‘किस तरह ?’
‘पुरोहित यज्ञदत्त को तू जानती है । उसका पुत्र अग्निशर्मा है । उसका शरीर उसके पूर्वकुत पापकर्मो के कारण बड़ा ही कुरूप है…. उस अग्निशर्मा को कुमार एवं उसके दोस्त रोजाना सताते है- परेशान करते है ।’
‘आपको किसने कहा यह सब ?’
‘महाजन के अग्रणियों ने ।’
‘महाजन को कुमार के विरुद्ध शिकायत करने के लिए आना पड़ा ?’
‘हां, प्रजा में इस बात को लेकर काफी असंतोष, विक्षोभ है । महाजन का कर्तव्य है कि नगर के वातावरण से मुझे खबरदार रखे ।’
रानी कुमुदिनी ने कुछ याद करते हुए कहा :
‘हां… देव । एक दिन कुमार मुझे बता रहा था…
एक ब्राह्मण – पुत्र है… बड़ा ही बदसूरत है…
तिकोना मस्तक…
गोल गोल भूरी आंख….
चप्पट नाक….
छेद जैसे नाक…
लंबे लंबे दांत…..
टेढ़े मेढे छोटे हाथ ….
छोटा …. चप्पट सीना….
लंबा…. टेढ़ा पेट…..
चौड़े चौड़े…. छोटे से पैर…
पीले एवं छितराये – छितराये बाल……
ऐसा कुछ वह बता रहा था उस ब्राह्मणपुत्र के बारे में । और कहता था कि ‘मां, हम रोजाना उसके साथ खेलते है। हमे बड़ा मजा आता है…। ऐसे लड़के के साथ खेलने में बच्चों को मजा आये…. उसमें शिकायत करने की बात मेरी समझ में तो नहीं आती ।’
‘देवी,खेलना एक बात है… जबकि खिलौना मानकर उसे इधर उधर ढकेलना अलग बात है । गुणसेन और उसके मित्र उस ब्राह्मण-पुत्र को पीड़ा दे रहे हैं । उसका मखौल उड़ाते हैं । उसे कुँए में उतारकर डुबकियां खिलाते हैं । उसके माता-पिता को डरा-धमका कर, जोर-जुल्म करके उठा जाते हैं । देवी, यह सब कुमार को शोभा नहीं देता । प्रजा में वह अप्रिय हो गया है….।।।’
‘मेरे प्रजावत्सल महाराजा, इतने बड़े नगर में… ऐसे किसी एकाध लड़के के साथ यदि कुमार ने ऐसा – वैसा कुछ बरताव कर भी दिया , तो उसमें आपको इतना उद्विग्न नहीं होना चाहिए । कुमार ने उस कुरूप बच्चे को मार तो नहीं डाला है ना ?’
‘क्या आदमी को मार डालना, वही गुनाह है ? सताना… उत्पीड़ित करना गुनाह नहीं है ? देवी, तुम कुमार का गलत पक्ष लेकर उसके अकार्य की सफाई पेश कर रही हो… यह मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है ।
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3अग्नि शर्मा
महाराजा पूर्णचन्द्र खड़े हो गये सिंहासन पर से , और कमरे में टहलने लगे ।
पुत्र तुम्हें प्रिय है… वैसे मुझे भी प्यारा है, परंतु उसे झूठा और बहुत ज्यादा प्यार – दुलार देने के पक्ष में मैं नहीं हूं। संतानों को इस तरह दुलारने से माता – पिता स्वयं ही उसे अयोग्य एवं कुपात्र बनाते हैं ।’
एकलौता राजकुमार राजा-रानी की आंखों का तारा था। रानी कुमुदिनी कुमार को बहुत ज्यादा लाड़-प्यार में रखती थी। गलत काम करते हुए कुमार को वह कभी टोकती या रोकती नहीं थी। राजा कभी कुमार को डांटते तो रानी कुमार का पक्ष लेकर उसका बीच-बचाव करती थी। इसलिए राजा ने सीधे कुमार को कुछ भी कहना बंद कर दिया था। जो भी कहना होता वह रानी को ही कहते थे। फिर भी रानी कुमार के विरुद्घ कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थी। रानी पर राजा का यह ताना तो था ही – ‘तू कुमार को बिगाड़ रही है … उसके व्यक्त्तित्व को छिछला बना रही है…।’ रानी को यह इल्जाम कांटे की भांति चुभता था ।
‘तू कुमार को रोकेगी क्या ब्राह्मणपुत्र को सताने से ?’
