अग्नि शर्मा कथा आरम्भ

 अग्नि शर्मा  भाग 1

कल बड़ा मजा आया , नहीं ?’

‘अरे… बात ही मत पूछो… वाकई मजा आ गया था।’
‘ओह, मेरा तो हंसने के मारे बुरा हाल था ।’
‘सचमुच, ऐसा जुलूस तो हमारे नगर में पहली बार ही निकला होगा ।’

‘कुमार , तुम भी क्या एक एक तरकीब खोज निकलते हो मौज मनाने की । जवाब नहीं तुम्हारा ।’
‘पर… वह पुरोहित का छोकरा , बाकी… जँच रहा था गधे पर । इस शत्रुध्न ने तो ढोल पीट पीट कर सारे गाँव को सर पर उठा लिया था ।’
‘और…यह कुष्णकांत… वाह। महाराजा अग्निशर्मा की क्या छड़ी पुकारी थी इसने । अरे… और तो और… वह गधा भी अपनी सुरीली आवाज में ढेचुम… ढेचुम… कर के सुर मिला रहा था ।’
‘कितने सारे लड़के शामिल हुए थे जुलूस में । जैसे कोई राजा की सवारी निकली हो ।’
राजकुमार गुणसेन के सुसज्ज शयनखंड में चार दोस्त मिलकर गपशप किये जा रहे थे ।
सेनापति का लड़का जहरीमल, मंत्री का बेटा शत्रुध्न और राजकुमार गुणसेन का चचेरा भाई कुष्णकांत , ये तीनों लड़के राजकुमार गुणसेन की चापलूसी करने वाले थे । कुमार गुणसेन के अच्छे-बुरे कार्यो के साथी थे , साक्षी थे ।

कुमार गुणसेन का एक ही कार्य रहता था… औरों को दुःखी कर के मौज मनाना । परपीड़न करके आनंद मनाना । इसके लिए उसने नगर के प्रजाप्रिय पुरोहित यज्ञदत्त के बदसूरत -कुरूप पुत्र अग्निशर्मा को शिकार बनाया था। अग्निशर्मा जन्म से ही कुरूप था । बेडोल था। उसकी माता सोमदेवा ने बरसों तक तो उसे घर से बाहर भी नहीं निकाला था , पर एक दिन जब वह राजमार्ग पर यों ही खेलने को निकल आया तब मस्तीखोर राजकुमार की आंखों में चढ़ गया ।

भूरी गोल आंखें… तिकोना सिर, बिल्कुल छप्पट नाक, और कान की जगह मात्र दो छेद… लंबे लंबे पीले दांत… लंबी-टेढ़ी गरदन… छोटे-छोटे पतले हाथ… छोटा सा सीना और फुला हुआ पेट , मोटी पर छोटी और खुरदरी जांघें… चौड़े और टेढ़े-मेढ़े पैर, सिर पर पीले और छितराये छितराये से बाल ।
ऐसा था अग्निशर्मा का कुरूप शरीर ।

