तेरापंथी साधु जी
*श्रंखला - 5*
. ।। अर्हम् ।। .
जय भिक्षु जय महाश्रमण
5⃣ *मुनिश्री हेमराजजी(36).*
भैक्षव गण उद्यान में,
जब आये मुनि हेम।
हरा भरा बढ़ता गया,
करता कुशल क्षेम।।
हेमराजजी सिरियारी के वासी थे।जाति ओसवाल और गोत्र बागरेचा था।आपके पिता का नाम अमरोजी और माता का नाम सोमाजी था।आप जब गर्भ में आये तब उनकी माता ने देव विमान का स्वप्न देखा।
आपका जन्म माघ शुक्ला 13 सं.1829 शुक्रवार को पुष्यनक्षत्र आयुष्मान योग में हुआ।गृहस्थाश्रम में अच्छा तत्वज्ञान कर लिया तथा श्रावक के व्रतों को भी ग्रहण कर लिया।मात्र पन्द्रह वर्ष की अवस्था में परस्त्रीगमन का परित्याग कर दिया।वे एक अच्छे तत्वज्ञ,चर्चावादी और धर्म-प्रचारक श्रावक बन गये थे।
आचार्य भिक्षु ने माघ शुक्ला 13 सं.1853 गुरुवार को पुष्यनक्षत्र आयुष्मान योग में सिरियारी के बाहर वटवृक्ष की छाया में 24 वर्ष की अवस्था में हेमराजजी को दीक्षा प्रदान की। मुनि श्री धर्मसंघ में13वें संत हुए।इसके पहले संतों की संख्या 12 से आगे नहीं बढी थी।आपकी दीक्षा के बाद साधुओं की संख्या कम नहीं हुई।
मुनिश्री हेमराजजी ने दीक्षा के बाद चार चातुर्मास स्वामीजी के साथ किये। सं.1858 का चातुर्मास संत वेणीरामजी के साथ पुर में किया।सं. 1858 में स्वामीजी ने मुनि हेमराजजी को अग्रगण्य बनाया।
*आपने 17 भाई-बहनों को संयम प्रदान किया.*
*मुनि हेमराजजी के सानिध्य में कईं विस्मयकारी तपस्याएं हुई.*
(1)सं.1860पीसांगन चातुर्मास में मुनि श्री जीवन जी(51)ने तप के 22वें दिन संथारा किया। 17 दिन का संथारा आया।(कुल 39 दिन)
(2)सं.1864 देवगढ़ चातुर्मास में मुनिश्री सुखजी(35)ने संलेखना के बाद संथारा किया।जो 10 दिन का आया।संथारे के कारण मुनिश्री हेमराजजी स्वामी चातुर्मास के बाद भी देवगढ़ रूके थे।
(3)सं.1865 सिरियारी चातुर्मास में मुनिश्री भोपजी(49) ने एक साथ आछ के आगार से 66 दिन का तप स्वीकार किया।
(4)सं.1866 पाली चातुर्मास में मुनिश्री भोपजी(49)ने 58 दिन की उदक के आगार से तपस्या की।पारणा करते ही मुनिश्री हेमराजजी के पैर पकड़ कर संथारे के लिए अति आग्रह किया।मुनिश्री हेमराजजी ने उनकी प्रबल भावना देखकर संथारा करवाया जो चार प्रहर का आया।भादवा सुदी 8 को स्वर्ग पधारे।
(5)सं.1874 के गोगुन्दा चातुर्मास में मुनिश्री पीथलजी 'बड़ा'(56)ने 82 दिन का,मुनिश्री पीथलजी(72)'लघु' ने 45 दिन का,मुनिश्री जोधोजी (46)ने46दिन का तप किया।
(6)सं.1875 के पाली चातुर्मास में मुनिश्री पीथलजी 'बड़ा'(56) ने 83 दिन काऔर मुनिश्री पीथलजी 'लघु'(72) ने 36 दिन का तप किया।
(7)सं.1876 के देवगढ़ चातुर्मास में मुनिश्री पीथलजी 'बड़ा' (56)ने आछ के आगार से 106 दिन का तप किया।
(8)सं.1877 के उदयपुर चातुर्मास में मुनिश्री वर्धमानजी(67) ने धोवन पानी के आगार से 104 दिन का तप किया।
(9)सं.1878 के आमेट चातुर्मास में मुनिश्री पीथलजी 'बड़ा'(56) ने 99 दिन का तप किया।
(10)सं.1885 के पाली चातुर्मास में मुनिश्री उत्तमचंदजी(90)और मुनिश्री उदयचंदजी(95)ने एक-एक मास का तप किया तथा मुनिश्री मोतीजी(96)ने आछ के आगार से 76 दिन का तप किया।
(11)सं.1886 के पीपाड़ चातुर्मास में मुनिश्री उदयचंदजी(95) ने एक मास का तप किया तथा मुनिश्री दीपजी(85)ने आछ के आगार से 186 दिन का तप किया।
(12)सं.1887के नाथद्वारा चातुर्मास में मुनिश्री दीपजी(85)ने 31दिन का और मुनिश्री उदयचंदजी(95)ने एक मास का तप किया।
(13) सं.1888के गोगुन्दा चातुर्मास में मुनिश्री उत्तमचंदजी(90),मुनिश्री उदयचंदजी(95)और मुनिश्री दीपजी(85)ने क्रमशः 34 ,30 और 45 दिन का तप किया।
(14)सं.1889के पाली चातुर्मास में मुनिश्री उदयचंदजी(95) ने मासखमण का तप किया।
(15)सं.1890के पीपाड़ चातुर्मास में मुनिश्री उदयचंदजी(95) ने मासखमण का तप किया।
🙏शेष अगली पोस्ट में...
*श्रंखला - 5 ( भाग 2 )*
*मुनिश्री हेमराजजी के सानिध्य में हुई विस्मयकारी तपस्याएं गतांक से आगे.*
*(16).* सं.1891के बालोतरा चातुर्मास में मुनिश्री उदयचंदजी ने वैयावृत्य करते हुए 30 दिन का तप किया।
*(17).* सं.1892के पाली चातुर्मास में मुनिश्री उदयचंदजी ने वैयावृत्य करते हुए 30 दिन का तप किया।
*(18).* सं.1893 के पीपाड़ चातुर्मास में मुनिश्री उदयचंदजी ने वैयावृत्य करते हुए 43 दिन का तप किया।
*(19).* सं.1894के लाडनूं चातुर्मास में मुनिश्री रामजी(100) ने 30 दिन का तप किया।मुनिश्री उदयचंदजी ने वैयावृत्य करते हुए37 दिन का तप किया।
*(20).* सं.1895 के पाली चातुर्मास में मुनिश्री रामजी ने 41दिन का तप किया।
*(21).* सं.1896 के पीपाड़ चातुर्मास में मुनिश्री उदयचंदजी ने 30 दिनकी तपस्या की।
*(22).* सं.1897 के सिरियारी चातुर्मास में मुनिश्री उदयचंदजी और मुनिश्री अनूपचंदजी(114) ने 50--50 दिन की तपस्या की।
*(23).* सं.1899 के गोगुन्दा चातुर्मास में मुनिश्री उदयचंदजी ने 30 दिन का तप किया।
*(24).* सं.1900 के नाथद्वारा चातुर्मास में मुनिश्री उदयचंदजी ने 30 दिन का तप किया।
*(25).* सं 1901 के पुर चातुर्मास में मुनिश्री उदयचंदजी ने 77 दिन का तप किया।
*(26).* सं. 1902 के उदयपुर चातुर्मास में मुनिश्री उदयचंदजी ने 30 दिन का तप किया।
*(27).* सं.1903 के नाथद्वारा चातुर्मास में मुनिश्री कर्मचंदजी(83) ने 31 दिन और मुनिश्री उदयचंदजी ने 30 दिन का तप किया।
*(28).* सं.1904 के आमेट चातुर्मास में मुनिश्री उदयचंदजी ने आछ के आगार से दो मास का तप किया।
🙏मुनि श्री हेमराजजी स्वामी के सानिध्य में उपरोक्त तपस्याओं के अतिरिक्त मासखमण से कम दिनों की कईं तपस्याएं भी हुई।
*आपके पास साधु-साध्वियों के छह अनशन भी सम्पन्न हुए.*
🙏इस प्रकार मुनि श्री हेमराजजी स्वामी अनेक साधुओं के विशिष्ट तपों में सानिध्य प्रदाता बने।मुनिश्री का स्वयं का भी तपस्या में बहुत अनुराग था।
*आपने उपवास से पंचोले तक की तपस्या अनेक बार की। छह तथा आठ के तप भी किये।
*सं.1876 में नाथद्वारा चातुर्मास में चार महीने एकान्तर किये।
*शीतकाल में अनेक वर्षों तक एक पछेवड़ी में रहते।खड़े-खड़े कायोत्सर्ग करते।निरन्तर स्वाध्याय-ध्यान की धुन में रहते।
75 वर्ष की अवस्था में सिरियारी में जेठ सुदि 2 सं.1904 शनिवार को आपका स्वर्गवास हुआ।
*सिरियारी में जनमिया.*
*सिरियारी व्रतधार.*
*सिरियारी नैत्र खुल्या.*
*सिरियारी संथार.*
🙏आचार्यश्री तुलसी द्वारा *हेम दीक्षा द्विशताब्दी समारोह.* वि.सं.2053 माघ शुक्ला 13(20 फरवरी 1997) लाडनूं में मनाई गई।
मुनिश्री हेमराजजी स्वामी की *दीक्षा-द्विशताब्दी.* के अवसर पर साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभाजी ने आपकी जीवनी *विकास पुरुष हेम.* लिखी।
प्रस्तुति :-- ग्रूप के सदस्य *सुरेश चन्द्र जी बोरदिया के द्वारा*
🙏🙏🙏
*श्रंखला - 9*
. अर्हम् .
जय भिक्षु जय महाश्रमण
9⃣ *मुनिश्री जोधोजी(46).*
मुनिश्री जोधोजी मेवाड़ के करेड़ा गांव के वासी थे।आपकी गोत्र मारू ओसवाल थी।आपकी दीक्षा सं. 1859 में माघ शुक्ला 7 से पूर्व मारवाड़ में स्वामीजी के कर कमलों से सम्पन्न हुई।
*पढ़ना लिखना कर न सके वे था क्षयोपशम श्रुत कम.*।
*रहे अगड़सूत्री ही मुनिवर मिला न आगम रस अनुपम.*।।
>>अनुमानतः सं. 1866 से सं.1869 के मध्य मुनिश्री जोधोजी ने मुनिश्री बखतोजी(58)और मुनिश्री संतोजी(59)के साथ किसी कारण से पचपदरा चातुर्मास किया।उस समय वे तीनों संत अगड़सूत्री थे *(जब तक आचारांग तथा निशीथ सूत्र का वाचन नहीं किया जाता तब तक वह साधु अगड़सूत्री कहलाता है।वह आज्ञा आलोचना नहीं दे सकता).* *अतः वे वहाँ साध्वीश्री वरजूजी(39)के नेश्राय(अधिकार)में रहे।*
🙏 *तप विवरण.* 🙏
मुनिश्री जोधोजी महान् तपस्वी हुए।उपवास, बेले, तेले,चोले,पंचोले आदि बहुत किये।अपने प्रथम चातुर्मास में 13 का तप किया।दूसरे चातुर्मास में 42 का तप किया।बाद में आछ के आगार से..45..47..30..31..26..60 और पुर चातुर्मास में 75 किये।सं.1874 के गोगुंदा चातुर्मास में मुनिश्री हेमराजजी के सानिध्य में 46 का तप किया।
मुनिश्री जोधोजी ने सं. 1875 का चातुर्मास मुनिश्री मौजीराम जी (54) और मुनिश्री माणकचंदजी (71) के साथ कोचला गांव में किया।वहाँ पर आपने 34 का तप किया।पारणा करने के बाद शरीर में अस्वस्थता बढ़ गई जिससे चातुर्मास के बाद वहीं रहना पड़ा।
🙏 *मृगसरकृष्णा 7 के आसपास आपने आजीवन अनशन ग्रहण किया।आत्मालोचन तथा क्षमायाचना करते हुए पौष कृष्णा अमावस्या सं.1875 को 38 दिन के संथारे में वे स्वर्ग पधारे।*
*श्रीमद्जयाचार्य के शब्दों में.*
*जोधराजजी स्वामी ने पिछांणजो रे,*
*त्यां में तपस्या तणो गुण जाण रे।*
*जिन मार्ग में दीपता रे,*
*एहवा जोधोजी स्वामी गुण खांण रे।।*
(संत गुण माला ढा़ल--१ गाथा--21)
प्रस्तुति :-- ग्रूप के सदस्य *सुरेश चन्द्र जी बोरदिया के द्वारा*
🙏🙏🙏
*श्रंखला - 11*
. ।।अर्हम्।। .
जय भिक्षु जय महाश्रमण
. ( 1️⃣1️⃣ ) .
*मुनिश्री भोपजी (49).*
(संयमपर्याय सं.1859-1866)
मुनिश्री भोपजी का जन्म मेवाड़ के कोशीथल गांव में हुआ।आपके पिता का नाम लालचंद जी चपलोत था।आपकी दीक्षा वि.सं.1859 में माघ शुक्ला 7 से पूर्व पाली में स्वामीजी के कर कमलों से सम्पन्न हुई।
*मुनिश्री भोपजी स्वामीजी के अंतिम शिष्य हुए।*
🙏 *तप विवरण.* 🙏
मुनिश्री भोपजी ने दीक्षा लेते ही अपना जीवन तपश्चर्या में झोंक दिया।उपवास ,बेला ,तेला ,चोला, पंचोले आदि अनेक बार किये।आपने उपवास से तेरह तक की लड़ी सम्पन्न की।
◆सं. 1861 के पीसांगन चातुर्मास में 30 दिन और 20 दिन का तप किया।
◆सं.1862 के पाली चातुर्मास में 40 दिन का तप किया।
◆सं.1863 के मांडा चातुर्मास में 30 दिन और 31 दिन का तप किया।(चातुर्मास में कुल 92 दिन का तप किया)
◆सं.1864 के लावासरदारगढ़ चातुर्मास में आपने कुल 17 दिन आहार(पारणा)किया।इस चातुर्मास के अन्तिम समय में आपने अभिग्रह किया-- *"जब तक आचार्य श्री के दर्शन नहीं हो तब तक तीन आहार का त्याग रखूंगा। 29वें दिन आचार्य श्री के दर्शन कर पारणा किया।*
◆सं.1865 का सिरियारी चातुर्मास आपने मुनिश्री हेमराजजी स्वामी के सानिध्य में किया।वहाँ पर आपने आछ के आगार से एक साथ 66 दिन का प्रत्याख्यान किया।
◆मुनिश्री प्रतिवर्ष शीतकाल में15दिन का तप करते *उष्णकाल में तप्त शिलाओं एवं रेत पर लेटकर आतापना लेते।* उनका दृष्टिकोण अधिक से अधिक कर्म निर्जरा का हो गया।सं.1865 के चातुर्मास के पश्चात आपने आमेट में आचार्यश्री भारमलजी स्वामी के दर्शन किये। *मुनिश्री ने आमेट में सभी साधु-साध्वियों से क्षमायाचना कर गुरूदेव से पाली में संलेखना करने की आज्ञा ली।*
◆सं.1866 का अन्तिम चातुर्मास आपने मुनिश्री हेमराजजी स्वामी के सानिध्य में पाली में किया।वहाँ पर आपने पानी के आगार से 58 दिन का तप किया।तपस्या में घोर वेदना होने पर भी अडिग रहे। *पाली में आप मुनिश्री हेमराजजी स्वामी के पांव पकड़कर बोलेआप मुझे संथारा करवा दें"* मुनिश्री हेमराजजी स्वामी ने फरमाया *एक महीने तक भोजन का प्रत्याख्यान कराना सरल है, पर संथारे का काम बड़ा कठिन है*
. 🙏 .
*कहा हेम ने सुगम है रे,*
*मासादिक परित्याग।*
*किंतु कठिन करवाना-अनशन,*
*खाता चक्र दिमाग।।*
🙏नाड़ीवैद ईशरदास जी के परामर्श से मुनीश्री हेमराजजी स्वामी ने मुनिश्री भोपजी को आजीवन अनशन करवा दिया जो साढेचार प्रहर में सिद्ध हुआ और *मुनिश्री भोपजी स्वामी भाद्रपद शुक्ला 8 को पाली में 66 साल की उम्र में "पंडितमरण" को प्राप्त हुए।*
प्रस्तुति :-- ग्रूप के सदस्य *सुरेश चन्द्र जी बोरदिया के द्वारा*
🙏🙏🙏
*🙏🙏जय भिक्षु जय महाश्रमण 🙏🙏*
*🌅 ॐ अ .भी .रा .शि. को .नमः 🌅*
*🌞 तपस्वी मुनि श्री भीम जी स्वामी* 🌞
🌸 🌸 *जीवन परिचय* 🌸 🌸
*श्रृंखला* *( 1-5 )*
. *सब दुख भंजन -भीम*
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*वृद्ध सहोदर जीत नों , जस धारी , जयकारी हो ।*
*लघु सहोदर स्वरूप नों , भीम गुणां रो भंडारी हो ।*
*सखर सुजस संसारी हो । भजो मुनि गुणां रा भंडारी हो ।।*
*" तपस्वी भीमजी- गुण फूलों की क्यारी , यशस्वी , जयकारी ,जीत के सगे बड़े भाई , स्वरूप मुनि के अनुज, जिनकी सुयशशोभा संसार जानता है ,ऐसे गुण भंडार मुनि का भजन करो।"*
*समरण थी सुख संपजै , जाप जप्यां जस भारी हो ।*
*मन वांछित मनोरथ फलै , भजन करो नर नारी हो ।*
*वारूं बुद्धि विस्तारी हो । भजो मुनि गुणांरा भंडारी हो ।।*
*" ओ नर - नारियों ! भीम जी स्वामी का भजन करो । जिनका स्मरण सुख- आनंद देता है । जाप से भारी यश मिलता है । मन इच्छित मनोरथ पूरे होते हैं । जरा बुद्धि- कला -अटकल- चतुराई- युक्ति लगाकर ऐसे गुण -भंडार मुनि का भजन करो ।"*
*तपस्वी भीम जी स्वामी बड़े वैरागी , निर्जरार्थी , निर्लेप और दीदारू -ओपते संत थे । उनके दो विगय उपरांत जीवन भर विगय - खाने का त्याग था । पौष -माघ की ठिठुरती ठंडी रातों में भी वे एक पछेवङी से ज्यादा कपङा नहीं ओढ़ते थे । एकांतर -एक दिन छोड़ एक दिन निर्जल उपवास करते ।*
*उष्ण- काल में बहुत बार आतपी- साधना- गर्म शिलापटृ पर लेटकर- आतापना लेते । तत्व ज्ञान के माहिर और बोल थोकड़ों के दक्ष- भीम जी स्वामी ने पूरी आगम बत्तीसी का पारायण किया था । स्वाध्याय के साथ-साथ ध्यान के विविध प्रयोग और जप- योग , उनकी अन्तर साधना थी । उन जैसे सेवाव्रती भी थोड़े ही होते हैं।*
*अनुयायी तथा अन्य मतावलम्बी लोग भी भीम जी स्वामी के दर्शन कर खुश होते । भीम जी तपस्वी की चारित्रचर्या युक्त मनोहर मुद्रा देख मन में चैन - आनंदानुभूति करते । उनका सरस व्याख्यान और निर्मल वाणी सुन जनता प्रसन्न होती , क्योंकि भीम जी स्वामी में विशेषता थी - तपस्या के साथ वे पंच परमेष्ठी के आराधक थे । अ. सि. आ .उ.सा. का सदा जाप करते ।*
*" ॐ अर्हम "*
*महा तपस्वी मुनि श्री भीम जी स्वामी के बारे में जयाचार्य श्री आगे और क्या लिखते हैं जानने के लिए अगली पोस्ट में .......*
*क्रमशः*--------- *अगला भाग अगले
*श्रंखला - 16*
*🙏🙏जय भिक्षु जय महाश्रमण 🙏🙏*
*🌅 ॐ अ .भी .रा .शि. को .नमः 🌅*
*🌞 तपस्वी मुनि श्री भीम जी स्वामी* 🌞
🌸 🌸 *जीवन परिचय* 🌸 🌸
*श्रृंखला* *( भीम -6-10 )*
*सब दुख भंजन -भीम*
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*अ .सी .आ .उ. सा. का सदा जाप करते । निरतिचार चर्या और अभिग्रह तप तपते । पंच परमेष्ठी के कोटि -जपी साधक भीमजी स्वामी के सौम्य स्वभाव की अमिट- छाप लगी तपस्वी भागचंद जी पर । तपस्वी भीमजी में प्रकृति बदलने की एक अनूठी कला थी । मुनि भागचंद जी उग्र- स्वभावी , बीदासरी - रांगङ , छोटी-छोटी ना कुछ सी बात पर बिगड़ जाते । रूठना उनके लिए क्षण भर का काम था । इसी आवेश- तेश में वे कितनी ही बार संघ छोड़कर चले गए ।*
*भीम जी स्वामी की तरकीब ने उन्हें आशु -कोप से आशुतोष बना दिया । मानो किसी ने खिरणी की जड़ सफेद -धागे में पहना दी हो । तपस्वी भीम जी ने उन्हें ऐसा परोटा , ऐसा संभाला , क्या कहना ? दुर्वासा -वृत्ति से वाशिष्टि -वृत्ति में ला दिया । वे आपस में घुले तो ऐसे घुले ' दूध मिश्री ' । मुनि भागचंद जी ने वृत्ति -प्रकृति -बदलाव के साथ-साथ तपस्याएं भी खूब की । अंतिम 27 वर्षों में 27 मासखमण -तप कर एक कीर्तिमान बनाया । यह सब कुछ हुआ तपस्वी भीम जी स्वामी की बदौलत ।*
*तपस्वी भीम जी स्वामी का अलग ही रंग था । व्याख्यान कला, कंठों का सुरीलापन , आगम -धारणा , जनता पर प्रभाव , स्वभाव में माधुर्य , साथी सहयोगी संतों का एकीपन और अवसरज्ञता उनका तंत्र -तिलक था । थली जैसे प्रांत में तेरापंथ की जड़े जमाने में उन्हीं का विशेष योग रहा -जयाचार्य ने भीम विलास 4 -4 में लिखा है -*
*देश थली में ठाट ,भीम - ऋषि आय नै*
*मत पातसा नो दियो दाट , लोगां नै समझाय नै'*
*मोहिल -वाटी के बादशाह कहलाने वाले ऋषि चंद्रभाण जी के इलाके को अभिभूत कर , उनकी अभिमत - धारणाओं को दाट- पाट, जनता को तेरापंथ -दर्शन- रहस्य समझा थली में ठाट जमाने का श्रेय तपस्वी भीम जी को जाता है । भीम विलास 4-7 बोलता है -*
*'भीम कियो थली में गहघाट'*
*"तपस्वी भीम जी नै ठाट लगा दिए ।" थली के लोग ऐसा कहने लगे थे ।*
*भीम विलास 6 - 6 के अनुसार भीम जी स्वामी वैसे ही थे -*
*' तप संयम रो जोरो घणो छै , बले सूत्र - सिद्धांत रा जाण विषेखो '*
*वेदन आयां सम अहियासै , भीम रिषीश्र्वर एहवो देखो ।*
*जिनके पास तप का तेज है , संयम का बल है , सिद्धांत - सूत्र की विशेष जानकारी है , वेदना- कष्ट- परिषह सहने की क्षमता है , यह एक मोटा- सा परिचय है भीम ऋषीश्र्वर का ।*
*" ॐ अर्हम "*
*महा तपस्वी मुनि श्री भीम जी स्वामी के बारे में जयाचार्य श्री आगे और क्या लिखते हैं जानने के लिए अगली पोस्ट में .......*
*क्रमशः--------- अगली पोस्ट अगले रविवार*
*जय भिक्षु जय महाश्रमण*
*ॐ अ .भी .रा .शि. को . नमः*
*तपस्वी मुनि श्री भीम जी स्वामी*
*जीवन परिचय*
*श्रृंखला* *( भीम -11-15 )*
*सब दुख भंजन -भीम*
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*भीम जी स्वामी का दीक्षा संस्कार आचार्य भारमल जी स्वामी द्वारा जयपुर में हुआ । उन्होंने मां - कल्लू जी के साथ वि. सं. 1869 फागन कृष्णा 11 को दीक्षा ली । उनसे पहले उनके बड़े भाई श्री स्वरूपचंद जी स्वामी तथा छोटे भाई जीत मुनि ( जयाचार्य ) दीक्षित हो चुके थे । जीत मुनि को 6 महीनों पश्चात तथा भीम जी स्वामी को 4 महीनों बाद छेदोपस्थापनीय- चारित्र ( बड़ी- दीक्षा ) दे , भीम जी स्वामी को जीत मुनि से साधु- क्रम संख्या में बड़ा रखा गया ।*
*तपस्वी भीम जी को गुरु- मंडल में तथा हेमराज जी स्वामी के पास 12 वर्ष ज्ञानार्जन का अवसर मिला । वि. सं.1881 में उन्हें अग्रगण्य बनाया गया । भीम विलास 1-21 में जयाचार्य श्री ने लिखा है-*
*' संवत अठारै इक्यासिये , रिषिराय बधायो तोल , टोलो सूंप्यो भीम नै ,आप्या संत अमोल '।*
*वि. सं. 1881 में आचार्य रिषिराय ने भीम जी स्वामी का तोल -मोल बढ़ाया । मूल्यांकन कर उनको टोला सौंपा- अग्रगण्य बना संतो को वंदना करवायी । संत भी अनमोल अच्छे-अच्छे सौंपे ।*
*वे अनेक क्षेत्रों में विचरे । अपने अनुभवों का खूब उपयोग किया । तपस्या के साथ-साथ ज्ञान वितरण कर अनेक लोगों को संयम -व्रत- सम्यक्त्व- बोध देते- देते वे रामगढ़ (शेखावाटी ) पहुंचे । उनके परिचय में भीम विलास- 1-15 में लिखा है -*
*' भीम सरल हिया नो घणो , भीम प्रकृति भदरीक ,*
*कार्य करवा उधमी घणा , सूरपणै साहसीक ।'*
*"भीम जी स्वामी ह्रदय के सरल , प्रकृति से भद्र , कार्यक्षम , बहुत परिश्रमी , साहसिक और शूरवीर- अग्रिम पंक्ति वाले योद्धा थे ।"*
*मुनि श्री पङिहारा ,रतनगढ़ होते हुए चातुर्मास के पूर्व चूरू पधारे और एक महीना ठहरे । चातुर्मास प्रारंभ होने में बहुत दिन बाकी थे इसलिए वहां से विहार कर बिसाऊ, मैणसर होते हुए रामगढ़ पधारे । एक महीना विराजे। रामगढ़ से मैणसर होकर वि. सं. 1897 आषाढ़ कृष्णा 6 को बिसाऊ के लिए विहार हुआ । उन्हें चातुर्मास चूरू करना था । भयंकर गर्मी । लूऐं चल रही थी । बिसाऊ पहुंचते-पहुंचते वे लटपटा गए । उल्टी -दस्त ने शरीर का पानी सोख लिया ।*
*'आलोइ निन्दी नि:शल हुआ , खमत खामणा करै लेले नाम',*
*महाव्रत फेर आरोपे मुनिवर , रिष पूंजै ने कहै करावो संथारो '।*
*तपस्वी भीम जी ने आलोवणा की , खमत खामणा नाम ले- लेकर किये ।नि:शल्य हुए । महाव्रतों का आरोपण किया । ऋषि -पूंजो जी से अनशन मांगा । जागृत चेता, विलक्षण तपस्वी, तितिक्षु- संत ,अनशन आराधना कर वि. सं.1897 आषाढ़ कृष्णा सातम को सायं काल मुहूर्त भर दिन रहते 40 वर्ष की उम्र में समाधिस्थ हुए ।*
*" ॐ अर्हम "*
*महा तपस्वी मुनि श्री भीम जी स्वामी के बारे में जयाचार्य श्री आगे और क्या लिखते हैं जानने के लिए अगली पोस्ट में .......*
*क्रमशः--------- अगला भाग अगले रविवार*
*जय भिक्षु जय महाश्रमण*
*ॐ अ .भी .रा .शि. को . नमः*
*तपस्वी मुनि श्री भीम जी स्वामी*
*जीवन परिचय*
*श्रृंखला* *( भीम -16-20 )*
*सब दुख भंजन -भीम*
- - - - - - - - - - - - - - - - - - - -
*अष्टमी को लोग दाह- संस्कार करने गए । पीछे तपस्वी भागचंद जी उदास- उदास, बे -चैन से बैठे थे । किसी गंभीर चिंतन में मन नहीं लग रहा था । उन्होंने बैठे-बैठे आवाज़ लगाई- संत नंदू जी आये । "तपस्वी बोले- नंदू ! मन नहीं लग रहा है। भाई ! पूंजो जी को बुलाओ तो ? " मुनि पूंजो जी आये । तपस्वी बोले- पूंजा ! ये संभाल भाई ! भीमजी स्वामी के पुस्तक- पन्ने अपन तो चले ..भीमजी स्वामी के साथ....।*
*संतो ने कहा - तपस्वी ! क्या भोली बात कर रहे हो ? यों कोई जाया जाता है ? तपस्वी बोले- वे बुला रहे हैं रे ! हे !...मैं तो ये चला । ठीक से रहना...। कहते-कहते तपस्वी भागचंद जी ने एक लंबा श्वास खींचा और इच्छा मृत्यु पा ली ।*
*'भीम ,भागचंद री जोरी , एहवी मिलनी जग में दोरी*
*त्यांरी प्रीत न टूटै तोरी, ऋष भागचंद जी ने भीम री "*
*तपस्वी भीम जी स्वामी और भागचंद जी जैसी जोड़ी दुनिया में दूसरी मिलनी कठिन है वह प्रीति तोड़े भी नहीं टूट सकती ।*
*यहां नहीं ,वहां भी ये दोनों भाग्यवान वैरागी हैं । जिन्दे ही साथी नहीं, मरने में भी साथी । यहां भी साथी ,वहां भी साथी । उनके मन में शासन सेवा कि आज भी उमंग है । वे चतुर्विध संघ की साता -सुख शांति चाहते हैं । अपना स्वरूप दिखाते -से, अहसास जताते- लगते हैं । कहते हैं -मैं अकेला नहीं ,औरों को भी साथ लाता हूँ । हम च्यार तीर्थ की सुरक्षा सेवा- चाकरी करते हैं । संघ का हम पर एहसान है ।*
*आचार्य रिषिराय उन दिनों डीडवाना विराज रहे थे । डीडवाना के सिंघी नोहरे में पूज्य श्री के दर्शन कर तपस्वी भागचंद जी ने अपनी तथा भीमराज जी स्वामी के स्वर्गवास की सूचना दी । आचार्य रिषिराय ने जीवो जी स्वामी को बुलाया और फरमाया - जीवा ! तपस्वी भागचंद जी के लिए एक ढाल ( गीत ) लिखो । वे अभी- अभी आये थे । दर्शन किए थे । वे देवलोक हो गए हैं ।*
*संत जीवो जी भी अल्हड़- अक्खड़ कवि थे । वे बोले- महाराज ! मैं क्यों बनाऊँ तपस्वी के लिए स्मृति-गीत ? आपके पास वे आये, तो आप बनाओ । मेरे पास थोड़े ही आएं हैं , जो मैं बनाऊं ? जीवो जी अभी अपने आसन पर आकर बैठने ही वाले थे कि स्वर्गीय तपस्वी भागचंद जी सामने आ खड़े हुए । प्रकाश ! प्रकाश ! सचन्नण हो गया । बोले - "क्यों ? नहीं लिखोगे गीत ? "*
*" ॐ अर्हम "*
*महा तपस्वी मुनि श्री भीम जी स्वामी के बारे में जयाचार्य श्री आगे और क्या लिखते हैं जानने के लिए अगली पोस्ट में .......*
*क्रमशः--------- अगला भाग अगले रविवार*
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*जय भिक्षु जय महाश्रमण*
, 1️⃣6️⃣ .