‘मैं उससे पुछुंगी ।’
‘और वह सताता है… यह तय होने पर उसे सजा करेगी ?’
‘सजा करने का कार्य मेरा नहीं है ।’
‘वह कार्य मेरा है ना ? ठीक है, मैं शिक्षा करुं… फिर तू नाराज मत होना ।’
‘आप शिक्षा करोगे और राजकुमार रूठकर भाग गया तो ? एकलौते बेटे पर भी तुम्हें दया नहीं आती है ?’ कुमुदिनी रो पड़ी । इस तरह रोने की उसकी आदत थी। महाराजा इस आदत से बखूबी परिचित थे, इसलिए रानी के आंसूओं का उन पर कुछ असर नहीं हुआ ।
‘भागकर कहां जाएगा ? जहां जाएगा मैं वहां से उसे पकड़ मंगवाऊंगा । पर वह भाग जाने की घुड़की देकर, स्वच्छंद बनकर प्रजा को दुःख दे, वह मैं सहन नहीं करुंगा ।’
‘तुम्हें उस बदसूरत ब्राह्मणपुत्र की दया आती है, पर तुम्हारे खुद के बेटे की दया नहीं आती ?’
‘दया निर्दोष पर आती है… दोषित या अपराधी पर नहीं । ब्राह्मणपुत्र निरपराधी है… इसलिए उस निर्दोष पर दया आती है। निर्दोष – बेगुनाह प्रजा को सतानेवाला राजा बनने के लिए लायक नहीं है ।’
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4अग्नि शर्मा
दोपहर के भोजन का समय हो गया था । कुमार गुणसेन महाराजा के साथ भोजन करना पसंद नहीं करता था। महाराजा भोजन कर ले बाद में ही वह भोजन करने के लिए आता था। पुत्र को खाना खिलाकर रानी भोजन करती थी ।
परंतु आज अचानक कुमार रनिवास में आ पहुँचा । वहां महाराजा को देखकर वह रनिवास के द्वार पर ही ठिठक गया। महाराजा ने कुमार को देखा… पिता – पुत्र की दृष्टि मिली । महाराजा ने कहा :
‘आ, कुमार । अच्छा हुआ तू आ गया… चलो, भोजन का समय हो गया है… हम आज साथ साथ ही खाना खाएंगे ।’
कुमार मना कर नहीं सका। महाराजा ने पूछा नहीं था , सीधी आज्ञा ही की थी ।
रानी कुमुदिनी का दिल दहल उठा… ‘जरूर आज बाप-पेटे के बीच झगड़ा होने का ।’
पिता-पुत्र भोजन के लिए पास-पास ही बैठ । कुमुदिनी ने दोनों की थाली में भोजन परोसा । भोजन परोसते परोसते वह बारबार महाराजा के सामने देख रही थी, परंतु महाराजा की निगाहें तो खाने की थाली पर स्थिर थी । वे सोच रहे थे ‘खाने से पहले बात नहीं करना है… भोजन के बाद बात करूंगा । खाली पेट डांट को पचा नहीं पाता । भरा हुआ पेट ही सच्ची वात को पचा सकता है ।
पिता-पुत्र ने मौन रहकर भोजन किया । कुमार ने हाथ धोये कि महाराजा ने कहा : ‘कुमार, मुझे तुझसे एक बात कहनी है ।’ कुमार खामोश रहा । इसलिए महाराजा ने उसके सामने देखा । कुमार ने रानी के सामने देखा ।
‘कुमार, तू और तेरे मित्र, उस ब्राह्मणपुत्र अग्निशर्मा को पीड़ा देते हो… परेशान करते हो… यह सही बात है ?’