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भाग 2 अग्नि शर्मा


अग्निशर्मा का कुरूप शरीर राजकुमार के लिये खिलौना बन गया था । राजकुमार और उसके चापलूस दोस्त अग्निशर्मा पर जोर-जुल्म कर के कुर मजा लेते थे । अग्निशर्मा के माता-पिता राजपरिवार के समक्ष लाचार थे , असहाय थे । अपने कोंखजाये की क्रूरतापूर्ण कदर्थना होती देखकर उनकी आंखें खून के आंसू बहाती थी। उनका दिल भारी वेदना से टुकड़े टुकड़े हुआ जा रहा था । पर आदमी कुछ बातों के आगे असहाय और बेबस बन कर रह जाता है , कुछ नहीं कर सकता ।
चार दोस्तों ने मिलकर आज फिर मौज मनाने की नई योजना बनाई थी।
गुणसेन ने कहा : ‘कल अग्निशर्मा को डोरी से बांधकर , नगर के बाहर जो कुआँ है… उसमें उतार कर डुबकी लगवाएंगे… मजा आ जाएगा। है ना मजेदार योजना ।’
शत्रुध्न ने कहा : ‘कुमार, योजना तो तुम्हारी जोरदार है ।’ कुष्णकांत बोला : ‘हम उसका जुलूस निकाल कर नगर के बाहर ले चलेंगे ।’
जहरीमल बोला : ‘गधे को रंगबिरंगे रंग से सजायेंगे… अग्नि को भी रंग डालेंगे… फिर देखना केसा मजा आता है । पुरे रास्ते में लड़कों की टोली चिहुँकाती-चिल्लाती चलती रहेगी… तालियां बजायेंगे…। और लोग हंस हंस कर मजा लेंगे अपने कारनामे का ।’
गुणसेन ने कहा : ‘ठीक है… तू अग्नि को रंग लगाना …. पर उसके सिर पर कांटे का ताज पहनाना, और लाल-पीले फूलों की माला उसके गले में डालना । और सिर पर पुराने सुपड़े का छत्र रखना ।’
शत्रुध्न नाच उठा…’वाह भाई वाह । कल का जुलूस तो वाकई में मजेदार रहेगा । क्षितिप्रतिष्ठित नगर के इतिहास में इतना मनोरंजक जुलूस तो शायद पहली बार ही निकलेगा ।’
जहरीमल ने कहा…’कल सबेरे-सबेरे ही मैं कालिये कुंभार के वहां जाकर उसके भूरिये गधे को ले आऊंगा… और अग्निशर्मा को भी तो लाना होगा ।’
अरे… तू तेरे गधे को ले आना… शर्मा को तो मैं खुद उठा लाऊंगा…।
शर्मा की माँ उसे घर में ही छुपाकर रखेगी… इसलिए मुझे ही जाना होगा ।
मैं उसके घर में घुसकर उसे उठा लाऊंगा…। मुझे उसका बाप भी नहीं रोक सकता है ।’

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भाग3


अग्नि शर्मा


तुझे रोकने की गुस्ताखी कौन करेगा ? ताकत है किसी की ?’ शत्रुध्न ने कुष्णकांत की चापलूसी करते हुए कहा । चारों मित्र खिलखिलाकर हंस पड़े ।
गुणसेन ने कहा :
‘देख शत्रुध्न । कल जब जुलूस निकले … तब तुझे देर तक जोर जोर से ढोल पीटना होगा । और भी ढोल- कांसे बजानेवालों को बुला लाना…। और जहरीमल, तू मजबूत डोरी लाना भूलना मत ।’
‘नहीं भूलूंगा…मेरे राजा । अरे , उस शर्मा के बच्चे को डुबकी खिलानी है ना ? खड़ा ही खड़ा उसे कुएँ में उतारूंगा… फिर कुमार तुम मजे से उसे डुबक… डुबक… डुबकियाँ खिलाते रहना ।’
‘बारी बारी से हम चारों डुबकियां खिलवायेंगे… तुम भी तो मजा लेना ।’ कुमार ने उदारता दिखाई ।
तीनों मित्र कुमार की प्रशंसा करने लगे ।
नौकर ने आकर दूध के प्याले रखे और चांदी की थाली में मिठाई रखी । सभी ने दूध और मिठाई की न्याय दिया । सभा समाप्त हो गई ।
ब्राह्मण मुहल्ले में कुष्णकांत ने पैर रखा… कि मुहल्ले के सभी घर फटाफट… बंद होने लगे । घर बंद रहे या खुले… कुष्णकांत को परवाह नहीं थी। उसे तो केवल यज्ञदत्त पुरोहित का घर खुला चाहिए था। शायद बंद भी हो तो खोलना उसे आता था । और सचमुच यज्ञदत्त का घर बंद था। कुष्णकांत को मुहल्ले में घुसते देखकर ही सोमदेवा कांप उठी थी । उसने सटाक से दरवाजा बंध कर के अग्निशर्मा को घर के भीतर के कमरे में छुपा दिया था ।
कुष्णकांत ने घर का दरवाजा खटखटाया ।
‘पुरोहित , दरवाजा खोल ।’
कोई जवाब नहीं देता है…।
‘पुरोहित , दरवाजा खोलता है या नहीं ?’
कुछ प्रत्युत्तर नही मिलता है ।
‘पुरोहित…. या तो सीधे सीधे दरवाजा खोल दे … वर्ना मुझे दरवाजा तोडना होगा…फिर मुझे भला-बुरा मत कहना ।’
फिर भी द्वार खुलता नहीं है….। कुष्णकांत ने जोर से लात मारी , एक … दो … और तीन … तीसरी लात लगते ही दरवाजा चरमराकर टूट गया ।

