कथा नेमीनाथ

श्री नेमीनाथ परमात्मा :-

सौर्यपुर के अन्धकवृष्णि राजा के दस दशार्ह पुत्रों में वसुदेव तथा समुद्रविजय मुख्य थे।वसुदेव के दो रानियाँ थीं-एक रोहिणी और दूसरी देवकी।

पहली से बलदेव और दूसरी से कृष्ण का जन्म हुआ। समुद्रविजय की रानी का नाम शिवा था, जिसने नेमि भगवान को जन्म दिया।

जब नेमिकुमार आठ वर्ष के हुए तो कृष्ण द्वारा कंस का वध किये जाने पर जरासन्ध को यादवों पर बहुत क्रोध आया। उसके भय से यादव पश्चिम समुद्र तट पर स्थित द्वारका नगरी में जाकर रहने लगे। कुछ समय पश्चात् कृष्ण और बलदेव ने जरासन्ध का वध किया और वे आधे भारतवर्ष के स्वामी हो गये।

नेमिकुमार जब बड़े हुए तो एक बार खेलते-खेलते वे कृष्ण की आयुधशाला में पहुँचे, और वहाँ रखे हुए धनुष को उठाने लगे। आयुधपाल ने कहा, ‘‘कुमार,आप क्यों व्यर्थ ही इसे उठाने का प्रयत्न करते हैं?कृष्ण को छोड़कर अन्य कोई पुरुष इस धनुष को नहीं उठा सकता।’’ परन्तु नेमिकुमार ने आयुधपाल के कहने की कोई परवाह न की। उन्होंने बात की बात में धनुष को उठाकर उस पर बाण चढ़ा दिया, जिससे सारी पृथ्वी काँप उठी।
तत्पश्चात् उन्होंने पांचजन्य शंख फूँका, जिससे समस्त संसार काँप गया।

आयुधपाल ने तुरन्त कृष्ण से जाकर कहा। कृष्ण ने सोचा कि जिसमें इतना बल है वह बड़ा होकर मेरा राज्य भी छीन सकता है,अतएव इसका कोई
उपाय करना चाहिए। कृष्ण ने यह बात अपने भाई बलदेव से कही। बलदेव ने उत्तर दिया, ‘‘देखो,नेमिकुमार बाईसवें तीर्थंकर होनेवाले हैं, और तुम नौवें वासुदेव। नेमि बिना राज्य किये
ही संसार का त्याग कर दीक्षा ग्रहण करेंगे,अतएव डर की कोई बात नहीं है।’’ परन्तु कृष्ण की शंका दूर न हुई।

एक बार की बात है, नेमिकुमार और कृष्ण दोनों उद्यान में गये हुए थे। कृष्ण ने उनके साथ बाहुयुद्ध करना चाहा। नेमि ने अपनी बायीं भुजा फैला दी और कृष्ण से कहा कि यदि तुम इसे मोड़ दो तो तुम जीते।परन्तु कृष्ण उसे जरा भी न हिला सके।

नेमिकुमार अब युवा हो गये थे। समुद्रविजय आदि राजाओं ने कृष्ण से कहा कि देखो,नेमि सांसारिक विषय-भोगों की ओर से उदासीन मालूम होते हैं, अतएव कोई ऐसा उपाय
करो जिससे ये विषयों की ओर झुकें । कृष्ण ने रुक्मिणी, सत्यभामा आदि अपनी रानियों से यह बात कही। रानियों ने नेमि को अनेक उपायों से लुभाने की चेष्टा की, परन्तु कोई असर
न हुआ।कुछ समय बाद कृष्ण के बहुत अनुरोध करने पर नेमिकुमार ने विवाह की स्वीकृति दे दी।उग्रसेन राजा की कन्या राजीमती से उनके विवाह की बात पक्की हो गयी। फिर क्या,
विवाह की धूमधाम से तैयारियाँ होने लगीं।नेमिकुमार कृष्ण, बलदेव आदि को साथ लेकर हाथी पर सवार हो विवाह के लिए आये। बाजे बज रहे थे, शंख-ध्वनि हो रही थी, मंगलगान गाये जा रहे थे और जय-जय शब्दों का नाद सुनाई दे रहा था। नेमिकुमार महाविभूति के साथ विवाह-मण्डप के नजदीक पहुँचे। दूर से ही नेमि के सुन्दर रूप को देखकर राजीमती के हर्ष का पारावार न रहा।इतने में नेमिकुमार के कानों में करुण शब्द सुनाई पड़ा। पूछने पर उनके सारथी ने कहा,‘महाराज, आपके विवाह की खुशी में बाराती लोगों को मांस खिलाया जाएगा।यह शब्द बाड़े में बन्द पशुओं का है।’’नेमिकुमार सोचने लगे, ‘‘इन निरपराध प्राणियों को मारकर खाने में कौन-सा सुख है?’’ यह सोचकर उनके हृदय-कपाट खुल गये, उन्हें संसार से विरक्ति हो गयी।
उन्होंने एकदम अपना हाथी लौटा दिया।घर जाकर उन्होंने अपने माता- पिता की आज्ञापूर्वक दीक्षा ले ली और साधु बनकर रैवतक पर्वत (गिरनार-जूनागढ़) पर वे तप करने लगे।

