नमुत्थुणं
एक बात की विशेष चर्चा होनी थी कि जब तीर्थंकर का जन्म औऱ च्यवन
होता है तब
कब करते है शक्रेन्द्र, शक्रस्तव की स्तुति और कैसे करते है ?*
जब भी प्रभु का *च्यवन या जन्म कल्याणक* होता है, शक्रेन्द्र के *सिंहासन कंपायमान* होते ही उन्हें पता चलता है और वह अपने सिंहासन को, आपनी पादपीठ पादुका वि. को छोड़, जिस तरफ प्रभु है, उस दिशा की और, सात से आठ कदम चलकर, अखण्ड वस्त्र का उतरासंग करते हुए, अपने दक्षिण जानु (बायें घुटने) को आरोपण करके, (सिकोड़कर), और, वामजानु को, (दाहिने घुटने) को भूमि पर टिकाकर *नमुत्थुणं मुद्रा* में, जिसे हम *योगमुद्रा* भी कहते है, और इसी *नमुत्थुणं सूत्र यानी शक्रस्तव के द्वारा, अरिहंत भगवंत के ३६ विशिषणों के साथ, नमुत्थुणं सूत्र, जिसकी ९ गाथा शाश्वत है, वह स्तुति करते है। (दसवीं गाथा को बाद में जोड़ा गया है)*,
*त्रिशष्टिसलाका में भी, शक्रस्तव स्तुति करते समय की, अरिहंत प्रभु के विशेषणों की स्तुति का ही वर्णन है ।* उसके बाद अपने मस्तक को भूमि पर लगाकर, तीन बार वंदन करते है और यही भाव तब वह भाते है कि, भगवान को वंदन करता हूँ, वहाँ स्थित भगवान मुझे देखें ।
*तो ऐसे, नमुत्थुणं सूत्र के माध्यम से, हम भावपूर्वक अरिहंत परमात्मा की विशषणपूर्वक भक्ति करते हुए, नमस्कार करते है ।*
भाग 2
शक्र इन्द्र जब तीर्थंकर देव की स्तुति करता है तब दाएँ घुटने को उपर करके , पेट उपर करके पेट पर हाथ की कोणी को रखकर , दो हाथ से कमल के डोडा जैसे आकर करके अंजलि करके यह सूत्र बोलते है। इसलिये इस सूत्र का शक्रस्तव नाम भी है।
शक्र शब्द का अर्थ इन्द्र होता है। औऱ सौधर्म देवलोक के अधिपति इन्द्र सर्वप्रथम बोले इसलिए इसका नामशक्रस्तव पड़ा
होगा।
सामायिक क्रिया में जैसे करेमी भंते प्रधान सूत्र है , वैसे चैत्यवंदन की क्रिया में शक्रस्तव - नमुत्थुणं सूत्र प्रधान सूत्र है। यह सूत्र 33 आलापो में है।
इसमें शरुआत में अरिहंत भगवान के अलग - अलग 35 विशेषणों द्वारा स्तुति की गई है। बाद में त्रणेय काल के सिद्ध परमात्मा का मोक्ष का स्वरूप बताते पूर्वक स्तुति की गई है।
यह सूत्र में 1 गाथा , 9 संपदा , 33 गुरु अक्षर , 264 लघु अक्षर और संपूर्ण अक्षर 297 है। यह शाश्वत सूत्र है।
*दस गाथाओं के नमुत्थुणं सूत्र की शुरुआत होती है, जिसमें, पहली गाथा में, अरिहंत भगवंत को नमस्कार कर के ९ गाथा तक सिर्फ अरिहंत परमात्मा को विशेषण देकर, उनकी स्तुति की जाती है, और यही शक्रेन्द्र भी प्रभु के च्यवन व जन्मकल्याणक के अवसर पर करते आये है, जिस का उल्लेख त्रिषष्ठि सलाका पुरुष में भी है ।*
*"""अंतिम दसवीं गाथा में, सभी सिद्धो को, और सर्व तिर्थंकरों को""" त्रिविधे नमस्कार कर के, वर्तमान काल में, यह सूत्र, सम्पन्न होता है ।*
*""शाश्वत"" की अपेक्षा से, """नमुत्थुणं की ९ गाथा""" ही शाश्वत है, दसवीं गाथा बाद में जोड़ी गई है, ऐसा मानना है, इसीलिए दूसरे उपधान की तीसरी वांचना में, यह दसवी गाथा की संपदा, पद और गुरु- लघु अक्षर को, पूरे सूत्र की कुल संख्या में नहींं जोड़ा जाता है ।*
*नमुत्थुणं सूत्र व अर्थ 👇🏻
*अरिहंताणं*-अरिहंतों को नमस्कार होवे
अरिहंताणं... 'अरि' यानी शत्रु और 'हंत' यानी हणना, रागादी अंतरंग शत्रुओं का जिसने नाश किया है।
अरहंताणं-अर्थात, श्रेष्ठ गुण संपत्ति के स्वामी होने से देव और देवेंद्र द्वारा भी जो पूजने योग्य है, और
जिनके सर्व प्रकार के कर्मों का नाश हो गया हो और जिनको अब कभी भी जन्म नहीं लेना है ऐसे अरिहंत भगवंतों को नमस्कार होवे
यह पद बोलते हुए रागादि शत्रु को हण कर जन्म की परंपरा को छेद कर, सर्व को पूजने योग्य अरिहंत परमात्मा को अंतरपट में बिराजमान कर के, नमस्कार करते-करते प्रार्थना करना है कि, हे नाथ, मैं तो रागादि शत्रु से पीड़ित हूं, मेरी जन्म मरण की परंपरा चालू है, और कभी यूं ही लोकनिंदा का पात्र भी बनता आया हूं।
अब आप को नमस्कार करते करते एक ही प्रार्थना करता हूं कि प्रभु, रागादि भावों से छूड़ाकर मुझे भी आप जैसा बनाओ। की अवस्था को किया गया नमस्कार सविशेष कल्याण का कारण बनता है।
ये ही भावअरिहंत को सविषेश दर्शाने के लिए ही आगे भगवंताणं पद आता है।
*भगवंतों को नमस्कार हो
भग' शब्द के, ऐश्वर्य, चन्द्रमा यश, कांति, सौभाग्य धर्म मोक्ष और प्रयत्न ऐसे अर्थ होते है। धन 12 आदित्य में से एक महामात्य
और 'वंत' शब्द का अर्थ 'वाला' या की भरा हुआ होता है। अर्थात, ऐश्वर्यादि अनेक गुणवाले जो है वो भगवान है। उनको मेरा नमस्कार हो।
वैसे हरआत्मा का असली स्वभाव भगवंता है और आत्मा में अनंत दर्शन, अनंत शक्ति, अनंत ज्ञान और अनंत सुख है। आत्मा और कर्म पुद्गल के बंधन के कारण यह गुण प्रकट नहीं हो पाते। औऱ जो सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चरित्र के माध्यम से आत्मा के इस राज्य को प्राप्तकर लेता है। इनरत्न त्रयी के धारक को भगवन्त कहा जाता
तीर्थंकर नामकर्म के उदय से प्राप्त हुए 34 अतिशयो के भी वो स्वामी होते हैं ये ऐश्वर्य आदि विशेषताओं को देख कर सभीमंत्रमुग्ध से हो जाते हैं और उनके व्यक्तित्व से प्रभावित हो जाते हैं जिससे कि उनकी प्रभु के प्रति मनोभावना और भक्ति प्रबल होजाती है, उत्कृष्ट होजाती है।
प्रभु का रूप अति सुंदर और अनुपम कोटि का होता है।
जगत में ऐसा रूप अन्य किसी का भी नहीं है कि जो उदाहरण या उपमा के रूप में, भगवान के रूप की संक्षिप्त भी पहचान दे पायें। सुंदर से सुंदर व्यक्ति कीभी प्रभु परमात्मा के सामने उसका रूप, उसकी सुंदरता फिक्की पड जाती है। *..दर्शनीय उनकी मुखाकृति, उत्तम भावों की पराकाष्ठा द्वारा, व्यक्ति को अपने कल्याण के लक्ष्य तक ले जाने में समर्थ है।
बाहरी युद्ध जीतकर भले ही चक्रवर्ती और अन्य शूरवीर प्रशंसा के पात्र हो सकते हैं, शौर्य आदि के विषय में उदाहरणरूप भी हो सकते हैं परन्तु वंदनीय और पूजनीय नहीं होते, वे सिर्फ अरिहंत परमात्मा ही होते हैं।क्योंकि उन्होंने आंतरिक युद्ध जीता है
*
*आइगराणं*- तीर्थों की आदि को करने वाले, आदि,
अर्थात पूर्व में जन्मादि प्रपंच को करने के स्वभाव वाले होते हैं परन्तु उत्तरोत्तर धर्म में वृद्धि व प्रगति करते हुए ऐसी उत्तम स्थिति प्राप्त करते हैं कि तीर्थ तक की स्थापना के गुण इनमें खिल जाते हैं।
ऐसे अरिहंतभगवंतों को मेरा नमस्कार हो,
आइगराणं यानी आदि को करने वाले। अर्थात उनकी आत्मा भी अन्य जीवों की तरह अनादि काल से संसार में परिभ्रमण करती हैं इस कारण तीर्थंकर बनने के पूर्व अनादि काल से वह भी जैसे-जैसे
द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव और भव के निमित्त मिलते हैं, उसी प्रकार से कर्मों के साथ संबंध वाले बनते हैं। और कर्मों की साथ संबंध वाले होने के कारण उनका जन्म, जरा, मरण आदि रूप है, जिनको मैं नमस्कार करता हूं। यद्यपि, श्रुतधर्मरूप द्वादशांगी, अर्थ की अपेक्षा से शाश्वती है परन्तु शब्द की अपेक्षा से हर तीर्थंकर के शासन में भिन्न-भिन्न होती है। हर तीर्थंकर के शासन में शब्द से भिन्न भिन्न प्रकार से द्वादशांगी की रचना होती है, और उन रचना में परमात्मा की त्रिपदि कारणभूत होने से उनको श्रुत धर्म की आदि करने वाले कहा जाता है।
*
अंतिम भव में जब परमात्मा, साधना के द्वारा घनघाति कर्म को खपाते हैं, तब समस्त जगत को प्रकाशित करने वाले केवलज्ञानादि गुण उनमें प्रगट होते हैं। उसके साथ ही पूर्व के तीसरे भव में सर्व जीवों को शासनरसी करने की भावना जो उदय हुई होती है, उसी का, निकाचित किए हुए तीर्थंकर नामकर्म द्वारा विपाकोदय शुरू होता है।
वैसे मोहनिय कर्म के नाश होने के कारण से उनको तीर्थ के प्रवर्तन का कोई मोह, कोई इच्छा होती नहीं है, परन्तु जैसे सूर्य, स्वभाव से ही पूरी सृष्टि को प्रकाशित करता है वैसे परमात्मा भी तीर्थंकर नामकर्म के उदय से उत्कृष्ट परोपकार की प्रवृत्ति सहज भाव से करते हैं। यह परोपकार द्वारा ही उनका तीर्थंकर नामकर्म खपता है।
परमात्मा तीर्थ का प्रवर्तन करते हैं, उस कारण वे चतुर्विध संघ की स्थापना करते हैं, जिनमें सम्मिलित है- साधू, साध्वी, श्रावक और श्राविका।
और उनको प्रवचन प्रदान करते हैं। परमात्मा देशना द्वारा जगत के सर्व जीवों को जड़ और चेतनद्रव्य का यथार्थ स्वरूप समझाते हैं, यद्यपि, मात्र स्वरूप ही समझाते ऐसा नहीं है, अपितु, देशना द्वारा जीवद्रव्य को कोई भी प्रकार से पीड़ा ना हो और जड़द्रव्य की कोई भी प्रकार से हानि ना हो, उस प्रकार से संयमित जीवन व्यतीत करने की पद्धति बतलाते हैं।
यह देशना सुनकर अनेक भव्य आत्माएं सत्ज्ञान और सत्क्रिया (चारित्र) का स्वीकार करते हैं और उसके द्वारा भीषण ऐसे भवसागर से तीर जाते हैं।
परमात्मा का प्रवचन, भयंकर ऐसे संसार सागर से तीराने वाला होता है, जो तीर्थ की स्थापना द्वारा होता है और वो तीर्थंकर भगवंत द्वारा होने से उन्हें तित्थयराणं कि उपमा प्राप्त है।
प्रारंभ में परमात्मा गणधरपद को योग्य ऐसे आत्माओं को त्रिपदि का उपदेश देते हैं। बीज बुद्धि के स्वामी गणधर भगवंत परिमित शब्द में दी हुई यह त्रिपदि द्वारा समग्र विश्वव्यवस्था को पहचानते हैं। सर्व जीवों के हिताहित को जानते हैं और उसके आधार से द्वादशांगीकी रचना करते हैं।
इस द्वादशांगी के ऊपर प्रभु, मोहरछाप लगाते हैं और उनके शासनकाल तक यह द्वादशांगी को पा कर अनेक आत्माएं भवसागर पार करती हैं।
इसलिए यह द्वादशांगीको तीर्थ कहते हैं।
🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔
*सयंसंबुद्धाणं का अर्थ- जो स्वयं ही सम्यग बोध को पाने वाले होते हैं, ऐसे परमात्मा को नमस्कार हो जा स्वंय सिद्धा हो
स्वयं ही वे वैराग्य को प्राप्त कर, संसार को त्याग कर संयम के मार्ग पर स्थिर हो जाते हैं।
फिर संयम जीवन के प्रारंभ से ही वह निरतिचार संयम जीवन का पालन आदि, गुरु उपदेश के बिना ही स्वयं करते हैं।
साथ ही अन्य जीवों के कल्याण का कार्यभार भी वहन करते हैं।
तीर्थ रूपी चतुर्विध श्री संघ की स्थापना आदि कर के धर्म का प्रवर्तन करते हैं।
तीर्थंकर परमात्मा का तथाभव्यत्व ऐसा विशिष्ट कोटि का होता है कि उसके प्रताप से वह स्वयं ही बोध, अर्थात श्रेष्ठ बोधि को प्राप्त करते हैं।
हम जगत के जीव, गाढ मोह की निंद्रा में सोये हुए हैं, हम को जागृत करने के लिए महापुरुषों को अथाग प्रयत्न करने पड़ते हैं, फिर भी अल्प ही जीव इस मोहनिद्रा का त्याग कर सकते हैं। और हम बाकी सब इस भव संसार में निरंतर भटकते रहते हैं जब तक भवितव्यता से हमारा भव से तीरने का योग नहीं बन जाता।
*पुरिसुत्तमाणं-का अर्थ है जो*-पुरुषों में उत्तम ऐसे परमात्मा को मेरा नमस्कार हो
पुरि शयनात् पुरूष- यानी कि जो पुरु में शयन/चयन करने वाले हो वो पुरूष कहलाते हैं। यहां पुर् यानी शरीर और शयन/चयन करना, अर्थात, रहना।
जो जीव शरीर में रहता है वह पुरुष कहा जाता है। इस अर्थ से, संसारवर्ती सर्व जीवों को पुरुष कहा जाता हैं।
अरिहंत परमात्मा वो सर्व जीवों में उत्तम है। क्योंकि निगोद अवस्था से, संसार भ्रमण के प्रारंभ से ही, उनमें योग्यता के स्वरूप दूसरे जीवों से विशिष्ट कोटि के दस गुण रहे होते हैं, और जब जब इन गुण संपत्ति को, योग्य द्रव्य-क्षेत्र-काल आदि सामग्री प्राप्त होती जाती है, तब तब यह गुण प्रगट रूप से देखने को मिलते हैं, और इस तरह उत्तरोत्तर प्रगति कर, अंतिम भव में तीर्थंकर की आत्मा में यह दस गुण पराकाष्ठा को पातें हैं।
उत्कृष्ट कोटि के यह गुण उनके सिवा अन्य कोई भी जीव में संभव हो नहीं सकते। परमात्मा के यह दस गुण, आध्यात्मिक विकास के दस स्टेप है। यह गुणों के कारण परमात्मा उत्तम है, उत्तमोत्तम है।
किसी भी आत्मा को यह आध्यात्मिक सुख की प्राप्ति करनी हो तो उसको भी अपने जीवन में यह दस गुण को प्राप्त कर के उन्हें विकसित करने का प्रयत्न करना चाहिए।
*
*पुरिसुत्तमाणं-2*-पुरुषों में उत्तम ऐसे परमात्मा को मेरा नमस्कार थाओ।
तीर्थंकर के अंतिम भव में उनकी आत्मा में बसे दस गुण निरंतर उत्थान करते हुए पराकाष्ठा तक पहोंचते हैं।
उनके ये दस गुण आध्यात्मिक विकास के दस स्टेप्स है।
यदि हमें भी उनके जैसा बनना है और आध्यात्मिक सुख की प्राप्ति करनी है तो यह दस गुण विकसित करने हेतू प्रयत्नशील होना चाहिए।
उन दस गुणों का विवेचन अब हम देखेंगे।
*1.परार्थव्यसनी*- परार्थ=परोपकार, व्यसन=आदत।
अरिहंत की आत्मा निरंतर परोपकार की भावना से वासित होती है। या यूं कह सकते हैं कि वे परोपकार के व्यसनी होते हैं।
मनुष्य को जिस वस्तु की आदत पड़ जाती है, या किसी वस्तु का वो व्यसनी हो जाता है, तो वो वस्तु कीये बिना या उस वस्तु को पाये बिना उसको चैन नहीं पड़ता है। इस कारण वो ऐसे कार्य या ऐसी वस्तु को ढूंढता फिरता है।
अरिहंत परमात्मा के परोपकार का व्यसन भी कुछ उस प्रकार का है।
उदाहरण स्वरूप, प्रभु महावीर, सभी नगरजन कि ना होने के पश्चात भी स्वयं की चिंता किए बिना चंडकौशिक को प्रतिबोधित करने के लिए जंगल की बाट पकड़ कर विचरे थे।
परोपकार करने के लिए हॄदय का अत्यंत कोमल होना आवश्यक है। कठोर हॄदय वाली आत्माएं स्वार्थ से भरी होती है।
अपने स्वार्थ में, अन्य का क्या होगा, उसका उसको विचार तक भी आता नहीं है। जब कि करुणासभर हृदय, अन्य की जरूरत, अन्य की कठिनाई का सबसे पहले विचार करते हैं।
इसलिए जिनको धर्म करना है, जिनको आत्मा का आनंद प्राप्त करना है, उनको सब से पहले यह प्रथम गुण का विकास करना चाहिए।
