कथा याकिनी महत्तरा

 



विक्रमी शताब्दी पूर्व से ही चित्तौड़ जैनाचार्यों का आकर्षण केन्द्र रहा, जिसके कारण यहाँ के सामाजिक वातावरण में अहिंसा व समभाव का प्रभाव स्पष्ट रूप से पाया जाता है। 136 ई. पूर्व जैनाचार्य देवगुप्त सूरि एवं ई. 158 से 178 तक यज्ञदेव सूरि के इस क्षेत्र में विचरण का उल्लेख मिलता हैं।

15 वीं शताब्दी तक चित्तौड़ युगप्रधान जैनाचार्यों की विहार भूमि रहा है। मथुरा एवं ठेठ दक्षिण से अनेकानेक आचार्य चित्तौड़ प्रवार पर आते रहे है, जिनमें प्रमुखतः दिगम्बर साधु रहे है। विक्रम की पांचवी शताब्दी में भी सिद्धसेन दिवाकर जिन्हें सम्राट विक्रमादित्य की सभा का रतन बनने का गौरव प्राप्त हुआ था, यहाँ विद्याध्ययन एवं लेखन के लिए रहे थे। 9 वी शताब्दी में आचार्य कृष्णार्षि नामक साधु बड़े विख्यात हुए, जिन्होंने कइयों को जैन धर्म में दीक्षित किया था।

भट्ट ब्राह्मण कुल में जन्मे युगान्तरकारी आचार्य श्री हरिभद्र सूरि (ई. 700-770) चित्तौड़ के मूल निवासी थे, जिन्होंने 1444 ग्रंथों की रचना की एवं अपनी विद्वता की ऐसी छाप छोड़ी कि उनके ग्रन्थ हमेशा के लिए जैन दर्शन एवं चारित्र के नियामक बन गए।

जिनसेन आचार्य के गुरू वीरसेन आचार्य हुए जिन्होंने कई ग्रंथों की रचना की। आचार्य हरिषेण नामक जैन विद्वान ने (ई. 987) धम्म परिक्खा नामक ग्रंथ लिखा। आचार्य जिनवल्लभसूरि के चित्तौड़ में देवलोक गमन के उपरान्त ई. 1112 में धोलका निवासी सोमचंद्रगणि ने चित्तौड़ दुर्ग पर ही आचार्य पद ग्रहण किया एवं आचार्य जिनदत्त सूरि के नाम से विख्यात हुए। इस आयोजन में स्वयं धोलका नरेश अपनी मंत्री परिषद् के साथ उपस्थित हुए थे। जिनदत्त सूरि खरतरगच्छ के बड़े प्रभावशाली आचार्य सिद्ध हुए, जिनका देवलोक अजमेर में हुआ।

ई. 1253 में जन्मे आचार्य सोमप्रभसूरि द्वारा मात्र 11 वर्ष की आयु में दीक्षा लेकर 22 वें वर्ष में सूरि पद प्राप्त करने का उल्लेख है। उन्होंने कई ग्रंथ लिखकर बड़ी प्रसिद्धि प्राप्त की। जिनप्रभ सूरि जी के मोहम्मद तुगलक से सम्मानित होने का उल्लेख मिलता है। आचार्य धर्मरत्नसूरि शत्रुंजय की ओर जाते हुए संघ लेकर चित्तौड़ से गुजरे तब महाराणा सांगा ने उनकी अगवानी की थी।