*मुनिश्री जीवणजी (51/2/2)*
(संयम पर्याय-सं.1861-1862)
मुनिश्री जीवणजी मारवाड़ में "साचोर" के निवासी थे।आपकी गोत्र श्रीश्रीमाल थी।आपके पिता का नाम सतीदास जी और माता का नाम उगरां बाई था।जीवणजी क्रमशः तरुणावस्था को प्राप्त हुए।पूर्व जन्म के संस्कारों से उनके मन में विरक्ति की धारा प्रवाहित हुई किन्तु आस-पास में ऐसा कोई योग नहीं मिला।उन्होंने सुना था कि तेरापंथी साधु शुद्ध आचार का पालन करते हैं और उनकी श्रद्धा सर्वश्रेष्ठ है।पाली के तेरापंथी श्रावकों से ज्ञात हुआ कि *इस समय आचार्य भिक्षु के उत्तराधिकारी आचार्य श्री भारीमालजी हैऔर वे शुद्ध साधुता का पालन करते हैं।उनके शिष्य मुनिश्री हेमराजजी स्वामी का सं. 1861 का चातुर्मास पाली में होने वाला है।* आपने पाली में दर्शन किये वैराग्य भावना प्रबल हुई। मुनिश्री के निर्देशानुसार आवश्यक तात्विक ज्ञान सीखा तथा अपने माता-पिता से आज्ञा पत्र लेकर *मुनिश्री हेमराजजी स्वामी से सं. 1861 फाल्गुन शुक्ला 3 सोमवार के दिन पाली में दीक्षा स्वीकार कर संयम मार्ग पर अग्रसर हुए। पाली से खेरवा पधारे होली चातुर्मास वहाँ कर सोजत होते हुए पीपाड़ में आचार्य श्री भारीमालजी के दर्शन किये* सं.1862 के जेतारण चातुर्मास में आपने संलेखना प्रारम्भ की।
🚥🔸🚥🔸🚥🔸🚥🔸
*🙏 तप विवरण 🙏*
जेतारण चातुर्मास में...
*सर्वप्रथम 16दिन का तप किया* फिर 3 उपवास किये।दो दिन आहार करके भाद्रपद शुक्ला 8 को *सात दिन का प्रत्याख्यान किया पारणे में अचित अजवाइन मंगा कर ली और तीनों आहार का त्याग कर दिया।चौदहवें दिन संथारा ग्रहण किया जो अठारह दिन से कार्तिक वदी 1 को 13 दिन की संलेखना और 18 दिन के अनशन से सम्पन्न हुआ। मुनिश्री ने लगभग साढे सात मास में आत्मकल्याण कर लिया*
🙏श्रीमद्जयाचार्य ने मुनिश्री की स्मृति में लिखा है---
*जिनमार्ग में जीवणजी स्वामी सुखदाय कै,*
*भारीमाल गुरू भेटिया जी।*
*अणसण कर नै पहुंता परभव मांय कै,*
*पनरै पक्ष में कीधी फतै जी।।*
प्रस्तुति :-- ग्रूप के सदस्य *सुरेश चन्द्र जी बोरदिया के द्वारा*
🙏🙏🙏
*श्रंखला - 17*
. *।।अर्हम्।।* .
*जय भिक्षु* *जय महाश्रमण*
. 1️⃣7️⃣ .
*मुनिश्री पीथलजी "बड़ा"*
【 56 / 02 / 07 】
*56 से तात्पर्य* --तेरापंथ धर्म संघ में साधु क्रमांक संख्या।
*02 से तात्पर्य* -तेरापंथ के द्वितीय आचार्य श्री भारीमालजी का शासनकाल।
*07 से तात्पर्य है* --द्वितीय आचार्य श्री भारीमालजी के शासनकाल में दीक्षित साधु क्रमांक संख्या।
● संयम-पर्याय ●
(सं. 1866 से सं. 1883 तक)
*मुनिश्री पीथलजी मारवाड़ में "बाजोली" के वासी और गोत्र आपकी नाहर (ओसवाल) थी* वे संसार से विरक्त होकर दीक्षा लेने के लिये तैयार हुए और अपनी पत्नी की स्वीकृति लेकर मुनिश्री हेमराजजी स्वामी के पास पहुंचे। *सं.1866 में मुनिश्री हेमराजजी स्वामी से पाली में संयम ग्रहण किया।*
मुनिश्री बड़े विनयी,सेवार्थी और तपस्वी हुए।दीक्षित होते ही आपने उत्कट तप करना प्रारम्भ किया।प्रथम छह वर्षों में आपने विविध तपस्याएं की जिसका विवरण उपलब्ध नहीं है।तपस्या के साथ वे आतापना भी लेते थे।उसके बाद सं.1873 से सं.1883 तक *(प्रायः आछ के आगार से)* निम्न बड़ी तपस्याएं की...
सं.1873 में *40 दिन का तप सिरियारी में किया*
सं.1874में *82 दिन का तप गोगुन्दा में किया*
सं.1875में *83 दिन का तप पाली में किया*
सं.1876में *106दिन का तप देवगढ़ में किया*
( जो गण में सर्वप्रथम था )
सं.1877 में *120दिन का तप पुर में किया*
(यह तप आपने मुनिश्री स्वरूपचंद जी के सानिध्य में किया।इसी चातुर्मास में मुनिश्री माणकचंदजी(71) ने भी चातुर्मासिक तप किया।दोनों मुनियों का यह तप गण में सर्वप्रथम था)
सं.1878 में *99दिन का तप आमेट में किया*
सं.1879 में *100दिन का तप किया*
सं.1880 में *60दिन का तप किया*
सं.1881 में *75 और 21 दिन का तप किया*
सं.1882 में तृतियाचर्य ऋषिराय के सानिध्य में पाली में *101 दिन का तप किया*
सं.1883 में मुनि भीमजी(63)के साथ कांकरोली में चातुर्मास था। *186दिन की तपस्या ( छहमासीतप ) का पारणा आचार्य श्री रायचंद जी ने उदयपुर चातुर्मास सम्पन्न कर कांकरोली पधार कर कराया।तेरापंथ धर्मसंघ में इससे पहले छहमासी तप नहीं हुआ था*
🙏सं.1883 पोष शुक्ला 10 के दिन कांकरोली में अकस्मात उनकी जबान बन्द हो गई शरीर में अथाह व्याधि हुई।सहवर्ती मुनि भीमजी ने *उन्हें पूछकर सागारी अनशन कराया और आपने सवा प्रहर के पश्चात पंडित-मरण प्राप्त किया।*
*"तप: सूर अणगार" उक्ति यह,*
*है आगम में स्पष्ट।*
*की चरितार्थ श्रमण पीथल ने,*
*करके तप उत्कृष्ट ।।*
🚥🔸🚥🔸🚥🔸🚥🔸
*☝️पीथलजी स्वामी ने,*
*तप की बाजी खेली रे।*
*सब शक्ति उंडेली रे,*
*की पूर्ण पहेली रे।।*
🙏 *ओम अर्हम्* 🙏
प्रस्तुति :-- ग्रूप के सदस्य *सुरेश चन्द्र जी बोरदिया के द्वारा*
🙏🙏🙏
*श्रंखला - 18*
. *।।अर्हम्।।* .
*जय भिक्षु जय महाश्रमण*
【 52 / 2 / 9 】
*मुनिश्री वगतो जी (तिवरी)*
(संयम पर्याय 1866--1873)
मुनिश्री मारवाड़ में *तिवरी* के वासी, जाति से ओसवाल और गोत्र से *धाड़ीवाल* थे। आपने तेरापंथ की मान्यता को समझ कर आचार्य श्री भारीमालजी को गुरू रूप में स्वीकार कर लिया।परन्तु बाद में तेरापंथी साधुओं का योग नहीं मिला।आप पहले स्थानकवासी गुमानजी के टोले में दीक्षित हुए वहाँ आचार-विचार नहीं मिलने से उन्हें *जय भिक्षु जय महाश्रमण*
*ॐ अ .भी .रा .शि. को . नमः*
*तपस्वी मुनि श्री भीम जी स्वामी*
*जीवन परिचय*
*दिनांक 31 मई 2020 रविवार*
*श्रृंखला* *( भीम 21-25 )*
*सब दुख भंजन -भीम*
- - - - - - - - - - - - - - - - - - - -
*उसी समय जीवो जी स्वामी ने गीत लिखना प्रारंभ किया । जिसमें वे स्वयं इस बात का उल्लेख करते हैं -*
*"श्री पूज हुकुम फरमायो, तिण स्यूं मैं मुनिवर गायो*
*आषाढ़ सुद लाडनूं आया, सुद तेरस दिन गुण -गाया"*
*'श्री पूज्य आचार्य रिषिराय ने आदेश फरमाया इसलिए मैंने मुनिवर- तपस्वी भागचंद जी के गुणानुवाद गाये । हम आषाढ़ सुदी तेरस को डीडवाना से लाडनूं आये, उसी दिन मैंने तपस्वी गुण- गीत संपूर्ण किया ।'*
*जिस समय तपस्वी भागचंद जी ने ( दिव्य देव रूप में ) आचार्य श्री ऋषिराय को डीडवाना में दर्शाव दिया, उस समय युवाचार्य जीत मुनि भी वही डीडवाना में ही थे । उन्होंने भी गाया -*
*'भीम आउखो पूरो कियो, सांभल्यो पूज महाराज ।*
*मन मांही करड़ी लागी घणी, भीम हुंतो गुण जिहाज ।।'*
*'भीम -ऋषि के आयुष्य पूर्ण- देवलोक होने के समाचार पूज्य आचार्य ऋषिराय को बहुत अटपटे ,मन को असुहावने लगे । उनके श्रीमुख से खेद के साथ निकला -तपस्वी भीमजी गुण- भरी जहाज थे ।'*
*युवाचार्य जीत मुनि ने डीडवाना से विहार किया । उन्हें वि. सं. 1898 का चातुर्मास जयपुर करना था । मन में एक चिंतन- पीड़ा बार-बार उभरती रही ' भीम जी स्वामी इतने नीपीते / निस्पृह कब से ? तपस्वी भागचंद जी तो स्वर्ग से संवाद देने आये । भीम जी स्वामी क्यों नहीं आये ? क्या मैं कुछ नहीं लगता था ? उनका छोटा भाई नहीं था ?'*
*कुछ समय बाद- लाडनू से स्वरूप चंद जी स्वामी के संवाद मिले- " तपस्वी भीम जी आए थे । उनका दिव्य स्वरूप देख अपार हर्ष हुआ " युवाचार्य जीत मुनि के मन में खिन्नता हुई । ' मेरा क्या अपराध ? ' चातुर्मास पूरा हुआ । युवाचार्य जीत वि. सं. 1898 चैत्र कृष्णा सातम को एक गीत लिखने बैठे । गीत लिखते- लिखते स्व. भीम जी स्वामी ने सहसा साक्षात देखकर विस्मित कर दिया ।*
*वे कह रहे थे -"क्यों जीतू जी ! मैं पहले लाडनूं स्वरूपचंद जी स्वामी की सेवा में गया था न !" उस साक्षात् की कहानी जयाचार्य की जुबानी ही नहीं , लिखित शब्दों में पढ़ना चाहें तो भीम गुण ढा़. 1- 4,3,5 में यों मिलेगी -*
*'स्वरूपचंद सहोदर भणी, तें दीधो दीसै छै सम्मान,*
*दिव्य रूप देख्यां छतां, हर्ष थयो असमान " ।*
*" मुनि वत्सल गुण बालहा, अल्प भाषी दीसो छो आप ? "*
*" चेत वद सातम गुण गाविया, अठाणूं संवत अठार ,*
*अभिलाषा हिव पूरिये म करो जेज लिगार " ।*
*" ॐ अर्हम "*
*महा तपस्वी मुनि श्री भीम जी स्वामी के बारे में जयाचार्य श्री आगे और क्या लिखते हैं जानने के लिए अगली पोस्ट में .......*
*क्रमशः--------- अगले रविवार*
*जय भिक्षु जय महाश्रमण*
*ॐ अ .भी .रा .शि. को . नमः*
*तपस्वी मुनि श्री भीम जी स्वामी*
*जीवन परिचय*
*दिनांक 31 मई 2020 रविवार*
*श्रृंखला* *( भीम 21-25 )*
*सब दुख भंजन -भीम*
- - - - - - - - - - - - - - - - - - - -
*उसी समय जीवो जी स्वामी ने गीत लिखना प्रारंभ किया । जिसमें वे स्वयं इस बात का उल्लेख करते हैं -*
*"श्री पूज हुकुम फरमायो, तिण स्यूं मैं मुनिवर गायो*
*आषाढ़ सुद लाडनूं आया, सुद तेरस दिन गुण -गाया"*
*'श्री पूज्य आचार्य रिषिराय ने आदेश फरमाया इसलिए मैंने मुनिवर- तपस्वी भागचंद जी के गुणानुवाद गाये । हम आषाढ़ सुदी तेरस को डीडवाना से लाडनूं आये, उसी दिन मैंने तपस्वी गुण- गीत संपूर्ण किया ।'*
*जिस समय तपस्वी भागचंद जी ने ( दिव्य देव रूप में ) आचार्य श्री ऋषिराय को डीडवाना में दर्शाव दिया, उस समय युवाचार्य जीत मुनि भी वही डीडवाना में ही थे । उन्होंने भी गाया -*
*'भीम आउखो पूरो कियो, सांभल्यो पूज महाराज ।*
*मन मांही करड़ी लागी घणी, भीम हुंतो गुण जिहाज ।।'*
*'भीम -ऋषि के आयुष्य पूर्ण- देवलोक होने के समाचार पूज्य आचार्य ऋषिराय को बहुत अटपटे ,मन को असुहावने लगे । उनके श्रीमुख से खेद के साथ निकला -तपस्वी भीमजी गुण- भरी जहाज थे ।'*
*युवाचार्य जीत मुनि ने डीडवाना से विहार किया । उन्हें वि. सं. 1898 का चातुर्मास जयपुर करना था । मन में एक चिंतन- पीड़ा बार-बार उभरती रही ' भीम जी स्वामी इतने नीपीते / निस्पृह कब से ? तपस्वी भागचंद जी तो स्वर्ग से संवाद देने आये । भीम जी स्वामी क्यों नहीं आये ? क्या मैं कुछ नहीं लगता था ? उनका छोटा भाई नहीं था ?'*
*कुछ समय बाद- लाडनू से स्वरूप चंद जी स्वामी के संवाद मिले- " तपस्वी भीम जी आए थे । उनका दिव्य स्वरूप देख अपार हर्ष हुआ " युवाचार्य जीत मुनि के मन में खिन्नता हुई । ' मेरा क्या अपराध ? ' चातुर्मास पूरा हुआ । युवाचार्य जीत वि. सं. 1898 चैत्र कृष्णा सातम को एक गीत लिखने बैठे । गीत लिखते- लिखते स्व. भीम जी स्वामी ने सहसा साक्षात देखकर विस्मित कर दिया ।*
*वे कह रहे थे -"क्यों जीतू जी ! मैं पहले लाडनूं स्वरूपचंद जी स्वामी की सेवा में गया था न !" उस साक्षात् की कहानी जयाचार्य की जुबानी ही नहीं , लिखित शब्दों में पढ़ना चाहें तो भीम गुण ढा़. 1- 4,3,5 में यों मिलेगी -*
*'स्वरूपचंद सहोदर भणी, तें दीधो दीसै छै सम्मान,*
*दिव्य रूप देख्यां छतां, हर्ष थयो असमान " ।*
*" मुनि वत्सल गुण बालहा, अल्प भाषी दीसो छो आप ? "*
*" चेत वद सातम गुण गाविया, अठाणूं संवत अठार ,*
*अभिलाषा हिव पूरिये म करो जेज लिगार " ।*
*" ॐ अर्हम "*
*महा तपस्वी मुनि श्री भीम जी स्वामी के बारे में जयाचार्य श्री आगे और क्या लिखते हैं जानने के लिए अगली पोस्ट में .......*
*क्रमशः--------- अगले रविवार*
*जय भिक्षु जय महाश्रमण*
*ॐ अ .भी .रा .शि. को . नमः*
*तपस्वी मुनि श्री भीम जी स्वामी*
*जीवन परिचय*
*श्रृंखला* *( भीम 26-31 )*
*सब दुख भंजन -भीम*
- - - - - - - - - - - - - - - - - - - -
*भीम जी स्वामी ! मेरे मन की इच्छा पूरी करो । क्या आपने मौन ले रखा है ? अब जेज- देरी मत करो ....ज्येष्ठ भ्राता मुनि स्वरूपचंद जी स्वामी को बड़े भाई के नाते पहला सम्मान दिया । सुना है आपका दिव्य रूप देख उन्हें अपार हर्षानुभूति हुई । वह तो होनी ही थी । पर वि. सं. 1898 की चैत्र वद सातम आ गई है। पौण साल हो रहा है । क्या मेरी अभिलाषा .....बस कहने की देरी थी । अजीब सा प्रकाश फूटा । युवाचार्य जीत मुनि के लिए यह पहला पहला अवसर था । तपस्वी भीम जी स्वामी सामने खड़े थे|*
*क्या वार्तालाप हुआ ,पता नहीं । पर आज से एक अभिनव स्त्रोत खुला । उसी महीने की द्वादशी को अर्थात 5 दिन बाद से तो दोनों में खुले दिल -चर्चा -वार्ता प्रारंभ हो गई। वहां तपस्वी भीम जी 'संघ- प्रभावना मंडल' के सदस्य हैं- इसका जरा सा इशारा भर करते युवाचार्य जीत ने भिक्षु गुण ढा़ल 2-10/11 में लिखा है -*
*"अमीचंद तपसी गुण दरियो, प्रत्यक्ष उद्योत करियो,*
*भीम ऋषि पांडव भीम सरीखो, धर्मोधमे जुरियों" ।*
*"गुण- ग्राही, दरियादिली तपस्वी अमीचंद जी ने प्रत्यक्ष उद्योत- प्रकाश किया और पांडु- पुत्र भीम से शक्तिशाली भीम -ऋषि -धर्मोधम- संघ- सेवा में जुड़े"।*
*धर्मोद्योम - सेवा में जुड़े यह शब्द कुछ रहस्य छुपाये हुए हैं। गहरे पानी में उतरने का संकेत दे रहा है । युवाचार्य श्री उस शक्ति- पीठ का एहसास यों भी भि. गु . ढ़ा. 4/6 में करते से लगते हैं ।*
*"भीम सरीखा सिख सुखकारी , अमीचंद तपधारी*
*भाव उद्योत भरत में कीधो, उद्यमी अधिक उदारी "*
*तपस्वी भीम जी जैसे सुखकारी शिष्य और अमीचंद जी जैसे तपधारी मुनि भरत क्षेत्र में आभ्यंतर प्रकाश करने अत्यंत उदार -वरैण्य और सजग प्रयत्नशील -परिश्रमी है।*
*उपकार से उपकृत जयाचार्य ने भि. गु .ढ़ा. 9-10 में यों भी माना है ....।*
*प्रीति निभावण, भीम -सरीखा, जग में थोड़ा जीवा,*
*शुद्ध मन सेती समरण करतां, खुले ज्ञान - घट- दिवा*
*तपस्वी भीम जी स्वामी जैसे प्रीति निभाने वाले भी थोड़े ही होंगे । उनका स्मरण अंतर ज्योति, तृतीय- विवेक नेत्र खोलने वाला है ।*
*भीम गुण ढा़ल 4-5 में जयाचार्य लिखते हैं- तपस्वी ! आप तो हो...... ।*
*" पूरण मन वांछित दातारी, सुख सम्पति तणो सहचारी "*
*सुख समाधि के साथी ! मनोभिलाषा पूरी करने वाले ! वाह रे ! वाह ! तपस्वी भीम जी ! नमन नमन .......अमी. गुण ढा़ल 3-5 में कहा -*
*'भीम ऋषि भ्रम -भंजनो, जन -मन -रंजन जोग्य ।*
*चरण -करण चित्त चातुरी, आनंद , करण आरोग्य ।।'*
*तपस्वी भीम जी स्वामी का जाप -*
*1 - मानसिक स्थिरता लाता है -तनाव मिटाता है ।*
*2 - स्वभाव परिवर्तन करता है -प्रेमभाव बनाता है आपस में जोड़ता है ।*
*3 - बौद्धिक विकास देता है- मूल उत्तर गुणों में आस्था जमाता है ।*
*4 - मनोकामनाएं पूरी करता है ।*
*5 - आरोग्य बढ़ाता है।*
*नमस्कार ! नमस्कार ! कोटिश: नमस्कार ! उस पवित्र, संघ- हितैषी , सेवाभावी , मोक्ष- मार्गी आत्मा को.......।*
*" ॐ अर्हम "*
*अभी तक हमने महातपस्वी मुनि श्री भीम जी स्वामी के बारे में जयाचार्य श्री क्या लिखते हैं यह जाना, पढा़ ! महातपस्वी मुनि श्री भीम जी स्वामी की जीवन परिचय श्रंखला यहीं समाप्त होती है ।*
*अगले रविवार को हम पढ़ेंगे महा तपस्वी मुनि श्री रामसुख जी स्वामी के जीवन परिचय की क्रमबद्ध श्रंखला........।*
*👉🏻मुनि श्री सागरमल जी स्वामी द्वारा लिखित पुस्तक "जय जय जय महाराज" से साभार🙏🙏*
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*सोने से पहले पोरसी या नवकारसी आने तक त्याग जरूर करे।*
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🙏🙏
*सोने से पहले पोरसी या नवकारसी आने तक त्याग जरूर करें।*
*👉🏻मुनि श्री सागरमल जी स्वामी द्वारा लिखित पुस्तक "जय जय जय महाराज" से साभार🙏🙏*
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🙏🙏
*सोने से पहले पोरसी या नवकारसी आने तक त्याग जरूर करें।* *आचार्य श्री भारीमालजी के पास दीक्षा लेकर तेरापंथी साधु बन गये*
. *🙏 तप विवरण 🙏* .
