कथा महासती नर्मदा सुंदरी
*🏳🌈*🏳🌈महासती नर्मदा सुंदरी🏳🌈*
*🌸भाग - 1 🌸*
भरत क्षेत्र !
वर्धमानपुर नगर ! उस नगर में संप्रति नाम का राजा न्यायपूर्वक राज्य का पालन करता था ।
उसी नगर में ऋषभसेन नाम का सार्थवाह रहता था, उस सार्थवाह के वीरमती नाम की पत्नी थी । ऋषभसेन के सहदेव और वीरदास नाम के दो पुत्र और ऋषिदत्ता नाम की एक पुत्री थी ।
सार्थवाह ने अपने दोनों पुत्र और पुत्री को हर तरह का शिक्षण दिया । व्यवहारिक शिक्षण के साथ उन्होंने धार्मिक शिक्षण भी प्राप्त किया ।
धीरे-धीरे ऋषिदत्ता ने यौवन के प्रांगण में प्रवेश किया । यौवन वय में प्रवेश के साथ ही ऋषिदत्ता का देह-सौन्दर्य भी एकदम खिल उठा ।
अपनी पुत्री की युवावस्था को देखकर पिता के दिल में उसके सुयोग्य वर की चिंता सताने लगी । सार्थवाह की तीव्र अभिलाषा थी कि ऋषिदत्ता किसी जैन धर्म के उपासक को ही देनी है ।
अनेक मिथ्यादृष्टि युवक ऋषिदत्ता के साथ पाणिग्रहण करने के लिए समुत्सुक थे, परंतु ऋषभसेन अपनी पुत्री उन मिथ्यादृष्टियों को देने के लिए बिल्कुल राजी नहीं था ।
एक बार रूपचंद्रनगर से रूद्रदत्त नाम का वणिक् पुत्र व्यापार के उद्देश्य से उस नगर में आया । उसका ह्रदय मिथ्यात्व से वासित था । वह कुबेरदत्त नाम के मित्र के घर पर रहा हुआ था ।
रूद्रदत्त भी युवा था, उसके दिल में भी सांसारिक मौज मजा के लिए खूब उत्सुकता थी । एक बार वह अपने के गवाक्ष में बैठा हुआ था, तभी उसने सखी वृंद से युक्त रूप और लावण्य की साक्षात् प्रतिमा समान ऋषिदत्ता को देखा । ऋषिदत्ता के अद्भुत रूप-सौन्दर्य को देखकर वह रूद्रदत्त पानी-पानी हो गया । किसी भी उपाय से वह उसके साथ पाणिग्रहण करने के लिए उत्कंठित हो गया ।
वह रूद्रदत्त पुनः पुनः ऋषिदत्ता के रूप को देखने लगा । उसके रूप में मोहित बना रूद्रदत्त सोचने लगा, 'अहो ! यह कन्या कौन है ? कोई देवी है ? रति है ? प्रीति है या पातालकुमारी है ?
*शेष अगले अंक में....*
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
*लेखक - प. पू. आचार्यदेव श्रीमद्विजय रत्नसेनसूरीश्वरजी म.सा.*
संकलन - नीतेश बोहरा, रतलाम
किया ।
धीरे-धीरे ऋषिदत्ता ने यौवन के प्रांगण में प्रवेश किया । यौवन वय में प्रवेश के साथ ही ऋषिदत्ता का देह-सौन्दर्य भी एकदम खिल उठा ।
अपनी पुत्री की युवावस्था को देखकर पिता के दिल में उसके सुयोग्य वर की चिंता सताने लगी । सार्थवाह की तीव्र अभिलाषा थी कि ऋषिदत्ता किसी जैन धर्म के उपासक को ही देनी है ।
अनेक मिथ्यादृष्टि युवक ऋषिदत्ता के साथ पाणिग्रहण करने के लिए समुत्सुक थे, परंतु ऋषभसेन अपनी पुत्री उन मिथ्यादृष्टियों को देने के लिए बिल्कुल राजी नहीं था ।
एक बार रूपचंद्रनगर से रूद्रदत्त नाम का वणिक् पुत्र व्यापार के उद्देश्य से उस नगर में आया । उसका ह्रदय मिथ्यात्व से वासित था । वह कुबेरदत्त नाम के मित्र के घर पर रहा हुआ था ।
रूद्रदत्त भी युवा था, उसके दिल में भी सांसारिक मौज मजा के लिए खूब उत्सुकता थी । एक बार वह अपने के गवाक्ष में बैठा हुआ था, तभी उसने सखी वृंद से युक्त रूप और लावण्य की साक्षात् प्रतिमा समान ऋषिदत्ता को देखा । ऋषिदत्ता के अद्भुत रूप-सौन्दर्य को देखकर वह रूद्रदत्त पानी-पानी हो गया । किसी भी उपाय से वह उसके साथ पाणिग्रहण करने के लिए उत्कंठित हो गया ।
वह रूद्रदत्त पुनः पुनः ऋषिदत्ता के रूप को देखने लगा । उसके रूप में मोहित बना रूद्रदत्त सोचने लगा, 'अहो ! यह कन्या कौन है ? कोई देवी है ? रति है ? प्रीति है या पातालकुमारी है ?