‘पिताजी, हम उसके साथे खेलते है… हमें मजा आता है । खेलने में तो हंसना भी होता है… कभी रोना भी आता है ।’
‘बेटा, ऐसे खेल नहीं करने चाहिए जिसमें औरों को सताया जाता हो… तुम उस अग्निशर्मा को उत्पीड़ित करते हो… उसे संत्रास देते हो ।’
‘चूंकि वह सब करने में हमें मजा आता है। जवानी की दहलीज पर पैर रखनेवाला गुणसेन, पिता की मर्यादा उलांध कर बोल बैठा, और आसन पर से खड़ा हो गया ।
‘औरों को संत्रास देने में तुझे मजा आता है ? मैं कहूंगा…’तुझे पीड़ा देने में मुझे आनंद आता है’…. तो तू मान लेगा मेरी बात ?’
कुमार खड़ा हुआ, कुछ देर मौन रहकर , उसने रानी से पूछा :
‘मां, यह बात पिताजी तक लाया कौन ?’
‘महाजन ।’ रानी के मुँह से निकल गया ।
‘मै उन महाजन के बच्चों को देख लूंगा ।’हवा में मुठ्ठी उछालता हुआ कुमार दहाड़ा ।
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5अग्नि शर्मा
कुमार… अभी तू महाजन की शक्त्ति से परिचित नहीं है । इसलिए ऐसे कटु और अयोग्य वचन बोल रहा है । महाजन चाहे तो राजा को राज्यसिंहासन पर से नीचे उतार सकता है । राजा को देश निकाल की सजा दे सकता है… ऐसे महाजन का तू क्या कर लेगा ? क्या औकात है तेरी ?’
‘बेटा, महाजन के विरुद्ध एक भी शब्द ज्यादा मत बोलना… वर्ना अनर्थ हो जाएगा ।’ रानी ने गुणसेन के सिर पर हाथ रखते हुए उसे रोका ।
‘सच बात कहनेवाले पर गुस्सा करना , यह आदमी की कमजोरी है। तू और तेरे मित्र उस बेचारे ब्राह्मणपुत्र पर अत्याचार गुजारते हो, यह सही बात है ना ?’ महाराजा ने कुमार से सीधा स्पष्ट सवाल किया :
‘हम खेलते हैं । उसके साथ खेलने में हमें मजा आता है… इससे ज्यादा मुझे कुछ भी नहीं कहना है ।’
‘और, मैं कहता हूं कि यह खेल बंद करना होगा, तो?
महाराजा ने कुमार के सामने-उसके नजदीक जाकर कड़क होकर कहा । परंतु गुणसेन मौन रहा । उसने अपनी निगाहें जमीन पर स्थिर कर दी ।
महाराजा वहां से अपने शयनखंड की ओर चले गये । माता और पुत्र उन्हें जाते हुए देखते रहे ।
रानी कुमुदिनी कुमार को अपने कक्ष में ले गई । उसे अपने पास पलंग पर बिठाकर उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरने लगी । कुछ देर ख़ामोशी में घुल गई । आखिर रानी ने ख़ामोशी को तोड़ते हुए कहा :
‘बेटा, तेरे पिताजी के सामने तुझे इस तरह नहीं बोलना चाहिए था । तूने उनको नाराज किया, यह मुझे अच्छा नहीं लगा ।’
‘मेरे पिताजी को मुझ पर प्रेम नहीं ।’
‘गलत बात है ।’
‘बिल्कुल सही बात है, वर्ना लोगों की बातें सुनकर वे मुझे इस तरह डांटते नहीं ।’
‘लोगों की बातें सुनकर नहीं कहा है । महाजन की बात सुनकर कहा है । और महाजन की बात को सुनना ही पड़ता है…। महाजन को नजरअंदाज नही किया जा सकता । महाजन को संतोष देना ही होता है ।’
तू भी क्या…मां । पिताजी के पक्ष में बैठ गई ?’