मुनिश्री वगतोजी बड़े विनयी, विरागी और तपस्वी हुए।सं.1873 में धाकड़ी(मारवाड़)में आपने आछ के आगार से *101 दिन का तप किया* पारणा करने के कुछ दिन बाद ऊर्ध्व भावना से *आजीवन अनशन ग्रहण कर लिया जो 21 दिनों से सानन्द सम्पन्न हुआ ।धर्म का बड़ा उद्योत हुआ*
🙏श्रीमद्जयाचार्य ने उनका स्मरण करते हुए लिखा है---
*वगतरामजी तपसी बड़ो,*
*एक सो एक अमोल।*
*अणसण इकवीस दिवस नो,*
*च्यार तीर्थ में मोल।।*
*🙏ओम अर्हम् 🙏*
प्रस्तुति :-- ग्रूप के सदस्य *सुरेश चन्द्र जी बोरदिया के द्वारा*
🙏🙏🙏
*श्रंखला - 19*
. *।।अर्हम्।।* .
*जय भिक्षु जय महाश्रमण*
. 1️⃣9️⃣ .
*मुनिश्री संतोजी(59/2/10)*
(संयम पर्याय सं.1866-1912)
मुनिश्री संतोजी मारवाड़ में *सणदरी के वासी* और गोत्र बोकड़िया था।आपने सं.1866 में बड़े वैराग्य भाव से दीक्षा ली।
श्रीमद्जयाचार्य ने उन्हें *बाल मित्र* से सम्बोधित किया है। साधु जीवन के प्रारम्भ में वे *अगड़सूत्री* थे। आप साधु-क्रिया में कुशल, पापभीरु और बड़े आत्मार्थी थे।संघ एवं संघपति के प्रति अनुरागी और निष्ठावान थे।उन्होंने आचार्य भारीमालजी, रायचन्दजी और जयाचार्य की तन्मयता से सेवा की।
*🙏तप विवरण🙏*
आपने छोटी तपस्या बहुत की।ऊपर में *मासखमण भी अनेक बार किये* (संख्या प्राप्त नहीं है) सं.1912 का चातुर्मास आमेट था।वे वहाँ अस्वस्थ हो गये,विहार नहीं कर सके।जयाचार्य ने वहाँ पधार कर उन्हें दर्शन दिये।सात दिनों बाद सं.1912 पौष शुक्ला 13 को आमेट में मुनिश्री का स्वर्गवास हो गया।
*उपवासादिक में अग्रेसर,*
*मासखमण बहु किये विरति धर।*
*आत्म-शुद्धि के लिए उच्चतर,*
*खोला यह अभियान।।*
*पुर-पुर मुनिश्री विचरण करते,*
*उपदेशामृत मुख से झरते।*
*भविकजनों के पातक हरते,*
*भरते अभिनव। ज्ञान।।*
. *🙏 ओम अर्हम् 🙏* .
प्रस्तुति :-- ग्रूप के सदस्य *सुरेश चन्द्र जी बोरदिया के द्वारा*
🙏🙏🙏
*श्रंखला - 32*
. *।।अर्हम्।।* .
*जय भिक्षु जय महाश्रमण*
. 3️⃣2️⃣ .
*मुनिश्री शिवजी(देवगढ़)*’
*【82 / 2/ 33】*
(संयम पर्याय सं.1876-1913)
मुनिश्री शिवजी देवगढ़ के वासी और गोत्र से मादरेचा(ओसवाल) थे। *आपकी दीक्षा सं. 1876 में मृगसर कृष्णा 1 के दिन देवगढ़ में मुनिश्री हेमराजजी स्वामी के हाथों सम्पन्न हुई।*
मुनि शिवजी आचार-विचार में कुशल ,नितिमान् ,विनयी और ह्रदय से बहुत सरल थे।उन्होंने हजारों श्लोक कंठस्थ किये।सूक्ष्म-सूक्ष्म चर्चाओं की गहरी धारणा की।लेखन भी बहुत किया।व्याख्यान भी रसीला देते थे।मुनिश्री अग्रणी नहीं थे।अन्य सिंघाड़बंध साधुओं के साथ उन्होंने अनेक देशों में विहरण किया।
*🙏तप विवरण🙏*
मुनिश्री शिवजी ने उपवास बेले आदि बहुत तपस्या की।
*मासखमण तप किया।*
*35 दिन का तप किया।*
*51 दिन का तप किया*
*शीतकाल में शीत बहुत सहन किया*
*उष्णकाल में आतापना ली*
🙏मुनिश्री ने सं.1913 का अन्तिम चातुर्मास मुनिश्री जीवोजी (86) के साथ राजनगर किया।चातुर्मास के प्रारंभ में मासखमण किया।कुछ दिन बाद भाद्रपद कृष्णा 12 को उपवास, 13 को बेला और चतुर्दशी को तेला किया।उसी दिन रात्रि के पश्चिम प्रहर में उन्होंने अनशन की इच्छा व्यक्त की।
☝️उस समय किसी ने कहा--
*"आज आप तेले का पारणा करें।"*
मुनिश्री बोले---
*पारणा संभवतः परलोक में होगा*
*शिव ने शिवपुर में जाने की,*
*की पूरी तैयारी।*
*चरण-रत्न मुनि हेम हाथ से,*
*लिया विरतियुत भारी।।*
*🙏इस तरह उनकी बढती हुई भावना देखकर मुनिश्री जीवोजी ने उन्हें आजीवन तिविहार संथारा करा दिया।*
*🙏मुनिश्री ने वर्धमान भावों से अनशन के पाँच दिन बाद पानी पीने का भी परित्याग कर दिया।*
*🙏सभी प्राणियों के साथ क्षमायाचना और आत्मालोचन किया।*
☝️कोई उनके गुणगान करता तो वे तुरन्त टोकते---
*"आप मेरे गुणानुवाद न करें, इन साधुओं के गुण गाएं।ये मुनि तो मुझे सहयोग देकर मेरे से ऋणमुक्त हो गए हैं पर मैं तो इनके ऋणभार से मुक्त नहीं हुआ, अब मैं इनसे बिछुड़ने वाला हूँ किन्तु इनके उपकार को कभी भूल नहीं सकता।"*
☝️किसी ने कहा---
*"मुनिश्री के मांगने पर जल पीने का आगार है।*
🙏 यह सुनकर मुनिश्री शीघ्र बैठे होकर तपाक से बोले---
*तुम ऐसी बेकार बात क्यों कर रहे हो, मैंने तो स्वेच्छा से चौविहार अनशन किया है।*
*अतः पानी कैसे मांगूंगा ?*
*🙏ऐसी थी मुनिश्री की*
*दृढता व जागरूकता।*
. 🙏 .
*मुनिश्री ने समता-भाव में रमण करते हुए सात दिनों के चौविहार अनशन से सं.1913 के भाद्रपद शुक्ला 12 को रात्रि के समय राजनगर में "पंडित-मरण" प्राप्त किया।*
*उन्हें तीन दिन की संलेखना ,*
*पाँच दिन का तिविहार और*
*सात दिन का चौविहार अनशन आया।*
*🙏 ओम अर्हम् 🙏*
🚥🔸🚥🔸🚥🔸🚥🔸🚥🔸
*श्रंखला - 33*
. *।।अर्हम्।।* .
*जय भिक्षु जय महाश्रमण*
. 3️⃣3️⃣ .
*मुनिश्री कर्मचंदजी (देवगढ़)*
*【 83 | 2 | 34 】*
संयम पर्याय--सं.1876 से 1926
*मुनिश्री कर्मचंदजी देवगढ़(मेवाड़)के वासी, जाति से ओसवाल और गोत्र से पोखरणा थे। सं.1876का मुनिश्री हेमराजजी स्वामी का चातुर्मास देवगढ़ था।मुनिश्री के उद् बोधक उपदेश से बालक कर्मचंदजी के मन में वैराग्य भावना उत्पन्न हुई।उन्होंने अपने विचार अभिभावकों के सम्मुख रखे तब परिवार वाले दीक्षा की स्वीकृति के लिए इन्कार हो गये और उन्हें नाना प्रकार के कष्ट देने लगे। परन्तु कर्मचंदजी अपने लक्ष्य से किंचिद् मात्र भी विचलित नहीं हुए।*
*अभिभावकों ने कर्मचंदजी को घर में रखने के लिए नाना प्रकार के उपाय किये पर उनकी दृढता देखकर आखिर उन्हें दीक्षा की अनुमति देनी पड़ी।कर्मचंदजी के साथ रत्नजी और शिवजी दो दीक्षार्थी भाई और थे।उन सबका राजकीय लवाजमे के साथ धूमधाम से दीक्षा महोत्सव मनाया गया।*
*सं.1876 मृगसर वदि एकम को देवगढ़ में मुनिश्री हेमराजजी स्वामी ने मुनि रत्नजी(81) मुनि शिवजी(82) और कर्मचंदजी(83) को दीक्षा प्रदान की।*
*🙏जयाचार्य ने अध्यात्म-भावना से ओतप्रोत होकर दो ध्यान बनाए एक छोटा और दूसरा बड़ा।*
☝️मुनिश्री कर्मचंदजी ने "बड़ा ध्यान" के आधार से संक्षिप्त रूप में एक ध्यान तैयार किया जो...
*"कर्मचंदजी स्वामी का ध्यान"*
नाम से प्रसिद्ध है।
*🙏मुनिश्री ने उपवास, बेला,तेला, चोला, पंचोला आदि की तपस्या अनेक बार की।*
*☝️सं.1903 में युवाचार्य श्री जीतमलजी ने मुनिश्री हेमराजजी स्वामी के साथ नाथद्वारा में चातुर्मास किया तब मुनिश्री कर्मचंदजी भी साथ थे।वहाँ उन्होंने पानी के आगार से 31 दिन का तप किया।*
*☝️सं.1905 में पीपाड़ चातुर्मास में 16 दिन का तप किया।*
*☝️बहुत वर्षों तक शीतकाल में एक पछेवड़ी ओढते एवं शीत परिषह को सहन करते।*
. 🙏 .
*मुनिश्री अत्यंत समाधिपूर्वक सं. 1926 ज्येष्ठ कृष्णा 7 को बीदासर में स्वर्ग प्रस्थान कर गये।जिस वर्धमान भावना से संयम स्वीकार किया था उसी भावना से पालन कर आराधक पद को प्राप्त हो गये।*
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*🙏श्रीमद्जयाचार्य ने मुनिश्री के संबंध में*
*"कर्मचंद गुण वर्णन"*
*नामक छोटा आख्यान बनाया।जिसकी एक ढा़ल है उसमें 9 दोहे और 59 गाथाएं हैं। ढा़ल का रचनाकाल सं.1929 माघ शुक्ला सप्तमी और स्थान बीदासर है।*
*🙏 ओम अर्हम् 🙏*
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प्रस्तुति :-- ग्रूप के सदस्य *सुरेश चन्द्र जी बोरदिया के द्वारा*
🙏🙏
*Breakfast ke baad chovihar ya tivihar tyag jarur Kare*
प्रस्तुति :-- ग्रूप के सदस्य *सुरेश चन्द्र जी बोरदिया के द्वारा*
*Breakfast ke baad chovihar ya
*👉🏻मुनि श्री सागरमल जी स्वामी द्वारा लिखित पुस्तक "जय जय जय महाराज" से साभार🙏🙏*
*लिखने में किसी भी प्रकार की त्रुटि रही हो तो मिच्छामि दुक्कड़म🙏🏻🙏🏻*
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🙏🙏
*श्रंखला - 21*
. *।।अर्हम्।।* .
*जय भिक्षु जय महाश्रमण*
. 2️⃣1️⃣ .
*मुनिश्री रामोजी(66/2/17)*
(संयम पर्याय सं.1870--1919)
मुनिश्री रामोजी मालव प्रान्त में उज्जैन या आसपास के गांव के वासी थे। मालव प्रदेश में
मुनिश्री वेणीरामजी ने सं.1870 का सर्वप्रथम चातुर्मास उज्जैन में किया। *उन्होंने वहाँ पर रामोजी को दीक्षा प्रदान की।*
*नगर उजेणी शहर में ,*
*आछो कियो उपगार।*
*रामोजी संयम लियो ,*
*कियो तिहां थी विहार।।*
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*🙏तप विवरण🙏*
*आपने मुनिश्री हेमराजजी स्वामी के सानिध्य में---*
सं. 1894 के लाडनूं चातुर्मास में
*30 दिन का तप किया*
सं. 1895 के पाली चातुर्मास में
*41 दिन का तप किया*
🙏आचार्य श्री भारीमालजी स्वामी के सं. 1878 के अंतिम केलवा चातुर्मास में उन्होंने आचार्यश्री की बहुत सेवा भक्ति की।
*सं.1919 के वैसाख कृष्णा 9 को श्रीमद्जयाचार्य के सानिध्य में बीदासर में दिवंगत हुए।अन्तिम समय में उनकी भावना निर्मलतम रही।*
🙏 *ओम अर्हम्* 🙏
*श्रंखला - 22*
. *।।अर्हम्।।* .
*जय भिक्षु जय महाश्रमण*
. 2️⃣2️⃣ .
*मुनिश्री वर्धमानजी "छोटा"*
(67 / 2 / 18)
(संयम पर्याय सं.1870-1894)
मुनि वर्धमानजी (विरधोजु) मेवाड़ में केलवा गांव के वासी थे।गोत्र आपकी चोरड़िया थी।सुप्रसिद्ध शोभजी श्रावक के चाचा के बेटे भाई थे।आचार्य श्री भारीमालजी के कर कमलों से सं.1870 में अविवाहित वय में दीक्षित हुए। *श्रीमद्जयाचार्य ने मुनि वर्धमानजी को बाल मित्र के नाम से संबोधित किया है।* आप बड़े साहसिक, त्यागी, विरागी और तपस्वी थे।
*🙏 तप विवरण 🙏*
आपने चोले पंचोले अनेक बार किये तथा आठ व पन्द्रह दिन कि तप भी किया।प्रमुख बड़ी तपस्याएं निम्न प्रकार से थी---
*मासखमण तप* --
>>> छह बार किये
*43 दिन का तप* --
>>> एक बार आचार्य श्री रायचन्दजी के सानिध्य में जयपुर में सं.1880 में किया।
*104दिन का तप*--
>>> एक बार मुनिश्री हेमराजजी स्वामी के सानिध्य में सं.1877 में उदयपुर में किया
*(ये तपस्याएं पानी के आगार से की गई थी)*
🚥🔸🚥🔸🚥🔸🚥🔸
*आछ के आगार से*
>>>एक बार आपने *75 दिन का तप किया*
>>>सं 1882 में आपने---
*छहमासीतप किया*
(मोखुण्दा में प्रत्याख्यान किया था)
🙏 जिसका पारणा आचार्य श्री रायचन्दजी ने उदयपुर चातुर्मास सम्पन्न कर पहले मुनिश्री पीथलजी को 186 दिन का पारणा कांकरोली में कराया,उसी दिन मुनिश्री हीरजीको 186 दिन का पारणा राजनगर में कराया दूसरे दिन केलवा पधार कर *मुनिश्री वर्धमानजी को 187 दिन का पारणा कराया।*
(मुनिश्री का चातुर्मास केलवा में था)
☝️आप शीतकाल में रात्रि के समय तथा एक प्रहर दिन चढ़ने तक पछेवड़ी नहीं रखते।ग्रीष्मकाल में बहुत वर्षों तक आतापना ली।
*सं.1894 में उन्होंने पंडित-मरण प्राप्त किया।*
. 🙏 .
*जिन मार्ग में तपसी लघु वर्धमान के,*
*एक सौ चार पिणी तणा जी।*
*आछ आगारे तप षट मासी प्रधान के,*
*भारीमाल गुरू--भेटियाजी।।*
(संतगुणमाला ढाल 4 गाथा 27)
*🙏🙏 ओम अर्हम् 🙏🙏*
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प्रस्तुति :-- ग्रूप के सदस्य *सुरेश चन्द्र जी बोरदिया के द्वारा*
🙏🙏🙏
*श्रंखला - 23*
. *।।अर्हम्।।* .
*जय भिक्षु जय महाश्रमण*
. 2️⃣3️⃣ .
*मुनिश्री माणकचंदजी केलवा*
*( 71 / 2 / 22 )*
*(संयम पर्याय सं. 1871--1900)*
मुनिश्री माणकचंदजी केलवा के वासी और गोत्र से हींगड़ थे।
*उन्होंने सं.1871 में पूर्ण वैराग्य से दीक्षा ग्रहण की।*
🚥🔸🚥🔸🚥🔸🚥🔸
🙏मुनिश्री प्रकृति से भद्र थे।साधना में रत होकर सकुशल संयम-यात्रा कि निर्वहन करने लगे।
🙏मुनिश्री ने शीतकाल में शीत सहन किया और उष्णकाल में आतापना ली।आपने तपस्याएं भी बहुत की।
🙏 *ऊपर में आपने आछ के आगार से चौमासी तप किया।* यह तप आपने सं. 1877 में मुनिश्री स्वरूपचंदजी(62) के सानिध्य में पुर में किया।
🙏 *सं. 1900 में लावा में आपका स्वर्गवास हुआ।*
🙏 *ओम अर्हम्* 🙏
*श्रंखला - 25*
. *।।अर्हम्।।* .
*जय भिक्षु जय महाश्रमण*
*मुनिश्री रतनजी ( लावा )*
*दीक्षा क्रम: 74 / 2 / 25*
*संयम पर्याय*
(सं.1873 से सं. 1917 तक)
*मुनिश्री रतनजी मेवाड़ में लावा सरदारगढ़ के वासी और गोत्र से बंवलिया(ओसवाल)थे।उनकी पत्नी का नाम पेमांजी था।वे सम्पन्न परिवार से थे।साधु-साध्वियों के संपर्क से रतनजी एवं पेमांजी(पति-पत्नी)को वैराग्य भावना उत्पन्न हुई और दीक्षा के लिए उद्यत हुए।*
रतनजी के बड़े भाई फतेहचंदजी दृढ़धर्मी और समझदार श्रावक थे।उन्होंने और सभी परिवार ने सोल्लास आज्ञा प्रदान की।फतेहचंदजी द्वारा निवेदन करवाने पर मुनिश्री हेमराजजी स्वामी सिरियारी से विहार कर सं.1873 मृगसर कृष्णा 5 को लावा पहुंचे। *मुनिश्री हेमराजजी स्वामी ने मृगसर कृष्णा 6 को रतनजी, उनकी पत्नी पेमांजी और अमिचन्दजी "गलूंड" को दीक्षा प्रदान की।*
*☝️भैक्षव-शासन में दम्पति दीक्षा का यह प्रथम अवसर था।*
🙏मुनिश्री ने साधनारत होकर ज्ञानाभ्यास किया।आगमों के पठन के साथ तत्व-चर्चा की अच्छी धारणा की।तपश्चर्या भी बहुत की।
*भाग्य-योग से "रत्न" को रत्न मीले चार।*
*मनो-मनोरथ हो गये जिसमें सब साकार।।*
*जिससे सब साकार प्रथम मानव भव पाया।*
*जैन धर्ममय रत्न दूसरा कर में आया।*
*चरण रत्न था तीसरा चौथा अनशन सार।*
*भाग्य योग से"रत्न"को रत्न मिले हैं चार।।१।।*
*जय-युग में मुनि "रत्न" ने सफल किया अवतार।*
*कलियुग में दिखला दिया सतयुग का आकार।*
*सतयुग का आकार नया इतिहास बनाया।*
*अनशन क्रम में नाम अमर उनका हो पाया।*
*बने रहेंगे संघ के "रत्न" ह्रदय के हार।*
*भाग्य योग से "रत्न" को रत्न मिले हैं चार।।८।।*
🚥🔸🚥🔸🚥🔸🚥🔸
*🙏अविस्मरणीय अनशन🙏*
*मुनिश्री ने 44 वर्ष लगभग साधु-पर्याय का पालन किया।आखिर सं. 1917 माघ कृष्णा 10 को आमेट में शारीरिक शक्ति होते हुए भी उच्चतम भावों से आजीवन तिविहार अनशन स्वीकार किया।*
☝️ज्यों-ज्यों दिन निकलते त्यों-त्यों उनका मनोबल दृढ़ और भावना उत्तरोत्तर बढ़ती गई।उन्हीं दिनों नाथद्वारा के प्रमुख श्रावक फौजमलजी तलेसरा ने मुनिश्री के दर्शन किये और पूछा-- *"आपके भाव कैसे हैं?"*मुनिश्री ने फरमाया-- *"वज्र की दीवार के समान मेरा मन मजबूत है।"*
*क्रमशः 49 दिन का अनशन सम्पन्न कर फाल्गुन शुक्ला 13 सं.1917 को आमेट में मुनिश्री ने पण्डित-मरण प्राप्त किया।*
मेघराज जी बोरदिया पुर वालों के भी आपके संथारे निमित्त 20 दिन का तप हो गया।
*🙏मुनिश्री के अनशन से जैन शासन की बहुत प्रभावना हुई।कलियुग में सतयुग की सी रचना देखकर जनता आश्चर्यचकित हो गई।*
☝️ *मुनिश्री का 49 दिन के संथारे से उस समय तक तेरापंथ धर्मसंघ में साधुओं में "अनशन का नया कीर्तिमान" स्थापित हुआ।*
☝️इससे लगभग 60 वर्ष पूर्व साध्वीश्री गुमानाजी "तासोल" वालों के 60 दिन का अनशन आया जो सर्वाधिक था।
🙏मुनिश्री के दिवंगत होने के 17 दिन बाद *श्रीमद्जयाचार्य ने उनके गुणोत्कीर्तन की एक गीतिका में फरमाया...*
*रत्न चिंतामणि सारखो रे ,*
*रत्न ऋषि सुखकार ।*
*भजन करो भवियण सदा रे ,*
*समरण जय जयकार।।*
*🙏🙏।।ओम अर्हम् ।।🙏🙏*
🚥🌞🚥🌞🚥🌞🚥🌞
*श्रंखला - 26*
. *।।अर्हम्।।* .
*जय भिक्षु जय महाश्रमण*
. 2️⃣6️⃣ .
*मुनिश्री अमीचन्दजी गलूंड*
*दीक्षा क्रम: 75 / 2 /26*
*संयम -- पर्याय*
(सं.1873 से सं.1887 तक)
मुनिश्री अमीचन्दजी मेवाड़ में गलूंड के वासी थे।उनकी जाति ओसवाल और गोत्र आंचलिया था।उनकी शादी हुई।उनके एक पुत्र भी हुआ। *आपका उपनाम कालूरामजी था।*
समयान्तर से साधु-साध्वियों से उद् बोधन पाकर वे दीक्षा लेने के लिए कटिबद्ध हुए। *पत्नी और पुत्र को छोड़कर सं.1873 मृगसर कृष्णा 6 को लावा सरदारगढ़ में मुनिश्री हेमराजजी स्वामी से संयम ग्रहण किया।*
*🙏मुनिश्री एक उच्चकोटि के साधक हुए।* उन्होंने आचार-विचार की कुशलता के साथ विनय ,विवेक आदि गुणों में अधिकाधिक वृद्धि की। *उनका त्याग-विराग जन-जन को आकृष्ट करने वाला था।*
*●आपने उपवास से दस दिन तक का चौविहार लड़ीबद्ध तप किया*
*●सेलड़ी की वस्तु(जिस पदार्थ में गुड़,शक्कर, चीनी आदि मिले हो) का आजीवन त्याग कर दिया।*
*●आपने शीतकाल में बहुत शीत सहन किया*(शीतकाल में जहाँ ओढंने-बिछाने पर भी कंप-कम्पी नहीं मिटती वहाँ आप उतरीय पछेवड़ी हटाकर पिछली रात में एक-एक प्रहर तक दरवाजे के सामने खड़े-खड़े अभिग्रह संकल्प के साथ ध्यान, जप करते)
*●उष्णकाल में बहुत आतापना ली।* ( प्रायः धूप आतापना लेते, सूर्य तापी तपते, गरम-गरम पत्थर शिला-पट पर लेटकर ध्यान योग साधते)
*●वर्षाकाल में दंस-मंस परिषह-विजय का अभ्यास करते*(शरीर पर बैठे किसी मक्खी, मच्छर, चींटी आदि को नहीं हटाते)
*🙏सर्दी-गर्मी-वर्षा ऋतु में घोरतम परिषह आप स्वेच्छा से सहिष्णुता के अभ्यास में किया करते।समत्व की साधना के लिए करते।*
*प्रायः चिंतन करते---*
*☝️यह कष्ट मेरे को होता है या शरीर को?*
*☝️क्या मैं शरीर हूँ?*
*अन्तर्मन से समाधान मिलता---*
*☝️मैं भिन्न हूँ। मेरा शरीर भिन्न है।*
*यह देखने के लिए कि कैसे भिन्न है! इस चिंतन योग में वे "तप प्रयोग करते।*
*●विविध प्रकार के अभिग्रह, कायोत्सर्ग तथा ध्यान स्वाध्याय आदि के द्वारा संयमी जीवन को तपे हुए सोने की तरह चमकाया।* (14वर्षों के साधनाकाल में बिना अभिग्रह कभी आहार नहीं लिया।जिस दिन अभिग्रह नहीं फलता उस दिन निर्जल उपवास कर लिया करते)
*●श्रीमद्जयाचार्य ने आपको "भगवान महावीर के अंतेवासी" एवं महान् तपस्वी संत "धन्ना अणगार की उपमा" प्रदान की।* (भगवान महावीर के युग में तपस्वी धन्ना अणगार हुए, दूसरा धन्ना इस दुषम आरे में प्रकट हुआ लगता है)
*महातपस्वी अमीचन्दजी का व्यवस्थित "तप विवरण" नहीं मिलता पर श्रीमद्जयाचार्य ने "हेम-नवरसा" जैसे ग्रंथ में आपके लिए लिखाहै...*
*"विकट तप्त खंखर देह कीधी"*
( तपस्वी ने विकट तप से तपाकर शरीर को "कंकाल जैसा" बना दिया )
*"तप-रूप सुधा वृष्टि बरषै"*
(जिनके नभ-कुप से तप-रूपी अमृत बूंदें झरती है)
*"घोर तप सुणी काया धड़कै"*
(उनके कठोर घोर-तप को सुनकर ही शरीर थर-थरा उठता है)
*"चिंतामणी"- "सुरतरु" समो ,*
*भीम-अमीं दु:ख भंजन।*
*निश्चल तन-मन स्यूं रट्यां ,*
*सुख पामै सुप्रसन्न।।*
*तपस्वी भीम का जाप इच्छापूर्ति*
. *और* .
