कथा बाहुबली
भगवान बाहुबली जी:-
प्रथम तीर्थंकर भगवंत युगादिदेव श्री ऋषभदेव प्रभु के सौ पुत्र में से, सबसे बड़े पुत्र, श्री भरत चक्रवर्ती से छोटे पुत्र, श्री बाहुबली । पूर्व भवे, साधु-मुनियों की असाधारण वैयावच्च करने की वज़ह से उन्हें असाधारण बाहुबल मिला था, जिससे, वह चक्रवर्ती पर भी जो मुष्ठि का प्रहार करें, तो वह भी धराशायी हो जाये।
आदिनाथ दादा के द्वारा बांटे गये राज्यो में से तक्षक्षिला का राज्य, बाहुबली जी के जिम्मे आया था, जहां वह राज करते थे।
चक्रवर्ती की मर्यादा को अनुसर के, "सभी राजाओं को अपने छत्र-छायां के नीचे लेना, और ना आये तो युद्ध करके भी, उन्हें जीत कर, अपनी छत्र-छायां मे लेना", इस अनुसार, भरत चक्री और बाहुबली जी, दोनों के बीच युद्ध हुआ ।मारने की क्रिया में, विषधारी सर्प के विष की तरह चक्री के पास अमोघ अस्त्र - एक चक्र ही था । अब उसके जैसा दूसरा अस्त्र नहीं होने की वज़ह से, द्वंद युद्ध हुआ और बाहुबली जी, भरत को और चक्र को अपनी मुष्ठि द्वारा मसल डालने, भरत चक्री की और.दौड़े, परंतु, भरत के नज़दीक आने पर, अचानक वह रुक गये और यह महासत्सव अपने चित्त में सोचने लगे, "अहो । यह चक्रवर्ती की तरह मैं भी, राज्य से लुब्ध हो कर, बड़े भाई का वध करने के लिये तैयार हुआ हूँ, एक शिकारी से भी अधम पापी हूँ मैं।
जिससे, प्रथम भाई और भतीजो को मार डालना पड़ता है, ऐसे शाकिनी के मंत्रों की तरह राज्य के लिये यत्न कौन करें ?
राज्यश्री प्राप्त होती है और इच्छानुसार उसे भोगता है, तो भी, मदिरापानी पुरुष को मदिरा से जैसे तृप्ति नहीं होती है, वैसे राजाओं को भी, "संतोष नहीं होता है"।
आराधना करने के बाद भी अल्प छल को पाकर, क्षुद्र देवता की तरह, राज्यलक्ष्मी, क्षणभर में, पराड्मुखी हो जाती है। अमावस्या की रात्रि की तरह, वह बहुत ही तम (अंधकार वाली) होती है ।
उस पिता का मैं पुत्र, जिन्होंने, ऐसी दुष्टाचरण वाली लक्ष्मी का तृण की तरह त्याग किया । इसलिए, यह राजलक्ष्मी का तो सर्वथा त्याग ही करने योग्य है ।
और तब, बाहूबली जी रुक गये, परंतु, एक बार उठायी मुष्ठि वापिस मुड़ती नहीं है, इसलिए उन्होंने, उपरोक्त लिखें अपने भावों का आदर रखते हुए, भरत चक्री को यह कह कर, कि, "हे भ्राता, हे क्षमानाथ, सिर्फ राज्यों के लिये, शत्रु की तरह आपको खेद पहुंचाया, क्षमा करें ।
इस संसार रुपी बड़े द्रह में, तंतुपास जैसे भाई, पुत्र और कलत्रादिक से तथा राज्य से भी अब मेरा कोई हेतु नहीं है, मैं तो अब तीन जगत के नाथ, स्वामी और विश्व को अभयदान देने में एक सदाव्रतवाले, पिताजी के मार्ग पर पंथरुपी प्रवर्ती करुंगा ।
ऐसा कह कर, बाहुबली जी ने, उस मुष्ठि को, अपने ही मस्तिष्क पर ले जाकर, स्वयं के केश लोच कर दिये, तभी देवताओं ने, साधु, ऐसा साधु कह कर, पुष्पों की वृष्टि की।
