कथा संप्रति राजा की
संप्रति राजा के पूर्व भव और वर्तमान भव के बारे में तथा उनके गुरु की पूर्ण जानकारी के साथ ..
जिज्ञासु जरूर पढ़ें🙏
अनार्य देश के अनार्य प्रजाजनों को भी जैन धर्म से भावित बनाकर जैन शासन की अपूर्व प्रभावना की।
सवा करोड़ जिन प्रतिमा भरवाने तथा सवा लाख जिन मंदिर बनाने वाले तथा कई मंदिरों का जीर्णोद्धार एवं धर्मशाला बनाने वाले संप्रति महाराजा को कोटि-कोटि नमन🙏🙏
आर्य स्थूलभद्र स्वामी के आर्य महागिरी और आर्य सुहस्ती नाम के दो प्रधान शिष्य थे। वे दोनों दशपूर्वी थे। पृथ्वीतल पर विचरण कर वे अनेक भव्यजीवों को प्रतिबोध देते थे। अपनें धर्मोपदेश द्वारा आर्य महागिरी नेअनेक शिष्यों को तैयार किया था। उस समय जिनकल्प का विच्छेद हो चुका था, फिर भी जिनकल्प की तुलना करने के लिए उन्होंने अपनें गच्छ का भार आर्य सुहस्ति को सौंप दिया और स्वयं एकाकी विहार करने लगे ।
भव्यजीवों को धर्म देशना देते हुए वे एक बार पाटलिपुत्र नगर में पधारें। उसी नगर में आर्य सुहस्ति ने वसुभूति नाम के सेठ को प्रतिबोध दिया, इसके फलस्वरूप वह सेठ जिव- अजीव आदि नौ तत्वों का ज्ञाता बना । उसके बाद वह सेठ अपनें परिवार जनों को धर्मबोध देने लगा , परन्तु उन्हें बोध नहीं लगा । इसलिए सेठ ने आर्य सुहस्ति म. को विनति करते हुए कहा,`हे प्रभो! मेरे समझाने पर भी मेरे परिवारवाले प्रतिबोध नहीं पा रहे है, कृपया आप उन्हें समझाने की कोशिश करें ।'
सेठ की विनति का स्वीकार कर आचार्य भगवंत उसके घर पर पधारें, और उन्होंने वैराग्यवाहिनी धर्मदेशना देना प्रारंभ की । इसी बीच भिक्षा के लिए परिभ्रमण करते हुए आर्य महागिरी म. ने उसी सेठ के घर में प्रवेश किया। आर्यमहागिरि को देखते ही आर्य सुहस्ति अपनें आसन पर से खड़े हो गए और उन्होंने उन्हें भावपूर्वक वंदना की। उसी समय श्रेष्ठी ने पूछा ,`क्या आपके भी ये गुरु है?' आर्य सुहस्ति म. ने कहा ,`ये मेरे गुरुदेव है , भिक्षा में अंत-प्रांत व निरस आहार ग्रहण करते है । योग्य भिक्षा प्राप्त नहीं होने पर ये उपवास कर लेते है। ये महर्षि परम वंदनीय है,
इनकी चरणरज भी स्पर्शनीय है।' इस प्रकार आर्य महागिरी की स्तवना कर उन्होंने पूरे परिवार को धर्मबोध दिया। उसके बाद आर्य सुहस्ति उपाश्रय में चले गए।
उसके बाद उस श्रेष्ठि ने अपने परिवार जनों को कहा, ऐसे त्यागी मुनियो को अत्यंत ही भक्ति और बहुमान पूर्वक दान देना चाहिए। ऐसे त्यागी मुनियो को दान देने से महान लाभ होता है; अतः ऐसे महात्माओं के आगमन पर खूब भक्ति करनी चाहिए। दूसरे दिन आर्य महागिरी भिक्षा के लिए जब उस श्रेष्ठि के घर पधारे, तब अत्यंत ही भक्तिभाव से वह गोचरी बोहराने लगा। अपने श्रुतज्ञान के उपयोग से आर्य महागिरी ने वह भिक्षा दोषयुक्त जानी। वे भिक्षा लिए बिना ही वसति में आ गए। उपाश्रय में आकर आर्य महागिरी ने आर्य सुहस्ति को ठपका देते हुए कहा, कल तुमने मेरा जो विनय किया, उससे मेरी भिक्षा अणेशणीय हो गई। वे तुम्हारे उपदेश से भिक्षा देने के लिए तैयार हुए है। आर्य सुहस्ति ने उसी समय क्षमा याचना की और भविष्य में पुनः ऐसी भूल न करने का संकल्प किया l