जब राजीमती को मालूम हुआ
कि नेमिनाथ ने दीक्षा ग्रहण कर ली है, तो उसे अत्यन्त आघात पहुँचा। उसने बहुत विलाप किया,परन्तु उसने सोचा कि इससे कुछ न होगा। अन्त में उसने अपने स्वामी के अनुगमन करने का दृढ़ निश्चय कर लिया।नेमिनाथ के भाई रथनेमि को पता चला कि राजीमती भी दीक्षा की तैयारी कर रही है तो वे उसके पास जाकर उसे समझाने लगे -
‘‘भाभी, नेमि तो वीतराग हो गये हैं, अतएव उनकी आशा करना व्यर्थ है। क्यों न तुम मुझसे विवाह कर लो?’’ राजीमती ने कहा, ‘‘मैं नेमिनाथ की अनुगामिनी बनने का दृढ़ संकल्प कर
चुकी हूँ, उससे मुझे कोई नहीं डिगा सकता।’’एक दिन रथनेमि ने फिर वही प्रसंग छेड़ा। इस पर राजीमती ने उसके सामने खीर खाकर ऊपर से मदनफल खा लिया, जिससे उसे तुरन्त वमन
हो गया। इस वमन को राजीमती ने सोने के एक पात्र में ले उसे अपने देवर के सामने रखकर उसे भक्षण करने को कहा। उसने उत्तर दिया - भाभी, वमन की हुई वस्तु मैं कैसे खा सकता हूँ?
राजीमती - क्या तुम इतना समझते हो?
रथनेमि - यह बात तो एक बालक
भी जानता है।
राजीमती - यदि ऐसी बात है तो फिर तुम मेरी कामना क्यों करते हो? मैं भी तो परित्यक्ता हूँ।
राजीमती ने रैवतक पर्वत पर जाकर भगवान नेमिनाथ के पास दीक्षा ले ली।
कुछ समय बाद रथनेमि ने भी दीक्षा ग्रहण कर ली, और वे साधु होकर उसी पर्वत पर विहार करने लगे।

एक बार की बात है। राजीमती अन्य
साध्वियों के साथ रैवतक पर विहार कर रही थी। इतने में बड़े जोर की वर्षा होने लगी।सभी साध्वियाँ पास की गुफाओं में चली गयीं। राजीमती भी एक सूनी गुफा में आकर खड़ी हो गयी।
संयोगवश रथनेमि साधु भी उसी गुफा में खड़े होकर तप कर रहे थे। अँधेरे में राजीमती ने उन्हें नहीं देखा। वह वर्षा से भीगे हुए वस्त्र उतारकर सुखाने लगी।
राजीमती को इस अवस्था में देखकर
रथनेमि के हृदय में फिर से खलबली मच गयी। उसने राजीमती से प्रेम की याचना की। परन्तु राजीमती का मन डोलायमान न हुआ। वह स्वयं संयम में दृढ़ रही और अपने उपदेशों द्वारा उसने
रथनेमि को संयम में दृढ़ कर दिया।

अरिष्टनेमि को महादेवियों ने मनाया

माता-पिता श्री अरिष्टनेमि से विवाह करने का आग्रह करते, तो वे मौन रह कर टाल देते । जब आग्रह बढ़ा और माता ने कहा-"पुत्र ! तुम तो प्रशान्त हो, प्रशस्त हो
और अलौकिक आत्मा हो, परन्तु विवाह तो करना चाहिये । पूर्वकाल के तीर्थंकर भगवंत भी विवाहित जीवन बिताने और पुत्रादि संतति का पालन करने के बाद प्रवजित हुए थे। यदि अपनी इच्छा से नहीं, तो 'हमारी प्रसन्नता--हमारे मनोरथ पूर्ण करने के लिए ही विवाह कर लो। हमारी यह किंचित् इच्छा भी पूरी नहीं करोगे ?"