बाहुबली जी केश लोच कर, वहां अड़ग ध्यानमयी मुद्रा में, एक वर्ष तक सिर्फ इसलिए खड़े रहकर, कठिन साधना करते रहें, ताकि, उनकी इस साधना से, उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हो जाये और इसी केवलज्ञान की प्रप्ति के बाद ही, वह प्रभु आदिनाथ दादा को दर्शन-वंदन, चरणकमलों में, जाने का निर्णय लिये थे । यह निर्णय लेने के पीछे का कारण, उनके ह्रदय में उठा मानरुपी प्रश्न था कि, मैं आयु में बड़ा होकर, अपने से आयु में छोटे ९८ भाई, जिन्होंने उनसे पहले दिक्षा ली थी, और, ऐसे वह सभी, बाहुबली जी से पद में बड़े थे, तो उन सभी को, वंदन करना पडेगा, और, यही अहंकार-रुपी प्रश्न, कि ऐसा वह कैसे कर सकते है, बाहुबली जी के ह्रदय मेें अंकित हो गया था।
अपूर्व ध्यान साधना से, बाहुबली जी, केवलज्ञान के बहुत नज़दीक आ गये थे, पर, छोटे भाई को वंदन कैसे करुं ? इसी सवाल पर, उनको केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं हो पा रही थी ।
प्रभु के आदेश से, बाहुबली जी की दो बहने, ब्राह्मी और सुंदरी, बाहुबली जी को, प्रतिबोधित करने आयी और बोली :
"हे ज्येष्ठार्य। भगवान ऐसे हमारे पिताजी हमारे मुख से ऐसा कहलवाते है कि, हस्ति के स्कंध पर आरुड्ढ हुए पुरुषों को केवलज्ञान नहीं होता है ।
हे वीरा । गज़ से नीचे उतरो, गज़ चढ़े केवल की प्राप्ति नहीं होती ।
यह सुनते ही, बाहुबली जी को अपनी भूल का एहसास हुआ, और समझ गये कि, दोनों बहने जो अब साध्वी जी बनी है, उन्होंने आकर, अभिमान रुपी हाथी से नीचे उतरने का प्रतिबोध करके गई है ।
प्रतिबोध पा कर, जैसे ही बाहुबली जी ने अपना पहला कदम उठाया, उनके घाति कर्मों का क्षय हुआ और उन्हें, केवलज्ञान की प्राप्ति हुई ।
तब वह प्रभु के पास, केवली पर्षदा में पधारे और फिर, विहार करते करते, अपनी आयु संपूर्ण करके, बाकि के चार अघाति कर्मों का क्षय करके, मोक्ष सिधारे ।
इस द्रष्टांत से यही सार कि,इतने बाहु- बली होने के तत्पश्च्यात, बाहुबली जी ने, अपने विवेक बोध को नहीं खोने दिया और भ्राता के प्रति विनय, सम्मान रखते हुए, अपने में श्रेष्ठ बल होते हुए भी, अंतत: युद्ध से पीछे मुड़कर, उन्होंने राज्यलक्ष्मी का परित्याग किया और वैराग्य को धारण किया।
परंतु, उनका एक छोटा सा मानरुपी अहंकार उनके लिये फिर भी बाधारुप बना, कि मैं बड़ा और मैं अपने से आयु में छोटे भाई को वंदन कैसे करुं जिस अहंकार के कारण उन्हें केवलज्ञान प्राप्त नहीं हो रहा था, वह केवलज्ञान, एकदम से, सम्यक विचारों से सही दिशा में, एक कदम बढ़ाने मात्र से ही प्राप्त हुआ, जब उन्होंने उस मिथ्यात्व के अहंकार का, त्याग किया ।
हम भी, जो यही अनुसरे, तो, हमारी भी मुक्ति दूर नहीं ।
जिनाज्ञा विरुद्ध कुछ लिखा गया हो तो, मन, वचन, काया से त्रिविधे मिच्छामी दुक्कड़ं । 🙏🏻