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भाग 4


अग्नि शर्मा

महानुभाव , बस , बहुत हो चुका । अब रहने दो , उस बच्चे पर दया करो… उसे मत सताओ… उसे उत्पीड़ित मत करो ।’ यज्ञदत्त ने नम्र शब्दों में बिनती की।
‘यह सब भाषण महाराजकुमार के सामने देना , पुरोहित । मुझे तो अग्निशर्मा चाहिए । कहां है वह खिलौना ? चल , जल्दी मुझे सौंप दे उसे ।’
‘भाई , क्या बिगाड़ा है उस बच्चे ने तुम्हारा ? रोजाना क्यों उसका मजाक बनाते हो ? उसे पीड़ा देते हो ? भगवान तुम्हें कभी माफ नहीं करेगा ।’
‘सुन , पुरोहित। मुझे तेरा भगवान नहीं चाहिए … तेरा भगवान मुझे माफ़ करे या नहीं करे… मुझे इसकी परवाह नहीं है… मुझे तो तू मेरा खिलौना दे दे…. वर्ना राजकुमार तुझे माफ़ नहीं करेंगे । बोल , कहां छुपाया है उसे ? इस कमरे में है ना ? खोल कमरा… बाहर निकाल उस छोकरे को ।’
पुरोहित यज्ञदत्त की आंखों से आंसू बहने लगे । कुष्णकांत के समक्ष उसकी प्रार्थना… उसकी बिनती… सब कुछ व्यर्थ था । कुष्णकांत ने यज्ञदत्त को चेतावनी देते हुए कहा :
‘पुरोहित , आज दिन तक मैंने तेरी मर्यादा रखी है… तुझे हाथ नहीं लगाया है… पर अब यदि तू नही मानता है तो मैं तेरी चोटी पकड़कर उठाकर तुझे घर के बाहर फिंकवा दूंगा… तेरी शिकायत कोई सुननेवाला नहीं है । समझा न ? चल… जल्दी से दरवाजा खोल ।’
कमरे में रही हुई सोमदेवा ने सोचा : ‘यह दुष्ट महाराजा पूर्णचंद्र के भाई का बेटा है… फिर राजकुमार का दोस्त भी है… इसलिए यह जो चाहे सो कर सकता है..। इनके विरुद्ध शिकायत सुननेवाला राजमहल में है भी कौन ? नाहक यह राक्षस पुरोहित पर हाथ उठाएगा… और आखिर मेरे पुत्र को ले तो जाएगा ही ।’
सोमदेवा ने दरवाजा खोल दिया । तरुण अग्निशर्मा कुष्णकांत को देखकर हवा में हिलते पते की भांति कांपने लगा…। उसकी गोल गोल आंखें चक्कर खाने लगी । वह सोमदेवा से लिपट गया… और जोर जोर से रोने लगा ।
कुष्णकांत ने एकाध पल की भी देरी किये बगैर अग्निशर्मा को पकड़ा , उठाया … कंधे पर डाला और घर से बहार निकल गया! मुहल्ले के बाहर उसका घोडा खड़ा था । अग्निशर्मा को घोड़े पर डालकर , खुद घोड़े पर बैठा और घोड़े को राजमहल की और दौड़ा दिया ।
सोमदेवा और यज्ञदत्त दोनों करुणस्वर में रुदन करने लगे । सोमदेवा ने यज्ञदत्त से कहा :
‘स्वामी , इसकी बजाए तो यमराज आकर पुत्र को उठा जाए तो अच्छा ।