*
*2. स्वार्थगौणता*- हम सब पामर जीव की तुलना में, परमात्मा में स्वार्थ की प्रधानता कभी भी नहीं होती। परोपकार करने वाले यह जगत में फिर भी बहुत सारे मिल जाते हैं, किन्तु अपने स्वार्थ को पूर्णतया तज कर, अपने स्वयं के कार्य को गौण कर के भी, अन्य के कार्य करने की तत्परता तो कोई उत्तम ही पुरुष में देखने को मिलती है।
शांतिनाथ भगवान के जीव ने मेघरथ राजा के भव में, एक कबूतर को बचाने के लिए अपनी समग्र काया शिकारी को सौंप दी थी।
नेमिनाथ प्रभु ने हिरण आदि मूक पशुपक्षी की रक्षा करने हेतू, जिसके साथ नव नव भव की प्रीत थी ऐसी, राजुलरमणी का भी त्याग कर दिया था।
*3.अदीनता*- परमात्मा के जीव में दीनता का अभाव होता है। वे स्वयं को कभी दीन अवस्था में नहीं रखते ना ही अन्य किसी को अपनी कोई भी अवस्था हो, परन्तु दीनता का परिचय भी नहीं देते।
धन संपदा लूट जाएगी, खत्म हो जाएगी, आदि के भय से प्रभावित नहीं होते विपत्ति आपदा आने परअधीर नहीं होते हिम्मत नहीं हारते,अदीन भावना से आत्मा को अनुशासित करते
साधारण जीव छोटी बड़ी कठिनाइयों में तुरंत ही दीन-हीन बन जाते हैं, उनके मुख पर पूर्णतया दीनता का भाव स्पष्ट दिख जाता है। स्व-पीड़ा का भाव उनके मुख पर छा जाता है। उनको देखते ही किसी को भी दया आ जाती है। यह याचक जैसी स्थिति, लाचार जैसी स्थिति बना लेना या प्रदर्शित करना, सर्वथा अनुचित है।
तीर्थंकर की आत्मा, ऐसे में एक ज्वलंत उदाहरण समान है। उनको चाहे कोई भी कठिनाई आ जाए, कोई भी संकट आ जाए, कोई भी ऐसी प्रतिकूलता का वो सामना करे, घोर उपसर्ग भी उनकी कसौटी करने आ जाय, पर वो तनिक भी विचलित नहीं होते, दीन मुख वाले कभी नहीं बनते।भगवान ऋषभदेव 400 दिवस तक आहार के लिए फिरे। निर्दोष आहार ना मिला तो भी उनकी मुख पर की रेखा कभी बदली नहीं।
जो प्रसन्नता से आहार लेने जाते थे वही प्रसन्नता से आहार ना मिलने पर भी वापस आ जाते थे। जिनको कर्मों के फल पर पूर्ण विश्वास होता है, वही उत्तम आत्माएं ऐसी विषम परिस्थिति में अदीन भाव वाले रह सकते हैं।
*4. उचित क्रिया*- जिस समय, जो संयोग हो उसमे, जो करने योग्य होता है वही करना, यह उचितक्रिया है।
अरिहंत परमात्मा की आत्मा अपनी बुद्धि और प्रतिभा का पूर्ण उपयोग कर के, जिस समय जो करने योग्य हो, वही करते हैं।
वीरप्रभु ने, परम वैरागी होने के पश्चात भी, माता का विचार कर के, मोहवश उनकी दुर्गति ना हो, ईस कारण गर्भावस्था में ही नियम किया था कि माता-पिता की उपस्थिति में संयम ग्रहण नहीं करेंगे।
यह नियम, परम औचित्य का सूचक है।
यह औचित्य का विचार कषाय की अल्पता हुए बिना शक्य नहीं।
कषायों से परे हो कर ही वो कार्य संबंधी विचारणा करते हैं जिस कारण वो औचित्यपूर्ण क्रिया कर सकते हैं।
कषाय की प्रबलता वाले जीव कभी भी औचित्य का विचार नहीं कर सकते।
उनकी विवेक शक्ति क्षीण हुइ होती है।
जिस कारण कब, किन संजोगों में क्या करना है, इसका सही निर्णय नहीं ले पाते।
परिणाम स्वरूप अनुचित क्रियाओं में रिक्त हो कर दुख़ दर्द तो सहते ही हैं अपितु अपना भविष्य भी बिगाड़ देते हैं।
*अहो जिनशासनम अहो जिनशासनम*
*पुरिसुत्तमाणं-6*-पुरुषों में उत्तम ऐसे परमात्मा को मेरा नमस्कार थाओ।
दस गुण जो पुरुष से पुरुषोत्तम को भिन्न करते हैं, उनका विवेचन हम समझने का प्रयास कर रहे हैं।
*5. सफलारंभीता*- किसी कार्य को प्रारंभ करते पूर्व ही उस कार्य की सफलता के फल का उचित विचार करना यह सफलारंभ है।
उत्तम पुरुष अवश्य ही कार्य करने से पहले उसके फल का विचार करते हैं।
जो क्रिया करने से शुभफल की प्राप्ति की संभावना होती है वही क्रिया का वो प्रारंभ करते हैं। यदि कोई क्रिया के पश्चात उसका उचित फल नहीं मिलना होता है, ऐसी कोई भी क्रिया, मन, वचन और काया द्वारा वो करते ही नहीं है।
इसी कारण से ही जब तक निकाचित भोगावली कर्म का नाश ना हो तब तक तीर्थंकर की आत्माएं संयम भी स्वीकारते नहीं है।
उनको पता होता है कि यदि संयम का स्वीकार कर लिया और फिर निकाचित भोगावली कर्म उदय में आया तो निश्चित ही उनके संयम पर आंच आने की संभावना होगी।
वे पहले अपने संयम कि सफलता को ज्ञान और विचार पूर्वक सुनिश्चित कर लेते हैं और तभी उस कार्य का प्रारंभ, अर्थात संयम ग्रहण करने की प्रक्रिया आरंभ करते हैं।
इस कारण उनका संयम उच्चतम कोटि का होता है और उसकी सफलता उनके तीर्थंकर पद की प्राप्ति है।
*
*शक्रस्तव*
~~~~~~~~
महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...
(30)
*पुरिसुत्तमाणं-7*-पुरुषों में उत्तम ऐसे परमात्मा को मेरा नमस्कार थाओ।
तीर्थंकर परमात्मा में रहे विशिष्ठ दस गुण का विवेचन चल रहा है।
*6. अदृढ़ अनुशय* - अनुशय यानी कषाय।
अरिहंत की आत्माएं प्रारंभ से ही कषाय मुक्त नहीं होती। कषायों की उपस्थिति उनमें होती है अपितु उसमे तीव्रता नहीं
होती।
अधम से अधम अपराधी के अपराधों को भी वो क्षण मात्र में भूल सकते हैं, उन्हें क्षमा प्रदान कर देते हैं। ऐसे अल्प प्रमाण में उपस्थित कषाय का त्याग योग्य समय पर सरलता से हो जाता है।
*7. कृतज्ञता*- अरिहंत की आत्मा में कृतज्ञता गुण भी विशिष्ट कोटि का होता है।
हम सामान्य जीव भी अन्य के उपकार को अवश्य याद रखते हैं, परन्तु तब तक ही जब तक उस व्यक्ति के तरफ से कोई भी अपकार ना हो जाए। उस समय उनके सारे उपकार हम तुरंत ही भुला कर उस व्यक्ति को दोषी मान लेते हैं, और अवसर प्राप्त होते ही उसका बदला चुकाने का प्रयोजन करते हैं।
परन्तु, अरिहंत की आत्माएं तो उन पर अन्य जीव द्वारा अनेक अपकार होने के पश्चात भी उनके छोटे-छोटे भी उपकार को कभी भूलते नहीं है।
भगवान स्वयं ही "नमो तित्त्थस्स" बोल कर समवसरण में आसन ग्रहण करते हैं।
यह भी उनकी कृतज्ञता का सूचक है।
*8.अनुपहत चित्त*-
परमात्मा अत्यंत सात्विक मन के धारक होते हैं। निराशा या चंचलता उनके मन में कदापि नहीं होती।
जहां हम जैसे पामर मानवी ऐसा चंचल मन रखते हैं कि ज़रा सी भी स्थिति परिस्थिति बदलते ही हमारा मन भटकने लगता है।
और हमारे कार्यों मे थोड़ी सी भी कठिनाई आयि या कुछ पिछेहठ करनी पड़ी, हम तुरंत ही निराश हो जाते हैं।
जब कि अरिहंत परमात्मा की आत्मा को साधना करते करते अनेक उपसर्ग और परिषह का सामना करना पड़ता है, वे अडिग रहते हैं, तनिक भी चलायमान नहीं होते, विचलित नहीं होते।
जब तक उनको सिद्धि की प्राप्ति नहीं होती, जब तक उनका लक्ष्य प्राप्त नहीं हो जाता, तब तक उनका मन साधना से चलित नहीं होता, वे हर हाल में स्थिर, निश्चल रहते हैं।
प्रारंभ किया हुआ कार्य वह कभी भी अपूर्ण छोड़ते नहीं है। कार्य के फल तक उनका उत्साह अकबंद रहता है, और कार्य पूर्ण हो कर ही करता है।
ये कभी मान कर नहीं चलना है कि वे तो तीर्थंकर की आत्मा है, भगवान है, उनको भला कष्ट कैसा।
कर्मजनित कष्ट व उपसर्ग उनको भी सहन करने पड़ते हैं। फर्क है तो वो समता में, सहनशक्ति में है। जिनमें वे बेजोड़ है।
*अहो जिनशासनम अहो जिनशासनम*
*चलें जैनिज़्म की ओर - करें ज्ञान का अर्जन - करें पापकर्मों का विसर्जन*
महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...
(32)
*पुरिसुत्तमाणं-9*-पुरुषों में उत्तम ऐसे परमात्मा को मेरा नमस्कार थाओ।
तीर्थंकर परमात्मा में रहे विशिष्ठ दस गुण का विवेचन चल रहा है।
*9.देव गुरु का बहुमान*-
देव गुरु की आज्ञा का पालन करना वही वास्तविक देव गुरु का बहूमान है।
यूं तो तीर्थंकर भगवंत को आगे चल कर स्वयं देव गुरु स्वरूप ही बनना है, फिर भी देव गुरु पद के प्रति उनका पराकोटिका, अत्यंत उच्च कोटि का बहुमान है।
परमात्मा ने स्व में ही देव तत्व को और श्रेष्ठ गुरु तत्व को संपन्न किया होता है, इस कारण उनमें पराकाष्ठा का देव गुरु का सम्मान व आदर भाव होता है।
*10.गंभीरता*- स्व के गुण और पर के दोष को पचाने की शक्ति वो है गंभीरता।
उत्तम पुरुष गुणों के भंडार होते हैं फिर भी वे अपने गुणों का कथन कभी भी नहीं करते और अन्य के दोषों को देखने के पश्चात भी उन व्यक्तियों के ऊपर अप्रीति या द्वेष नहीं करते, यहां तक कि उनके दोष को देख कर अपनी मुख की रेखा भी पलटाते नहीं है।
भगवान महावीर प्रारंभ से ही तीन ज्ञान के स्वामी थे। फिर भी माता-पिता ने उनको विद्यालय में भेजा। वहां अपने गुणों व ज्ञान का तनिक भी प्रदर्शन नहीं किया, ऐसा संशय भी होने नहीं दिया।
सामने अनेक दोष से युक्त संगम पर द्वेष भी नहीं किया अपितु परम करुणासभर हॄदय वाले परमात्मा ने ऐसे दोषपूर्ण व्यक्ति पर भी दया ही प्रदर्शित की है।
*...
(33)
*पुरिस- सिहाणं-1*-पुरुषों में सिंह समान, अर्थात पुरुष में अतुल्य ऐसे परमात्मा को मेरा नमस्कार हो।
सामान्य पशु से अधिक, सिंह में उत्तम कोटि के दस गुणों का प्रवर्तन होता है। इस कारण से, इन विशिष्ठ गुणों के कारण से ही उसे जंगल का राजा माना गया है।
तीर्थंकर परमात्मा मे भी ऐसे ही विशिष्ठ गुण होते हैं। इसलिए उनको पुरुषों में सिंहतूल्य कहा गया है।
उन दस गुणों का वर्णन इस प्रकार है।
A. *शूर*-
सिंह जैसे सैकड़ों हाथी के टोले के सामने अकेला शौर्य दिखा सकता है, उसी तरह परमात्मा भयंकर कर्म के उदय के काल में भी लेश मात्र भी विचलित हुए बिना, उनके सामने पराक्रम दिखाते हैं।
इस तरह भगवान की शूरवीरता सामान्य शत्रुओं कि आश्रित नहीं होती, परन्तु जगत के मनुष्यों को लाचार कर दे ऐसे कर्मशत्रु का सामना करने तत्पर होती है।
B. *क्रूर*- जिस तरह सिंह अपने शत्रु को खत्म करने के लिए अति क्रूर बन जाते हैं, इसी तरह परमात्मा कर्मशत्रु के विनाश के लिए क्रूर होते हैं।
परमात्मा जब संयम आदि में प्रवृत्त होते हैं तब उनमें उनको विघ्न करने वाले कर्म उदय में आते हैं, परन्तु परमात्मा शूरवीरता से, क्रूरता से उन कर्मों का नाश करते हैं।
*अहो जिनशासनम अहो जिनशासनम*
*
(35)
*पुरिस- सिहाणं-2*-पुरुषों में सिंह समान, अर्थात पुरुष में अतुल्य ऐसे परमात्मा को मेरा नमस्कार हो।
परमात्मा और सिंह कि तूलना का विवेचन हम देख रहे हैं -
C. *असहिष्णु*-हम सामान्य मनुष्य भी असहिष्णु होते हैं परन्तु हमारी और प्रभु परमात्मा कि असहिष्णुता में पूर्णतया विरोधाभास है।
हम असहिष्णु है कषायों के पोषण में जब की तीर्थंकर परमात्मा अपनी आत्मा में कषायों के प्रवेश के विषय में असहिष्णु होते हैं, प्रवेश को सहन नहीं करते। अर्थात प्रतिबंध लगाए होते हैं।
जिस तरह सिंह अपने शत्रु को सहन नहीं कर सकता उसी तरह प्रभु भी अपनी चित्तभूमि पर शत्रुभूत क्रोधादि कषायों का प्रवेश तनिक भी चला नहीं लेते। बिलकुल निषेध रखते हैं।
D. *वीर्यवान*-
सामान्य पशु के आगे सिंह का वीर्य विशेष कोटि का होता है। ऐसा वीर्य ही उसको अपने कार्य में उत्साहित रखता है।
जिस तरह सिंह वीर्यवान होने के बाद भी हर जगह अपनी शक्ति का व्यय नहीं करता, अपितु बलवान शत्रु के सामने पूर्ण वीर्य का प्रयोग करता है।
उसी तरह भगवान रागादि बलवान शत्रु के सामने ही पूर्ण वीर्य का उपयोग करके उसका नाश करने का प्रयत्न करते हैं।
*
महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...
(36)
*पुरिस- सिहाणं-3*-पुरुषों में सिंह समान, अर्थात पुरुष में अतुल्य ऐसे परमात्मा को मेरा नमस्कार हो।
गतांक से हम परमात्मा और सिंह कि दस प्रकार की तूलना पर विचार कर रहे हैं।
E. *वीर* -प्रभु परमात्मा को सिंह कि भांति वीर कहा गया है।
वीर शब्द की व्युत्पत्ति दो तरीके से होती है।
'विशेषण राजते इति वीर' -
जिस तरह सिंह अपनी केशावली से विशेष शोभायमान होता है। उसी तरह परमात्मा तप-संयम आदि गुणों से विशेष शोभित होते हैं।
'विशेषण ईरयति इति वीर' -
जिस तरह सिंह अपने सत्व के प्रभाव से नीडर हो कर विशेष प्रकार से वन में गति करता है। उसी तरह परमात्मा भी कर्मनाश के लिए विशेष प्रकार से प्रवृत्ति करते हैं।
तीर्थंकर परमात्मा पूर्णतया सत्वशाली होते हैं, इस कारण उनकी वृत्ति प्रवृत्ति विशेष प्रकार कि होती है और उनका प्रभाव भी अति उत्तम कहा गया है।
F. *अवज्ञावाले*-
सिंह को कभी जब भूख लगती है तब वो किसी भी सूरत में घास तो नहीं ही खायेगा। और वो छोटे छोटे प्राणियों की हिंसा भी नहीं करता।
इस तरह वो तुच्छ वस्तुओं की उपेक्षा या अवज्ञा करता है। और अपने भोज के लिए धैर्य रख कर प्रयास करता है।
उसी तरह भगवान भी क्षुधादि परिषहों की उपेक्षा और अवज्ञा करते हैं। छोटी बड़ी कठिनाई की या अंतरायों की उपेक्षा करते हुवे अपने योग्य लक्ष्य की प्राप्ति हेतू प्रयत्नशील हो जाते हैं। और उसी मार्ग पर अविचल विहार करते हैं।
*.
(37)
*पुरिस- सिहाणं-4*-पुरुषों में सिंह समान, अर्थात पुरुष में अतुल्य ऐसे परमात्मा को मेरा नमस्कार हो।
गतांक से हम परमात्मा और सिंह कि दस प्रकार की तूलना पर विचार कर रहे हैं।
G. *निर्भय*- जिस तरह सिंह हजारों हाथी की टोली से भी भयभीत नही होता उसी तरह परमात्मा भी मरणांत उपसर्गों आते हैं तो लेश मात्र भी भयभीत नही होते।
H. *निश्चिंत*- सिंह जब तृप्त होता है तब भविष्य के आहार की चिंता नही कराता, उसके लिए संग्रह भी नहीं करता। उस तरह देवाधिदेव भी अपनी इंद्रियों या देह को कुछ भी अनुकूल या प्रतिकूल मीले उसकी चिंता कभी भी नहीं करते। वो अपने अध्यात्मिक ध्यान द्वारा ही तृप्ति का अनुभव करते है।
I. *अखिन्न*-सिंह को अपने मार्ग में कभी भी उदासीनता या कंटाला नही आता उस तरह संयम की कठोर साधना करते परमात्मा को कभी भी उदासीनता या खेद नही होता, अपितु परम् आनंद होता है।
..