नहीं, तू खुद जनता है… कि हर बात में तेरा पक्ष लेकर मैं तेरे पिताजी को अप्रिय हो गई हूं। फिर भी मुझे इसकी परवाह नहीं है । मुझे चिंताह तुम पिता-पुत्र के संबंध की। तुझे उनकी बात सुन लेनी चाहिए थी । सामने जवाब नहीं देना चाहिए था। और बात तो मैं खुद ही सम्भाल लेती ।’
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6अग्नि शर्मा
पर मैं उस ब्राह्मण के बच्चे को छोड़नेवाला नहीं । उसके साथ खेलने में… क्रीड़ा करने में मुझे बड़ा मजा आता है । रोजाना हम नई-नई तरकीबें लड़ाकर खेलते हैं । अरे मां । तू खुद भी यदि उस विदूषक को देखेगी तो तू भी पेट पकड़कर हंसती ही रहेगी ।’
‘तुम खेला करना। मैं तेरे पिताजी को समझा दूंगी । मना लूंगी । पर तुझे उनके सामने नहीं बोलने का । उनकी मर्यादा को भंग करने की नहीं ।’
‘परंतु… तू पिताजी को समझाएगी । उस महाजन को कौन समझाएगा ? वह हमारे खेल में झमेला पैदा करेगा तो ? रोजाना पिताजी के पास आकर शिकायत करते रहेंगे तो ?’
‘इसलिए तो कहती हूं… कुछ दिन के लिए उस ब्राह्मणपुत्र का नाम लेना ही छोड़ दो, उसके साथ खेल बंद कर दो । इससे महाजन को भरोसा हो जाएगा… फिर तुम तुम्हारे खेल खेलते रहना ।’
पुत्र को खुश रखने के लिए माता खुद पुत्र को अकार्य में सहमति देती है। पुत्र को गलत रास्ते पर जाने में सहायता देती है ।
‘महाजन की घुड़की से डरकर मैं मेरा खेल रोकनेवाला नहीं। पिताजी को जो भी करना हो सो कर ले । मुझे यहां से निकल देंगे तो देश छोड़कर चला जाऊँगा। परंतु उस अग्निशर्मा को साथ लेकर जाऊंगा। उसके वगैर मुझे चैन नहीं मिलेगा। वह रोता है तो मुझे मजा आता है । वह चीखता है तो मेरा तन नाच उठता है। वह जमीन पर लोटता है…. गिड़गिड़ाता है… तो मुझे आनंद मिलता है । उसे सताने में…. पीड़ा देने में मुझे ख़ुशी मिलती है… और मैं वह करूंगा ही। फिर जो चाहे हो जाए ।’
वह खड़ा हुआ और कमरे के बाहर निकल गया ।
वह सीधा पहुँचा कुष्णकांत की हवेली। कुष्णकांत भोजन करके खड़ा हुआ ही था। कुमार ने उसका हाथ पकड़ा और उसके कान में कहा : ‘इसी वक़्त अभी शत्रुध्न और जहरीमल को बुला ला। हमें जरूरी बात करना है ।’
कुमार कुष्णकांत के भीतरी कमरे में जाकर बैठा । कुष्णकांत दोनों दोस्तों को बुलाने के लिए गया । कुमार के मन में पिता के प्रति एवं महाजन के लिए गुस्से का लावा उफ़न रहा था ।
मोह और अज्ञान से घिरा हुआ आदमी और कर भी क्या सकता है ?