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भाग 5


अग्नि शर्मा

यह तो रोजाना की पीड़ा है…न सह सकते हैं, न किसी से कह सकते हैं ।’
‘कुछ भी उपाय सूझ नहीं रहा है…। किस तरह बेटे को इस तरह की यातना से बचाया जा सके ?’
आंसुभरी आंखों से यज्ञदत्त ने आकाश की ओर देखते हुए कहा ।
‘खुद राजकुमार प्रजा को पीड़ित करें…फिर भी राजा उसे रोक नहीं सकता । किसे जाकर शिकायत करना ? और पुत्र का जीव भी न जाने गत जन्म में कैसे पाप करके आया है ?’
यज्ञदत्त ने कहा ।
‘स्वामी , पुत्र पूर्वजन्म के पाप लेकर मेरे पेट से जन्मा है यह बात सच है, पर हमारे भी तो पूर्वजन्म के पाप हैं ना ? जिससे ऐसा बदसूरत पुत्र हमें मिला । और फिर अपनी आंखों से पुत्र को पीड़ित होते हुए देखना ।’
‘देवी, तुम्हारी बात सही है…। पाप तो तुम्हारे – मेरे और पुत्र तीनों के हैं…। अपने किये हुए पापों की सजा ईश्वर कर रहा है । ईश्वर जो करे सो सही । आदमी क्या कर सकता है ? ईश्वर की इच्छा के बगैर तो एक पत्ता भी नहीं हिलता है ।’
‘क्या ईश्वर दयालु नहीं है ? क्या ईश्वर को हम पर दया नहीं आती होगी ? ईश्वर को हम करुनानिधान कहते हैं…और आप तो त्रिकाल ईश्वरप्रणिधान करते हैं…। तब फिर वह सर्वशक्तिमान ईश्वर इन दुष्टों को , मेरे बेटे पर संत्रास गुजरनेवाले इन कलमूहों को कड़क शिक्षा क्यों नहीं करता ? क्या उसकी बनाई हुई सृष्टि की रक्षा करना उसका कर्तव्य नहीं है…? मुझे रोजाना यह विचार आता है…और सच पूछो तो, मेरी ईश्वर पर की श्रद्धा घटती जा रही है…। रोजाना आपको कहने को मन करता था पर कह नहीं पाती थी…आज मुंह से निकल गई। क्या गलत बात है मेरी ?’ सोमदेवा ने आखिर यज्ञदत्त से अपने मन की बात कह दी ।
यज्ञदत्त वेदों का ज्ञाता एवं कर्मकांडी ब्राह्मण था । ईश्वर के प्रति उसकी श्रद्धा अगाध और अविचल थी । सोमदेवा की बात सुनकर उसका मन जरा दुःखी हुआ…परंतु उसके खुद के मन में भी गहरे गहरे यही सवाल रेंग रहे थे । ‘सर्वशक्तिमान ईश्वर दुष्टों का निग्रह क्यों नहीं करता है ? सज्जनों पर अनुग्रह क्यों नहीं करता है ?’ उसका ज्ञान उसे अधूरा महसूस होता था , फिर भी सोमदेवा को ढाढ़स बंधाते हुए उसने कहा :
‘देवी , ईश्वर की शक्ति पर भरोसा रखो। यह तो ईश्वर हमारे सत्व की…हमारी श्रद्धा की… हमारे धैर्य की परीक्षा ले रहा है ।’
हमारी परीक्षा लेना हो तो ले… पर इस निर्दोष – मासूम बच्चे की परीक्षा तो नहीं ली जा सकती ना ? इतनी क्रूरताभरी परीक्षा ?

