गौतमस्वामी प्रकरण
गुरु गौतमस्वामी का क्षोभ क्या था जिससे अष्टापदजी की जात्रा करने का सोचा ?
प्रभु वीर जब विहार करते हुए चंपानगरी पधारे तब गुरु गौतम, साल व महासाल साधु के साथ, पृष्ठचंपा नगरी में धर्मदेशना हेतु पधारे । उनसे प्रतिबोधित हो कर, गागली राजा, उनके माता पिता के साथ उनसे दिक्षा ली ।
प्रभु वीर को वंदन करने हेतु जब गौतमस्वामी के पीछे वह पांचो, शुभ भावों से चल रहें थे, उन पांचों को केवलज्ञान प्राप्त हुआ । इस बात से अन्जान, गौतमस्वामी, सभा में पहुंचते ही, जब वह पांचों केवली ने प्रभु की तीन प्रदक्षिणा दे कर, गौतमस्वामी को प्रणाम कर, केवली पर्षदा में बैठने लगे, गौतमस्वामी ने उन्हें प्रभु को वंदना करने कहा । तब प्रभु ने गौतमस्वामी को कहा कि, "हे गौतम, केवली की अशातना मत करो "। बस, यह सुनकर ही उन्हें क्षोभ हुआ कि मुझसे दिक्षित हो, इतने अल्पकाल में, इन्हें केवल प्राप्त हुआ और मैं कितना गुरुकर्मी हूँ ।
वहीं देशना में उन्होंने सुना, जो अष्टापद पर अपनी लब्धि से जा कर, वहां स्थित जिनेश्वर को वंदन कर, एक रात्री वहां रहे, वह उसी भव में सिद्धि पाता है ।
प्रभु वीर से अनुमति मांगने पर, प्रभुने यह जाना कि, गौतमस्वामी द्वारा वहां, १५०० तापस दिक्षित होंगे, प्रभु ने, उन्हें जाने की अनुमति दे दी ।
बस, फिर गौतमस्वामी ने अपनी "चारणलब्धि" द्वारा सूर्य की किरणों के आवलम्बन से, अष्टापद जी की जात्रा की और अष्टापद समीप आ पहुंचे । वहां सेवाल, दत्त व कौडिन्य इत्यादि १५०० तापस भी अष्टापद की जात्रा कर मोक्ष की भावना से चढ़ने आये थे पर एक एक योज़न की सीढी कष्टदायी प्रतित हो रही थी ।
१५०३ तापस में से ५०१ तापस एक उपवास का पारणा करके पहली मेखला (पगथिये) में रुके हुए थे, दूसरा ५०१ तापस का समूह छट्ठ का पारणा कर दूसरी मेखला में और तीसरा ५०१ तापसों का समूह अट्ठम तप का पारणा सूकी काई से कर, तीसरी मेखला में अटके हुए थे।
इतने में, सुवर्ण कांतिवाले पुष्ट शरीरवाले गौतमस्वामी के शरीर को आते हुए देख, वह सोचने लगे, यह स्थूल शरीर वाले मुनि कैसे चढ़ेंगे । लेकिन गौतमस्वामी तो तेज़ गति से चढ़ते हुए अद्श्य भी हो गये । तब उन सभी १५०३ तापसो ने वहीं उनका इन्तजार करते हुए, उनकी वापसी में, उन्हें गुरु बनाने का सोचा, कि उनके पास जरुर कई सिद्धियां है ।
अष्टापदजी के उपर पहुंच कर, गौतमस्वामी ने भरतेश्वर द्वारा भराये, नंदीश्वर द्वीप के चैत्यों के चौबिस तीर्थंकरों की भक्ति से वंदना की और पालितिणा के श्री आदिनाथ प्रभु, गिरनार तीर्थ के नेमिनाथ प्रभु, भरुच के श्री मुनिसुव्रत स्वामी, टिन्टोई के श्री पार्श्वनाथ प्रभु एवं सांचोर के श्री महावीर प्रभु को याद करते हुए, "जगचिंतामणी चैत्यवंदन सूत्र की रचना" करी, जिसमें उन्होंने, उत्कृष्ट भावों से,
१) तीनों लोक में स्थित, ८,५७,००,२८२ जिनमंदिरों को प्रणाम किया और,
२) जगत में रही १५,४२,५८,३६,०८० शाश्वत प्रतिमाओं जी को प्रणाम किया ।
फिर उन्होंने वहां अशोकवृक्ष के नीचे बैठ धर्मदेशना दी और एक रात्री वहीं गुजारने के बाद, अगले दिन सूर्योदय होने पर, वह नीचे आने लगे ।
रास्ते में उन्हें वह १५०३ तापस क्रमश: मिले, मैं नहीं, सर्वज्ञ प्रभु ही आपके गुरु बनो, कहने पर भी, उन सभी १५०३ तापसों के बहुत आग्रह करने पर, गौतमस्वामी ने, उन सभी १५०३ तापसो को वहीं दीक्षित किया । फिर वह सब प्रभु की वंदना हेतु उन्हें लेकर, गौतमस्वामी चल पड़े।
बीच में भिक्षा के समय होते ही गौतमस्वामी ने एक गांव में रुककर सभी से पूछा कि पारणे में क्या लाये, तब तापसो ने परमान्न (खीर) की इच्छा प्रगट की तब १५०३ तापसों का "अक्षिण महानस लब्धि" द्वारा एक कटोरा खीर से ही सभी १५०३ नवदीक्षित का परमान्न/पायसान्न (खीर) से पारणां करवाया ।
सेवाल इत्यादि ५०१ तापसों को खीर का पारणां करते करते अत्यंत शुभ अहोभाव भाते हुए, कि, हम सर्वथा पुण्यवान है, प्रभु वीर के जैसे धर्मगुरु व पिता समान गौतम मुनि मिलें है, और ऐसे उत्कृष्ट भावों से उन्हे वहीँ केवलज्ञान प्राप्त हुआ,
दत्त आदि ५०१ तापसो को प्रभु का प्रतिहार्य के दर्शन होते ही केवलज्ञान प्राप्त हुआ और, कोडिल्य आदि ५०१ तापसो को भगवंत के दर्शन दूर से करते ही केवलज्ञान प्राप्त हुआ ।
वापिस सभा में पहुंच कर गौतमस्वामी ने अन्जानरुप से, १५०३ तापसो को वीरप्रभु का वंदन करने कहा और फिर से प्रभु वीर ने कहा, "हे गौतम, केवली की अशातना मत करो "।
और, फिर से गौतमस्वामी सोच में पड़ गये कि सबको मुझसे पहले ही अल्पसमय में केवलज्ञान प्राप्त हो जाता है, मैं ही कितना लघुकर्मी हूँ ।
गौतमस्वामी के पास कई लब्धियां थी, लेकिन प्रयोग में उन्होंने यही दो लब्धि को किया था ।
अनंत लब्धिनिधान, भगवान महावीर स्वामी के प्रथम गणधर श्री गौतमस्वामी जी कोटि कोटि वंदन🙏🙏
पूर्व भव में मरीचि त्रिदंडी के कपिल नाम दे शिष्य थे।
पूर्वभव में त्रिपृष्ठ वासुदेव के सारथि बनकर सेवा की थी।
गौतमस्वामी को अभिमान के बदले संयम व विलाप के बदले केवलज्ञान प्राप्त हुआ।
महानज्ञानी होते हुए भी ‘जीव है या नहीं ?’ मन में ऐसी शंका थी।
इंद्रभूति पंडित से वैशाख सुदी ११ को गौतमस्वामी बने।
त्रिपदी द्वारा भगवान की कृपा से द्वादशांगी की रचना करने में समर्थ हुए।
वाणिज्य ग्राम में आनंदश्रावक को मिच्छामी दुक्कडम देने गए।
मृग गाँव में मृगावती रानी के यहाँ मृगा लोढ़िया को देखने (मिलने ) गए।
भगवान महावीर को ३६ हजार प्रश्न पूछे जो भगवती सूत्र में हैं।
हालिक (खेडूत) को प्रतिबोध करने प्रभु वीर ने गौतम स्वामी को भेजा।
केशी गणधर के साथ गौतम स्वामी का तिंदुक गाँव में मिलन हुआ।
पोलासपुर में अइमुत्ता की विनती से उनके घर गोचरी गए।
अक्षीणमहानस लब्धि से १५०३ तापस को खीर से पारणा कराया।
50 हजार शिष्य का परिवार था।
गौतम स्वामी ने जिनको भी दीक्षा दी वे सभी केवलज्ञानी हुए।
प्रभु वीर की आज्ञा से देवशर्मा को प्रतिबोध करने गए।
विलाप करते कार्तिक सूद 1 को अपापापुरी में केवलज्ञानी बने।
सात हाथ की काया, सुवर्ण देह, निर्वाण राजगृही में हुआ।
अनंत लब्धि निधान छठ के पारणा छठ करने वाले महान तपस्वी थे।
अष्टापदजी तीर्थ की स्वलब्धि से यात्रा की वहां जगचिंतामणि सूत्र की रचना की।
