बड़ीसाधुवंदना 11
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#बड़ीसाधुवंदना - 108
पद्मावती मयणरेहा , द्रौपदी दमयंती सीत ।
इत्यादिक सतियाँ, गईं जन्मारो जीत ।। 106 ।।
जिनशासन को हम कितना महान देखे, जाने समझे!!
इतने सारे महान पात्र यहां हो गये जिनकी गाथा का वर्णन भी हम अपनी मर्यादा से पूरा नही कर पाते। तो उनका चारित्र उन महान हस्तियों ने कैसे जिया व निभाया होगा।?
आचार्य जयमलजी महाराजसाहेब का हमपर यह अनहद या अतुल्य उपकार है , जो इस स्तुति में इतने नामो को उजागर किया, उनकी जीवन चरित्र पढ़कर हम हमारे धर्म मार्ग में आगे बढ़ सके। उस स्तुति के माध्यम से रोजाना हम इनके गुणो को वन्दन नमन कर सके।
ऊपर की गाथा में उन महान सतीरत्नो के उत्कट चारित्र्य गुणो को नमन है जिनका वर्णन सिर्फ जैनागमों में ही नही पर वैदिक शास्त्रों में भी अत्यंत सन्मान के साथ किया गया है।बस
एक ही शब्द नीकलता है हृदय की गहराई से,
अहो, अहो, धन्य है जिनशासन !
पद्मावतीजी : - 1
चेटकराजा की द्वीतीय पुत्री पद्मावतीजी । इनका विवाह चंपानगरी के राजा दधिवाहन से हुआ था। ये वही दधिवाहन राजा है , जिनकी एक रानी अभया ने सुदर्शन श्रावक पर शीलभंग का मिथ्या आरोप लगाया था और सुदर्शन श्रावक के शील के प्रभाव से उन्हें जिस शूली पर चढ़ाया जा रहा था वह सिंहासन में परिवर्तित हो गई थी।
चंपानगरी के इसी राजा दधिवाहन की एक रानी धारिणी ने शत्रु आक्रमण के समय रथीक से अपने शील की रक्षा व अपनी पुत्री वसुमतीजी को शीलभंग से बचने की शिक्षा देते हुए अपनी जिव्हा काटकर अपने प्राण त्याग दिए थे। वही बालिका राजकुमारी ने आगे चलकर वीरप्रभु की प्रथम शिष्या व 36000 साध्वियों के गण प्रमुखा आर्या चन्दनबाला जी बनी।
उन्हीं दधिवाहन की रानी पद्मावतीजी। विवाह पश्चात रानी गर्भवती बनी। गर्भावस्था में रानी को एक दोहद उत्पन्न हुआ।
दोहद : - गर्भावस्था में स्त्री को जो अलग अलग इच्छा होती है उन्हें दोहद कहा जाता है। यह गर्भका भी प्रभाव भी हो सकता है। जैन इतिहास में इसका वर्णन बहुत सुनने पढ़ने में आता है। उन दोहद को पूरा करने की कोशिश भी पूर्णतः की जाती है। ताकि गर्भिणी स्त्री को आनन्द प्राप्त हो और स्वस्थ पुत्र को जन्म दे सके । जैसे श्रेणिक राजा का पूर्वभव के वैरी सेनक तापस का जीव श्रेणिक की ही रानी चेलना के गर्भ में आया , तब चेलना को श्रेणिक राजा के कलेजे का मांस खाने का दोहद हुआ था। जैन धर्मानुरागी, पति परायणा, अहिंसक जैन धर्म मे अनुरक्त चेलना को ऐसे घातक दोहद के होने से उसी समय पता चल गया था कि गर्भ में वैरी पुत्र , पिता का घातक बनेगा। इसी लिए चेलना ने दोहद की बात किसी को बताई नही ।पर किसी तरह श्रेणिक को यह पता चल ही गया। अभयकुमार ने अपनी तीक्ष्ण बुद्धि से श्रेणिक को नुकसान पहुंचाए बिना चेलना रानी का दोहद पूर्ण करवाया था। चेलना ने अमंगल समझकर पुत्र कोणिक के जन्म के समय ही उसका त्याग कर दिया था। पर श्रेणिक की उदारता थी कि वह कोणिक को वापिस ले आया।
रानी पद्मावतीजी को भी कुछ विचित्र दोहद उत्पन्न हुआ। राजा का वेश पहनकर, राजा के सभी चिह्न धारण कर हाथी पर बैठकर वह नगर में घूमते हुए वन में क्रीड़ा करने जाए। राजा स्वयं उनके चामर ढोले। ऐसे अजीब दोहद को रानी राजा को बता न पाए। पर मन की दुविधा, दोहद की अपूर्ति से वह खिन्न रहने लगी। उन्हें अस्वस्थ देखकर राजा ने अति आग्रह से पूछा तो रानी को उस दोहद की बात बतानी पड़ी।
अब राजा क्या करेगा?
ऐसा दोहद पूरा करेंगे ?
#बड़ीसाधुवंदना - 109
पद्मावती मयणरेहा , द्रौपदी दमयंती सीत ।
इत्यादिक सतियाँ, गईं जन्मारो जीत ।। 106 ।।
अब राजा क्या करेगा?
ऐसा दोहद पूरा करेंगे ?
#पद्मावतीजी 2
राजा ने बड़ी उदारता के साथ इस दोहद को पूर्ण करवाने का मन बनाया। तैयारियां की गई। बिल्कुल रानी की इच्छा की तरह रानी राजा के वेश व राजचिह्न धारण कर हाथी पर बैठी। राजा साथ बैठे हुए चामर ढोल रहे थे। चारो ओर सैनिक थे। यह सवारी नगर में घूमने लगी। नगर में पहले ही सूचना कर दी गई थी। प्रजा इस अनोखी सवारी व राजा की उदारता देखकर हर्षित हुई। रानी अपने दोहद की पूर्ति से संतुष्ट थी। नगर से होते हुए यह सवारी भृमण के लिए वन में निकली।
कुछ दूर वन में जाते ही अचानक हाथी को जाने क्या हुआ वह मदोन्मत्त बन गया। सूंढ़ ऊँचीकर जोर से चिंघाड़ की। और तीव्र गति से भागने लगा। महावत को भी गिरा दिया। सब सैनिकों को पीछे छोड़कर वह हाथी वन में भागने लगा। अचानक आई विपत्ति को देखकर हाथी पर बैठे हुए राजारानी स्तब्ध रह गए। राजा तुरन्त संभल गये वह अकेले होते तो कूदकर प्राण बचा लेते।पर साथ ही गर्भवती रानी भी थी। उनके प्राणों की रक्षा भी जरूरी थी। हाथी के मार्ग में आनेवाले वटवृक्षो को देखकर राजा ने जल्दी से उपाय ढूंढ लिया। रानी को कहा : - याबा जैसे ही कोई विशाल वटवृक्ष की लंबी शाखा दिखे तो हम उसे पकड़कर अपने प्राण बचा लेंगे। रानी भी श्रम गई थी। उसने राजा को अनुमति दी। जैसे एक अच्छा वृक्ष दिखा रानी ने राजा ने रानी को वह वृक्ष की शाखा पकड लेने को कहा। वृक्ष नजदीक आया , राजा ने वृक्ष की शाखा पकड़ ली। और शाखा पकड़कर नीचे उतर गए। पर रानी शाखा नही पकड़ पाई। राजा भी अब पीछे छूट गए । हाथी अभी भी भाग रहा था। मन मे अरिहंतो का , नवकार महामंत्र का स्मरण करती रानी हाथी के ऊपर रही इस विपत्ति से बचने की प्रार्थना करने लगी।
काफी लंबे समय तक हाथी अनजान वन में भागता रहा। रात्री भी होकर पूर्ण होने आए। अब हाथी थक चुका था। एक जलाशय देखकर पानी पीने रणक गया। तब रानी नीचे उतर गई।
अब वन में भयभीत हिरनी की माफिक वह घूमन लगी। अनजान मार्ग में वह जाए भी तो कहां!!
घूमते घूमते एक ग्राम में पहुंची। वहां कुछ साध्विजियो का संघ भी था। उन्होंने रानी को आश्वासन व आश्रय दिया। कुछ समय उनके साथ रहने , उनकी वाणी सुनकर अब वह विरक्त हुई। अभी तक गुरुणी जी को उनके गर्भावस्था या मूल परिचय नही बताया था। उसने गुरुणी से संयम ग्रहण किया। व आराधना में लग गई। कुछ समय पश्चात जब गर्भावस्था के लक्षण दिखे तब गुरुणी ने ऊनसे सच जानकर संघ वरिष्ठों की मदद से साध्वी पद्मावतीजी का गुप्त प्रसव करवाया। बालक को एक निसंतान चंडाल के श्मशान में छोड़ दिया। उस पुत्र को चंडाल ने अपना पुत्र बना लिया।
साध्वीजी पुनः अपने संघ में लौट आई। और आराधना में लगी।
चंडाल ने उस पुत्र का नाम करकण्डु रक्खा। विधि की विचित्रता देखे, तो आगे कुछ ऐसे घटनाक्रम बनता है कि करकण्डु अपने बाहुबल से एक बड़ा राजा बनते है। राजा बनने के बाद एक बार युद्ध मे अपने ही पिता से युद्धभूमि में टकराने के अवसर आता है। यह समाचार साध्वी पद्मावतीजी को मिलता है तब वे युद्धभूमि में जाकर पिता पुत्र का युद्ध रोकते है। एक दूसरे का परिचय देते है। युद्धभूमि में पिता पुत्र का मिलन देख साध्वीजी पुनः अपनी साधना में लग जाते है। उत्कृष्ट आराधना से अपना मार्ग प्रशस्त करते है।
धन्य धन्य जिनशासन
हमने प्रत्येक बुद्ध करकण्डुजी का चरित्र आगे की गाथाओमे देखा था ।
#बड़ीसाधुवंदना - 110
पद्मावती मयणरेहा , द्रौपदी दमयंती सीत ।
इत्यादिक सतियाँ, गईं जन्मारो जीत ।। 106 ।।
#मयणरेहा - 1
पिछली गाथाओमे हमने 4 प्रत्येक बुद्ध की कथा पढ़ी थी उन्हीं 4 में से एक नमिराजा की महासती माता मयणरेहा यानी मदनरेखा का जीवन चारित्र भी अति प्रेरक है।
सुदर्शनपुर के नरेश थे मणिरथ। उनके लघुभ्राता युगबाहु युवराज पद पर थे। दोनो भ्राता में अत्यंत अनुराग था। पर वह अनुराग विषय की आग में झुलस गया।
क्या हुआ?
युगबाहु की पत्नी का नाम था मदनरेखा व उसके एक छोटा पुत्र था चन्द्र यश । मदनरेखा ने दूसरा गर्भ धारण किया। एक बार बड़े भाई मणिरथ की विषयी दृष्टि मदनरेखा पर पड़ी। और कामी मन उस पर आसक्त हो गया। मदनरेखा के साथ भोग भोगने के लिए वह लालायित हो उठा। उस वासना के चलते सही गलत का सब विवेक वह भूल बैठा। समाज , भाई के रिश्ते, नैतिकता की सभी मर्यादा उसने दासी द्वारा उपहार भेज कर मदनरेखा से प्रणय निवेदन किया।
मदनरेखा दृढ़ धर्मी, पति परायण नारी थी। उसने दासी को धुत्कार कर मणिरथ का प्रणय निवेदन ठुकरा दिया।
इस इन्कार ने मणिरथ को और पागल बना दिया। उसने येनकेन प्रकारेण मदनरेखा को प्राप्त करने का जाल बिछाया। सरहद पर युद्ध का बहाना कर के युगबाहु को नगर से बाहर भेज दिया। भाई पर पूर्ण विश्वास करने व युद्ध मे अपना शौर्य दिखाने बहादुर युगबाहु सरहद पर चला गया।
इधर रात के सन्नाटे में मणीरथ मदनरेखा के महल में आया। मदनरेखा को मणिरथ के षड्यंत्र की शंका तो थी ही । वह शील के लिए सजग नारी गुप्त द्वार से महल छोड़कर युगबाहु की माता के महल चली गई। मणिरथ हाथ मलता रह गया। कुछ दिनों में ही सरहद के युद्ध में विजय प्राप्त कर युगबाहु लौट रहे है यह समाचार आया।
मणिरथ को यह अच्छा नही लगा। काश किसी तरह युगबाहु मृत्यु को प्राप्त हो जाये तो मैं मदनरेखा को प्राप्त कर सकूंगा। कुछ ऐसे ही सोचकर युगबाहु को सन्देश पहुँचाया की आप नगरी के बाहर रुके। दूसरे दिन भव्य स्वागत के साथ विजय जुलुस निकालते हुए तुम नगरप्रवेश करना।
युगबाहु नगर के बाहर छावनी में रुक गया। मदनरेखा को फिर अनिष्ट की आशंका हुई। रात में ही वह छावनी में पति के पास पहुंची। मणिरथ भी रात के अंधेरे का लाभ उठाकर छावनी में आ गया। उसे पहचानने वाले सैनिकों ने भी उसे रोका नही।
वह नंगी तलवार लेकर युगबाहु व मदनरेखा के तंबू में पहुंचा। मदनरेखा युगबाहु को सावधान करे उससे पूर्व ही मणिरथ ने तलवार का एक प्राणघातक वार युगबाहु पर कर दिया। और वहां से भाग गया।
युगबाहु अंतिम सांसे गिनने लगा था। तब महासती मदनरेखा ने विलाप या आर्तध्यान की जगह बहादुरी से काम लिया। पति युगबाहु आर्त रौद्र ध्यान में कहीं अपना अगला भव न बिगाड़ ले यह अब मदनरेखा का लक्ष्य था। उसने युगबाहु को अंतिम साधना करवाई। जगत के सभी जीवों के प्रति राग द्वेष खत्म करवाने का बोध दिया। भाई मणिरथ पर भी लेशमात्र द्वेष या क्रोध न करने को समझाया। सब कर्मो के अधीन होता है तो अब कोई कर्म ऐसे न बांधे की वैर की परंपरा आगे चले। मदनरेखा का श्रम रंग लाया। युगबाहु ने आलोचना ली। सभी से रागद्वेष त्याग कर खमतखामना किया व काल कर देव बने।
अब सती मदनरेखा क्या करे?
राजमहल में पुत्र चन्द्र यश था। उदर में पल रहे गर्भ की चिंता, पति का वियोग व अब मणिरथ का मार्ग भी निष्कंटक हो गया तो उससे अपने शील की रक्षा!!!