*तपस्वी अमीचन्द का स्मरण प्रसन्नता, आत्मसुख देनेवाला है*
*तन-मन को स्थिर कर उनका भजन करो*
🙏इस तरह श्रीमद्जयाचार्य के ह्रदय में मुनिश्री अमीचन्दजी का विशेष स्थान था।
🚥🔸🚥🔸🚥🔸🚥🔸
*महातपस्वी का महाप्रयाण*
. 🙏 .
*मुनिश्री अमीचन्दजी ने बोरावड़ में एक साथ 15 दिन चौविहार करने का प्रत्याख्यान किया जिसमें तीन दिन पानी पीने का आगार रखा।तीसरे दिन प्यास अधिक लगी,फीर भी पानी नहीं पीया और उसी दिन उर्ध्व भावों के साथ समाधि पूर्वक पंडित-मरण प्राप्त कर गये।*
विघ्नहरण की ढ़ाल के पंचाक्षर-- *'अ भी रा शि को'* में मुनिश्री का प्रथम नाम है।
*ऊँ अ भी रा शि को नमः*
(कम से कम 27 बार अवश्य जप करें)
*🙏🙏ओम अर्हम्🙏🙏*
*श्रंखला - 27*
. *।।अर्हम्।।* .
*जय भिक्षु जय महाश्रमण*
. 2️⃣7️⃣ .
*मुनिश्री हीरजी (चंगेरी)*
*[ दीक्षा क्रम--76/2/27 ]*
. *संयम पर्याय* .
( सं.1874 से --सं. 1893 )
मुनिश्री हीरजी मेवाड़ प्रदेश में *चंगेरी ग्राम के वासी थे।* आपके पिता का नाम नानजी और माता का नाम नाथांजी था।आप जाति से ओसवाल तथा गोत्र से *रणधीरोत कोठारी* थे। उनकी पत्नी का नाम कमलूजी था।
*नार सहित व्रत आदर् यो हो,*
*छोड पुत्र परिवार।*
*कमलू कमला सारिखी हो,*
*सील गुणे सिणगार।।*
मुनिश्री हीरजी तथा उनकी पत्नी कमलूजी(94) ने पुत्र एवं परिवार को छोड़कर *पूर्ण वैराग्य से संवत् 1874 में दीक्षा ग्रहण की।* मुनिश्री बड़े सुविनयी और सेवाभावी संत थे।उन्होंने भारीमालजी स्वामी की अन्तिम समय में अच्छी सेवा की।मुनिश्री खेतसीजी की भी आखिरी समय में बड़ी तन-मन से परिचर्या की।
🚥🔸🚥🔸🚥🔸🚥🔸
*🙏 तप--विवरण 🙏*
*मुनिश्री के 1️⃣8️⃣ चातुर्मासों में हुई बड़ी तपस्या का विवरण...*
1️⃣ सं.1875 कांकरोली में आचार्यश्री भारीमालजी के सानिध्य में *16 दिन का तप किया।*
2️⃣ सं. 1876 आमेट में *58 दिन का तप किया।*
3️⃣ सं.1877 नाथद्वारा चातुर्मास में आषाढ़ महिने सहित *8 ,31 और 82 दिन का तप आचार्यश्री भारीमालजी के सानिध्य में किया।*
4️⃣ सं.1878 केलवा में आचार्यश्री भारीमालजी के सानिध्य में *31 दिन का तप किया।*
5️⃣ सं.1879 पाली में आचार्यश्री ऋषिरायजी के सानिध्य में *67 दिन का तप किया।*
6️⃣ सं. 1880 जयपुर में आचार्यश्री ऋषिरायजी के सानिध्य में *24 दिन का तप किया।*
7️⃣ सं. 1881बीलाड़े में *61 दिन का तप किया।*
8️⃣ सं.1882 में पादू में आषाढ़ महिने सहित *135 दिन का तप किया।*
9️⃣ सं.1882 के ज्येष्ठ मास में आचार्य श्री रायचन्दजी मोखुण्दा में विराज रहे थे।वहाँ उन्होंने तपस्या के लिए साधुओं को विशेष प्रेरणा दी।तब *मुनिश्री पीथलजी(56), मुनिश्री वर्धमानजी(67) तथा मुनिश्री हीरजी ने परस्पर सलाह करके ऋषिराय से प्रार्थना की कि हमारा तपस्या करने का विचार है।*
गुरूदेव ने फरमाया-- *"क्या तपश्चर्या करने की इच्छा है?"*
तीनों संत बोले-- *"जो आपकी इच्छा हो वह तप करने को तैयार हैं।*
ऋषिराय ने प्रसन्नमुद्रा में फरमाया-- *"यह कार्य तो तुम्हारा है।मैं तो क्षेत्र संबंधी सुविधा तथा सहयोगी साधुओं की उचित व्यवस्था कर सकता हूँ।"*
☝️तब तीनों मुनिश्री ने सविनय बद्धांजली *छह मासी पचखाने की प्रार्थना की।"*
🙏आचार्य श्री ने उनकी प्रबल भावना देखकर उन्हें *एक साथ आछ के आगार से छह माह का प्रत्याख्यान करवा दिया।*
🙏आचार्य श्री ने सं.1883 का चातुर्मास मुनिश्री हीरजी का राजनगर फरमाया।आचार्य श्री उदयपुर चातुर्मास सम्पन्न कर कांकरोली पधारे और मुनिश्री पीथलजी का 186 दिन का पारणा कराया। *उसी दिन आचार्य श्री ने राजनगर पधार कर मुनिश्री हीरजी को 186 दिन का पारणा कराया।* वहाँ से दूसरे दिन केलवा पधारे और मुनिश्री वर्धमानजी को 187 दिन का पारणा कराया।
*तेरापंथ धर्मसंघ में इससे पहले छहमासी तप नहीं हुआ था।*
1️⃣0️⃣ सं.1884 कानोड़ में आषाढ़ महिने सहित *चौमासी तप किया।*
1️⃣1️⃣ सं.1885 गोगुन्दा में *186 दिन का तप किया।*
1️⃣2️⃣ सं.1886 उदयपुर में *11 दिन का तप किया।*
1️⃣3️⃣ सं.1887 कानोड़ में *126 दिन का तप किया।*
1️⃣4️⃣ सं.1888 बीदासर में *62 दिन का तप किया।*
1️⃣5️⃣ सं.1889 आमेट में *51 दिन का तप किया।*
1️⃣6️⃣ सं.1890 उदयपुर में *11 दिन एवं पंचोले आदि बहुत किये।*
1️⃣7️⃣ सं. 1891पुर में *75 दिन का तप किया तथा 5 ,8 और 12 दिन का तप किया।*
1️⃣8️⃣ सं.1892 जयपुर में *18 दिन का तप तथा पंचोले, चोले,तेले आदि बहुत किये।*
(इन तपस्याओं में कईं तप आछ के आगार से एवं कईं तप पानी के आगार से किये)
*चातुर्मासों के शेषकाल में भी उन्होंने बहुत तपस्याएं की*
🚥🔸🚥🔸🚥🔸🚥🔸
*सं. 1893 में मुनिश्री का अन्तिम चातुर्मास ऋषिराय के साथ पाली में था।पास में खेरवा में साधुओं का चातुर्मास था।चातुर्मास में कारणवश मुनिश्री हीरजी पाली से खेरवा गये।वहाँ शारीरिक वेदना होने से उन्होंने तेला किया और तेले में अकस्मात देवलोक हो गये।*
. 🙏 .
*श्रीमद्जयाचार्य ने मुनिश्री हीरजी को...*
*"महा तपस्वी मुनि कोदरजी का मित्र"*
कहा है..
*बड़ तपसी कोदर तणो हो,*
*मित्र हीर हद प्यार।*
*दोनूं ऋष गुण आगला,*
*कहिता न लहै पार।।*
*🙏🙏ओम अर्हम्🙏🙏*
. *।।अर्हम्।।* .
*जय भिक्षु जय महाश्रमण*
. 2️⃣9️⃣ .
*मुनिश्री शिवजी (लावा)*
*【 78 / 2 / 29 】*
*संयम पर्याय*
( सं. 1875----1911)
*मुनिश्री शीवजी मेवाड़ प्रदेश में "लावा सरदारगढ़" के वासी, जाति से ओसवाल और गोत्र से बाफणा थे।उन्होंने सं.1875 में आचार्य श्री भारीमालजी के कर कमलों से चारित्र ग्रहण किया।*
मुनिश्री शिवजी बड़े विरागी, प्रकृति से कोमल, विनयी, *उच्च साधक एवं उग्र तपस्वी* हुए।उन्होंने संयम की आराधना के साथ साधना का अनूठा अभियान चालू किया। आपने अग्रणी होकर मारवाड़, मेवाड़, ढूंढाड़, हाड़ौती, मालव तथा हरियाणा के क्षेत्रों में विहरण किया।
*उनकी तपस्या के लम्बे आंकड़े*
☝️ *आश्चर्यजनक,*
☝️ *जन-जन को विस्मित करनेवाले और*
☝️ *भगवान महावीर के युग की याद दिलाने वाले है।*
🚥🔸🚥🔸🚥🔸🚥🔸
*लोह लेखिनी से लिखूं शिव मुनि का तप घोर।*
*लम्बे चौडे़ आंकड़े जोड़ सुनाऊं और।।*
*वज्रोपम सीना किया मन दृढ़ मेरू समान।*
*पाई वश कर इन्द्रियाँ रसना-विजय महान।।*
*लगे चलाने देह पर तप-तलवार सजौर।*
*लोह लेखिनी से लिखूं शिव मुनि का तप घोर।।*
👏 👏 👏 👏
*महातपस्वी शिवजी "लावा" का*
*🙏🙏तप विवरण🙏🙏*
🚥🔸🚥🔸🚥🔸🚥🔸
☝️पढ़ें समझे और कर्म निर्जरा करें☝️
*उपवास* ---- 414 बार किये।
*बेला तप* ---- 22 बार किया।
*तेला तप* ---- 34 बार किया।
*चोला तप* ---- 8 बार किया।
*पंचोला तप*--- 11 बार किये।
*छह का तप* --- 7 बार किया।
*सात का तप* ---3 बार किया।
*अट्ठाई तप छह बार किये।*
*नौ का तप* --- 3 बार किया।
*10 का तप* --- 3 बार किया।
*11 का तप* ---- 3 बार किया।
*12 का तप* ---- 3 बार किया।
*13 का तप* ---- 2 बार किया।
*14 का तप* ---- 3 बार किया।
*15 का तप* ---- 3 बार किया।
*16 का तप* ---- 2 बार किया।
*20 का तप* ---- 2 बार किया।
*मासखमण तप "बारह बार" किये।*
*32 का तप 1 बार किया।*
*36 का तप 2 बार किया।*
*40 का तप 1 बार किया।*
*45 का तप नौ बार किया।*
*50 का तप 2 बार किया।*
*55 का तप 1 बार किया।*
*60 का तप पाँच बार किया।*
*75 का तप भी 2 बार किया।*
*90 का तप एक बार किया।*
*(पानी के आगार से)*
*👏एक बार आपने छहमासीतप(186दिन) भी सं.1886 में आछ के आगार से किया।*
🙏श्रीमद्जयाचार्य ने *"विध्नहरण की ढ़ाल"* में मुनि शिवजी का स्मरण करते हुए गाथा 11, 12 में लिखा है----
*शिव वासी लावा तणो,तप गुण राशि उदारी हो।*
*आस्वासी निज आतमा, षटमासी लगधारी हो।*
*शीतकाल मझारी हो सह्यो शीत अपारी हो।*
*उष्ण शिला तथा रेत नी,आतापना अधिकारी हो।*
*तप वर्णन चोमासा तणो,सुणता इचरजकारी हो।*
*🙏गुण निष्पन्न नाम भारी हो🙏*
🚥🔸🚥🔸🚥🔸🚥🔸
🙏👏 👏 👏 👏👏 🙏
*ऊँ अ भि रा शि को नम:*
🚥🔸🚥🔸🚥🔸🚥🔸
*मुनिश्री का सं.1911का अन्तिम चातुर्मास पेटलावद में था।चातुर्मास के बाद वे विहार कर झकनावदा पधारे।वहाँ मुनिश्री अनोपचंदजी(114) ने छहमासीतप तप किया जिसका पारणा करवाने जयाचार्य स्वयं पधारे थे।उस तप के साथ आपने 8 का तप किया पारणा साथ में ही हुआ।*
🙏झकनावदा से विहार कर राजगढ़ पधारे।वहाँ आप अत्यधिक अस्वस्थ हो गये।मुनिश्री जयचंदजी(132) उनको उठाकर वखतगढ़ लाये।उन्होंने उस घोर वेदना को समभाव से सहन किया।
*पंचोला अंतिम किया धर साहस अनपार।*
*दिवस पारणे को लिया शिव ने अल्पाहार।*
*शिव ने अल्पाहार निशा में स्वर्ग सिधाये।*
*रच जय ने संगीत गीत मुनि के गुण गाये।*
. 🙏 .
*विघ्नहरण की ढ़ाल पढ़*
*स्मरण करो उठ भोर।*
*लोह लेखिनी से लिखूं*
*शिव मुनि का तप घोर।।*
*🙏मुनिश्री सं.1911 चैत्र शुक्ला 7 को रात्रि के समय अचानक दिवंगत हो गये।दूसरे दिन लोगों ने बड़ी उमंग से उनका चरमोत्सव मनाया।*
*🙏🙏ओम अर्हम्🙏🙏*
*लिखने में त्रुटि रही हो तो क्षमाप्रार्थी हूँ।*
प्रस्तुति :-- ग्रूप के सदस्य *सुरेश चन्द्र जी बोरदिया के द्वारा*
🙏🙏
*श्रंखला - 30*
., *।।अर्हम्।।* .
*जय भिक्षु जय महाश्रमण*
. 3️⃣0️⃣ .
*मुनिश्री भैरजी (देवगढ़)*
*【79 / 2 / 30 】*
संयम पर्याय सं.1875--1925
मुनिश्री आचार क्रिया में कुशल,प्रकृति से सरल,विनयी,विवेकी और सेवाभावी हुए। *उनकी आकृति में सौंदर्य और वाणी में मिठास था।अन्य मतावलम्बी भी उनके दर्शन कर बड़े प्रभावित होते।* गण से बहिर्भूत साधु(टालोकरों) के श्रावक भी उन्हें *सीमंधर स्वामी की उपमा देकर मुक्त स्वर स्तवना गाते।*
*सौम्य-मूर्ति के दर्शन करके,*
*स्व-पर-मती हरषाते।*
*सीमंधर स्वामी की उपमा,*
*देकर स्तवना गाते।।*
. 🙏 .
*मुनिश्री बड़े त्यागी एवं तपस्वी हुए।*
👇 👇 👇 👇 👇
*■उन्होंने उपवास से बाइस तक लड़ीबद्ध तप किया।*
*■अनेक बार मासखमण तप किये।*
( संख्या उपलब्ध नहीं है )
*उदक व आछ के आगार से*
➖ ➖ ➖ ➖ ➖ ➖
*■दो मासी तप किया,*
*■अढा़ई मासी तप किया और*
*■तीन मासी तप किया।*
*इनके अतिरिक्त
*■तेईस चातुर्मासों में एकान्तर तप किये।*
*■शीतकाल में शीत सहन किया*
*■और उष्णकाल में आतापना ली।*
👏 👏 👏 👏 👏
*प्रबल पराक्रम से तोड़ा है,*
*भव बंधन का खंभा।*
*सकुशल साल पचास संयमी,*
*जीवन जीया लम्बा।।*
*..............🙏..............*
*मुनिश्री भैरजी ने लगभग पचास साल संयम की सानंद आराधना की।सं.1925 मृगसर महीने में चार दिन की तपस्या में लाडनूं में दिवंगत हुए।*
*🙏ओम अर्हम्🙏*
🚥🔸🚥🔸🚥🔸🚥🔸
प्रस्तुति :-- ग्रूप के सदस्य *सुरेश चन्द्र जी बोरदिया के द्वारा*
*श्रंखला - 34*
. *।।अर्हम्।।* .
*जय भिक्षु जय महाश्रमण*
. 3️⃣4️⃣ .
*मुनिश्री सतीदासजी "शान्ति"*
*【 84 | 2 | 35 】*
(संयम पर्याय..सं.1877--1909)
*मुनिश्री सतीदासजी मेवाड़ प्रदेश में गोगुंदा(मोटागांव) के निवासी, जाति से ओसवाल और गोत्र से वरल्या बोहरा "कोठारी" थे।आपके पिता का नाम बाघजी और माता का नाम नवलांजी था।आपका जन्म सं.1861 में हुआ।वे तीन भाई और उनके दो बहिने थी।*
*सतीदासजी प्रकृति से शान्त और कोमल थे।माता-पिता ने छोटी उम्र में ही निकटस्थ रावलिया गांव में उनकी सगाई कर दी।*
सं.1873 में द्वितीयाचार्य श्री भारीमालजी श्रमण परिवार से गोगुन्दा पधारे।गुरूदेव के मुखारविन्द को देखकर 12वर्षीय बालक सतीदासजी अत्यंत प्रभावित हुए और मुनिश्री पीथलजी(56)के पास तत्वबोध करने लगे।उनमें धर्म के अंकुर पनपने लगे और साधु-साध्वियों के सानिध्य में अधिक रस लेने लगे।
*सं.1874 में मुनिश्री हेमराजजी स्वामी आदि 9 साधुओं का चातुर्मास गोगुंदा में हुआ।उनके साथ मुनिश्री जीतमलजी(जयाचार्य)थे।सतीदासजी ने जय मुनि के तत्वावधान में अध्ययन करना चालू किया। कुछ दिनों में अनेक बोल थोकड़े सीखे।उन्होंने प्रछन्न रूप में मुनिश्री जीतमलजी द्वारा..*
*(1)आजीवन अब्रह्मचर्य सेवन और*
*(2)व्यापार करने का परित्याग कर दिया।*
☝️लज्जालु प्रकृति होने से वे अपने विचार अभिभावक जन के सम्मुख रखने में संकोच करने लगे।माता-पिता आदि का उनके प्रति अत्यधिक स्नेह था अतः बिना मांगे वे दीक्षा की अनुमति दे ऐसा सम्भव नहीं था। सं.1875 में सतीदासजी के पिताजी का देहांत हो गया।
सं.1876में मुनिश्री हेमराजजी स्वामी विचरण करते हुए ग्रीष्म-ऋतु में पुनः गोगुंदा पधारे।मुनिश्री जीतमलजी ने सतीदासजी को सुझाव दिया कि तुम अपने स्वीकृत दोनों नियमों को प्रकट कर दो।उन्होंने उचित अवसर देख अपनी बात प्रकट कर दी।सभी को बहुत आश्चर्य हुआ।
सतीदासजी को दीक्षा की अनुमति के लिए अनेक प्रकार के कष्टों का सामना करना पड़ा,फिर भी वे अपने लक्ष्य से किंचिद् मात्र विचलित नहीं हुए।एक दिन मोहवश मां ने कहा--- *"पुत्र ! तूं शादी करना मंजूर कर ले,वरना मैं कुएं में गिरकर मरती हूं।यह कहते हुए माता ने उस ओर कदम भी उठा लिया।मन न होते हुए भी सतीदासजी को विवाह की स्वीकृति देनी पड़ी।*
सतीदासजी ने प्रारंभिक बनोले में परिवार वालों के घर जाकर खाना खाया परन्तु मन में हिचकिचाहट रही।संध्या के समय श्रावकों के साथ सामायिक करने लगे।उस समय उनका वार्तालाप सुना-- *"जो व्यक्ति नियम लेकर तोड़ देता है वह महापाप का भागी बनता है और उसे नरक निगोद आदि का दु:ख सहन करना पड़ता है।* सतीदासजी ने सुना तो उनका दिल कांपने लगा।उन्होंने दृढसंकल्पित हो परिणय करने का साफ मना कर दिया।
☝️लगभग तीन वर्ष पश्चात विवश होकर ज्ञातिजनों को सहमत होना पड़ा।अभिभावक जन ने आज्ञा पत्र लिख दिया।पारिवारिक जन ने बड़ी धूमधाम से उनका दीक्षोत्सव मनाना प्रारम्भ किया। *विवाह की बनोरियां दीक्षा रूप में परिणत हो गई।*
*🙏सतीदासजी ने 16 वर्ष की अविवाहित वय में माता, भाई,बहन आदि विपुल परिवार तथा बहुत ऋद्धि को छोडकर सं.1877 माघ शुक्ला 5 बुद्धवार को गोगुंदा में आम्रवृक्ष के नीचे मुनिश्री हेमराजजी स्वामी के कर-कमलों से संयम ग्रहण किया।*
मुनिश्री हेमराजजी स्वामी ने उसी दिन वहाँ से विहार किया और शीघ्र राजनगर में आचार्य श्री भारीमालजी के दर्शन खर नव दीक्षित मुनि को गुरु चरणों में समर्पित किया।दीक्षा के सात दिवस बाद स्वयं आचार्य श्री ने सतीदासजी को बड़ी दीक्षा दी एवं पुनः मुनिश्री हेमराजजी स्वामी को सौंप दिया।
*दीक्षित होने के पश्चात मुनिश्री सतीदासजी "शांति" नाम से भी पुकारे जाने लगे।शांति मुनि को भिक्षु-शासन जैसा शांति निकेतन एवं भिक्षु-शासन को शांति मुनि जैसै शान्ति प्रधान सदस्य मिले--इसको एक मणिकांचन योग व विधि का विचित्र संयोग ही समझना चाहिए।*
मुनिश्री सतीदासजी "शांति" ने लगभग 27 वर्षों तक मुनिश्री हेमराजजी स्वामी की तन्मयता से सेवा-भक्ति कर उनके मन में विविध प्रकार की समाधि उत्पन्न की। सं.1904 ज्येष्ठ शुक्ला 2 को सिरियारी में मुनिश्री हेमराजजी स्वामी के स्वर्गस्थ होने के बाद आचार्य श्री रायचन्दजी ने छह साधुओं से शान्ति मुनि का सिंघाड़ा किया।सं.1878 से सं.1904 तक के चातुर्मास मुनिश्री हेमराजजी स्वामी के साथ किये।
*सं.1905का चातुर्मास पीपाड.में..*
●शान्ति मुनि के पंचोला
●मुनिश्री उदयचंदजी(95) ने 46 दिन का तप पानी के आगार से किया।
●मुनिश्री दीपचन्दजी(149) ने 31 दिन का तप किया।
*सं.1906 का 9 साधुओं से पाली में चातुर्मास किया*
●मुनिश्री उदयचंदजी(95)ने 30 दिन का तप किया।
●मुनिश्री दीपचन्दजी ने क्रमशः 18 , 8 ,9 दिन का तप किया।
*सं.1907 का आठ साधुओं से बालोतरा चातुर्मास किया*
●शांति मुनि ने पंचोला किया।
●मुनिश्री उदयचंदजी ने 35 दिन का तप किया।
●मुनिश्री दीपचन्दजी ने आछ के आगार से 81 दिन का तप किया।
*सं.1808 में 8 साधुओं से पचपदरा चातुर्मास किया*
●मुनिश्री उदयचंदजी ने पानी के आगार से 40 दिन का तप किया।
●मुनिश्री दीपचन्दजी ने आछ के आगार से 31 दिन का तप किया।
*इस चातुर्मास में शांति मुनि अस्वस्थ हो गये।अढा़ई महीने करीब बुखार रहा।वेदना बड़े समभाव से सहन की।*
सं.1908 माघ वदी 14को रावलियां में तृतियाचर्य श्री रायचन्दजी का अकस्मात स्वर्गवास हो गया।श्रीमद्जयाचार्य लाडनूं विराज रहे थे।मुनिश्री ने उसी ओर प्रस्थान किया।रास्ते में अनेक सिंघाड़ों का साथ हो गया।अनेक साधुओं के साथ शान्ति मुनि के लाडनूं पधारने की सूचना सुनकर जयाचार्य ने मुनिश्री स्वरूपचंदजी आदि दो साधुओं को उनकी अगवानी के लिए भेजा।शान्ति मुनि ने जयाचार्य के दर्शन किये और भावविभोर होकर चरणों में गिर गये। *"श्रीमद्जयाचार्य ने आत्मीय स्नेह उंडेलते हुए उन्हें हाथ पकड़कर अपने बराबर बाजोट पर बिठा लिया।"* शान्ति मुनि अस्वीकार करते हुए तुरन्त नीचे उतरकर जमीन पर बैठ गये।
*(इस सन्दर्भ में कहा जाता है कि जयाचार्य को रात्रि के समय स्वप्न में आभास हुआ कि ऐसा नहीं करना चाहिए)*
*🙏मुनिश्री बड़े आत्मार्थी, पापभीरु और जागरूक थे।उन्होंने उपवास, बेले, तेले, चोले, पंचोले अनेक बार किये।एक बार सात और दो बार आठ दिनों का तप किया।सं.1898 मेंपाली चातुर्मास में मुनिश्री हेमराजजी स्वामी के सानिध्य में 31 दिन का तप आछ के आगार से किया।उनके छह विगय में से तीन विगय के अतिरिक्त खाने का जीवन पर्यंत त्याग था।दीक्षा से 27 वर्ष तक रात्रि में एक ही पछेवड़ी ओढते।*
*श्रीमद्जयाचार्य ने मुनिश्री सतीदासजी "शांति" का पाँच साधुओं से सं.1909 का चातुर्मास बीदासर के लिए घोषित किया।बीदासर चातुर्मास में...*
●शांति मुनि ने पंचोला किया।
●मुनिश्री उदयचंदजी ने पानी के आगार से 56 दिन का तप किया।
●मुनिश्री दीपचन्दजी ने पंचोला, आठ और 13 दिन का तप पानी के आगार से तथा 61 दिन का तप आछ के आगार से किया।
*शेष भाग अगली पोस्ट में...*
प्रस्तुति :-- ग्रूप के सदस्य *सुरेश चन्द्र जी बोरदिया के द्वारा*
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*सोने से पहले पोरसी या नवकारसी आने तक त्याग जरूर करे।*
#ॐ_अ_भी_रा_शि_को_नम:
#जैन_स्मारक_चुरू
#JAIN_SAMARAK_CHURU
*" जैन स्मारक चूरू" ॐ अ .भी .रा .शि .को .नमः फेसबुक पेज से जुड़ने के लिए लिंक का उपयोग करें ।*
. ।। अर्हम् ।। .