*शेष अगले अंक में....*
*गतांक से आगे....*
*🏳🌈महासती नर्मदा सुंदरी🏳🌈*
*🌸भाग - 2 🌸*
उस कन्या के स्वरूप को जानने के लिए उसने चारों और पूछताछ की । कुबेरदत्त के द्वारा उसे पता चला कि यह तो ऋषभसेन श्रावक की पुत्री है और वह ऋषभसेन श्रावक के बिना किसी भी मिथ्यादृष्टि को अपनी पुत्री देने के लिए राजी नहीं है ।
किसी भी उपाय से ऋषिदत्ता को मुझे प्राप्त करना है । इस प्रकार का दृढ़ निश्चय कर वह रूद्रदत्त ऋषिदत्ता को पाने के लिए कपटी श्रावक बन गया । किसी जैन मुनि के सानिध्य में रहकर उसने जैन धर्म का प्राथमिक परिचय भी प्राप्त कर लिया ।
ऋषभसेन को प्रभावित करने के लिए मायापूर्वक वह प्रभुभक्ति और पूजा-पाठ भी करने लगा । उसने अपने बाह्य आचरण से ऋषभसेन को खूब प्रभावित किया । ऋषभसेन भी उसकी कपटलीला को समझ नहीं पाया । एक बार रूद्रदत्त के बाह्य आचरण से प्रभावित हुए ऋषभसेन ने रूद्रदत्त को अपने गृहांगण में भोजन के लिए आमंत्रित किया । उसके प्रभुभक्ति और जैन धर्म के बाह्य आचारों से प्रभावित हुए ऋषभसेन ने अपनी पुत्री का पाणिग्रहण रूद्रदत्त के साथ करा दिया ।
रूद्रदत्त की मनोकामना पूर्ण हो चुकी थी । उसके आनंद का पार न रहा । वह अपने आपको कृतार्थ समझने लगा । कुछ दिनों तक उसी नगरी में रहकर वह रूद्रदत्त अपने नगर में आकर अपने माता-पिता से मिला ।
ऋषिदत्ता जैसी खूबसूरत पुत्रवधू पाकर उसके माँ-बाप भी बहुत खुश हुए ।
अपने लक्ष्य की पूर्ति हो जाने से अवसर देखकर रूद्रदत्त ने जैन धर्म को छोड़ दिया ।
पति के संसर्ग से ऋषिदत्ता ने भी जैन धर्म छोड़ दिया ।
*आम और नीम के मूल के संयोग से आम को ही नुकसान होता है आम ही नीम में बदलता है, न कि नीम आम में ।*
दुनिया में अच्छी वस्तु का प्रभाव जल्दी नहीं होता है, जबकि खराब वस्तु का प्रभाव जल्दी होने लगता है । मुर्दे के संग से वायु भी दुर्गंधित हो जाती है ।
*शेष अगले अंक में....*
*गतांक से आगे....*
*🏳🌈महासती नर्मदा सुंदरी🏳🌈*
*🌸भाग - 3 🌸*
उस कन्या के स्वरूप को जानने के लिए उसने चारों और पूछताछ की । कुबेरदत्त के द्वारा उसे पता चला कि यह तो ऋषभसेन श्रावक की पुत्री है और वह ऋषभसेन श्रावक के बिना किसी भी मिथ्यादृष्टि को अपनी पुत्री देने के लिए राजी नहीं है ।
किसी भी उपाय से ऋषिदत्ता को मुझे प्राप्त करना है । इस प्रकार का दृढ़ निश्चय कर वह रूद्रदत्त ऋषिदत्ता को पाने के लिए कपटी श्रावक बन गया । किसी जैन मुनि के सानिध्य में रहकर उसने जैन धर्म का प्राथमिक परिचय भी प्राप्त कर लिया ।
ऋषभसेन को प्रभावित करने के लिए मायापूर्वक वह प्रभुभक्ति और पूजा-पाठ भी करने लगा । उसने अपने बाह्य आचरण से ऋषभसेन को खूब प्रभावित किया । ऋषभसेन भी उसकी कपटलीला को समझ नहीं पाया । एक बार रूद्रदत्त के बाह्य आचरण से प्रभावित हुए ऋषभसेन ने रूद्रदत्त को अपने गृहांगण में भोजन के लिए आमंत्रित किया । उसके प्रभुभक्ति और जैन धर्म के बाह्य आचारों से प्रभावित हुए ऋषभसेन ने अपनी पुत्री का पाणिग्रहण रूद्रदत्त के साथ करा दिया ।
रूद्रदत्त की मनोकामना पूर्ण हो चुकी थी । उसके आनंद का पार न रहा । वह अपने आपको कृतार्थ समझने लगा । कुछ दिनों तक उसी नगरी में रहकर वह रूद्रदत्त अपने नगर में आकर अपने माता-पिता से मिला ।
ऋषिदत्ता जैसी खूबसूरत पुत्रवधू पाकर उसके माँ-बाप भी बहुत खुश हुए ।
अपने लक्ष्य की पूर्ति हो जाने से अवसर देखकर रूद्रदत्त ने जैन धर्म को छोड़ दिया ।
पति के संसर्ग से ऋषिदत्ता ने भी जैन धर्म छोड़ दिया ।
*आम और नीम के मूल के संयोग से आम को ही नुकसान होता है आम ही नीम में बदलता है, न कि नीम आम में ।*
दुनिया में अच्छी वस्तु का प्रभाव जल्दी नहीं होता है, जबकि खराब वस्तु का प्रभाव जल्दी होने लगता है । मुर्दे के संग से वायु भी दुर्गंधित हो जाती है ।
*शेष अगले अंक में....*
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*लेखक - प. पू. आचार्यदेव श्रीमद्विजय रत्नसेनसूरीश्वरजी म.सा.*