(38)
*पुरिस- सिहाणं-5*-पुरुषों में सिंह समान, अर्थात पुरुष में अतुल्य ऐसे परमात्मा को मेरा नमस्कार हो।
परमात्मा को पुरुषों में सिंह समान क्यों कहा गया है, किन गुणों के कारण, यह विवेचन चल रहा है।
J. *निष्कंप*-सिंह की यह बात प्रचलित है कि ये एक बार जब लक्ष्य तय करता है तो फिर उसका सम्पूर्ण ध्यान, सम्पूर्ण दृष्टि और सम्पूर्ण शक्ति उस लक्ष्य की पूर्ति के लिए केन्द्रित हो जाती है।
वो अपने इष्ट कार्य में स्थिर और अचल होते हैं। आपत्ति विपत्ति से चलित न होते हुए अपने शौर्य का, अपने पराक्रम का प्रदर्शन करते हैं।
उसी तरह त्रिलोकनाथ परमात्मा भी अपने ध्यान में अत्यंत स्थिर होते हैं।
चाहे कैसे भी उपसर्ग का सामना उनको करना पड़े, वे चलित नहीं होते और उनके ध्यान की अखंड धारा चलती ही रहती है। कई भी तूटती नही है।
वो अपने ध्यान में मेरु के सम निष्कंप होते है।
पुरिस- सिहाणं, यह पद बोलते हुए,कर्म और कषाय के सामने क्रूर बने हुए और कष्टों के सामने सहिष्णु बने हुए परमात्मा को अंतरपट में ला कर भाव से नमस्कार करते-करते परमात्मा को प्रार्थना करनी है कि,
हे नाथ, आप को किया हुआ यह नमस्कार, कर्म और कषायों के सामने झूकी हुई मेरी आत्मा को सुदृढ़ और स्थिर बना दें और कष्टों को सहन करने के लिए शक्तिमान बना दें।
*.
(39)
*पुरिसवर-पुण्डरीयाणं*- पुरुषों में श्रेष्ठ ऐसे, सर्वश्रेष्ठ पुंडरीक कमल सम परमात्मा को मेरा नमस्कार हो।
फूलों में कमल के फूल का एक अपना महत्वपूर्ण स्थान होता है।
अपनी विशिष्ठ सुंदरता के कारण यह सभी को प्रिय होता है।
उसमे भी श्रेष्ठ ऐसे पुंडरीक कमल तो अतुलनीय होते हैं। अप्रतिम सुंदरता के कारण यह सर्वश्रेष्ठ कहे गए हैं।
पुंडरिक कमल में आठ प्रकार की विशेषताएं होती है, ऐसी ही विशेषताएं तीर्थंकर भगवान में भी उपस्थित होती है। इसलिए भगवान को पुंडरीक कमल समान कहा गया है।
कमल के साथ परमात्मा की आंठ प्रकार की तूलना -
A. *कादव/कीचड़ में जन्म*- सुंदर ऐसे कमल का जन्म जिस तरह कीचड़ में होता है उसी तरह प्रभु का जन्म भी कर्मरूपी कादव से, कीचड़ से भरे हुए इस संसार में होता है।
परन्तु जैसे कीचड़ में रहते हुए भी कमल अपनी विशिष्ठ सुंदरता का त्याग नहीं करता उसी तरह प्रभु परमात्मा भी इस कीचड़ जैसे संसार में रहते हुए भी, निर्लिप्त, निर्लेप रह पाते हैं।
B. *पानी से वृद्धि*- कमल जिस तरह पानी से बढ़ता है, वृद्धि पाता है, उसी तरह प्रभु दिव्यभोग रूपी पानी के द्वारा वृद्धि पाते हैं। और इस तरह अपने जीवन का निर्वाह कर, अपने लक्ष्य को पाने का कार्य करते हैं।
*
(40)
*पुरिसवर-पुण्डरीयाणं*- पुरुषों में श्रेष्ठ ऐसे, सर्वश्रेष्ठ पुंडरीक कमल सम परमात्मा को मेरा नमस्कार हो।
पुरुषों में श्रेष्ठ, परमात्मा की पुंडरीक कमल के साथ की तूलना हम कर रहे हैं,
C. *दोनों से अलिप्त*-
वृद्धि पाते हुए कमल, जिस तरह कादव और पानी दोनों से अलिप्त रहता है, उसी तरह भगवान भी कर्मों से प्राप्त हुए जन्म और दिव्यभोग से वृद्धि पाने के पश्चात भी दोनों से अलिप्त रहते हैं।
उनकी आत्मा पर इन दोनों वस्तुओं का कोई प्रभाव नहीं होता।
वे पूर्णतया अविरक्त हो जाते हैं और परम कल्याण की राह पकड़ लेते हैं।
D. *सहज सौंदर्य*-
कमल की जिस तरह स्वाभाविक सुंदरता होती है, उसी तरह भगवान में 34 अतिशय और आत्मिक गुणों के योग से बाह्य और अभ्यंतर दोनों प्रकार की स्वाभाविक सुन्दरता होती है।
बाह्य सुंदरता ऐसी होती है कि कोई भी तुरंत ही उन पर मोहित हो जाए। परन्तु उनके पवित्र गुणों के योग से ये मोह भी भक्तिरूप ही होता है।
उनकी अभ्यंतर सुंदरता, आत्मिक सुंदरता का लाभ तो हर जीव को प्राप्त होता है। क्योंकि उनकी आत्मा में परोपकार की भावना बसी होती है। ऐसे परोपकार की भावना जो ये भव और परभव दोनों को सुधारने के लिए सक्षम है।
E. *लक्ष्मी का स्थान*-
कमल पर जिस तरह श्रीदेवी का वास है उसी तरह भगवान में भी केवलज्ञानादि लक्ष्मी और सर्वोच्च पुण्यसंपत्ति का वास है।
(41)
*पुरिसवर-पुण्डरीयाणं*- पुरुषों में श्रेष्ठ ऐसे, सर्वश्रेष्ठ पुंडरीक कमल सम परमात्मा को मेरा नमस्कार हो।
पुरुषों में श्रेष्ठ, परमात्मा की पुंडरीक कमल के साथ की तूलना हम कर रहे हैं,
F. *चक्षु आदि को प्रीतिकर*-
श्रेष्ठ कमल, आहलादक होता है।
दर्शनीय होता है। आंख-नाक आदि इंद्रियों को आनंद देता है। देखने वालों को पुलकित करता है।
उसी तरह परमात्मा अद्भुत रूप आदि के कारण चक्षु आदि के लिए आनंददायक बनते हैं। उनका अदभुत व्यक्तित्व मनुष्य को भाव विभोर, हर्ष विभोर करने कि क्षमता रखता है।
और विशेषतः जगत के जीवों को तत्व का दर्शन प्राप्त करा के, सम्यकदर्शन गुण को प्रगटाकर आत्मिक आनंद प्राप्त कराते हैं।
G. *उत्तम देव, मनुष्य और तिर्यंच से सेव्य*- जिस तरह कमल में सुगंध सौंदर्य आदि विशिष्ट गुण होने से भ्रमररूपी तिर्यंच को आकर्षित करते हैं। उपरांत मनुष्य और देव भी उसको सेव्य करते है, यावत परमात्मा को चढ़ाने द्वारा।
उसी तरह अरिहंत परमात्मा में केवलज्ञान आदि विशिष्ट गुण होने से भव्य ऐसे तिर्यंच, मनुष्य और देव, परमात्मा की उपासना करते हैं।
H. *सुख का कारण*-
श्रेष्ठ कमल जिस तरह देव मनुष्य के सुख का कारण होता है उसी तरह भगवान भी भव्य जीवों के लिए अनंत आनंद स्वरूप मोक्ष सुख का कारण बनते हैं।
इस तरह कमल तुल्य 8 गुणों से युक्त परमात्मा को मेरा नमस्कार थाओ।
यह पद बोलते हुवे, उत्तम ऐसे पुंडरीक कमल की उपमायुक्त परमात्मा को स्मृति में ला कर ऐसी इच्छा अभिव्यक्त करनी है कि,
हे नाथ, कमलवत सर्व बाह्य भावों से अलिप्त वैसे आप को किया हुआ नमस्कार मुझे भी सर्व बाह्य भावों से अलिप्त कर के आप की तरह निर्लेप बनाएं।
*
*शक्रस्तव*
~~~~~~~~
महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...
जो हाथी के मरूस्थल से अत्यंत सुगंध युक्त मद ज़रता है वो गंधहस्ति कहलाते हैं। ऐसे गंधहस्तिओं में भी जो श्रेष्ठ हो, जिनकी गंध मात्र से क्षुद्र-हल्के हाथी एवं अन्य हल्के जीव गभराकर भाग जाते हैं, उनको 'वर-गंध-हत्थि' कहते हैं।
भगवान श्रेष्ठ और गंधहस्ति तूल्य है।
गंधहस्ति को जिस तरह किसी के साथ युद्ध नहीं करना पड़ता, क्योंकि उसकी गंध मात्र से ही कमजोर हाथी और दूसरे प्राणी दूर भाग जाते हैं। उसी तरह परमात्मा को भी कोई मंत्र तंत्र की साधना करनी नहीं पड़ती है। उन साधना के बिना ही भगवान जहां जहां भी जाते हैं वहां अतिवृष्टि-अनावृष्टि, मारी-मरकी इति उपद्रव आदि सर्व अनिष्ठ पलायन हो जाते हैं, अदृश्य हो जाते हैं। और हल्के हाथी सम कुवादी जो अपने आप को महाज्ञानी समझते हैं और अभिमान रूपी मुकुट धारण कीये होते हैं वो सभी सर्वज्ञ के सामने टिक नहीं पाते।
अनिष्टकारी कोई भी तत्व परमात्मा की उपस्थिति में टिक नहीं सकता है। इन्हीं कारणों से परमात्मा को श्रेष्ठ गंधहस्ति तुल्य माना गया है।
ऐसे यह त्रिलोकबंधु परमात्मा को हृदयस्थ करके भाव से नमस्कार करते हुए प्रभु के पास ऐसी प्रार्थना करनी है कि,
हे परमात्मा!!! आपको भाव से किया हुआ यह नमस्कार मेरी साधना में आने वाले विघ्नों के बादल को बिखेर दें और मेरा मार्ग भी निर्विग्न कर दें।
*अहो जिनशासनम अहो जिनशासनम*
*चलें जैनिज़्म की ओर - करें ज्ञान का अर्जन - करें पापकर्मों का विसर्जन*
(43)
*लोगुत्तमाणं -1* - (भव्य) लोक में उत्तम ऐसे परमात्मा को मेरा नमस्कार हो।
'लोक' शब्द से यहां भव्य जीव रूपी, ऐसा अर्थ ग्रहण करना है। क्योंकि अभव्य रूप लोक में भगवान को उत्तम कहने का कोई अर्थ नहीं है क्योंकि अभव्यादि से तो भव्य जीव उत्तम है ही, और भव्यों में भी भगवान सर्वोत्तम है यह ये पद द्वारा कहा गया है।
भव्य का अर्थ है मोक्षगमन योग्य। सर्व प्रयोजन जहाँ सिद्ध होते हैं। ऐसे मोक्ष नाम के स्थान को प्राप्त करने की योग्यता वो भव्यत्व है।
मोक्ष में जाने के योग्य आत्माएं तो बहोत होती हैं, और आज तक अनंत आत्माएं सर्व कर्म को खपा कर मोक्ष में गए भी है, परन्तु यह सर्व जीवों में प्रत्येक अरिहंत की आत्मा अलग ही होती है। उनका तथाभव्यत्व ही ऐसा विशिष्ट कोटि का होता है कि वे जहां होते हैं वहां विशिष्ट भावों को पाते हैं।
अंतिम भव में तीर्थंकरनाम कर्म के उदय से सर्वश्रेष्ठ समृद्धि को तो वे पाते ही हैं, परन्तु एक इंद्रियादी के भव में भी वे विशिष्ट रत्न आदि के रूप में जन्म लेते हैं।
बेइंद्रिय आदि भवों में हो तो विशेष प्रकार के शंख आदि के रूप में जन्म लेते हैं।
इस तरह औदायिक भाव की अवस्था में भी, उनको सर्वश्रेष्ठ कोटी की ही प्राप्त होती है।
.
(44)
*लोगुत्तमाणं -2* - (भव्य) लोक में उत्तम ऐसे परमात्मा को मेरा नमस्कार हो।
कल हमने देखा कि लोक में उत्तम ऐसे तीर्थंकर परमात्मा किन विशिष्ट गुणों के कारण और विशेषताओं के कारण इस पद को प्राप्त करते हैं।
मोक्षगामी भव्य जीवों में भी ये सर्वश्रेष्ठ आत्माएं उनके भूतकाल के हर जन्म में, चाहे एकिंद्रिय, बेइंद्रिय भी क्यों न हो, अपितु उनमें भी श्रेष्ठता को प्राप्त कर, उत्तरोत्तर प्रगति करते हुए अरिहंत परमात्मा की महानता तक पहोंच जाते हैं।
कर्म के क्षयोपशम से, कर्मक्षय से, उत्पन्न हुए सम्यकत्व आदि गुण भी उनके विशेष प्रकार के होते हैं।
अन्य जीव दर्शनमोहनिय कर्म के क्षय से सामान्य बोधि को पाते हैं। जब कि अरिहंत की आत्माएं दर्शनमोहनिय कर्म के फल से सर्व जीवों को शासन प्राप्त करवाने की इच्छा रूप वरबोधि को पाते हैं।
अन्य जीव घाती कर्म के नाश से केवलज्ञान आदि को प्राप्त कर के मोक्ष में जाते हैं। जब कि अरिहंत की आत्मा, केवलज्ञान को प्राप्त कर, तीर्थ की स्थापना कर के, अनंत जीवों को तीरने का मार्ग बता कर मोक्ष में जाते हैं।
इस तरह मार्गदर्शकादि गुण भी उनमें विशेष होने से वे लोकोत्तम पुरुष कहलाते हैं।
यह पद बोलते हुए, ऐसे लोकोत्तम पुरुष को स्मरण में ला कर के उनके गुणों के प्रति आदर और अहोभाव उल्लासित कर के नमस्कार करते हुए ऐसी भावना का स्रोत बहाना है कि,
हे जगतवत्सल पिता!!! आप जिस तरह लोकोत्तम पुरुष बने हो उसी तरह आप को किया हुआ मेरा सामान्य भी नमस्कार लोकोत्तम पदप्राप्ति का कारण बने।
*
महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...
(45)
*लोगनाहाणं-1*- लोक के नाथ ऐसे परमात्मा को मेरा नमस्कार हो।
पिछली पोस्ट्स में हमने देखा है कि जीव भव्य भी होते हैं और अभव्य भी।
अभव्य जीव तो न्यूनतम कक्षा के होते हैं ही, अपितु भव्य जीव भी दो प्रकार के होते हैं।
1.सामान्य भव्य
2.विशिष्ट भव्य
धर्म की रुचिरूप बीज का आरोपन जिनमें हो सकता है, अर्थात जो जीव सरलता से प्रभु द्वारा अर्पित धर्म को ग्रहण कर पाते हैं, उनको आसनभव्य, अर्थात, विशिष्टभव्य कहते हैं। और प्रभु परमात्मा को ऐसे विशिष्टभव्य जीवों के नाथ कहा गया है।
नाथ उनको कहते हैं जो योग और क्षेम करें। बीजाधानयुक्त भव्य जीवों को परमात्मा प्राथमिक कक्षा के धर्म से ले कर मोक्ष तक का सुख सरलता से प्राप्त करा सकते हैं। इस तरह से अप्राप्त को प्राप्त कराने के लिए भगवान उनका योग करते हैं, और उपदेश प्रदानादि द्वारा प्राप्त हुए धर्म का रक्षण करने द्वारा उनका क्षेम भी करते रहते हैं। इस कारण से आसन्नभव्य जीवों के भगवान नाथ है।
यूं तो साधारणतया अरिहंत भगवंत, सर्व जीव के नाथ माने गये हैं। परन्तु विभाजन, भव्य और अभव्य का, सिद्धगती की प्राप्ति जो भवी जीव को अपेक्षित है, उस कारण से है।
*अहो जिनशासनम अहो जिनशासनम*
*चलें जैनिज़्म की ओर - करें ज्ञान का अर्जन - करें पापकर्मों का विसर्जन*
🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔
जय जिनेन्द्र। 2-10-2020
"Paamar" posts by
Dhanesh M Shah,
Hyderabad.
*शक्रस्तव*
~~~~~~~~
महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...
(46)
*लोगनाहाणं-2*- लोक के नाथ ऐसे परमात्मा को मेरा नमस्कार हो।
कल की पोस्ट में हमने जीव के दो प्रकार से विभाजन देखें। एक, भव्य और अभव्य।
और दूसरा भव्य में ही, फिर सामान्य भव्य और विशिष्ट भव्य।
विशिष्ट भविजीव की व्याख्या भी हमने देखी और उनका सरलता से धर्म पाना भी हमने समझा।
दूसरे जो सामान्य भवीजीव है, वो कुछ इस प्रकार के हैं।
इन जीवों में धर्म की प्राप्ति के प्रति वास्तविक रुचिरूप बिजाधान नहीं होता। ये जीव भी धर्म तो करते हैं, धर्म के फल को जान कर भगवान का उपदेश सुनकर या भगवान का बाह्य वैभव देख कर, द्रव्य से दीक्षा भी लेते हैं। और उसके कारण उनको सुख, समृद्धियुक्त देव आदि भवों की प्राप्ति भी होती है और दुख को देने वाले नर्क आदि भवों से उनका रक्षण भी होता है।
परन्तु, फिर भी उनको वास्तविक सुख की परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए जो गुण की प्राप्ति है वो नहीं होती। और उनमें दुख की परंपरा का सर्जन करने वाले दोष का नाश भी नहीं हो पाता है।
इस कारण ही ऐसे जीवों के परमात्मा नाथ नहीं बन सकते हैं।
जब कि विशिष्ट भव्यता वाले बीजाधानयुक्त भव्य जीव तो एक बार भी यदि भगवान को नाथ की तरह स्वीकार कर के उनकी आज्ञा अनुसार धर्म क्रिया करते हैं, तो उससे उनकी सद्गति की परंपरा का सर्जन होता है। उनमें क्षमा आदि गुणों का सर्जन होता है, और दुख को देने वाले रागादि भावों का विसर्जन होता है।
इस तरह से, क्रम से गुण की प्राप्ति और दोष के नाश से आत्मा सिद्धि गति को भी प्राप्त करते हैं।
इसलिए ही भगवान विशिष्ट भव्य रूप लोक के नाथ कहलाते हैं।
यह पद बोलते हुए, वास्तविक सुख को प्राप्त कराने वाले और प्राप्त हुए सुख का रक्षण करने वाले परमात्मा का हॄदय सिंहासन पर संस्थापन कर के नमस्कार करते हुए भावना भानी है कि,
हे करुणानिधि!!!!अनादि काल से अनाथ ऐसे मेरे लिए भी आप सच्चे अर्थ में नाथ बनो।
*अहो जिनशासनम अहो जिनशासनम*
*
*शक्रस्तव*
~~~~~~~~
महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...
(47)
*लोगहियाणं-1*- लोक के हित करने वाले परमात्माओं को मेरा नमस्कार हो।
यहां लोक शब्द से "पंचास्तिकायरूप लोक" ग्रहण करना है।
अरिहंत परमात्मा धर्मास्तिकायादि पांचो द्रव्यों का हित करने वाले होते हैं, ऐसा कह कर उनकी हित कामना सीमातीत है ऐसा बतलाया है।
यहां प्रश्न हो सकता है कि भगवान जीवजगत का हित करते हैं, ये तो बरोबर है लेकिन पुदगल आदि झड़ द्रव्यों का हित किस तरह कर सकते हैं?