एक बार जीवंत स्वामी की प्रतिमा की रथयात्रा को देखने के लिए आर्य महागिरी और आर्य सुहस्ति अंवती नगरी में पधारे ।महाउत्सव के साथ जीवन्तस्वामी की रथ यात्रा नगर में आगे बढ़ने लगी। दोनों आचार्य भगवंत भी उस रथ यात्रा के साथ आगे बढ़ रहे थे। उस समय संप्रति राजा उज्जयनी में राज्य करता था। जिस समय वह रथ राजमहल के निकट पहुँचा, उस समय संप्रति राजा राजमहल के झरोखे में बैठकर नगर के दृश्य को देख रहा था। अचानक आर्य सुहस्ति को देखकर वह सोच में पड़ गया ,अहो! इनको मैंने कहीं देखा है। इस प्रकार विचार करता हुआ राजा तत्काल मूर्च्छित होकर भूमि पर गिर पड़ा।
मंत्रीजनो ने उनका शितोपचार किया । थोड़ी देर बाद राजा की मूर्च्छा दूर हुई। जातिस्मरण ज्ञान के कारण उसे अपना पूर्वभव दिखाई देने लगा। तत्क्षण वह महल में से नीचे उतर गया और आचार्य भगवंत को तीन प्रदिक्षणा देकर बोला, प्रभो! जिनधर्म की आराधना का क्या फल है?
आचार्य भगवंत ने कहा, जिनधर्म की आराधना का सुपक्व फल मोक्ष और अपक्व फल देवलोक आदि के सुख है। पुनः राजा ने पूछा , प्रभो! सामायिक का क्या फल है? आचार्य भगवंत ने कहा , हे राजन्! अव्यक्त सामायिक का फल राज्य आदि की प्राप्ति है। संप्रति महाराजा ने आचार्य भगवंत की बात का हृदय से स्वीकार किया। तत्पश्र्चात् राजा ने कहा, प्रभो! क्या आप मुझे पहचानते हो?
श्रुतज्ञान का उपयोग लगाकर आचार्य भगवंत ने कहा, हे राजन् ! मैं तुम्हें अच्छी तरह से पहचान गया हूँ। तुम पूर्व भव में मेरे शिष्य थे । तुम अपनें पूर्व भव की कथा सुनो।
हे राजन्! एक बार आर्य महागिरि और मैं अपनें परिवार के साथ विहार करते हुए कौशांबी में गए। वहां पर छोटी - छोटी वसति होने से हम अलग-अलग उपाश्रय में ठहरे । उस समय वहां पर भयंकर दुष्काल था, फिर भी लोग साधुओं के प्रति अत्यंत ही भक्तिवाले थे।
एक बार संघाटक मुनियों ने एक श्रेष्ठी के घर में भिक्षा के लिए प्रवेश किया। उनके पीछे- पीछे द्वार पर खड़ा भिखारी भी भीख मांगने लगा । वह श्रेष्ठी उन मुनियों को अत्यंत ही आदर - बहुमान पूर्वक लड्डू बहोराने लगा। श्रेष्ठी लड्डू लेने के लिए मुनियों को पुनः- पुनः आग्रह करने लगा, परन्तु वे मुनि पुनः - पुनः निषेध करने
लगे । सामने से मिष्ठान्न मिलने पर भी मुनियों के द्वारा निषेध करने पर उस भिखारी को बहुत आश्चर्य हुआ। उसने उन महात्माओं के पास भिक्षा याचना करने का निश्चय किया। जैसे ही वे महात्मा श्रेष्ठि के घर से बाहर निकले, वह भिखारी उनके पास भिक्षा की याचना करने लगा।