प्रभु वीर जब विहार करते हुए चंपानगरी पधारे तब गुरु गौतम, साल व महासाल साधु के साथ, पृष्ठचंपा नगरी में धर्मदेशना हेतु पधारे । उनसे प्रतिबोधित हो कर, गागली राजा, उनके माता पिता के साथ उनसे दिक्षा ली ।
प्रभु वीर को वंदन करने हेतु जब गौतमस्वामी के पीछे वह पांचो, शुभ भावों से चल रहें थे, उन पांचों को केवलज्ञान प्राप्त हुआ । इस बात से अन्जान, गौतमस्वामी, सभा में पहुंचते ही, जब वह पांचों केवली ने प्रभु की तीन प्रदक्षिणा दे कर, गौतमस्वामी को प्रणाम कर, केवली पर्षदा में बैठने लगे, गौतमस्वामी ने उन्हें प्रभु को वंदना करने कहा । तब प्रभु ने गौतमस्वामी को कहा कि, "हे गौतम, केवली की अशातना मत करो "। बस, यह सुनकर ही उन्हें क्षोभ हुआ कि मुझसे दिक्षित हो, इतने अल्पकाल में, इन्हें केवल प्राप्त हुआ और मैं कितना गुरुकर्मी हूँ ।
वहीं देशना में उन्होंने सुना, जो अष्टापद पर अपनी लब्धि से जा कर, वहां स्थित जिनेश्वर को वंदन कर, एक रात्री वहां रहे, वह उसी भव में सिद्धि पाता है ।
प्रभु वीर से अनुमति मांगने पर, प्रभुने यह जाना कि, गौतमस्वामी द्वारा वहां, १५०० तापस दिक्षित होंगे, प्रभु ने, उन्हें जाने की अनुमति दे दी ।
बस, फिर गौतमस्वामी ने अपनी "चारणलब्धि" द्वारा सूर्य की किरणों के आवलम्बन से, अष्टापद जी की जात्रा की और अष्टापद समीप आ पहुंचे । वहां सेवाल, दत्त व कौडिन्य इत्यादि १५०० तापस भी अष्टापद की जात्रा कर मोक्ष की भावना से चढ़ने आये थे पर एक एक योज़न की सीढी कष्टदायी प्रतित हो रही थी ।
१५०३ तापस में से ५०१ तापस एक उपवास का पारणा करके पहली मेखला (पगथिये) में रुके हुए थे, दूसरा ५०१ तापस का समूह छट्ठ का पारणा कर दूसरी मेखला में और तीसरा ५०१ तापसों का समूह अट्ठम तप का पारणा सूकी काई से कर, तीसरी मेखला में अटके हुए थे।
इतने में, सुवर्ण कांतिवाले पुष्ट शरीरवाले गौतमस्वामी के शरीर को आते हुए देख, वह सोचने लगे, यह स्थूल शरीर वाले मुनि कैसे चढ़ेंगे । लेकिन गौतमस्वामी तो तेज़ गति से चढ़ते हुए अद्श्य भी हो गये । तब उन सभी १५०३ तापसो ने वहीं उनका इन्तजार करते हुए, उनकी वापसी में, उन्हें गुरु बनाने का सोचा, कि उनके पास जरुर कई सिद्धियां है ।
अष्टापदजी के उपर पहुंच कर, गौतमस्वामी ने भरतेश्वर द्वारा भराये, नंदीश्वर द्वीप के चैत्यों के चौबिस तीर्थंकरों की भक्ति से वंदना की और पालितिणा के श्री आदिनाथ प्रभु, गिरनार तीर्थ के नेमिनाथ प्रभु, भरुच के श्री मुनिसुव्रत स्वामी, टिन्टोई के श्री पार्श्वनाथ प्रभु एवं सांचोर के श्री महावीर प्रभु को याद करते हुए, "जगचिंतामणी चैत्यवंदन सूत्र की रचना" करी, जिसमें उन्होंने, उत्कृष्ट भावों से,
१) तीनों लोक में स्थित, ८,५७,००,२८२ जिनमंदिरों को प्रणाम किया और,
२) जगत में रही १५,४२,५८,३६,०८० शाश्वत प्रतिमाओं जी को प्रणाम किया ।
फिर उन्होंने वहां अशोकवृक्ष के नीचे बैठ धर्मदेशना दी और एक रात्री वहीं गुजारने के बाद, अगले दिन सूर्योदय होने पर, वह नीचे आने लगे ।