प्रथम तीर्थंकर भगवंत युगादिदेव श्री ऋषभदेव प्रभु के सौ पुत्र में से, सबसे बड़े पुत्र, श्री भरत चक्रवर्ती से छोटे पुत्र, श्री बाहुबली । पूर्व भवे, साधु-मुनियों की असाधारण वैयावच्च करने की वज़ह से उन्हें असाधारण बाहुबल मिला था, जिससे, वह चक्रवर्ती पर भी जो मुष्ठि का प्रहार करें, तो वह भी धराशायी हो जाये।
आदिनाथ दादा के द्वारा बांटे गये राज्यो में से तक्षक्षिला का राज्य, बाहुबली जी के जिम्मे आया था, जहां वह राज करते थे।
चक्रवर्ती की मर्यादा को अनुसर के, "सभी राजाओं को अपने छत्र-छायां के नीचे लेना, और ना आये तो युद्ध करके भी, उन्हें जीत कर, अपनी छत्र-छायां मे लेना", इस अनुसार, भरत चक्री और बाहुबली जी, दोनों के बीच युद्ध हुआ ।मारने की क्रिया में, विषधारी सर्प के विष की तरह चक्री के पास अमोघ अस्त्र - एक चक्र ही था । अब उसके जैसा दूसरा अस्त्र नहीं होने की वज़ह से, द्वंद युद्ध हुआ और बाहुबली जी, भरत को और चक्र को अपनी मुष्ठि द्वारा मसल डालने, भरत चक्री की और.दौड़े, परंतु, भरत के नज़दीक आने पर, अचानक वह रुक गये और यह महासत्सव अपने चित्त में सोचने लगे, "अहो । यह चक्रवर्ती की तरह मैं भी, राज्य से लुब्ध हो कर, बड़े भाई का वध करने के लिये तैयार हुआ हूँ, एक शिकारी से भी अधम पापी हूँ मैं।
जिससे, प्रथम भाई और भतीजो को मार डालना पड़ता है, ऐसे शाकिनी के मंत्रों की तरह राज्य के लिये यत्न कौन करें ?
राज्यश्री प्राप्त होती है और इच्छानुसार उसे भोगता है, तो भी, मदिरापानी पुरुष को मदिरा से जैसे तृप्ति नहीं होती है, वैसे राजाओं को भी, "संतोष नहीं होता है"।
आराधना करने के बाद भी अल्प छल को पाकर, क्षुद्र देवता की तरह, राज्यलक्ष्मी, क्षणभर में, पराड्मुखी हो जाती है। अमावस्या की रात्रि की तरह, वह बहुत ही तम (अंधकार वाली) होती है ।
उस पिता का मैं पुत्र, जिन्होंने, ऐसी दुष्टाचरण वाली लक्ष्मी का तृण की तरह त्याग किया । इसलिए, यह राजलक्ष्मी का तो सर्वथा त्याग ही करने योग्य है ।
और तब, बाहूबली जी रुक गये, परंतु, एक बार उठायी मुष्ठि वापिस मुड़ती नहीं है, इसलिए उन्होंने, उपरोक्त लिखें अपने भावों का आदर रखते हुए, भरत चक्री को यह कह कर, कि, "हे भ्राता, हे क्षमानाथ, सिर्फ राज्यों के लिये, शत्रु की तरह आपको खेद पहुंचाया, क्षमा करें ।
इस संसार रुपी बड़े द्रह में, तंतुपास जैसे भाई, पुत्र और कलत्रादिक से तथा राज्य से भी अब मेरा कोई हेतु नहीं है, मैं तो अब तीन जगत के नाथ, स्वामी और विश्व को अभयदान देने में एक सदाव्रतवाले, पिताजी के मार्ग पर पंथरुपी प्रवर्ती करुंगा ।
ऐसा कह कर, बाहुबली जी ने, उस मुष्ठि को, अपने ही मस्तिष्क पर ले जाकर, स्वयं के केश लोच कर दिये, तभी देवताओं ने, साधु, ऐसा साधु कह कर, पुष्पों की वृष्टि की।