संकलन - नीतेश बोहरा, रतलाम
*7 अक्टूबर 2019, सोमवार*
*गतांक से आगे....*
*🏳🌈महासती नर्मदा सुंदरी🏳🌈*
*🌸भाग - 4 🌸*
ऋषिदत्ता के माता-पिता को जब इस बात का पता चला कि ऋषिदत्ता ने जिनधर्म छोड़ दिया है और वह मिथ्यात्व से वासित हो गई है, तो यह सब जानकर उन्हें अत्यंत ही खेद हुआ । उन्होंने ऋषिदत्ता को अपने घर बुलाना बंद कर दिया ।
एक दिन ऋषिदत्ता ने एक पुत्ररत्न को जन्म दिया ! बालक का नाम महेश्वरदत्त रखा गया । धीरे-धीरे महेश्वरदत्त ने यौवन के प्रांगण में प्रवेश किया । उसने पुरुष योग्य सभी कलाएँ सीखीं ।
इधर ऋषभसेन के पुत्र सहदेव का विवाह श्रीदत्त श्रेष्ठी की पुत्री सुंदरी के साथ हुआ । समय बीतने पर शुभ स्वप्न से सूचित सुंदरी गर्भवती बनी ।
गर्भ के प्रभाव से सुंदरी को नर्मदा नदी में जलक्रीड़ा करने का दोहद उत्पन्न हुआ । एक दिन सहदेव ने नर्मदा नदी में जलक्रीड़ा की । सहदेव व्यवसाय हेतु नर्मदा नदी के तट पर ही रह गया । उसने वहाँ पर नर्मदापुर नाम के नगर की स्थापना की । उसने उस नगर में सुविशाल जिनमंदीर का निर्माण कराया । जिनभक्ति के द्वारा उसने आपने सम्यक्त्व का पोषण किया और उसे निर्मल बनाया ।
बहुत से व्यापारी उस नगर में आकर अपना व्यवसाय करने लगे । अनेक लोगों ने अनेक जिनमंदीरों का वहाँ निर्माण करा दिया ।
एक शुभ दिन सुंदरी ने एक तेजस्वी लक्षणयुक्त पुत्री को जन्म दिया ।पिता ने पुत्री का जन्म महोत्सव मनाया । एक शुभ दिन उस पुत्री का "नर्मदासुंदरी" इस प्रकार नामकरण किया । धीरे-धीरे नर्मदासुंदरी बड़ी होने लगी । उम्र की वृद्धि के साथ उसके रूप और सौन्दर्य में भी निखार आने लगा । नर्मदासुंदरी ने सभी कलाएँ अर्जित की ।
नर्मदासुंदरी के अद्भुत रूप और लावण्य को सुनकर ऋषिदत्ता ने अपने पुत्र के लिए उसकी याचना की, परंतु मिथ्याधर्म से वासित होने के कारण सहदेव ने अपनी पुत्री, ऋषिदत्ता के पुत्र को देने से इन्कार कर दिया । इस बात को जानकर ऋषिदत्ता को खूब आघात लगा ।
*शेष अगले अंक में....*
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*लेखक - प. पू. आचार्यदेव श्रीमद्विजय रत्नसेनसूरीश्वरजी म.सा.*
संकलन - नीतेश बोहरा, रतलाम
*गतांक से आगे....*
*🏳🌈महासती नर्मदा सुंदरी🏳🌈*
*🌸भाग - 5 🌸*
वह मन में अत्यंत ही पश्चाताप करती हुई सोचने लगी, "अहो ! मुझे धिक्कार हो ! मेरी ही दुष्प्रवृत्ति के कारण मैं अपने स्वजनों से ही दूर हो गई हूँ । जैन धर्म का त्याग करके मैं सबकुछ हार गई हूँ । अहो ! पर्व दिनों में भी मेरे स्वजन मुझे नहीं बुलाते हैं । वे मेरे स्वजन मेरे पुत्र महेश्वरदत्त को आपनी पुत्री कैसे प्रदान करेंगे ?" इस प्रकार विचार कर वह ऋषिदत्ता अत्यंत ही करुण विलाप करने लगी ।
उसे रोती हुई देखकर पुत्र ने उसके रुदन का कारण पूछा ।
ऋषिदत्ता ने अपने पुत्र के आगे अपने दिल की बात कही ।
माँ की इस वेदना को जानकर महेश्वरदत्त ने अपनी माँ को आश्वासन देते हुए कहा, "माँ ! आप इतनी चिंता न करें । आप मुझे वहाँ पर भेजें । मैं वहाँ जाकर स्वजनों को खुश करने की कोशिश करूंगा और मामा की पुत्री के साथ पाणिग्रहण करके तुम्हें खुश करूंगा ।"
माँ की अनुमति प्राप्तकर एक शुभ दिन महेश्वरदत्त ने वहाँ से प्रयाण किया । वह क्रमशः आगे बढ़ता हुआ नर्मदापुर नगर में आया ।
महेश्वरदत्त अपने मामा आदि सभी स्वजनों से मिला । यद्यपि महेश्वरदत्त मिथ्यात्व से वासित था, फिर भी सभी स्वजनों ने उसका औचित्य पालन करते हुए स्वागत आदि किया ।
महेश्वरदत्त ने भी धीरता-गंभीरता आदि गुणों से सभी को संतुष्ट किया ।
एक बार महेश्वरदत्त के सद्गुणों से अभिभूत हुई सुंदरी ने उससे कहा, "तूने मेरे दिल को हर लिया है, अतः तेरी जो भी इच्छा हो, मुझ से मांग ले ।"
महेश्वरदत्त ने कहा, "मुझे और कुछ भी नहीं चाहिए, मुझे तो सिर्फ नर्मदासुंदरी चाहिए ।"
सुंदरी ने कहा, "तुम्हारी कामना उचित है, परंतु तुम मिथ्यात्व से वासित हो, अतः तुम्हें अपनी पुत्री कैसे दूँ ?"
महेश्वरदत्त ने कहा, "कुल की चर्चा करने से क्या फायदा है ? मुझे तो जिनधर्म पसंद है और मैं जिनधर्म का परम उपासक हूँ । यदि तुम्हें विश्वास नहीं हो तो तुम मेरी अच्छी तरह से परीक्षा कर सकते हो ?"
*शेष अगले अंक में....*
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*लेखक - प. पू. आचार्यदेव श्रीमद्विजय रत्नसेनसूरीश्वरजी म.सा.*
संकलन - नीतेश बोहरा, रतलाम
*9 अक्टूबर 2019, बुधवार*
*गतांक से आगे....*
*🏳🌈महासती नर्मदा सुंदरी🏳🌈*
*🌸भाग - 6 🌸*
महेश्वरदत्त की इन बातों को सुनकर सहदेव और सुन्दरी को विश्वास आ गया कि वह जिनधर्म का परम उपासक है ।
आखिर एक शुभ दिन महेश्वरदत्त के साथ नर्मदासुंदरी का पाणिग्रहण हो गया ।
नर्मदासुंदरी जैन धर्म के तत्त्वज्ञान के विषय में खूब होशियार थी । जैन धर्म में कुशल ऐसे पति को प्राप्त कर वह खुश हो गई ।
कुछ समय तक वहाँ स्थिरता कर श्वसुर आदि की अनुज्ञा प्राप्तकर महेश्वरदत्त अपने नगर आ गया ।
श्वसुरगृह आने के बाद नर्मदासुंदरी ने अनेक युक्ति-प्रयुक्तियों के द्वारा ऋषिदत्ता को भी मिथ्यात्व से मुक्त कराया । इतना ही नहीं, आगे चलकर उसने अपने पूरे परिवार को जिनधर्म से वासित कर दिया ।
नर्मदासुंदरी जिनधर्म की अच्छी तरह से आराधना-साधना करने लगी । इस प्रकार जिनधर्म की आराधना करते हुए काफी समय बीत गया । वह अपने पवित्र आचरण द्वारा श्वसुर आदि समस्त परिवार को खुश रखती थी ।
एक बार गवाक्ष में बैठी हुई वह तांबूल का आस्वाद लेती हुई दर्पण में अपना मुँह देख रही थी । आचानक उसने ऊपर से नीचे थूका ! उसी समय वहाँ से एक साधु-महात्मा निकल रहे थे, वह थूक उन महात्मा के सिर पर गिरा । वे महात्मा नाराज हो गए ।
उन्होंने गवाक्ष की ओर नजर की । वहाँ पर नर्मदासुंदरी खड़ी थी । रोष में आकर महात्मा ने नर्मदासुंदरी को कहा, "साधु की अशातना के कारण तुम्हें तुम्हारे पति का वियोग होगा ।"
महात्मा के इन शब्दों को सुनकर नर्मदासुंदरी एकदम घबरा गई । वह तत्क्षण गवाक्ष से नीचे आ गई । महात्मा के चरणों में गिरकर बोली ।
'हे महात्मन् ! आप क्षमा के सागर हो ! मैं भोली हूँ, दुर्भागी हूँ ! जैन धर्म की उपासिका होने पर भी मुझ से यह घोर अविनय हो गया है । आप तो प्राणी मात्र पर वात्सल्य भाव धारण करने वाले हो । करुणा के महासागर हो, अतः आप मेरे अपराध को क्षमा कर दें !"
*शेष अगले अंक में....*
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*लेखक - प. पू. आचार्यदेव श्रीमद्विजय रत्नसेनसूरीश्वरजी म.सा.*
संकलन - नीतेश बोहरा, रतलाम
*गतांक से आगे....*
*गतांक से आगे....*
*🏳🌈महासती नर्मदा सुंदरी🏳🌈*
*🌸भाग - 7🌸*
साधु महात्मा तो समदृष्टिवाले होते हैं । वे शत्रु पर भी गुस्सा नहीं करते हैं और स्वजनों पर भी मोहित नहीं होते हैं । अपनी वस्तु के नष्ट होने पर भी वे किसी को शाप नहीं देते हैं ।
"हे महात्मन् ! आप मुझे क्षमा कर दें । आपने मुझे जो शाप प्रदान किया है, उससे मुझे मुक्त कर दें ।"
नर्मदासुंदरी के इन नम्रतापूर्ण वचनों को सुनकर महात्मा का रोष शांत हो गया । उन्होंने कहा, "हे वत्से ! तू खेद मत कर । कभी भी जैन मुनि किसी को शाप नहीं देते हैं ।
"वंदन द्वारा मान-सम्मान देने पर भी जैन मुनि कभी भी अभिमानी नहीं बनते हैं और न ही किसी की हिलना को देखकर कोपायमान होते हैं । वे तो हर परिस्थिति में राग-द्वेष से रहित होकर शांत चित्तवाले ही होते हैं ।
मैंने तुम्हें शाप नहीं दिया है, परंतु भावी में जो घटना होने वाली है, अचानक मेरे मुँह से उसका जिक्र निकल गया है ।"
"किसी के कहने मात्र से किसी को दुःख नहीं हो जाता है । अपने दुष्कर्म के उदय से ही जीव प्रिय व्यक्ति के वियोग के दुःख को प्राप्त करता है ।"
अंत में नर्मदासुंदरी को ही हितशिक्षा देते हुए उन महात्मा इतना ही कहा, "अपने ही किये हुए कर्मों को भोगते हुए कौन समझदार व्यक्ति दुःखी होता है ? जब हँसते-हँसते कर्म बाँधे हैं तो उन कर्मों की सजा भी हँसते-हँसते ही सहन करना चाहिए ?" इस प्रकार प्रतिबोध देकर वे महात्मा अन्यत्र चले गए ।
जिनधर्म की आराधना करती हुई नर्मदासुंदरी अपने पति के साथ सुखपूर्वक दिन व्यतीत कर रही थी ।
एक दिन महेश्वरदत्त ने कहा, "प्रिये ! मैं धनार्जन के लिए विदेश जाना चाहता हूँ ।"
"स्वामिन् ! आप भले जाएँ, परंतु मैं भी आपके साथ चलूंगी ।"
पत्नी के अति आग्रह को देखकर महेश्वरदत्त ने नर्मदासुंदरी को अपने साथ चलने के लिए अपनी सहमति दे दी ।
*शेष अगले अंक में....*
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*लेखक - प. पू. आचार्यदेव श्रीमद्विजय रत्नसेनसूरीश्वरजी म.सा.*
संकलन - नीतेश बोहरा, रतलाम
*🏳🌈महासती नर्मदा सुंदरी🏳🌈*
*🌸भाग - 8 🌸*
इतने समय तक मैं यह मानता था कि यह तो महासती है, परंतु आज मुझे पता चला कि इसका चरित्र बराबर नहीं है । तो क्या इसे समुद्र में गिरा दूँ अथवा तलवार से इसकी गर्दन उड़ा दूँ । इस प्रकार महेश्वरदत्त अपने मन में नाना प्रकार के संकल्प विकल्प करने लगा ।
महेश्वरदत्त अपनी प्रिया का कुछ भी अनिष्ट करने की सोच ही रहा था, तभी वाहन के नियामक ने घोषणा की कि यह राक्षस द्वीप आ गया है अतः जल-ईंधन आदि सामग्री की जरूरत हो तो उसे ग्रहण कर सकोगे ।
इस घोषणा को सुनकर कई लोग वाहन से नीचे उतर गए । उसी समय महेश्वरदत्त भी अपनी पत्नी के साथ तट पर नीचे उतर गया ।
माया पूर्वक महेश्वरदत्त अपनी पत्नी को थोड़ी दूर जंगल में ले गया । थोड़ी देर किसी नदी के तट पर आमोद-प्रमोद करने लगा । इसी बीच नर्मदासुंदरी को नींद आ गई ।
महेश्वरदत्त ने सोचा, "यदि मैं इसे मार देता हूँ तो स्त्री-हत्या का मुझे पाप लगेगा तो क्यों न इसे सोई हुई छोड़कर मैं यहाँ से चला जाऊँ "? इस प्रकार विचार कर अपनी पत्नी को वहीं पर सोई हुई अवस्था में छोड़कर महेश्वरदत्त अपने अपने जहाज के पास आ गया उसने अपने साथियों को कहा, "किसी बाघ ने मेरी प्रिया को खत्म कर दिया है । उसके बिना मैं कैसे रह पाऊँगा ?" इस प्रकार बोलकर महेश्वरदत्त ने रोने का नाटक किया ।
महेश्वरदत्त को रोते हुए देखकर उसके साथियों ने कहा, "एक स्त्री के लिए तुम क्यों रोते हो ? वह मर गई है तो दूसरी स्त्री के साथ शादी करा देंगे ! व्यर्थ ही चिंता क्यों करते हो ?"
महेश्वरदत्त ने कहा, "वह बाघ पास में ही है अतः क्यों न यहाँ से जल्दी रवाना हो जाएँ ।"
बस, महेश्वरदत्त की सूचना होने से तुरंत ही वाहन रवाना किये गये ।
महेश्वरदत्त ने सोचा- उस पापिनी को वहाँ छोड़ दिया, यह बहुत अच्छा हुआ ।
वह क्रमशः आगे बढ़ता हुआ यवन द्वीप में पहुँचा । वहाँ बहुत सा धन कमाकर वापस अपने नगर में लौट आया ।
अपने घर लौटकर महेश्वरदत्त ने अपने माता-पिता को कहा, "किसी राक्षस ने नर्मदासुंदरी का भक्षण कर लिया है ।"
महेश्वरदत्त के माता-पिता ने नर्मदासुंदरी का प्रेत कार्य कर लिया और किसी अन्य श्रेष्ठी कन्या के साथ उसकी शादी करा दी ।
*शेष अगले अंक में....*
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*लेखक - प. पू. आचार्यदेव श्रीमद्विजय रत्नसेनसूरीश्वरजी म.सा.*
संकलन - नीतेश बोहरा, रतलाम
*गतांक से आगे....*
*🏳🌈महासती नर्मदा सुंदरी🏳🌈उ*
भाग 9
इधर कुछ समय के बाद जैसे ही नर्मदासुंदरी जागृत हुई, उसने पंच परमेष्ठी नमस्कार महामंत्र का स्मरण किया । उसके बाद उसने अपने पति को ढूंढने की कोशिश की, परंतु चारों ओर नजर करने पर भी उसे कहीं भी अपना पति दिखाई नहीं दिया । वह अत्यंत ही दुःखी हो गई । वह करूण स्वर में जोर से रुदन करने लगी । "हे स्वामिन् ! आप आओ । मुझे उत्तर दो ! आप कहाँ चले गए ? आप आकर मुझे खुश करें, आपका वियोग मेरे लिए असह्य हो रहा है ।" इस प्रकार अत्यंत ही दुःखी बनी हुई नर्मदासुंदरी समुद्र के तट पर चारों ओर अपने पति का शोध करने लगी । परंतु कहीं भी उसे कुछ भी प्रत्युत्तर नहीं मिला । वह तीव्र रूदन करने लगी, अपने रूदन के द्वारा वह वृक्षों को भी रूलाने लगी ।
उस वन के हर वृक्ष पर उसने अपने पति की शोध की परंतु कहीं से भी उसे कुछ भी जवाब प्राप्त नहीं हुआ ।
येन केन प्रकारेण उसने एक दिन पूरा किया । रात्रि में चंद्रमा का उदय हुआ । चंद्रमा के उदय में वह और अधिक दुःखी हो गई । उसे एक रात भी सौ वर्ष समान लगी । प्रातःकाल होने पर पुनः उसका रुदन चालू हो गया । 'हे स्वामिन् ! आप मुझे अकेली छोड़कर कहाँ चले गए ? आप एक बार पधारो और मुझे दर्शन दो ।"
इस प्रकार करुण विलाप करती हुई नर्मदासुंदरी ने पाँच वर्ष समान पाँच दिन जैसे तैसे प्रसार किये । आखिर वह उस स्थान पर आ गई जहाँ पर वह जहाज से नीचे उतरी थी ।
आखिर निराश बनी हुई उस महासती ने जिनवाणी को याद कर शोक का परित्याग किया ।
वह अपनी आत्मा को समझाने लगी - 'हे आत्मन् ! पूर्व जन्मों में इन पापों का उपार्जन किया है तो उन पापों की सजा तुम्हें भुगतनी ही चाहिए । अतः हे मन ! तू विषाद छोड़ दे ।"
*शेष अगले अंक में....*
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*गतांक से आगे....*
भाग 10
*🏳🌈महासती नर्मदा सुंदरी🏳🌈*
सरोवर में स्नान करके वह नदीतट पर स्थित जिनेश्वर भगवंत की पुष्प आदि से पूजा करने लगी । वह नर्मदासुंदरी शोक रहित होकर व्रत ग्रहण करने के लिये तैयार हो गई ।
इधर नर्मदासुंदरी का चाचा वीरदास, व्यापार के उद्देश्य से नर्मदासुंदरी से अलंकृत उसी बर्बरदेश में आ गया । अपने चाचा को प्रत्यक्ष देखकर नर्मदासुंदरी करुण स्वर में रुदन करने लगी ।
वीरदास ने पूछा, "बेटी ! तू यहाँ अकेली कैसे ?" नर्मदासुंदरी ने अपनी सारी आपबीती वीरदास को सुना दी ।
वीरदास ने उसे आश्वासन दिया और उसके दुःख के भार को हल्का कर दिया । वीरदास, नर्मदासुंदरी को लेकर अपने आवास पर आ गया । नर्मदासुंदरी को अपने मंडप में स्थापित कर वह भेंट सामग्री लेकर राजा के पास गया ।
खुश होकर राजा ने वीरदास को शुल्क से मूक्त कर दिया । वीरदास उत्साहपूर्वक नगर में मालसामग्री का क्रय-विक्रय करने लगा ।
इधर उसी नगर में हरिणी नाम की अत्यंत ही प्रसिद्ध वेश्या रहती थी । राजा की उसके ऊपर बहुत बड़ी महेर थी ।
एक दिन उस वेश्या ने वीरदास को अपने पास बुलाने के लिए किसी दासी को भेजा । वीरदास ने अपने जीवन में स्वदारासंतोष व्रत ग्रहण किया था, अतः उसने वेश्या के आमंत्रण को स्वीकार नहीं किया ।
राजा की ओर से सामुद्रिक यात्रिकों को आदेश था कि वे प्रतिवर्ष एक सौ आठ दीनार उस वेश्या को दें ।
वीरदास ने एक सौ आठ दीनारें दे दीं, परंतु उस वेश्या ने अपनी दासी को कहा, "इस धन से कोई प्रयोजन नहीं है, तुम वीरदास को लेकर आओ ।"
वह दासी माया-कपट करके वीरदास चो लेकर आ गई ।
वेश्या ने अपने हावभाव आदि द्वारा वीरदास को मोहित करने की कोशिश की । उस वेश्या ने किसी भी उपाय से वीरदास की अंगुली में रही अँगूठी ले ली ।
वेश्या ने अपनी दासी को कहा, "तुम यह अँगूठी लेकर वीरदास के तंबू में जाओ । वहाँ रही स्त्री को यह अँगूठी बताकर यहाँ ले आओ ।"
*शेष अगले अंक में....*
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*लेखक - प. पू. आचार्यदेव श्रीमद्विजय रत्नसेनसूरीश्वरजी म.सा.*
संकलन - नीतेश बोहरा, रतलाम
भाग 11
*गतांक से आगे....*
*🏳🌈महासती नर्मदा सुंदरी🏳🌈*
वेश्या की दासी ने जाकर नर्मदासुंदरी को कहा, "वीरदास सेठ हमारे घर पर बैठे हुए हैं, वे तुम्हें बुला रहे हैं । तुम्हारे विश्वास के लिए उन्होंने यह अँगूठी भेजी है ।
वीरदास के नाम से अंकित मुद्रिका को देखकर नर्मदासुंदरी को विश्वास आ गया और वह उस दासी के साथ वेश्या के घर पर आ गई ।
घर में प्रवेश के बाद वेश्या ने नर्मदासुंदरी को अपने गर्भगृह में छिपा दिया ।
अखंडित व्रतवाला श्रेष्ठी अपने स्थान में आ गया । उसने चारों और नर्मदासुंदरी की शोध की, परंतु कहीं भी उसे नर्मदासुंदरी दिखाई नहीं दी ।
वीरदास ने सोचा, "जिस व्यक्ति ने मायापूर्वक उस सती नर्मदासुंदरी का अपहरण किया है, वह मेरे यहाँ रहते हुए कैसे प्रगट करेगा ?"
इस प्रकार सोचकर वीरदास ने अपने नगर की ओर प्रयाण कर दिया ।
वीरदास क्रमशः आगे बढ़ता हुआ भृगुपुर नगर में पहुँच गया ।
कुछ समय बाद नर्मदासुंदरी की शोध के लिए जिनदास चला, परंतु उसे भी कहीं से भी नर्मदासुंदरी का पता नहीं चला ।
इधर वीरदास के जाने के बाद वेश्या ने नर्मदासुंदरी को कहा, "पुरुषों को प्रसन्न कर तुम धन कमाओ ।"
"हे भद्रे ! वेश्यापने को स्वीकार कर तुम अपने जन्म को सफल बनाओ । इन्द्र की इन्द्राणी की भाँति तुम राजाओं को मान्य बनो ।"
वेश्या की इन बातों को सुनकर अत्यंत ही दुःखी बनी नर्मदासुंदरी ने कहा, "जब तक मुझ में प्राण है तब तक मेरे शील रत्न को हरने में कौन समर्थ है ?"
वेश्या ने कहा, "इस पृथ्वीतल पर हमारा जन्म सफल है, क्योंकि हम यहाँ रहकर भी स्वर्ग सुखों का अनुभव करती हैं ।"
नर्मदासुंदरी ने कहा, "अज्ञानी बालक ही चने के बदले में अपने माणिक्य को देने के लिये तैयार होता है । शील धर्म की आराधना साधना तो मोक्ष सुख को देनेवाली है ।"
*शेष अगले अंक में....*
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*लेखक - प. पू. आचार्यदेव श्रीमद्विजय रत्नसेनसूरीश्वरजी म.सा.*
संकलन - नीतेश बोहरा, रतलाम
*गतांक से आगे....*
भाग 12
*🏳🌈महासती नर्मदा सुंदरी🏳🌈*
नर्मदासुंदरी के इन वचनों को सुनकर वह वेश्या कोपातुर हो गई । अपने इष्ट की सिद्धि के लिए वह उसके साथ मारपीट करने लगी । वैश्या की मार को सहन करती हुई नर्मदासुंदरी मन में नवकार मंत्र का स्मरण करने लगी ।
नर्मदासुंदरी के शील के प्रभाव से उस वेश्या की ही अकाल मृत्यु हो गई ।
मंत्री ने राजा की आज्ञा से वेश्या की मृत्यु के बाद उसके पद पर स्थापित करने के लिए नर्मदासुंदरी से विनंती की ।
नर्मदासुंदरी ने सोचा, "मेरे रूप से मोहित बना राजा यदि मुझे अंतःपुर में डाल देगा तो मैं प्राणों का त्याग करके भी शील रक्षण करूंगी ।"
एक बार राजसेवक पालकी में उठाकर नर्मदासुंदरी को राजदरबार ले जा रहे थे, उस समय वह बीच में ही नगर की गटर में कूद पड़ती है । उसका सारा शरीर कीचड़ से लिप्त हो जाता है । गटर से बाहर निकालने पर वह जानबूझकर अपने वस्त्र फाड़ने लगी और अपने मस्तक पर धूल उछालने लगी ।
व्यंतरी से ग्रस्त की तरह वह इधर-उधर दौड़ने लगी और जोर-जोर से चीत्कार करने लगी । वह अपने विकृत रूप द्वारा लोगों को डराने लगी ।
भयभीत बने लोग बातें करने लगे, "यह कन्या व्यंतरी से ग्रस्त बन गई है ।"
मंत्री ने राजा से बात की, "हे राजन् ! वह कन्या पागल हो गई है । व्यंतरी की तरह दिखाई देती है ।"
राजा ने मांत्रिकों को बुलाकर उसकी पिटाई कराई । वह पागल होकर कुछ रास गाने लगी ।
व्यंतरी की तरह पागल बनी हुई नर्मदासुंदरी को जिनदास पे देखा । उसने कहा, "तू कौन है ? जिनभक्त या व्यंतर-अधिष्ठित ?"
नर्मदासुंदरी ने कहा, "यदि तुम जैन हो तो मुझसे एकांत में बात करना ।"
*शेष अगले अंक में....*
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*लेखक - प. पू. आचार्यदेव श्रीमद्विजय रत्नसेनसूरीश्वरजी म.सा.*
संकलन - नीतेश बोहरा, रतलाम
भाग 12
*गतांक से आगे....*
*🏳🌈महासती नर्मदा सुंदरी🏳🌈*
जिनदास उसके पीछे गया । जिनदास ने हाथ जोड़कर कहा, "तू कौन है ?" उसने भी उसे श्रावक समझकर उसे सारा वृत्तांत सुना दिया ।
उसकी सारी परिस्थिति जानकर जिनदास ने कहा, "अच्छा हुआ, तुम मुझे मिल गई हो, मैं तुम्हारी शोध में ही यहाँ आया हूँ ।"
"हे वत्से ! वीरदास ने ही मुझे तुम्हारी शोध के लिए यहाँ भेजा है । अतः तुम लेश भी खेद मत करना । सब अच्छा होगा । कभी अच्छा करने के लिए माया का भी आश्रय करना पड़ता है । अब तुम घड़े आदि को फोड़ने की चेष्टा करना, जिसके फलस्वरूप राजा तुम्हें नगर के बाहर निकाल देगा ।"
जिनदास की बात को स्वीकार कर नर्मदासुंदरी ने वो ही तोड़फोड़ चालू कर दी, जिसके फलस्वरूप वह नगर से बाहल निकाल दी गई ।
वहाँ से जिनदास, नर्मदासुंदरी को लेकर चल पड़ा । क्रमशः वह आगे बढ़ने लगा । नर्मदासुंदरी को स्नान कराकर सुंदर वस्त्र प्रदान किये । क्रमशः जिनदास नर्मदापुर में आ गया । वहाँ उसके माता-पिता स्वजन आदि के साथ उसका मिलन हुआ ।
ऋषभसेन आदि भी खुश हो गए । नर्मदासुंदरी को जीवंत देखकर सभी ने जन्मोत्सव की तरह उसका महोत्सव मनाया ।
वहाँ कुछ दिन रहकर जिनदास भृगुपुर नगर में आया ।
सद्भाग्य से आर्य सुहस्तिसूरिजी म. का वहाँ आगमन हुआ । अपने पिता के साथ नर्मदासुंदरी भी देशना सुनने के लिए आचार्य भगवंत के पास आई ।
आचार्य भगवंत की देशना सुनकर नर्मदासुंदरी की धर्म भावना में वेग आया ।
आचार्य भगवंत की धर्मदेशना के अंत में वीरदास ने विज्ञप्ति करते हुए कहा, "भगवंत ! नर्मदासुंदरी ने गत भव में ऐसा कौन-सा दुष्कर्म किया था, जिसके फलस्वरूप निष्कलंक होने पर भी यह दुःख का भाजन बनी ?"