देखते हैं आगे
#बड़ीसाधुवंदना - 111
पद्मावती मयणरेहा , द्रौपदी दमयंती सीत ।
इत्यादिक सतियाँ, गईं जन्मारो जीत ।। 106 ।।
#मयणरेहा - 2
मदनरेखा बहादुर धर्मनिष्ठ नारी थी। घबराकर आर्तध्यान की जगह उसने सब संयोगों का विचार किया। व अंत मे छावनी से महल जाने की जगह रात के अंधेरे में ही नगर का त्याग कर दिया। अरिहंत का शरण लेकर वह नगर से दूर निकल गई। सुबह होते होते वह नगर से काफी दूर एक वनके जलाशय के पास पहुंच गई। वँहा उसे प्रसव वेदना हुई। बहादुर नारी ने अकेले ही जंगल मे सुंदर पुत्र को जन्म दिया। पुत्र की शुद्धि कर उसे अपनी निशानी पहनाई, वृक्ष की शाखा पर झोली में बांधकर वह स्वयं शुद्धि के लिए जलाशय में उतरी।
पर हाय रे कर्म का विपाक!
वहां से ऊपर विमान से गुजर रहे एक विद्याधर ने उसे देखा, उसके सौंदर्य पर मोहित होकर उसने मदनरेखा को उठा कर विमान में ले लिया। प्रसव वेदना से थकी मदनरेखा इस आक्रमण से बेहोश हो गई।
जब होंश आया तब वह अपने आप को अपहृत हुआ समझ कर , पुत्र को याद कर रोने लगी। विद्याधर ने उससे प्रणय निवेदन किया। मदनरेखा ने उसे दुत्कार दिया।
उस विद्याधर के पिता केवलज्ञान प्राप्त मुनि थे। मार्ग में ही होने से वह विद्याधर पिता मुनि के दर्शन करने रुका। मदनरेखा ने भी हर्षित होकर दर्शन करने आने की इच्छा व्यक्त की। मदनरेखा को विश्वास था, केवली भगवंत मेरी वेदना को समझेंगे व पुत्र को प्रतिबोध देकर मुझे इस आपत्ति से बचा लेंगे।
और हुआ भी वैसा ही। केवली भगवन्त ज्ञान से पुत्र के अधम कृत्य को जान चुके थे। उन्होंने पुत्र को प्रतिबोधित किया। विद्याधर को भी अपनी गलती का एहसास हुआ। मदनरेखा ने उसके नवजात पुत्र के बारे मे पुछा , तब विद्याधर ने उसे आश्वस्त किया कि उस पुत्र को मिथिला नरेश ले गए है और अपने पुत्र की तरह उसे स्वीकार किया है।
विद्याधर ने मदनरेखा को मुक्त किया। इन सब प्रपंचलीला से गुजर कर मदनरेखा विरक्त हो चुकी थी। साध्वीसमुदाय में आकर उसने संयम ग्रहण किया।
और मोक्षमार्ग की उत्कृष्ट साधना करने लगी।
समय बीतता गया। इधर उसके दोनो पुत्र बड़े हुए। चन्द्रयश मणिरथ के काल बाद सुदर्शनपुर का राजा बना। छोटा राजकुमार जिसका नाम नमीकुमार रखा गया था वह मिथिला का सम्राट बन गया।
एक बार चन्द्रयश राजा का एक उत्तम श्वेत हस्ति मदमस्त होकर मिथिला की सीमा में घुस आया। नमिराजा ने उसे पकड़वाकर उत्तम हस्ति रत्न जानकर अपने पास रख लिया ।
चन्द्रयश ने वह हाथी वापिस मांगा। नमिराजा ने इनकार कर दिया। दोनो भाई अपने संबन्ध से अनजान एक हाथी के लिए युद्ध करने को तैयार हो गये।
दोनो सेनाएं आमनेसामने आ गई।
यह समाचार साध्वी मदनरेखा को मिले। दोनो सगे भाई में युद्ध का अनर्थ!?? गुरुणी की आज्ञा लेकर महासतीजी रण मैदान में आये। दोनो राजाओको परिचय दिया। उनदोनो का परस्पर संबन्ध बताया तब दोनो को सुखद आश्चर्य हुआ। युद्ध छोड़ दोनो भाई गले मिल गये।
आर्या मदनरेखा जी ने दोनो भाई का मिलन करवाकर वापिस साध्विसंघ में आ गए। अपनी आराधना से उन्होंने आठो कर्मो का चूरा कर सिद्ध गति को प्राप्त किया।
इधर चन्द्रयश ने भी विरक्त होकर अपना राज्य नमिराजा को दे दिया और स्वयं दीक्षा अंगीकार की। कुछ समय बाद नमिराजा को हुए शिरोवेदना में एक कंगन के निमित्त से वैराग्य पाकर संयम लिया । (यह कथानक हम प्रत्येक बुद्ध की गाथा में पढ़ चुके है। ये वही नमिराजा है जो प्रत्येक बुद्ध हुए । )
महान सतीरत्नो को हमारा त्रिकाल वन्दन हो।
#बड़ीसाधुवंदना - 112
पद्मावती मयणरेहा , द्रौपदी दमयंती सीत ।
इत्यादिक सतियाँ, गईं जन्मारो जीत ।। 106 ।।
#द्रौपदी : -
एक बहुप्रसिद्ध पात्र।
जिसके पूर्व भव का वर्णन हम गाथा 51 में तथा उनके संयम ग्रहण की घटना गाथा 49 के विवेचन में पढ़ चुके है। यह सती रत्न का जीवनचरित्र इतनी सारी महान उपलब्धियों , इतनी विपत्तियों में रही वीरता के प्रसंगों से भरा हुआ है कि उनसे एक विशाल किताब तैयार हो सके।
हम संक्षिप्त में देखते है।
धर्मरूचि अनगार को कड़वा तुंबा व्होराकर उनकी मृत्यु के बाद सब से तिरस्कृत होती हुई नागश्री वन में अत्यंत वेदना के बाद काल कर नरक,तिर्यंच आदि कई भव करने के बाद सुकुमालिका बनी। उस भव में दीक्षा लेने के बाद एक दिन भोग विलास वाला दृश्य देखकर उसी तरह के भोग की कामना कर बैठी और निदान कर लिया जिसका प्रायश्चित भी नहीं किया तब आगामी भव में उसे पांच पति प्राप्त हुए । सुकुमालिका साध्वी से काल कर देव बनी वँहा से आयुष्य पूरा कर कंपिलपुर नरेश द्रुपद राजा की पुत्री बनी द्रौपदी। धर्मानुरागी , सुंदर सुशील द्रौपदी विवाह योग्य हुई। तब एक स्वयंवर में भवितव्यता अनुसार वह पांच पांडवो की पत्नी बनी।
हस्तिनापुर की रानी बनने के बाद दुर्योधन के कई षड़यंत्रो से त्रस्त पांडवों के साथ वह भी कर्म के फल को समभाव से सहती रही। दुर्योधन की नीचता की पराकाष्ठा थी, एक षड्यंत्र में उसने पांडवों को जुए के लिए आमंत्रित कर उन्हें छल से हराया।
युधिष्ठिर आदि भाइयों को भी जुए में जीतकर दुर्योधन ने दांव पर द्रोपदी को लगवाकर उसे भी जीत लिया। अधमता की सभी सीमाएं त्यागकर द्रौपदी को सभा मे घसीटकर लाया गया। उसके वस्त्र निकालने की घृणित चेष्टा की। द्रोपदी ने तब धर्म का शरण लिया। ढ़ेरों वस्त्र निकल जाने पर भी धर्म के पुण्य प्रभाव से द्रौपदी से वस्त्र लिपटा ही रहा। इतना घृणित कार्य इतिहास में न कभी हुआ न होगा। जिसे सुनकर ही हृदय व्यथा से भर जाता है।
इस घटना के बाद जुए में सर्वस्व हारे पांडवों को वनवास मिला। द्रोपदी ने इतना सब कुछ सहते हुए भी पिता के घर जाने की बजाय अपना पत्नीधर्म निभाते हुए वह हरदम पांडवों के साथ रही। एक राजकुमारी, एक साम्राज्ञी वन वन भटकी। वन में भी दुर्योधन की ईर्ष्या उन्हें जलाती रही। कुछ न कुछ तकलीफें दुर्योधन देता रहा। वन में कई बार अपने सतिधर्म का प्रभाव बताती द्रौपदी संकटो से लड़ती, बचती व परिवार को बचाती रही। इस परिवार ने इतने संकटो में भी धर्म की शरण नही छोड़ी।
वनवास के बाद शर्त अनुसार अज्ञातवास में वे विराट नगर में गुप्त रूप से रहे। वहां कीचक ने सैरंध्री बनी द्रौपदी पर कामी दृष्टि डाली। तब भीम ने उसका वध किया।
ऐसे विपत्तियों से जूझते हुए समय निकला।
महाभारत के संग्राम में विजय वरमाला पहनने के पश्चात एक मान्यतानुसार दुष्ट अश्वत्थामा ने द्रौपदी के पांच-पांच पुत्रो की सोते हुए नींद में हत्या कर दी। जब पांडव व कृष्ण वासुदेव द्वारा अश्वत्थामा पकड़ा गया तब महासती द्रौपदी ने अदभुत वीरता बताते हुए उसे माफ कर दिया।
अभी युद्ध विजय के पश्चात भी द्रौपदी की मुश्किलें खत्म नही हुई थी।
एकबार नारद को अन्यमती मानकर द्रोपदी ने उनका स्वागत नही किया तब नारद ने कपटलीला कर के घातकीखण्ड के पदम् राजा से द्रोपदी का अपहरण करवाया। श्रीकृष्ण की सहायता से पांडव द्रोपदी जी को वापिस लाये। उस घटना में पांडवों ने श्रीकृष्ण की थोड़ी मस्करी की तब कृष्ण ने उन्हें नगरी से निकाल दिया।
फिर पांडवों ने पांडव मथुरा बसाई और वहां राज्य करने लगे।
जराकुमार के द्वारा कृष्ण की मृत्यु के समाचार सुनकर पांचों पांडव व द्रोपदी ने संयम स्वीकार किया। उत्कृष्ट आराधना कर अंत मे पांचों पांडव मोक्ष व द्रौपदी देवलोक गये। अगले भव में महाविदेह से वे भी सिद्ध बुद्ध मुक्त बनेंगे।
महान सतीरत्नो को हमारा त्रिकाल वन्दन हो।
#बड़ीसाधुवंदना - 113
पद्मावती मयणरेहा , द्रौपदी दमयंती सीत ।
इत्यादिक सतियाँ, गईं जन्मारो जीत ।। 106 ।।
#दमयंतीजी - 1 : -
जिनशासन का एक और अनूठा पात्र, एक महान स्त्री साधक ।
कुंडिलपुर के राजा भीम की पुत्री थी दमयंती। सर्वांग सुंदर, धर्मनिष्ठ कन्या। विवाह योग्य होने पर पिता ने उनके लिए स्वयंवर का आयोजन किया। उसमे दमयंतीजी ने पूर्वभव के स्नेही निषध नरेश के पुत्र नलकुमार को पति रूप में चुन लिया। यह वँहा उपस्थित कृष्ण राजकुमार को पसन्द नही आया। उसने नलकुमार को युद्ध के लिए ललकारा। नलकुमार भी वीर योद्धा थे। चुनोती स्वीकार की। कुछ ही समय मे दोनो की विशाल सेनाएं युद्ध के लिए आमनेसामने तत्पर हो गई।
यह देख दमयंती ने सोचा : -
अहो! एक मेरे कारण इतने सारे मनुष्यो को क्लेश, व युद्ध की स्थिति? दमयंती को अत्यंत परिताप हुआ। उसने धर्म की शरण ली। उनके प्रभाव से अचानक कृष्ण कुमार का हृदय परिवर्तन हुआ। नलकुमार से माफी मांगकर वह चला गया।
दमयंती से ब्याह कर नलकुमार राजधानी लौटे। दोनो सुखरूप, धर्ममय जीवन जीने लगे। निषध नरेश ने नलकुमार को राज्य सिँहासन व छोटे पुत्र कुबेर को युवराज पद पर आसीन कर अपनी साधना हेतु संयम स्वीकार किया।
समय बीतता गया। नलकुमार का छोटा भाई युवराज कुबेर कुलांगार साबित हुआ। उसे राज्यका लोभ जागा। उसने भाई के जुए का शौक जानकर उसे जुए में हराकर सारा राज्य हड़प लिया।
पांडवों के समान नलकुमार को भी वनवास भोगना था। दमयंती को अपने पीहर चले जाने का कहा गया।
महासतीजी में सुख में साथ देकर दुख में अकेले छोड़ने वाली कहां होती है।
सीता, द्रोपदी की तरह दमयंतीजी ने भी पति का अनुसरण करने का निश्चय किया। नलकुमार को यह अत्यंत अफसोस था कि उसकी जुए की लत के कारण आज दमयंतीजी को वन के कष्टों को सहना पड़ेगा।
एक कुव्यसन का कितना घातक परिणाम। युधिष्ठिर व नलकुमार जैसे महापुरुषों का जीवन व्यसन से बचने की हमें कितनी स्पष्ट प्रेरणा देते है।
दमयंतीजी के साथ नलकुमार एक वन में आये। रात्रि का समय था। पति के साथ के विश्वास से निश्चिन्त दमयंतीजी निंद्राधीन हो गई। परन्तु उसके कष्ट देखकर नलकुमार की निंद्रा गायब थी।
नलकुमार ने सोचा जब में ही इसके साथ नही रहूंगा तब यह पीहर चली जायेगी व सुख से दिन गुजार सकेगी। यह सोचकर उसकी साड़ी पर पीहर चले जाने का संदेश लिख कर रात्रि में ही नलकुमार उसे त्यागकर चले गये।
अब वन में लाचार , निराधार दमयंतीजी क्या करेगी???