"मातुश्री ! आप तो मोह में पड़ कर ऐसी इच्छा कर रही हैं । विवाह के परिणाम को नहीं देखती........नहीं पुत्र ! उपदेश मत दो। मेरे मनोरथ पूरे करो"-पुत्र को बीच में ही रोक कर माता शिवादेवी बोली।

आप मेरी बात सुनती ही नहीं । अच्छा, मैं आपकी आज्ञा की अवहेलना नहीं करता, परन्तु मैं लग्न उसी के साथ करूँगा, जो मुझे प्रिय लगेगी। मैं अपने योग्य
पात्र को स्वयं चुन लूंगा । आपको यह चिन्ता छोड़ देनी चाहिये"- कुमार ने माता को अपनी भावना के अनुरूप गंभीर वचन कहे और माता संतुष्ठ भी हो गई।

श्रीकृष्ण भी अरिष्टनेमि का विवाह करने के प्रयत्न में थे। शिवादेवी ने श्रीकृष्ण से भी कहा था और श्रीकृष्ण भी चाहते थे कि अरिष्टनेमि जैसी महान् आत्मा, कुछ वर्ष
संसार में रहे तो अच्छा । उन्होंने अरिष्टनेमि को मोहित करने का उपाय सोचा और एक दिन उन्हें अपने साथ ले कर अन्तःपुर में आये । दोनों बन्धुओं ने साथ ही भोजन किया। श्रीकृष्ण ने अन्तःपुर के रक्षकों से कहा-"ये मेरे भाई हैं । यदि ये अन्तःपुर में आवें, तो इन्हें आने देना । इन पर किसी प्रकार की रोक नहीं है।" उन्होंने रानियों से कहा-"अरिष्टनेमि मेरे सगे छोटे भाई के समान हैं । तुमने इन्हें कभी अपने यहाँ बुलाया नहीं ?"

-“ये न जाने किस गुफा में रहते हैं। न तो कभी अपनी भाभी से मिलने आते हैं और न कहीं दिखाई देते हैं । अपने होते हुए भी पराये जैसे रहने वाले ये कुछ निर्मोही
होंगे"-सत्यभामा ने कहा ।

'यह अलौकिक आत्मा है । स्नेह-सम्बन्ध से दूर ही रह कर, अपने ही विचारों में मग्न रहते हैं"--श्रीकृष्ण ने कहा ।

-"आपने इनका विवाह नहीं किया, इसी से ये अबोध और निर्मोही रहे हैं । विवाह होने के बाद इनमें रस जाग्रत होगा"--पद्मावती ने कहा।

-"हां, यह बात तो है । अब इनके लग्न कर ही देंगे"-श्रीकृष्ण ने कहा ।

--"मुझे तो ये योगी जैसे अरसिक लगते हैं । नहीं, तो अब तक कुँआरे रहते ?
राजकुमारों के विवाह तो वे स्वयं ही कर लेते हैं । जिस पर मन लगा, उसे छिन लाये, उड़ा लाये और लग्न कर लिये । आप के इतने लग्न किसी दूसरे ने आगे हो कर करवाये
थे क्या ?--रानी जाम्बवती ने श्रीकृष्ण पर कटाक्ष किया।

'अच्छा तो आपने अपना एक तर्क-तीर मुझ पर भी छोड़ दिया। परन्तु बन्धु की आत्मा हम सब से विशिष्ट है । इनके लिये तो हमें ही आगे होना पड़ेगा"-श्रीकृष्ण ने कहा।

अरिष्टनेमि चुपचाप सुन रहे थे। उन्हें इस बात में कोई रुचि नहीं थी। उन्होंने उठते हुए कहा-“अब चलूंगा बन्धुवर !" और चल दिये ।

श्रीकृष्ण ने रानियों से कहा-“वसंत-ऋतु चल रही। उत्सव भी मनाना है ।
मैं नन्दन-वन में इस उत्सव का आयोजन करवाता हूँ। तुम सब मिल कर इस उत्सव में अरिष्टनेमि को विवाह करने के लिये तत्पर बनाओ। वह विरक्त है। इसे किसी प्रकार
मोहित कर के विवाह-बन्धन में बाँध देना है । इसके लिए एक सुलक्षणी परमसुन्दरी और अद्वितीय युवती की भी खोज करनी है। अरिष्टनेमि को रिझा कर अनुकूल बनाना तुम सब का काम है। उसमे सम्पर्क रखती रहो।"

श्रीकृष्ण सभी राजमहिषियों और रानियों सहित बसन्तोत्सव में उपस्थित हुए।
गान-वादन, नृत्य, गीत, पुष्पचयनादि तथा गुलाल अबीर आदि से मनोरञ्जन करने के साथ परस्पर रंग भरी पिचकारियाँ भी चलने लगी । रानियों के झुण्ड ने अरिष्टनेमि को घेर लिया और उन पर सभी ओर से पिचकारियों की मार पड़ने लगी। वे भी हंसते
हुए तदनुकूल बरतने लगे।

स्नानादि से निवृत्त हो कर भोजन किया । गान-तान होता रहा और रात्रिवास वहीं किया । श्रीकृष्ण के संकेत पर महारानी सत्यभामा ने कहा;-"देवरजी!
पुरुष की शोभा अकेले रहने में नहीं है । संसार में जितने भी पुरुष हैं, सब अपनी साथिन बना कर रखते हैं । आपके वंश में भी आपके सिवाय सभी के स्त्री
साथिन है ही । आपके भ्राता और अन्य राजकुमारों के साथ तो अनेक स्त्रियाँ हैं। आपके
इन ज्येष्ठ-बन्धु के कितनी है ? १६०००, अरे नहीं ३२००० । जिन से एक खासी बस्ती बस सकती है और आपके एक भी नहीं ? इस प्रकार अकेले और उदासीन रहना आप जैसे युवक को शोभा नहीं देता।"

'आपका शरीर और शक्ति देखते हुए तो एक ही क्या, सैकड़ों और हजारों वामांगनाएँ होनी चाहिये आपके साथ"-- महादेवी लक्ष्मणा ने कहा ।

"भाभी साहिब ! मैं आप सब के खेल देख रहा हूँ। पराश्रित सुख तो विनष्ट हो जाता है । उधार लिया हुआ धन,  ब्याज सहित लौटाना पड़ता है । पराश्रित सुख में
दुःख का सद्भाव रहता ही है । अपनी आत्मा में रहा हुआ सुख ही सच्चा सुख है । इस सुख-सागर की हिलोरों में, इस वसंतोत्सव से भी अधिकाधिक और स्थायी सुख भरा हुआ है । आप भी यदि आत्मिक सुख का आस्वाद लें, तो आपको यह बसन्तोत्सव निरस लगने लगे '--कुमार अरिष्टनेमि वोले ।

"देवरजी ! आप तो महात्मा बन कर उपदेश देने लगे। यदि हमारी बहिन आपके उपदेश से आप जैसी निरस हो गई, तो आपसे हमारा और आपके भाई साहब का झगड़ा हो
जायगा । इस बहिन को कितनी कठिनाई से लाये हैं-ये आर्यपुत्र । और आप उपदेश देकर अपने जैसी बनाने लग गए । यह कोई न्याय है"--जाम्बवती बोली ।

-" भोजाई साहिबा ! समय आने पर आप स्वयं भी इस भूल-भुलैया से निकल कर वास्तविकता की भूमिका पर आजाएंगी और भाई साहब भी आपको नहीं रोक सकेंगे"-कुमार ने कहा।

"देखो कुंवरजी ! व्यर्थ की बातें छोड़ो और सरलता से विवाह करना स्वीकार कर लो"-सत्यभामा बोली।

"मुझे अपने योग्य साथिन मिलेगी, तो लग्न करने का विचार करूँगा। आपको
संतोष रखना चाहिये"-कुमार बोले ।

"कब तक संतोष रखें ? अच्छा, हम आपको एक महीने का समय देती हैं । इस बीच आप अपने योग्य साथिन चुन लें । अन्था हमें कोई उपयुक्त पात्र खोजना पड़ेगा"--
महादेवी रुक्मिणी बोली।

"बसंत के बाद ग्रीष्मऋतु आई। उष्णता वढ़ने के साथ ही शीतलता को चाह भी बढ़ गई । सूर्य उदय के थोड़ी देर बाद ही गरमी बढ़ने लगी और लोगों के हाथों में
वायु सञ्चालन के लिये पंखे हिलने लगे । अन्तःपुर और कुमार अरिष्टनेमि को अपने साथ ले कर श्रीकृष्ण रैवत गिरि की तलहटी के उद्यान में आये और सरोवर के शीतल जल में सभी के साथ क्रीड़ा करने लगे । अरिष्टनेमि भी अपने ज्येष्ठ-बन्धु और भोजाइयों की इच्छा के आधीन हो कर सरोवर के किनारे बैठ कर स्नान करने लगे। किंतु भोजाइयों को यह स्वीकार नहीं था। उन्हें आज देवर को प्रसन्न कर के विवाह करने की स्वीकृति लेनी थी। श्रीकृष्ण के संकेत से उन्होंने कुमार को सरोवर में खिच लिया और चारों ओर से पानी की मार होने लगी। कुछ रानियाँ कृष्ण के साथ जल में ही घेरा बना कर चारों ओर से पानी को बोछारें करने लगी। कोई कृष्ण के कन्धे से झूम जाती, तो कोई गले में बाँहें डाल कर लटक जाती। थोड़ी देर बाद महारानी सत्यभामा, रुक्मिणी, पद्मावती आदि ने
अरिष्टनेमि को घेर कर कमल-पुष्प युक्त जलवर्षा करने लगी और अनेक प्रकार के उपचार से मोहावेशित करने की चेष्टा करने लगी। किन्तु जिनका मोह उपशान्त है, उन पर क्या प्रभाव हो सकता है ? जलक्रीड़ा समाप्त कर बाहर निकले और वस्त्रादि बदल कर बैठने
के बाद महादेवी सत्यभामा बोली;