बाहुबली जी केश लोच कर, वहां अड़ग ध्यानमयी मुद्रा में, एक वर्ष तक सिर्फ इसलिए खड़े रहकर, कठिन साधना करते रहें, ताकि, उनकी इस साधना से, उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हो जाये और इसी केवलज्ञान की प्रप्ति के बाद ही, वह प्रभु आदिनाथ दादा को दर्शन-वंदन, चरणकमलों में, जाने का निर्णय लिये थे । यह निर्णय लेने के पीछे का कारण, उनके ह्रदय में उठा मानरुपी प्रश्न था कि, मैं आयु में बड़ा होकर, अपने से आयु में छोटे ९८ भाई, जिन्होंने उनसे पहले दिक्षा ली थी, और, ऐसे वह सभी, बाहुबली जी से पद में बड़े थे, तो उन सभी को, वंदन करना पडेगा, और, यही अहंकार-रुपी प्रश्न, कि ऐसा वह कैसे कर सकते है, बाहुबली जी के ह्रदय मेें अंकित हो गया था।
अपूर्व ध्यान साधना से, बाहुबली जी, केवलज्ञान के बहुत नज़दीक आ गये थे, पर, छोटे भाई को वंदन कैसे करुं ? इसी सवाल पर, उनको केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं हो पा रही थी ।
प्रभु के आदेश से, बाहुबली जी की दो बहने, ब्राह्मी और सुंदरी, बाहुबली जी को, प्रतिबोधित करने आयी और बोली :
"हे ज्येष्ठार्य। भगवान ऐसे हमारे पिताजी हमारे मुख से ऐसा कहलवाते है कि, हस्ति के स्कंध पर आरुड्ढ हुए पुरुषों को केवलज्ञान नहीं होता है ।
हे वीरा । गज़ से नीचे उतरो, गज़ चढ़े केवल की प्राप्ति नहीं होती ।
यह सुनते ही, बाहुबली जी को अपनी भूल का एहसास हुआ, और समझ गये कि, दोनों बहने जो अब साध्वी जी बनी है, उन्होंने आकर, अभिमान रुपी हाथी से नीचे उतरने का प्रतिबोध करके गई है ।
प्रतिबोध पा कर, जैसे ही बाहुबली जी ने अपना पहला कदम उठाया, उनके घाति कर्मों का क्षय हुआ और उन्हें, केवलज्ञान की प्राप्ति हुई ।
तब वह प्रभु के पास, केवली पर्षदा में पधारे और फिर, विहार करते करते, अपनी आयु संपूर्ण करके, बाकि के चार अघाति कर्मों का क्षय करके, मोक्ष सिधारे ।
इस द्रष्टांत से यही सार कि,इतने बाहु- बली होने के तत्पश्च्यात, बाहुबली जी ने, अपने विवेक बोध को नहीं खोने दिया और भ्राता के प्रति विनय, सम्मान रखते हुए, अपने में श्रेष्ठ बल होते हुए भी, अंतत: युद्ध से पीछे मुड़कर, उन्होंने राज्यलक्ष्मी का परित्याग किया और वैराग्य को धारण किया।
परंतु, उनका एक छोटा सा मानरुपी अहंकार उनके लिये फिर भी बाधारुप बना, कि मैं बड़ा और मैं अपने से आयु में छोटे भाई को वंदन कैसे करुं जिस अहंकार के कारण उन्हें केवलज्ञान प्राप्त नहीं हो रहा था, वह केवलज्ञान, एकदम से, सम्यक विचारों से सही दिशा में, एक कदम बढ़ाने मात्र से ही प्राप्त हुआ, जब उन्होंने उस मिथ्यात्व के अहंकार का, त्याग किया ।
हम भी, जो यही अनुसरे, तो, हमारी भी मुक्ति दूर नहीं ।
जिनाज्ञा विरुद्ध कुछ लिखा गया हो तो, मन, वचन, काया से त्रिविधे मिच्छामी दुक्कड़ं । 🙏🏻
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