महात्माओं ने कहा, इस भिक्षा पर हमारा कोई अधिकार नहीं है, इस भिक्षा पर तो हमारे गुरुदेव का अधिकार है। अतः उनकी आज्ञा के बिना हम कुछ भी देने में असमर्थ है। मुनियों के मुख से इस जवाब को प्राप्त कर वह भिखारी भी उन महात्माओं के पीछे- पीछे वसति में आया और गुरुदेव के पास याचना करने लगा।
उस समय मैंने अपनें ज्ञानोपयोग के द्वारा देखा की यह भिखारी तो भविष्य में जिन शासन का महान प्रभावक बनेगा । इस प्रकार विचार कर मैंने कहा, यदि तुम दीक्षा अंगीकार करो तो तुम्हें भोजन मिल सकता है।
द्रमुक भिखारी ने सोचा , ऐसे भी मैं 3 दिनों से भूखा हूँ, अतः व्रत ग्रहण करने से मुझे भोजन मिलता हो तो यह व्रत भी मुझे स्वीकार है। इस प्रकार विचार कर वह दीक्षा स्वीकार करने के लिए तैयार हो गया। तत्पश्र्चात् मैंने उसे दीक्षा प्रदान की। दीक्षा स्वीकार करने के बाद उसे मोदक आदि खिलाए गए। स्वादिष्ट भोजन की प्राप्ति होने के कारण उसने भूख से भी अधिक भोजन कर लिया जिसके परिणाम स्वरुप उसे रात को शूल की पीड़ा उत्पन्न हुई उस समय अन्य मुनि व श्रेष्ठि आदि भी नूतन मुनि की सेवा सुश्रुषा करने लगे।
सभी साधुओं ने उसे निर्यामणा कराई -वह मुनि अत्यंत ही समाधि पूर्वकाल धर्म को प्राप्त हुए और मरकर कुणाल राजा के पुत्र, तुम संप्रति बने हो। अपने पूर्व भव को सुनकर संप्रति राजा अत्यंत ही खुश हो गया।
उसने कहा, हे प्रभो! यह राज्य भी आपकी ही कृपा का फल है उस समय आपके दर्शन नहीं हुए होते तो मुझे संयम की प्राप्ति कहां से होती? गत भव में आप मेरे गुरु थे- इस भव में भी आप ही मेरे गुरु हो 🙏
हे प्रभो! आप मुझे योग्य आदेश करें। आर्य सुहस्ती ने कहा, राजन्! इस लोक और परलोक में सुख देने वाले जिन धर्म का हृदय से स्वीकार करो। उसी समय गुरु आज्ञानुसार संप्रति राजा ने श्रावक धर्म का स्वीकार किया। वह त्रिकाल जिन पूजा करने लगा और जिन शासन की अद्भुत आराधना व प्रभावना करने लगा। उसने समस्त पृथ्वी को जिन मंदिरों से विभूषित कर दी।
अनार्य देश में भी जिन धर्म के प्रचार के लिए उसने अनेक श्रावको को यति वेष प्रदान कर उस भूमि में भेजा और वहां के प्रजाजनों को साधु की आचार- मर्यादा आदि का शिक्षण प्रदान कराया।
इस प्रकार सम्प्रति राजा ने अनार्य देश के अनार्य प्रजाजनों को भी जैन धर्म से भावित बनाकर जैन शासन की अपूर्व प्रभावना की। संप्रति राजा ने अपने जीवन में अनेक दानशालाए खुलवाई।
अंत में आर्य महागिरी ने अनशन व्रत स्वीकार किया। वह कालधर्म प्राप्त कर देवलोक में गए- वहां से च्वयकर मोक्ष में जाएंगे। आर्य सुहस्ति ने अनेक भव्य जीवो को प्रतिबोध देते हुए पृथ्वी तल पर विचरने लगे । अंत में आयुष्य की समाप्ति के समय समाधि पूर्वक कालधर्म प्राप्त कर देवलोक में गए वहां से च्यवकर मोक्ष में जाएंगे।
जिनकल्प के विच्छेद के बाद भी जिनकल्प की तुलना करने वाले आर्य महागिरी और एक रंक को दीक्षा प्रदान कर आगामी भव में संप्रति राजा के माध्यम से जिन शासन की अपूर्व शासन प्रभावना कराने वाले आर्य सुहस्ति म. को कोटि-कोटि वंदना।🙏🙏