तो, हित की व्याख्या व्यवहारनय से और निश्चयनय से अलग होती है। व्यवहारनय बाह्य प्रवृत्ति पर हिताहीत का विभाग करता है। जब कि निश्चयनय स्वपरिणाम से हिताहित का विभाग करते हैं। इसलिए व्यवहारनय से जीव में ही हित की संभावना होती हैं इस लिए भगवान जीव का हित करने वाले कहलाते हैं। परन्तु निश्चयनय से जो विषय में हित का परिणाम प्रवर्त्तमान है वो सर्व का हित करने वाले परमात्मा कहलाते हैं।
परमात्मा का हित का परिणाम चर-अचर, सर्वलोक, अलोक को आश्रयी कर के प्रवर्तमान है। इसलिए प्रभु को लोक का हित करने वाले कहा है।
इस तरह परम उपकारी परमात्मा लोक के हित रूप धर्म का प्रवर्तन करते हैं और उनके द्वारा लोक के जीव धर्म को पा कर, अपने कल्याण के मार्ग पर अग्रसर हो जाते हैं।
कल से हम इस विषय पर विवेचन का अभ्यास कर रहे हैं।
अरिहंत परमात्मा लोक में सभी का हित करने वाले होते हैं।
कोई भी पदार्थ का हित इस तरह होता है।
1.जो वस्तु जो स्वरूप में हो, उसी स्वरूप से उसको देखना (यथावस्थित दर्शन)
2. जो वस्तु जैसी है, उस वस्तु को वैसी ही कहना
(सम्यक प्ररूपणा)
3. और भविष्य में वस्तु के स्वरूप में कोई विकृति न हो इस तरह वर्तन करना।
भगवान केवलज्ञान द्वारा जगतवर्ती सर्व पदार्थों को जैसे हैं, उसी तरह देखते हैं।
जिस तरह से देखते हैं उसी रूप से उस पदार्थ का प्रतिपादन करते हैं।
और सर्व द्रव्यों के साथ भविष्य में उनका अहित ना हो उसी तरह वर्तन करते हैं।
इस तरह से वो सर्व द्रव्यों का हित करने वाले होते हैं।
यह पद बोलते ही ऐसा लगता है, कि सच्चे अर्थ में दूसरों का तो नहीं, परन्तु अपनी आत्मा का भी हित हम कर सकते नहीं है। जब कि अरिहंत भगवान अपने आत्मा का तो हित करते ही है, तदुपरांत समस्त जीव जगत और जड़ जगत का भी हित करते हैं।
परमहितकारक परमात्मा को नमन करते हुए हम याचना करते हैं कि,
हे जगत के हितकारक परमात्मा!!!! आप को किया हुआ नमस्कार हम में भी सर्व के हित करने के सामर्थ्य को प्रगट करने वाला बने।
*शक्रस्तव*
~~~~~~~~
महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...
(49)
*लोगहियाणं-3*- लोक के हित करने वाले परमात्माओं को मेरा नमस्कार हो।
*जिज्ञासा-*
परमात्मा यथार्थ दर्शनादि द्वारा धर्मास्तिकाय आदि का हित करने वाले है, ऐसा कहा, तो परमात्मा हित करते है वो बात तो ठीक है, परन्तु धर्मास्तिकायादि अर्थात पुदगल आदि जड़ वस्तु का हित जैसा कुछ भी होता ही नहीं फिर भी परमात्मा को हित करने वाले क्यों मान ले?
*तृप्ति-*
ये वस्तु इस तरह सोच सकते है कि- एक मां बाप अपने बच्चे को बहुत सुंदर संस्कार देते हैं लेकिन बच्चे की योग्यता ना होने से वह संस्कारों को झेल नहीं सकते। फिर भी उन मां-बाप को बच्चे का हित करने वाले ही कहा जाता है।
उसी तरह दूसरी बात समझ ले।
एक शिकारी ने एक पक्षी पर तीर छोड़ा लेकिन चालाक पक्षी तीर की आवाज से उड़ गया इसलिए वह मरा नहीं। लेकिन तीर मारने वाले शिकारी व्यवहार से तो उसको वध करने वाले ही कहे जाते हैं, और वधजन्य पाप भी उनको लगता ही है।
यूं हमारी मान्यता के आधार पर जड़ पदार्थ का हित होता नहीं है, फिर भी पदार्थ यथार्थदर्शन, कथन और प्रवर्तन से प्रभु उसके हित करने वाले कहलाते हैं।
वस्तु के यथार्थदर्शन के बिना उन वस्तु का हित नहीं हो सकता।
वीतराग परमात्मा जगत के तमाम पदार्थों का यथार्थ स्वरूप देखते हैं और देखकर जग के आगे वह पदार्थ के स्वरूप का यथार्थ प्रतिपादन भी करते हैं और उस पदार्थ के साथ उचित वर्तन करते हुए वो उसमें राग द्वेष या पसंद नापसंद कर के कर्म बांध कर अपने आत्मा का अहित भी नहीं करते और उन सर्व वस्तु के प्रति औचित्यपूर्वक वर्तन करने के द्वारा अन्य का भी अहित नहीं करते।
.
(50)
*लोग-पईवाणं-1*-लोक के लिए प्रदीप तुल्य परमात्मा को मेरा नमस्कार थाओ।
यहां लोक शब्द से विशिष्ट संज्ञी ऐसे सम्यग्दृष्टि जीवों को ही ग्रहण करना है।
परमात्मा की देशना सुन कर मिथ्यात्व रूपी अंधकार का नाश कर के सम्यकज्ञान का प्रकाश जो जीवों को हो सके ऐसे विशिष्ट सम्यकदृष्टि जीवों के लिए भगवान प्रदीप तुल्य है। अन्य के लिए नहीं।
क्योंकि ज्यूं चक्षु के बिना अंध आत्मा दीपक की सहाय से भी किसी भी वस्तु को यथार्थ स्वरूप में देख नहीं सकते उसी तरह सम्यकदर्शन के परिणाम के बिना जीव परमात्मा के वचन रूप प्रदीप से भी तत्व मार्ग को देख नहीं सकता है।
इसलिए कहा है कि यह ज्ञान के किरण को झेलने की शक्ति सम्यकदृष्टि में ही है। मिथ्यादृष्टि में नहीं है क्यों की मिथ्यादृष्टि भगवान के उपदेशात्मक वचन को सुनते हैं फिर भी वो उन वचनों के परमार्थ को समझ नहीं पाते। उन वचन में रहे हुए सूक्ष्म भाव उनके ध्यान में नहीं आते। इसलिए उनको भगवान प्रदीप तुल्य नहीं हो सकते। उसमें उन जीवों की योग्यता का अभाव ही कारण है, भगवान की शक्ति का अभाव कारणभूत नहीं है।
और एक आवश्यक बात यह है कि, अरिहंत परमात्मा के अतिरिक्त और कोई अन्य उपदेशक हो तो ऐसा हो सकता है कि छ्द्मस्थता के कारण, पुण्यप्रकाश के अभाव के कारण कोई जीव योग्य होने से भी उन उपदेशकों से बोधित नहीं हो पाते, अर्थात उन जीवों पर पूर्ण उपकार ना भी हो पाए।
परन्तु, प्रकृष्ठ पुण्य और केवलज्ञान के स्वामी भगवान के लिए ऐसा नहीं होता है।
*लोग-पईवाणं-2*-लोक के लिए प्रदीप तुल्य परमात्मा को मेरा नमस्कार थाओ।
कल से हम यह समझने का प्रयत्न कर रहे हैं कि अरिहंत परमात्मा केवल सम्यगदृष्टी जीवों के मार्ग को ही क्यों प्रकाशित कर पाते हैं।
क्यों मात्र सम्यकदृष्टि के लिए भगवान को प्रदीपतूल्य कहा और भगवान के वचन से जिनके मिथ्यात्व का नाश होना है ऐसे जीवों के लिए भगवान को प्रदीपतूल्य क्यों ना कहा?
शास्त्रकारों ने कहा है कि जब तक जीवन में मिथ्यात्व की उपस्थिति है तब तक भगवान के वचन को यथार्थ स्वरूप में समझने की शक्ति जीव में आती नहीं है।
ऐसे मंद मिथ्यात्वी जीव जब भगवान के वचन को सुनते हैं तब देशना से उनको ज्ञानचक्षु की प्राप्ति होती है।
प्राप्त हुए यह चक्षु से पदार्थ का स्थूलरूप दर्शन कर सकते हैं और इस तरह से पदार्थ के यथार्थ दर्शन से उनका मिथ्यात्व नष्ट होता है। तत्पश्चात ही उनमें सम्यकदर्शन गुण की प्राप्ति होती है और बाद में ही वे भगवान के वचन पर यथार्थ श्रद्धा कर सकते हैं और उनके वचनों के सूक्ष्म भावों को भी जान सकते हैं और तब ही ऐसे जीवों के लिए भगवान प्रदीप तुल्य बन सकते हैं। अन्यथा नहीं।
सम्यकदृष्टि जीवों के लिए प्रदीपतूल्य परमात्मा को इस पद द्वारा भाव से नमस्कार कर के भावना भानी है कि,
हे,लोकालोक प्रकाशक परमात्मा!!! आप को किया हुआ यह नमस्कार हम में सम्यकदर्शन गुण को प्रगटा कर हमको सम्यकमार्ग प्राप्त करने हेतू समर्थक हो।
*अहो जिनशासनम अहो जिनशासनम*
*चलें जैनिज़्म की ओर - करें ज्ञान का अर्जन - करें पापकर्मों का विसर्जन*
🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔
जय जिनेन्द्र। 8-10-2020
"Paamar" posts by
Dhanesh M Shah,
Hyderabad.
*शक्रस्तव*
~~~~~~~~
महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...
(52)
*लोगपज़्ज़ोअगराणं*- लोक को प्रद्योत करने वाले परमात्मा को मेरा नमस्कार थाओ।
लोक शब्द से यहां विशिष्ट बुद्धि के धारक गणधरपद के योग्य ऐसे विशिष्ट भव्य ही, ग्रहण करना है, समझना है। क्योंकि प्रकृष्ट रुप से प्रकाश करने का यह प्रद्योत है। अर्थात यह उत्कृष्ट ज्ञान के प्रकाश का स्रोत है, जो केवल गणधर भगवंत ही उनकी योग्यता के कारण ग्रहण कर सकते हैं। इस कारण से मात्र गणधरों के लिए ही परमात्मा प्रद्योतक है।
कल 26
परमात्मा को यहां "सामान्य प्रकाश करने वाले" नहीं कहा गया लेकिन यहां तो परमात्मा को मात्र *"उपन्नेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा"* -ये तीन पद द्वारा समस्त जगत का दर्शन करा सके ऐसे प्रबोधक महा प्रकाशक कहा गया है।
भगवान तो समस्त जगत के लिए ऐसा प्रकृष्ट प्रकाश करने वाले हैं लेकिन बीज बुद्धि के मालिक गणधर के सिवा किसी की भी शक्ति नहीं है कि मात्र यह तीन पद को सुन कर विशिष्ट प्रकार के ज्ञानावरणीय कर्मों के क्षयोपशम द्वारा समस्त जगत को और जगतवर्ती पदार्थों को यथार्थ जान सके और जानकर मात्र एक ही अंतर्मुहूर्त में समस्त द्वादशांगी की रचना कर सके।
गणधर भगवंत ही इस तरह का, तीर्थंकर के प्रथम शिष्य होने का पुण्य लेकर आए हुए हैं। इसलिए भगवान के वचन उनके लिए विशिष्ट प्रकार के ज्ञानावरणीय कर्म क्षयोपशम रूप प्रद्योत को करने वाले बनते हैं।
यह पद बोलते हुए, जिनकी जैसी योग्यता है उनको उस तरह प्रमाणित करना है।
परम उपकारी परमात्मा के प्रति, अत्यंत पूज्य बुद्धि को धारण कर के हृदय को भावों से भिगोकर नमस्कार करना है और नमस्कार करते करते ऐसी प्रार्थना करनी है कि- लोकप्रद्योत हे नाथ !!!! आपको किया हुआ यह नमस्कार हम में ऐसी योग्यता को प्रगटाए कि जिससे आप हमारे लिए भी प्रद्योतक बन सको।
*शक्रस्तव*
~~~~~~~~
महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...
(53)
*अभयदयाणं -1*-अभय को देने वाले परमात्माओं को मेरा नमस्कार थाओ।
धर्म साधना की शुरुआत चित्त की स्वस्थता से होती है। चित्त की स्वस्थता भय की निवृत्ति से होती है, और भय की निवृत्ति पूर्ण अभयभाव से रहे हुए परमात्मा के प्रति बहुमान से होती है। इस तरह अभय का परिणाम परमात्मा के प्रति बहुमान से होता है।
इस कारण अरिहंत परमात्मा को ही अभय को देने वाले कहते हैं।
यह पद द्वारा अभय को देने वाले परमात्मा को नमस्कार करने के लिए बतलाया गया है।
संसारवर्ती सर्व जीवों को सात प्रकार के भय निरंतर सताते रहते हैं। सभी जीव अधिक या आंशिक रूप से इन भयों से पीड़ित होते हैं। मात्रा, यद्यपि, उनके कर्म जनित परिणामों पर निर्भर है।
कर्म भारी तो भय भी भारी और उस भय के परिणाम भी भारी।
कर्म हल्के फुल्के हो तो भय भी साधारण मात्रा में और उसके परिणाम भी।
यह सात भय इस प्रकार है,
1. इहलोकभय- समान जातिवाले से भय।
2. परलोकभय- अन्य जातिवाले से भय।
3. आदानभय- स्वयं का कुछ लूट जाने का भय।
4. अकस्मातभय- घर या बाहर, रात या दिन, कोई भी स्थल पर एकाएक भय या अकस्मात से होने वाले भय।
5. आजीविका भय- स्वयं की आजीविका का बंध या विक्षेप पड़ने का भय।
6. मरण भय- मृत्यु का भय।
7. अपयश भय- स्वयं की की हुई कोई प्रवृत्ति से अपयश के भोग बनने का भय।
*"
*शक्रस्तव*
~~~~~~~~
महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...
(54)
*अभयदयाणं -2*-अभय को देने वाले परमात्माओं को मेरा नमस्कार थाओ।
परमात्मा हमें सर्व प्रकार के भय से मुक्ति दिलाते हैं।
गतांक से हम सात प्रकार के भय पर विचार कर रहे हैं।
कोई जीवों को यह सभी भय, व्यक्त रूप से सताते हैं, तो कई जीवो को पुण्य के उदयकाल में भय अव्यक्त रूप से रहे होते हैं।
जब तक कोई भी प्रकार के भय का परिणाम होता है तब तक चित्त स्वस्थ् नहीं होता है। जब भय से मुक्त हो कर जीव आंशिक भी अभयभाव को पाता है तब ही अनादि संसार में प्रथम बार उसको स्वस्थता का अनुभव होता है।
चित्त की यह स्वस्थता ही मोक्षसाधक धर्म की शुरुआत है।
*भवनिर्वेद ही भगवद् बहुमान*
यह सत्य का स्वीकार ही चित्त की यह स्वस्थता का कारण है।
भवनिर्वेद रूप भगवद् बहुमान के परिणाम द्वारा मोहनीय कर्म मंद होने से प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रकार से प्राप्त हुए भगवान के वचन के आधार से जीव को संसार की वास्तविकता का भान होता है।
जन्म से जूडी हुयी मृत्यु, संयोग से जुड़ा हुआ वियोग, सम्पत्ति के कारण आती हुई विपत्ति, आदि के विचार करते करते ये संसार असार लगता है। इस तरह से संसार पर नीरसता आ जाती है। संसार पर आयी ये नीरसता ही भवनिर्वेद का परिणाम है। और यह नीरसता ही वीतराग के प्रति बहुमान का कारण बनता है।
जब तक संसार के प्रति राग तीव्र होता है तब तक संसार से पूर्णतया विपरीत भाव में रहे हुए भगवान के प्रति जीव को बहुमान नहीं हो सकता। लेकिन संसार की वास्तविकता का विचार करते करते जब भव का राग थोड़ा धटता है और आत्मा के ऊपर लक्ष्य बंधता है तब ही आत्मा के महासुख को पाए हुए भगवान के ऊपर बहुमान का परिणाम आता है। और इससे ही भगवान के वचनों का यत्किंचित विचार आ सकता है।
महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...
(55)
*अभयदयाणं -3*-अभय को देने वाले परमात्माओं को मेरा नमस्कार थाओ।
अरिहंत परमात्मा हमें सर्व प्रकार के भय से मुक्ति दिलाते हैं।
भगवान के वचनों पर विचार करने से हमें ये समझ में आता है कि संसार में जो भी सुख दुख प्राप्त हुआ है वह मेरे कर्मों के अनुसार ही है।
मेरे कर्म के सिवा इस जगत में मुझे कोई सुख या दुख करने वाले नहीं है।
मृत्यु भी शरीर का होता है मेरा नहीं।
मैं तो आत्मा हूं और आत्मा तो अमर है।
यश, अपयश, संपत्ति विपत्ति, यह सर्व भाव कर्माधीन होते हैं।
कर्मकृत इन भावों से मुझे किसी भी प्रकार का दुख या उदासीनता होने की आवश्यकता नहीं है।
कर्म का नाश होते ही यह भाव भी जरूर नाश होते हैं।
ऐसे विचार करते-करते जीव भयरहित स्वस्थता का अनुभव कर सकता है।
ऐसे मार्मिक चिंतन से अवश्य ही दुख व ग्लानि के भावों का अंत होता है।
ऐसी अवस्था में आत्मा के भगवद बहूमान में वृद्धि होती है। जिससे जीव आंशिक चित्त की स्वस्थता प्राप्त करता है, जिसमें उत्तरोत्तर उन्नति होती है।
चित्त की यह स्वस्थता, वो द्दुति है, आत्मबल है। और यह द्दुति से ही जीव सच्चे सुख के मार्ग की शोध कर सकते हैं।
सुख की खोज के लिए जो सकारात्मकता की मानसिकता आवश्य क है वो इस आत्मा के वीर्य द्वारा प्राप्त चित्त की स्वस्थता से ही संभव है।
वरना, भयभीत अवस्था चित्त को स्वस्थ नहीं रख सकती है और परिणाम स्वरूप आत्मबल की न्यूनता से नकारात्मक हो कर जीव सच्चे सुख के मार्ग का पथिक बन ही नहीं सकता।
*"पामर"*
~~~~~~~~~~~~~~~~~~
*आधार :-*
*प.पू. सा. प्रशमिताश्रीजी म.सा द्वारा रचित*
*"सूत्र संवेदना-2"*
-To be cont'd...
🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩
*जैनम जयति शासनम*
🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩
https://chat.whatsapp.com/J0M6LsIk6KU4rAcZ2hsg1H
🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔
*इस ग्रुप में सभी सदस्यों को ज्ञानवर्धक पोस्ट मैसेज मिलेंगे आप सभी को उनको पढ़कर समझकर जीवन मे उतारने का प्रयास करना है ।*
*इस ग्रुप में वो ही सदस्य मैसेज भेज सकेंगे जो स्वयं जैनिज़्म संबंधित मैसेज लिखेंगे*
*बाकी सभी सदस्य पोस्ट को पढ सकते हैं*
*शक्रस्तव*
~~~~~~~~
महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...
(56)
*अभयदयाणं -4*-अभय को देने वाले परमात्माओं को मेरा नमस्कार थाओ।
अरिहंत परमात्मा हमें सर्व प्रकार के भय से मुक्ति दिलाते हैं।
विचार करें कि हम वन में हैं।
वहां जंगली पशुओं के भय से कांप रहे हैं, रोंगटे खडे कर देने वाली आवाज़ें निरंतर सुनाई दे रही है, व्यंतरों का अट्टहास जहां दिखाई दे रहा है, चोर डाकूओं का जहां सतत भय है, ऐसे जंगल से गुजरते हुए मुसाफिर का मन अत्यंत आकुल व्याकुल और भयभीत होता है। उसके घबराहट का पार नहीं होता।
ऐसे समय में कोई शक्तिशाली परोपकारी पुरुष के अचानक दर्शन होते हैं तब हमको अनहद आनंद व शांति की अनुभूति होती है। भय कम हो जाता है और हमको ऐसा लगता है कि अब कोई चिंता नहीं है। यह पुरुष के सहारे में जंगल निर्भय हो कर पार कर सकूंगा।
इसी तरह से सात भय से निरंतर भयभीत संसारी आत्मा भी जब अभय भाव में रहे हुए अचिंत्य शक्तियुक्त और परहित में रत परमात्मा के दर्शन करते हैं, बहुमान पूर्वक उनके वचनों का विचार करते हैं तब उसका मन भी स्वस्थ होता है। भय कम होता है और धुती की प्राप्ति होती है, और धृतिपूर्वक भगवान के वचन पर अवलंबित प्रवृत्ति करते हुए भयावह संसार में से निकलने का मार्ग भी उसको मिल सकता है।
भगवान अभय भाव को पा चूके हैं।l सर्वश्रेष्ठ गुण के स्वामी है और अचिंत्य शक्ति से युक्त है और परमहीत में रत है। इसलिए ही भगवान के निमित्त से सर्व को अभय भाव की प्राप्ति होती है इसलिए ही भगवान अभय आदि को देने वाले हैं ऐसा कहना योग्य है।
सामान्य केवली या गुरु से कवचित अभय भाव की प्राप्ति होती है लेकिन वह अंत में तो अरिहंत के द्वारा ही प्राप्त हुई होती है। क्योंकि गुर्वादि भी जो अभयप्राप्ति का मार्ग बतलाते हैं वह स्वयं नहीं बताते अपितु भगवान के वचन को ही बतलाते हैं। इसलिए अपने भाव में रहे हुए परमात्मा का आलंबन ही एक ऐसा है कि जो जीव को संपूर्ण निर्भय बना सकता है।
अभयदाता परमात्मा को नमस्कार करते हुए प्रभु के पास प्रार्थना करनी है कि-
सर्व जीवों को अभय देने वाले हे प्रभु!!! निरंतर भय से घीरे हुए मुझको भी आप भय से मुक्त कर के सर्व प्रकार से निर्भय बना दो।
*अहो जिनशासनम अहो जिनशासनम*
*चलें जैनिज़्म की ओर - करें ज्ञान का अर्जन - करें पापकर्मों का विसर्जन*
🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔
जय जिनेन्द्र। 13-10-2020
"Paamar" posts by
Dhanesh M Shah,
Hyderabad.
*शक्रस्तव*
~~~~~~~~
महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...
(57)
*चक्खुदयाणं-1*-चक्षु प्रदान करने वाले परमात्माओं को मेरा नमस्कार थाओ।
भगवान चक्षु दाता है।
दुनिया के स्वरूप को, पदार्थ को देखने वाले साधन को चक्षु कहते हैं। सामान्य से यह चक्षु द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार के होते हैं।
परन्तु यहां चक्खुदयाणं का भावार्थ यह है कि, भगवान ने यह दोनों चक्षु से भिन्न एक विशिष्ट चक्षु का दान हमको दीया है।
यह चक्षु यानी मोहनियकर्म के क्षयोपशम से प्राप्त हुए तत्वश्रद्धारूप आत्मा का परिणाम।
श्रद्धा अर्थात तत्व की रूचि, अर्थात धर्म करने का परिणाम।
अभय की प्राप्ति से साधक आत्मा का चित्त स्वस्थ होता है। और उसके कारण वो आत्मा कदर्थना भरे संसार को पहचान सकती है।
यह संसार से भिन्न कोई और भी सुख का रास्ता है, वो जानने की इच्छा होती है। बार बार विचार करने से उसको ज्ञात होता है कि कषाय से युक्त मेरे परिणाम से ही मैं दुखी हूं। और कषाय रहित शुद्ध परिणाम ही मेरे सुख का कारण है।
यद्यपि, प्राथमिक कक्षा में आत्मा की ये भूमिका में अभी इतना सूक्ष्म बोध नही होता है। उसको सुख का रास्ता अभी स्पष्ट नहीं दिखाई देता है।
इसमें प्रगति तब होती है जब जीव भगवान के कृपा के पात्र बन कर, साधक बन कर इस विषय मे जब अधिक विचार करते हैं, तब तब मोहनीय कर्म का पड़ल भेदते जाते हैं। उसके कारण तत्व मार्ग का विशेष बोध प्राप्त होने लगता है।
सुख, इस मार्ग पर चलने से ही मिलता है ऐसी श्रद्धा उत्पन्न होती है। यह श्रद्धा का परिणाम ही चक्षु है।
*"
*शक्रस्तव*
~~~~~~~~
महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...
(58)
*चक्खुदयाणं-2*-चक्षु प्रदान करने वाले परमात्माओं को मेरा नमस्कार थाओ।
जिन चक्षु से तत्वश्रृद्धारूप आत्मा के परिणाम प्राप्त होते हैं। ऐसे चक्षु को प्रदान करने वाले अरिहंत परमात्मा को मेरा नमस्कार हो।
इन चक्षु रूप तत्व की श्रद्धा को पाने के विषय का हम कल से विवेचन देख रहे हैं।
तत्व की श्रद्धा रूपी परिणाम वो धर्म के प्रति रूचि का परिणाम है।
कषाय का नाश करने के द्वारा धर्म ही हमें सुख देगा ऐसी प्रतीति यह भूमिका में होती है। इसके कारण सुंदर धर्म करने वाले आत्मा को देखकर आनंद आता है। और उसकी प्रशंसा करने का मन होता है।
अपितु, यह श्रद्धा का परिणाम अब तक ऐसा तीव्र नहीं है कि जो तत्वदर्शन कराए फिर भी तत्व दर्शन का कारण बन सके ऐसा तो है ही।
जिस तरह शत्रुंजय पर्वत चढ़ते चढ़ते आदेश्वर दादा के दर्शन हो नहीं सकते फिर भी सरलता से पर्वत चढ़ने की शुरुआत करने वाले यात्रियों को श्रद्धा होती है कि अब थोड़े ही समय में दादा के दर्शन होंगे। उसी तरह चक्षुस्वरूप क्षयोपशम को पा कर जीव ने अब तक कोई उपशम सुख की अनुभूति नहीं कि, फिर भी "मैं अवश्य सुखी हो जाऊंगा" ऐसा उसको लगने लगता है। क्योंकि यहां उसको उपशम भाव स्वरूप मोक्ष का मार्ग दिखता है।
श्रद्धा रूप यह परिणाम प्राप्त होते ही यह आत्मा तत्वज्ञो के पास जाता है। तत्व विषयक अनेक प्रश्न पूछता है, तत्व प्राप्ति का कारण जानता है और आत्मा की शुद्धिरूप तत्व को प्राप्त करने के लिए अनुष्ठान की तैयारी करने वाले पुण्यशाली की औचित्य पूर्ण प्रशंसा करता है।
तत्पश्चात स्वयं भी अनेक शुभ अनुष्ठान करता है। ऐसी भूमिका में रहा हुआ जीव तत्व विषयक जिज्ञासा अधिक रखता है।इससे उसको अभय की भूमिका से ऊपर का एक विशेष बोध होता है।
*शक्रस्तव*
~~~~~~~~
महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...
(59)
*चक्खुदयाणं-3*-चक्षु प्रदान करने वाले परमात्माओं को मेरा नमस्कार थाओ।
परमात्मा द्वारा चक्षु रूप तत्व की श्रद्धा के परिणाम की प्राप्ति पर विवेचन हम देख रहे हैं।
कल जिस भूमिका की बात हमने की, उसकी प्राप्ति हो, उसके पूर्व भी जीव धर्म क्रिया तो करता है, परन्तु कषायों के उपशम से हुए आत्मिक सुख को पाने के लिए नहीं। इस कारण से उस धर्म से ये भूमिका प्राप्त धर्म भिन्न होता है।
अभय की प्राप्ति की तरह तत्व की श्रद्धा की प्राप्ति के कारणभूत यह चक्षु भी परमात्मा द्वारा ही प्राप्त होते हैं क्योंकि भगवान सर्वज्ञ वितराग है और केवलज्ञान रूप विशिष्ट चक्षु से वह सर्व पदार्थों को देख सकते हैं। ऐसे विशिष्ट चक्षु को धारण किये होते हैं इसलिए ही परमात्मा ये विशिष्टचक्षु प्रदान कर सकते हैं।
जिनके पास ऐसे चक्षु नहीं है वह दूसरों को ऐसे चक्षु दे भी नहीं सकते।
यद्यपि, धर्मरूचि रूप यह चक्षु काल, स्वभाव, भवितव्यता आदि की अपेक्षा रखता है। फिर भी भगवान की कृपा के बिना यह सब प्राप्त नहीं हो सकता। इस जगत में तत्वमार्ग का प्रकाश फैलाने का कार्य मात्र परमात्मा ने ही किया है। और उनकी कृपा के पात्र बने हुए जीव ही इस प्रकार से संसार को देख सकते हैं, अन्य कोई नहीं। इसलिए ही परम पूज्य उपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज साहेब ने अपने स्तवन में कहा है...
"काल, स्वभाव, भवितव्यता, ते सघळा तुज दासों रे,
मुख्य हेतु तू मोक्ष नो, मुज सबल विश्वासो रे..."
श्रद्धारूप चक्षु के बिना अंध बने जीव अनंत काल से इस संसार में भटकते हैं। अंत में जब वह परमात्मा की कृपा के पात्र बनते हैं तब ही उनको ऐसे विशिष्ट चक्षु की प्राप्ति होती है। बाद में उनको संसार में अधिक भटकना नहीं पड़ता।
यह पद बोलते हुए, कैवल्यचक्षु को पाए हुए परमात्मा को दृष्टि समक्ष रख कर साधक विचार करता है, कि श्रद्धारूप नेत्र के बिना मै अनंत काल से यहां से वहां भटकता, दुखी बनता आया हूं, तो चक्षुदाता
हे विभु!!!आप को किया हुआ यह नमस्कार मुझे श्रद्धारूप चक्षु के प्रदान में सहायक बने।
*अहो जिनशासनम अहो जिनशासनम*
*चलें जैनिज़्म की ओर - करें ज्ञान का अर्जन - करें पापकर्मों का विसर्जन*
🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔
जय जिनेन्द्र। 16-10-2020
"Paamar" posts by
Dhanesh M Shah,
Hyderabad.
*शक्रस्तव*
~~~~~~~~
महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...
(60)
*मग्गदयाणं -1*-मार्ग को देने वाले परमात्मा को मेरा नमस्कार हो।
ये पद द्वारा सच्चे और यथार्थ मार्ग की प्राप्ति कराने वाले प्रभु को नमस्कार किया हुआ है।
यह अन्य कोई मार्ग नहीं परन्तु मोक्ष नगर तक पहोचाने वाली चित्त की सरल परिणीति है।
गाढ़ मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के उदय के कारण अनादिकाल से जीव का चित्त वक्र चलता है। वक्र, अर्थात टेढ़ा। जीव के चित्त की अवस्था सहि और यथार्थ मार्ग को छोड़, विपरीत दिशा में भटकने की ही होती है। जिससे, दुख का कारणभूत संसार जीव को अच्छा लगता है, संसार की निरर्थक सुख सामग्री अच्छी लगती है, और सुखकारक आत्मा और आत्मा के गुणों की जीव उपेक्षा करता है।
दुःखकारक वस्तु को सुखकारक मानना और सच्ची सुखकारक वस्तु की उपेक्षा करना वो ही चित्त की वक्रता है।
पूर्व के दोनों पद में देखा कि भव से विरक्त बना हुआ जीव, भगवान की कृपा के पात्र बनता है। भगवान की कृपा से निर्भय बना हुआ साधक का चित्त थोड़ा स्वस्थ बनता है। स्वस्थ चित्त से तत्व की (सच्चे सुख और उसके कारण की) विचारणा करते हुए प्राप्त हुए, कर्म के क्षयोपशम से तत्व की श्रद्धा प्रगटती है। और श्रद्धा के मार्ग में आगे बढ़कर सच्चा सुख का मार्ग मिलता है। सच्चा सुख का मार्ग वो ही चित्त का 'अवक्रगमन', अर्थात जीव का वक्रता से पलट जाना। उल्टे विपरीत मार्ग से पलट कर सीधी राह को पकड़ना।
*शक्रस्तव*
~~~~~~~~
महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...
(61)
*मग्गदयाणं -2*-मार्ग को देने वाले परमात्मा को मेरा नमस्कार हो।
इस पद का विवेचन आगे बढ़ा रहे हैं।
साप जिस तरह अपने बिल में शरीर घीस न जाए उस डर से टेढ़ी चाल को त्यज कर सीधा चलता है।
उसी तरह सरल और सीधा मार्ग मिलने से साधक आत्मा भी मिथ्यात्वजन्य कदाग्रह को, कुटिलताओं और कुमान्यताओं का त्याग कर के, जहाँ सच्चा सुख प्राप्त हो सकता है, वही मार्ग पर चलना आरंभ करता है।
यह मार्ग पर चलते चलते जीव को सानुबंध मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का क्षयोपशम होता है। सानुबंध अर्थात, जिस कर्म का क्षयोपशम नये कर्म का क्षयोपशम कराए वो कर्म। यही क्षयोपशम के कारण आगे बढ़े हुए जीव को सम्यग्दर्शन गुण की प्राप्ति होती है। इस कारण ही मार्गप्राप्ति के परिणाम को विशिष्ट गुणस्थान की प्राप्ति कराने वाला क्षयोपशम कहा है।
इस तरह प्राप्त हुआ ये मार्ग स्वरसवाही होता है। स्वरसवाही अर्थात स्वेच्छा से ही मोक्ष मार्ग में गमन कराने वाला। अथवा,
स्व यानी स्व का, और रस यानी गुण।
यहां सुख को प्राप्त कराने वाले अपने ज्ञानादि गुणों के तरफ का अभिगम प्रारंभ होता है। वरना तो मिथ्यात्वमोहनीय कर्म का उदय, जीव को जहाँ सुख नहीं है, वहां सुख को मनवा कर दौड़ाता है।
दुःखस्वरूप, दुःखहेतू और दुःखफलक
(दुःखरुवे, दुःखफले, दुःखाणुबंधे-पंचसूत्र) संसार को अच्छा मनवाता है। अच्छा मानकर उसमे आसक्ति उत्पन्न करता है। यही जीव की वक्रता है।
*शक्रस्तव*
~~~~~~~~
महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...
(62)
*मग्गदयाणं -3*-मार्ग को देने वाले परमात्मा को मेरा नमस्कार हो।
अरिहंत परमात्मा हमें किस तरह मार्ग प्रदान करते हैं, उस पर विवेचन चल रहा है।
अभय और चक्षु की प्राप्ति के बाद, मोहनियकर्म का विशेष प्रकार से क्षयोपशम होने से जीव का बोध बलवान बनता है और तत्पश्चात इस बोध से ही सच्चे सुख के मार्ग की प्राप्ति होती है।
यह बलवान बोध यानी योग मार्ग की उच्चतम चोटी, उसकी प्राप्ति होती है।
पहले दो स्तर से यहां विवेक की मात्रा अधिक बढ़ जाती है।
यद्यपि इस उत्कृष्ट मार्ग की प्राप्ति के पहले भी जीव कदाचित धर्म तो करता ही है,
अपितु वो धर्म कोई आशंसा, सांसारिक अपेक्षा से या
विचारशून्यता से ही होता है। और संसार से पर ऐसे कोई तत्व के प्रति उसको रूचि होती नहीं है।
बाद जब इस सर्वोत्तम मार्ग की प्राप्ति होती है तभी उसकी धर्मक्रिया, आत्मशुद्धि या गुणप्राप्ति के यथार्थ प्रयत्न रूप बनती है।
यही चित्त की सरलता है।
ऐसे चित्त की सरलता प्राप्त होने से पहले गुणवान गुवॉदि का योग भी उसको सम्यगदर्शन का परिणाम उत्पन्न नहीं करा सकता। हां, वो पहले प्राप्त हुआ गुरु का उपदेश या शास्त्र अभ्यास, आदि अनादि से बाकी चाल का त्याग करने के बाद सच्चे मार्ग को प्राप्त करवाने का कारण अवश्य बन सकता है।
*शक्रस्तव*
~~~~~~~~
महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...
(63)
*मग्गदयाणं -4*-मार्ग को देने वाले परमात्मा को मेरा नमस्कार हो।
अरिहंत परमात्मा द्वारा प्राप्त विशेष धर्म मार्ग पर हम विवेचन देख रहे हैं।
पिछली बार हमने देखा के जीव का मार्ग किस तरह वक्र अर्थात टेढ़ा चलता रहता है और एक बार जब उसे चित की सरलता प्राप्त होती है तभी वह चित के अवक्रगमन रूप मार्ग का प्रवासी बनता है।
कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त हुआ, चित्त का अवक्रगमनरूप यह परिणाम भी परमात्मा के द्वारा ही हुआ है, ये निस्संदेह है।
परमात्मा को केवलज्ञान प्रगट हुआ है। वो संपूर्ण मार्ग को देखते हैं, और वीर्यान्तरायकर्म के सहयोग से उनको अनंत वीर्य प्राप्त हुआ है। उससे अत्यंत उचित प्रवृत्ति रूप मार्ग में ही उनका गमन होता है और वह परार्थ को करने वाले होते हैं।
परमात्मा में ऐसे विशिष्ट गुण रहे हुए हैं इसलिए उनको निमित्त से मार्ग की प्राप्ति हुइ होती है और इस तरह भगवान, मार्ग के दाता कहलाते हैं।
परोपकार का ये अरिहंत परमात्मा का गुण जीव के लिए अनंत उपकार का कारण बनता है, कल्याण का कारण बनता है। उनके द्वारा अर्पित इस मार्ग के अभाव में न तो आत्मा की कोई प्रगति उन्नति हो सकती है, न ही सुख की प्राप्ति और अंत में न ही मुक्ति की।
यह पद बोलते हुए, इस श्रेष्ठ मार्ग को पा कर मोक्ष में गए हुए परमात्मा को स्मृति में ला कर नमस्कार करते हुए प्रभु के पास प्रार्थना करनी है कि, हे नाथ!!!!अनादि काल से मार्ग को भूले हुए हमको आप मार्ग पर ला कर उस पर चलने का सामर्थ्य देना।
*
*शक्रस्तव*
~~~~~~~~
महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...