#बड़ीसाधुवंदना - 114
पद्मावती मयणरेहा , द्रौपदी दमयंती सीत ।
इत्यादिक सतियाँ, गईं जन्मारो जीत ।। 106 ।।
#दमयंतीजी - 2 : -
वन में सोयी हुयी दमयंती जी को छोड़कर नलकुमार वहां से चले गए। राह में संयमग्रहण के बाद देव बने नलकुमार के पिता ने उन्हें रूप परावर्तनी गुटिका ( या विद्या ) दी। संकट समय मे अपना रूप बदल लो, ताकि नलकुमार को संकट न आये।
कई दिनों के सफर के बाद वे सुंसुमार नगर पहुंचे। वहां एक हाथी मदोन्मत्त होकर सबको नुकसान पहुंचा रहा था। उस हाथी को नलकुमार ने वश में कर लिया। राजा अति प्रसन्न हुआ। उसने जब परिचय पूछा तब नलकुमार ने अपनी असलियत छुपाकर स्वयं को निषध नरेश नल का रसोइया बताया। वह सूर्य से भोजन बनाने की कला जानता है यह भी बोला। तब राजा ने उसे रसोईघर में काम पर रख लिया।
कुछ ही समय मे यह रसोइया राजा का खास आदमी बन गया।
इधर दमयंतीजी जब जागी तब स्वयं को अकेला पाकर घबरा गई। फिर नलकुमार का संदेश पढ़कर अत्यंत दुखी हुई। पर थी तो वो महान नारी रत्न। उसने कुछ ही समय मे अपने आपको संभाल लिया।
वन में से गुज़र रहे एक सार्थवाह के साथ चलने का निर्णय लिया। गई। सार्थवाह एक डाकुओं के दल से घिर गया तब दमयंतीजी ने अपने धर्म प्रभाव से उनकी रक्षा की। इसी तरह कई संकटो का सामना करते, दासी का काम करते हुए, तपस्या आदि करते हुए वह पिता के आग्रह से पीहर पहुंची। उसका मन अफसोस युक्त था कि पति दरबदर की ठोकर खा रहा होगा और वह राजकुमारी बनकर पीहर में रह रही है। भीम ने भी दामाद नलकुमार की खोज करवाई। पर कोई जानकारी प्राप्त नही हो रही थी। दमयंतीजी पति की याद से संतप्त हो रही थी। वहां भी उसने धर्मध्यान तपस्या का क्रम चालू रक्खा था।
कुंडिलपुर में एकबार किसी ने समाचार दिए कि दूर देश मे स्थित सुंसुमार पुर में राजा का एक रसोइया बहुत निपुण है। वह सूर्य से रसोई बनाता है, हाथी को भी वश में कर लेता है आदि। यह सब सुनकर राजा भीम व दमयंतीजी को विश्वास हो गया कि यह रसोइया ही नलकुमार है।
भीम राजा ने एक युक्ति की। एक दूत को सुंसुमार पुर भेज कर वहां के राजा को दमयंतीजी के स्वयंवर में आमंत्रण दिया।
दूत को खास सूचना दी, की स्वयंवर के निश्चित दिन से मात्र एक दिन पूर्व ही यह संदेश देना। नलकुमार अश्व विद्या का जानकार था। वही एक रात में लंबी दूरी तय करके कुंडिलपुर पहुंच सकेगा।
यहां राजा को दमयंतीजी के स्वयंवर का आमंत्रण मिला, पर एक दिन में इतनी लंबी दूरी तय करना असंभव जानकर निराश हो गया। रसोइया बने नलकुमार ने जब यह संदेश जाना तब उसने राजा को वहां पहुंचाने का आश्वासन दिया।
नलकुमार ने उत्तम जाती के अश्व पसन्द किये और शीघ्रतापूर्वक राजा को कुंडिलपुर ले आया।
वहां सभा मे अपना पुराना रूप वापिस धारण किया। और दमयंतीजी का पुनः स्वीकार किया। रसोइए को राजा के रूप में देखकर सुंसुमार पुर के राजा ने उससे क्षमा मांगी।
दमयंतीजी व नलकुमार का पुनः मिलन हुआ। कुछ दिनों में कुबेर को पता लगा तो उसने भी आकर क्षमा मांगी व राज्य लौटा दिया।
कई वर्षो तक राज्य का संचालन करने के बाद पुत्र पुष्कर को सिँहासन देकर दोनो दीक्षित हुए। आत्मसाधना में आगे बढ़े।
#बड़ीसाधुवंदना - 115
पद्मावती मयणरेहा , द्रौपदी दमयंती सीत ।
इत्यादिक सतियाँ, गईं जन्मारो जीत ।। 106 ।।
#सीताजी - 1 : -
इन महासतीजी की महागाथा कहा से शुरु करे और कहां पूरी करे यह भी गूढ़ रहस्य माफिक है।
इनका जीवन बहुत उतार-चढ़ाव से भरा रहा। राजकुमारी से रानी, फिर वनवासी फिर साम्राज्ञी फिर पति का त्याग , फिर अग्नि परीक्षा फिर संयम ग्रहण.... आने वाले भवो में भी यही मायाजाल!!!!!!
वैदिक मान्यता में भी जिन्हें लक्ष्मी का एक रूप या महादेवी के रूप में पूजा जाता है उन महासती सीता के अदभुत जीवनकथा के वर्णन का प्रयास भी मेरे सामर्थ्य से बाहर का विषय। फिर भी नन्हे बाल की तरह एक प्रयास अवश्य करूँगा।
मिथिलानरेश जनक की रानी विदेहा । उनके एक युगल पुत्र पुत्री का जन्म हुआ। पर पूर्वभव का कुछ वैर का दुर्भाव उदय में आया। सद्य जन्मा राजकुमार के पूर्वभव के वैरी प्रथम देवलोक के एक देव ने उस राजकुमार की हत्या करने के लिए अपहरण कर लिया।
उसका वध करने की सोच ही रहा था कि उसके मन मे शुभभाव जन्मे। वैर पर अनुकंपा ने विजय पाई। बालक को मारने की जगह विद्याधर नरेश चन्द्रगति के उपवन में छोड़ दिया। निसंतान चन्द्रगति राजा ने उसे पुत्र रूप में स्वीकार किया।
राजा जनक व विदेहा रानी पुत्र के अपहरण से अत्यंत दुखी हुए पर कर्म विपाक समझकर पुत्री सीता में ही अपना वात्सल्य न्यौछावर करने लगे। बालिका सीता रूप, गुण व उम्र में बढ़ने लगी। यौवन आते आते उसके सौंदर्य में अदभुत निखार आया।
विवाह योग्य होने पर जनक राजा आसपास के राजकुमारो में सीता योग्य वर खोजने लगे , पर किसी पर उनकी दृष्टि नही जमी।
इधर जनक पुत्र विद्याधर राजा चन्द्रगति के यहां भामण्डल नाम से पल बढ़ कर युवान हो रहा था।
एकबार जनक नरेश की सीमा पर म्लेच्छ राजा आतरंग का उपद्रव बढ़ने लगा। राजा जनक ने अपने पुराने मित्र अयोध्या के राजा दशरथ से सहाय मांगी। मित्र की सहाय करने राजा दशरथ स्वयं सज्ज होते हुए सेना तैयार की। राजा दशरथ के 4 पुत्र थे । राम, लक्ष्मण ,भरत, शत्रुघ्न।
यह राम इस अवसर्पिणी काल के आठवें बलदेव व लक्ष्मण आठवें वासुदेव थे। दोनो रूप, वीरता , शौर्य, धर्म आदि में अत्यंत गुणीयल थे। उन्होंने अपने होते हुए पिता को युद्ध मे जाते देख स्वयं जाने की विनती की। भारी मन से दशरथ ने नवयुवान राजकुमारो को युद्ध के लिए भेजा।
राम लक्ष्मण ने अपना पराक्रम दिखाते हुए मलेच्छ राजा को मार भगाया। राजा जनक व मिथिला की प्रजा अत्यंत हर्षित हुई। राजा जनक राम को सीता के लिए उपयुक्त वर समझने लगे थे कि अचानक एक घटना घटी।
नारद जी जनक के राजमहल आये। तब उनका थोड़ा अजीब देखाव कृशकाय शरीर, देह पर लंगोट, हाथ मे दण्ड, छत्र देखकर नादान सीता डर गई । सीता को डरा हुआ देख सैनिकों ने नारद जी को तिरस्कार पूर्वक वहां से भगा दिया। नारद इस अपमान से क्रोधित हुए। उन्होंने निर्दोष सीता से बदला लेने के लिए एक युक्ति की।
उन्होंने सीता का एक सुंदर चित्र बनाया व चन्द्रगति नरेश के पुत्र भामण्डल को दिखाया। सीता के गुणों की स्तुति कर भामण्डल के मन मे सीता के प्रति आसक्ति जगाई। अब सीता का सगा भाई पर रिश्तों से अनजान भामण्डल बहन पर मुग्ध होकर क्या करेगा??
महान सतीरत्नो को हमारा त्रिकाल वन्दन हो।
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संकलन सन्दर्भ : - विभिन्न ग्रन्थ से
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो, जाने अनजाने तथ्यों को गलत बताया, छुपाया हो तो मिच्छामि दुक्कडम।
#बड़ीसाधुवंदना - 116
पद्मावती मयणरेहा , द्रौपदी दमयंती सीत ।
इत्यादिक सतियाँ, गईं जन्मारो जीत ।। 106 ।।
#सीताजी 2 : -
अनजाने ही बहन सीता पर मोहित हुआ भामण्डल। जब चन्द्रगति नरेश को यह पता चला तब पुत्र के सुख के लिए उसने जनक राजा से बात करने के लिए उनका अपहरण करवाकर अपनी नगरी में बुलाया। और पुत्र भामण्डल के लिए सीता का हाथ मांगा। पर जनक तो राम को सीता के लिए चुन चुके थे। उन्होंने असमर्थता दिखलाई।
तब चन्द्रगति नरेश ने एक युक्ति बताई। उनके पास 2 रत्नमय, दिव्य, दृढ़, भारी, प्रभावयुक्त धनुष थे। वज्रावर्त और वरुणावर्त । जिन्हें चलाना तो दूर, उठाना भी सामान्य मनुष्यो के सामर्थ्य से बाहर था। उन्होंने सुझाव दिया कि आप एक स्वयंवर रचाइये। इसमे जो राजकुमार वह धनुष्य उठाकर उसकी प्रत्यंचा चढ़ा दें, उसे अपनी पुत्री का वाग्दान कर दीजियेगा।
राजा जनक ने बात मान ली। उन्हें राम के बल पर विश्वास हो चुका था। चन्द्रगति को विश्वास था कि भामण्डल के सिवा यह कार्य कोई मनुष्य नही कर पायेगा।
अंततः स्वयंवर की घोषणा की गई। राम लक्ष्मण मिथिला में ही थे। चन्द्रगति नरेश भी पुत्र भामण्डल के साथ आ गए। अन्य कई देशों के राजा व राजकुमार आये।
पर स्वयंवर में आये कोई राजकुमार , कोई राजा उन धनुष्यों को हिला तक नही पाये।भामण्डल पिता के कहे अनुसार अंत मे उठानेवाला था। अब बस राम लक्ष्मण बाकी थे। लक्ष्मण की विनती पर राम उठे, उस दैवी धनुष्य वज्रावर्त को फूल की तरह उठा लिया, उसे झुकाकर प्रत्यंचा भी चढ़ा दी। और प्रत्यंचा को कान तक खींच कर धनुष्य से ऐसे छोड़ा, की एक भयंकर गर्जना हुई। राजा जनक व सभी प्रजाजन अत्यंत हर्षित हुए। फिर लक्ष्मण ने वरुणावर्त धनुष्य को उठाकर प्रत्यंचा चढ़ा दी। भामण्डल व चन्द्रगति राजा निराश होकर चले गए।
सीता का विवाह राम से हुआ। जनक राजा के भाई कनक की पुत्री सुभद्रा का विवाह लक्ष्मण के साथ हुआ। वहां उपस्थित राजा व विद्याधरों में से 18 जनों ने अपनी पुत्री का विवाह वासुदेव लक्ष्मण के साथ किया।
अयोध्या नगरी में सभी का स्वागत हुआ। पूरी नगरी ने आनंदित होकर विवाहोत्सव मनाया।
एक दिन एक कंचुकी (दास, नोकर) की अत्यंत वृद्धावस्था देखकर राजा दशरथ संसार से विरक्त बने। यह वृद्धावस्था मुझे कमजोर करे उससे पहले में राम को राज्य देकर अपनी परलोक की आराधना कर लु। यह सोचने लगे।
वहां उस समय एक केवलीभगवन्त पधारे। राजा दशरथ परिवार समेत दर्शन वन्दन के लिए पधारे।
इधर निराश भामण्डल को लेकर आकाशमार्ग से भ्रमण पर निकले चन्द्रगति नरेश भी उन केवलीमुनि के दर्शन करने नीचे उतरे। दर्शन वन्दन पश्चात चन्द्रगति ने भामण्डल के लिए उन केवलिभगवन्त से जिज्ञासा व्यक्त की। तब उन केवलीभगवन्त ने बताया कि जो हुआ वह अच्छा ही हुआ। उन्होंने भामण्डल के वास्तविक मातापिता जनक - विदेहा का परिचय दिया। अपना असली परिचय सुनकर भामण्डल मूर्छित होकर गिर पड़ा। उसे जातिस्मरण ज्ञान हुआ। उसे अपने कृत्य पर बहुत पश्चाताप हुआ। वहां उपस्थित बहन सीता व बहनोई राम को प्रणाम किया। और माफी मांगी। सीता भी खोए भाई को पाकर हर्षित हुई। जनकराजा व विदेहा रानी को बुलाया गया। पुनः परिवार मिलन से सब हर्षित हुए। चन्द्रगति नरेश ने भामण्डल को राज्य सौंपकर संयम ग्रहण किया।
राजा दशरथ भी विरक्त बन चुके थे। राम का राज्याभिषेक करवाकर संयम ग्रहण करने का निश्चय किया।
राम के राज्याभिषेक की घोषणा की गई। सब तैयारियां होने लगी,
पर अचानक.....
न जाना जानकी नाथ ने कल सुबह क्या होना है।
तैयारी थी राज्याभिषेक की या वनगमन को जाना है ?