कुष्णकांत , शत्रुध्न और जहरीमल को साथ लेकर आ पहुँचा ।
गुणसेन तीनो मित्रों से गले मिला । चारों मित्र वर्तुल में बैठे। गुणसेन बोला :
‘दोस्तों… बात अब महाराजा तक पहुँच गई है । महाराजा ने आज मुझे जिन्दगी में पहली बार डांट पिलाई है। और अग्निशर्मा के साथ किसी भी तरह की ज्यादती नहीं करने की कड़क आज्ञा की है ।’
जहरीमल ने पूछा : ‘महाराजा से कहा किसने ?’
गुणसेन ने कहा : ‘महाजन ने ।’
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7अग्नि शर्मा
शत्रुध्न बोला : ‘नगर में सर्वत्र अपनी ही चर्चा हो रही है। मुझे भी मेरे पिताजी ने इस बारे में पूछा था ।’
‘तूने क्या जवाब दिया ?’ कुमार ने पूछा ।
मैंने कहा कि बात सही है , परंतु हम तो महाराजकुमार जैसा कहेंगे वैसा करेंगे ।’
‘तुम तीनों मेरे परम विश्वस्त मित्र हो ।’
जहरीमल ने कुमार से पूछा : ‘अब हमें करना क्या है यह बात करें ।’
‘हमें हमारा खेल चालू रखना है ।’
‘पर महाराजा….’
‘महाराजा को मेरी माता सम्हाल लेगी । माता अपनी तरफ है, इसलिए ज्यादा चिंता नहीं है ।’
‘पर महाजन ने रोड़ा अटकाया तो ?’ कुष्णकांत ने पूछा।
‘नगर के ब्राह्मण भी बिफर चुके है ।’ शत्रुध्न ने कहा ।
‘महाजन और ब्राह्मणों की जमात को उस अग्निशर्मा के लिए काफी प्यार उभर आया है…. पर तुम चिंता मत करो…. उन लोगों को तो मैं देख लूंगा ।’ गुस्से से गुणसेन का चेहरा रक्तिम हो उठा था ।
तीनों मित्र मौन हो गये थे। कुमार बोला :
‘मैंने तो उस पुरोहित-पुत्र के साथ खेल करने की कई नई नई तरकीबें सोच रखी हैं। और इस तरह हमें खेलने की भी स्वतंत्रता न हो, तब फिर इस राज्य में क्यों रहना चाहिए ?’
तीनो मित्र कुछ बोल नहीं रहे थे । जमीन पर नजरें गड़ाये वे बैठे रहे । कुमार ने कहा :
‘कल शिकारी कुते के साथ अग्निशर्मा को भिड़ाना है। अग्निशर्मा को कटारी देने की… और शिकारी कुते को उसकी और खुला छोड़ देने का । वह युद्ध देखने का मजा आएगा ।’
कुष्णकांत ने मौन तोडा । उसने कहा : ‘शिकारी कुत्ता ब्राह्मण-पुत्र को बुरी तरह घायल कर डालेगा…. उसके शरीर को क्षत-विक्षत कर डालेगा , इससे तो ब्राह्मण लोगों का गुस्सा और खोल उठेगा । महाजन भी झुंझला उठेगा… इसका परिणाम अच्छा नहीं आएगा ।’
‘परिणाम चाहे सो आये… देखा जाएगा… परंतु यह खेल तो हमें कल हर हाल में करना ही है ।’ कुमार ने मजबूती से अपना इरादा दोहराया ।
कुष्णकांत बोला : ‘मैंने सुना है कि अग्निशर्मा को अब महाजन की सुरक्षा में रखा जाएगा… या तो पुरोहित के घर के इर्दगिर्द पांचसौ ब्राह्मण जवान रात-दिन चौकन्ने चौकन्ने होकर बैठे रहेंगे… फिर ऐसे में अग्नि को उठा लाने का कार्य ??’