"देवरजी ! आपने अपने योग्य साथिन का चुनाव कर लिया होगा ? कहो, कौन है वह भाग्यशालिनी ?"

"भाभी साहिबा ! मेरे तो यह बात ही समझ में नहीं आई कि बिना चाह के ब्याह कैसा?"

-" देवर भाई ! आप तो निरस हैं, किन्तु हम आपको अकेले नहीं रहने देंगी। आपके भाई के हजारों, भतीजी के भी अनेक और आप अकेले डोलते रहें । यह हमारे लिये लज्जा की बात है। हम आज आपको मना कर ही छोड़ेंगी". -सत्यभामा ने कहा।

-" हां, आज हम सब आपको घेर कर बैठती हैं । आओ बहिनों ! देखें यह कब तक नहीं मानेंगे"--पद्मावती ने कहा और सब अरिष्टनेमि को अपने घेरे में ले कर बैठ गई।

"देखो महात्माजी ! पहले भी अनेक महात्मा हुए । भ. ऋषभदेवजी इस अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर थे, किंतु उन्होंने भी लग्न किया था, उनके भी दो पुत्रियां

और सौ पुत्र थे । उनके बाद भी बहुत-से तीर्थंकर संसार के सुख भोग कर दीक्षित हुए। फिर आप ही सर्वथा निरस क्यों रहते हैं -महादेवी जाम्बवती ने पूछा ।

-"बहिन ! इसका रहस्य तुम नहीं जानती। जिस में पुरुषत्व हो, वही विवाह करता है और पत्नी के लिए आकाश-पाताल एक कर देता है, किन्तु जो पुरुषत्व-हीन हो, वह तो स्त्री की छाया से भी डरता है । मुझे तो लगता है कि देवरजी पुंसत्व-हीन हैं, तभी विवाह का नाम लेते ही अधोमुखी हो जाते हैं"--महादेवी रुक्मिणी बोली ।

रुक्मिणी की बात पर अरिष्टनेमि हँस दिये । उनकी हँसी देख कर महादेवी पद्मावती बोली;--

"देखो बहिन ! तुम्हारे मर्मभेदी वचनों ने इनके सुप्त रस को जाग्रत कर दिया है । इनकी यह मुस्कान स्पष्ट ही स्वीकृति दे रही है । अब पूछने की आवश्यकता नहीं
रही"--महादेवी लक्ष्मणा बोली।

श्रीकृष्ण  एक ओर पास ही खड़े सुन रहे थे । उन्होंने आगे बढ़ कर कहा;

"हां, ये विवाह करेंगे । परन्तु इनके अनुरूप कोई अनुपम-सुन्दरी एवं सुलक्षणी युवती का चुनाव तो कर लो।"

"सर्वोत्तम सुन्दरी है--मेरी छोटी बहिन राजमती । उससे बढ़ कर खोज करने पर भी अन्य सुन्दरी आपको नहीं मिल सकेगी"-सत्यभामा ने कहा।

'तुम्हारी बहिन ! हां, अवश्य सुन्दरी होगी। तुम भी क्या कम हो। परन्तु स्वभाव भी तुम्हारे जैसा है क्या"--कृष्ण ने व्यंगपूर्वक महादेवी से पूछा ।

"चलो हटो। यहाँ भी ग्वालिये जैसी बातें"-स्मितपूर्वक घुरती हुई महारानी सत्यभामा  बोली।

"अच्छा, अच्छा, उलझन मिटी । चलो, अब नगर में चलें । मैं कल ही इस सम्बन्ध को जोड़ने का प्रयत्न करूँगा"-श्रीकृष्ण बोले ।

.       *।। श्रीमहावीराय नमः।।*
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*🔸🔸श्री उत्तराध्ययन सूत्र🔸🔸*
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.             *रथनेमीय*
          ( बावीसवां अध्ययन)
              (शेष भाग)
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*तीर्थंकर अरिष्टनेमि के विरक्त एवं प्रव्रजित होने पर राजीमती की दशा––*

    पहले तो राजीमती अरिष्टनेमि कुमार को दूल्हे के रूप में आते देख अतीव प्रसन्न हुई और सखियों के समक्ष हर्षावेश में आकर उनके गुणगान करने लगी। किन्तु ज्योंही उसकी दांयी आंख फड़की, वह अत्यंत उदास और अधीर होकर बोली– 

*☝️"मैं इस अपशकुन से जानती हूं कि मेरे नाथ यहाँ तक पधारे हैं, फिर भी वे वापस लौट जाएंगे, मेरा पाणिग्रहण नहीं करेंगे।*

        जैसे ही नेमि कुमार वापस लौटे, राजीमती अत्यंत शोकातुर एवं मूर्च्छित होकर गिर पड़ी।मन ही मन नेमि कुमार को उपालंभ देने लगी।उसकी सखियों ने बहुत समझाया और अन्य सुन्दर राजकुमारों में से किसी का वरण करने का आग्रह किया, परन्तु राजीमती ने कहा– 

*☝️मैं स्वप्न में भी दूसरे व्यक्ति का वरण नहीं कर सकती।*

    *☝️कुछ ही देर में वह स्वस्थ होकर कहने लगी–*

    सखियों ! वापस लौटकर वे मुझे संकेत कर गये हैं कि पतिव्रता स्त्री का कर्त्तव्य पति के मार्ग का अनुसरण करना है।आज मुझे एक स्वप्न आया था कि कोई पुरुष ऐरावत हाथी पर चढ़कर मेरे घर आया और तत्काल मेरुपर्वत पर चढ़ घया।जाते समय उसने लोगों को चार फल दिये, मुझे भी एक फल दिया। 