Fb ग्रुप जैनिज़्म
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#बड़ीसाधुवंदना - 118
पद्मावती मयणरेहा , द्रौपदी दमयंती सीत ।
इत्यादिक सतियाँ, गईं जन्मारो जीत ।। 106 ।।
#सीताजी 4 : -
महान वीर योद्धा रावण भवितव्यता वश महासती सीता को छल से उठा कर ले आया।
इसके आगे का कथानक काफी विस्तृत है। राम का सीता के वियोग में अत्यंत विलाप, सुग्रीव, हनुमान जी, नल नील आदि का राम से मिलन, रावण के प्रणय निवेदन का सीता जी द्वारा अस्वीकार, मंदोदरी का सीता को मनाने का निष्फल प्रयास, विभीषण का रावण को सीता को लौटाने का निष्फल उपदेश, सुग्रीव आदि द्वारा सीता की खोज, रत्न जटी द्वारा सीता के समाचार, हनुमान का लंका गमन, , फिर हनुमानजी का सीता से मिलन, अपहृत होने से अब तक तप कर रहे महासतीजी का पारणा, राम लक्ष्मण का रावण से युद्ध, विभीषण का राम की शरण मे आना, लक्ष्मण का बेहोश होना, विशल्या नामक सती के स्नानोदक से लक्ष्मण का उपचार, अंत मे रावण की मृत्यु व विभीषण का राज्याभिषेक। इसके बाद सीता को लेकर अयोध्या प्रवेश।
यह विस्तृत गाथा स्थान समय अनुसार यहां पूर्णतया वर्णन करना थोड़ा कठिन।
फिर भी इन सभी वर्णन में तथा अभी आगे और आनेवाले कथानक में सीता महासती का शील - चारित्र का उत्कट पालन , उनकी धर्मनिष्ठा, उनका पतिव्रत पालन व श्रद्धा अजोड़ उभरकर आता है। महासतीजी के चारित्र का संक्षिप्त में वर्णन करना मुश्किल होते हुए, उनके गुणों का अंशमात्र आच्छादन न हो ऐसे लिख पाना कठिन होते हुए भी एक प्रयास किया है। फिर भी संकलन में कहीं कोई त्रुटि कोई अशातना हुई हो तो में खमाता हूं।
जिज्ञासुओं को इस कथानक का विस्तृत पठन के लिए तीर्थंकर चरित्र भाग 2 पढ़ने का सूचन अवश्य करूँगा।
अयोध्या प्रवेश के बाद राम भरत आदि का मिलन हुआ। भरतजी विरक्त ही थे। उन्होंने संयम आज्ञा मांगी। उन्होंने संयम ग्रहण कर मुक्ति की राह पकड़ ली।
राम की आज्ञा से उनका बलदेव व लक्ष्मण का वासुदेव पद पर अभिषेक हुआ। अब सुखभरे दिन बीत रहे थे। वनभ्रमन दौरान विवाहित लक्ष्मण की सारी पत्नियां अब अयोध्या आ चुकी थी। उनकी अब कुल 16000 रानियां थी। राम चारो पत्नियों (सीता, प्रभावतीजी, रतिनिभा व श्रीदामा ) के साथ न्यायोचित राजगद्दी संभाल रहे थे। इन दिनों रानी सीता गर्भवती हुई। सारा परिवार हर्षित हुआ जैसे सारे दुख के बादल छट गये व सुख की बारिश हो रही। पर नही 😢
महासती के जीवन या किसी भी संसारी मनुष्य को शाश्वत सुख कहां?
अब क्या दुख आया???
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संकलन सन्दर्भ : - तीर्थंकर चरित्र
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#बड़ीसाधुवंदना - 119
पद्मावती मयणरेहा , द्रौपदी दमयंती सीत ।
इत्यादिक सतियाँ, गईं जन्मारो जीत ।। 106 ।।
#सीताजी 5 : -
गर्भवती बनने के बाद सीता के लिए पति का स्नेह बहुत बढ़ जाएगा यह सोचकर राम की अन्य 3 पत्नियों के मन मे अशांति रहने लगी।
उन्होंने सीता के लिए एक षड्यंत्र की रचना की। राम के मन मे सीता के लंका निवास दौरान सीता के शील के लिए राम को शंकित कर दिया। यही नही, अपने गुप्तचरों द्वारा सीता के लिए प्रजा में भी जहर फैलाना शुरू किया।
यह कलंक कथा जब बहुत बढ़ गई तब अयोध्या सम्राट राम ने कुल की प्रतिष्ठा हेतु बहुत भारी मन से सीता के त्याग का निर्णय लिया।
राजा की प्रतिष्ठा, कुल मर्यादा के लिए सत्त्य को दब गया व गर्भवती सीता को वन भेज दिया गया।
वन में रानी सीता को पुंडरिकपुर नगर के राजा वज्रजंघ से मिलन हुआ। उसने सीता को भगिनी बनाकर आश्वस्त किया। राजा वज्रजंघ बहन सीता को अपने नगर में ले आया। यहां भी सीता का मन पति राम में ही लगा रहा। गर्भकाल पूरा होते सीता ने युगल पुत्रो को जन्म दिया। जिनके नाम अनंग लवण व मदनांकुश रखे गए।
यह दोनो राजकुमार बड़े होते गए। रूप, वीरता, मातृभक्ति आदि गुणों में श्रेष्ठ बने। युवान होते एक बार नारद जी द्वारा उन्हें अपने मुख्य कुल, पिता राम द्वारा माता सीता का त्याग आदि घटना की जानकारी मिली तब वे अयोध्या जाकर पिता से माता को किये अन्याय का प्रति उत्तर लेने को व्याकुल हो उठे।
दोनो वीर सेना लेकर पुंडरिकपुर से अयोध्या चले। राह में आते राज्यो को अपना पराक्रम दिखाकर, उन्हें झुकाकर वे अयोध्या पहुंचे। और रामराज्य को युद्ध के लिए ललकार की।
रण मैदान में जब नारद द्वारा सत्य का पता चला तब राम भाव विभोर हो उठे। प्रिया सीता व पुत्र मिलन के हर्ष आवेग से वे मूर्छित हो गये।
वहाँ आकाशमार्ग से सीता को भी बुला लिया गया। परन्तु अभी लोकापवाद का कंटक था ही। राम ने उसके लिए सीता पर उनके दृढ़ विश्वास को समझकर समस्त नगरजनो के सामने दिव्य ( परीक्षा) का प्रस्ताव रखा। राम को विश्वास था सीता के सतीत्व पर। वह विश्वास जनता को भी हो उसके लिए यह आवश्यक था।
सीता आई। नगरजनो की चीक्कार भीड़ के सामने सीता ने अपने निष्कलंक चारित्र को साबित करने हेतु 5 दिव्य में से कोई भी करने को ततपर हो गई। 5 दिव्य यानी 5 परीक्षा - अग्नि प्रवेश, मंत्रित तन्दुल खाना, विषपान, उबलते सीसे का पान , जीभ से तीक्ष्ण शस्त्र उठाना ।
राम ने अग्निप्रवेश की तैयारी करने की आज्ञा दी। एक कुंड बनाया गया। उसे चंदन की लकड़ियों से भरकर उसमे आग लगाई गई। महासतीजी ने अग्निज्वाला से धधकते कुंड में प्रवेश किया। नवकार मन्त्र के स्मरण व पति परायण धर्म के बल पर वह अग्निकुंड जलकुंड में परिवर्तित हो गया।
समग्र जनता ने सीता के शील का चमत्कार देख हर्ष व्यक्त किया। सीता के दिव्य के बाद राम सीता के स्वीकार हेतु उसके पास आये।
पर यह क्या?
सीता के मुख पर तो कोई अलग ही भाव थे। सीता अब संसार से विरक्त बन चुकी थी। इस अग्निपरीक्षा के बाद उनका वैराग्य दृढ़ बन चुका। उन्हें न राम से कोई ग्लानि थी , न नगरजनो के लिए कोई द्वेष। सभी दुख मात्र स्वयं के कर्म का फल समझकर अब उन्हें संसार की जड़े ही काटने का मन था।
वहीं जनमेदनी के सामने सीता ने अपने बालों का लोच किया। वहीं विराजमान एक केवलिभगवन्त के पास आकर विधिवत प्रवज्या स्वीकार की।
राम स्तब्ध रह गए। पर अब कुछ कहना सुनना व्यर्थ था। सीता जी ने संयम की उत्कृष्ट आराधना की। काल कर देवलोक में इंद्र बने। वहां से कुछ भव में वे भी मोक्ष प्राप्त करेंगे।
इस महागाथा का वर्णन मुझ से योग्य नही हुआ हो, महासतीजी के जीवन चरित्र वर्णन में कोई महत्त्व का हिस्सा बताना छूट गया हो, तो मुझ अल्पज्ञानी बाल जीव को क्षमा करें।
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संकलन सन्दर्भ : - तीर्थंकर चरित्र
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो, जाने अनजाने तथ्यों को गलत बताया, छुपाया हो तो मिच्छामि दुक्कडम।
#बड़ीसाधुवंदना - 120
चोबीसे जिन ना , साधु साध्वी सार।
गया मोक्ष देवलोके, हृदय राखो धार। 107।
इण अढी द्वीप मा , घणा तपसी बाल।
शुद्ध पंच महाव्रत धारी, नमो नमो तिहूं काल ।108।
इण यतियों सतियो ना, लीजे नित प्रति नाम ।
शुद्ध मनथी ध्यावो, एह तिरण नो ठाम। 109 ।
प्रस्तुत गाथाओ में पूज्य जयमलजी महाराज साहेब अतीत में हो चुके इस अवसर्पिणी काल के चौबीसों प्रभुजी के शासन में हुए सभी महाव्रत धारी संत सतीजीयो की महिमा बता रहे है। उन महान आत्माओंने उत्कृष्ट संयम की आराधना कर मोक्ष या देवलोक की प्राप्ति की।
इन सन्तो को किया गया वन्दन, उनका नाम स्मरण, उनके गुणों की स्तुति हमारे लिए इस भवसागर से पार उतरने के लिए एक मजबूत सुरक्षित नाव जैसे है। उन सभी का महान त्याग, उपसर्ग में स्थिरता, दृढ़ श्रद्धा, उत्कृष्ट संयम पालन, धीरज, तपोमय जीवन व मूल विनय को सीखने के लिए प्रेरणाजनक है।
तीर्थंकर नाम कर्म बन्ध के 20 बोल में भी उत्कृष्ट संयम धारी की भक्ति करने को कहा गया है।
यहां एक गाथा में अढी द्वीप शब्द आया है। यह क्या है।
तो सबसे पहले हम लोक को थोड़ा समझते है।
हमारा लोक 14 रज्जू ऊंचा व 343 घनाकार रज्जू विस्तृत है। रज्जू मतलब जैसे किलोमीटर, माइल अंतर - दूरी नापने की इकाई है वैसे ही रज्जू भी अंतर की ही एक इकाई या यूनिट है। जो बहुत बहुत बड़ा होता है, हम साधारण मनुष्य इसकी सही तरह कल्पना भी नही कर सकते उतना बड़ा ।
उस 343 घनाकार लोक में ही जीव रहते है। इससे बाहर का क्षेत्र अलोक कहते है वहा जीव नही है । इस 343 घनाकार रज्जू के लोक के मध्य में भी 1 रज्जू चौड़ाई वाली नली समान त्रसनाल है। जँहा सभी तरह के जीव रहते हैं । विशेषकर त्रस जीव , त्रस जीव यानि जिनमें हलन-चलन होता हो वे जीव । इस त्रस नाल के बाहर नहीं पाये जाते । इस त्रसनाल के बाहर के लोक में सिर्फ सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव ही रहते है।
अब लोक के 3 भाग किये गए है, सबसे नीचे अधोलोक है जो करीब 7 रज्जू यहां से नीचे तक है। जँहा 7 नरक है जिसमे जीव अपने पाप कर्मों को भोगता है। इसके अलावा कुछ देव, तिर्यंच व कुछ मनुष्य भी रहते है।
सबसे ऊपर करीब 7 रज्जू ऊंचा ऊर्ध्वलोक है। वहां सिर्फ तिर्यंच व देवताओं का निवास है।
ऊर्ध्वलोक व अधोलोक के मध्य में इन दोनों की अपेक्षा अत्यंत छोटा भाग जो कि सिर्फ 1800 योजन ऊंचा है, (योजन भी अंतर नापने की एक इकाई है, एक योजन मतलब #अभी 13- 14 किलोमीटर )वह मध्यलोक कहलाता है। जँहा मुख्यतया मनुष्य व तिर्यंच औऱ फिर कुछ प्रकार के देव रहते है। यह सभी त्रसनाल के भीतर ही है।
मध्यलोक में सबसे केंद्र में एक लाख योजन ऊंचा व 10, 000 योजन करीब चौड़ा मेरु पर्वत है । इस से लग कर क्रम से एक द्वीप, एक समुद्र, एक द्वीप एक समुद्र ऐसे लगातार लोक के अंत तक है। सबसे अंत मे स्वयंभू रमण समुद्र है। मेरु पर्वत के सटकर जो द्वीप है वह एक लाख योजन चौड़ा थाली आकार का है, उसके बाद सभी द्वीप समुद्र एक दूसरे से दुगुने नाप वाले व चूड़ी आकार के है।
जंबुद्वीप के बाद लवण समुद्र फिर घातकीखण्ड, फिर कालोदधि समुद्र, फिर पुष्कर द्वीप है।
इस पुष्कर द्वीप के आधे हिस्से तक ही मनुष्य रहते है। यानी जंबुद्वीप, घातकीखण्ड व आधा पुष्कर द्वीप। ये कुल अढाई द्वीप में ही मनुष्य रहते है इस के आगे मनुष्य होते नही। यह अढाई द्वीप को मनुष्यक्षेत्र भी कहते है। अब साधु संत सिर्फ मनुष्य बनते है। तो अढाई द्वीप में ही साधु संत है।
ऊपर की गाथाओमे इन सभी साधुभगवन्तो को नित्य वन्दन , नाम स्मरण करने का सूचन किया गया है। जो कि हमारे लिए, भवसागर तैरने के लिए अत्यंत उपयोगी है।
एक और शब्द
पंच महाव्रत यानी साधुजी संयम ग्रहण के समय 5 मुख्य पापो का सर्वथा त्याग करते है। स्पष्टतः। वीर प्रभु के पहले के यानी दूसरे प्रभुसे 23 वे प्रभु तक के सन्तो को चतुर्याम धर्म था। यानी चार व्रत। इसमे ब्रह्मचर्य व्रत को परिग्रह व्रत में निहित कर लिया जाता था। पर काल अनुसार शिष्यों की मति बदलते अंतिम तीर्थंकर के शासन में पांच महाव्रतों की प्ररूपणा की गई।
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संकलन सन्दर्भ : - विभिन्न ग्रन्थ से।
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो, जाने अनजाने तथ्यों को गलत बताया, छुपाया हो तो मिच्छामि दुक्कडम।
लोक की थोड़ी औऱ जानकारी मेरी वाल पर 4 माह पूर्व की पोस्ट्स में है।
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जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो, जाने अनजाने तथ्यों को गलत बताया, छुपाया हो तो मिच्छामि दुक्कडम।
Fb ग्रुप जैनिज़्म
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संकलन सन्दर्भ : - विभिन्न ग्रन्थ से
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो, जाने अनजाने तथ्यों को गलत बताया, छुपाया हो तो मिच्छामि दुक्कडम।
Fb ग्रुप जैनिज़्म
All india jain aagam group
संकलन सन्दर्भ : - विभिन्न ग्रन्थ से
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो, जाने अनजाने तथ्यों को गलत बताया, छुपाया हो तो मिच्छामि दुक्कडम।
पद्मावती मयणरेहा , द्रौपदी दमयंती सीत ।
इत्यादिक सतियाँ, गईं जन्मारो जीत ।। 106 ।।
जिनशासन को हम कितना महान देखे, जाने समझे!!