उपर्युक्त मुनियों/आचार्यों के अलावा चित्तौड़गढ़ कई अन्य मुनियांे की जन्मस्थली या कर्मस्थली रहा है। आठवी शताब्दी में उद्योतनसूरि (कुवलयमाला की रचना की), 10 वीं शताब्दी में महाकवि डड्ढा (प्राकृत भाषा निबद्ध जिनमें पंच संग्रह आदि), 12 वीं शताब्दी में वादिदेवसूरि, रामकीर्ति, (समिद्धेश्वर प्रशस्ति), देवभ्रदसूरि (जिन्होंने शास्त्रार्थ में भागवत शिवूर्ति को पराजित किया था), 14 वीं शताब्दी में जिनभ्रदसूरि, जिनप्रभसूरि, रत्नाचार्य, 15 वीं शताब्दी में चारित्र सुन्दरगणि (महावीर जैन मंदिर प्रशस्ति), जिन हर्षगणि (वस्तुपाल चरित्र), पट्मनाथ, ऋषिवर्धनसूरि (नल दमयंती रास), वाचक सोमदेव (इनकी विद्वता की तुलना सिद्धसेन दिवाकर से की जाती।) हीरानंदसूरि, सोमसुनदरसूरि (कई मंदिरांे का निर्माण/जीर्णोद्धार करवाया), राजशील (विक्रीम खापर चरित्र) शुभचन्द्र, 16 वीं शताब्दी में विजयसेनसूरि, गजेन्द्रप्रमोद (चित्तौड़ चैत्य परिपाटी), सिद्धिचन्द्र, जिनचन्द्रविजय, भानुचन्द्र, 17 वीं शताब्दी में धर्मदास, 18 वी शताब्दी में साध्वी सतीश्वेता चित्तौड़ गजल आदि का उल्लेख इतिहास एवं अभिलेखों में मिलता है।

एक लम्बे अन्तराल के बाद बहुत प्रभावशली आचार्य श्री विजयनीति सूरि हुए जिनकी प्रेरणा से चित्तौड़गढ़ में स्टेशन रोड़ की जैन धर्मशाला एवं जैन गुरुकुल की स्थापना हुई। दुर्ग पर श्रृंगार चंवरी एवं सातबीस देवरी का जीर्णोद्धार हुआ। सातबीस देवरी मन्दिर की प्रतिष्ठा हेतु पधारते हुए बीच में अचानक एकलिंग जी में आपका देवलोक माघ वदी तीज सम्वत् 1998 को हो गया। इस आघात के बाद भी सातबीसदेवरी मंदिर की प्रतिष्ठा आचार्य जी द्वारा प्रदत्त मुहुर्त पर ही उनके शिष्य विजयहर्षसूरीश्वर द्वारा माघ सुदी बीज संवत् 1998 को सम्पन्न करवाई गई।

ई. 1971 में चित्तौड़ पधारे पद्मश्री मुनि जिनविजय जैसे विद्वान चिंतक ने अपना अन्तिम जीवन चित्तौड़ को ही समर्पित कर दिया था। शताब्दियों पुरानी विरासत और राजस्थान एवं गुजरात के हस्तलिखित साहित्य को प्रकाश में लाने एवं उनका सम्पादन व प्रकाशन करने का श्रेय मुनि जिनविजय जी को ही जाता है। चित्तौड़गढ़ को कार्यक्षेत्र बनाने वाले महान आचार्यों में आचार्य हरिभद्रसूरि, आचार्य जिनवल्लभसूरि, आचार्य जिनदत्तसूरि एवं आचार्य विजयनीति सूरीश्वर के बाद मुनि जिनविजयजी ही है, जिन्होने चित्तौड़गढ़ को अपना कार्यक्षेत्र बनाकर आचार्य हरिभद्रसूरि मन्दिर एवं अन्य संसथाएँ बनवाई। (चारों हान आचार्यों एवं पद्मश्री मुनि जिनविजय जी को श्रद्धांजलि स्वरूप अलग से जानकारी संलग्न की जा रही है।)

मुनि जिनविजय जी के बाद चित्तौड़गढ़ क्षेत्र को जैन श्रेष्ठ प्राणि मित्र, करुणा के सागर माननीय कुमारपाल भाई वी, शाह का एवं उनके सहयोगियों का आशीर्वाद प्राप्त हुआ, जिनके संबल से चित्तौड़गढ़ के श्रावक, तीर्थ एवं संस्थाएँ लहलहा उठी।