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अनार्य देश के अनार्य प्रजाजनों को भी जैन धर्म से भावित बनाकर जैन शासन की अपूर्व प्रभावना की।
सवा करोड़ जिन प्रतिमा भरवाने तथा सवा लाख जिन मंदिर बनाने वाले तथा कई मंदिरों का जीर्णोद्धार एवं धर्मशाला बनाने वाले संप्रति महाराजा को कोटि-कोटि नमन🙏🙏
आर्य स्थूलभद्र स्वामी के आर्य महागिरी और आर्य सुहस्ती नाम के दो प्रधान शिष्य थे। वे दोनों दशपूर्वी थे। पृथ्वीतल पर विचरण कर वे अनेक भव्यजीवों को प्रतिबोध देते थे। अपनें धर्मोपदेश द्वारा आर्य महागिरी नेअनेक शिष्यों को तैयार किया था। उस समय जिनकल्प का विच्छेद हो चुका था, फिर भी जिनकल्प की तुलना करने के लिए उन्होंने अपनें गच्छ का भार आर्य सुहस्ति को सौंप दिया और स्वयं एकाकी विहार करने लगे ।
भव्यजीवों को धर्म देशना देते हुए वे एक बार पाटलिपुत्र नगर में पधारें। उसी नगर में आर्य सुहस्ति ने वसुभूति नाम के सेठ को प्रतिबोध दिया, इसके फलस्वरूप वह सेठ जिव- अजीव आदि नौ तत्वों का ज्ञाता बना । उसके बाद वह सेठ अपनें परिवार जनों को धर्मबोध देने लगा , परन्तु उन्हें बोध नहीं लगा । इसलिए सेठ ने आर्य सुहस्ति म. को विनति करते हुए कहा,`हे प्रभो! मेरे समझाने पर भी मेरे परिवारवाले प्रतिबोध नहीं पा रहे है, कृपया आप उन्हें समझाने की कोशिश करें ।'
सेठ की विनति का स्वीकार कर आचार्य भगवंत उसके घर पर पधारें, और उन्होंने वैराग्यवाहिनी धर्मदेशना देना प्रारंभ की । इसी बीच भिक्षा के लिए परिभ्रमण करते हुए आर्य महागिरी म. ने उसी सेठ के घर में प्रवेश किया। आर्यमहागिरि को देखते ही आर्य सुहस्ति अपनें आसन पर से खड़े हो गए और उन्होंने उन्हें भावपूर्वक वंदना की। उसी समय श्रेष्ठी ने पूछा ,`क्या आपके भी ये गुरु है?' आर्य सुहस्ति म. ने कहा ,`ये मेरे गुरुदेव है , भिक्षा में अंत-प्रांत व निरस आहार ग्रहण करते है । योग्य भिक्षा प्राप्त नहीं होने पर ये उपवास कर लेते है। ये महर्षि परम वंदनीय है,
इनकी चरणरज भी स्पर्शनीय है।' इस प्रकार आर्य महागिरी की स्तवना कर उन्होंने पूरे परिवार को धर्मबोध दिया। उसके बाद आर्य सुहस्ति उपाश्रय में चले गए।
उसके बाद उस श्रेष्ठि ने अपने परिवार जनों को कहा, ऐसे त्यागी मुनियो को अत्यंत ही भक्ति और बहुमान पूर्वक दान देना चाहिए। ऐसे त्यागी मुनियो को दान देने से महान लाभ होता है; अतः ऐसे महात्माओं के आगमन पर खूब भक्ति करनी चाहिए। दूसरे दिन आर्य महागिरी भिक्षा के लिए जब उस श्रेष्ठि के घर पधारे, तब अत्यंत ही भक्तिभाव से वह गोचरी बोहराने लगा। अपने श्रुतज्ञान के उपयोग से आर्य महागिरी ने वह भिक्षा दोषयुक्त जानी। वे भिक्षा लिए बिना ही वसति में आ गए। उपाश्रय में आकर आर्य महागिरी ने आर्य सुहस्ति को ठपका देते हुए कहा, कल तुमने मेरा जो विनय किया, उससे मेरी भिक्षा अणेशणीय हो गई। वे तुम्हारे उपदेश से भिक्षा देने के लिए तैयार हुए है। आर्य सुहस्ति ने उसी समय क्षमा याचना की और भविष्य में पुनः ऐसी भूल न करने का संकल्प किया l
एक बार जीवंत स्वामी की प्रतिमा की रथयात्रा को देखने के लिए आर्य महागिरी और आर्य सुहस्ति अंवती नगरी में पधारे ।महाउत्सव के साथ जीवन्तस्वामी की रथ यात्रा नगर में आगे बढ़ने लगी। दोनों आचार्य भगवंत भी उस रथ यात्रा के साथ आगे बढ़ रहे थे। उस समय संप्रति राजा उज्जयनी में राज्य करता था। जिस समय वह रथ राजमहल के निकट पहुँचा, उस समय संप्रति राजा राजमहल के झरोखे में बैठकर नगर के दृश्य को देख रहा था। अचानक आर्य सुहस्ति को देखकर वह सोच में पड़ गया ,अहो! इनको मैंने कहीं देखा है। इस प्रकार विचार करता हुआ राजा तत्काल मूर्च्छित होकर भूमि पर गिर पड़ा।
मंत्रीजनो ने उनका शितोपचार किया । थोड़ी देर बाद राजा की मूर्च्छा दूर हुई। जातिस्मरण ज्ञान के कारण उसे अपना पूर्वभव दिखाई देने लगा। तत्क्षण वह महल में से नीचे उतर गया और आचार्य भगवंत को तीन प्रदिक्षणा देकर बोला, प्रभो! जिनधर्म की आराधना का क्या फल है?
आचार्य भगवंत ने कहा, जिनधर्म की आराधना का सुपक्व फल मोक्ष और अपक्व फल देवलोक आदि के सुख है। पुनः राजा ने पूछा , प्रभो! सामायिक का क्या फल है? आचार्य भगवंत ने कहा , हे राजन्! अव्यक्त सामायिक का फल राज्य आदि की प्राप्ति है। संप्रति महाराजा ने आचार्य भगवंत की बात का हृदय से स्वीकार किया। तत्पश्र्चात् राजा ने कहा, प्रभो! क्या आप मुझे पहचानते हो?
श्रुतज्ञान का उपयोग लगाकर आचार्य भगवंत ने कहा, हे राजन् ! मैं तुम्हें अच्छी तरह से पहचान गया हूँ। तुम पूर्व भव में मेरे शिष्य थे । तुम अपनें पूर्व भव की कथा सुनो।
हे राजन्! एक बार आर्य महागिरि और मैं अपनें परिवार के साथ विहार करते हुए कौशांबी में गए। वहां पर छोटी - छोटी वसति होने से हम अलग-अलग उपाश्रय में ठहरे । उस समय वहां पर भयंकर दुष्काल था, फिर भी लोग साधुओं के प्रति अत्यंत ही भक्तिवाले थे।
एक बार संघाटक मुनियों ने एक श्रेष्ठी के घर में भिक्षा के लिए प्रवेश किया। उनके पीछे- पीछे द्वार पर खड़ा भिखारी भी भीख मांगने लगा । वह श्रेष्ठी उन मुनियों को अत्यंत ही आदर - बहुमान पूर्वक लड्डू बहोराने लगा। श्रेष्ठी लड्डू लेने के लिए मुनियों को पुनः- पुनः आग्रह करने लगा, परन्तु वे मुनि पुनः - पुनः निषेध करने
लगे । सामने से मिष्ठान्न मिलने पर भी मुनियों के द्वारा निषेध करने पर उस भिखारी को बहुत आश्चर्य हुआ। उसने उन महात्माओं के पास भिक्षा याचना करने का निश्चय किया। जैसे ही वे महात्मा श्रेष्ठि के घर से बाहर निकले, वह भिखारी उनके पास भिक्षा की याचना करने लगा।
महात्माओं ने कहा, इस भिक्षा पर हमारा कोई अधिकार नहीं है, इस भिक्षा पर तो हमारे गुरुदेव का अधिकार है। अतः उनकी आज्ञा के बिना हम कुछ भी देने में असमर्थ है। मुनियों के मुख से इस जवाब को प्राप्त कर वह भिखारी भी उन महात्माओं के पीछे- पीछे वसति में आया और गुरुदेव के पास याचना करने लगा।
उस समय मैंने अपनें ज्ञानोपयोग के द्वारा देखा की यह भिखारी तो भविष्य में जिन शासन का महान प्रभावक बनेगा । इस प्रकार विचार कर मैंने कहा, यदि तुम दीक्षा अंगीकार करो तो तुम्हें भोजन मिल सकता है।
द्रमुक भिखारी ने सोचा , ऐसे भी मैं 3 दिनों से भूखा हूँ, अतः व्रत ग्रहण करने से मुझे भोजन मिलता हो तो यह व्रत भी मुझे स्वीकार है। इस प्रकार विचार कर वह दीक्षा स्वीकार करने के लिए तैयार हो गया। तत्पश्र्चात् मैंने उसे दीक्षा प्रदान की। दीक्षा स्वीकार करने के बाद उसे मोदक आदि खिलाए गए। स्वादिष्ट भोजन की प्राप्ति होने के कारण उसने भूख से भी अधिक भोजन कर लिया जिसके परिणाम स्वरुप उसे रात को शूल की पीड़ा उत्पन्न हुई उस समय अन्य मुनि व श्रेष्ठि आदि भी नूतन मुनि की सेवा सुश्रुषा करने लगे।
सभी साधुओं ने उसे निर्यामणा कराई -वह मुनि अत्यंत ही समाधि पूर्वकाल धर्म को प्राप्त हुए और मरकर कुणाल राजा के पुत्र, तुम संप्रति बने हो। अपने पूर्व भव को सुनकर संप्रति राजा अत्यंत ही खुश हो गया।
उसने कहा, हे प्रभो! यह राज्य भी आपकी ही कृपा का फल है उस समय आपके दर्शन नहीं हुए होते तो मुझे संयम की प्राप्ति कहां से होती? गत भव में आप मेरे गुरु थे- इस भव में भी आप ही मेरे गुरु हो 🙏
हे प्रभो! आप मुझे योग्य आदेश करें। आर्य सुहस्ती ने कहा, राजन्! इस लोक और परलोक में सुख देने वाले जिन धर्म का हृदय से स्वीकार करो। उसी समय गुरु आज्ञानुसार संप्रति राजा ने श्रावक धर्म का स्वीकार किया। वह त्रिकाल जिन पूजा करने लगा और जिन शासन की अद्भुत आराधना व प्रभावना करने लगा। उसने समस्त पृथ्वी को जिन मंदिरों से विभूषित कर दी।
अनार्य देश में भी जिन धर्म के प्रचार के लिए उसने अनेक श्रावको को यति वेष प्रदान कर उस भूमि में भेजा और वहां के प्रजाजनों को साधु की आचार- मर्यादा आदि का शिक्षण प्रदान कराया।
इस प्रकार सम्प्रति राजा ने अनार्य देश के अनार्य प्रजाजनों को भी जैन धर्म से भावित बनाकर जैन शासन की अपूर्व प्रभावना की। संप्रति राजा ने अपने जीवन में अनेक दानशालाए खुलवाई।
अंत में आर्य महागिरी ने अनशन व्रत स्वीकार किया। वह कालधर्म प्राप्त कर देवलोक में गए- वहां से च्वयकर मोक्ष में जाएंगे। आर्य सुहस्ति ने अनेक भव्य जीवो को प्रतिबोध देते हुए पृथ्वी तल पर विचरने लगे । अंत में आयुष्य की समाप्ति के समय समाधि पूर्वक कालधर्म प्राप्त कर देवलोक में गए वहां से च्यवकर मोक्ष में जाएंगे।
जिनकल्प के विच्छेद के बाद भी जिनकल्प की तुलना करने वाले आर्य महागिरी और एक रंक को दीक्षा प्रदान कर आगामी भव में संप्रति राजा के माध्यम से जिन शासन की अपूर्व शासन प्रभावना कराने वाले आर्य सुहस्ति म. को कोटि-कोटि वंदना।🙏🙏
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