इतने सारे महान पात्र यहां हो गये जिनकी गाथा का वर्णन भी हम अपनी मर्यादा से पूरा नही कर पाते। तो उनका चारित्र उन महान हस्तियों ने कैसे जिया व निभाया होगा।?
आचार्य जयमलजी महाराजसाहेब का हमपर यह अनहद या अतुल्य उपकार है , जो इस स्तुति में इतने नामो को उजागर किया, उनकी जीवन चरित्र पढ़कर हम हमारे धर्म मार्ग में आगे बढ़ सके। उस स्तुति के माध्यम से रोजाना हम इनके गुणो को वन्दन नमन कर सके।
ऊपर की गाथा में उन महान सतीरत्नो के उत्कट चारित्र्य गुणो को नमन है जिनका वर्णन सिर्फ जैनागमों में ही नही पर वैदिक शास्त्रों में भी अत्यंत सन्मान के साथ किया गया है।बस
एक ही शब्द नीकलता है हृदय की गहराई से,
अहो, अहो, धन्य है जिनशासन !
पद्मावतीजी : - 1
चेटकराजा की द्वीतीय पुत्री पद्मावतीजी । इनका विवाह चंपानगरी के राजा दधिवाहन से हुआ था। ये वही दधिवाहन राजा है , जिनकी एक रानी अभया ने सुदर्शन श्रावक पर शीलभंग का मिथ्या आरोप लगाया था और सुदर्शन श्रावक के शील के प्रभाव से उन्हें जिस शूली पर चढ़ाया जा रहा था वह सिंहासन में परिवर्तित हो गई थी।
चंपानगरी के इसी राजा दधिवाहन की एक रानी धारिणी ने शत्रु आक्रमण के समय रथीक से अपने शील की रक्षा व अपनी पुत्री वसुमतीजी को शीलभंग से बचने की शिक्षा देते हुए अपनी जिव्हा काटकर अपने प्राण त्याग दिए थे। वही बालिका राजकुमारी ने आगे चलकर वीरप्रभु की प्रथम शिष्या व 36000 साध्वियों के गण प्रमुखा आर्या चन्दनबाला जी बनी।
उन्हीं दधिवाहन की रानी पद्मावतीजी। विवाह पश्चात रानी गर्भवती बनी। गर्भावस्था में रानी को एक दोहद उत्पन्न हुआ।
दोहद : - गर्भावस्था में स्त्री को जो अलग अलग इच्छा होती है उन्हें दोहद कहा जाता है। यह गर्भका भी प्रभाव भी हो सकता है। जैन इतिहास में इसका वर्णन बहुत सुनने पढ़ने में आता है। उन दोहद को पूरा करने की कोशिश भी पूर्णतः की जाती है। ताकि गर्भिणी स्त्री को आनन्द प्राप्त हो और स्वस्थ पुत्र को जन्म दे सके । जैसे श्रेणिक राजा का पूर्वभव के वैरी सेनक तापस का जीव श्रेणिक की ही रानी चेलना के गर्भ में आया , तब चेलना को श्रेणिक राजा के कलेजे का मांस खाने का दोहद हुआ था। जैन धर्मानुरागी, पति परायणा, अहिंसक जैन धर्म मे अनुरक्त चेलना को ऐसे घातक दोहद के होने से उसी समय पता चल गया था कि गर्भ में वैरी पुत्र , पिता का घातक बनेगा। इसी लिए चेलना ने दोहद की बात किसी को बताई नही ।पर किसी तरह श्रेणिक को यह पता चल ही गया। अभयकुमार ने अपनी तीक्ष्ण बुद्धि से श्रेणिक को नुकसान पहुंचाए बिना चेलना रानी का दोहद पूर्ण करवाया था। चेलना ने अमंगल समझकर पुत्र कोणिक के जन्म के समय ही उसका त्याग कर दिया था। पर श्रेणिक की उदारता थी कि वह कोणिक को वापिस ले आया।
रानी पद्मावतीजी को भी कुछ विचित्र दोहद उत्पन्न हुआ। राजा का वेश पहनकर, राजा के सभी चिह्न धारण कर हाथी पर बैठकर वह नगर में घूमते हुए वन में क्रीड़ा करने जाए। राजा स्वयं उनके चामर ढोले। ऐसे अजीब दोहद को रानी राजा को बता न पाए। पर मन की दुविधा, दोहद की अपूर्ति से वह खिन्न रहने लगी। उन्हें अस्वस्थ देखकर राजा ने अति आग्रह से पूछा तो रानी को उस दोहद की बात बतानी पड़ी।
अब राजा क्या करेगा?
ऐसा दोहद पूरा करेंगे ?
#बड़ीसाधुवंदना - 109
पद्मावती मयणरेहा , द्रौपदी दमयंती सीत ।
इत्यादिक सतियाँ, गईं जन्मारो जीत ।। 106 ।।
अब राजा क्या करेगा?
ऐसा दोहद पूरा करेंगे ?
#पद्मावतीजी 2
राजा ने बड़ी उदारता के साथ इस दोहद को पूर्ण करवाने का मन बनाया। तैयारियां की गई। बिल्कुल रानी की इच्छा की तरह रानी राजा के वेश व राजचिह्न धारण कर हाथी पर बैठी। राजा साथ बैठे हुए चामर ढोल रहे थे। चारो ओर सैनिक थे। यह सवारी नगर में घूमने लगी। नगर में पहले ही सूचना कर दी गई थी। प्रजा इस अनोखी सवारी व राजा की उदारता देखकर हर्षित हुई। रानी अपने दोहद की पूर्ति से संतुष्ट थी। नगर से होते हुए यह सवारी भृमण के लिए वन में निकली।
कुछ दूर वन में जाते ही अचानक हाथी को जाने क्या हुआ वह मदोन्मत्त बन गया। सूंढ़ ऊँचीकर जोर से चिंघाड़ की। और तीव्र गति से भागने लगा। महावत को भी गिरा दिया। सब सैनिकों को पीछे छोड़कर वह हाथी वन में भागने लगा। अचानक आई विपत्ति को देखकर हाथी पर बैठे हुए राजारानी स्तब्ध रह गए। राजा तुरन्त संभल गये वह अकेले होते तो कूदकर प्राण बचा लेते।पर साथ ही गर्भवती रानी भी थी। उनके प्राणों की रक्षा भी जरूरी थी। हाथी के मार्ग में आनेवाले वटवृक्षो को देखकर राजा ने जल्दी से उपाय ढूंढ लिया। रानी को कहा : - याबा जैसे ही कोई विशाल वटवृक्ष की लंबी शाखा दिखे तो हम उसे पकड़कर अपने प्राण बचा लेंगे। रानी भी श्रम गई थी। उसने राजा को अनुमति दी। जैसे एक अच्छा वृक्ष दिखा रानी ने राजा ने रानी को वह वृक्ष की शाखा पकड लेने को कहा। वृक्ष नजदीक आया , राजा ने वृक्ष की शाखा पकड़ ली। और शाखा पकड़कर नीचे उतर गए। पर रानी शाखा नही पकड़ पाई। राजा भी अब पीछे छूट गए । हाथी अभी भी भाग रहा था। मन मे अरिहंतो का , नवकार महामंत्र का स्मरण करती रानी हाथी के ऊपर रही इस विपत्ति से बचने की प्रार्थना करने लगी।
काफी लंबे समय तक हाथी अनजान वन में भागता रहा। रात्री भी होकर पूर्ण होने आए। अब हाथी थक चुका था। एक जलाशय देखकर पानी पीने रणक गया। तब रानी नीचे उतर गई।
अब वन में भयभीत हिरनी की माफिक वह घूमन लगी। अनजान मार्ग में वह जाए भी तो कहां!!
घूमते घूमते एक ग्राम में पहुंची। वहां कुछ साध्विजियो का संघ भी था। उन्होंने रानी को आश्वासन व आश्रय दिया। कुछ समय उनके साथ रहने , उनकी वाणी सुनकर अब वह विरक्त हुई। अभी तक गुरुणी जी को उनके गर्भावस्था या मूल परिचय नही बताया था। उसने गुरुणी से संयम ग्रहण किया। व आराधना में लग गई। कुछ समय पश्चात जब गर्भावस्था के लक्षण दिखे तब गुरुणी ने ऊनसे सच जानकर संघ वरिष्ठों की मदद से साध्वी पद्मावतीजी का गुप्त प्रसव करवाया। बालक को एक निसंतान चंडाल के श्मशान में छोड़ दिया। उस पुत्र को चंडाल ने अपना पुत्र बना लिया।
साध्वीजी पुनः अपने संघ में लौट आई। और आराधना में लगी।
चंडाल ने उस पुत्र का नाम करकण्डु रक्खा। विधि की विचित्रता देखे, तो आगे कुछ ऐसे घटनाक्रम बनता है कि करकण्डु अपने बाहुबल से एक बड़ा राजा बनते है। राजा बनने के बाद एक बार युद्ध मे अपने ही पिता से युद्धभूमि में टकराने के अवसर आता है। यह समाचार साध्वी पद्मावतीजी को मिलता है तब वे युद्धभूमि में जाकर पिता पुत्र का युद्ध रोकते है। एक दूसरे का परिचय देते है। युद्धभूमि में पिता पुत्र का मिलन देख साध्वीजी पुनः अपनी साधना में लग जाते है। उत्कृष्ट आराधना से अपना मार्ग प्रशस्त करते है।
धन्य धन्य जिनशासन
हमने प्रत्येक बुद्ध करकण्डुजी का चरित्र आगे की गाथाओमे देखा था ।
#बड़ीसाधुवंदना - 110
पद्मावती मयणरेहा , द्रौपदी दमयंती सीत ।
इत्यादिक सतियाँ, गईं जन्मारो जीत ।। 106 ।।
#मयणरेहा - 1
पिछली गाथाओमे हमने 4 प्रत्येक बुद्ध की कथा पढ़ी थी उन्हीं 4 में से एक नमिराजा की महासती माता मयणरेहा यानी मदनरेखा का जीवन चारित्र भी अति प्रेरक है।
सुदर्शनपुर के नरेश थे मणिरथ। उनके लघुभ्राता युगबाहु युवराज पद पर थे। दोनो भ्राता में अत्यंत अनुराग था। पर वह अनुराग विषय की आग में झुलस गया।
क्या हुआ?
युगबाहु की पत्नी का नाम था मदनरेखा व उसके एक छोटा पुत्र था चन्द्र यश । मदनरेखा ने दूसरा गर्भ धारण किया। एक बार बड़े भाई मणिरथ की विषयी दृष्टि मदनरेखा पर पड़ी। और कामी मन उस पर आसक्त हो गया। मदनरेखा के साथ भोग भोगने के लिए वह लालायित हो उठा। उस वासना के चलते सही गलत का सब विवेक वह भूल बैठा। समाज , भाई के रिश्ते, नैतिकता की सभी मर्यादा उसने दासी द्वारा उपहार भेज कर मदनरेखा से प्रणय निवेदन किया।
मदनरेखा दृढ़ धर्मी, पति परायण नारी थी। उसने दासी को धुत्कार कर मणिरथ का प्रणय निवेदन ठुकरा दिया।
इस इन्कार ने मणिरथ को और पागल बना दिया। उसने येनकेन प्रकारेण मदनरेखा को प्राप्त करने का जाल बिछाया। सरहद पर युद्ध का बहाना कर के युगबाहु को नगर से बाहर भेज दिया। भाई पर पूर्ण विश्वास करने व युद्ध मे अपना शौर्य दिखाने बहादुर युगबाहु सरहद पर चला गया।
इधर रात के सन्नाटे में मणीरथ मदनरेखा के महल में आया। मदनरेखा को मणिरथ के षड्यंत्र की शंका तो थी ही । वह शील के लिए सजग नारी गुप्त द्वार से महल छोड़कर युगबाहु की माता के महल चली गई। मणिरथ हाथ मलता रह गया। कुछ दिनों में ही सरहद के युद्ध में विजय प्राप्त कर युगबाहु लौट रहे है यह समाचार आया।
मणिरथ को यह अच्छा नही लगा। काश किसी तरह युगबाहु मृत्यु को प्राप्त हो जाये तो मैं मदनरेखा को प्राप्त कर सकूंगा। कुछ ऐसे ही सोचकर युगबाहु को सन्देश पहुँचाया की आप नगरी के बाहर रुके। दूसरे दिन भव्य स्वागत के साथ विजय जुलुस निकालते हुए तुम नगरप्रवेश करना।
युगबाहु नगर के बाहर छावनी में रुक गया। मदनरेखा को फिर अनिष्ट की आशंका हुई। रात में ही वह छावनी में पति के पास पहुंची। मणिरथ भी रात के अंधेरे का लाभ उठाकर छावनी में आ गया। उसे पहचानने वाले सैनिकों ने भी उसे रोका नही।
वह नंगी तलवार लेकर युगबाहु व मदनरेखा के तंबू में पहुंचा। मदनरेखा युगबाहु को सावधान करे उससे पूर्व ही मणिरथ ने तलवार का एक प्राणघातक वार युगबाहु पर कर दिया। और वहां से भाग गया।
युगबाहु अंतिम सांसे गिनने लगा था। तब महासती मदनरेखा ने विलाप या आर्तध्यान की जगह बहादुरी से काम लिया। पति युगबाहु आर्त रौद्र ध्यान में कहीं अपना अगला भव न बिगाड़ ले यह अब मदनरेखा का लक्ष्य था। उसने युगबाहु को अंतिम साधना करवाई। जगत के सभी जीवों के प्रति राग द्वेष खत्म करवाने का बोध दिया। भाई मणिरथ पर भी लेशमात्र द्वेष या क्रोध न करने को समझाया। सब कर्मो के अधीन होता है तो अब कोई कर्म ऐसे न बांधे की वैर की परंपरा आगे चले। मदनरेखा का श्रम रंग लाया। युगबाहु ने आलोचना ली। सभी से रागद्वेष त्याग कर खमतखामना किया व काल कर देव बने।
अब सती मदनरेखा क्या करे?
राजमहल में पुत्र चन्द्र यश था। उदर में पल रहे गर्भ की चिंता, पति का वियोग व अब मणिरथ का मार्ग भी निष्कंटक हो गया तो उससे अपने शील की रक्षा!!!
देखते हैं आगे
#बड़ीसाधुवंदना - 111
पद्मावती मयणरेहा , द्रौपदी दमयंती सीत ।
इत्यादिक सतियाँ, गईं जन्मारो जीत ।। 106 ।।
#मयणरेहा - 2
मदनरेखा बहादुर धर्मनिष्ठ नारी थी। घबराकर आर्तध्यान की जगह उसने सब संयोगों का विचार किया। व अंत मे छावनी से महल जाने की जगह रात के अंधेरे में ही नगर का त्याग कर दिया। अरिहंत का शरण लेकर वह नगर से दूर निकल गई। सुबह होते होते वह नगर से काफी दूर एक वनके जलाशय के पास पहुंच गई। वँहा उसे प्रसव वेदना हुई। बहादुर नारी ने अकेले ही जंगल मे सुंदर पुत्र को जन्म दिया। पुत्र की शुद्धि कर उसे अपनी निशानी पहनाई, वृक्ष की शाखा पर झोली में बांधकर वह स्वयं शुद्धि के लिए जलाशय में उतरी।
पर हाय रे कर्म का विपाक!
वहां से ऊपर विमान से गुजर रहे एक विद्याधर ने उसे देखा, उसके सौंदर्य पर मोहित होकर उसने मदनरेखा को उठा कर विमान में ले लिया। प्रसव वेदना से थकी मदनरेखा इस आक्रमण से बेहोश हो गई।
जब होंश आया तब वह अपने आप को अपहृत हुआ समझ कर , पुत्र को याद कर रोने लगी। विद्याधर ने उससे प्रणय निवेदन किया। मदनरेखा ने उसे दुत्कार दिया।
उस विद्याधर के पिता केवलज्ञान प्राप्त मुनि थे। मार्ग में ही होने से वह विद्याधर पिता मुनि के दर्शन करने रुका। मदनरेखा ने भी हर्षित होकर दर्शन करने आने की इच्छा व्यक्त की। मदनरेखा को विश्वास था, केवली भगवंत मेरी वेदना को समझेंगे व पुत्र को प्रतिबोध देकर मुझे इस आपत्ति से बचा लेंगे।
और हुआ भी वैसा ही। केवली भगवन्त ज्ञान से पुत्र के अधम कृत्य को जान चुके थे। उन्होंने पुत्र को प्रतिबोधित किया। विद्याधर को भी अपनी गलती का एहसास हुआ। मदनरेखा ने उसके नवजात पुत्र के बारे मे पुछा , तब विद्याधर ने उसे आश्वस्त किया कि उस पुत्र को मिथिला नरेश ले गए है और अपने पुत्र की तरह उसे स्वीकार किया है।
विद्याधर ने मदनरेखा को मुक्त किया। इन सब प्रपंचलीला से गुजर कर मदनरेखा विरक्त हो चुकी थी। साध्वीसमुदाय में आकर उसने संयम ग्रहण किया।
और मोक्षमार्ग की उत्कृष्ट साधना करने लगी।
समय बीतता गया। इधर उसके दोनो पुत्र बड़े हुए। चन्द्रयश मणिरथ के काल बाद सुदर्शनपुर का राजा बना। छोटा राजकुमार जिसका नाम नमीकुमार रखा गया था वह मिथिला का सम्राट बन गया।
एक बार चन्द्रयश राजा का एक उत्तम श्वेत हस्ति मदमस्त होकर मिथिला की सीमा में घुस आया। नमिराजा ने उसे पकड़वाकर उत्तम हस्ति रत्न जानकर अपने पास रख लिया ।
चन्द्रयश ने वह हाथी वापिस मांगा। नमिराजा ने इनकार कर दिया। दोनो भाई अपने संबन्ध से अनजान एक हाथी के लिए युद्ध करने को तैयार हो गये।
दोनो सेनाएं आमनेसामने आ गई।
यह समाचार साध्वी मदनरेखा को मिले। दोनो सगे भाई में युद्ध का अनर्थ!?? गुरुणी की आज्ञा लेकर महासतीजी रण मैदान में आये। दोनो राजाओको परिचय दिया। उनदोनो का परस्पर संबन्ध बताया तब दोनो को सुखद आश्चर्य हुआ। युद्ध छोड़ दोनो भाई गले मिल गये।
आर्या मदनरेखा जी ने दोनो भाई का मिलन करवाकर वापिस साध्विसंघ में आ गए। अपनी आराधना से उन्होंने आठो कर्मो का चूरा कर सिद्ध गति को प्राप्त किया।
इधर चन्द्रयश ने भी विरक्त होकर अपना राज्य नमिराजा को दे दिया और स्वयं दीक्षा अंगीकार की। कुछ समय बाद नमिराजा को हुए शिरोवेदना में एक कंगन के निमित्त से वैराग्य पाकर संयम लिया । (यह कथानक हम प्रत्येक बुद्ध की गाथा में पढ़ चुके है। ये वही नमिराजा है जो प्रत्येक बुद्ध हुए । )
महान सतीरत्नो को हमारा त्रिकाल वन्दन हो।
#बड़ीसाधुवंदना - 112
पद्मावती मयणरेहा , द्रौपदी दमयंती सीत ।
इत्यादिक सतियाँ, गईं जन्मारो जीत ।। 106 ।।
#द्रौपदी : -
एक बहुप्रसिद्ध पात्र।
जिसके पूर्व भव का वर्णन हम गाथा 51 में तथा उनके संयम ग्रहण की घटना गाथा 49 के विवेचन में पढ़ चुके है। यह सती रत्न का जीवनचरित्र इतनी सारी महान उपलब्धियों , इतनी विपत्तियों में रही वीरता के प्रसंगों से भरा हुआ है कि उनसे एक विशाल किताब तैयार हो सके।
हम संक्षिप्त में देखते है।
धर्मरूचि अनगार को कड़वा तुंबा व्होराकर उनकी मृत्यु के बाद सब से तिरस्कृत होती हुई नागश्री वन में अत्यंत वेदना के बाद काल कर नरक,तिर्यंच आदि कई भव करने के बाद सुकुमालिका बनी। उस भव में दीक्षा लेने के बाद एक दिन भोग विलास वाला दृश्य देखकर उसी तरह के भोग की कामना कर बैठी और निदान कर लिया जिसका प्रायश्चित भी नहीं किया तब आगामी भव में उसे पांच पति प्राप्त हुए । सुकुमालिका साध्वी से काल कर देव बनी वँहा से आयुष्य पूरा कर कंपिलपुर नरेश द्रुपद राजा की पुत्री बनी द्रौपदी। धर्मानुरागी , सुंदर सुशील द्रौपदी विवाह योग्य हुई। तब एक स्वयंवर में भवितव्यता अनुसार वह पांच पांडवो की पत्नी बनी।
हस्तिनापुर की रानी बनने के बाद दुर्योधन के कई षड़यंत्रो से त्रस्त पांडवों के साथ वह भी कर्म के फल को समभाव से सहती रही। दुर्योधन की नीचता की पराकाष्ठा थी, एक षड्यंत्र में उसने पांडवों को जुए के लिए आमंत्रित कर उन्हें छल से हराया।
युधिष्ठिर आदि भाइयों को भी जुए में जीतकर दुर्योधन ने दांव पर द्रोपदी को लगवाकर उसे भी जीत लिया। अधमता की सभी सीमाएं त्यागकर द्रौपदी को सभा मे घसीटकर लाया गया। उसके वस्त्र निकालने की घृणित चेष्टा की। द्रोपदी ने तब धर्म का शरण लिया। ढ़ेरों वस्त्र निकल जाने पर भी धर्म के पुण्य प्रभाव से द्रौपदी से वस्त्र लिपटा ही रहा। इतना घृणित कार्य इतिहास में न कभी हुआ न होगा। जिसे सुनकर ही हृदय व्यथा से भर जाता है।
इस घटना के बाद जुए में सर्वस्व हारे पांडवों को वनवास मिला। द्रोपदी ने इतना सब कुछ सहते हुए भी पिता के घर जाने की बजाय अपना पत्नीधर्म निभाते हुए वह हरदम पांडवों के साथ रही। एक राजकुमारी, एक साम्राज्ञी वन वन भटकी। वन में भी दुर्योधन की ईर्ष्या उन्हें जलाती रही। कुछ न कुछ तकलीफें दुर्योधन देता रहा। वन में कई बार अपने सतिधर्म का प्रभाव बताती द्रौपदी संकटो से लड़ती, बचती व परिवार को बचाती रही। इस परिवार ने इतने संकटो में भी धर्म की शरण नही छोड़ी।
वनवास के बाद शर्त अनुसार अज्ञातवास में वे विराट नगर में गुप्त रूप से रहे। वहां कीचक ने सैरंध्री बनी द्रौपदी पर कामी दृष्टि डाली। तब भीम ने उसका वध किया।
ऐसे विपत्तियों से जूझते हुए समय निकला।
महाभारत के संग्राम में विजय वरमाला पहनने के पश्चात एक मान्यतानुसार दुष्ट अश्वत्थामा ने द्रौपदी के पांच-पांच पुत्रो की सोते हुए नींद में हत्या कर दी। जब पांडव व कृष्ण वासुदेव द्वारा अश्वत्थामा पकड़ा गया तब महासती द्रौपदी ने अदभुत वीरता बताते हुए उसे माफ कर दिया।
अभी युद्ध विजय के पश्चात भी द्रौपदी की मुश्किलें खत्म नही हुई थी।
एकबार नारद को अन्यमती मानकर द्रोपदी ने उनका स्वागत नही किया तब नारद ने कपटलीला कर के घातकीखण्ड के पदम् राजा से द्रोपदी का अपहरण करवाया। श्रीकृष्ण की सहायता से पांडव द्रोपदी जी को वापिस लाये। उस घटना में पांडवों ने श्रीकृष्ण की थोड़ी मस्करी की तब कृष्ण ने उन्हें नगरी से निकाल दिया।
फिर पांडवों ने पांडव मथुरा बसाई और वहां राज्य करने लगे।
जराकुमार के द्वारा कृष्ण की मृत्यु के समाचार सुनकर पांचों पांडव व द्रोपदी ने संयम स्वीकार किया। उत्कृष्ट आराधना कर अंत मे पांचों पांडव मोक्ष व द्रौपदी देवलोक गये। अगले भव में महाविदेह से वे भी सिद्ध बुद्ध मुक्त बनेंगे।
महान सतीरत्नो को हमारा त्रिकाल वन्दन हो।
#बड़ीसाधुवंदना - 113
पद्मावती मयणरेहा , द्रौपदी दमयंती सीत ।
इत्यादिक सतियाँ, गईं जन्मारो जीत ।। 106 ।।
#दमयंतीजी - 1 : -
जिनशासन का एक और अनूठा पात्र, एक महान स्त्री साधक ।
कुंडिलपुर के राजा भीम की पुत्री थी दमयंती। सर्वांग सुंदर, धर्मनिष्ठ कन्या। विवाह योग्य होने पर पिता ने उनके लिए स्वयंवर का आयोजन किया। उसमे दमयंतीजी ने पूर्वभव के स्नेही निषध नरेश के पुत्र नलकुमार को पति रूप में चुन लिया। यह वँहा उपस्थित कृष्ण राजकुमार को पसन्द नही आया। उसने नलकुमार को युद्ध के लिए ललकारा। नलकुमार भी वीर योद्धा थे। चुनोती स्वीकार की। कुछ ही समय मे दोनो की विशाल सेनाएं युद्ध के लिए आमनेसामने तत्पर हो गई।
यह देख दमयंती ने सोचा : -
अहो! एक मेरे कारण इतने सारे मनुष्यो को क्लेश, व युद्ध की स्थिति? दमयंती को अत्यंत परिताप हुआ। उसने धर्म की शरण ली। उनके प्रभाव से अचानक कृष्ण कुमार का हृदय परिवर्तन हुआ। नलकुमार से माफी मांगकर वह चला गया।
दमयंती से ब्याह कर नलकुमार राजधानी लौटे। दोनो सुखरूप, धर्ममय जीवन जीने लगे। निषध नरेश ने नलकुमार को राज्य सिँहासन व छोटे पुत्र कुबेर को युवराज पद पर आसीन कर अपनी साधना हेतु संयम स्वीकार किया।
समय बीतता गया। नलकुमार का छोटा भाई युवराज कुबेर कुलांगार साबित हुआ। उसे राज्यका लोभ जागा। उसने भाई के जुए का शौक जानकर उसे जुए में हराकर सारा राज्य हड़प लिया।
पांडवों के समान नलकुमार को भी वनवास भोगना था। दमयंती को अपने पीहर चले जाने का कहा गया।
महासतीजी में सुख में साथ देकर दुख में अकेले छोड़ने वाली कहां होती है।
सीता, द्रोपदी की तरह दमयंतीजी ने भी पति का अनुसरण करने का निश्चय किया। नलकुमार को यह अत्यंत अफसोस था कि उसकी जुए की लत के कारण आज दमयंतीजी को वन के कष्टों को सहना पड़ेगा।
एक कुव्यसन का कितना घातक परिणाम। युधिष्ठिर व नलकुमार जैसे महापुरुषों का जीवन व्यसन से बचने की हमें कितनी स्पष्ट प्रेरणा देते है।
दमयंतीजी के साथ नलकुमार एक वन में आये। रात्रि का समय था। पति के साथ के विश्वास से निश्चिन्त दमयंतीजी निंद्राधीन हो गई। परन्तु उसके कष्ट देखकर नलकुमार की निंद्रा गायब थी।
नलकुमार ने सोचा जब में ही इसके साथ नही रहूंगा तब यह पीहर चली जायेगी व सुख से दिन गुजार सकेगी। यह सोचकर उसकी साड़ी पर पीहर चले जाने का संदेश लिख कर रात्रि में ही नलकुमार उसे त्यागकर चले गये।
अब वन में लाचार , निराधार दमयंतीजी क्या करेगी???
#बड़ीसाधुवंदना - 114
पद्मावती मयणरेहा , द्रौपदी दमयंती सीत ।
इत्यादिक सतियाँ, गईं जन्मारो जीत ।। 106 ।।
#दमयंतीजी - 2 : -
वन में सोयी हुयी दमयंती जी को छोड़कर नलकुमार वहां से चले गए। राह में संयमग्रहण के बाद देव बने नलकुमार के पिता ने उन्हें रूप परावर्तनी गुटिका ( या विद्या ) दी। संकट समय मे अपना रूप बदल लो, ताकि नलकुमार को संकट न आये।
कई दिनों के सफर के बाद वे सुंसुमार नगर पहुंचे। वहां एक हाथी मदोन्मत्त होकर सबको नुकसान पहुंचा रहा था। उस हाथी को नलकुमार ने वश में कर लिया। राजा अति प्रसन्न हुआ। उसने जब परिचय पूछा तब नलकुमार ने अपनी असलियत छुपाकर स्वयं को निषध नरेश नल का रसोइया बताया। वह सूर्य से भोजन बनाने की कला जानता है यह भी बोला। तब राजा ने उसे रसोईघर में काम पर रख लिया।
कुछ ही समय मे यह रसोइया राजा का खास आदमी बन गया।
इधर दमयंतीजी जब जागी तब स्वयं को अकेला पाकर घबरा गई। फिर नलकुमार का संदेश पढ़कर अत्यंत दुखी हुई। पर थी तो वो महान नारी रत्न। उसने कुछ ही समय मे अपने आपको संभाल लिया।
वन में से गुज़र रहे एक सार्थवाह के साथ चलने का निर्णय लिया। गई। सार्थवाह एक डाकुओं के दल से घिर गया तब दमयंतीजी ने अपने धर्म प्रभाव से उनकी रक्षा की। इसी तरह कई संकटो का सामना करते, दासी का काम करते हुए, तपस्या आदि करते हुए वह पिता के आग्रह से पीहर पहुंची। उसका मन अफसोस युक्त था कि पति दरबदर की ठोकर खा रहा होगा और वह राजकुमारी बनकर पीहर में रह रही है। भीम ने भी दामाद नलकुमार की खोज करवाई। पर कोई जानकारी प्राप्त नही हो रही थी। दमयंतीजी पति की याद से संतप्त हो रही थी। वहां भी उसने धर्मध्यान तपस्या का क्रम चालू रक्खा था।
कुंडिलपुर में एकबार किसी ने समाचार दिए कि दूर देश मे स्थित सुंसुमार पुर में राजा का एक रसोइया बहुत निपुण है। वह सूर्य से रसोई बनाता है, हाथी को भी वश में कर लेता है आदि। यह सब सुनकर राजा भीम व दमयंतीजी को विश्वास हो गया कि यह रसोइया ही नलकुमार है।
भीम राजा ने एक युक्ति की। एक दूत को सुंसुमार पुर भेज कर वहां के राजा को दमयंतीजी के स्वयंवर में आमंत्रण दिया।
दूत को खास सूचना दी, की स्वयंवर के निश्चित दिन से मात्र एक दिन पूर्व ही यह संदेश देना। नलकुमार अश्व विद्या का जानकार था। वही एक रात में लंबी दूरी तय करके कुंडिलपुर पहुंच सकेगा।
यहां राजा को दमयंतीजी के स्वयंवर का आमंत्रण मिला, पर एक दिन में इतनी लंबी दूरी तय करना असंभव जानकर निराश हो गया। रसोइया बने नलकुमार ने जब यह संदेश जाना तब उसने राजा को वहां पहुंचाने का आश्वासन दिया।
नलकुमार ने उत्तम जाती के अश्व पसन्द किये और शीघ्रतापूर्वक राजा को कुंडिलपुर ले आया।
वहां सभा मे अपना पुराना रूप वापिस धारण किया। और दमयंतीजी का पुनः स्वीकार किया। रसोइए को राजा के रूप में देखकर सुंसुमार पुर के राजा ने उससे क्षमा मांगी।
दमयंतीजी व नलकुमार का पुनः मिलन हुआ। कुछ दिनों में कुबेर को पता लगा तो उसने भी आकर क्षमा मांगी व राज्य लौटा दिया।
कई वर्षो तक राज्य का संचालन करने के बाद पुत्र पुष्कर को सिँहासन देकर दोनो दीक्षित हुए। आत्मसाधना में आगे बढ़े।
#बड़ीसाधुवंदना - 115
पद्मावती मयणरेहा , द्रौपदी दमयंती सीत ।
इत्यादिक सतियाँ, गईं जन्मारो जीत ।। 106 ।।
#सीताजी - 1 : -
इन महासतीजी की महागाथा कहा से शुरु करे और कहां पूरी करे यह भी गूढ़ रहस्य माफिक है।
इनका जीवन बहुत उतार-चढ़ाव से भरा रहा। राजकुमारी से रानी, फिर वनवासी फिर साम्राज्ञी फिर पति का त्याग , फिर अग्नि परीक्षा फिर संयम ग्रहण.... आने वाले भवो में भी यही मायाजाल!!!!!!
वैदिक मान्यता में भी जिन्हें लक्ष्मी का एक रूप या महादेवी के रूप में पूजा जाता है उन महासती सीता के अदभुत जीवनकथा के वर्णन का प्रयास भी मेरे सामर्थ्य से बाहर का विषय। फिर भी नन्हे बाल की तरह एक प्रयास अवश्य करूँगा।
मिथिलानरेश जनक की रानी विदेहा । उनके एक युगल पुत्र पुत्री का जन्म हुआ। पर पूर्वभव का कुछ वैर का दुर्भाव उदय में आया। सद्य जन्मा राजकुमार के पूर्वभव के वैरी प्रथम देवलोक के एक देव ने उस राजकुमार की हत्या करने के लिए अपहरण कर लिया।
उसका वध करने की सोच ही रहा था कि उसके मन मे शुभभाव जन्मे। वैर पर अनुकंपा ने विजय पाई। बालक को मारने की जगह विद्याधर नरेश चन्द्रगति के उपवन में छोड़ दिया। निसंतान चन्द्रगति राजा ने उसे पुत्र रूप में स्वीकार किया।
राजा जनक व विदेहा रानी पुत्र के अपहरण से अत्यंत दुखी हुए पर कर्म विपाक समझकर पुत्री सीता में ही अपना वात्सल्य न्यौछावर करने लगे। बालिका सीता रूप, गुण व उम्र में बढ़ने लगी। यौवन आते आते उसके सौंदर्य में अदभुत निखार आया।
विवाह योग्य होने पर जनक राजा आसपास के राजकुमारो में सीता योग्य वर खोजने लगे , पर किसी पर उनकी दृष्टि नही जमी।
इधर जनक पुत्र विद्याधर राजा चन्द्रगति के यहां भामण्डल नाम से पल बढ़ कर युवान हो रहा था।
एकबार जनक नरेश की सीमा पर म्लेच्छ राजा आतरंग का उपद्रव बढ़ने लगा। राजा जनक ने अपने पुराने मित्र अयोध्या के राजा दशरथ से सहाय मांगी। मित्र की सहाय करने राजा दशरथ स्वयं सज्ज होते हुए सेना तैयार की। राजा दशरथ के 4 पुत्र थे । राम, लक्ष्मण ,भरत, शत्रुघ्न।
यह राम इस अवसर्पिणी काल के आठवें बलदेव व लक्ष्मण आठवें वासुदेव थे। दोनो रूप, वीरता , शौर्य, धर्म आदि में अत्यंत गुणीयल थे। उन्होंने अपने होते हुए पिता को युद्ध मे जाते देख स्वयं जाने की विनती की। भारी मन से दशरथ ने नवयुवान राजकुमारो को युद्ध के लिए भेजा।
राम लक्ष्मण ने अपना पराक्रम दिखाते हुए मलेच्छ राजा को मार भगाया। राजा जनक व मिथिला की प्रजा अत्यंत हर्षित हुई। राजा जनक राम को सीता के लिए उपयुक्त वर समझने लगे थे कि अचानक एक घटना घटी।
नारद जी जनक के राजमहल आये। तब उनका थोड़ा अजीब देखाव कृशकाय शरीर, देह पर लंगोट, हाथ मे दण्ड, छत्र देखकर नादान सीता डर गई । सीता को डरा हुआ देख सैनिकों ने नारद जी को तिरस्कार पूर्वक वहां से भगा दिया। नारद इस अपमान से क्रोधित हुए। उन्होंने निर्दोष सीता से बदला लेने के लिए एक युक्ति की।
उन्होंने सीता का एक सुंदर चित्र बनाया व चन्द्रगति नरेश के पुत्र भामण्डल को दिखाया। सीता के गुणों की स्तुति कर भामण्डल के मन मे सीता के प्रति आसक्ति जगाई। अब सीता का सगा भाई पर रिश्तों से अनजान भामण्डल बहन पर मुग्ध होकर क्या करेगा??
महान सतीरत्नो को हमारा त्रिकाल वन्दन हो।
Fb ग्रुप जैनिज़्म
All india jain aagam group
संकलन सन्दर्भ : - विभिन्न ग्रन्थ से
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो, जाने अनजाने तथ्यों को गलत बताया, छुपाया हो तो मिच्छामि दुक्कडम।
#बड़ीसाधुवंदना - 116
पद्मावती मयणरेहा , द्रौपदी दमयंती सीत ।
इत्यादिक सतियाँ, गईं जन्मारो जीत ।। 106 ।।
#सीताजी 2 : -
अनजाने ही बहन सीता पर मोहित हुआ भामण्डल। जब चन्द्रगति नरेश को यह पता चला तब पुत्र के सुख के लिए उसने जनक राजा से बात करने के लिए उनका अपहरण करवाकर अपनी नगरी में बुलाया। और पुत्र भामण्डल के लिए सीता का हाथ मांगा। पर जनक तो राम को सीता के लिए चुन चुके थे। उन्होंने असमर्थता दिखलाई।
तब चन्द्रगति नरेश ने एक युक्ति बताई। उनके पास 2 रत्नमय, दिव्य, दृढ़, भारी, प्रभावयुक्त धनुष थे। वज्रावर्त और वरुणावर्त । जिन्हें चलाना तो दूर, उठाना भी सामान्य मनुष्यो के सामर्थ्य से बाहर था। उन्होंने सुझाव दिया कि आप एक स्वयंवर रचाइये। इसमे जो राजकुमार वह धनुष्य उठाकर उसकी प्रत्यंचा चढ़ा दें, उसे अपनी पुत्री का वाग्दान कर दीजियेगा।
राजा जनक ने बात मान ली। उन्हें राम के बल पर विश्वास हो चुका था। चन्द्रगति को विश्वास था कि भामण्डल के सिवा यह कार्य कोई मनुष्य नही कर पायेगा।
अंततः स्वयंवर की घोषणा की गई। राम लक्ष्मण मिथिला में ही थे। चन्द्रगति नरेश भी पुत्र भामण्डल के साथ आ गए। अन्य कई देशों के राजा व राजकुमार आये।
पर स्वयंवर में आये कोई राजकुमार , कोई राजा उन धनुष्यों को हिला तक नही पाये।भामण्डल पिता के कहे अनुसार अंत मे उठानेवाला था। अब बस राम लक्ष्मण बाकी थे। लक्ष्मण की विनती पर राम उठे, उस दैवी धनुष्य वज्रावर्त को फूल की तरह उठा लिया, उसे झुकाकर प्रत्यंचा भी चढ़ा दी। और प्रत्यंचा को कान तक खींच कर धनुष्य से ऐसे छोड़ा, की एक भयंकर गर्जना हुई। राजा जनक व सभी प्रजाजन अत्यंत हर्षित हुए। फिर लक्ष्मण ने वरुणावर्त धनुष्य को उठाकर प्रत्यंचा चढ़ा दी। भामण्डल व चन्द्रगति राजा निराश होकर चले गए।
सीता का विवाह राम से हुआ। जनक राजा के भाई कनक की पुत्री सुभद्रा का विवाह लक्ष्मण के साथ हुआ। वहां उपस्थित राजा व विद्याधरों में से 18 जनों ने अपनी पुत्री का विवाह वासुदेव लक्ष्मण के साथ किया।
अयोध्या नगरी में सभी का स्वागत हुआ। पूरी नगरी ने आनंदित होकर विवाहोत्सव मनाया।
एक दिन एक कंचुकी (दास, नोकर) की अत्यंत वृद्धावस्था देखकर राजा दशरथ संसार से विरक्त बने। यह वृद्धावस्था मुझे कमजोर करे उससे पहले में राम को राज्य देकर अपनी परलोक की आराधना कर लु। यह सोचने लगे।
वहां उस समय एक केवलीभगवन्त पधारे। राजा दशरथ परिवार समेत दर्शन वन्दन के लिए पधारे।
इधर निराश भामण्डल को लेकर आकाशमार्ग से भ्रमण पर निकले चन्द्रगति नरेश भी उन केवलीमुनि के दर्शन करने नीचे उतरे। दर्शन वन्दन पश्चात चन्द्रगति ने भामण्डल के लिए उन केवलिभगवन्त से जिज्ञासा व्यक्त की। तब उन केवलीभगवन्त ने बताया कि जो हुआ वह अच्छा ही हुआ। उन्होंने भामण्डल के वास्तविक मातापिता जनक - विदेहा का परिचय दिया। अपना असली परिचय सुनकर भामण्डल मूर्छित होकर गिर पड़ा। उसे जातिस्मरण ज्ञान हुआ। उसे अपने कृत्य पर बहुत पश्चाताप हुआ। वहां उपस्थित बहन सीता व बहनोई राम को प्रणाम किया। और माफी मांगी। सीता भी खोए भाई को पाकर हर्षित हुई। जनकराजा व विदेहा रानी को बुलाया गया। पुनः परिवार मिलन से सब हर्षित हुए। चन्द्रगति नरेश ने भामण्डल को राज्य सौंपकर संयम ग्रहण किया।
राजा दशरथ भी विरक्त बन चुके थे। राम का राज्याभिषेक करवाकर संयम ग्रहण करने का निश्चय किया।
राम के राज्याभिषेक की घोषणा की गई। सब तैयारियां होने लगी,
पर अचानक.....
न जाना जानकी नाथ ने कल सुबह क्या होना है।
तैयारी थी राज्याभिषेक की या वनगमन को जाना है ?
Fb ग्रुप जैनिज़्म
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संकलन सन्दर्भ : - विभिन्न ग्रन्थ से
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो, जाने अनजाने तथ्यों को गलत बताया, छुपाया हो तो मिच्छामि दुक्कडम।
#बड़ीसाधुवंदना - 118
पद्मावती मयणरेहा , द्रौपदी दमयंती सीत ।
इत्यादिक सतियाँ, गईं जन्मारो जीत ।। 106 ।।
#सीताजी 4 : -
महान वीर योद्धा रावण भवितव्यता वश महासती सीता को छल से उठा कर ले आया।
इसके आगे का कथानक काफी विस्तृत है। राम का सीता के वियोग में अत्यंत विलाप, सुग्रीव, हनुमान जी, नल नील आदि का राम से मिलन, रावण के प्रणय निवेदन का सीता जी द्वारा अस्वीकार, मंदोदरी का सीता को मनाने का निष्फल प्रयास, विभीषण का रावण को सीता को लौटाने का निष्फल उपदेश, सुग्रीव आदि द्वारा सीता की खोज, रत्न जटी द्वारा सीता के समाचार, हनुमान का लंका गमन, , फिर हनुमानजी का सीता से मिलन, अपहृत होने से अब तक तप कर रहे महासतीजी का पारणा, राम लक्ष्मण का रावण से युद्ध, विभीषण का राम की शरण मे आना, लक्ष्मण का बेहोश होना, विशल्या नामक सती के स्नानोदक से लक्ष्मण का उपचार, अंत मे रावण की मृत्यु व विभीषण का राज्याभिषेक। इसके बाद सीता को लेकर अयोध्या प्रवेश।
यह विस्तृत गाथा स्थान समय अनुसार यहां पूर्णतया वर्णन करना थोड़ा कठिन।
फिर भी इन सभी वर्णन में तथा अभी आगे और आनेवाले कथानक में सीता महासती का शील - चारित्र का उत्कट पालन , उनकी धर्मनिष्ठा, उनका पतिव्रत पालन व श्रद्धा अजोड़ उभरकर आता है। महासतीजी के चारित्र का संक्षिप्त में वर्णन करना मुश्किल होते हुए, उनके गुणों का अंशमात्र आच्छादन न हो ऐसे लिख पाना कठिन होते हुए भी एक प्रयास किया है। फिर भी संकलन में कहीं कोई त्रुटि कोई अशातना हुई हो तो में खमाता हूं।
जिज्ञासुओं को इस कथानक का विस्तृत पठन के लिए तीर्थंकर चरित्र भाग 2 पढ़ने का सूचन अवश्य करूँगा।
अयोध्या प्रवेश के बाद राम भरत आदि का मिलन हुआ। भरतजी विरक्त ही थे। उन्होंने संयम आज्ञा मांगी। उन्होंने संयम ग्रहण कर मुक्ति की राह पकड़ ली।
राम की आज्ञा से उनका बलदेव व लक्ष्मण का वासुदेव पद पर अभिषेक हुआ। अब सुखभरे दिन बीत रहे थे। वनभ्रमन दौरान विवाहित लक्ष्मण की सारी पत्नियां अब अयोध्या आ चुकी थी। उनकी अब कुल 16000 रानियां थी। राम चारो पत्नियों (सीता, प्रभावतीजी, रतिनिभा व श्रीदामा ) के साथ न्यायोचित राजगद्दी संभाल रहे थे। इन दिनों रानी सीता गर्भवती हुई। सारा परिवार हर्षित हुआ जैसे सारे दुख के बादल छट गये व सुख की बारिश हो रही। पर नही 😢
महासती के जीवन या किसी भी संसारी मनुष्य को शाश्वत सुख कहां?
अब क्या दुख आया???
Fb ग्रुप जैनिज़्म
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संकलन सन्दर्भ : - तीर्थंकर चरित्र
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो, जाने अनजाने तथ्यों को गलत बताया, छुपाया हो तो मिच्छामि दुक्कडम।
#बड़ीसाधुवंदना - 119
पद्मावती मयणरेहा , द्रौपदी दमयंती सीत ।
इत्यादिक सतियाँ, गईं जन्मारो जीत ।। 106 ।।
#सीताजी 5 : -
गर्भवती बनने के बाद सीता के लिए पति का स्नेह बहुत बढ़ जाएगा यह सोचकर राम की अन्य 3 पत्नियों के मन मे अशांति रहने लगी।
उन्होंने सीता के लिए एक षड्यंत्र की रचना की। राम के मन मे सीता के लंका निवास दौरान सीता के शील के लिए राम को शंकित कर दिया। यही नही, अपने गुप्तचरों द्वारा सीता के लिए प्रजा में भी जहर फैलाना शुरू किया।
यह कलंक कथा जब बहुत बढ़ गई तब अयोध्या सम्राट राम ने कुल की प्रतिष्ठा हेतु बहुत भारी मन से सीता के त्याग का निर्णय लिया।
राजा की प्रतिष्ठा, कुल मर्यादा के लिए सत्त्य को दब गया व गर्भवती सीता को वन भेज दिया गया।
वन में रानी सीता को पुंडरिकपुर नगर के राजा वज्रजंघ से मिलन हुआ। उसने सीता को भगिनी बनाकर आश्वस्त किया। राजा वज्रजंघ बहन सीता को अपने नगर में ले आया। यहां भी सीता का मन पति राम में ही लगा रहा। गर्भकाल पूरा होते सीता ने युगल पुत्रो को जन्म दिया। जिनके नाम अनंग लवण व मदनांकुश रखे गए।
यह दोनो राजकुमार बड़े होते गए। रूप, वीरता, मातृभक्ति आदि गुणों में श्रेष्ठ बने। युवान होते एक बार नारद जी द्वारा उन्हें अपने मुख्य कुल, पिता राम द्वारा माता सीता का त्याग आदि घटना की जानकारी मिली तब वे अयोध्या जाकर पिता से माता को किये अन्याय का प्रति उत्तर लेने को व्याकुल हो उठे।
दोनो वीर सेना लेकर पुंडरिकपुर से अयोध्या चले। राह में आते राज्यो को अपना पराक्रम दिखाकर, उन्हें झुकाकर वे अयोध्या पहुंचे। और रामराज्य को युद्ध के लिए ललकार की।
रण मैदान में जब नारद द्वारा सत्य का पता चला तब राम भाव विभोर हो उठे। प्रिया सीता व पुत्र मिलन के हर्ष आवेग से वे मूर्छित हो गये।
वहाँ आकाशमार्ग से सीता को भी बुला लिया गया। परन्तु अभी लोकापवाद का कंटक था ही। राम ने उसके लिए सीता पर उनके दृढ़ विश्वास को समझकर समस्त नगरजनो के सामने दिव्य ( परीक्षा) का प्रस्ताव रखा। राम को विश्वास था सीता के सतीत्व पर। वह विश्वास जनता को भी हो उसके लिए यह आवश्यक था।
सीता आई। नगरजनो की चीक्कार भीड़ के सामने सीता ने अपने निष्कलंक चारित्र को साबित करने हेतु 5 दिव्य में से कोई भी करने को ततपर हो गई। 5 दिव्य यानी 5 परीक्षा - अग्नि प्रवेश, मंत्रित तन्दुल खाना, विषपान, उबलते सीसे का पान , जीभ से तीक्ष्ण शस्त्र उठाना ।
राम ने अग्निप्रवेश की तैयारी करने की आज्ञा दी। एक कुंड बनाया गया। उसे चंदन की लकड़ियों से भरकर उसमे आग लगाई गई। महासतीजी ने अग्निज्वाला से धधकते कुंड में प्रवेश किया। नवकार मन्त्र के स्मरण व पति परायण धर्म के बल पर वह अग्निकुंड जलकुंड में परिवर्तित हो गया।
समग्र जनता ने सीता के शील का चमत्कार देख हर्ष व्यक्त किया। सीता के दिव्य के बाद राम सीता के स्वीकार हेतु उसके पास आये।
पर यह क्या?
सीता के मुख पर तो कोई अलग ही भाव थे। सीता अब संसार से विरक्त बन चुकी थी। इस अग्निपरीक्षा के बाद उनका वैराग्य दृढ़ बन चुका। उन्हें न राम से कोई ग्लानि थी , न नगरजनो के लिए कोई द्वेष। सभी दुख मात्र स्वयं के कर्म का फल समझकर अब उन्हें संसार की जड़े ही काटने का मन था।
वहीं जनमेदनी के सामने सीता ने अपने बालों का लोच किया। वहीं विराजमान एक केवलिभगवन्त के पास आकर विधिवत प्रवज्या स्वीकार की।
राम स्तब्ध रह गए। पर अब कुछ कहना सुनना व्यर्थ था। सीता जी ने संयम की उत्कृष्ट आराधना की। काल कर देवलोक में इंद्र बने। वहां से कुछ भव में वे भी मोक्ष प्राप्त करेंगे।
इस महागाथा का वर्णन मुझ से योग्य नही हुआ हो, महासतीजी के जीवन चरित्र वर्णन में कोई महत्त्व का हिस्सा बताना छूट गया हो, तो मुझ अल्पज्ञानी बाल जीव को क्षमा करें।
Fb ग्रुप जैनिज़्म
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संकलन सन्दर्भ : - तीर्थंकर चरित्र
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो, जाने अनजाने तथ्यों को गलत बताया, छुपाया हो तो मिच्छामि दुक्कडम।
#बड़ीसाधुवंदना - 120
चोबीसे जिन ना , साधु साध्वी सार।
गया मोक्ष देवलोके, हृदय राखो धार। 107।
इण अढी द्वीप मा , घणा तपसी बाल।
शुद्ध पंच महाव्रत धारी, नमो नमो तिहूं काल ।108।
इण यतियों सतियो ना, लीजे नित प्रति नाम ।
शुद्ध मनथी ध्यावो, एह तिरण नो ठाम। 109 ।
प्रस्तुत गाथाओ में पूज्य जयमलजी महाराज साहेब अतीत में हो चुके इस अवसर्पिणी काल के चौबीसों प्रभुजी के शासन में हुए सभी महाव्रत धारी संत सतीजीयो की महिमा बता रहे है। उन महान आत्माओंने उत्कृष्ट संयम की आराधना कर मोक्ष या देवलोक की प्राप्ति की।
इन सन्तो को किया गया वन्दन, उनका नाम स्मरण, उनके गुणों की स्तुति हमारे लिए इस भवसागर से पार उतरने के लिए एक मजबूत सुरक्षित नाव जैसे है। उन सभी का महान त्याग, उपसर्ग में स्थिरता, दृढ़ श्रद्धा, उत्कृष्ट संयम पालन, धीरज, तपोमय जीवन व मूल विनय को सीखने के लिए प्रेरणाजनक है।
तीर्थंकर नाम कर्म बन्ध के 20 बोल में भी उत्कृष्ट संयम धारी की भक्ति करने को कहा गया है।
यहां एक गाथा में अढी द्वीप शब्द आया है। यह क्या है।
तो सबसे पहले हम लोक को थोड़ा समझते है।
हमारा लोक 14 रज्जू ऊंचा व 343 घनाकार रज्जू विस्तृत है। रज्जू मतलब जैसे किलोमीटर, माइल अंतर - दूरी नापने की इकाई है वैसे ही रज्जू भी अंतर की ही एक इकाई या यूनिट है। जो बहुत बहुत बड़ा होता है, हम साधारण मनुष्य इसकी सही तरह कल्पना भी नही कर सकते उतना बड़ा ।
उस 343 घनाकार लोक में ही जीव रहते है। इससे बाहर का क्षेत्र अलोक कहते है वहा जीव नही है । इस 343 घनाकार रज्जू के लोक के मध्य में भी 1 रज्जू चौड़ाई वाली नली समान त्रसनाल है। जँहा सभी तरह के जीव रहते हैं । विशेषकर त्रस जीव , त्रस जीव यानि जिनमें हलन-चलन होता हो वे जीव । इस त्रस नाल के बाहर नहीं पाये जाते । इस त्रसनाल के बाहर के लोक में सिर्फ सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव ही रहते है।
अब लोक के 3 भाग किये गए है, सबसे नीचे अधोलोक है जो करीब 7 रज्जू यहां से नीचे तक है। जँहा 7 नरक है जिसमे जीव अपने पाप कर्मों को भोगता है। इसके अलावा कुछ देव, तिर्यंच व कुछ मनुष्य भी रहते है।
सबसे ऊपर करीब 7 रज्जू ऊंचा ऊर्ध्वलोक है। वहां सिर्फ तिर्यंच व देवताओं का निवास है।
ऊर्ध्वलोक व अधोलोक के मध्य में इन दोनों की अपेक्षा अत्यंत छोटा भाग जो कि सिर्फ 1800 योजन ऊंचा है, (योजन भी अंतर नापने की एक इकाई है, एक योजन मतलब #अभी 13- 14 किलोमीटर )वह मध्यलोक कहलाता है। जँहा मुख्यतया मनुष्य व तिर्यंच औऱ फिर कुछ प्रकार के देव रहते है। यह सभी त्रसनाल के भीतर ही है।
मध्यलोक में सबसे केंद्र में एक लाख योजन ऊंचा व 10, 000 योजन करीब चौड़ा मेरु पर्वत है । इस से लग कर क्रम से एक द्वीप, एक समुद्र, एक द्वीप एक समुद्र ऐसे लगातार लोक के अंत तक है। सबसे अंत मे स्वयंभू रमण समुद्र है। मेरु पर्वत के सटकर जो द्वीप है वह एक लाख योजन चौड़ा थाली आकार का है, उसके बाद सभी द्वीप समुद्र एक दूसरे से दुगुने नाप वाले व चूड़ी आकार के है।
जंबुद्वीप के बाद लवण समुद्र फिर घातकीखण्ड, फिर कालोदधि समुद्र, फिर पुष्कर द्वीप है।
इस पुष्कर द्वीप के आधे हिस्से तक ही मनुष्य रहते है। यानी जंबुद्वीप, घातकीखण्ड व आधा पुष्कर द्वीप। ये कुल अढाई द्वीप में ही मनुष्य रहते है इस के आगे मनुष्य होते नही। यह अढाई द्वीप को मनुष्यक्षेत्र भी कहते है। अब साधु संत सिर्फ मनुष्य बनते है। तो अढाई द्वीप में ही साधु संत है।
ऊपर की गाथाओमे इन सभी साधुभगवन्तो को नित्य वन्दन , नाम स्मरण करने का सूचन किया गया है। जो कि हमारे लिए, भवसागर तैरने के लिए अत्यंत उपयोगी है।
एक और शब्द
पंच महाव्रत यानी साधुजी संयम ग्रहण के समय 5 मुख्य पापो का सर्वथा त्याग करते है। स्पष्टतः। वीर प्रभु के पहले के यानी दूसरे प्रभुसे 23 वे प्रभु तक के सन्तो को चतुर्याम धर्म था। यानी चार व्रत। इसमे ब्रह्मचर्य व्रत को परिग्रह व्रत में निहित कर लिया जाता था। पर काल अनुसार शिष्यों की मति बदलते अंतिम तीर्थंकर के शासन में पांच महाव्रतों की प्ररूपणा की गई।
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संकलन सन्दर्भ : - विभिन्न ग्रन्थ से।
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो, जाने अनजाने तथ्यों को गलत बताया, छुपाया हो तो मिच्छामि दुक्कडम।
लोक की थोड़ी औऱ जानकारी मेरी वाल पर 4 माह पूर्व की पोस्ट्स में है।
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संकलन सन्दर्भ : - विभिन्न ग्रन्थ से
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो, जाने अनजाने तथ्यों को गलत बताया, छुपाया हो तो मिच्छामि दुक्कडम।
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संकलन सन्दर्भ : - विभिन्न ग्रन्थ से
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो, जाने अनजाने तथ्यों को गलत बताया, छुपाया हो तो मिच्छामि दुक्कडम।
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संकलन सन्दर्भ : - विभिन्न ग्रन्थ से
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