1. आचार्य श्री हरिभद्रसूरि जी

चित्रकूट (चित्तौड़) के ब्राह्मण परिवार में माता गंगा एवं पिता शंकर भट्ट की संतान के रूप में वि. सं. 757 (सन् 700) में जन्मे हरिभद्र की पहचान विश्व के महान तत्व दृष्टा, उद्भट विद्वान आचार्य श्री हरिभद्रसूरि के रूप में हुई। अपने समय के शिखर सनातनी विद्वान के रूप में अप्रतिम प्रतिष्ठा अर्जित कर राजपुरोहित हरिभद्र स्वज्ञानाभिमान से इतने आप्लावित हो गये थे कि उन्होंने प्रतिज्ञा ले ली थी कि ‘‘सृष्टि में अगर किसी का कथन मै समझ न सकूँ तो उसका शिष्यत्व अंगीकार कर लूंगा’’।

एक बार एक उपाश्रय के समाने से गुजरते हुए उन्हें साध्वी श्री याकिनी महत्तरा के मधुर कण्ठ से निःश्रत ‘‘चक्कि दूगं.....’’ गाथा कान में पड़ी, जो ‘क्षेत्र समास’ ग्रंथ की एक गाथा थी। बहुतेरी कोशिशों के बाद भी अर्थ समझ में न आने पर हरिभद्र ने साध्वीश्री से अर्थ समझाने का अनुनय किया, तब साध्वी याकिनी महत्तरा ने उन्हें आचार्य श्री जिनदत्त के पास भेजा। आचार्य श्री से गाथा का अर्थ जानकर हरिभद्र ने जैन धर्म अंगीकार किया एवं अपने पंथ एवं हृदय परिवर्तन की निमित्त बनी साध्वी याकिनी महत्तरा को अपनी धर्म माता के रूप में स्वीकार किया। प्रवज्या ग्रहण के बाद आचार्य हरिभद्र का कायाकल्प हो गया। वे विनम्र, सुशील व एक तपस्वी महात्मा बन गये। मिथ्याभिमान दूर हो गया और जैन आगमों के सूक्ष्म अध्ययन पर उनके मुँह से निकला ‘हा अणाहा कहं हुंतो, जई न हुंतो जिणागमो’ अर्थात् ‘हम अनाथ हो जाते अगर हमें जिनागमों की प्राप्ति न होती’।

आचार्य हरिभद्र वैदिक, बौद्ध एवं जैन दर्शन के प्रकाण्ड विद्धान होने के बावजूद किसी दर्शन के प्रति कटु नहीं हुए। उनके हृदय में अनेकान्त का दर्शन प्रतिरोपित हो चुका था, इसीलिए अपने युग की संकुचित एवं अनुदार दृष्टि से ऊपर उठ कर उनका साहित्य अनेकान्त से पल्लवित समन्वयवादी समदृष्ट साहित्य है। उन्होंने कथा, उपदेश, योग, दर्शन आदि के रूप में 1444 ग्रंथों की रचना की। इन ग्रंथों में प्राकृत एवं संस्कृत की मिश्र सम-संस्कृत भाषा में 1,50,000 से अधिक श्लोकों की रचना हुई है। उनके उपलब्ध प्रसिद्ध ग्रंथों में समराइच्च कहा, शास्त्र वार्ता समुच्चय, योग शतक, योग बिन्दु, योग दृष्टि समुच्चय, योग शतक आदि है।

शिथिलाचार जो भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् छोटे से छेद के माध्यम से प्रविष्ट हुआ था। आचार्य हरिभद्र सूरि के समय तक पहुँचते-पहुँचते विराट रूप धारण कर चुका था। आचार्य हरिभद्र ने शिथिलाचार के विरोध में सर्व प्रथम आवाज उठाई एवं ‘‘सम्बोध प्रकरण’’ आदि ग्रंथों में इसकी निन्दा की। उनके ग्रंथों पर देश-विदेश में कई विद्वान शोध कर चुके है एवं आज भी निरंतर शोध जारी है।

आचार्य श्री हरिभद्र की नश्वर देह आज इस दुनिया में नहीं है फिर भी उनके 1444 शास्त्र शिष्य अपने रचयिता का यशोगान भविष्य में भी करते रहेंगे।

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