(64)
*सरणदयाणं-1*-शरण देने वाले परमात्मा को मेरा नमस्कार थाओ।
शरण देना अर्थात रक्षण करना।
भय से पीड़ित आत्मा की सुरक्षा करना, उसको शांति मिले, वह निर्भय बने ऐसा करना, यह शरण है।
इस संसार में सच्चे अर्थ में शांति, सुरक्षा या निर्भयता तत्व चिंतन से ही प्राप्त हो सकती है। इसलिए तत्व चिंतन ही सच में शरण है। आत्मादि तत्व के चिंतन बिना, उसकी विशेष प्रकार से विचारणा करे बिना कहीं भी शांति नहीं मिल सकती।
भववैराग्य से जब प्रभु के प्रति बहुमान का भाव प्रकट होता है, तब साधक आत्माओं का चित्त स्वस्थ बनता है। स्वस्थ चित्त से आत्मादि तत्व की जिज्ञासा होती है। उसमें एक श्रद्धा का परिणाम प्रगट होता है। तत्व की रूचिरुप श्रद्धा से चित्त की सरलतारूप मार्ग की प्राप्त होती है। मार्ग प्राप्त होने से कषायों के अभाव में ही वास्तविक सुख है, ऐसा ज्ञात होता है।
इन कारणों से बुद्धिमान जीवात्मा ये मार्ग विषयक गंभीर चिंतन करतें हैं। तत्व को विशेष और विशेष जानने की इच्छा रखते हैं। इस विशेष जानकारी की इच्छा को अन्य दर्शनकार विविदिषा कहते हैं। उससे ही अब तत्वश्रवण करने की उत्कंठा जगती है। सच्चे अर्थ में धर्मश्रवण की भूमिका यहां प्रगट होती है। तत्वचिंतन या धर्मश्रवण की यह भूमिका वो ही सच्चे अर्थ में शरण है। क्योंकि जीव को इससे ही वो सुख मिलना है जिससे उसके आत्मभाव की सुरक्षा होती है। ये सम्यकदर्शन आदि गुणों की प्राप्ति तत्व चिंतन से ही होती है।
*
(65)
*सरणदयाणं-2*-शरण देने वाले परमात्मा को मेरा नमस्कार थाओ।
इस पद पर चिंतन, गतांक से चालू है।
विशेष रूप से तत्वचिंतन करने से अपनी आत्मा में तत्व संबंधी आठ गुण प्रगट होते हैं।
स्वरूप बुद्धि के 8 गुण।
1. शुश्रुषा- तत्व सुनने की इच्छा।
सच्चा सुख कोनसा है? आत्मा का सुख किस तरह प्राप्त होता है? ये जानने की इच्छा ही सुश्रुषा है।
2. श्रवण- ज्ञान के सम्पूर्ण उपयोग पूर्वक एक एक शब्द तत्व प्राप्ति का कारण बने, उस तरह श्रवण करना, सुनना।
3. ग्रहण- श्रवण किए हुए तत्व के ऐसे शब्द, केवल कान को छू कर चले न जाए, अपितु उनसे तत्व की समज प्राप्त हो उस तरह एक एक शब्द पकड़ना।
4. धारणा- ग्रहण कीये हुए सर्व वाक्य पूर्वापर के अनुसंधान पूर्वक मन मे धारण करना।
5. विज्ञान- धारण किये हुए उस तत्व के विषय में कोई अज्ञान या संशयादि का ध्वंस पूर्वक का ज्ञान।
6. ऊह- विशेष चिंतन करने के बाद मन मे ऐसा हो कि यह वस्तु इस तरह क्यों है?
जीस तरह अहिंसा धर्म है, तो श्रावक को बाह्य रूप से आंशिक हिंसा रूप जिनपूजा का विधान क्यों?, ऐसी जिज्ञासा होनी अथवा तत्व विषयक सामान्य ज्ञान वो है, ऊह।
7. अपोह- मन मे जो शंका के समाधान मिले ऐसा तत्व विशेष बोध।
8. तत्वाभिनिवेश- ये पदार्थ इस तरह ही सही है, ऐसा निर्णय।
*शक्रस्तव*
~~~~~~~~
महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...
(66)
*सरणदयाणं-3*-शरण देने वाले परमात्मा को मेरा नमस्कार थाओ।
परमात्मा द्वारा प्राप्त होते शरण का विवेचन हम कर रहे हैं।
गत पोस्ट में, आत्मादी तत्व चिंतन करने से प्राप्त होते तत्व संबंधी आठ गुण का वर्णन हमने देखा।
इन आठ गुण के प्रगट होने के बाद धर्मश्रवण की क्रिया, पूर्व की धर्मश्रवण की क्रिया से विशिष्ट होती है। पूर्व में धर्मश्रवण की क्रिया से थोड़े शुभ भाव तो होते हैं, परन्तु विशिष्ट प्रकार का हेय-उपादेय का विवेक तो इन आठ गुण की प्राप्ति द्वारा ही संभव है। यही विवेक के कारण संसार के सर्वश्रेष्ठ लगने वाले भाव भी तुच्छ लगते हैं।
तत्पश्चात, नरेंद्र या चक्रवर्ती के भोगो में भी आसक्ति नही होती है, अपितु उसमे नरकादि के दुःख का दर्शन होता है। और आत्मोपकार संयम आदि भाव जीव को सुंदर लगते हैं। संयम आदि भावों को प्राप्त करने के लिए मन मे सदा झंखना रहती है। यहां सम्यग्दर्शन की निकटतम भूमिका सम्पन्न होती है।
तत्वचिंतन रूप ये शरण देने वाले भी अरिहंत ही है। क्योंकि वो सर्व प्रकार से तत्वभूत अवस्थाओं को पा चूके हैं। वो स्वयं सर्वांश रागादि शत्रुओं से सुरक्षित है।
इसी स्वरूप से परमात्मा को देखने से, उनका मनन चिंतन या ध्यान करने से हम को अशरणदशा में ले जानेवाले रागादि भावों और उनको उत्पन्न करने वाले कर्मों का नाश होता है। इस तरह से निमित्त भाव से परमात्मा ही सच्चे शरण को देने वाले है।
शरण देने वाले इन परमात्मा को स्मृतिपट में ला कर सर्वथा रागादि शत्रु के विजेता परमात्मा के प्रति बहुमानभाव प्रगट कर के नमस्कार करते हुए प्रार्थना करनी है कि,
हे नाथ!!!! अनंतकाल से अशरण दशा में भटकते हुए ऐसे हम को आप शरण देकर सच्चे सुख के स्वाम *शक्रस्तव*
~~~~~~~~
महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...
(67)
*बोहिदायणं-1*-बोधि को देने वाले परमात्मा को मेरा नमस्कार थाओ।
बोधि यानी सम्यगदर्शन।
जिनेश्वर भगवंत ने जो पदार्थ जिस प्रकार से कहे हैं, वो वैसे ही है ऐसी अडीग श्रद्धा वो सम्यगदर्शन है। यह परिणाम, तत्व के विशिष्ट चिंतन से प्राप्त हुए मोहनीयकर्मों के उपशम या क्षयोपशम से होता है। इस तरह ही विशिष्ट तत्वचिंतन रूप शरण का फल बोधि की प्राप्ति है।
गाढ मिथ्यात्व के उदय काल में जीव में तीव्र कोटि के रागद्वेष के परिणाम का प्रवर्तन होता है। यह तीव्र रागद्वेष के परिणाम को, संस्कार को ग्रंथि कहतें है, ग्रंथी अर्थात, गांठ।
यह गांठ किन किन प्रकार की है ये शास्त्र में चार विशेषणो द्वारा दर्शाया गया है।
1. कर्कश- काठी कि डोरी आदि में पड़ी हुई गांठ। छुड़ाते हुए हाथ तक छिल जाते हैं। उसी तरह विचित्र और विलक्षण परिणाम स्वरूप ये रागादि कषायों को निकालने में इंसान का दम निकल जाता है।
2. घन- रेशम की डोरी की गांठ।
जिस तरह तेल और मैल चढ़ने के कारण नक्कर, गट्ठ हो जाती है। वैसे ही कर्म के अनुबंधों के कारण यह रागादि घन, मजबूत होता जाता है।
3. रूढ़- बारीक रेशम की डोर में बहुत समय से पडी हुई गांठ।
जिस तरह वो रूढ हो जाती है, उसी तरह अनादि काल से वृत रागादि के परिणाम अत्यंत रूढ, पक्के हो जाते हैं।
4. गूढ़- बारीक रेशम की डोरी में बहुत समय से पडी हुई गांठ जिस तरह दिखती ही नहीं वैसे ही जीव में मिथ्यात्व के कारण हुए बुद्धि के विभ्रम से यह रागादि, भावदोष रूप दिखते नहीं है।
और यह दोषरूप भाव कहां से उठते हैं, कौन से निमित्त से प्रगट होते हैं और आत्मा को किस तरह से अहित करते हैं, ये समझ में ही नहीं आता है।
महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...
(68)
*बोहिदायणं-2*-बोधि को देने वाले परमात्मा को मेरा नमस्कार थाओ।
बोधि यानी सम्यगदर्शन।
गतांक से आगे...
धागे में पडी हुई गांठ जिस तरह सुई को आगे बढ़ने नहीं देती उसी तरह ग्रंथि की हाजरी में जीव सत्यतत्व को देखने, समझने के विषय में आगे नहीं बढ़ सकता। कदाचित ज्ञानशक्ति से, इंद्रियों के माध्यम से पदार्थ का बाह्य रूपरंग का ज्ञान पा सकता है, फिर भी तीव्र रागादि के कारण उसमें रही हुइ नश्वरता, आत्मभिन्नता और आत्मा के लिए अनूपकारिता आदि धर्म का ज्ञान जीव को नहीं हो सकता।
कई बार किसी महापुरुषों के वचनामृत से तीन संपत्ति आदि पदार्थ नश्वर है, आत्मा को रागादि भावों से मलिन करने वाले है, कर्म का बंद करा कर दुर्गति में ले जाने वाले हैं, ऐसी कुछ बातें समझ में आती है। आंशिक श्रद्धा भी होती है। फिर भी ग्रंथि की उपस्थिति में, मिथ्यात्व के उदयकाल में, यह भाव छोड़ने योग्य है ऐसा आत्मा के लिए हितकर ऐसा संवेदन होता नहीं है। जिसको शास्त्रीय परिभाषा में अवेध-संवेध पद कहते हैं।
जो वस्तु जिस स्वरूप में है, वो ही स्वरूप से वेदन होना चाहिए। उसी स्वरूप में वेदन न होने से अलग अलग स्वरूप से वेदन हो सकता है, वो अवेध-संवेध पद है।
मिथ्यात्व की उपस्थिति में उसकी अवश्यमेव उपस्थिति होती है।
और सम्यग्दर्शन प्राप्त होने से ही उसका नाश होता है।
जिस तरह साप को देख कर, ये साप हमें डस कर मार देगा, ऐसा संवेदात्मक ज्ञान होने से जीव साप से डरते हैं, उससे दूर भागते है, उसी तरह स्त्री, सम्पत्ति आदि हेय पदार्थों का संवेदात्मक ज्ञान होने से आत्मा उससे दूर रहने का प्रयत्न करता है।
तभी ऐसा कहेंगे कि ये यथार्थ संवेदन हुआ है। परन्तु सम्यग्दर्शन के अभाव में पाप क्रिया या पाप के साधनभूत स्त्री, संपत्ति आदि "मुजे मारने वाली है" ऐसा भय या ऐसी संवेदना जीव की नही होती है। इसलिए वो हितकारक संयम आदि गुणों की उपेक्षा करके अहितकारी स्त्री, संपत्ति, आदि में ही प्रवृत्ति किया करता है। ये सब मिथ्यात्व का उदय, बोधि की अप्राप्ति, गाढ़ रागद्वेष रूप ग्रंथि की उपस्थिति या अवेध-संवेध पद के कारण ही होती है।
*अहो जिनशासनम अहो जिनशासनम*
*शक्रस्तव*
~~~~~~~~
महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...
(69)
*बोहिदायणं-3*-बोधि को देने वाले परमात्मा को मेरा नमस्कार थाओ।
बोधि यानी सम्यगदर्शन।
गतांक से आगे...
जिस तरह कोई पत्थर चारो तरफ से मार खाते खाते कभी अपनेआप गोल हो जाता है, उसी तरह भव में भटकते भटकते दुःखो को सहन करते जीव की, भावितव्यता से, मिथ्यात्वमोहनीय आदि कर्म का विपाक थोडा सा मंद पड़ता है और तब जीव को शुभ भाव की प्राप्ति होती है। और तब राग, द्वेष, क्रोध आदि से होने वाली पीड़ा आत्मा को समझ मे आती है। उपरांत संसार की वास्तविकता का वो विचार कर सकता है। उसके कारण संसार मे सुख है, ऐसा अनादि काल का भ्रम कम होने से संसार के प्रति राग घटता जाता है। और भव से पार पा चूके भगवान के प्रति बहुमान होता है। यह परिणाम को ज्ञानी भगवंत यथाप्रवृत्तिकरण कहते है।
यथाप्रवृत्तिकरण अर्थात, संक्षिप्त में, अनादी काल से संसार में भटकते जीव को शुभ भाव होता है। और फिर इस तत्वचिंतन के मार्ग में आगे बढ़ते हुए, निकट के मुक्तिगामी आत्मा को यथा प्रकार के कर्म के क्षयोपशम से अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण का अध्यवसाय प्रगटता है।
अपूर्वकरण, अर्थात, पूर्व में कभी भी न हुआ हो ऐसा अपूर्व कोटि का अध्यवसाय का प्रगट होना। इसी कारण से ही आत्मा रागद्वेष की तीव्र गांठ को भेद सकता है।
अनिवृत्तिकरण, अर्थात, जिस परिणाम के कारण आत्मा सम्यग्दर्शन गुण प्राप्त करे बिना पीछे ही न फिरे, ऐसे विशिष्ट कोटि का अध्यवसाय।
*अहो जिनशासनम अहो जिनशासनम*
*
*शक्रस्तव*
~~~~~~~~
महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...
(71)
*बोहिदयाणं-5*-बोधि को देने वाले परमात्मा को मेरा नमस्कार हो।
गतांक से आगे,
जिस प्रकार एक छोटा बच्चा, भले ही कुछ खास न जानता हो किन्तु अपने सुख और दुःख का एहसास करता है, यदि आग को भूल से छू लिया हो तो जलन के दुख का संवेदन होने से बच्चा दुःख की भावना के कारण रोना शुरू कर देता है, अर्थात, बच्चा गहरी समझ के अभाव में भी अपने सुख और दुःख का अनुभव कर सकता है, उसी प्रकार सम्यकदृष्टि आत्मा को गहरा शास्त्र बोध ना भी हो तो भी अपने हित-अहित को ठीक से जान कर, अनुभव कर सकता है।
स्व में प्रकट किए हुए विवेक के कारण सम्यकदृष्टि आत्मा हेय को हेय जान कर, और उपाधेय को उपाधेय जान कर, आत्मा के लिए हितकर वस्तु को हितकर और अहितकर वस्तु को अहितकर मानते हैं, स्वीकारते हैं अवेध-संवेध पद है। उसका संवेदन करते हैं।
जैसे ही बोधि की प्राप्ति होती है, उस के साथ अविनाभावी ऐसा आस्तिक्य नाम का गुण प्राप्त होता है।
आस्तिक्य, अर्थात, पुण्य, पाप, परलोक आदि तत्व, परमात्मा ने जिस प्रकार से कहे हैं, उसी प्रकार से ही है, ऐसी दृढ़ श्रद्धा पूर्वक मानना।
ऐसी श्रद्धा होने के कारण ही जीव, कषायों से स्वयं को होती पीड़ा और अन्य को होती पीड़ा को समझ सकता है। इसलिए ही अपनी या दूसरे की द्रव्यपीड़ा को, भाव से हुई पीड़ा या दुख को देख कर उसमें अनुकंपा का (दया का) परिणाम प्रगट होता है। इस अनुकंपा के कारण, संसार में हो रही निरंतर स्व-पर के प्राणों की हिंसा को देख कर, इस संसार की असारता का अनुभव कर, उसके प्रति अभाव, वैराग्य भाव होता है। ऐसे निर्गुण संसार से छूटने की तीव्र इच्छा स्वरूप निर्वेद का परिणाम होता है।
*शक्रस्तव*
~~~~~~~~
महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...
(72)
*बोहिदयाणं-6*-बोधि को देने वाले परमात्मा को मेरा नमस्कार हो।
इस पद का चिंतन विस्तार पूर्वक हम कर रहे हैं।
पिछली पोस्ट में हमने देखा कि किस तरह संसार की असारता का अनुभव कर के जीव यहां से छूटने की तीव्र इच्छा स्वरूप निर्वेद का परिणाम प्राप्त करता है।
फिर ऐसे निर्वेद के परिणाम को प्राप्त करने के बाद जीव को, अनंतकाल तक जहां अपने को सुख की प्राप्ति होनी है और जहां कोई भी हिंसा आदि करनी नहीं पड़ती, साथ ही अपने सुख के लिए कोई भी स्थान पर, किसी को भी दुख देने का अवसर नहीं होता, ऐसे मोक्ष की तीव्र अभिलाषा रूप संवेग का परिणाम होता है। संसार से परे ऐसे मोक्ष की इच्छा होने से ही जीवन में क्रोधlदि विषयों की व्यापकता व लालसा, तृष्णा के ऊपशम स्वरूप प्रशम का परिणाम प्रगट होता है। अर्थात विरक्ति के भाव प्रगट होते हैं।
अभय आदि भावों की तरह ही बोधि का परिणाम भी परमात्मा की कृपा से ही प्राप्त होता है। परमात्मा क्षायिक सम्यकदर्शन को प्राप्त कर चूके हैं। सम्यकदर्शन के कारणभूत तत्वमार्ग भी उन्होंने ही बतलाया है। इस कारण गुणसंपन्न परमात्मा का, परमात्मा के वचन का, आलंबन लेकर जीव बोधि को पा सकता है। इस तरह परमात्मा ही बोधि को देने वाले हैं ऐसा कहना योग्य है।
अभय की प्राप्ति से लेकर बोधि की प्राप्ति तक 5 भाव एक दूसरे में कार्यकारण रूप है। इसलिए ही जीव को जो अभय की प्राप्ति होती है तो उत्तरोत्तर फलस्वरुप वह अंत तक बोधि तक पहुंच सकते हैं।
*अहो जिनशासनम अहो जिनशासनम*
*चलें जैनिज़्म की ओर - करें ज्ञान का अर्जन - करें पापकर्मों का विसर्जन*
🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔
जय जिनेन्द्र। 29-10-2020
"Paamar" posts by
Dhanesh M Shah,
Hyderabad.