जय भिक्षु जय महाश्रमण
5⃣ *मुनिश्री हेमराजजी(36).*
भैक्षव गण उद्यान में,
जब आये मुनि हेम।
हरा भरा बढ़ता गया,
करता कुशल क्षेम।।
हेमराजजी सिरियारी के वासी थे।जाति ओसवाल और गोत्र बागरेचा था।आपके पिता का नाम अमरोजी और माता का नाम सोमाजी था।आप जब गर्भ में आये तब उनकी माता ने देव विमान का स्वप्न देखा।
आपका जन्म माघ शुक्ला 13 सं.1829 शुक्रवार को पुष्यनक्षत्र आयुष्मान योग में हुआ।गृहस्थाश्रम में अच्छा तत्वज्ञान कर लिया तथा श्रावक के व्रतों को भी ग्रहण कर लिया।मात्र पन्द्रह वर्ष की अवस्था में परस्त्रीगमन का परित्याग कर दिया।वे एक अच्छे तत्वज्ञ,चर्चावादी और धर्म-प्रचारक श्रावक बन गये थे।
आचार्य भिक्षु ने माघ शुक्ला 13 सं.1853 गुरुवार को पुष्यनक्षत्र आयुष्मान योग में सिरियारी के बाहर वटवृक्ष की छाया में 24 वर्ष की अवस्था में हेमराजजी को दीक्षा प्रदान की। मुनि श्री धर्मसंघ में13वें संत हुए।इसके पहले संतों की संख्या 12 से आगे नहीं बढी थी।आपकी दीक्षा के बाद साधुओं की संख्या कम नहीं हुई।
मुनिश्री हेमराजजी ने दीक्षा के बाद चार चातुर्मास स्वामीजी के साथ किये। सं.1858 का चातुर्मास संत वेणीरामजी के साथ पुर में किया।सं. 1858 में स्वामीजी ने मुनि हेमराजजी को अग्रगण्य बनाया।
*आपने 17 भाई-बहनों को संयम प्रदान किया.*
*मुनि हेमराजजी के सानिध्य में कईं विस्मयकारी तपस्याएं हुई.*
(1)सं.1860पीसांगन चातुर्मास में मुनि श्री जीवन जी(51)ने तप के 22वें दिन संथारा किया। 17 दिन का संथारा आया।(कुल 39 दिन)
(2)सं.1864 देवगढ़ चातुर्मास में मुनिश्री सुखजी(35)ने संलेखना के बाद संथारा किया।जो 10 दिन का आया।संथारे के कारण मुनिश्री हेमराजजी स्वामी चातुर्मास के बाद भी देवगढ़ रूके थे।
(3)सं.1865 सिरियारी चातुर्मास में मुनिश्री भोपजी(49) ने एक साथ आछ के आगार से 66 दिन का तप स्वीकार किया।
(4)सं.1866 पाली चातुर्मास में मुनिश्री भोपजी(49)ने 58 दिन की उदक के आगार से तपस्या की।पारणा करते ही मुनिश्री हेमराजजी के पैर पकड़ कर संथारे के लिए अति आग्रह किया।मुनिश्री हेमराजजी ने उनकी प्रबल भावना देखकर संथारा करवाया जो चार प्रहर का आया।भादवा सुदी 8 को स्वर्ग पधारे।
(5)सं.1874 के गोगुन्दा चातुर्मास में मुनिश्री पीथलजी 'बड़ा'(56)ने 82 दिन का,मुनिश्री पीथलजी(72)'लघु' ने 45 दिन का,मुनिश्री जोधोजी (46)ने46दिन का तप किया।
(6)सं.1875 के पाली चातुर्मास में मुनिश्री पीथलजी 'बड़ा'(56) ने 83 दिन काऔर मुनिश्री पीथलजी 'लघु'(72) ने 36 दिन का तप किया।
(7)सं.1876 के देवगढ़ चातुर्मास में मुनिश्री पीथलजी 'बड़ा' (56)ने आछ के आगार से 106 दिन का तप किया।
(8)सं.1877 के उदयपुर चातुर्मास में मुनिश्री वर्धमानजी(67) ने धोवन पानी के आगार से 104 दिन का तप किया।
(9)सं.1878 के आमेट चातुर्मास में मुनिश्री पीथलजी 'बड़ा'(56) ने 99 दिन का तप किया।
(10)सं.1885 के पाली चातुर्मास में मुनिश्री उत्तमचंदजी(90)और मुनिश्री उदयचंदजी(95)ने एक-एक मास का तप किया तथा मुनिश्री मोतीजी(96)ने आछ के आगार से 76 दिन का तप किया।
(11)सं.1886 के पीपाड़ चातुर्मास में मुनिश्री उदयचंदजी(95) ने एक मास का तप किया तथा मुनिश्री दीपजी(85)ने आछ के आगार से 186 दिन का तप किया।
(12)सं.1887के नाथद्वारा चातुर्मास में मुनिश्री दीपजी(85)ने 31दिन का और मुनिश्री उदयचंदजी(95)ने एक मास का तप किया।
(13) सं.1888के गोगुन्दा चातुर्मास में मुनिश्री उत्तमचंदजी(90),मुनिश्री उदयचंदजी(95)और मुनिश्री दीपजी(85)ने क्रमशः 34 ,30 और 45 दिन का तप किया।
(14)सं.1889के पाली चातुर्मास में मुनिश्री उदयचंदजी(95) ने मासखमण का तप किया।
(15)सं.1890के पीपाड़ चातुर्मास में मुनिश्री उदयचंदजी(95) ने मासखमण का तप किया।
🙏शेष अगली पोस्ट में...
*श्रंखला - 5 ( भाग 2 )*
*मुनिश्री हेमराजजी के सानिध्य में हुई विस्मयकारी तपस्याएं गतांक से आगे.*
*(16).* सं.1891के बालोतरा चातुर्मास में मुनिश्री उदयचंदजी ने वैयावृत्य करते हुए 30 दिन का तप किया।
*(17).* सं.1892के पाली चातुर्मास में मुनिश्री उदयचंदजी ने वैयावृत्य करते हुए 30 दिन का तप किया।
*(18).* सं.1893 के पीपाड़ चातुर्मास में मुनिश्री उदयचंदजी ने वैयावृत्य करते हुए 43 दिन का तप किया।
*(19).* सं.1894के लाडनूं चातुर्मास में मुनिश्री रामजी(100) ने 30 दिन का तप किया।मुनिश्री उदयचंदजी ने वैयावृत्य करते हुए37 दिन का तप किया।
*(20).* सं.1895 के पाली चातुर्मास में मुनिश्री रामजी ने 41दिन का तप किया।
*(21).* सं.1896 के पीपाड़ चातुर्मास में मुनिश्री उदयचंदजी ने 30 दिनकी तपस्या की।
*(22).* सं.1897 के सिरियारी चातुर्मास में मुनिश्री उदयचंदजी और मुनिश्री अनूपचंदजी(114) ने 50--50 दिन की तपस्या की।
*(23).* सं.1899 के गोगुन्दा चातुर्मास में मुनिश्री उदयचंदजी ने 30 दिन का तप किया।
*(24).* सं.1900 के नाथद्वारा चातुर्मास में मुनिश्री उदयचंदजी ने 30 दिन का तप किया।
*(25).* सं 1901 के पुर चातुर्मास में मुनिश्री उदयचंदजी ने 77 दिन का तप किया।
*(26).* सं. 1902 के उदयपुर चातुर्मास में मुनिश्री उदयचंदजी ने 30 दिन का तप किया।
*(27).* सं.1903 के नाथद्वारा चातुर्मास में मुनिश्री कर्मचंदजी(83) ने 31 दिन और मुनिश्री उदयचंदजी ने 30 दिन का तप किया।
*(28).* सं.1904 के आमेट चातुर्मास में मुनिश्री उदयचंदजी ने आछ के आगार से दो मास का तप किया।
🙏मुनि श्री हेमराजजी स्वामी के सानिध्य में उपरोक्त तपस्याओं के अतिरिक्त मासखमण से कम दिनों की कईं तपस्याएं भी हुई।
*आपके पास साधु-साध्वियों के छह अनशन भी सम्पन्न हुए.*
🙏इस प्रकार मुनि श्री हेमराजजी स्वामी अनेक साधुओं के विशिष्ट तपों में सानिध्य प्रदाता बने।मुनिश्री का स्वयं का भी तपस्या में बहुत अनुराग था।
*आपने उपवास से पंचोले तक की तपस्या अनेक बार की। छह तथा आठ के तप भी किये।
*सं.1876 में नाथद्वारा चातुर्मास में चार महीने एकान्तर किये।
*शीतकाल में अनेक वर्षों तक एक पछेवड़ी में रहते।खड़े-खड़े कायोत्सर्ग करते।निरन्तर स्वाध्याय-ध्यान की धुन में रहते।
75 वर्ष की अवस्था में सिरियारी में जेठ सुदि 2 सं.1904 शनिवार को आपका स्वर्गवास हुआ।
*सिरियारी में जनमिया.*
*सिरियारी व्रतधार.*
*सिरियारी नैत्र खुल्या.*
*सिरियारी संथार.*
🙏आचार्यश्री तुलसी द्वारा *हेम दीक्षा द्विशताब्दी समारोह.* वि.सं.2053 माघ शुक्ला 13(20 फरवरी 1997) लाडनूं में मनाई गई।
मुनिश्री हेमराजजी स्वामी की *दीक्षा-द्विशताब्दी.* के अवसर पर साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभाजी ने आपकी जीवनी *विकास पुरुष हेम.* लिखी।
प्रस्तुति :-- ग्रूप के सदस्य *सुरेश चन्द्र जी बोरदिया के द्वारा*
🙏🙏🙏
*श्रंखला - 9*
. अर्हम् .
जय भिक्षु जय महाश्रमण
9⃣ *मुनिश्री जोधोजी(46).*
मुनिश्री जोधोजी मेवाड़ के करेड़ा गांव के वासी थे।आपकी गोत्र मारू ओसवाल थी।आपकी दीक्षा सं. 1859 में माघ शुक्ला 7 से पूर्व मारवाड़ में स्वामीजी के कर कमलों से सम्पन्न हुई।
*पढ़ना लिखना कर न सके वे था क्षयोपशम श्रुत कम.*।
*रहे अगड़सूत्री ही मुनिवर मिला न आगम रस अनुपम.*।।
>>अनुमानतः सं. 1866 से सं.1869 के मध्य मुनिश्री जोधोजी ने मुनिश्री बखतोजी(58)और मुनिश्री संतोजी(59)के साथ किसी कारण से पचपदरा चातुर्मास किया।उस समय वे तीनों संत अगड़सूत्री थे *(जब तक आचारांग तथा निशीथ सूत्र का वाचन नहीं किया जाता तब तक वह साधु अगड़सूत्री कहलाता है।वह आज्ञा आलोचना नहीं दे सकता).* *अतः वे वहाँ साध्वीश्री वरजूजी(39)के नेश्राय(अधिकार)में रहे।*
🙏 *तप विवरण.* 🙏
मुनिश्री जोधोजी महान् तपस्वी हुए।उपवास, बेले, तेले,चोले,पंचोले आदि बहुत किये।अपने प्रथम चातुर्मास में 13 का तप किया।दूसरे चातुर्मास में 42 का तप किया।बाद में आछ के आगार से..45..47..30..31..26..60 और पुर चातुर्मास में 75 किये।सं.1874 के गोगुंदा चातुर्मास में मुनिश्री हेमराजजी के सानिध्य में 46 का तप किया।
मुनिश्री जोधोजी ने सं. 1875 का चातुर्मास मुनिश्री मौजीराम जी (54) और मुनिश्री माणकचंदजी (71) के साथ कोचला गांव में किया।वहाँ पर आपने 34 का तप किया।पारणा करने के बाद शरीर में अस्वस्थता बढ़ गई जिससे चातुर्मास के बाद वहीं रहना पड़ा।
🙏 *मृगसरकृष्णा 7 के आसपास आपने आजीवन अनशन ग्रहण किया।आत्मालोचन तथा क्षमायाचना करते हुए पौष कृष्णा अमावस्या सं.1875 को 38 दिन के संथारे में वे स्वर्ग पधारे।*
*श्रीमद्जयाचार्य के शब्दों में.*
*जोधराजजी स्वामी ने पिछांणजो रे,*
*त्यां में तपस्या तणो गुण जाण रे।*
*जिन मार्ग में दीपता रे,*
*एहवा जोधोजी स्वामी गुण खांण रे।।*
(संत गुण माला ढा़ल--१ गाथा--21)
प्रस्तुति :-- ग्रूप के सदस्य *सुरेश चन्द्र जी बोरदिया के द्वारा*
🙏🙏🙏
*श्रंखला - 11*
. ।।अर्हम्।। .
जय भिक्षु जय महाश्रमण
. ( 1️⃣1️⃣ ) .
*मुनिश्री भोपजी (49).*
(संयमपर्याय सं.1859-1866)
मुनिश्री भोपजी का जन्म मेवाड़ के कोशीथल गांव में हुआ।आपके पिता का नाम लालचंद जी चपलोत था।आपकी दीक्षा वि.सं.1859 में माघ शुक्ला 7 से पूर्व पाली में स्वामीजी के कर कमलों से सम्पन्न हुई।
*मुनिश्री भोपजी स्वामीजी के अंतिम शिष्य हुए।*
🙏 *तप विवरण.* 🙏
मुनिश्री भोपजी ने दीक्षा लेते ही अपना जीवन तपश्चर्या में झोंक दिया।उपवास ,बेला ,तेला ,चोला, पंचोले आदि अनेक बार किये।आपने उपवास से तेरह तक की लड़ी सम्पन्न की।
◆सं. 1861 के पीसांगन चातुर्मास में 30 दिन और 20 दिन का तप किया।
◆सं.1862 के पाली चातुर्मास में 40 दिन का तप किया।
◆सं.1863 के मांडा चातुर्मास में 30 दिन और 31 दिन का तप किया।(चातुर्मास में कुल 92 दिन का तप किया)
◆सं.1864 के लावासरदारगढ़ चातुर्मास में आपने कुल 17 दिन आहार(पारणा)किया।इस चातुर्मास के अन्तिम समय में आपने अभिग्रह किया-- *"जब तक आचार्य श्री के दर्शन नहीं हो तब तक तीन आहार का त्याग रखूंगा। 29वें दिन आचार्य श्री के दर्शन कर पारणा किया।*
◆सं.1865 का सिरियारी चातुर्मास आपने मुनिश्री हेमराजजी स्वामी के सानिध्य में किया।वहाँ पर आपने आछ के आगार से एक साथ 66 दिन का प्रत्याख्यान किया।
◆मुनिश्री प्रतिवर्ष शीतकाल में15दिन का तप करते *उष्णकाल में तप्त शिलाओं एवं रेत पर लेटकर आतापना लेते।* उनका दृष्टिकोण अधिक से अधिक कर्म निर्जरा का हो गया।सं.1865 के चातुर्मास के पश्चात आपने आमेट में आचार्यश्री भारमलजी स्वामी के दर्शन किये। *मुनिश्री ने आमेट में सभी साधु-साध्वियों से क्षमायाचना कर गुरूदेव से पाली में संलेखना करने की आज्ञा ली।*
◆सं.1866 का अन्तिम चातुर्मास आपने मुनिश्री हेमराजजी स्वामी के सानिध्य में पाली में किया।वहाँ पर आपने पानी के आगार से 58 दिन का तप किया।तपस्या में घोर वेदना होने पर भी अडिग रहे। *पाली में आप मुनिश्री हेमराजजी स्वामी के पांव पकड़कर बोलेआप मुझे संथारा करवा दें"* मुनिश्री हेमराजजी स्वामी ने फरमाया *एक महीने तक भोजन का प्रत्याख्यान कराना सरल है, पर संथारे का काम बड़ा कठिन है*
. 🙏 .
*कहा हेम ने सुगम है रे,*
*मासादिक परित्याग।*
*किंतु कठिन करवाना-अनशन,*
*खाता चक्र दिमाग।।*
🙏नाड़ीवैद ईशरदास जी के परामर्श से मुनीश्री हेमराजजी स्वामी ने मुनिश्री भोपजी को आजीवन अनशन करवा दिया जो साढेचार प्रहर में सिद्ध हुआ और *मुनिश्री भोपजी स्वामी भाद्रपद शुक्ला 8 को पाली में 66 साल की उम्र में "पंडितमरण" को प्राप्त हुए।*
प्रस्तुति :-- ग्रूप के सदस्य *सुरेश चन्द्र जी बोरदिया के द्वारा*
🙏🙏🙏
*🙏🙏जय भिक्षु जय महाश्रमण 🙏🙏*
*🌅 ॐ अ .भी .रा .शि. को .नमः 🌅*
*🌞 तपस्वी मुनि श्री भीम जी स्वामी* 🌞
🌸 🌸 *जीवन परिचय* 🌸 🌸
*श्रृंखला* *( 1-5 )*
. *सब दुख भंजन -भीम*
- - - - - - - - - - - - - - - - - - - -
*वृद्ध सहोदर जीत नों , जस धारी , जयकारी हो ।*
*लघु सहोदर स्वरूप नों , भीम गुणां रो भंडारी हो ।*
*सखर सुजस संसारी हो । भजो मुनि गुणां रा भंडारी हो ।।*
*" तपस्वी भीमजी- गुण फूलों की क्यारी , यशस्वी , जयकारी ,जीत के सगे बड़े भाई , स्वरूप मुनि के अनुज, जिनकी सुयशशोभा संसार जानता है ,ऐसे गुण भंडार मुनि का भजन करो।"*
*समरण थी सुख संपजै , जाप जप्यां जस भारी हो ।*
*मन वांछित मनोरथ फलै , भजन करो नर नारी हो ।*
*वारूं बुद्धि विस्तारी हो । भजो मुनि गुणांरा भंडारी हो ।।*
*" ओ नर - नारियों ! भीम जी स्वामी का भजन करो । जिनका स्मरण सुख- आनंद देता है । जाप से भारी यश मिलता है । मन इच्छित मनोरथ पूरे होते हैं । जरा बुद्धि- कला -अटकल- चतुराई- युक्ति लगाकर ऐसे गुण -भंडार मुनि का भजन करो ।"*
*तपस्वी भीम जी स्वामी बड़े वैरागी , निर्जरार्थी , निर्लेप और दीदारू -ओपते संत थे । उनके दो विगय उपरांत जीवन भर विगय - खाने का त्याग था । पौष -माघ की ठिठुरती ठंडी रातों में भी वे एक पछेवङी से ज्यादा कपङा नहीं ओढ़ते थे । एकांतर -एक दिन छोड़ एक दिन निर्जल उपवास करते ।*
*उष्ण- काल में बहुत बार आतपी- साधना- गर्म शिलापटृ पर लेटकर- आतापना लेते । तत्व ज्ञान के माहिर और बोल थोकड़ों के दक्ष- भीम जी स्वामी ने पूरी आगम बत्तीसी का पारायण किया था । स्वाध्याय के साथ-साथ ध्यान के विविध प्रयोग और जप- योग , उनकी अन्तर साधना थी । उन जैसे सेवाव्रती भी थोड़े ही होते हैं।*
*अनुयायी तथा अन्य मतावलम्बी लोग भी भीम जी स्वामी के दर्शन कर खुश होते । भीम जी तपस्वी की चारित्रचर्या युक्त मनोहर मुद्रा देख मन में चैन - आनंदानुभूति करते । उनका सरस व्याख्यान और निर्मल वाणी सुन जनता प्रसन्न होती , क्योंकि भीम जी स्वामी में विशेषता थी - तपस्या के साथ वे पंच परमेष्ठी के आराधक थे । अ. सि. आ .उ.सा. का सदा जाप करते ।*
*" ॐ अर्हम "*
*महा तपस्वी मुनि श्री भीम जी स्वामी के बारे में जयाचार्य श्री आगे और क्या लिखते हैं जानने के लिए अगली पोस्ट में .......*
*क्रमशः*--------- *अगला भाग अगले
*श्रंखला - 16*
*🙏🙏जय भिक्षु जय महाश्रमण 🙏🙏*
*🌅 ॐ अ .भी .रा .शि. को .नमः 🌅*
*🌞 तपस्वी मुनि श्री भीम जी स्वामी* 🌞
🌸 🌸 *जीवन परिचय* 🌸 🌸
*श्रृंखला* *( भीम -6-10 )*
*सब दुख भंजन -भीम*
- - - - - - - - - - - - - - - - - - - -
*अ .सी .आ .उ. सा. का सदा जाप करते । निरतिचार चर्या और अभिग्रह तप तपते । पंच परमेष्ठी के कोटि -जपी साधक भीमजी स्वामी के सौम्य स्वभाव की अमिट- छाप लगी तपस्वी भागचंद जी पर । तपस्वी भीमजी में प्रकृति बदलने की एक अनूठी कला थी । मुनि भागचंद जी उग्र- स्वभावी , बीदासरी - रांगङ , छोटी-छोटी ना कुछ सी बात पर बिगड़ जाते । रूठना उनके लिए क्षण भर का काम था । इसी आवेश- तेश में वे कितनी ही बार संघ छोड़कर चले गए ।*
*भीम जी स्वामी की तरकीब ने उन्हें आशु -कोप से आशुतोष बना दिया । मानो किसी ने खिरणी की जड़ सफेद -धागे में पहना दी हो । तपस्वी भीम जी ने उन्हें ऐसा परोटा , ऐसा संभाला , क्या कहना ? दुर्वासा -वृत्ति से वाशिष्टि -वृत्ति में ला दिया । वे आपस में घुले तो ऐसे घुले ' दूध मिश्री ' । मुनि भागचंद जी ने वृत्ति -प्रकृति -बदलाव के साथ-साथ तपस्याएं भी खूब की । अंतिम 27 वर्षों में 27 मासखमण -तप कर एक कीर्तिमान बनाया । यह सब कुछ हुआ तपस्वी भीम जी स्वामी की बदौलत ।*
*तपस्वी भीम जी स्वामी का अलग ही रंग था । व्याख्यान कला, कंठों का सुरीलापन , आगम -धारणा , जनता पर प्रभाव , स्वभाव में माधुर्य , साथी सहयोगी संतों का एकीपन और अवसरज्ञता उनका तंत्र -तिलक था । थली जैसे प्रांत में तेरापंथ की जड़े जमाने में उन्हीं का विशेष योग रहा -जयाचार्य ने भीम विलास 4 -4 में लिखा है -*
*देश थली में ठाट ,भीम - ऋषि आय नै*
*मत पातसा नो दियो दाट , लोगां नै समझाय नै'*
*मोहिल -वाटी के बादशाह कहलाने वाले ऋषि चंद्रभाण जी के इलाके को अभिभूत कर , उनकी अभिमत - धारणाओं को दाट- पाट, जनता को तेरापंथ -दर्शन- रहस्य समझा थली में ठाट जमाने का श्रेय तपस्वी भीम जी को जाता है । भीम विलास 4-7 बोलता है -*
*'भीम कियो थली में गहघाट'*
*"तपस्वी भीम जी नै ठाट लगा दिए ।" थली के लोग ऐसा कहने लगे थे ।*
*भीम विलास 6 - 6 के अनुसार भीम जी स्वामी वैसे ही थे -*
*' तप संयम रो जोरो घणो छै , बले सूत्र - सिद्धांत रा जाण विषेखो '*
*वेदन आयां सम अहियासै , भीम रिषीश्र्वर एहवो देखो ।*
*जिनके पास तप का तेज है , संयम का बल है , सिद्धांत - सूत्र की विशेष जानकारी है , वेदना- कष्ट- परिषह सहने की क्षमता है , यह एक मोटा- सा परिचय है भीम ऋषीश्र्वर का ।*
*" ॐ अर्हम "*
*महा तपस्वी मुनि श्री भीम जी स्वामी के बारे में जयाचार्य श्री आगे और क्या लिखते हैं जानने के लिए अगली पोस्ट में .......*
*क्रमशः--------- अगली पोस्ट अगले रविवार*
*जय भिक्षु जय महाश्रमण*
*ॐ अ .भी .रा .शि. को . नमः*
*तपस्वी मुनि श्री भीम जी स्वामी*
*जीवन परिचय*
*श्रृंखला* *( भीम -11-15 )*
*सब दुख भंजन -भीम*
- - - - - - - - - - - - - - - - - - - -
*भीम जी स्वामी का दीक्षा संस्कार आचार्य भारमल जी स्वामी द्वारा जयपुर में हुआ । उन्होंने मां - कल्लू जी के साथ वि. सं. 1869 फागन कृष्णा 11 को दीक्षा ली । उनसे पहले उनके बड़े भाई श्री स्वरूपचंद जी स्वामी तथा छोटे भाई जीत मुनि ( जयाचार्य ) दीक्षित हो चुके थे । जीत मुनि को 6 महीनों पश्चात तथा भीम जी स्वामी को 4 महीनों बाद छेदोपस्थापनीय- चारित्र ( बड़ी- दीक्षा ) दे , भीम जी स्वामी को जीत मुनि से साधु- क्रम संख्या में बड़ा रखा गया ।*
*तपस्वी भीम जी को गुरु- मंडल में तथा हेमराज जी स्वामी के पास 12 वर्ष ज्ञानार्जन का अवसर मिला । वि. सं.1881 में उन्हें अग्रगण्य बनाया गया । भीम विलास 1-21 में जयाचार्य श्री ने लिखा है-*
*' संवत अठारै इक्यासिये , रिषिराय बधायो तोल , टोलो सूंप्यो भीम नै ,आप्या संत अमोल '।*
*वि. सं. 1881 में आचार्य रिषिराय ने भीम जी स्वामी का तोल -मोल बढ़ाया । मूल्यांकन कर उनको टोला सौंपा- अग्रगण्य बना संतो को वंदना करवायी । संत भी अनमोल अच्छे-अच्छे सौंपे ।*
*वे अनेक क्षेत्रों में विचरे । अपने अनुभवों का खूब उपयोग किया । तपस्या के साथ-साथ ज्ञान वितरण कर अनेक लोगों को संयम -व्रत- सम्यक्त्व- बोध देते- देते वे रामगढ़ (शेखावाटी ) पहुंचे । उनके परिचय में भीम विलास- 1-15 में लिखा है -*
*' भीम सरल हिया नो घणो , भीम प्रकृति भदरीक ,*
*कार्य करवा उधमी घणा , सूरपणै साहसीक ।'*
*"भीम जी स्वामी ह्रदय के सरल , प्रकृति से भद्र , कार्यक्षम , बहुत परिश्रमी , साहसिक और शूरवीर- अग्रिम पंक्ति वाले योद्धा थे ।"*
*मुनि श्री पङिहारा ,रतनगढ़ होते हुए चातुर्मास के पूर्व चूरू पधारे और एक महीना ठहरे । चातुर्मास प्रारंभ होने में बहुत दिन बाकी थे इसलिए वहां से विहार कर बिसाऊ, मैणसर होते हुए रामगढ़ पधारे । एक महीना विराजे। रामगढ़ से मैणसर होकर वि. सं. 1897 आषाढ़ कृष्णा 6 को बिसाऊ के लिए विहार हुआ । उन्हें चातुर्मास चूरू करना था । भयंकर गर्मी । लूऐं चल रही थी । बिसाऊ पहुंचते-पहुंचते वे लटपटा गए । उल्टी -दस्त ने शरीर का पानी सोख लिया ।*
*'आलोइ निन्दी नि:शल हुआ , खमत खामणा करै लेले नाम',*
*महाव्रत फेर आरोपे मुनिवर , रिष पूंजै ने कहै करावो संथारो '।*
*तपस्वी भीम जी ने आलोवणा की , खमत खामणा नाम ले- लेकर किये ।नि:शल्य हुए । महाव्रतों का आरोपण किया । ऋषि -पूंजो जी से अनशन मांगा । जागृत चेता, विलक्षण तपस्वी, तितिक्षु- संत ,अनशन आराधना कर वि. सं.1897 आषाढ़ कृष्णा सातम को सायं काल मुहूर्त भर दिन रहते 40 वर्ष की उम्र में समाधिस्थ हुए ।*
*" ॐ अर्हम "*
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*जय भिक्षु जय महाश्रमण*
*ॐ अ .भी .रा .शि. को . नमः*
*तपस्वी मुनि श्री भीम जी स्वामी*
*जीवन परिचय*
*श्रृंखला* *( भीम -16-20 )*
*सब दुख भंजन -भीम*
- - - - - - - - - - - - - - - - - - - -
*अष्टमी को लोग दाह- संस्कार करने गए । पीछे तपस्वी भागचंद जी उदास- उदास, बे -चैन से बैठे थे । किसी गंभीर चिंतन में मन नहीं लग रहा था । उन्होंने बैठे-बैठे आवाज़ लगाई- संत नंदू जी आये । "तपस्वी बोले- नंदू ! मन नहीं लग रहा है। भाई ! पूंजो जी को बुलाओ तो ? " मुनि पूंजो जी आये । तपस्वी बोले- पूंजा ! ये संभाल भाई ! भीमजी स्वामी के पुस्तक- पन्ने अपन तो चले ..भीमजी स्वामी के साथ....।*
*संतो ने कहा - तपस्वी ! क्या भोली बात कर रहे हो ? यों कोई जाया जाता है ? तपस्वी बोले- वे बुला रहे हैं रे ! हे !...मैं तो ये चला । ठीक से रहना...। कहते-कहते तपस्वी भागचंद जी ने एक लंबा श्वास खींचा और इच्छा मृत्यु पा ली ।*
*'भीम ,भागचंद री जोरी , एहवी मिलनी जग में दोरी*
*त्यांरी प्रीत न टूटै तोरी, ऋष भागचंद जी ने भीम री "*
*तपस्वी भीम जी स्वामी और भागचंद जी जैसी जोड़ी दुनिया में दूसरी मिलनी कठिन है वह प्रीति तोड़े भी नहीं टूट सकती ।*
*यहां नहीं ,वहां भी ये दोनों भाग्यवान वैरागी हैं । जिन्दे ही साथी नहीं, मरने में भी साथी । यहां भी साथी ,वहां भी साथी । उनके मन में शासन सेवा कि आज भी उमंग है । वे चतुर्विध संघ की साता -सुख शांति चाहते हैं । अपना स्वरूप दिखाते -से, अहसास जताते- लगते हैं । कहते हैं -मैं अकेला नहीं ,औरों को भी साथ लाता हूँ । हम च्यार तीर्थ की सुरक्षा सेवा- चाकरी करते हैं । संघ का हम पर एहसान है ।*
*आचार्य रिषिराय उन दिनों डीडवाना विराज रहे थे । डीडवाना के सिंघी नोहरे में पूज्य श्री के दर्शन कर तपस्वी भागचंद जी ने अपनी तथा भीमराज जी स्वामी के स्वर्गवास की सूचना दी । आचार्य रिषिराय ने जीवो जी स्वामी को बुलाया और फरमाया - जीवा ! तपस्वी भागचंद जी के लिए एक ढाल ( गीत ) लिखो । वे अभी- अभी आये थे । दर्शन किए थे । वे देवलोक हो गए हैं ।*
*संत जीवो जी भी अल्हड़- अक्खड़ कवि थे । वे बोले- महाराज ! मैं क्यों बनाऊँ तपस्वी के लिए स्मृति-गीत ? आपके पास वे आये, तो आप बनाओ । मेरे पास थोड़े ही आएं हैं , जो मैं बनाऊं ? जीवो जी अभी अपने आसन पर आकर बैठने ही वाले थे कि स्वर्गीय तपस्वी भागचंद जी सामने आ खड़े हुए । प्रकाश ! प्रकाश ! सचन्नण हो गया । बोले - "क्यों ? नहीं लिखोगे गीत ? "*
*" ॐ अर्हम "*
*महा तपस्वी मुनि श्री भीम जी स्वामी के बारे में जयाचार्य श्री आगे और क्या लिखते हैं जानने के लिए अगली पोस्ट में .......*
*क्रमशः--------- अगला भाग अगले रविवार*
*👉🏻मुनि श्री सागरमल जी स्वामी द्वारा लिखित पुस्तक "जय जय जय महाराज" से साभार🙏🙏*
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*सोने से पहले पोरसी या नवकारसी आने तक त्याग जरूर करें।*
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*मुनिश्री जीवणजी (51/2/2)*
(संयम पर्याय-सं.1861-1862)
मुनिश्री जीवणजी मारवाड़ में "साचोर" के निवासी थे।आपकी गोत्र श्रीश्रीमाल थी।आपके पिता का नाम सतीदास जी और माता का नाम उगरां बाई था।जीवणजी क्रमशः तरुणावस्था को प्राप्त हुए।पूर्व जन्म के संस्कारों से उनके मन में विरक्ति की धारा प्रवाहित हुई किन्तु आस-पास में ऐसा कोई योग नहीं मिला।उन्होंने सुना था कि तेरापंथी साधु शुद्ध आचार का पालन करते हैं और उनकी श्रद्धा सर्वश्रेष्ठ है।पाली के तेरापंथी श्रावकों से ज्ञात हुआ कि *इस समय आचार्य भिक्षु के उत्तराधिकारी आचार्य श्री भारीमालजी हैऔर वे शुद्ध साधुता का पालन करते हैं।उनके शिष्य मुनिश्री हेमराजजी स्वामी का सं. 1861 का चातुर्मास पाली में होने वाला है।* आपने पाली में दर्शन किये वैराग्य भावना प्रबल हुई। मुनिश्री के निर्देशानुसार आवश्यक तात्विक ज्ञान सीखा तथा अपने माता-पिता से आज्ञा पत्र लेकर *मुनिश्री हेमराजजी स्वामी से सं. 1861 फाल्गुन शुक्ला 3 सोमवार के दिन पाली में दीक्षा स्वीकार कर संयम मार्ग पर अग्रसर हुए। पाली से खेरवा पधारे होली चातुर्मास वहाँ कर सोजत होते हुए पीपाड़ में आचार्य श्री भारीमालजी के दर्शन किये* सं.1862 के जेतारण चातुर्मास में आपने संलेखना प्रारम्भ की।
🚥🔸🚥🔸🚥🔸🚥🔸
*🙏 तप विवरण 🙏*
जेतारण चातुर्मास में...
*सर्वप्रथम 16दिन का तप किया* फिर 3 उपवास किये।दो दिन आहार करके भाद्रपद शुक्ला 8 को *सात दिन का प्रत्याख्यान किया पारणे में अचित अजवाइन मंगा कर ली और तीनों आहार का त्याग कर दिया।चौदहवें दिन संथारा ग्रहण किया जो अठारह दिन से कार्तिक वदी 1 को 13 दिन की संलेखना और 18 दिन के अनशन से सम्पन्न हुआ। मुनिश्री ने लगभग साढे सात मास में आत्मकल्याण कर लिया*
🙏श्रीमद्जयाचार्य ने मुनिश्री की स्मृति में लिखा है---
*जिनमार्ग में जीवणजी स्वामी सुखदाय कै,*
*भारीमाल गुरू भेटिया जी।*
*अणसण कर नै पहुंता परभव मांय कै,*
*पनरै पक्ष में कीधी फतै जी।।*
प्रस्तुति :-- ग्रूप के सदस्य *सुरेश चन्द्र जी बोरदिया के द्वारा*
🙏🙏🙏
*श्रंखला - 17*
. *।।अर्हम्।।* .
*जय भिक्षु* *जय महाश्रमण*
. 1️⃣7️⃣ .
*मुनिश्री पीथलजी "बड़ा"*
【 56 / 02 / 07 】
*56 से तात्पर्य* --तेरापंथ धर्म संघ में साधु क्रमांक संख्या।
*02 से तात्पर्य* -तेरापंथ के द्वितीय आचार्य श्री भारीमालजी का शासनकाल।
*07 से तात्पर्य है* --द्वितीय आचार्य श्री भारीमालजी के शासनकाल में दीक्षित साधु क्रमांक संख्या।
● संयम-पर्याय ●
(सं. 1866 से सं. 1883 तक)
*मुनिश्री पीथलजी मारवाड़ में "बाजोली" के वासी और गोत्र आपकी नाहर (ओसवाल) थी* वे संसार से विरक्त होकर दीक्षा लेने के लिये तैयार हुए और अपनी पत्नी की स्वीकृति लेकर मुनिश्री हेमराजजी स्वामी के पास पहुंचे। *सं.1866 में मुनिश्री हेमराजजी स्वामी से पाली में संयम ग्रहण किया।*
मुनिश्री बड़े विनयी,सेवार्थी और तपस्वी हुए।दीक्षित होते ही आपने उत्कट तप करना प्रारम्भ किया।प्रथम छह वर्षों में आपने विविध तपस्याएं की जिसका विवरण उपलब्ध नहीं है।तपस्या के साथ वे आतापना भी लेते थे।उसके बाद सं.1873 से सं.1883 तक *(प्रायः आछ के आगार से)* निम्न बड़ी तपस्याएं की...
सं.1873 में *40 दिन का तप सिरियारी में किया*
सं.1874में *82 दिन का तप गोगुन्दा में किया*
सं.1875में *83 दिन का तप पाली में किया*
सं.1876में *106दिन का तप देवगढ़ में किया*
( जो गण में सर्वप्रथम था )
सं.1877 में *120दिन का तप पुर में किया*
(यह तप आपने मुनिश्री स्वरूपचंद जी के सानिध्य में किया।इसी चातुर्मास में मुनिश्री माणकचंदजी(71) ने भी चातुर्मासिक तप किया।दोनों मुनियों का यह तप गण में सर्वप्रथम था)
सं.1878 में *99दिन का तप आमेट में किया*
सं.1879 में *100दिन का तप किया*
सं.1880 में *60दिन का तप किया*
सं.1881 में *75 और 21 दिन का तप किया*
सं.1882 में तृतियाचर्य ऋषिराय के सानिध्य में पाली में *101 दिन का तप किया*
सं.1883 में मुनि भीमजी(63)के साथ कांकरोली में चातुर्मास था। *186दिन की तपस्या ( छहमासीतप ) का पारणा आचार्य श्री रायचंद जी ने उदयपुर चातुर्मास सम्पन्न कर कांकरोली पधार कर कराया।तेरापंथ धर्मसंघ में इससे पहले छहमासी तप नहीं हुआ था*
🙏सं.1883 पोष शुक्ला 10 के दिन कांकरोली में अकस्मात उनकी जबान बन्द हो गई शरीर में अथाह व्याधि हुई।सहवर्ती मुनि भीमजी ने *उन्हें पूछकर सागारी अनशन कराया और आपने सवा प्रहर के पश्चात पंडित-मरण प्राप्त किया।*
*"तप: सूर अणगार" उक्ति यह,*
*है आगम में स्पष्ट।*
*की चरितार्थ श्रमण पीथल ने,*
*करके तप उत्कृष्ट ।।*
🚥🔸🚥🔸🚥🔸🚥🔸
*☝️पीथलजी स्वामी ने,*
*तप की बाजी खेली रे।*
*सब शक्ति उंडेली रे,*
*की पूर्ण पहेली रे।।*
🙏 *ओम अर्हम्* 🙏
प्रस्तुति :-- ग्रूप के सदस्य *सुरेश चन्द्र जी बोरदिया के द्वारा*
🙏🙏🙏
*श्रंखला - 18*
. *।।अर्हम्।।* .
*जय भिक्षु जय महाश्रमण*
【 52 / 2 / 9 】
*मुनिश्री वगतो जी (तिवरी)*
(संयम पर्याय 1866--1873)
मुनिश्री मारवाड़ में *तिवरी* के वासी, जाति से ओसवाल और गोत्र से *धाड़ीवाल* थे। आपने तेरापंथ की मान्यता को समझ कर आचार्य श्री भारीमालजी को गुरू रूप में स्वीकार कर लिया।परन्तु बाद में तेरापंथी साधुओं का योग नहीं मिला।आप पहले स्थानकवासी गुमानजी के टोले में दीक्षित हुए वहाँ आचार-विचार नहीं मिलने से उन्हें *जय भिक्षु जय महाश्रमण*
*ॐ अ .भी .रा .शि. को . नमः*
*तपस्वी मुनि श्री भीम जी स्वामी*
*जीवन परिचय*
*दिनांक 31 मई 2020 रविवार*
*श्रृंखला* *( भीम 21-25 )*
*सब दुख भंजन -भीम*
- - - - - - - - - - - - - - - - - - - -
*उसी समय जीवो जी स्वामी ने गीत लिखना प्रारंभ किया । जिसमें वे स्वयं इस बात का उल्लेख करते हैं -*
*"श्री पूज हुकुम फरमायो, तिण स्यूं मैं मुनिवर गायो*
*आषाढ़ सुद लाडनूं आया, सुद तेरस दिन गुण -गाया"*
*'श्री पूज्य आचार्य रिषिराय ने आदेश फरमाया इसलिए मैंने मुनिवर- तपस्वी भागचंद जी के गुणानुवाद गाये । हम आषाढ़ सुदी तेरस को डीडवाना से लाडनूं आये, उसी दिन मैंने तपस्वी गुण- गीत संपूर्ण किया ।'*
*जिस समय तपस्वी भागचंद जी ने ( दिव्य देव रूप में ) आचार्य श्री ऋषिराय को डीडवाना में दर्शाव दिया, उस समय युवाचार्य जीत मुनि भी वही डीडवाना में ही थे । उन्होंने भी गाया -*
*'भीम आउखो पूरो कियो, सांभल्यो पूज महाराज ।*
*मन मांही करड़ी लागी घणी, भीम हुंतो गुण जिहाज ।।'*
*'भीम -ऋषि के आयुष्य पूर्ण- देवलोक होने के समाचार पूज्य आचार्य ऋषिराय को बहुत अटपटे ,मन को असुहावने लगे । उनके श्रीमुख से खेद के साथ निकला -तपस्वी भीमजी गुण- भरी जहाज थे ।'*
*युवाचार्य जीत मुनि ने डीडवाना से विहार किया । उन्हें वि. सं. 1898 का चातुर्मास जयपुर करना था । मन में एक चिंतन- पीड़ा बार-बार उभरती रही ' भीम जी स्वामी इतने नीपीते / निस्पृह कब से ? तपस्वी भागचंद जी तो स्वर्ग से संवाद देने आये । भीम जी स्वामी क्यों नहीं आये ? क्या मैं कुछ नहीं लगता था ? उनका छोटा भाई नहीं था ?'*
*कुछ समय बाद- लाडनू से स्वरूप चंद जी स्वामी के संवाद मिले- " तपस्वी भीम जी आए थे । उनका दिव्य स्वरूप देख अपार हर्ष हुआ " युवाचार्य जीत मुनि के मन में खिन्नता हुई । ' मेरा क्या अपराध ? ' चातुर्मास पूरा हुआ । युवाचार्य जीत वि. सं. 1898 चैत्र कृष्णा सातम को एक गीत लिखने बैठे । गीत लिखते- लिखते स्व. भीम जी स्वामी ने सहसा साक्षात देखकर विस्मित कर दिया ।*
*वे कह रहे थे -"क्यों जीतू जी ! मैं पहले लाडनूं स्वरूपचंद जी स्वामी की सेवा में गया था न !" उस साक्षात् की कहानी जयाचार्य की जुबानी ही नहीं , लिखित शब्दों में पढ़ना चाहें तो भीम गुण ढा़. 1- 4,3,5 में यों मिलेगी -*
*'स्वरूपचंद सहोदर भणी, तें दीधो दीसै छै सम्मान,*
*दिव्य रूप देख्यां छतां, हर्ष थयो असमान " ।*
*" मुनि वत्सल गुण बालहा, अल्प भाषी दीसो छो आप ? "*
*" चेत वद सातम गुण गाविया, अठाणूं संवत अठार ,*
*अभिलाषा हिव पूरिये म करो जेज लिगार " ।*
*" ॐ अर्हम "*
*महा तपस्वी मुनि श्री भीम जी स्वामी के बारे में जयाचार्य श्री आगे और क्या लिखते हैं जानने के लिए अगली पोस्ट में .......*
*क्रमशः--------- अगले रविवार*
*जय भिक्षु जय महाश्रमण*
*ॐ अ .भी .रा .शि. को . नमः*
*तपस्वी मुनि श्री भीम जी स्वामी*
*जीवन परिचय*
*दिनांक 31 मई 2020 रविवार*
*श्रृंखला* *( भीम 21-25 )*
*सब दुख भंजन -भीम*
- - - - - - - - - - - - - - - - - - - -
*उसी समय जीवो जी स्वामी ने गीत लिखना प्रारंभ किया । जिसमें वे स्वयं इस बात का उल्लेख करते हैं -*
*"श्री पूज हुकुम फरमायो, तिण स्यूं मैं मुनिवर गायो*
*आषाढ़ सुद लाडनूं आया, सुद तेरस दिन गुण -गाया"*
*'श्री पूज्य आचार्य रिषिराय ने आदेश फरमाया इसलिए मैंने मुनिवर- तपस्वी भागचंद जी के गुणानुवाद गाये । हम आषाढ़ सुदी तेरस को डीडवाना से लाडनूं आये, उसी दिन मैंने तपस्वी गुण- गीत संपूर्ण किया ।'*
*जिस समय तपस्वी भागचंद जी ने ( दिव्य देव रूप में ) आचार्य श्री ऋषिराय को डीडवाना में दर्शाव दिया, उस समय युवाचार्य जीत मुनि भी वही डीडवाना में ही थे । उन्होंने भी गाया -*
*'भीम आउखो पूरो कियो, सांभल्यो पूज महाराज ।*
*मन मांही करड़ी लागी घणी, भीम हुंतो गुण जिहाज ।।'*
*'भीम -ऋषि के आयुष्य पूर्ण- देवलोक होने के समाचार पूज्य आचार्य ऋषिराय को बहुत अटपटे ,मन को असुहावने लगे । उनके श्रीमुख से खेद के साथ निकला -तपस्वी भीमजी गुण- भरी जहाज थे ।'*
*युवाचार्य जीत मुनि ने डीडवाना से विहार किया । उन्हें वि. सं. 1898 का चातुर्मास जयपुर करना था । मन में एक चिंतन- पीड़ा बार-बार उभरती रही ' भीम जी स्वामी इतने नीपीते / निस्पृह कब से ? तपस्वी भागचंद जी तो स्वर्ग से संवाद देने आये । भीम जी स्वामी क्यों नहीं आये ? क्या मैं कुछ नहीं लगता था ? उनका छोटा भाई नहीं था ?'*
*कुछ समय बाद- लाडनू से स्वरूप चंद जी स्वामी के संवाद मिले- " तपस्वी भीम जी आए थे । उनका दिव्य स्वरूप देख अपार हर्ष हुआ " युवाचार्य जीत मुनि के मन में खिन्नता हुई । ' मेरा क्या अपराध ? ' चातुर्मास पूरा हुआ । युवाचार्य जीत वि. सं. 1898 चैत्र कृष्णा सातम को एक गीत लिखने बैठे । गीत लिखते- लिखते स्व. भीम जी स्वामी ने सहसा साक्षात देखकर विस्मित कर दिया ।*
*वे कह रहे थे -"क्यों जीतू जी ! मैं पहले लाडनूं स्वरूपचंद जी स्वामी की सेवा में गया था न !" उस साक्षात् की कहानी जयाचार्य की जुबानी ही नहीं , लिखित शब्दों में पढ़ना चाहें तो भीम गुण ढा़. 1- 4,3,5 में यों मिलेगी -*
*'स्वरूपचंद सहोदर भणी, तें दीधो दीसै छै सम्मान,*
*दिव्य रूप देख्यां छतां, हर्ष थयो असमान " ।*
*" मुनि वत्सल गुण बालहा, अल्प भाषी दीसो छो आप ? "*
*" चेत वद सातम गुण गाविया, अठाणूं संवत अठार ,*
*अभिलाषा हिव पूरिये म करो जेज लिगार " ।*
*" ॐ अर्हम "*
*महा तपस्वी मुनि श्री भीम जी स्वामी के बारे में जयाचार्य श्री आगे और क्या लिखते हैं जानने के लिए अगली पोस्ट में .......*
*क्रमशः--------- अगले रविवार*
*जय भिक्षु जय महाश्रमण*
*ॐ अ .भी .रा .शि. को . नमः*
*तपस्वी मुनि श्री भीम जी स्वामी*
*जीवन परिचय*
*श्रृंखला* *( भीम 26-31 )*
*सब दुख भंजन -भीम*
- - - - - - - - - - - - - - - - - - - -
*भीम जी स्वामी ! मेरे मन की इच्छा पूरी करो । क्या आपने मौन ले रखा है ? अब जेज- देरी मत करो ....ज्येष्ठ भ्राता मुनि स्वरूपचंद जी स्वामी को बड़े भाई के नाते पहला सम्मान दिया । सुना है आपका दिव्य रूप देख उन्हें अपार हर्षानुभूति हुई । वह तो होनी ही थी । पर वि. सं. 1898 की चैत्र वद सातम आ गई है। पौण साल हो रहा है । क्या मेरी अभिलाषा .....बस कहने की देरी थी । अजीब सा प्रकाश फूटा । युवाचार्य जीत मुनि के लिए यह पहला पहला अवसर था । तपस्वी भीम जी स्वामी सामने खड़े थे|*
*क्या वार्तालाप हुआ ,पता नहीं । पर आज से एक अभिनव स्त्रोत खुला । उसी महीने की द्वादशी को अर्थात 5 दिन बाद से तो दोनों में खुले दिल -चर्चा -वार्ता प्रारंभ हो गई। वहां तपस्वी भीम जी 'संघ- प्रभावना मंडल' के सदस्य हैं- इसका जरा सा इशारा भर करते युवाचार्य जीत ने भिक्षु गुण ढा़ल 2-10/11 में लिखा है -*
*"अमीचंद तपसी गुण दरियो, प्रत्यक्ष उद्योत करियो,*
*भीम ऋषि पांडव भीम सरीखो, धर्मोधमे जुरियों" ।*
*"गुण- ग्राही, दरियादिली तपस्वी अमीचंद जी ने प्रत्यक्ष उद्योत- प्रकाश किया और पांडु- पुत्र भीम से शक्तिशाली भीम -ऋषि -धर्मोधम- संघ- सेवा में जुड़े"।*
*धर्मोद्योम - सेवा में जुड़े यह शब्द कुछ रहस्य छुपाये हुए हैं। गहरे पानी में उतरने का संकेत दे रहा है । युवाचार्य श्री उस शक्ति- पीठ का एहसास यों भी भि. गु . ढ़ा. 4/6 में करते से लगते हैं ।*
*"भीम सरीखा सिख सुखकारी , अमीचंद तपधारी*
*भाव उद्योत भरत में कीधो, उद्यमी अधिक उदारी "*
*तपस्वी भीम जी जैसे सुखकारी शिष्य और अमीचंद जी जैसे तपधारी मुनि भरत क्षेत्र में आभ्यंतर प्रकाश करने अत्यंत उदार -वरैण्य और सजग प्रयत्नशील -परिश्रमी है।*
*उपकार से उपकृत जयाचार्य ने भि. गु .ढ़ा. 9-10 में यों भी माना है ....।*
*प्रीति निभावण, भीम -सरीखा, जग में थोड़ा जीवा,*
*शुद्ध मन सेती समरण करतां, खुले ज्ञान - घट- दिवा*
*तपस्वी भीम जी स्वामी जैसे प्रीति निभाने वाले भी थोड़े ही होंगे । उनका स्मरण अंतर ज्योति, तृतीय- विवेक नेत्र खोलने वाला है ।*
*भीम गुण ढा़ल 4-5 में जयाचार्य लिखते हैं- तपस्वी ! आप तो हो...... ।*
*" पूरण मन वांछित दातारी, सुख सम्पति तणो सहचारी "*
*सुख समाधि के साथी ! मनोभिलाषा पूरी करने वाले ! वाह रे ! वाह ! तपस्वी भीम जी ! नमन नमन .......अमी. गुण ढा़ल 3-5 में कहा -*
*'भीम ऋषि भ्रम -भंजनो, जन -मन -रंजन जोग्य ।*
*चरण -करण चित्त चातुरी, आनंद , करण आरोग्य ।।'*
*तपस्वी भीम जी स्वामी का जाप -*
*1 - मानसिक स्थिरता लाता है -तनाव मिटाता है ।*
*2 - स्वभाव परिवर्तन करता है -प्रेमभाव बनाता है आपस में जोड़ता है ।*
*3 - बौद्धिक विकास देता है- मूल उत्तर गुणों में आस्था जमाता है ।*
*4 - मनोकामनाएं पूरी करता है ।*
*5 - आरोग्य बढ़ाता है।*
*नमस्कार ! नमस्कार ! कोटिश: नमस्कार ! उस पवित्र, संघ- हितैषी , सेवाभावी , मोक्ष- मार्गी आत्मा को.......।*
*" ॐ अर्हम "*
*अभी तक हमने महातपस्वी मुनि श्री भीम जी स्वामी के बारे में जयाचार्य श्री क्या लिखते हैं यह जाना, पढा़ ! महातपस्वी मुनि श्री भीम जी स्वामी की जीवन परिचय श्रंखला यहीं समाप्त होती है ।*
*अगले रविवार को हम पढ़ेंगे महा तपस्वी मुनि श्री रामसुख जी स्वामी के जीवन परिचय की क्रमबद्ध श्रंखला........।*
*👉🏻मुनि श्री सागरमल जी स्वामी द्वारा लिखित पुस्तक "जय जय जय महाराज" से साभार🙏🙏*
*लिखने में किसी भी प्रकार की त्रुटि रही हो तो मिच्छामि दुक्कड़म🙏🏻🙏🏻*
*'जैन स्मारक ' चूरू (राजस्थान) के फेसबुक पेज के जुडने के लिए लिंक का उपयोग करें |*
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🙏🙏
*सोने से पहले पोरसी या नवकारसी आने तक त्याग जरूर करे।*
*👉🏻मुनि श्री सागरमल जी स्वामी द्वारा लिखित पुस्तक "जय जय जय महाराज" से साभार🙏🙏*
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*सोने से पहले पोरसी या नवकारसी आने तक त्याग जरूर करें।*
*👉🏻मुनि श्री सागरमल जी स्वामी द्वारा लिखित पुस्तक "जय जय जय महाराज" से साभार🙏🙏*
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🙏🙏
*सोने से पहले पोरसी या नवकारसी आने तक त्याग जरूर करें।* *आचार्य श्री भारीमालजी के पास दीक्षा लेकर तेरापंथी साधु बन गये*
. *🙏 तप विवरण 🙏* .
मुनिश्री वगतोजी बड़े विनयी, विरागी और तपस्वी हुए।सं.1873 में धाकड़ी(मारवाड़)में आपने आछ के आगार से *101 दिन का तप किया* पारणा करने के कुछ दिन बाद ऊर्ध्व भावना से *आजीवन अनशन ग्रहण कर लिया जो 21 दिनों से सानन्द सम्पन्न हुआ ।धर्म का बड़ा उद्योत हुआ*
🙏श्रीमद्जयाचार्य ने उनका स्मरण करते हुए लिखा है---
*वगतरामजी तपसी बड़ो,*
*एक सो एक अमोल।*
*अणसण इकवीस दिवस नो,*
*च्यार तीर्थ में मोल।।*
*🙏ओम अर्हम् 🙏*
प्रस्तुति :-- ग्रूप के सदस्य *सुरेश चन्द्र जी बोरदिया के द्वारा*
🙏🙏🙏
*श्रंखला - 19*
. *।।अर्हम्।।* .
*जय भिक्षु जय महाश्रमण*
. 1️⃣9️⃣ .
*मुनिश्री संतोजी(59/2/10)*
(संयम पर्याय सं.1866-1912)
मुनिश्री संतोजी मारवाड़ में *सणदरी के वासी* और गोत्र बोकड़िया था।आपने सं.1866 में बड़े वैराग्य भाव से दीक्षा ली।
श्रीमद्जयाचार्य ने उन्हें *बाल मित्र* से सम्बोधित किया है। साधु जीवन के प्रारम्भ में वे *अगड़सूत्री* थे। आप साधु-क्रिया में कुशल, पापभीरु और बड़े आत्मार्थी थे।संघ एवं संघपति के प्रति अनुरागी और निष्ठावान थे।उन्होंने आचार्य भारीमालजी, रायचन्दजी और जयाचार्य की तन्मयता से सेवा की।
*🙏तप विवरण🙏*
आपने छोटी तपस्या बहुत की।ऊपर में *मासखमण भी अनेक बार किये* (संख्या प्राप्त नहीं है) सं.1912 का चातुर्मास आमेट था।वे वहाँ अस्वस्थ हो गये,विहार नहीं कर सके।जयाचार्य ने वहाँ पधार कर उन्हें दर्शन दिये।सात दिनों बाद सं.1912 पौष शुक्ला 13 को आमेट में मुनिश्री का स्वर्गवास हो गया।
*उपवासादिक में अग्रेसर,*
*मासखमण बहु किये विरति धर।*
*आत्म-शुद्धि के लिए उच्चतर,*
*खोला यह अभियान।।*
*पुर-पुर मुनिश्री विचरण करते,*
*उपदेशामृत मुख से झरते।*
*भविकजनों के पातक हरते,*
*भरते अभिनव। ज्ञान।।*
. *🙏 ओम अर्हम् 🙏* .
प्रस्तुति :-- ग्रूप के सदस्य *सुरेश चन्द्र जी बोरदिया के द्वारा*
🙏🙏🙏
*श्रंखला - 32*
. *।।अर्हम्।।* .
*जय भिक्षु जय महाश्रमण*
. 3️⃣2️⃣ .
*मुनिश्री शिवजी(देवगढ़)*’
*【82 / 2/ 33】*
(संयम पर्याय सं.1876-1913)
मुनिश्री शिवजी देवगढ़ के वासी और गोत्र से मादरेचा(ओसवाल) थे। *आपकी दीक्षा सं. 1876 में मृगसर कृष्णा 1 के दिन देवगढ़ में मुनिश्री हेमराजजी स्वामी के हाथों सम्पन्न हुई।*
मुनि शिवजी आचार-विचार में कुशल ,नितिमान् ,विनयी और ह्रदय से बहुत सरल थे।उन्होंने हजारों श्लोक कंठस्थ किये।सूक्ष्म-सूक्ष्म चर्चाओं की गहरी धारणा की।लेखन भी बहुत किया।व्याख्यान भी रसीला देते थे।मुनिश्री अग्रणी नहीं थे।अन्य सिंघाड़बंध साधुओं के साथ उन्होंने अनेक देशों में विहरण किया।
*🙏तप विवरण🙏*
मुनिश्री शिवजी ने उपवास बेले आदि बहुत तपस्या की।
*मासखमण तप किया।*
*35 दिन का तप किया।*
*51 दिन का तप किया*
*शीतकाल में शीत बहुत सहन किया*
*उष्णकाल में आतापना ली*
🙏मुनिश्री ने सं.1913 का अन्तिम चातुर्मास मुनिश्री जीवोजी (86) के साथ राजनगर किया।चातुर्मास के प्रारंभ में मासखमण किया।कुछ दिन बाद भाद्रपद कृष्णा 12 को उपवास, 13 को बेला और चतुर्दशी को तेला किया।उसी दिन रात्रि के पश्चिम प्रहर में उन्होंने अनशन की इच्छा व्यक्त की।
☝️उस समय किसी ने कहा--
*"आज आप तेले का पारणा करें।"*
मुनिश्री बोले---
*पारणा संभवतः परलोक में होगा*
*शिव ने शिवपुर में जाने की,*
*की पूरी तैयारी।*
*चरण-रत्न मुनि हेम हाथ से,*
*लिया विरतियुत भारी।।*
*🙏इस तरह उनकी बढती हुई भावना देखकर मुनिश्री जीवोजी ने उन्हें आजीवन तिविहार संथारा करा दिया।*
*🙏मुनिश्री ने वर्धमान भावों से अनशन के पाँच दिन बाद पानी पीने का भी परित्याग कर दिया।*
*🙏सभी प्राणियों के साथ क्षमायाचना और आत्मालोचन किया।*
☝️कोई उनके गुणगान करता तो वे तुरन्त टोकते---
*"आप मेरे गुणानुवाद न करें, इन साधुओं के गुण गाएं।ये मुनि तो मुझे सहयोग देकर मेरे से ऋणमुक्त हो गए हैं पर मैं तो इनके ऋणभार से मुक्त नहीं हुआ, अब मैं इनसे बिछुड़ने वाला हूँ किन्तु इनके उपकार को कभी भूल नहीं सकता।"*
☝️किसी ने कहा---
*"मुनिश्री के मांगने पर जल पीने का आगार है।*
🙏 यह सुनकर मुनिश्री शीघ्र बैठे होकर तपाक से बोले---
*तुम ऐसी बेकार बात क्यों कर रहे हो, मैंने तो स्वेच्छा से चौविहार अनशन किया है।*
*अतः पानी कैसे मांगूंगा ?*
*🙏ऐसी थी मुनिश्री की*
*दृढता व जागरूकता।*
. 🙏 .
*मुनिश्री ने समता-भाव में रमण करते हुए सात दिनों के चौविहार अनशन से सं.1913 के भाद्रपद शुक्ला 12 को रात्रि के समय राजनगर में "पंडित-मरण" प्राप्त किया।*
*उन्हें तीन दिन की संलेखना ,*
*पाँच दिन का तिविहार और*
*सात दिन का चौविहार अनशन आया।*
*🙏 ओम अर्हम् 🙏*
🚥🔸🚥🔸🚥🔸🚥🔸🚥🔸
*श्रंखला - 33*
. *।।अर्हम्।।* .
*जय भिक्षु जय महाश्रमण*
. 3️⃣3️⃣ .
*मुनिश्री कर्मचंदजी (देवगढ़)*
*【 83 | 2 | 34 】*
संयम पर्याय--सं.1876 से 1926
*मुनिश्री कर्मचंदजी देवगढ़(मेवाड़)के वासी, जाति से ओसवाल और गोत्र से पोखरणा थे। सं.1876का मुनिश्री हेमराजजी स्वामी का चातुर्मास देवगढ़ था।मुनिश्री के उद् बोधक उपदेश से बालक कर्मचंदजी के मन में वैराग्य भावना उत्पन्न हुई।उन्होंने अपने विचार अभिभावकों के सम्मुख रखे तब परिवार वाले दीक्षा की स्वीकृति के लिए इन्कार हो गये और उन्हें नाना प्रकार के कष्ट देने लगे। परन्तु कर्मचंदजी अपने लक्ष्य से किंचिद् मात्र भी विचलित नहीं हुए।*
*अभिभावकों ने कर्मचंदजी को घर में रखने के लिए नाना प्रकार के उपाय किये पर उनकी दृढता देखकर आखिर उन्हें दीक्षा की अनुमति देनी पड़ी।कर्मचंदजी के साथ रत्नजी और शिवजी दो दीक्षार्थी भाई और थे।उन सबका राजकीय लवाजमे के साथ धूमधाम से दीक्षा महोत्सव मनाया गया।*
*सं.1876 मृगसर वदि एकम को देवगढ़ में मुनिश्री हेमराजजी स्वामी ने मुनि रत्नजी(81) मुनि शिवजी(82) और कर्मचंदजी(83) को दीक्षा प्रदान की।*
*🙏जयाचार्य ने अध्यात्म-भावना से ओतप्रोत होकर दो ध्यान बनाए एक छोटा और दूसरा बड़ा।*
☝️मुनिश्री कर्मचंदजी ने "बड़ा ध्यान" के आधार से संक्षिप्त रूप में एक ध्यान तैयार किया जो...
*"कर्मचंदजी स्वामी का ध्यान"*
नाम से प्रसिद्ध है।
*🙏मुनिश्री ने उपवास, बेला,तेला, चोला, पंचोला आदि की तपस्या अनेक बार की।*
*☝️सं.1903 में युवाचार्य श्री जीतमलजी ने मुनिश्री हेमराजजी स्वामी के साथ नाथद्वारा में चातुर्मास किया तब मुनिश्री कर्मचंदजी भी साथ थे।वहाँ उन्होंने पानी के आगार से 31 दिन का तप किया।*
*☝️सं.1905 में पीपाड़ चातुर्मास में 16 दिन का तप किया।*
*☝️बहुत वर्षों तक शीतकाल में एक पछेवड़ी ओढते एवं शीत परिषह को सहन करते।*
. 🙏 .
*मुनिश्री अत्यंत समाधिपूर्वक सं. 1926 ज्येष्ठ कृष्णा 7 को बीदासर में स्वर्ग प्रस्थान कर गये।जिस वर्धमान भावना से संयम स्वीकार किया था उसी भावना से पालन कर आराधक पद को प्राप्त हो गये।*
🚥🔸🚥🔸🚥🔸🚥🔸🚥🔸
*🙏श्रीमद्जयाचार्य ने मुनिश्री के संबंध में*
*"कर्मचंद गुण वर्णन"*
*नामक छोटा आख्यान बनाया।जिसकी एक ढा़ल है उसमें 9 दोहे और 59 गाथाएं हैं। ढा़ल का रचनाकाल सं.1929 माघ शुक्ला सप्तमी और स्थान बीदासर है।*
*🙏 ओम अर्हम् 🙏*
🚥🔸🚥🔸🚥🔸🚥🔸🚥🔸
प्रस्तुति :-- ग्रूप के सदस्य *सुरेश चन्द्र जी बोरदिया के द्वारा*
🙏🙏
*Breakfast ke baad chovihar ya tivihar tyag jarur Kare*
प्रस्तुति :-- ग्रूप के सदस्य *सुरेश चन्द्र जी बोरदिया के द्वारा*
*Breakfast ke baad chovihar ya
*👉🏻मुनि श्री सागरमल जी स्वामी द्वारा लिखित पुस्तक "जय जय जय महाराज" से साभार🙏🙏*
*लिखने में किसी भी प्रकार की त्रुटि रही हो तो मिच्छामि दुक्कड़म🙏🏻🙏🏻*
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🙏🙏
*श्रंखला - 21*
. *।।अर्हम्।।* .
*जय भिक्षु जय महाश्रमण*
. 2️⃣1️⃣ .
*मुनिश्री रामोजी(66/2/17)*
(संयम पर्याय सं.1870--1919)
मुनिश्री रामोजी मालव प्रान्त में उज्जैन या आसपास के गांव के वासी थे। मालव प्रदेश में
मुनिश्री वेणीरामजी ने सं.1870 का सर्वप्रथम चातुर्मास उज्जैन में किया। *उन्होंने वहाँ पर रामोजी को दीक्षा प्रदान की।*
*नगर उजेणी शहर में ,*
*आछो कियो उपगार।*
*रामोजी संयम लियो ,*
*कियो तिहां थी विहार।।*
🚥🔸🚥🔸🚥🔸🚥🔸
*🙏तप विवरण🙏*
*आपने मुनिश्री हेमराजजी स्वामी के सानिध्य में---*
सं. 1894 के लाडनूं चातुर्मास में
*30 दिन का तप किया*
सं. 1895 के पाली चातुर्मास में
*41 दिन का तप किया*
🙏आचार्य श्री भारीमालजी स्वामी के सं. 1878 के अंतिम केलवा चातुर्मास में उन्होंने आचार्यश्री की बहुत सेवा भक्ति की।
*सं.1919 के वैसाख कृष्णा 9 को श्रीमद्जयाचार्य के सानिध्य में बीदासर में दिवंगत हुए।अन्तिम समय में उनकी भावना निर्मलतम रही।*
🙏 *ओम अर्हम्* 🙏
*श्रंखला - 22*
. *।।अर्हम्।।* .
*जय भिक्षु जय महाश्रमण*
. 2️⃣2️⃣ .
*मुनिश्री वर्धमानजी "छोटा"*
(67 / 2 / 18)
(संयम पर्याय सं.1870-1894)
मुनि वर्धमानजी (विरधोजु) मेवाड़ में केलवा गांव के वासी थे।गोत्र आपकी चोरड़िया थी।सुप्रसिद्ध शोभजी श्रावक के चाचा के बेटे भाई थे।आचार्य श्री भारीमालजी के कर कमलों से सं.1870 में अविवाहित वय में दीक्षित हुए। *श्रीमद्जयाचार्य ने मुनि वर्धमानजी को बाल मित्र के नाम से संबोधित किया है।* आप बड़े साहसिक, त्यागी, विरागी और तपस्वी थे।
*🙏 तप विवरण 🙏*
आपने चोले पंचोले अनेक बार किये तथा आठ व पन्द्रह दिन कि तप भी किया।प्रमुख बड़ी तपस्याएं निम्न प्रकार से थी---
*मासखमण तप* --
>>> छह बार किये
*43 दिन का तप* --
>>> एक बार आचार्य श्री रायचन्दजी के सानिध्य में जयपुर में सं.1880 में किया।
*104दिन का तप*--
>>> एक बार मुनिश्री हेमराजजी स्वामी के सानिध्य में सं.1877 में उदयपुर में किया
*(ये तपस्याएं पानी के आगार से की गई थी)*
🚥🔸🚥🔸🚥🔸🚥🔸
*आछ के आगार से*
>>>एक बार आपने *75 दिन का तप किया*
>>>सं 1882 में आपने---
*छहमासीतप किया*
(मोखुण्दा में प्रत्याख्यान किया था)
🙏 जिसका पारणा आचार्य श्री रायचन्दजी ने उदयपुर चातुर्मास सम्पन्न कर पहले मुनिश्री पीथलजी को 186 दिन का पारणा कांकरोली में कराया,उसी दिन मुनिश्री हीरजीको 186 दिन का पारणा राजनगर में कराया दूसरे दिन केलवा पधार कर *मुनिश्री वर्धमानजी को 187 दिन का पारणा कराया।*
(मुनिश्री का चातुर्मास केलवा में था)
☝️आप शीतकाल में रात्रि के समय तथा एक प्रहर दिन चढ़ने तक पछेवड़ी नहीं रखते।ग्रीष्मकाल में बहुत वर्षों तक आतापना ली।
*सं.1894 में उन्होंने पंडित-मरण प्राप्त किया।*
. 🙏 .
*जिन मार्ग में तपसी लघु वर्धमान के,*
*एक सौ चार पिणी तणा जी।*
*आछ आगारे तप षट मासी प्रधान के,*
*भारीमाल गुरू--भेटियाजी।।*
(संतगुणमाला ढाल 4 गाथा 27)
*🙏🙏 ओम अर्हम् 🙏🙏*
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प्रस्तुति :-- ग्रूप के सदस्य *सुरेश चन्द्र जी बोरदिया के द्वारा*
🙏🙏🙏
*श्रंखला - 23*
. *।।अर्हम्।।* .
*जय भिक्षु जय महाश्रमण*
. 2️⃣3️⃣ .
*मुनिश्री माणकचंदजी केलवा*
*( 71 / 2 / 22 )*
*(संयम पर्याय सं. 1871--1900)*
मुनिश्री माणकचंदजी केलवा के वासी और गोत्र से हींगड़ थे।
*उन्होंने सं.1871 में पूर्ण वैराग्य से दीक्षा ग्रहण की।*
🚥🔸🚥🔸🚥🔸🚥🔸
🙏मुनिश्री प्रकृति से भद्र थे।साधना में रत होकर सकुशल संयम-यात्रा कि निर्वहन करने लगे।
🙏मुनिश्री ने शीतकाल में शीत सहन किया और उष्णकाल में आतापना ली।आपने तपस्याएं भी बहुत की।
🙏 *ऊपर में आपने आछ के आगार से चौमासी तप किया।* यह तप आपने सं. 1877 में मुनिश्री स्वरूपचंदजी(62) के सानिध्य में पुर में किया।
🙏 *सं. 1900 में लावा में आपका स्वर्गवास हुआ।*
🙏 *ओम अर्हम्* 🙏
*श्रंखला - 25*
. *।।अर्हम्।।* .
*जय भिक्षु जय महाश्रमण*
*मुनिश्री रतनजी ( लावा )*
*दीक्षा क्रम: 74 / 2 / 25*
*संयम पर्याय*
(सं.1873 से सं. 1917 तक)
*मुनिश्री रतनजी मेवाड़ में लावा सरदारगढ़ के वासी और गोत्र से बंवलिया(ओसवाल)थे।उनकी पत्नी का नाम पेमांजी था।वे सम्पन्न परिवार से थे।साधु-साध्वियों के संपर्क से रतनजी एवं पेमांजी(पति-पत्नी)को वैराग्य भावना उत्पन्न हुई और दीक्षा के लिए उद्यत हुए।*
रतनजी के बड़े भाई फतेहचंदजी दृढ़धर्मी और समझदार श्रावक थे।उन्होंने और सभी परिवार ने सोल्लास आज्ञा प्रदान की।फतेहचंदजी द्वारा निवेदन करवाने पर मुनिश्री हेमराजजी स्वामी सिरियारी से विहार कर सं.1873 मृगसर कृष्णा 5 को लावा पहुंचे। *मुनिश्री हेमराजजी स्वामी ने मृगसर कृष्णा 6 को रतनजी, उनकी पत्नी पेमांजी और अमिचन्दजी "गलूंड" को दीक्षा प्रदान की।*
*☝️भैक्षव-शासन में दम्पति दीक्षा का यह प्रथम अवसर था।*
🙏मुनिश्री ने साधनारत होकर ज्ञानाभ्यास किया।आगमों के पठन के साथ तत्व-चर्चा की अच्छी धारणा की।तपश्चर्या भी बहुत की।
*भाग्य-योग से "रत्न" को रत्न मीले चार।*
*मनो-मनोरथ हो गये जिसमें सब साकार।।*
*जिससे सब साकार प्रथम मानव भव पाया।*
*जैन धर्ममय रत्न दूसरा कर में आया।*
*चरण रत्न था तीसरा चौथा अनशन सार।*
*भाग्य योग से"रत्न"को रत्न मिले हैं चार।।१।।*
*जय-युग में मुनि "रत्न" ने सफल किया अवतार।*
*कलियुग में दिखला दिया सतयुग का आकार।*
*सतयुग का आकार नया इतिहास बनाया।*
*अनशन क्रम में नाम अमर उनका हो पाया।*
*बने रहेंगे संघ के "रत्न" ह्रदय के हार।*
*भाग्य योग से "रत्न" को रत्न मिले हैं चार।।८।।*
🚥🔸🚥🔸🚥🔸🚥🔸
*🙏अविस्मरणीय अनशन🙏*
*मुनिश्री ने 44 वर्ष लगभग साधु-पर्याय का पालन किया।आखिर सं. 1917 माघ कृष्णा 10 को आमेट में शारीरिक शक्ति होते हुए भी उच्चतम भावों से आजीवन तिविहार अनशन स्वीकार किया।*
☝️ज्यों-ज्यों दिन निकलते त्यों-त्यों उनका मनोबल दृढ़ और भावना उत्तरोत्तर बढ़ती गई।उन्हीं दिनों नाथद्वारा के प्रमुख श्रावक फौजमलजी तलेसरा ने मुनिश्री के दर्शन किये और पूछा-- *"आपके भाव कैसे हैं?"*मुनिश्री ने फरमाया-- *"वज्र की दीवार के समान मेरा मन मजबूत है।"*
*क्रमशः 49 दिन का अनशन सम्पन्न कर फाल्गुन शुक्ला 13 सं.1917 को आमेट में मुनिश्री ने पण्डित-मरण प्राप्त किया।*
मेघराज जी बोरदिया पुर वालों के भी आपके संथारे निमित्त 20 दिन का तप हो गया।
*🙏मुनिश्री के अनशन से जैन शासन की बहुत प्रभावना हुई।कलियुग में सतयुग की सी रचना देखकर जनता आश्चर्यचकित हो गई।*
☝️ *मुनिश्री का 49 दिन के संथारे से उस समय तक तेरापंथ धर्मसंघ में साधुओं में "अनशन का नया कीर्तिमान" स्थापित हुआ।*
☝️इससे लगभग 60 वर्ष पूर्व साध्वीश्री गुमानाजी "तासोल" वालों के 60 दिन का अनशन आया जो सर्वाधिक था।
🙏मुनिश्री के दिवंगत होने के 17 दिन बाद *श्रीमद्जयाचार्य ने उनके गुणोत्कीर्तन की एक गीतिका में फरमाया...*
*रत्न चिंतामणि सारखो रे ,*
*रत्न ऋषि सुखकार ।*
*भजन करो भवियण सदा रे ,*
*समरण जय जयकार।।*
*🙏🙏।।ओम अर्हम् ।।🙏🙏*
🚥🌞🚥🌞🚥🌞🚥🌞
*श्रंखला - 26*
. *।।अर्हम्।।* .
*जय भिक्षु जय महाश्रमण*
. 2️⃣6️⃣ .
*मुनिश्री अमीचन्दजी गलूंड*
*दीक्षा क्रम: 75 / 2 /26*
*संयम -- पर्याय*
(सं.1873 से सं.1887 तक)
मुनिश्री अमीचन्दजी मेवाड़ में गलूंड के वासी थे।उनकी जाति ओसवाल और गोत्र आंचलिया था।उनकी शादी हुई।उनके एक पुत्र भी हुआ। *आपका उपनाम कालूरामजी था।*
समयान्तर से साधु-साध्वियों से उद् बोधन पाकर वे दीक्षा लेने के लिए कटिबद्ध हुए। *पत्नी और पुत्र को छोड़कर सं.1873 मृगसर कृष्णा 6 को लावा सरदारगढ़ में मुनिश्री हेमराजजी स्वामी से संयम ग्रहण किया।*
*🙏मुनिश्री एक उच्चकोटि के साधक हुए।* उन्होंने आचार-विचार की कुशलता के साथ विनय ,विवेक आदि गुणों में अधिकाधिक वृद्धि की। *उनका त्याग-विराग जन-जन को आकृष्ट करने वाला था।*
*●आपने उपवास से दस दिन तक का चौविहार लड़ीबद्ध तप किया*
*●सेलड़ी की वस्तु(जिस पदार्थ में गुड़,शक्कर, चीनी आदि मिले हो) का आजीवन त्याग कर दिया।*
*●आपने शीतकाल में बहुत शीत सहन किया*(शीतकाल में जहाँ ओढंने-बिछाने पर भी कंप-कम्पी नहीं मिटती वहाँ आप उतरीय पछेवड़ी हटाकर पिछली रात में एक-एक प्रहर तक दरवाजे के सामने खड़े-खड़े अभिग्रह संकल्प के साथ ध्यान, जप करते)
*●उष्णकाल में बहुत आतापना ली।* ( प्रायः धूप आतापना लेते, सूर्य तापी तपते, गरम-गरम पत्थर शिला-पट पर लेटकर ध्यान योग साधते)
*●वर्षाकाल में दंस-मंस परिषह-विजय का अभ्यास करते*(शरीर पर बैठे किसी मक्खी, मच्छर, चींटी आदि को नहीं हटाते)
*🙏सर्दी-गर्मी-वर्षा ऋतु में घोरतम परिषह आप स्वेच्छा से सहिष्णुता के अभ्यास में किया करते।समत्व की साधना के लिए करते।*
*प्रायः चिंतन करते---*
*☝️यह कष्ट मेरे को होता है या शरीर को?*
*☝️क्या मैं शरीर हूँ?*
*अन्तर्मन से समाधान मिलता---*
*☝️मैं भिन्न हूँ। मेरा शरीर भिन्न है।*
*यह देखने के लिए कि कैसे भिन्न है! इस चिंतन योग में वे "तप प्रयोग करते।*
*●विविध प्रकार के अभिग्रह, कायोत्सर्ग तथा ध्यान स्वाध्याय आदि के द्वारा संयमी जीवन को तपे हुए सोने की तरह चमकाया।* (14वर्षों के साधनाकाल में बिना अभिग्रह कभी आहार नहीं लिया।जिस दिन अभिग्रह नहीं फलता उस दिन निर्जल उपवास कर लिया करते)
*●श्रीमद्जयाचार्य ने आपको "भगवान महावीर के अंतेवासी" एवं महान् तपस्वी संत "धन्ना अणगार की उपमा" प्रदान की।* (भगवान महावीर के युग में तपस्वी धन्ना अणगार हुए, दूसरा धन्ना इस दुषम आरे में प्रकट हुआ लगता है)
*महातपस्वी अमीचन्दजी का व्यवस्थित "तप विवरण" नहीं मिलता पर श्रीमद्जयाचार्य ने "हेम-नवरसा" जैसे ग्रंथ में आपके लिए लिखाहै...*
*"विकट तप्त खंखर देह कीधी"*
( तपस्वी ने विकट तप से तपाकर शरीर को "कंकाल जैसा" बना दिया )
*"तप-रूप सुधा वृष्टि बरषै"*
(जिनके नभ-कुप से तप-रूपी अमृत बूंदें झरती है)
*"घोर तप सुणी काया धड़कै"*
(उनके कठोर घोर-तप को सुनकर ही शरीर थर-थरा उठता है)
*"चिंतामणी"- "सुरतरु" समो ,*
*भीम-अमीं दु:ख भंजन।*
*निश्चल तन-मन स्यूं रट्यां ,*
*सुख पामै सुप्रसन्न।।*
*तपस्वी भीम का जाप इच्छापूर्ति*
. *और* .