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भाग 6


अग्नि शर्मा



सोमदेवा-
मैं तो रोजाना मंदिर में जाकर भगवान को उपालंभ देती हुई कहती हूं … ‘भगवान , तूने हमें ऐसा कुरूप पुत्र देकर दुःखी किया… ठीक है । हम पुत्र का भलीभांति लालन – पालन करेंगे । पर यह राजकुमार और उसके मित्र उस पर जो अत्याचार गुजारते हैं… उसे तो तुम रोक सकते हो । मेरे इस बेटे की तो रक्षा करो…। हम तुम्हारे भक़्त है , तुम हमारे भगवान हो , तुम्हें हमारी रक्षा करनी ही होगी। अब मेरे से पुत्र की पीड़ा… देखी नहीं जाती । उसका उत्पीड़न सहा नहीं जाता । रोजाना उसकी क्रूर कदर्थना होती है । क्रूर मजाक होती है… उसे घोर दुःख दिया जाता है । तुम भी यदि हमारी तरह असहाय होकर यह सब देखा करोगे तब फिर तुम भगवान कैसे ? एक मासूम अपाहिज बच्चे पर शैतान के अवतार से इन्सान जुल्म गुजारते रहें , फिर भी यदि भगवान खामोश रहकर तमाशा देखा करे… तो वह भगवान कैसे ?’
यों कहकर… निराशा और संताप के साथ वापस घर आती हूं… ईश्वर की शक्त्ति पर का भरोसा हिल गया है।
सोमदेवा का दिल भर आया। वह रो पड़ी। उसे ढ़ाढस बंधाते हुए यज्ञदत्त ने कहा :
‘अग्नि की मां, ईश्वर की ताकत कम नही हुई है… परंतु दुःख सहन करने की हमारी क्षमता घट गई है…।’
इतने में, दूर से ढोल – कांसे की आवाजें उभरने लगी। ‘अभी इस वक़्त जोर जोर से ढोल क्यों बज रहा होगा ?’ इसके बारे में सोचे तब तक तो उसी मुहल्ले के दो युवान घर में आये और कहा :
‘पुरोहितजी , घोर जुल्म हो रहा है । प्रजाजनों को उत्पीड़ित करके राजकुमार पाशवी आनंद मना रहा है ।’
‘क्या हुआ भाई ?’
‘अग्निशर्मा की घोर कदर्थना ।’
‘हमने बहुत अनुनय किया… मत ले जा मेरे लाडले को…पर वह दुष्ट कुष्णकांत जोरतलबी करके अग्नि को उठा ले गया ।’
‘चूंकि वह गुणसेन का चमचा है… मंत्रिपुत्र और सेनापति का लड़का भी राजकुमार की दृष्टता के हिस्सेदार है ।’
‘हां, यह जो ढोल बज रहा है ना ? वह शत्रुध्न ही बजा रहा है। गधे पर अग्नि को बिठाकर… उसके सिर पर कांटे का मुकुट पहनाकर…, गले में लाल फूलों की माला डालकर… सिर पर पुराने टूटे फूटे सुपड़े का छ्त्र बनाकर , उसे गाँव के बाहर ले जाया जा रहा है । हजार जितने बच्चे एकत्र हो गये है… हंसते है…गाते है… चीखते है… चिल्लाते है…। गधा भी कूद रहा है… अग्नि बेचारा..

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भाग 7


अग्नि शर्मा


अग्नि बेचारा घबराहट के मारे रो रो कर जार जार हुआ जा रहा है…। पर राजकुमार खुश होकर झूम रहा है । उसके साथी तालियां पीट रहे हैं , वह जहरीमल घोड़े पर सवार होकर घोषणा कर रहे है… ‘चलो , सब नगर के बाहर। नगर के बाहर कुएँ पर सभी को एक खेल दिखाया जाएगा। वह भी मुफ्त में। गधे पर बिराजमान महाराजा अग्निशर्मा को कुएँ में उतारा जाएगा… और बाहर निकाला जाएगा ।’
मुहल्ले के युवानों ने, सोमदेवा और यज्ञदत्त के प्रति अपनी हार्दिक सहानुभूति जताते हुए बात की । एक युवान का खून गरम हो उठा :
‘आज मेरा खून खोल उठा है…। मन करता है….सराजमार्ग पर जाकर उस जहरीमल की टांग खींचकर घोड़े पर से नीचे पटक दूं… उसके सीने पर पैर रखकर उसका गला…’
‘नहीं भाई नहीं… इसका परिणाम क्या आएगा , सोचा है ? राजकुमार और उसके दोस्त तुझे जिन्दा नहीं छोड़ेंगे । उसी वक़्त तलवार का वार करने में उन्हें क्या देर लगनेवाली है ? नहीं… हमें ऐसा कुछ भी नहीं करना है ।’
‘तब क्या करना है ? रोजाना अग्नि की इस तरह कदर्थना होने देना? राजकुमार को रोकने का कुछ उपाय ही नहीं है? बस देखते ही रहना? यह तो निरा अन्याय है ।’ युवान ने जोशीली आवाज में कहा । उसकी ऊँची आवाज सुनकर मुहल्ले के दस – बारह युवान वहाँ आ पहुँचे। युवानों का आक्रोश बढ़ता गया। मुहल्ले के कुछ बड़े बूढ़े भी वहाँ पर एकत्र हो गये ।
एक वुद्ध ने कहा :
‘पुरोहित के साथ हमारे मुहल्ले के अग्रणियों को मिलकर महाराजा के पास जाना चाहिए। महाराजा के समक्ष सारी परिस्थिति रखनी चाहिए ।’
एक युवान ने कहा : ‘केवल मुहल्ले के अग्रणी ही क्यों ? नगर के अग्रणी महाजन को भी साथ ले जाना चाहिए। महाजन भी सख्त नफरत करते है… इस चंडाल चौकड़ी की क्रूरता से ।’
दूसरे वुद्ध ने अपना मत कहा : ‘महाराजा के पास जानेवालों को एक बात भलीभांति समझ लेनी चाहिए… कि फिर जीवनभर तक राजकुमार और उसके मित्रों के साथ दुश्मनी होने की । कभी वे मौत की गोद में भी सुला दे…। भविष्य का पूरा विचार करके ही हर कार्य करना चाहिए ।’
एक प्रौढ़ व्यक्त्ति ने कहा :
‘भाई , इन दादा ने भविष्य का विचार करने का कहा है , यह कार्य आग के साथ खेल करने का है… यह बात भी सही है… पर यदि राजकुमार और उसके मित्रों को ऐसी अधम क्रूरता से रोका नहीं गया तो यह सब कहां पर जाकर रुकेगी ? आज अग्निशर्मा की बारी है…कल और किसी का शिकार होगा । एक खिलौने से जी भरेगा…तो दूसरा खिलौना खोजने में उन्हें देर कहां ? तब क्या करोगे ? यह भी तो सोचना होगा न ।’
मौन छा गया ।