‘तेरे से नही होगा’ यही कहना है ना तेरा ? ठीक है, इसकी फ़िक्र मत करो… मैं खुद लेने जाऊँगा उसे । किसी भी तरह से उसे उठा लाऊंगा । तुम तो बस गधे को सजाकर तैयार रखना ।’
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8अग्नि शर्मा
पांचसौ ब्राह्मण जवानों के सपक्ष तू अकेला क्या कर सकेगा? किसी भी कीमत पर वे लोग तुझे अग्निशर्मा के पास नहीं जाने देंगे । क्या तू हाथपाई करेगा ? मारपीट करेगा ? उन पाँचसौ से तू अकेला निपट लेगा ?’ कुष्णकांत ने साफ साफ शब्दों में कहा :
‘तब फिर क्या करेंगे ?’
‘कुछ दिन यूं ही बीतने दें ।’
‘इसका मतलब महाजन की जीत…. और अपनी हार।’
‘नहीं… यह स्मयसूचकता होगी । लंबी छलांग भरने के लिए पीछे दौड़ लगानी पड़ती है , वैसे ।’
‘मुझे फालतू की दलीलें पसंद नहीं है ।’
‘ठीक है… आप जैसा कहें… वैसा करेंगे ।’
‘यदि मुझे कुछ रास्ता सूझता होता तो तुम तीनों को यहां एकत्र क्यों करता ?’
कुष्णकांत ने कहा : ‘मुझे कुछ उपाय नहीं सूझ रहा है।’
जहरीमल ने कहा : ‘मेरा दिमाग भी काम नहीं करता है।’
शत्रुध्न बोला : ‘मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा कि क्या किया जाए ।’
कुमार ने तीनों मित्रों के सामने देखा और वह खड़ा होकर कमरे में टहलने लगा ।
महाजन महाराजा से मिलने के बाद महामंत्री और सेनापति से भी मिले थे । कुष्णकांत के पिता से मिलकर भी सारी बात कही थी। इसलिए उन लोगों ने अपने-अपने पुत्रों को समझाया था , एवं कुमार को ऐसे दुष्कार्य में साथ नहीं देने की कड़क सुचना की थी ।
कुमार ने तीनों मित्रों को संबोधित करते हुए कहा :
‘ठीक है, जैसी तुम्हारी इच्छा । मैं ढूंढता हूं कुछ उपाय मिल जाए । यदि कुछ सुझा तो तुम्हें बुला लूंगा। फ़िलहाल तो इस बात को यहीं पर समाप्त करें ।’
गुणसेन कुष्णकांत के घर से निकलकर राजमहल में आया। उसे लगने लगा था कि मित्रों ने उसका साथ छोड़ दिया है। उसका मन गुस्सा , हताशा… ओर पहुंचा। कपड़े बदलकर पलंग में ढेर हो गया ।
नगर – श्रेष्ठि की हवेली में महाजन एकत्र हुआ था । सभी के चेहरे पर गंभीरता छाई हुई थी। सभी चुप्पी साधे हुए थे। कुछ देर में पाँच ब्राह्मण अग्रणियों के साथ पुरोहित यज्ञदत्त ने हवेली के मंत्रनाखण्ड में प्रवेश किया । नगरसेठ ने स्वागत करते हुए यज्ञदत्त को अपने समीप बिठाया और कहा :
‘पुरोहितजी , अब तुम निशिंचत रहना । तुम्हारे पुत्र की सुरक्षा का पूरा प्रबंध हमने कर लिया है । अब शायद तो राजकुमार सताने की हिम्मत नहीं करेगा । हम महाराजा से रूबरू मिलकर ही आ रहे हैं । महाराजा को राजकुमार की ऐसी घिनोनी हरकतों के बारे में कुछ मालूम ही नहीं था । उन्होंने हमारी बात शांति से सुनी एवं हमे पूरी तरह आश्वासन देकर भेजा है ।’
‘नगर श्रेष्ठि , शायद कुमार मान जाएंगे । पर उसके दोस्त तो शैतान के अवतार से हैं…. वे लोग…?’