*तपस्वी अमीचन्द का स्मरण प्रसन्नता, आत्मसुख देनेवाला है*
*तन-मन को स्थिर कर उनका भजन करो*
🙏इस तरह श्रीमद्जयाचार्य के ह्रदय में मुनिश्री अमीचन्दजी का विशेष स्थान था।
🚥🔸🚥🔸🚥🔸🚥🔸
*महातपस्वी का महाप्रयाण*
. 🙏 .
*मुनिश्री अमीचन्दजी ने बोरावड़ में एक साथ 15 दिन चौविहार करने का प्रत्याख्यान किया जिसमें तीन दिन पानी पीने का आगार रखा।तीसरे दिन प्यास अधिक लगी,फीर भी पानी नहीं पीया और उसी दिन उर्ध्व भावों के साथ समाधि पूर्वक पंडित-मरण प्राप्त कर गये।*
विघ्नहरण की ढ़ाल के पंचाक्षर-- *'अ भी रा शि को'* में मुनिश्री का प्रथम नाम है।
*ऊँ अ भी रा शि को नमः*
(कम से कम 27 बार अवश्य जप करें)
*🙏🙏ओम अर्हम्🙏🙏*
*श्रंखला - 27*
. *।।अर्हम्।।* .
*जय भिक्षु जय महाश्रमण*
. 2️⃣7️⃣ .
*मुनिश्री हीरजी (चंगेरी)*
*[ दीक्षा क्रम--76/2/27 ]*
. *संयम पर्याय* .
( सं.1874 से --सं. 1893 )
मुनिश्री हीरजी मेवाड़ प्रदेश में *चंगेरी ग्राम के वासी थे।* आपके पिता का नाम नानजी और माता का नाम नाथांजी था।आप जाति से ओसवाल तथा गोत्र से *रणधीरोत कोठारी* थे। उनकी पत्नी का नाम कमलूजी था।
*नार सहित व्रत आदर् यो हो,*
*छोड पुत्र परिवार।*
*कमलू कमला सारिखी हो,*
*सील गुणे सिणगार।।*
मुनिश्री हीरजी तथा उनकी पत्नी कमलूजी(94) ने पुत्र एवं परिवार को छोड़कर *पूर्ण वैराग्य से संवत् 1874 में दीक्षा ग्रहण की।* मुनिश्री बड़े सुविनयी और सेवाभावी संत थे।उन्होंने भारीमालजी स्वामी की अन्तिम समय में अच्छी सेवा की।मुनिश्री खेतसीजी की भी आखिरी समय में बड़ी तन-मन से परिचर्या की।
🚥🔸🚥🔸🚥🔸🚥🔸
*🙏 तप--विवरण 🙏*
*मुनिश्री के 1️⃣8️⃣ चातुर्मासों में हुई बड़ी तपस्या का विवरण...*
1️⃣ सं.1875 कांकरोली में आचार्यश्री भारीमालजी के सानिध्य में *16 दिन का तप किया।*
2️⃣ सं. 1876 आमेट में *58 दिन का तप किया।*
3️⃣ सं.1877 नाथद्वारा चातुर्मास में आषाढ़ महिने सहित *8 ,31 और 82 दिन का तप आचार्यश्री भारीमालजी के सानिध्य में किया।*
4️⃣ सं.1878 केलवा में आचार्यश्री भारीमालजी के सानिध्य में *31 दिन का तप किया।*
5️⃣ सं.1879 पाली में आचार्यश्री ऋषिरायजी के सानिध्य में *67 दिन का तप किया।*
6️⃣ सं. 1880 जयपुर में आचार्यश्री ऋषिरायजी के सानिध्य में *24 दिन का तप किया।*
7️⃣ सं. 1881बीलाड़े में *61 दिन का तप किया।*
8️⃣ सं.1882 में पादू में आषाढ़ महिने सहित *135 दिन का तप किया।*
9️⃣ सं.1882 के ज्येष्ठ मास में आचार्य श्री रायचन्दजी मोखुण्दा में विराज रहे थे।वहाँ उन्होंने तपस्या के लिए साधुओं को विशेष प्रेरणा दी।तब *मुनिश्री पीथलजी(56), मुनिश्री वर्धमानजी(67) तथा मुनिश्री हीरजी ने परस्पर सलाह करके ऋषिराय से प्रार्थना की कि हमारा तपस्या करने का विचार है।*
गुरूदेव ने फरमाया-- *"क्या तपश्चर्या करने की इच्छा है?"*
तीनों संत बोले-- *"जो आपकी इच्छा हो वह तप करने को तैयार हैं।*
ऋषिराय ने प्रसन्नमुद्रा में फरमाया-- *"यह कार्य तो तुम्हारा है।मैं तो क्षेत्र संबंधी सुविधा तथा सहयोगी साधुओं की उचित व्यवस्था कर सकता हूँ।"*
☝️तब तीनों मुनिश्री ने सविनय बद्धांजली *छह मासी पचखाने की प्रार्थना की।"*
🙏आचार्य श्री ने उनकी प्रबल भावना देखकर उन्हें *एक साथ आछ के आगार से छह माह का प्रत्याख्यान करवा दिया।*
🙏आचार्य श्री ने सं.1883 का चातुर्मास मुनिश्री हीरजी का राजनगर फरमाया।आचार्य श्री उदयपुर चातुर्मास सम्पन्न कर कांकरोली पधारे और मुनिश्री पीथलजी का 186 दिन का पारणा कराया। *उसी दिन आचार्य श्री ने राजनगर पधार कर मुनिश्री हीरजी को 186 दिन का पारणा कराया।* वहाँ से दूसरे दिन केलवा पधारे और मुनिश्री वर्धमानजी को 187 दिन का पारणा कराया।
*तेरापंथ धर्मसंघ में इससे पहले छहमासी तप नहीं हुआ था।*
1️⃣0️⃣ सं.1884 कानोड़ में आषाढ़ महिने सहित *चौमासी तप किया।*
1️⃣1️⃣ सं.1885 गोगुन्दा में *186 दिन का तप किया।*
1️⃣2️⃣ सं.1886 उदयपुर में *11 दिन का तप किया।*
1️⃣3️⃣ सं.1887 कानोड़ में *126 दिन का तप किया।*
1️⃣4️⃣ सं.1888 बीदासर में *62 दिन का तप किया।*
1️⃣5️⃣ सं.1889 आमेट में *51 दिन का तप किया।*
1️⃣6️⃣ सं.1890 उदयपुर में *11 दिन एवं पंचोले आदि बहुत किये।*
1️⃣7️⃣ सं. 1891पुर में *75 दिन का तप किया तथा 5 ,8 और 12 दिन का तप किया।*
1️⃣8️⃣ सं.1892 जयपुर में *18 दिन का तप तथा पंचोले, चोले,तेले आदि बहुत किये।*
(इन तपस्याओं में कईं तप आछ के आगार से एवं कईं तप पानी के आगार से किये)
*चातुर्मासों के शेषकाल में भी उन्होंने बहुत तपस्याएं की*
🚥🔸🚥🔸🚥🔸🚥🔸
*सं. 1893 में मुनिश्री का अन्तिम चातुर्मास ऋषिराय के साथ पाली में था।पास में खेरवा में साधुओं का चातुर्मास था।चातुर्मास में कारणवश मुनिश्री हीरजी पाली से खेरवा गये।वहाँ शारीरिक वेदना होने से उन्होंने तेला किया और तेले में अकस्मात देवलोक हो गये।*
. 🙏 .
*श्रीमद्जयाचार्य ने मुनिश्री हीरजी को...*
*"महा तपस्वी मुनि कोदरजी का मित्र"*
कहा है..
*बड़ तपसी कोदर तणो हो,*
*मित्र हीर हद प्यार।*
*दोनूं ऋष गुण आगला,*
*कहिता न लहै पार।।*
*🙏🙏ओम अर्हम्🙏🙏*
. *।।अर्हम्।।* .
*जय भिक्षु जय महाश्रमण*
. 2️⃣9️⃣ .
*मुनिश्री शिवजी (लावा)*
*【 78 / 2 / 29 】*
*संयम पर्याय*
( सं. 1875----1911)
*मुनिश्री शीवजी मेवाड़ प्रदेश में "लावा सरदारगढ़" के वासी, जाति से ओसवाल और गोत्र से बाफणा थे।उन्होंने सं.1875 में आचार्य श्री भारीमालजी के कर कमलों से चारित्र ग्रहण किया।*
मुनिश्री शिवजी बड़े विरागी, प्रकृति से कोमल, विनयी, *उच्च साधक एवं उग्र तपस्वी* हुए।उन्होंने संयम की आराधना के साथ साधना का अनूठा अभियान चालू किया। आपने अग्रणी होकर मारवाड़, मेवाड़, ढूंढाड़, हाड़ौती, मालव तथा हरियाणा के क्षेत्रों में विहरण किया।
*उनकी तपस्या के लम्बे आंकड़े*
☝️ *आश्चर्यजनक,*
☝️ *जन-जन को विस्मित करनेवाले और*
☝️ *भगवान महावीर के युग की याद दिलाने वाले है।*
🚥🔸🚥🔸🚥🔸🚥🔸
*लोह लेखिनी से लिखूं शिव मुनि का तप घोर।*
*लम्बे चौडे़ आंकड़े जोड़ सुनाऊं और।।*
*वज्रोपम सीना किया मन दृढ़ मेरू समान।*
*पाई वश कर इन्द्रियाँ रसना-विजय महान।।*
*लगे चलाने देह पर तप-तलवार सजौर।*
*लोह लेखिनी से लिखूं शिव मुनि का तप घोर।।*
👏 👏 👏 👏
*महातपस्वी शिवजी "लावा" का*
*🙏🙏तप विवरण🙏🙏*
🚥🔸🚥🔸🚥🔸🚥🔸
☝️पढ़ें समझे और कर्म निर्जरा करें☝️
*उपवास* ---- 414 बार किये।
*बेला तप* ---- 22 बार किया।
*तेला तप* ---- 34 बार किया।
*चोला तप* ---- 8 बार किया।
*पंचोला तप*--- 11 बार किये।
*छह का तप* --- 7 बार किया।
*सात का तप* ---3 बार किया।
*अट्ठाई तप छह बार किये।*
*नौ का तप* --- 3 बार किया।
*10 का तप* --- 3 बार किया।
*11 का तप* ---- 3 बार किया।
*12 का तप* ---- 3 बार किया।
*13 का तप* ---- 2 बार किया।
*14 का तप* ---- 3 बार किया।
*15 का तप* ---- 3 बार किया।
*16 का तप* ---- 2 बार किया।
*20 का तप* ---- 2 बार किया।
*मासखमण तप "बारह बार" किये।*
*32 का तप 1 बार किया।*
*36 का तप 2 बार किया।*
*40 का तप 1 बार किया।*
*45 का तप नौ बार किया।*
*50 का तप 2 बार किया।*
*55 का तप 1 बार किया।*
*60 का तप पाँच बार किया।*
*75 का तप भी 2 बार किया।*
*90 का तप एक बार किया।*
*(पानी के आगार से)*
*👏एक बार आपने छहमासीतप(186दिन) भी सं.1886 में आछ के आगार से किया।*
🙏श्रीमद्जयाचार्य ने *"विध्नहरण की ढ़ाल"* में मुनि शिवजी का स्मरण करते हुए गाथा 11, 12 में लिखा है----
*शिव वासी लावा तणो,तप गुण राशि उदारी हो।*
*आस्वासी निज आतमा, षटमासी लगधारी हो।*
*शीतकाल मझारी हो सह्यो शीत अपारी हो।*
*उष्ण शिला तथा रेत नी,आतापना अधिकारी हो।*
*तप वर्णन चोमासा तणो,सुणता इचरजकारी हो।*
*🙏गुण निष्पन्न नाम भारी हो🙏*
🚥🔸🚥🔸🚥🔸🚥🔸
🙏👏 👏 👏 👏👏 🙏
*ऊँ अ भि रा शि को नम:*
🚥🔸🚥🔸🚥🔸🚥🔸
*मुनिश्री का सं.1911का अन्तिम चातुर्मास पेटलावद में था।चातुर्मास के बाद वे विहार कर झकनावदा पधारे।वहाँ मुनिश्री अनोपचंदजी(114) ने छहमासीतप तप किया जिसका पारणा करवाने जयाचार्य स्वयं पधारे थे।उस तप के साथ आपने 8 का तप किया पारणा साथ में ही हुआ।*
🙏झकनावदा से विहार कर राजगढ़ पधारे।वहाँ आप अत्यधिक अस्वस्थ हो गये।मुनिश्री जयचंदजी(132) उनको उठाकर वखतगढ़ लाये।उन्होंने उस घोर वेदना को समभाव से सहन किया।
*पंचोला अंतिम किया धर साहस अनपार।*
*दिवस पारणे को लिया शिव ने अल्पाहार।*
*शिव ने अल्पाहार निशा में स्वर्ग सिधाये।*
*रच जय ने संगीत गीत मुनि के गुण गाये।*
. 🙏 .
*विघ्नहरण की ढ़ाल पढ़*
*स्मरण करो उठ भोर।*
*लोह लेखिनी से लिखूं*
*शिव मुनि का तप घोर।।*
*🙏मुनिश्री सं.1911 चैत्र शुक्ला 7 को रात्रि के समय अचानक दिवंगत हो गये।दूसरे दिन लोगों ने बड़ी उमंग से उनका चरमोत्सव मनाया।*
*🙏🙏ओम अर्हम्🙏🙏*
*लिखने में त्रुटि रही हो तो क्षमाप्रार्थी हूँ।*
प्रस्तुति :-- ग्रूप के सदस्य *सुरेश चन्द्र जी बोरदिया के द्वारा*
🙏🙏
*श्रंखला - 30*
., *।।अर्हम्।।* .
*जय भिक्षु जय महाश्रमण*
. 3️⃣0️⃣ .
*मुनिश्री भैरजी (देवगढ़)*
*【79 / 2 / 30 】*
संयम पर्याय सं.1875--1925
मुनिश्री आचार क्रिया में कुशल,प्रकृति से सरल,विनयी,विवेकी और सेवाभावी हुए। *उनकी आकृति में सौंदर्य और वाणी में मिठास था।अन्य मतावलम्बी भी उनके दर्शन कर बड़े प्रभावित होते।* गण से बहिर्भूत साधु(टालोकरों) के श्रावक भी उन्हें *सीमंधर स्वामी की उपमा देकर मुक्त स्वर स्तवना गाते।*
*सौम्य-मूर्ति के दर्शन करके,*
*स्व-पर-मती हरषाते।*
*सीमंधर स्वामी की उपमा,*
*देकर स्तवना गाते।।*
. 🙏 .
*मुनिश्री बड़े त्यागी एवं तपस्वी हुए।*
👇 👇 👇 👇 👇
*■उन्होंने उपवास से बाइस तक लड़ीबद्ध तप किया।*
*■अनेक बार मासखमण तप किये।*
( संख्या उपलब्ध नहीं है )
*उदक व आछ के आगार से*
➖ ➖ ➖ ➖ ➖ ➖
*■दो मासी तप किया,*
*■अढा़ई मासी तप किया और*
*■तीन मासी तप किया।*
*इनके अतिरिक्त
*■तेईस चातुर्मासों में एकान्तर तप किये।*
*■शीतकाल में शीत सहन किया*
*■और उष्णकाल में आतापना ली।*
👏 👏 👏 👏 👏
*प्रबल पराक्रम से तोड़ा है,*
*भव बंधन का खंभा।*
*सकुशल साल पचास संयमी,*
*जीवन जीया लम्बा।।*
*..............🙏..............*
*मुनिश्री भैरजी ने लगभग पचास साल संयम की सानंद आराधना की।सं.1925 मृगसर महीने में चार दिन की तपस्या में लाडनूं में दिवंगत हुए।*
*🙏ओम अर्हम्🙏*
🚥🔸🚥🔸🚥🔸🚥🔸
प्रस्तुति :-- ग्रूप के सदस्य *सुरेश चन्द्र जी बोरदिया के द्वारा*
*श्रंखला - 34*
. *।।अर्हम्।।* .
*जय भिक्षु जय महाश्रमण*
. 3️⃣4️⃣ .
*मुनिश्री सतीदासजी "शान्ति"*
*【 84 | 2 | 35 】*
(संयम पर्याय..सं.1877--1909)
*मुनिश्री सतीदासजी मेवाड़ प्रदेश में गोगुंदा(मोटागांव) के निवासी, जाति से ओसवाल और गोत्र से वरल्या बोहरा "कोठारी" थे।आपके पिता का नाम बाघजी और माता का नाम नवलांजी था।आपका जन्म सं.1861 में हुआ।वे तीन भाई और उनके दो बहिने थी।*
*सतीदासजी प्रकृति से शान्त और कोमल थे।माता-पिता ने छोटी उम्र में ही निकटस्थ रावलिया गांव में उनकी सगाई कर दी।*
सं.1873 में द्वितीयाचार्य श्री भारीमालजी श्रमण परिवार से गोगुन्दा पधारे।गुरूदेव के मुखारविन्द को देखकर 12वर्षीय बालक सतीदासजी अत्यंत प्रभावित हुए और मुनिश्री पीथलजी(56)के पास तत्वबोध करने लगे।उनमें धर्म के अंकुर पनपने लगे और साधु-साध्वियों के सानिध्य में अधिक रस लेने लगे।
*सं.1874 में मुनिश्री हेमराजजी स्वामी आदि 9 साधुओं का चातुर्मास गोगुंदा में हुआ।उनके साथ मुनिश्री जीतमलजी(जयाचार्य)थे।सतीदासजी ने जय मुनि के तत्वावधान में अध्ययन करना चालू किया। कुछ दिनों में अनेक बोल थोकड़े सीखे।उन्होंने प्रछन्न रूप में मुनिश्री जीतमलजी द्वारा..*
*(1)आजीवन अब्रह्मचर्य सेवन और*
*(2)व्यापार करने का परित्याग कर दिया।*
☝️लज्जालु प्रकृति होने से वे अपने विचार अभिभावक जन के सम्मुख रखने में संकोच करने लगे।माता-पिता आदि का उनके प्रति अत्यधिक स्नेह था अतः बिना मांगे वे दीक्षा की अनुमति दे ऐसा सम्भव नहीं था। सं.1875 में सतीदासजी के पिताजी का देहांत हो गया।
सं.1876में मुनिश्री हेमराजजी स्वामी विचरण करते हुए ग्रीष्म-ऋतु में पुनः गोगुंदा पधारे।मुनिश्री जीतमलजी ने सतीदासजी को सुझाव दिया कि तुम अपने स्वीकृत दोनों नियमों को प्रकट कर दो।उन्होंने उचित अवसर देख अपनी बात प्रकट कर दी।सभी को बहुत आश्चर्य हुआ।
सतीदासजी को दीक्षा की अनुमति के लिए अनेक प्रकार के कष्टों का सामना करना पड़ा,फिर भी वे अपने लक्ष्य से किंचिद् मात्र विचलित नहीं हुए।एक दिन मोहवश मां ने कहा--- *"पुत्र ! तूं शादी करना मंजूर कर ले,वरना मैं कुएं में गिरकर मरती हूं।यह कहते हुए माता ने उस ओर कदम भी उठा लिया।मन न होते हुए भी सतीदासजी को विवाह की स्वीकृति देनी पड़ी।*
सतीदासजी ने प्रारंभिक बनोले में परिवार वालों के घर जाकर खाना खाया परन्तु मन में हिचकिचाहट रही।संध्या के समय श्रावकों के साथ सामायिक करने लगे।उस समय उनका वार्तालाप सुना-- *"जो व्यक्ति नियम लेकर तोड़ देता है वह महापाप का भागी बनता है और उसे नरक निगोद आदि का दु:ख सहन करना पड़ता है।* सतीदासजी ने सुना तो उनका दिल कांपने लगा।उन्होंने दृढसंकल्पित हो परिणय करने का साफ मना कर दिया।
☝️लगभग तीन वर्ष पश्चात विवश होकर ज्ञातिजनों को सहमत होना पड़ा।अभिभावक जन ने आज्ञा पत्र लिख दिया।पारिवारिक जन ने बड़ी धूमधाम से उनका दीक्षोत्सव मनाना प्रारम्भ किया। *विवाह की बनोरियां दीक्षा रूप में परिणत हो गई।*
*🙏सतीदासजी ने 16 वर्ष की अविवाहित वय में माता, भाई,बहन आदि विपुल परिवार तथा बहुत ऋद्धि को छोडकर सं.1877 माघ शुक्ला 5 बुद्धवार को गोगुंदा में आम्रवृक्ष के नीचे मुनिश्री हेमराजजी स्वामी के कर-कमलों से संयम ग्रहण किया।*
मुनिश्री हेमराजजी स्वामी ने उसी दिन वहाँ से विहार किया और शीघ्र राजनगर में आचार्य श्री भारीमालजी के दर्शन खर नव दीक्षित मुनि को गुरु चरणों में समर्पित किया।दीक्षा के सात दिवस बाद स्वयं आचार्य श्री ने सतीदासजी को बड़ी दीक्षा दी एवं पुनः मुनिश्री हेमराजजी स्वामी को सौंप दिया।
*दीक्षित होने के पश्चात मुनिश्री सतीदासजी "शांति" नाम से भी पुकारे जाने लगे।शांति मुनि को भिक्षु-शासन जैसा शांति निकेतन एवं भिक्षु-शासन को शांति मुनि जैसै शान्ति प्रधान सदस्य मिले--इसको एक मणिकांचन योग व विधि का विचित्र संयोग ही समझना चाहिए।*
मुनिश्री सतीदासजी "शांति" ने लगभग 27 वर्षों तक मुनिश्री हेमराजजी स्वामी की तन्मयता से सेवा-भक्ति कर उनके मन में विविध प्रकार की समाधि उत्पन्न की। सं.1904 ज्येष्ठ शुक्ला 2 को सिरियारी में मुनिश्री हेमराजजी स्वामी के स्वर्गस्थ होने के बाद आचार्य श्री रायचन्दजी ने छह साधुओं से शान्ति मुनि का सिंघाड़ा किया।सं.1878 से सं.1904 तक के चातुर्मास मुनिश्री हेमराजजी स्वामी के साथ किये।
*सं.1905का चातुर्मास पीपाड.में..*
●शान्ति मुनि के पंचोला
●मुनिश्री उदयचंदजी(95) ने 46 दिन का तप पानी के आगार से किया।
●मुनिश्री दीपचन्दजी(149) ने 31 दिन का तप किया।
*सं.1906 का 9 साधुओं से पाली में चातुर्मास किया*
●मुनिश्री उदयचंदजी(95)ने 30 दिन का तप किया।
●मुनिश्री दीपचन्दजी ने क्रमशः 18 , 8 ,9 दिन का तप किया।
*सं.1907 का आठ साधुओं से बालोतरा चातुर्मास किया*
●शांति मुनि ने पंचोला किया।
●मुनिश्री उदयचंदजी ने 35 दिन का तप किया।
●मुनिश्री दीपचन्दजी ने आछ के आगार से 81 दिन का तप किया।
*सं.1808 में 8 साधुओं से पचपदरा चातुर्मास किया*
●मुनिश्री उदयचंदजी ने पानी के आगार से 40 दिन का तप किया।
●मुनिश्री दीपचन्दजी ने आछ के आगार से 31 दिन का तप किया।
*इस चातुर्मास में शांति मुनि अस्वस्थ हो गये।अढा़ई महीने करीब बुखार रहा।वेदना बड़े समभाव से सहन की।*
सं.1908 माघ वदी 14को रावलियां में तृतियाचर्य श्री रायचन्दजी का अकस्मात स्वर्गवास हो गया।श्रीमद्जयाचार्य लाडनूं विराज रहे थे।मुनिश्री ने उसी ओर प्रस्थान किया।रास्ते में अनेक सिंघाड़ों का साथ हो गया।अनेक साधुओं के साथ शान्ति मुनि के लाडनूं पधारने की सूचना सुनकर जयाचार्य ने मुनिश्री स्वरूपचंदजी आदि दो साधुओं को उनकी अगवानी के लिए भेजा।शान्ति मुनि ने जयाचार्य के दर्शन किये और भावविभोर होकर चरणों में गिर गये। *"श्रीमद्जयाचार्य ने आत्मीय स्नेह उंडेलते हुए उन्हें हाथ पकड़कर अपने बराबर बाजोट पर बिठा लिया।"* शान्ति मुनि अस्वीकार करते हुए तुरन्त नीचे उतरकर जमीन पर बैठ गये।
*(इस सन्दर्भ में कहा जाता है कि जयाचार्य को रात्रि के समय स्वप्न में आभास हुआ कि ऐसा नहीं करना चाहिए)*
*🙏मुनिश्री बड़े आत्मार्थी, पापभीरु और जागरूक थे।उन्होंने उपवास, बेले, तेले, चोले, पंचोले अनेक बार किये।एक बार सात और दो बार आठ दिनों का तप किया।सं.1898 मेंपाली चातुर्मास में मुनिश्री हेमराजजी स्वामी के सानिध्य में 31 दिन का तप आछ के आगार से किया।उनके छह विगय में से तीन विगय के अतिरिक्त खाने का जीवन पर्यंत त्याग था।दीक्षा से 27 वर्ष तक रात्रि में एक ही पछेवड़ी ओढते।*
*श्रीमद्जयाचार्य ने मुनिश्री सतीदासजी "शांति" का पाँच साधुओं से सं.1909 का चातुर्मास बीदासर के लिए घोषित किया।बीदासर चातुर्मास में...*
●शांति मुनि ने पंचोला किया।
●मुनिश्री उदयचंदजी ने पानी के आगार से 56 दिन का तप किया।
●मुनिश्री दीपचन्दजी ने पंचोला, आठ और 13 दिन का तप पानी के आगार से तथा 61 दिन का तप आछ के आगार से किया।
*शेष भाग अगली पोस्ट में...*
प्रस्तुति :-- ग्रूप के सदस्य *सुरेश चन्द्र जी बोरदिया के द्वारा*
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*सोने से पहले पोरसी या नवकारसी आने तक त्याग जरूर करे।*
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