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भाग 8


अग्नि शर्मा

यज्ञदत्त ने कहा : ‘भाईयों, आप या महाजन, महाराजा के पास मत जाइये,मैं और अग्नि की माँ-हम दोनों जाएँगे। चाहे तो राजकुमार हमारे गले पर तलवार का वार कर दे । वैसे भी, जीने में रखा क्या है ? बेटे का दुःख अब देखा नहीं जाता। हमारे लिए तो जिन्दगी और मौत दोनों ही एक से हैं। हम जाएँगे महाराजा के पास, पुत्र – रक्षा का वचन मांगेंगे। यदि महाराजा वचन देंगे… तब तो ठीक है… वर्ना….’ यज्ञदत्त रो पड़े । सोमदेवा भी फफकने लगी । वह उठकर घर के भीतर कमरे में चली गई । वहां पर उपस्थित सभी की आंखें गीली हो गई ।
दूर दूर के राजमार्ग पर से ढोल की आवाज आ रही थी । छोटे छोटे बच्चों की चीख – चिल्लाहट सुनाई दे रही थी । यज्ञदत्त व्याकुल हो उठे।
‘बेचारा अग्नि …. कैसे पाप लेकर पैदा हुआ है ? कितनी घोर ताड़ना – कदर्थना हो रही है उसकी ? कितना संत्रास गुजर रहा है उस पर ?’ जमीन पर द्रष्टि स्थिर करके यज्ञदत्त स्वगत बोल रहे थे : ‘महाराजा पूर्णचन्द्र गुणवान है… करुणावान है… परंतु पुत्रस्नेह सब से बलवान होता है। वे कुमार को रोकते भी कहां हैं ? कुमार को दुःख हो वैसा कुछ कह भी नहीं सकते। अग्नि के दुःख का विचार उन्हें भला क्यों आएगा ? क्या करुं ? सत्ता के आगे समझदारी किस काम की ? व्यर्थ है सब ।’
एक वुद्ध पुरुष जो कि यज्ञदत्त के समीप ही बैठे थे… उन्होंने यज्ञदत्त की पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा :
‘पुरोहितजी , तुम विषाद मत करो… तुम तो ज्ञानी हो… समझदार हो । ‘ईश्वर ने चाहा सो ही होगा ।’ यों सोचकर शांत हो जाओ । हम मुहल्ले के चार-पाँच आग्रणी मिलकर नगर के महाराजा से मिलेंगे और इस बारे में विचार विमर्श करेंगे…। फिर बाद में तुमसे मिलेंगे ।’
वुद्ध पुरुष खड़े हुए । सभी युवान लोग वहीँ बैठे रहे।
उस प्रौढ़ आदमी ने यज्ञदत्त से कहा : ‘पिरोहितजी, तुमने सबेरे से कुछ भी खाया पिया नहीं है… इसलिए अब कुछ खा लो , तुम दोनों मेरे घर पर चलो ।’
आंसू भरी हुई आंखों से पुरोहित ने उस प्रौढ़ व्यक्त्ति के सामने देखा और कहा :