‘पुरोहितजी , हमने उन मित्रों के पिताओं से भी भेंट की है , एवं उन्हें सावधान कर दिये हैं । वे मित्र राजकुमार को सहयोग नहीं देंगे ।’
‘तब तो आपका महान उपकार….।’
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9अग्नि शर्मा
एक ब्राह्मण आग्रणी ने कहा : ‘हम भी पुरोहित परिवार की रक्षा के लिए कटिबद्ध हैं । जवानों को सावध कर दिये हैं । पुरोहित के घर के आगे सौ-सौ शास्त्रसज्ज युवान चौकन्ने होकर बैठे रहेंगे । खुद कुमार आये या उसके दोस्त आये…. किसी को पुरोहित के घर में प्रविष्ट नहीं होने दिया जाएगा। यदि मौका आया तो लड़ने की भी तैयारी है ।’
‘तुमने भी अच्छी सतर्कतापूर्ण व्यवस्था जमाई है । हालाँकि कुमार या उसके मित्र अब आयेंगे ही नहीं ।’ नगरश्रेष्ठि ने कहा ।
पुरोहित यज्ञदत्त बोला :
‘आप सब ने मेरे परिवार के प्रति अत्यंत सहानुभूति जताई है , पीड़ा व संत्रास से हमें मुक्त्त करने की कोशिश की है। मैं आप सब का उपकार…. कभी नहीं भुला सकता ।’
‘पुरोहितजी , देखा जाए तो यह प्रसंग तुम्हारा है । परंतु परोक्षरूप से यह प्रशन समग्र प्रजा का है। आज तुम्हारी बारी है… कल मेरी भी आ सकती है। राजा प्रजा को सुख देता है…. दुःख नहीं । राजा प्रजा की सुरक्षा करता है… प्रजा का उत्पीड़न नहीं कर सकता । इसलिए राजा पर भी अनुशासन जरूरी है। हालाँकि , महाराजा पूर्णचंद्र प्रजावत्सल राजा है। कुमार कोतुहल प्रिय होने से एवं ऐरे गैरे गलत दोस्तों की संगति में रहकर गलत रास्ते पर चढ़ गये हैं ….। महाराजा उन्हें अनुशासित कर के सही रास्ते पर ले आएंगे । वैसे तो कभी व्यक्त्ति का तीव्र पापोदय होता है तब अच्छा आदमी भी गलती कर बैठता है। औरों को अन्याय करता है। तुम तो शास्त्रों के ज्ञाता हो । तुम्हारे पुत्र को धर्म का उपदेश देकर सांत्वना देते ही होंगे ।’
‘नगरश्रेष्ठि , जब वेदना की तीव्रता से मनुष्य कराहता हो…. कुलबुलाता हो, उस समय उसे धर्म का उपदेश शान्ति नहीं दे पाता। उस समय उसकी वेदना को दूर करना या कम करना , यही एक शांति देने का सही रास्ता होता है। और , आप महाजन ने सचमुच , मेरे पुत्र की घोर असहनीय पीड़ा और व्यथा को दूर करने के लिए सक्रिय कदम उठाया है…। हमारे पर यह आपका महान ऋण है ।’
‘फिर भी , निशिंचत न होकर , जागृत रहना । जवानी का उन्माद कभी अनुशासन की जंजीरों को काट डालता है। मर्यादा की रेखाओं को मिटा देता है । राजकुमार और उसके मित्र कभी भी हमला कर के तुम्हारे बेटे को उठा ले जा सकते हैं ।’
नगरश्रेष्ठि ने सभी का उचित आदर-सत्कार कर के प्रेम से सब को बिदाई दी

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