रास्ते में उन्हें वह १५०३ तापस क्रमश: मिले, मैं नहीं, सर्वज्ञ प्रभु ही आपके गुरु बनो, कहने पर भी, उन सभी १५०३ तापसों के बहुत आग्रह करने पर, गौतमस्वामी ने, उन सभी १५०३ तापसो को वहीं दीक्षित किया । फिर वह सब प्रभु की वंदना हेतु उन्हें लेकर, गौतमस्वामी चल पड़े।
बीच में भिक्षा के समय होते ही गौतमस्वामी ने एक गांव में रुककर सभी से पूछा कि पारणे में क्या लाये, तब तापसो ने परमान्न (खीर) की इच्छा प्रगट की तब १५०३ तापसों का "अक्षिण महानस लब्धि" द्वारा एक कटोरा खीर से ही सभी १५०३ नवदीक्षित का परमान्न/पायसान्न (खीर) से पारणां करवाया ।
सेवाल इत्यादि ५०१ तापसों को खीर का पारणां करते करते अत्यंत शुभ अहोभाव भाते हुए, कि, हम सर्वथा पुण्यवान है, प्रभु वीर के जैसे धर्मगुरु व पिता समान गौतम मुनि मिलें है, और ऐसे उत्कृष्ट भावों से उन्हे वहीँ केवलज्ञान प्राप्त हुआ,
दत्त आदि ५०१ तापसो को प्रभु का प्रतिहार्य के दर्शन होते ही केवलज्ञान प्राप्त हुआ और, कोडिल्य आदि ५०१ तापसो को भगवंत के दर्शन दूर से करते ही केवलज्ञान प्राप्त हुआ ।
वापिस सभा में पहुंच कर गौतमस्वामी ने अन्जानरुप से, १५०३ तापसो को वीरप्रभु का वंदन करने कहा और फिर से प्रभु वीर ने कहा, "हे गौतम, केवली की अशातना मत करो "।
और, फिर से गौतमस्वामी सोच में पड़ गये कि सबको मुझसे पहले ही अल्पसमय में केवलज्ञान प्राप्त हो जाता है, मैं ही कितना लघुकर्मी हूँ ।
गौतमस्वामी के पास कई लब्धियां थी, लेकिन प्रयोग में उन्होंने यही दो लब्धि को किया था ।
अनंत लब्धिनिधान, भगवान महावीर स्वामी के प्रथम गणधर श्री गौतमस्वामी जी कोटि कोटि वंदन🙏🙏
पूर्व भव में मरीचि त्रिदंडी के कपिल नाम दे शिष्य थे।
पूर्वभव में त्रिपृष्ठ वासुदेव के सारथि बनकर सेवा की थी।
गौतमस्वामी को अभिमान के बदले संयम व विलाप के बदले केवलज्ञान प्राप्त हुआ।
महानज्ञानी होते हुए भी ‘जीव है या नहीं ?’ मन में ऐसी शंका थी।
इंद्रभूति पंडित से वैशाख सुदी ११ को गौतमस्वामी बने।
त्रिपदी द्वारा भगवान की कृपा से द्वादशांगी की रचना करने में समर्थ हुए।
वाणिज्य ग्राम में आनंदश्रावक को मिच्छामी दुक्कडम देने गए।
मृग गाँव में मृगावती रानी के यहाँ मृगा लोढ़िया को देखने (मिलने ) गए।
भगवान महावीर को ३६ हजार प्रश्न पूछे जो भगवती सूत्र में हैं।
हालिक (खेडूत) को प्रतिबोध करने प्रभु वीर ने गौतम स्वामी को भेजा।
केशी गणधर के साथ गौतम स्वामी का तिंदुक गाँव में मिलन हुआ।
पोलासपुर में अइमुत्ता की विनती से उनके घर गोचरी गए।
अक्षीणमहानस लब्धि से १५०३ तापस को खीर से पारणा कराया।
50 हजार शिष्य का परिवार था।
गौतम स्वामी ने जिनको भी दीक्षा दी वे सभी केवलज्ञानी हुए।
प्रभु वीर की आज्ञा से देवशर्मा को प्रतिबोध करने गए।
विलाप करते कार्तिक सूद 1 को अपापापुरी में केवलज्ञानी बने।
सात हाथ की काया, सुवर्ण देह, निर्वाण राजगृही में हुआ।
अनंत लब्धि निधान छठ के पारणा छठ करने वाले महान तपस्वी थे।
अष्टापदजी तीर्थ की स्वलब्धि से यात्रा की वहां जगचिंतामणि सूत्र की रचना की।
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