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भाग 9

अग्नि शर्मा


आंसू भरी हुई आंखों से पुरोहित ने उस प्रौढ़ व्यक्त्ति के सामने देखा और कहा :
‘ भाई , हमारे खाने-पीने की बात तो करना ही मत। महीनों से हमारा खाना-पीना हराम हो गया है। न तो खाना अच्छा लगता है… न पीना मन को भाता है । शाम को वे दुष्ट लोग… अग्नि को घर में डाल जाएंगे। फिर तीन घंटे तक अग्नि बेहोश पड़ा रहेगा…। एक प्रहर बीतने के बाद हम उसे नहलाएंगे…। उसे प्यार से समझापटा कर कुछ खिलाएंगे । इसके बाद हम दोनों कुछ दो-चार कौर पेट में डाल देंगे ।’
फिर तो सारी रात अग्नि का कल्पांत चलता है… नहीं सहन होता है यह सब। परंतु कर भी क्या सकते हैं ? देश छोड़कर चले जाने का विचार भी आता है, पर ये राक्षस हमें यहां से जाने भी नहीं देंगे ।’
वुद्ध पुरुष चले गये थे। सोमदेवा बाहर आई… उसने युवानोंसे कहा : ‘भाई… तुम सब भी अब अपने अपने काम-धंधे पर जाओ। हम भी अब देव-पूजा करेंगे ।’
युवान खड़े हुए। उन्होंने यज्ञदत्त और सोमदेवा को प्रणाम किये और वे चले गये ।
अग्निशर्मा की सवारी नगर के बाहर बड़े कुँए के पास पहुँची। गुणसेन ने शत्रुध्न से कहा : ‘अब तुम अपने इस राजा को दो बगल में रस्सा डालकर मजबूती से बांध दो । फिर राजा को कुँए में उतरेंगे ।’
अग्निशर्मा जोर जोर से रोने लगा । ‘नहीं… नहीं… मुझे मत बांधो… मुझे कुँए में मत उतारो….।’ वह गधे पर से नीचे उतरने लगा…. पर जमीन पर नीचे ढेर हो गया। वह गुणसेन के पैरों में लौटने लगा । मुझे छोड़ दो… मुझे मेरे घर पर जाने दो ।’
इतने में जहरीमल ने अग्निशर्मा की पीठ पर कसकर लात लगाई । अग्निशर्मा चीख उठा । गुणसेन जोर से हंस पड़ा । अग्निशर्मा जब जब भी रोता… या चीखता… चिल्लाता… तब गुणसेन तालियां पीट पीट कर ख़ुशी मनाता …।
कुष्णकांत ने दो हाथ से अग्निशर्मा को खड़ा किया । शत्रुध्न ने उसके बगल में रस्सा बांधा और उसे उठाकर कुँए के किनारे पर ले गया । गुणसेन , शत्रुध्न और जहरीमल भी कुँए पर चढ़ गये थे । कुष्णकांत ने दो हाथ से अग्निशर्मा को उठाया और वहां पर उपस्थित लोगों के सामने रखा। जहरीमल ने घोषणा की : ‘भाई, अब अपने इस राजा को इस कुँए में जी भरकर स्नान करवायेंगे। डुबकियां खिलायेंगे। राजा को मजा आ जाएगा ।’
‘नहीं नहीं… मुझे स्नान नहीं करना है। मुझे डुबकी नहीं लगाना है…। मुझे बचाओ , ये दुष्ट मुझे मार डालेंगे …।’ अग्निशर्मा चिल्लाकर बोला।