*🙏तत्पश्चात राजीमती नेमिनाथप्रभु का ध्यान करती हुई घर में ही रही और उग्र तप करने लगी।वह अहोभाव से नेमिनाथ भगवान के दीक्षा लेने तथा तीर्थस्थापना करने की प्रतिक्षा करने लगी।*
~~~~~~~~~~~~~~~~~~

     *☝️इधर नेमिनाथ के छोटे भाई रथनेमि राजीमती पर आसक्त हो गये।अब वे राजीमती के घर पर आने-जाने लगे।*

*रथनेमि ने कहा––*

 *"देवी ! विशाद मत करो।अरिष्टनेमि वितराग है।वे विषयानुबंध नहीं करते।तुम मुझे स्वीकार करो।मैं जीवनभर तुम्हारी आज्ञा मानूंगा।*

     *🙏भगवती राजीमती का मन काम-भोगों से निर्विण्ण  हो चुका था।उसे रथनेमि की प्रार्थना अयुक्त लगी।*

*रथनेमि को प्रतिबोध देने के लिए*

        *☝️एक बार राजीमती ने मधुघृत संयुक्त पेय पिया और जब रथनेमि आए तब मदनफल खा उल्टी की और रथनेमि से कहा–*

*"इस पेय को पीएं"*

*तब रथनेमि ने कहा–*

*वमन किये गए कौ कैसे पीऊं ?*

*तब राजीमती ने पूछा–*

*क्या तुम यह जानते हो ?*

*रथनेमि ने कहा–*

*इस बात को बालक भी जानता है।*

*तब बोध रूप में राजीमती नै कहा–*

    *☝️यदि  यह बात है तो मैं भी अरिष्टनेमि द्वारा वान्त हूं।मुझे ग्रहण करना क्यों चाहते हो ? धिक्कार है तुम्हें जो वमी हुई वस्तु को पीने की इच्छा करते हो। इससे तो तुम्हारा मरना श्रेयस्कर है।इसके बाद राजीमती ने धर्म कहा।रथनेमि जागृत हुए और आसक्ति से उपरत हुए। राजीमती भी दीक्षाभिमुख हो अनेक प्रकार के तप और उपधानों को करने लगी।*
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    *🙏इथर नेमिनाथ भगवान् दीक्षित होने के बाद 54 दिन तक छद्मस्त अवस्था में अनेक ग्रामों में विचरण करते रहे और फिर रैवताचल* (रेवतक) *पर्वत पर आए। वहां प्रभु तेले का तप करके शुक्ल-ध्यान में मग्न हो गये।उस समय उनको केवलज्ञान प्राप्त हुआ। सभी इन्द्र अपने-अपने देवगणों के साथ वहाँ आए।मनोहर समवसरण की रचना की।प्रभु ने धर्मदेशना दी।प्रभु को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ जानकर बलभद्र, श्रीकृष्ण, राजीमती, दशार्ह आदि यादवगण तथा अन्य साधारण जन रैवतक पर्वत पर पहुंचे।वन्दन करके यथायोग्य स्थान पर बैठकर धर्मदेशना सुनी।अनेक राजाओं, साधारण जनों तथा महिलाओं ने प्रतिबुद्ध होकर दीक्षा ग्रहण की।अनेकों ने श्रावक के व्रत स्वीकार किये।तत्पश्चात रथनेमि ने विरक्त होकर दीक्षा ली तथा राजीमती ने भी अनेक कन्याओं सहित दीक्षा ग्रहण की। स्वयं दीक्षित होने के बाद शीलवती एवं बहुश्रुत साध्वी राजीमती जी ने उस द्वारकापुरी में सात सौ स्वजन और परजन स्त्रियों को दीक्षित किया।*
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    *☝️एक बार भगवान् अरिष्टनेमि रैवतक पर्वत पर समवसृत थे।अनेक साध्वियों के साथ साध्वी राजीमती प्रभु के दर्शन-वंदनार्थ उसी रैवतक पर्वत की ओर जा रही थी।अचानक ही रास्ते में वर्षा प्रारम्भ हो गयी।अन्धेरा छा गया था।साथ वाली सभी साध्वियां इधर-उधर गुफाओं में चली गई।राजीमती भी एक गुफा में चली गई।*
(उस गुफा को आज भी राजीमती गुफा कहा जाता है)

 *☝️उस गुफा में मुनि रथनेमि पहले से ही बैठे हुए थे।राजीमती को यह ज्ञात नहीं था।गुफा में अन्धकार व्याप्त था।साध्वी राजीमती ने अपने कपड़े सुखाने हेतु फैलाए।*

      *☝️गुफा के अंदर पहले से बैठे मुनि रथनेमि ने  राजीमती को अपने वस्त्रों को फैलाते हुए यथाजात रूप में देखा, देखकर उनका चित्त विचलित सा हो गया।फिर राजीमती ने भी उन्हें देख लिया।*

        *☝️वहां एकान्त में उस संयत को देखकर राजीमती भयभीत हो गई। भय से कांपते हुए राजीमती ने अपने दोनों हाथों से वक्षस्थल को आवृत्त किया और वहीं पर बैठ गई।*

*मुनि रथनेमि ने कहा–*

*"हे भद्रे !  हे ! सुन्दरी !*

*मैं रथनेमि हूँ।*

*हे मधुरभाषिणी ! तू मुझे पति रूप में स्वीकार कर।*

*हे सुतनु ! ऐसा करने से तुझे कोई पीड़ा नहीं होगी।और यह भी कहा–*

*"निश्चित ही मनुष्य जन्म अतिदुर्लभ है।आओ हम भोग को भोगें।भुक्तभोगी होकर उसके पश्चात हम सर्वविरतिचारित्र का आचरण करेंगे।"*

    *☝️ रथनेमि को संयम में उत्साहहीन और भोगों में पराजित देखकर राजीमती संभ्रांत नहीं हुई।उसने वहीं अपने शरीर को वस्त्रों से ढ़क लिया।उसने मुनि रथनेमि को इस प्रकार कहा–*

*हे रथनेमि !*

*यदि तुम रूप में वैश्रमण* (कुबेर) *से होओ,*