*शक्रस्तव*
~~~~~~~~
महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...
(73)
*बोहिदयाणं-7*-बोधि को देने वाले परमात्मा को मेरा नमस्कार हो।
बोधि की प्राप्ति के लिए किन किन आत्मिक अवस्थाओं से जीव पार होता जाता है, ये हम समझने का प्रयास कर रहे हैं।
अनादि काल से संसार में भटकते भटकते कालक्रम से, जब जीव अपुनर्बंधक अवस्था, अर्थात, विषयों से जीव को अलिप्त करने की अवस्था को प्राप्त करता है, तब उसको अभयादि पांच भावों की प्राप्ति होती है। क्योंकि जीव जब तक विष जैसे विषयों से परांङ्गमुख नही बनता तब तक उसमे अभयादि प्राप्त करने की योग्यता आती ही नही। शास्त्र में ये योग्यता को लोकोत्तर अमृत के आस्वादस्वरूप कही है। जीव इसी अवस्था में विषयों के उपभोग से भिन्न प्रकार के अतीन्द्रिय सुख का जरा सा ही सही पर आस्वाद पा सकता है।
जैसे अमृत से जीव अप्रतिम, अनहद संतोष को प्राप्त कर सकता है, उसी तरह यहां प्राप्त होने वाला उपशम का सुख, जीव की अनादि काल की असंतुष्ट रही विषयों की तृष्णा को शांत करता है। इसी कारण शास्त्रकार ने ये अवस्था को लोकोत्तर भावअमृता के स्वादतुल्य कही है। ये जो लोकोत्तर भावअमृता के आस्वाद स्वरूप योग्यता हम में होती है, ये औदार्यादि गुणस्वरूप है।
जीव में ये अभयादिकी योग्यता अभी प्रगट हुई की नही, ये उसमें प्रवृत्त औदार्य, दाक्षिण्य, पापजुगुप्सा, निर्मलबोध और जिनप्रियत्व गुणों से जान सकते हैं।
1. औदार्य- अनादिकालीन तुच्छ वृत्ति का, क्षुद्र वृत्ति का त्याग कर के हृदय को विशाल बनाना, ये औदार्य है।
केवल मैं और मेरा, यह वृत्ति का त्याग कर के सर्व को अपना मानना। अपनी सर्व शक्ति और सर्व सामग्री का सर्व के लिए सदुपयोग करने की भावना रखना। सर्व के प्रति औचित्यपूर्ण वर्तन करना। वडिलों के प्रति बहुमान, छोटों के प्रति वात्सल्य भाव रखना, दीन, अनाथ या दुःखग्रस्त जीवों के प्रति दया रखना। ये सर्व भाव औदार्य गुण के कारण ही होते हैं, क्योंकि उदारतागुण प्रगट होने के बाद ही अन्य के दुःख का विचार आता है। और अपने सुख को गौण कर सकते हैं। यह गुण ही रागादि को मंद कर के आध्यात्मिक आनंद भी देता है।
*अहो जिनशासनम अहो जिनशासनम*
*चलें जैनिज़्म की ओर - करें ज्ञान का अर्जन - करें पापकर्मों का विसर्जन*
🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔
जय जिनेन्द्र। 30-10-2020
"Paamar" posts by
Dhanesh M Shah,
Hyderabad.
*शक्रस्तव*
~~~~~~~~
महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...
(74)
*बोहिदयाणं-8*-
बोधि को प्राप्त कराने वाले परमात्मा को मेरा नमस्कार हो।
बोधि की प्राप्ति के विषय में गतांक से आगे....
जीव में, प्रभु द्वारा दिए जाने वाली अभयादी विशिष्टताएं प्राप्त करने की योग्यता अभी प्रकट हुई है या नहीं, वो उसमे प्रवृत्त पांच प्रकार के गुणों द्वारा जान सकते हैं। जिनमें से पहले गुण औेदार्य को हमने कल समझा।
दूसरे गुण इस प्रकार है -
2. दाक्षिण्य- सर्व से अनुकूल रहने की भावना है, दाक्षिण्य।
ये गुण को बिकसाने से धीरता, वीरता, गंभीरता आदि गुणों की प्राप्ति होती है। यद्यपि इसके लिये ईर्ष्या आदि दोषों का त्याग अनिवार्य है।
दूसरों को अनुकूल रहने का परिणाम स्वईच्छा के आक्रमण को दूर करना है। अपनी इच्छा को सहजता से त्याग कर के आत्मा, वास्तविक आनंद को पा सकती है।
3. पाप जूगुप्सा- पाप के प्रति तिरस्कार। अज्ञानादि दोषों के कारण कहीं भी पाप का सेवन हो गया हो, पूर्व भव में या ये भव में जो जो पाप किये हो वह सर्व पाप का अंतःकरण पूर्वक प्रायश्चित करना, ये पापजूगुप्सा है। इस पाप जूगुप्सा का परिणाम, लोकोत्तर भावामृत है। क्योंकि ये पापवृत्ति से आत्मा को दूर रखती है। परिणाम स्वरूप, पापवृत्ति से प्राप्त कर्मों का नाश होता है और आत्मा लोकोत्तर कोटि के गुणों का आनंद ले सकती है।
4. निर्मलबोध- स्वच्छबोध।
जो बोध दुखकारक विषयों से दूर रख कर सुखकारक शास्त्र की ओर प्रवृत्ति करा सके, वो निर्मल बोध है। बोध निर्मल होने से शास्त्र को जानने की जिज्ञासा जगती है। शास्त्रज्ञ के निकट जाने का मन होता है, शास्त्र श्रवण कर के उस पर गहरा चिंतन हो, सूक्ष्म से सूक्ष्मतर तत्व का ज्ञान हो, तो उसके परिणाम से मिथ्यात्व आदि कर्म मंद पड़ते हैं। क्रोध आदि कषाय शांत होते हैं। सम्यक्त्व आदि गुण प्रगटते हैं और इस तरह ही निर्मल बोध वाली आत्मा को लोकोत्तर आनंद मिलता है।
*अहो जिनशासनम अहो जिनशासनम*
*चलें जैनिज़्म की ओर - करें ज्ञान का अर्जन - करें पापकर्मों का विसर्जन*
🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔
जय जिनेन्द्र। 31-10-2020
"Paamar" posts by
Dhanesh M Shah,
Hyderabad.
*शक्रस्तव*
~~~~~~~~
महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...
(75)
*बोहिदयाणं-9*-बोधि को देने वाले परमात्मा को मेरा नमस्कार हो।
बोधि की प्राप्ति के विषय में गतांक से आगे....
जीव में, प्रभु द्वारा दिए जाने वाली अभयादी विशिष्टताएं प्राप्त करने की योग्यता अभी प्रकट हुई है या नहीं, वो उसमे प्रवृत्त पांच प्रकार के गुणों द्वारा जान सकते हैं। जिनमें से पहले चार गुण औेदार्य आदि को हमने पहले समझा।
अंतिम गुण इस प्रकार है -
5. जनप्रियत्व- लोक में प्रिय होना।
लोकचाहना पाना वो जनप्रियत्व है।
परन्तु ये जनप्रियत्व निर्दोष होना चाहिए। उसमे आशंसादि नहीं होने चाहिये, अर्थात, स्वार्थ वृत्ति नहीं होनी चाहिए।
मात्र आत्मकल्याण की भावना से किया हुआ औचित्यपूर्ण वर्तन अनेक की प्रीति का कारण बनता है। ये गुण वाले आत्मा के अनुष्ठान, उसकी प्रत्येक क्रिया, अनेक जीवों को धर्म की ओर प्रेरित करती है। धर्मबीज का आधान करवाती है। और स्वयं को भी धर्मभावना की वृद्धि करवा कर मोक्ष तक पहुँचाती है।
अभय आदि भावों की प्राप्ति के योग्यता रूप जो यह औदार्य आदि गुण प्रगट होते हैं, वह संसार की निर्गुणता के भाव पूर्वक के होते हैं। इस कारण ही यह औदार्यादि गुण धीरे-धीरे वैषयिक सुख की आसक्ति को घटा कर वैराग्य आदि गुणों को प्रगटा कर विशिष्ट प्रकार के चारित्र आदि गुणों को प्राप्त करवा के आत्मिक आनंद का अनुभव करवाते हैं।
बोहिदयाणं, यह पद बोलते हुए कल्याण के अद्वितीय कारणभूत सम्यग्दर्शन गुण प्राप्त कराने वाले अरिहंत परमात्मा को नजर समक्ष ला कर, उनके ये महान उपकार को याद कर के अंतर के भाव से नमस्कार कर के, परमात्मा को प्रार्थना करनी है कि,
हे क्षायिक सम्यक्त्व के स्वामी!!!!आप अनादि मिथ्यात्व का संपूर्ण नाश करा कर हमको भी क्षायिकभाव का सम्यक दर्शन प्राप्त करा दो।
*अहो जिनशासनम अहो जिनशासनम*
*चलें जैनिज़्म की ओर - करें ज्ञान का अर्जन - करें पापकर्मों का विसर्जन*
🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔
जय जिनेन्द्र। 1-11-2020
"Paamar" posts by
Dhanesh M Shah,
Hyderabad.
*शक्रस्तव*
~~~~~~~~
महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...
(76)
*घम्मदयाणं-1*- धर्म को देने वाले परमात्मा को मेरा नमस्कार थाओ।
धर्म अर्थात, यहां चारित्र धर्म को देने वाले परमात्मा को नमस्कार करने में आया है।
भगवान चारित्र धर्म के दाता है।
और वो किस तरह से???
चूंकि चारित्र अंतरंग परिणाम रूप है और अंतरंग परिणाम का प्राधान्य सीधा हो नहीं सकता, अर्थात अंतर के भावों से जो परिणाम स्वरूप चारित्र प्राप्त होता है वो ऐसे ही सीधे से नहीं हो सकता। इस कारण प्रथम प्रभु भव्य आत्मा में तात्विक कोटि के धर्मश्रवण की योग्यता प्रगट करवाते हैं।
यह योग्यता भी परमात्मा के प्रति पूर्ण बहुमान से ही प्रकट होती है।
बाद में प्रभु देशना द्वारा भव्य आत्मा को संसार से वैराग्य पैदा करवा कर तात्विक कोटि का धर्म प्रदान करते हैं।
यह तात्विक कोटि का धर्म दो प्रकार के भेद से है, देशचारित्र और सर्वचारित्र।
श्रेष्ठ कोटि का चारित्रधर्म, यह आत्मा कि सर्वथा मोह रहित अवस्था स्वरूप है। सर्वथा मोह रहित आत्मा का परिणाम निष्पाप प्रवृत्ति से प्राप्त होता है और निष्पाप प्रवृत्ति परमात्मा द्वारा दर्शाए समिति-गुक्ति आदिरूप क्रियाकलाप से प्राप्त होती है। यह क्रियाकलाप के लिए साधु वेश अत्यंत आवश्यक है। इसलिए ही साधु वेश के परिधान पूर्वक समिति-गुप्ती के पालन द्वारा सर्वथा मोहरहित होने के लिए अंतरंग प्रयत्न वही श्रमणधर्म या सर्वचारित्र है।
*अहो जिनशासनम अहो जिनशासनम*
*चलें जैनिज़्म की ओर - करें ज्ञान का अर्जन - करें पापकर्मों का विसर्जन*
🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔
जय जिनेन्द्र। 2-11-2020
"Paamar" posts by
Dhanesh M Shah,
Hyderabad.
*शक्रस्तव*
~~~~~~~~
महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...
(77)
*घम्मदयाणं-2*- धर्म को देने वाले परमात्मा को मेरा नमस्कार थाओ।
गतांक से हम प्रभु द्वारा प्राप्त चारित्र रूपी धर्म के विषय पर विवेचन देख रहे हैं।
ये श्रमणधर्म, कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त होने वाला आत्मा का परिणाम है।
इसकी विशेषता यह है कि चाहे कोई भी जीव हो, बड़ा या सूक्ष्म से सूक्ष्म, उसको पीड़ा नहीं होने देना, ये उसीके परिणाम स्वरुप है।
इस कारण ही शास्त्रों में ईसको 'सकलसत्वहिताशयवृत्ति' (जीव मात्र का हित करने की भावना) स्वरुप अमृत कहा हुआ है।
छोटे से छोटे जीव को भी पीड़ा ना हो, साथ ही उसकी आत्मा का अहित ना हो ऐसी सावधानी साधू जीवन में सर्वदा रखने में आती है। इस कारण ही ये अमरण अवस्था रूप मोक्ष का साक्षात कारण है। और इसी कारण से इस भाव को अमृत तूल्य बतलाया गया है।
इस प्रकार के साधू धर्म की तीव्र इच्छा होने के पश्चात भी जब तक इसे स्वीकार करने की शक्ति न आ जाए, तब तक इस शक्ति को प्रकट करने के लिए अणुव्रत से (छोटे में छोटे व्रत) ले कर श्रावक की ग्यारहवी श्रमणभूत प्रतिमा तक सर्वधर्म साधना, यह श्रावक धर्म है।
यह श्रावक धर्म भी साधू धर्म को स्वीकार करने की भावना पूर्वक छोटे-छोटे व्रतों में किये हुवे प्रयत्न से प्राप्त होता है, अन्यथा नहीं।
*अहो जिनशासनम अहो जिनशासनम*
*चलें जैनिज़्म की ओर - करें ज्ञान का अर्जन - करें पापकर्मों का विसर्जन*
🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔
जय जिनेन्द्र। 3-11-2020
"Paamar" posts by
Dhanesh M Shah,
Hyderabad.
*शक्रस्तव*
~~~~~~~~
महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...
(78)
*घम्मदयाणं-3*- धर्म को देने वाले परमात्मा को मेरा नमस्कार थाओ।
गतांक से धर्म की प्राप्ति के विषय में हम विचार कर रहे हैं।
चारित्रधर्म जैसे श्रेष्ठ कोटी के धर्म की प्राप्ति में मनुष्य जन्म, सद्गुरु का संयोग, स्वयोग्यता आदि कारण अवश्य कार्य करते हैं, अपितु इन सभी कारणों में महत्व का कारण यह है कि हम में धर्मश्रवण की योग्यता हो। धर्म श्रवण की योग्यता बिना गुरु संयोग आदि भी चारित्र धर्म तक पहुंचाने में सशक्त नहीं है।
और यह धर्मश्रवण की योग्यता भवनिर्वेद में से प्रगट हुए भगवान के बहुमान से प्राप्त होती है। इसलिए भगवान चारित्रधर्म के दाता कहलाते हैं।
यह जगत में धर्म तो बहुत है लेकिन सूक्ष्म प्रकार से हिंसा आदि पापों के निवर्तन स्वरूप चारित्रधर्म तो सर्वज्ञ के शासन के सिवा अन्य कहीं भी देखने को नहीं मिलता।
धम्मदयाणं, यह पद बोलते हुए, चारित्रधर्म के दाता परमात्मा को स्मरण में ला कर उनके प्रति अत्यंत प्रसन्नता के भावों को प्रकट कर के नमस्कार करते हुए ये प्रार्थना करनी है कि, हे नाथ!!!! आपने तो उच्चतम चारित्रधर्म का प्रदान जगत को किया है, अब आपको किया हुआ यह नमस्कार मेरे में चारित्रधर्म की योग्यता को प्रकटाकर मेरा भी उद्धार करे।
भगवान चरित्रधर्म को देने वाले है ये इस पद में दिखा। अब चारित्रधर्म को प्रभु किस तरह देते हैं ये आगे के पद द्वारा हम को समझना है।
*अहो जिनशासनम अहो जिनशासनम*
*चलें जैनिज़्म की ओर - करें ज्ञान का अर्जन - करें पापकर्मों का विसर्जन*
🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔
जय जिनेन्द्र। 4-11-2020
"Paamar" posts by
Dhanesh M Shah,
Hyderabad.
*शक्रस्तव*
~~~~~~~~
महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...
(79)
*धम्मदेसयाणं-1*-धर्म के देशक परमात्मा को मेरा नमस्कार थाओ।
संसार की असारता को समझा कर चारित्रधर्म की प्राप्ति के योग्य देशना को देने वाले परमात्मा को यह पद द्वारा नमस्कार करने को कहा है।
अनंतकाल से जीव संसार मे रिक्त, फसा हुआ रह रहा है। ये संसार का त्याग करने का मन तब ही हो सकता है कि जब उसे संसार की वास्तविकता का ज्ञान हो। इस कारण ही परमात्मा सब से पहले धर्म देशना में, यह संसार आत्मा के लिए कितना अहितकर है, उससे जीव किस तरह दुखी होता है आदि बातों को समझा कर उसे संसार से विरक्त करने का प्रयत्न करते हैं।
भव से विरक्त हुए आत्मा को परमात्मा कहते हैं कि
हे भव्यतमन्, तुझको प्राप्त यह मनुष्य भव कितना दुर्लभ है उसका तू विचार कर, ऐसे दुर्लभ मनुष्यभव को प्राप्त कर के परलोक प्रधान धर्म की साधना करने में ही श्रेय है। धर्म की साधना करे बिना यह दुखद संसार का अंत हो ही नहीं सकता। एसी धर्म साधना करने के लिए तू सत्शास्त्रों का अभ्यास कर। शास्त्रज्ञो के पास जा कर शास्त्रों के मर्म को तू समझ।शास्त्र के मर्म को समझने के लिए तू तेरे चित्त को अनित्यतादि भावों से भावित कर।
इस अनित्य भाव को समझने के लिए तू पुष्पमाला और घटना दृष्टांत का विचार कर।
हज़ार रुपए की पुष्पमाला शाम को मुर्जा जाती है तो तुझको खेद नहीं होता। और पचास रुपए का घड़ा फूट जाता है तो तू दुखी होता है। क्योंकि पुष्पमाला तो शाम को मुर्जा जाती है,वो बात को तूने स्वीकार किया ही है परन्तु घड़े का नाश तत्काल हो सकता है, ये बात तूने नहीं स्वीकारी है। इसलिए तू दुखी होता है।
इस बात का बार बार विचार कर। जिससे नश्वर संसार तुझको विचलित नहीं करेगा। और तू कदापि दुखी नहीं होगा।
*अहो जिनशासनम अहो जिनशासनम*
*चलें जैनिज़्म की ओर - करें ज्ञान का अर्जन - करें पापकर्मों का विसर्जन*
🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔
जय जिनेन्द्र। 5-11-2020
"Paamar" posts by
Dhanesh M Shah,
Hyderabad.