ज्ञानी गुरुदेव ने कहा, "इस जगत् में कर्म का नियम अटल है । राजा हो या रंक हो, गरीब हो या अमीर हो, किये हुए कर्म की सजा जीवात्मा को अवश्य भुगतनी पड़ती है ।"
विंध्याचल पर्वत के ऊपर नर्मदा नाम की नदी है, उस नदी की अधिष्ठायिका नर्मदा देवी थी, वह मिथ्यात्व से वासित होने के कारण मिथ्यादृष्टि थी । एक बार नर्मदा नदी के तट पर एक महात्मा कायोत्सर्ग ध्यान की साधना कर रहे थे, तभी उस मिथ्यादृष्टि देवी ने उस महात्मा पर भयंकर उपसर्ग किया था ।
*शेष अगले अंक में....*
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*लेखक - प. पू. आचार्यदेव श्रीमद्विजय रत्नसेनसूरीश्वरजी म.सा.*
संकलन - नीतेश बोहरा, रतलाम
भाग 13
*गतांक से आगे....*
*🏳🌈महासती नर्मदा सुंदरी🏳🌈*
उन महात्मा ने देवी के उपसर्ग को समतापूर्वक सहन किया था । महात्मा ने उस देवी के ऊपर लेश भी दुर्भाव नहीं किया ।
वो ही देवी वहाँ से च्यवकर नर्मदासुंदरी बनी है । पूर्वभव के अभ्यास के कारण ही जब वह गर्भ में थी, तब माता को नर्मदा नदी में जलस्नान व क्रीड़ा का दोहद पैदा हुआ था ।
साधु पर उपसर्ग करने के कारण ही इस जीवन में वह कलंकित बनी । ज्ञानी गुरु भगवंत की धर्मदेशना के श्रवण से उसी समय नर्मदासुंदरी को भी जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ । उसे अपना पूर्व भव प्रत्यक्ष दिखाई दिया । उसे अपने पाप का तीव्र पश्चाताप हुआ ।
मोहमाया के बंधनों को तोड़कर नर्मदासुंदरी ने भागवती दीक्षा अंगीकार की । निर्मल संयम धर्म की आराधना के फलस्वरूप उसे अवधिज्ञान पैदा हुआ । क्रमशः उन्हें प्रवर्तिनी पद प्रदान किया गया ।
नर्मदासुंदरी साध्वी पृथ्वीतल पर विहार करती हुई रूपचंद्रपुर में आई ह वहाँ पर महेश्वरदत्त और ऋषिदत्ता भी धर्मश्रवण के लिए आये ।
धर्म सुनकर महेश्वरदत्त ने कहा, "कलंकित जानकर मैंने अपनी प्रिया का त्याग किया था ।"
साध्वीजी ने कहा, "वह तो निष्कलंक और सती शिरोमणी थी ।"
महेश्वरदत्त ने अपनी भूल का पश्चाताप करते हुए कहा, "मुझे धिक्कार हो । मैंने व्यर्थ ही उसका त्याग कर दिया ।"
उसे दुःखी देखकर साध्वीजी ने कहा, "वह मैं स्वयं तुम्हारी प्रिया थी ।"
इस बात को सुनकर महेश्वरदत्त को खूब पश्चाताप हुआ । उसने आत्म निंदा करते हुए कहा, "पापी ऐसे मुझे धिक्कार हो ! मैंने व्यर्थ ही उसे जंगल में छोड़ दिया था । मुझसे बड़ा पापी कौन होगा ?"
नर्मदासुंदरी ने कहा, "खेद मत करो । सभी जीव अपने-अपने कर्मानुसार सुख-दुःख का अनुभव करते हैं । अतः कोई किसी को सुख या दुःख देता नहीं है ।"
महेश्वरदत्त ने अपनी भूल की क्षमायाचना की और गुरुभगवंत के पास जाकर भागवती दीक्षा अंगीकार की
ऋषिदत्ता ने भी चारित्र जीवन स्वीकार किया । महेश्वरदत्त और ऋषिदत्ता ने नर्मदा के तट पर ही संपूर्ण कर्मों का क्षय कर मोक्ष पद प्राप्त किया । वहाँ आकर देवताओं ने महोत्सव किया, अतः लोक में नर्मदा तीर्थ प्रसिद्ध हो गरा । अंत में नर्मदासुंदरी भी मोक्ष गई ।
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*लेखक - प. पू. आचार्यदेव श्रीमद्विजय रत्नसेनसूरीश्वरजी म.सा.*
संकलन - नीतेश बोहरा, रतलाम
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