*लीला-विलास में नलकुबर देव जैसे होओ,*

*और तो क्या, तुम साक्षात् इन्द्र भी होओ,*

*तो भी मैं तुम्हें नहीं चाहती।*

    *☝️अगन्धन कुल में उत्पन्न सर्प भी ज्वलित, विकराल, धूमशिख– अग्नि में प्रवेश कर जाते हैं परन्तु*(जीने के लिए) *वमन किये हुए विष को वापस पीने की इच्छा नहीं करते।*

    *☝️हे अपयश के कामी ! धिक्कार है तुझे कि–*

*तू भोगजीवन के लिए वमन किये त्यागे हुए भोगों का फिर से उपभोग करने की इच्छा करता है।इससे तो तुम्हारा मर जाना अच्छा है।*

    *☝️मैं भोजराज के पुत्र उग्रसेन की पुत्री हूँ और तूम अंधकवृष्णि के पुत्र समुद्रविजय के पुत्र हो,*

*☝️गन्धक कुल के सर्प की भाँति न बनो, पर तुम स्थिरचित्त होकर संयम का पालन करो।*

     *☝️यदि तू स्त्रियों को देखकर उनके प्रति इस प्रकार राग-भाव करते रहोगे,  तो वायु से प्रकम्पित हड नामक निर्मूल वनस्पति की तरह अस्थिर चित्त वाले हो जाओगे।*

      *☝️तू क्रोध, मान, माया और लोभ को सब प्रकार से निग्रह कर तथा पाँचों इन्द्रियों को वश में करके अपनी आत्मा को 17 असंयम से हटाकर संयम में स्थिर कर।*

     *🙏उस संयती*(साध्वी राजीमती) *के सुभाषित वचनों को सुनकर रथनेमि*(श्रमण) *धर्म में वैसे ही सुस्थिर हो गये,  जैसे अंकुश से एक पांव पर खड़ा हाथी वश में हो गया था।*(अंकुश से हाथी के वश में होने की घटना नीचे अलग से प्रसंगवश प्रस्तुत की जा रही है)

   *🙏 मन, वचन और काया से गुप्त होकर,  इन्द्रियों को जीतकर रथनेमि मुनि व्रतों में सुदृढ़ हो गये।फिर जीवनपर्यंत निश्चल भाव से श्रमणधर्म का पालन करते रहे।उग्र संयम तपश्चरण करके*(चार घाति कर्म क्षय करके) *राजीमती और रथनेमि दोनों ही केवलज्ञानी हो गये।फिर शेष चार अघाती कर्म क्षय करके वे अनुत्तर सिद्धि = मुक्ति को प्राप्त हो गए।*

 *🙏भगवान् रथनेमि की कुल आयु 901 वर्ष*

*400 वर्ष गृहस्थपर्याय में रहे।*

*1 वर्ष छद्मावस्था में रहे और..*

*500 वर्ष केवलीपर्याय में रहे।*

*🙏इतनी ही आयु तथा कालमान राजीमती का था।*

*🙏अरिष्टनेमि ने राजीमती को प्रतिबुद्ध किया*

*🙏राजीमती ने रथनेमि को प्रतिपात से बचाया*

*🙏भृगु पुरोहित ने यशा पत्नी को समझाया*

*🙏कमलावती रानी ने इषुकार राजा को विरक्त बनाया।*

*☝️यों अनादिकाल से ही स्त्री-पुरूष एक दूसरे को, प्रतिबुद्ध और स्थिर करते आये हैं।*

*है वही सूरमां इस जग में*

*जो अपनी राह बनाता है,*

*कोई चलता पदचिन्हों पर*

*कोई पदचिन्ह बनाता है।*

*🙏महासती राजीमती के द्वारा रथनेमि को दिया हुआ बोध इतना तेजस्वी एवं प्रभावशाली है कि युगों-युगों तक पथभ्रष्ट होते हुए साधक को आज भी प्रेरणा देने वाला है।रथनेमि जैसे हजारों साधकों के लिए प्रेरणादायक होने से इस अध्ययन का रथनेमीय नाम सार्थक है।*

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*अंकुसेण जहा नागो––*

       *☝️जैसे अंकुश से एक पांव पर खड़ा हाथी पुनः यथास्थिति में आ जाता है।*
(इस विषय में प्राचीन आचार्यों ने नूपुरपण्डित का आख्यान प्रस्तुत किया है)

       *👉किसी राजा ने नूपुरपण्डित का आख्यान पढ़ा।उसे पढ़ते ही रुष्ट होकर उसने रानी, महावत और हाथी को मारने का विचार कर लिया।राजा ने इन तीनों को एक टूटे हुए पर्वतशीखर पर चढ़ा दिया और आदेश दिया कि इस हाथी को यहाँ से नीचे धकेल दो।*

        *☝️निरुपाय महावत ने ज्यों ही हाथी को प्रेरणा दी कि हाथी क्रमशः अपने तीनों पैर आकाश की ओर उठा कर सिर्फ एक पैर से खड़ा हो गया, फिर भी राजा का रोष न मिटा।*

        *☝️नागरिकों को जब राजा के इस अकृत्य का पता चला तो उन्होंने राजा से प्रार्थना की–*

*🙏महाराज ! चिन्तामणि के समान इस दुर्लभ हाथी को क्यों मरवा रहे हैं ? बेचारे इस पशु का क्या अपराध है ?*

   *इस पर राजा ने महावत से पूछा–*

*☝️क्या हाथी को वापस लौटा सकते हो ?*

*महावत ने कहा–*

*☝️अगर आप रानी को तथा मुझे अभयदान दें तो मैं वेसा कर सकता हूँ।*

 👉 *राजा ने तथास्तु कहा। तब महावत ने अपने अंकुश से हाथी को धीरे-धीरे लौटा लिया।*

 *🙏इसी तरह राजीमती ने भी संयम से पतित होने की भावना वाले रथनेमि को अहितकर पथ से धीरे-धीरे वचन रूपी अंकुश से लौटा कर चारित्रधर्म में स्थापित किया।*

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