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भाग 10

अग्नि शर्मा


अग्निशर्मा चिल्ला चिल्लाकर बोला। परंतु खेल तमाशा देखनेवालों को दया कहां थी ? लोग तालियां पीट पीट कर हंसने लगे । कुष्णकांत को गुस्सा आया। उसने अग्निशर्मा को कुँए के किनारे पर ही पटका…. अग्निशर्मा चीख उठा ।’
गुणसेन ने कहा : ‘इधर ला, इस पठ्ठे को मुझे दे, जरा मैं भी इसको मजा चखाऊं…।’
कुष्णकांत ने अग्निशर्मा को कुमार के हाथों में दिया…. कुमार ने उसे कुँए में उतारा । कुँए में पानी भरा हुआ था । कुमार ने अग्निशर्मा को पानी में डुबोया और उसे बाहर निकाला। अग्निशर्मा असह्म वेदना व पीड़ा से तड़पता है…. परंतु पीड़ा की और कौन देखनेवाला था ? शत्रुध्न ने रस्सी पकड़कर उसे कुँए में डाला एक-दो डुबकी खिलाई और बाहर निकाला ।
नरक के परमाधामी देव जिस प्रकार नरक के जीवों को यातना देते हैं… इस तरह ये चारों मित्र अग्निशर्मा को उत्पीड़ित कर के नाच रहे थे। झूम रहे थे। जोरों से हंस रहे थे।
चारों मित्रों ने अग्निशर्मा को जी भरकर डुबकियां खिलाई…। जहरीमल ने अग्निशर्मा के सिर पर… चेहरे पर हाथ सहला कर कहा…’क्यों बच्च….मजा आया न ? कितनी देर से स्नान का मजा ले रहा है तू ।’
‘अब मुझे स्नान नहीं करना है…। मुझे घर जाने दो ।’ यों बोलते हुए अग्निशर्मा ज्यों ही खड़ा होने जाता है… इतने में गुणसेन ने उसके सिर पर एक मुक्का लगया । चीखता हुआ अग्निशर्मा कुँए के किनारे पर ही लुढ़क गया ।
गुणसेन ने आज्ञा की : ‘चढ़ा दो इसको वापस गधे पर और सवारी ले लो नगर की ओर ।’
कुष्णकांत ने रोते-कलपते हुए अग्निशर्मा को गधे पर बिठाया…। गधा जोरों से उछला… पिछले पैरों से कुष्णकांत को जोर से लात मार दी गधे ने । कुष्णकांत के मुंह से चीख निकल गई । अग्निशर्मा ने तालियां पीटी और जोर से हंस दिया । कुष्णकांत ने अग्निशर्मा पर अपना गुस्सा उतारा ।
शत्रुध्न ने जोर जोर से ढोल बजाना चालू किया ।
सवारी नगर की और चली । गधा करीब करीब दौड़ता हुआ जा रहा था । सभी लोग उसके पीछे दौड़ने लगे । राजमहल से कुछ दूरी पर एक मैदान में पहुँचने के बाद… गुणसेन ने शत्रुध्न से कहा… ‘जा… इस गठरे को डाल आ उसके घर में ।’
शत्रुध्न ने अग्निशर्मा को दो हाथ से उठा कर कंधे पर डाला….और ब्राह्मण मुहल्ले में जाकर , यज्ञदत्त के घर में घुसा…..
‘पुरोहित, ले तेरा यह बेटा । आज का हमारा खेल पूरा हो गया ।’ यों कहकर खटिया पर अग्निशर्मा को फेंका और हंसता हंसता वह घर से बाहर निकल गया।
खटिया में गिरते ही अग्निशर्मा बेहोश हो गया । सोमदेवा और यज्ञदत्त खटिया के पास बैठ गये । रोते रोते अपने कलेजे के टुकड़े के शरीर को सहलाने लगे । आज कुछ मिनटों में ही उसकी बेहोशी दूर हो गई … परंतु उसका शरीर बुखार से तप रहा था । भयंकर ठंड से उसका शरीर कांप रहा था ।
‘मुझे कुछ ओढ़ा दो… मां । मुझे बहुत ठंड लग रही है… ओ… मां, मुझे बचाओ । ये राक्षस मुझे मार डालेंगे ।’
यज्ञदत्त ने अग्निशर्मा को चार रजाई ओढ़ाई…। घर में से औषध निकालकर उसके हाथ-पैरों में लगाई…। काली मिर्च-मसाले डालकर दूध को गरम किया और उसे पिलाया । कुछ देर बाद अग्निशर्मा को नींद आ गई। पर सारी रात, यज्ञदत्त और सोमदेवा कुछ भी खायेपिये वगैर बेटे की खटिया को पकड़े बैठे रहे ।
दुःख – संत्रास और विडंबना ने उसके मुँह को सी दिया था। सोमदेवा मन ही मन ईश्वर को उपालंभ देती रही… और यज्ञदत्त मन में ईश्वर का स्मरण करते रहे।











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