*शक्रस्तव*
~~~~~~~~
महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...
(80)
*धम्मदेसयाणं-2*-धर्म के देशक परमात्मा को मेरा नमस्कार थाओ।
गतांक से हम प्रभु द्वारा दिए जाने वाली देशना पर विचार कर रहे हैं।
प्रभु आगे फरमाते हैं कि,
इस संसार की अनित्यता तुझको समझ में आ जाए तो तेरी बहुत गलत अपेक्षाओं का नाश होगा। अपेक्षाएं तेरी कम होगी तो तेरी गलत उत्सुकता शम जाएगी। उत्सुकता का शमन होने से तेरे में स्थिरता जाएगी और तेरे में स्थिरता आ जाएगी तो तू परमानंद को प्राप्त कर सकेगा।
हे आत्मन्, जब तक तेरी गलत अपेक्षाएं कम न हो तब तक तू भगवान की आज्ञा कि अपेक्षा रख।
क्यूंकि "धम्मो जीणाणमाणा", जिन की आज्ञा, धर्म है।
भगवान की आज्ञा अनुसार क्षमादि गुणों को प्रगट करने का प्रयत्न कर। क्षमादि गुण जिससे प्राप्त हो ऐसी ही क्रिया में रस पूर्वक भाग ले। जो क्रिया से दोष का पोषण हो, और गुण का शोषण होता है ऐसी क्रिया से तूझे दूर रहना है।
हे भव्य जीव, दुरंत संसार की विलासिता को उत्पन्न करे ऐसे प्रवचन के मालिन्य से तू दूर रहा कर। तेरी एक भी प्रवृत्ति ऐसी न हो कि जिससे तारक तीर्थंकर या तीर्थंकर के बताए हुए धर्म की निंदा हो। तेरे निमित्त से निग्रंथ गुरुभगवंतों के प्रति किसी को भी लेश मात्र द्वेष न हो। तुझ से ऐसा कोई कार्य न हो, इसलिए तूझको ज्ञानी पुरुष की निश्रा में रहना चाहिए। तेरे आत्मभावों पर सदा नजर रहनी चाहिए। आत्मभाव को प्राप्त करने के लिए तू संयम के योग का निरंतर सेवन कर। ज्ञानी पुरुष के पास शास्त्रों को सुन। उसका चिंतन कर के निरंतर उसका परिशीलन कर। संयम की साधना करते-करते कभी भी अरति आदि के भाव हो जाये तो सद्गुरु के शरण में चले जाना है।
*अहो जिनशासनम अहो जिनशासनम*
*चलें जैनिज़्म की ओर - करें ज्ञान का अर्जन - करें पापकर्मों का विसर्जन*
🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔
जय जिनेन्द्र। 6-11-2020
"Paamar" posts by
Dhanesh M Shah,
Hyderabad.
*शक्रस्तव*
~~~~~~~~
महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...
(81)
*धम्मदेसयाणं-3*-धर्म के देशक परमात्मा को मेरा नमस्कार थाओ।
गतांक से हम परमात्मा द्वारा दिए जाने वाली देशना पर विचार कर रहे हैं।
प्रभु आगे फरमाते हैं कि,
शास्त्रवचनरूप मंत्रों का जाप और विविध प्रकार के तपरूप औषध का तू सेवन कर। इससे तेरे क्लिष्ट कर्मों का विनाश हो जाएगा। तेरी आत्मा निर्मल बन जाएगी और तू शाश्वत सुख को प्राप्त कर सकेगा।
इस तरह से भवविरक्त आत्मा को भगवान चारित्रधर्म की उत्तरोत्तर अवस्था और उस फ़ल का दर्शन करा कर चारित्रधर्म को प्राप्त कराने का उपदेश देते हैं।
ये धर्मोपदेश स्वरूप देशना, केवल अरिहंत परमात्मा द्वारा हम को प्राप्त होती है। और ये पहली सीढ़ी है, हमारे चारित्र धर्म को प्राप्त कर के हमारे परम कल्याण की ओर बढ़ने की। और ये केवल अरिहंत परमात्मा के द्वारा ही संभव है, यही इस पद का महत्व है।
यह पद बोलते हुए धर्मदेशना दे कर जगत पर महान उपकार करने वाले परमात्मा को स्मृतिपट में ला कर उनके प्रति अत्यंत कृतज्ञभाव से चित्त को वासित कर के नमस्कार करते हुए प्रार्थना करनी है कि,
हे नाथ!!!! बहूमान पूर्वक किया हुआ यह नमस्कार हमको आप की वाचना के अनुसार पूर्ण जीवन जीने का सामर्थ्य दे।
ऐसे भाव से कीया हुआ नमस्कार, धर्मदेशना के अमल में विघ्न करने वाले कर्मों का नाश कर के धर्ममार्ग में वीर्य का प्रवर्तन करता है।
देशना द्वारा भगवान ही चारित्र धर्म को देने वाले हैं ऐसा कहने का कारण क्या है, ये हम आगे देखेंगे।
*अहो जिनशासनम अहो जिनशासनम*
*चलें जैनिज़्म की ओर - करें ज्ञान का अर्जन - करें पापकर्मों का विसर्जन*
🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔
जय जिनेन्द्र। 7-11-2020
"Paamar" posts by
Dhanesh M Shah,
Hyderabad.
*शक्रस्तव*
~~~~~~~~
महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...
(82)
*घम्मनायगाणं-1*-चारित्रधर्म के नायक परमात्मा को मेरा नमस्कार थाओ।
श्रेष्ठ कोटि के चारित्रधर्म के नायक परमात्मा ही है। इस कारण वो देशना के द्वारा अन्य को चारित्रधर्म देने वाले कहलाते हैं।
इस जगत में धर्म करने वाली आत्माएं तो बहोत है, परन्तु चारित्रधर्म के स्वामी या नायक जिन्हें कह सके, ऐसे तो मात्र अरिहंत भगवंत ही है। क्योंकि नायक कहलाने योग्य जो गुण होने चाहिए वह अरिहंतों में ही होते हैं। इसलिए चारित्रधर्म के नायक परमात्मा ही चारित्रधर्म को देने वाले हैं। ऐसा सच्चे अर्थ में कह सकते हैं।
नायक के मुख्य चार गुण होते हैं,जो इस प्रकार हे।
1.वशीकरण- कोई वस्तु के जो मालिक होते हैं, उनको वह वस्तु संपूर्ण वश में होनी चाहिए। उदाहरण के तौर पे, अरिहंत परमात्मा को उच्चतम चारित्र प्राप्त है। परमात्मा का प्रभाव ऐसा होता है कि उच्चतम चारित्र उनके वश में रहता है।
2.उत्तम धर्म की प्राप्ति- वस्तु के मालिक को मिली हुई वस्तु भी सामान्य नही होनी चाहिए, लेकिन श्रेष्ठ कोटि की होनी चाहिए।
यहां, प्रभु परमात्मा को प्राप्त धर्म उत्तामोत्तम कोटि का होता है, उस तरह वे इस गुण के धारक नायक है।
3.फल भोक्ता- वस्तु का मालिक प्राप्त वस्तु का भोक्ता भी होना चाहिए। यहां, इस गुण के धारक अरिहंत परमात्मा धर्म के परिणाम स्वरूप प्राप्त सारे फल के भोक्ता हैं।
4.विघ्नाभाव- नायक को धर्म में कोई भी प्रकार का विघ्न नहीं आना चाहिए। अर्थात, प्रभु परमात्मा चारित्र रूपी धर्म का पालन बड़ी सरलता कर सकते हैं। इस तरह भी वे सच्चे अर्थ में उसके नायक कहलाते हैं।
*अहो जिनशासनम अहो जिनशासनम*
*शक्रस्तव*
~~~~~~~~
महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...
(83)
*घम्मनायगाणं-2*-चारित्रधर्म के नायक परमात्मा को मेरा नमस्कार थाओ।
गतांक से आगे,
सामान्यतः स्त्री,संपत्ति आदि के नायक तो बहुत होते हैं फिर भी वह स्त्री, संपत्ति के नायक है, ऐसे बहुमान के साथ तब ही कहा जा सकता है, जब वह स्त्री,संपत्ति को हमेशा के लिये अपनी ही बना कर के रख सकते हो।
उपरांत वो स्त्री, संपत्ति आदि सामान्य नहीं अपितु श्रेष्ठ कोटि के प्राप्त हुए हो और वह स्त्री, संपत्ति के उपभोग का सुख पूर्णतया पा सकता हो और अकाल उसका विनाश ना हो ये निश्चित होना चाहिए।
साथ ही उसके उपभोग में किसी भी प्रकार के विघ्न नहीं आने चाहिए ऐसा होना चाहिए।
उसी तरह धर्म के नायक भी उनको ही कहना चाहिए जिनको धर्म वश में हो, अर्थात धर्म जिनको आत्मसाध हुआ हो।
और वो धर्म सामान्य नहीं लेकिन विशिष्ट कोटी का प्राप्त हुआ हो।
फिर वे पूर्णताया धर्म के फल का उपभोग कर सकते हो और उनको प्राप्त हुए धर्म में कभी भी विघ्न न आते हो।
पिछली पोस्ट में धर्मनायक के तीन गुण के नाम देखे, उसी की विस्तृत जानकारी देखें,
1.वशीकरण- कोई भी वस्तु सम्पूर्ण वश में तब ही होती है जब उसको विधि पूर्वक ग्रहण करने में आए। भगवान ने संपूर्ण विधि पूर्वक संयम जीवन का स्वीकार किया है। उन्होंने संयम के पूर्व या बाद में जिस समय पर जो औचित्य है उस औचित्य का पूर्ण रूप से पालन कर के संयम जीवन का वहन किया होता है। और संयम ग्रहण करने के बाद भी उनमें कोई दोष (अतिचार) ना लग जाए उसकी पूर्ण सतर्कता रखी हुई है। संपूर्ण संयम अपने आप आत्मसात होने के बाद ही (फल मिलने के बाद ही) उसको योग्य आत्माओं को भी प्रदान किया हुआ है। और जब-जब अन्य को प्रदान करना होता है तब अन्य मुनियों की तरह उनको किसी के वचन की अपेक्षा रखनी नहीं पड़ती। इस लिए परमार्थ से परमात्मा को धर्म वश में है।
*अहो जिनशासनम अहो जिनशासनम*
*चलें जैनिज़्म की ओर - करें ज्ञान का अर्जन - करें पापकर्मों का विसर्जन*
*शक्रस्तव*
~~~~~~~~
महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...
(84)
*घम्मनायगाणं-3*-चारित्रधर्म के नायक परमात्मा को मेरा नमस्कार थाओ।
गतांक से आगे,
धर्म के नायक के चार गुण का महत्व हम समझ रहे थे।
कल पहला गुण, वशीकरण, हमने देखा।
अब आगे,
2.उत्तमधर्म की प्राप्ति- चारित्रों के असंख्य प्रकार होते हैं। उन सर्व प्रकारों में परमात्मा ने, श्रेष्ठ ऐसा क्षायिक भाव का (यथाख्यात) चारित्र प्राप्त किया हुआ होता है।
यूं तो सामान्य केवली में भी यही चारित्र होता है, परन्तु फिर भी विशिष्ट प्रकार की तथाभव्यता के कारण तीर्थंकर की आत्मा में ये चारित्र इतना विशिष्ट कक्षा का होता है कि वो ईस चारित्र को पा कर विशिष्ट कोटि के परमार्थ को साध सकते हैं। इस कारण पशु-पक्षी जैसे हीन योनि वाले प्राणियों को भी वह धर्म प्राप्त करवा सकते हैं।
3.उत्कृष्ट फल भोक्ता- तीर्थंकर नाम कर्म के उदय से प्राप्त हुई अष्टप्रातिहार्य आदि समृद्धि, वाणी के 35 गुणों, विशिष्ट कोटि के रुप, यश आदि समृद्धि का उपभोग तीर्थंकरों को प्राप्त होता है। इसलिए वह सच्चे अर्थ में धर्म के नायक हैं।
4.धर्म में विघात का अभाव-अरिहंत प्रभु धर्म के नायक है उसका कारण यही है कि उनको प्राप्त हुआ धर्म, अविनाशी है। और उनको निश्चित ही फल देने वाला होता है। ऐसा उनका सर्व से श्रेष्ठ पुण्यबंध प्राप्त किया हुआ है। और उन्होंने पाप कर्म का सर्वथा विनाश किया है। इस कारण अब विघ्न करने वाले कोई तत्व रहे ही नहीं। यूं उनके धर्म में विघात का अवसर ही नहीं। इस तरह ही वह धर्म के नायक भी है।
धम्मनायगाणं, यह पद बोलते हुए, सर्वश्रेष्ठ संयम के स्वामी, अरिहंत परमात्मा को नजर समक्ष ला कर हृदय के भावों से परमात्मा को प्रणाम कर के प्रार्थना करनी है कि हे नाथ!!!! आपको किया हुआ यह नमस्कार हमें भी श्रेष्ठ चारित्र का स्वामी बनाएं।
धर्म के नायक भी जो धर्मरथ के सारथी ना बन सके तो अन्य में चारित्र धर्म को कैसे प्रवर्तित करा सकते हैं, ये हम आगे की पोस्ट्स में देखेंगे।
*अहो जिनशासनम अहो जिनशासनम*
*चलें जैनिज़्म की ओर - करें ज्ञान का अर्जन - करें पापकर्मों का विसर्जन*
🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔
जय जिनेन्द्र। 10-11-2020
"Paamar" posts by
Dhanesh M Shah,
Hyderabad.
*शक्रस्तव*
~~~~~~~~
महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...
(85)
*धम्म-सारहीणं-1*-चारित्रधर्म के सारथी ऐसे परमात्मा को मेरा नमस्कार हो।
रथ का जो कोई सम्यक् प्रकार से प्रवर्तन करें, पालन और दमन (अंकुश) करे वह रथ का सारथी कहलाता है।
उसी तरह जो स्व में और पर में संयम धर्म का प्रवर्तन करे, पालन और दमन करे तो वो संयम रूपी रथ का सारथी कहलाता है।
अरिहंत भगवंत अपने में और अन्य में श्रेष्ठ कोटि के चारित्रधर्म का प्रवर्तन पालन और दमन कर सकते हैं इसलिए वह चारित्रधर्म के सारथी है।
परमात्मा सारथी बनकर धर्म रूपी रथ का प्रवर्तन पालन और दमन किस तरह करते हैं ये देखते हैं।
1. प्रवर्तन- भगवान चारित्र का सम्यक् प्रवर्तन कर सकते हैं उसका मूल कारण उनका विशेष प्रकार का तथाभव्यत्व है ऐसा विशिष्ट तथाभव्यत्व, निकट भविष्य में मोक्ष प्राप्त कराने वाला बनता है।
ऐसे समय में परमात्मा की आत्मा, आत्मभाव के अभिमुख बनती है और उसके कारण वह अपुनर्बन्धक को पातें है और तब ही उनकी तात्विक धर्म की शुरुआत होती है।
उनमें फिर धर्म मार्ग में उत्तरोत्तर सम्यकयत्न बढ़ें और चारित्र मार्ग में उनका प्रवर्तन हो ऐसा सम्यग्ज्ञान प्रगट होता है। ज्ञान से विरती की प्राप्ति होती है। विरतीधर्म के पालन से मोह का नाश होता है। और मोह का नाश होने से ही प्रभु को क्षायिकभाव का चारित्र प्राप्त होता है, जो आत्मा का स्वभावभूत भाव है। यह भाव प्राप्त होने से परमात्मा अपनी आत्मा का संयम धर्म में उपादान भाव से प्रवर्त्तन करते हैं और अन्य आत्माओं को उपदेश आदि द्वारा निर्मित भाव से संयम मार्ग में प्रवर्तित करवा सकते हैं।
*
*शक्रस्तव*
~~~~~~~~
महान सूत्र, *नमुऽत्थु णं* का विशेष विवेचन...
(86)
*धम्म-सारहीणं-2*-चारित्रधर्म के सारथी ऐसे परमात्मा को मेरा नमस्कार हो।
अरिहंत परमात्मा चारित्रधर्म का प्रवर्तन, पालन और दमन करते हैं इस कारण उन्हें सारथी कहा गया है।
वे इस प्रक्रिया को किस तरह निभाते हैं ये हम समझने का प्रयत्न कर रहे हैं।
कल हमने प्रवर्तन को समझा।
आज अब आगे,
पालन- रथ के सम्यग प्रवर्तन का मुख्य मूल जिस तरह उसके अंगभूत अश्वादि का सम्यग् प्रकार से पालन पोषण आदि है। उसी तरह अंतरंग भावचारित्र का प्रवर्तन का मूल उसके अंगभूत महाव्रत, समिति, गुप्ति आदि बाह्य क्रियाओं का सम्यग् पालन है।
परमात्मा भावचारित्र के कारणभूत समिति गुप्ति और महाव्रतों का भी यथायोग्य पालन करते हैं। और उपदेश आदि द्वारा अन्य को भी इस क्रिया में प्रवृत्त करते हैं। इस तरह ही संयम के अंगो का योग्य पालन करना और करने को कहना, इन कारणों से प्रभु सच्चे अर्थ में धर्म के सारथी कहलाते हैं।
दमन- उन्मार्ग में जाते अश्वो का दमन, अर्थात अंकुशित कर के सन्मार्ग में प्रवृत्त कराने वाला सारथी, जिस तरह रथ का सारथी कहलाता है। उसी तरह आत्मधर्म से उन्मुख जाने वाली इंद्रियों और मन को आत्मधर्म में प्रवृत्त करने से प्रभु धर्मरथ के सारथी कहलाते हैं।
वरबोधि की प्राप्ति से प्रारंभ हो कर, परमात्मा आत्मधर्म से विपरीत प्रवर्तन करते मन और इंद्रियों को अटका कर आत्मधर्म से अभिमुख प्रवर्तन कराती है।
इस तरह वे मन और इंद्रियों के निग्रह में विघ्न करने वाले चारित्रमोहनिय कर्मों का नाश कर के अंत में यथाख्यात चारित्र की प्राप्ति तक पहुंच जाते हैं। इस प्रकार उन्होंने उनकी आत्मा का योगदान्त (दमन किया हुआ) है। और अन्य के लिए भी सारथी रूप बन कर ये प्रक्रिया में प्रवृत्त होते हैं।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें