पार्श्वनाथ भगवान् का इतिहास व प्रश्न
*श्री पार्श्वनाथ भगवान् का इतिहास*
_*च्यवन : चैत्र वदी ४*_
_*जन्म : पोष वदी १० वाराणसी*_
_*दीक्षा : पोष वदी ११ काशीनगरी*_
_*केवलज्ञान : चैत्र वदी ४ काशीनगरी*”_
_*निर्वाण : श्रावण सुदी ८ श्री सम्मेदशिखरजी, माक्ष क्षमण तप -कार्योत्सर्ग अवस्था में*_
इसी जम्बूद्वीप के दक्षिण भरतक्षेत्र में एक सुरम्य नाम का बड़ा भारी देश है। उसके पोदनपुर नगर में अतिशय धर्मात्मा अरविन्द राजा राज्य करते थे। उसी नगर में विश्वभूति ब्राह्मण की अनुन्धरी ब्राह्मणी से उत्पन्न हुए कमठ और मरुभूति नाम के दो पुत्र थे जोकि क्रमश: विष और अमृत से बनाये हुए के समान मालूम पड़ते थे। कमठ की स्त्री का नाम वरुणा तथा मरुभूति की स्त्री का नाम वसुन्धरा था। ये दोनों ही राजा के मन्त्री थे। एक समय किसी राज्यकार्य से मरुभूति बाहर गया था तब कमठ मरुभूति की स्त्री वसुन्धरा के साथ व्यभिचारी बन गया। राजा अरविंद को यह बात पता चलते ही उन्होंने उस कमठ को दण्डित करके देश से निकाल दिया। वह कमठ भी मानभंग से दु:खी होकर किसी तापस आश्रम में जाकर हाथ में पत्थर की शिला लेकर कुतप करने लगा। भाई के प्रेम के वशीभूत हो मरूभूति भी कमठ को ढूंढ़ता हुआ उधर चल पड़ा। उसे आते देख क्रोध के आवेश में आकर कमठ ने वह हाथ की शिला उसके सिर पर पटक दी जिससे मरुभूति मरकर सल्लकी वन में वङ्काघोष नाम का हाथी हो गया। किसी समय अरविन्द ने विरक्त होकर राज्य छोड़ दिया और संयम धारणकर सब संघ की वंदना के लिये प्रस्थान किया। चलते-चलते वे उसी वन में पहुँचकर सामायिक के समय प्रतिमायोग से विराजमान हो गये। वह हाथी संघ में हाहाकार करता हुआ अरविन्द महाराज के सन्मुख आकर मारने के लिए दौड़ा, तत्क्षण ही उनके वक्षस्थल में वत्स के चिन्ह को देखते ही उसे पूर्वभव के संबंध का स्मरण हो आया, तब वह पश्चाताप से शांत होता हुआ चुपचाप खड़ा रहा। अनंतर अरविन्द मुनिराज ने उसे धर्मोपदेश देकर श्रावक के व्रत ग्रहण करा दिये। उस समय से वह हाथी पाप से डर कर दूसरे हाथियों द्वारा तोड़ी हुई वृक्ष की शाखाओं और सूखे पत्तों को खाने लगा। पत्थरों के गिरने से अथवा हाथियों के समूह के संघटन से जो पानी प्रासुक हो जाता था, उसे ही वह पीता था तथा प्रोषधोपवास के बाद पारणा करता था। इस प्रकार चिरकाल तक महान तपश्चरण करता हुआ वह हाथी अत्यन्त दुर्बल हो गया। किसी दिन वह हाथी पानी पीने के लिए वेगवती नदी के किनारे गया और कीचड़ में गिरकर पँâस गया, निकल नहीं सका। वहाँ पर दुराचारी कमठ का जीव मरकर कुक्कुट सर्प हुआ था, उसने पूर्व वैर के संस्कार से उसे काट खाया जिससे वह हाथी महामंत्र का स्मरण करते हुए मरकर बारहवें स्वर्ग में देव हो गया। इधर वह सर्प पाप से मरकर तीसरे नरक चला गया lजंबूद्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में पुष्कलावती देश है उसके विजयार्ध पर्वत पर त्रिलोकोत्तम नगर में राजा विद्युत्गति राज्य करते थे। वह देव का जीव वहाँ से च्युत होकर राजा की विद्युन्माला रानी से रश्मिवेग नाम का पुत्र हो गया। रश्मिवेग ने युवावस्था में समाधिगुप्त मुनिराज के पास दीक्षा लेकर महासर्वतोभद्र आदि श्रेष्ठ उपवास किये। किसी समय हिमगिरि पर्वत की गुफा में योग धारण कर विराजमान थे कि कुक्कुट सर्प का जीव, जो नरक से निकलकर अजगर हुआ था, उसने निगल लिया। मुनि का जीव मरकर सोलहवें स्वर्ग में देव हुआ और कालांतर में अजगर मरकर छठे नरक चला गया l
जंबूद्वीप के पूर्वविदेह सम्बन्धी पद्मादेश में अश्वपुर नगर है। वहाँ के राजा वङ्कावीर्य और रानी विजया के वह स्वर्ग का देव मरकर वङ्कानाभि नाम का पुत्र हुआ। वह पुण्यशाली वङ्कानाभि चक्रवर्ती के पद का भोक्ता हो गया, अनंतर किसी समय विरक्त होकर साम्राज्य वैभव का त्यागकर क्षेमंकर गुरु के समीप जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। कमठ का जीव, जो कि अजगर की पर्याय में मरकर छठे नरक गया था, वह कुरंग नाम का भील हो गया था। किसी दिन तपस्वी चक्रवर्ती वन में आतापन योग से विराजमान थे, उन्हें देखकर उस भील का वैर भड़क उठा, उसने मुनिराज पर भयंकर उपसर्ग किए l
मुनिराज आराधनाओं की आराधना से मरण कर मध्यम ग्रैवेयक में श्रेष्ठ अहमिन्द्र हो गए तथा वह पापी भील आयु पूरी करके पाप के भार से पुन: नरक चला गया। जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में कौशलदेशसम्बन्धी अयोध्या नगरी में काश्यपगोत्री इक्ष्वाकुवंशी राजा वङ्काबाहु राज्य करते थे। उनकी रानी प्रभंकरी थी, वह अहमिन्द्र च्युत होकर रानी के गर्भ से आनंद नाम का आनंददायी पुत्र हो गया। वह बड़ा होकर मंडलेश्वर राजा हुआ। किसी दिन आनंद राजा ने महामंत्री के कहने से आष्टान्हिक महापूजा कराई जिसे देखने के लिए विपुलमति नाम के मुनिराज पधारे। आनंदराज ने उनकी वंदना-पूजा आदि करके उनसे पूछा कि हे भगवन्! जिनेन्द्रप्रतिमा अचेतन है उसकी पूजा से पुण्यबंध वैसे होता है ?
मुनिराज ने कहा-यद्यपि प्रतिमा अचेतन है तो भी महान पुण्य का कारण है जैसे चिंतामणि रत्न, कल्पवृक्ष आदि अचेतन होकर मनचिंतित और मनचाहे फल देते हैं, वैसे ही प्रतिमाओं की वंदना-पूजा आदि से जो शुभ परिणाम होते हैं उनसे सातिशय पुण्य बंध हो जाता है इत्यादि प्रकार से वीतराग प्रतिमा का वर्णन करते हुए मुनिराज ने राजा के सामने तीनलोकसम्बन्धी अकृत्रिम चैत्यालयों का वर्णन करना शुरू किया। उसमें प्रारम्भ में ही सूर्य के विमान में स्थित जिनमंदिर की विभूति का अच्छी तरह वर्णन किया। उस असाधारण विभूति को सुनकर राजा आनन्द को बहुत ही श्रद्धा हो गई। उस दिन से वह प्रतिदिन हाथ जोड़कर मस्तक झुकाकर सूर्यविमान में स्थित जिनप्रतिमाओं की स्तुति करने लगा। उसने कारीगरों द्वारा मणि और सुवर्ण का एक सूर्यविमान बनवाकर उसके भीतर जिनमन्दिर बनवाया। अनन्तर शास्त्रोक्त विधि से आष्टान्हिक, चतुर्मुख, रथावर्त, सर्वतोभद्र और कल्पवृक्ष इन नाम वाली पूजाओं का ‘अनुष्ठान’ किया। ‘‘उस राजा को इस तरह सूर्य की पूजा करते देखकर उसकी प्रामाणिकता से अन्य लोग भी स्वयं भक्तिपूर्वक सूर्यमंडल की स्तुति करने लगे। आचार्य कहते हैं कि इस लोक में उसी समय से सूर्य की उपासना चल पड़ी है।’’ किसी दिन आनन्द राजा ने अपने सिर पर एक सपेâद बाल देखा, तत्क्षण विरक्त होकर पुत्र को राज्य- वैभव देकर समुद्रगुप्त मुनिराज के पास अनेक राजाओं के साथ दीक्षित हो गये। उन्होंने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया और सोलहकारण भावनाओं के चिंतवन से तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया। आयु के अंत समय वे धीर-वीर शांतमना मुनिराज प्रायोपगमन संन्यास लेकर ध्यान में लीन थे। पूर्व जन्म के कमठ का जीव नरक से निकलकर वहीं सिंह हुआ था, सो उसने आकर उन मुनि का कण्ठ पकड़ लिया। सिंहकृत उपसर्ग से विचलित नहीं होने वाले वे मुनिराज मरणकर अच्युत (सोलहवें) स्वर्ग के प्राणत नामक विमान में इन्द्र हो गए। वहाँ पर उनकी आयु बीस सागर की थी, साढ़े तीन हाथ ऊँचा शरीर था। वे वहाँ दिव्य सुखों का अनुभव कर रहे थे। उधर सिंह का जीव भी आयु पूरी करके मरकर नरक चला गया और वहाँ के भयंकर दु:खों का चिरकाल तक अनुभव करता रहा।।
गर्भावतार-इस जंबूद्वीप के भरतक्षेत्रसम्बन्धी काशी देश में बनारस नाम का एक नगर है। उसमें काश्यपगोत्री राजा विश्वसेन राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम ब्राह्मी था। जब उन सोलहवें स्वर्ग के इन्द्र की आयु छह मास की अवशेष रह गई थी, तब इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने माता के आँगन में रत्नों की धारा बरसाना शुरू कर दी थी। रानी ब्राह्मी ने सोलहस्वप्नपूर्वक वैशाख कृष्णा द्वितीया के दिन इन्द्र के जीव को गर्भ में धारण किया था। नवमास पूर्ण होने पर पौष कृष्णा एकादशी के दिन पुत्र का जन्म हुआ था। इन्द्रादि देवों ने सुमेरू पर्वत पर ले जाकर तीर्थंकर शिशु का जन्माभिषेक करके ‘पाश्र्वनाथ’ यह नामकरण किया था। श्री नेमिनाथ के बाद तिरासी हजार सात सौ पचास वर्ष बीत जाने पर इनका जन्म हुआ था। इनकी आयु सौ वर्ष की थी जोकि इसी अंतराल में सम्मिलित है। प्रभु की कांति हरितवर्ण की एवं शरीर की ऊँचाई नौ हाथ प्रमाण थी। ये उग्रवंशी थे।
भाग 5
तप*_
सोलह वर्ष बाद नवयौवन से युक्त भगवान किसी समय क्रीडा के लिये अपनी सेना के साथ नगर के बाहर गये। कमठ का जीव, जो कि सिंहपर्याय से नरक गया था, वह वहाँ से आकर महीपाल नगर का महीपाल नाम का राजा हुआ था। उसी की पुत्री ब्राह्मी (वामा देवी) भगवान पाश्र्वनाथ की माता थीं। यह राजा (भगवान के नाना) किसी समय अपनी पत्नी के वियोग में तपस्वी होकर वहीं आश्रम के पास वन में पंचाग्नियों के बीच में बैठा तपश्चरण कर रहा था। देवों द्वारा पूज्य भगवान उसके पास जाकर उसे नमस्कार किये बिना ही खड़े हो गये। यह देखकर वह खोटा साधु क्रोध से युक्त हो गया और सोचने लगा ‘‘मैं कुलीन हूँ, तपोवृद्ध हूँ और इसका नाना हूँ’’ फिर भी इस अज्ञानी कुमार ने अहंकारवश मुझे नमस्कार नहीं किया है, क्षुभित हो उसने अग्नि में लकड़ियों को डालने के लिए पड़ी हुई लकड़ी को काटने हेतु अपना फरसा उठाया, इतने में ही अवधिज्ञानी भगवान पाश्र्वनाथ ने कहा, ‘‘इसे मत काटो’’ इसमें जीव हैं किन्तु मना करने पर भी उसने लकड़ी काट ही डाली, तत्क्षण ही उसके भीतर रहने वाले सर्प और सर्पिणी निकल पड़े और घायल हो जाने से छटपटाने लगे। यह देखकर प्रभु के साथ स्थित सुभौमकुमार ने कहा कि तू अहंकारवश यह कुतप करके पाप का ही आस्रव कर रहा है। सुभौम के वचन सुन तपस्वी व्रुâधित होकर अपने तपश्चरण की महत्ता प्रकट करने लगा। तब सुभौमकुमार ने अनेक युक्तियों से उसे समझाया कि सच्चे देव, शास्त्र और गुरू के सिवाय कोई हितकारी नहीं है। जिनधर्म में प्रणीत सच्चे तपश्चरण से ही कर्म निर्जरा होती है। यह मिथ्यातप, जीव हिंसा सहित होने से कुतप ही है। यद्यपि वह तापसी समझ तो गया किन्तु पूर्वबैर का संस्कार होने से अपने पक्ष के अनुराग से अथवा दु:खमय संसार के कारण से अथवा स्वभाव से ही दुष्ट होने से उसने स्वीकार नहीं किया प्रत्युत् यह सुभौमकुमार अहंकारी होकर मेरा तिरस्कार कर रहा है, ऐसा समझ वह भगवान पाश्र्वनाथ पर अधिक क्रोध करने लगा। इसी शल्य से मरकर ‘शम्बर’ नाम का ज्योतिषी देव हो गया। इधर सर्प और सर्पिणी कुमार के उपदेश से शांतभाव को प्राप्त हुए तथा मरकर बड़े ही वैभवशाली धरणेन्द्र और पद्मावती हो गये। अनंतर भगवान जब तीस वर्ष के हो गये, तब एक दिन अयोध्या के राजा जयसेन ने उत्तम घोड़ा आदि की भेंट के साथ अपना दूत भगवान पाश्र्वनाथ के समीप भेजा। भगवान ने भेंट लेकर उस दूत से अयोध्या की विभूति पूछी। उत्तर में दूत ने सबसे पहले भगवान ऋषभदेव का वर्णन किया पश्चात् अयोध्या का हाल कहा। उसी समय ऋषभदेव के सदृश अपने को तीर्थंकरप्रकृति का बन्ध हुआ है, ऐसा सोचते हुए भगवान गृहवास से पूर्ण विरक्त हो गये और लौकांतिक देवों द्वारा पूजा को प्राप्त हुए। प्रभु देवों द्वारा लाई गई विमला नाम की पालकी पर बैठकर अश्ववन में पहुँच गये। वहाँ तेला का नियम लेकर पौष कृष्णा एकादशी के दिन प्रात:काल के समय सिद्ध भगवान को नमस्कार करके प्रभु तीन सौ राजाओं के साथ दीक्षित हो गये। पारणा के दिन गुल्मखेट नगर के धन्य नामक राजा ने अष्टमंगलद्रव्यों से प्रभु का पड़गाहन कर आहारदान देकर पंचाश्चर्य प्राप्त कर लिये। छद्मस्थ अवस्था के चार मास व्यतीत हो जाने पर भगवान अश्ववन नामक दीक्षावन में पहँुचकर देवदारुवृक्ष के नीचे विराजमान होकर ध्यान में लीन हो गये। इसी समय कमठ का जीव शम्बर ज्योतिषी आकाशमार्ग से जा रहा था, अकस्मात् उसका विमान रुक गया, उसे विभंगावधि से पूर्व का बैर बंध स्पष्ट दिखने लगा। फिर क्या था, क्रोधवश उसने महागर्जना, महावृष्टि, भयंकर वायु आदि से महा उपसर्ग करना प्रारम्भ कर दिया, बड़े-बड़े पहाड़ तक लाकर समीप में गिराये, इस प्रकार उसने सात दिन तक लगातार भयंकर उपसर्ग किया। अवधिज्ञान से यह उपसर्ग जानकर धरणेन्द्र अपनी भार्या पद्मावती के साथ पृथ्वीतल से बाहर निकला। धरणेन्द्र ने भगवान को सब ओर से घेरकर अपने फणाओं के ऊपर उठा लिया और उस की पत्नी वङ्कामय छत्र तान कर खड़ी हो गई। आचार्य कहते हैं कि देखो! स्वभाव से ही व्रूâर प्राणी इन सर्प-सर्पिणी ने अपने ऊपर किये गये उपकार को याद रखा, सो ठीक ही है क्योंकि सज्जन पुरुष अपने ऊपर किये हुए उपकार को कभी नहीं भूलते हैं।
भाग 6
केवलज्ञान और मोक्ष*
तदनंतर ध्यान के प्रभाव से प्रभु का मोहनीय कर्म क्षीण हो गया इसलिए बैरी कमठ का सब उपसर्ग दूर हो गया। मुनिराज पाश्र्वनाथ ने चैत्र कृष्णा चतुर्थी के दिन प्रात:काल के समय विशाखा नक्षत्र में लोकालोकप्रकाशी केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया। उसी समय इन्द्रों ने आकर समवसरण की रचना करके केवलज्ञान की पूजा की। शंबर नाम का देव भी काललब्धि पाकर उसी समय शांत हो गया और उसने सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लिया। यह देख, उस वन में रहने वाले सात सौ तपस्वियों ने मिथ्यादर्शन छोड़कर संयम धारण कर लिया, सभी शुद्ध सम्यग्दृष्टि हो गये और बड़े आदर से प्रदक्षिणा देकर भगवान की स्तुति-भक्ति की। आचार्य कहते हैं कि पापी कमठ के जीव का कहाँ तो निष्कारण वैर और कहाँ ऐसी पाश्र्वनाथ की शांति! इसलिए संसार के दु:खों से भयभीत प्राणियों को वैर-विरोध का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। भगवान पाश्र्वनाथ के समवसरण में स्वयंभू को आदि लेकर दस गणधर थे, सोलह हजार मुनिराज, सुलोचना को आदि लेकर छत्तीस हजार आर्यिकाएँ, एक लाख श्रावक और तीन लाख श्राविकाएँ थीं। इस प्रकार बारह सभाओं को धर्मोपदेश देते हुए भगवान ने पाँच मास कम सत्तर वर्ष तक विहार किया। अंत में आयु का एक माह शेष रहने पर विहार बंद हो गया। प्रभु पाश्र्वनाथ सम्मेदाचल के शिखर पर छत्तीस मुनियों के साथ प्रतिमायोग से विराजमान हो गये। श्रावण शुक्ला सप्तमी के दिन प्रात:काल के समय विशाखा नक्षत्र में सिद्धपद को प्राप्त हो गये। इन्द्रों ने आकर मोक्ष कल्याणक उत्सव मनाया। _*ऐसे पार्श्वनाथ भगवान हमें भी सम्पूर्ण प्रकार के उपसर्गों को सहन करने की शक्ति प्रदान करें ल्य*
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टॉपिक --- पार्श्व प्रभु जी 🌹
1. पार्श्व प्रभु जी ने किस भव मे तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन किया ❓
🅰️ सुवर्ण बाहु जी के भव मे ❗
2. मुझे प्रभु की पत्नी बनने का सौं भाग्य मिला था ❓
🅰️ प्रभावती जी ❗
3. मै प्रभु का भाई हूं ❓
🅰️ हस्तिसेन जी ❗
4. पार्श्व प्रभु जी किस भव मे चक्रवर्ती पद पर थे ❓
🅰️ सुवर्ण बाहु जी के भव मे ❗
5. प्रभु जी के साथ कितने व्यक्तियों ने दीक्षा ली थी ❓
🅰️ तीन सौ ❗
6. दीक्षा शिविका का नाम क्या था ❓
🅰️ विशाला ❗
7. प्रभु के कितने साधु जी अनुत्तर विमान मे गए ❓
🅰️ बारह सौ ❗
8. प्रभु जी प्रथम भव मे कौन थे ❓
🅰️ मरुभूती जी ❗
9. पार्श्व प्रभु जी किस वन मे थे , तब कलिकुंड तीर्थ की स्थापना हुई ❓
🅰️ कादंबरी ❗
10. पार्श्व प्रभु जी की कांति किसके समान है ❓
🅰️ निलोत्पल के समान ❗
11. प्रभु जी का गर्भ काल कितना था ❓
🅰️ नौ मास , छ दिन ❗
12. प्रभु पर उपसर्ग किसने किए ❓
🅰️ मेघमाली ( कमठ का जीव )❗
13.पार्श्व प्रभु ने पूर्व भवो मे किस नाम कर्म का उपार्जन किया ❓
🅰️ आदेय नाम कर्म ❗
14. जीरावला पार्श्व प्रभु की प्रतिमा सर्वप्रथम किसके हाथ से प्रतिष्ठित हुई ❓
🅰️ श्री गौतम प्रभु जी ❗
15. प्रभु जी के निर्वाण के साथी कितने ❓
🅰️ तेतिस ❗
16. प्रभु जी के कितने पट्टधर मोक्ष मे गए ❓
🅰️ चार ❗
17. प्रभु जी का देवदुष्य वस्त्र कितने दिन रहा ❓
🅰️ सत्तर दिन ❗
18. प्रभु के प्रथम गनधर जी कोन थे ❓
🅰️ आर्य दत्त जी ❗
19. शीला से किसकी मृत्यु हुई ❓
🅰️ मरु भूती जी ❗
20. कमठ ने किसकी टकोर सुनकर प्रभु जी से माफी मांगी ❓
🅰️ धर्मेंद्र देव की ❗
21. दीक्षा के बाद प्रथम उपसर्ग किसके द्वारा हुआ ❓
🅰️ केशरी सिंह ( जो मेघ माली ने भेजा था )❗
22. दीक्षा के कितने दिन बाद केवल प्राप्त हुआ ❓
🅰️ 84 दिन ❗
23. मूसलाधार वर्षा का उपसर्ग कौनसी तिथि को हुआ ❓
🅰️ काली चौदस को ❗
24. वर्तमान में प्रभु जी का चमत्कारी तीर्थ कौनसा है ❓
🅰️ शंखेश्वर पार्श्व नाथ तीर्थ ❗
25. निर्वाण कल्याणक दिवस कौनसा है ❓
🅰️ श्रावन सुदी अष्टमी ❗
_🙏�पार्श्वनाथ प्रभु की जय हो🙏*
🔒1)पार्श्वनाथ जी को कोन से भव में जाति स्मरण ज्ञान हुआ ?
🔑1) गजराज यूथपति के दूसरे भव और सुवर्णबाहु के आठवें भव में
🔒 2) प्रथम भव में कौन से शस्त्र से मृत्यु हुई?
🔑2) पत्थर
🔒3) छट्ठे भव में भगवान के पुत्र का क्या नाम था ?
🔑3) चक्रायुद्ध
🔒4) पार्श्वनाथ जी के भव में कोन से राजा को युद्ध में हराया ?
🔑4) यवनराज
🔒5) युद्धार्थ प्रयास कर रहे पार्श्व नाथजी को किसने अस्त्रो और रथ भेजा ?
🔑5) शकेंद्र
🔒6) प्रभु की पत्नी का नाम ?
🔑6) प्रभावतीजी
🔒7) सातवी नरक से निकलकर कमठ का जीव कहाँ और किस रूप में उत्पन्न हुवा ?
🔑7) क्षीरगिरी के निकट सिंह हुवा
🔒8) प्रभु के दादाससुर जी का क्या नाम था ?
🔑8) नरवर्मा
🔒9) सुवर्णबाहु की जन्म नगरी ?
🔑9) पुरानपुर
🔒10) हाथी के भव में प्रतिबोध देने वाले कौन?
🔑10) अरविन्द मुनि
🔒11) किरणवेग के भव में किसने प्राण हरण किया ?
🔑11) कुर्कुट सर्प
🔒12) देव के भव कितने ?
🔑12) 4
🔒13) मनुष्य के भव कितने ?
🔑13) 5
🔒14) पार्श्वनाथजी के भव में उपसर्ग देने वाला कौन ?
🔑14) मेघमाली
🔒15) छठे भव में कमठ की पर्याय क्या थी ?
🔑15) कुरंग भील
🔒16) नव स्मरण में पार्श्वनाथजी की स्तुति की गयी स्तोत्र कौन से है ?
🔑16) उवसग्गहरम्, नमीऊण, कल्याणमंदिर
🔒17) प्रभु के स्तुति रूप चैत्यवंदन सूत्र ?
🔑17) चउक्कसाय
🔒18) अभयदेवसुरीजी रचित स्तोत्र जिससे पार्श्वनाथजी की प्रतिमा प्रकट हुई ?
🔑18) जयतिहुअण स्तोत्र
🔒19) पार्श्वनाथजी का 13th गुणस्थान की स्थिति?
🔑20) 70 वर्ष में 84 दिन कम
🔒21) दसवें भव में, पार्श्वनाथजी 4th गुणस्थान में कितने काल तक रहे?
🔑21) 30 वर्ष
🔒22) पार्श्वनाथजी की सिद्ध अवस्था की स्थिति ?
🔑22) सादी-अनंत
🔒23) अभी पार्श्वनाथजी की अवगाहना ?
🔑23) 6 हाथ
🔒24) 10 भव में पार्श्वनाथजी कितने भव में संयम लिया ?
🔑24) 4
🔒25) कौन कौन से भव में संयम लिया ?
🔑25) चौथा, छठा, आठवा और दसवा
🔒26) कितने भव में देश विरति धर्म का पालन किया?(10 भव में)
🔑26) 2 - (पहला और दूसरा भव)
🔒27) पार्श्वनाथजी के शासन में कितने महाव्रत थे ?
🔑27) 4
🔒28) पार्श्वनाथजी कहाँ पर और कौन से दिन अयोगी केवली बने?
🔑28) सम्मतशिखर पर, श्रावण शुक्ल अष्टमी के दिन
🔒29) पार्श्वनाथजी के शासन में श्रावक के कितने व्रत थे ?
🔑29) 12
🔒30) किसने पार्श्वनाथजी के शासन में श्रावक धर्म का पालन कर देव बने और महावीर प्रभु को वंदन करने आये ?
🔑30) सोमिल ब्राह्मण
🔒31) कौन पार्श्वनाथजी को हराने गया और खुद हार कर श्रावक धर्म अंगीकार किया?
🔑31) सोमिल ब्राह्मण
*अब तीर्थ / प्रतिमा / 108 प्रभु के नाम पर जानकारी*
: 🔒32)समुद्र के तल से निकली पार्श्व प्रभु की प्रतिमा, जिनके न्हवन जल से अजयपाल राजा निरोगी हुए।
🔑32) श्री अजाहरा पार्श्वनाथ
🔒33) धरती से चार अंगुल ऊपर हवा में स्थिर रही हुवी पार्श्व प्रभु की प्रतिमा ?
🔑33) श्री अंतरिक्ष पार्श्वनाथ
🔒34)चंद्रमा के नाम से जिन पार्श्व प्रभु का नाम ?
🔑34)श्री चंदा पार्श्वनाथ
🔒35)जिन पार्श्व प्रभु की प्रतिमा एक अंध शिल्पी ने एक ही रात में निर्मित की थी।
🔑35) श्री शेरीषा पार्श्वनाथ
🔒36) जिन पार्श्व प्रभु की कृपा से साधर्मिक वात्सल्य के समय बर्तन घी से भरा रहा?
🔑36)श्री घृतकल्लोल पार्श्वनाथ
🔒37) एक भावी तीर्थंकर के जीव के नाम पर जो पार्श्वनाथ भगवान हैं🔑37)श्री रावण पार्श्वनाथ
🔒38) जिस स्थान पर हाथी ने पार्श्व प्रभु का कमल के फूलों में जल भर कर अभिषेक किया था, वह कौन सा तीर्थ?
🔑38)श्री कलिकुंड तीर्थ
🔒39)पार्श्व प्रभु का एक नाम जो कि परमात्मा पर चढ़ाए जाने वाले एक फ़ूल का नाम भी है?
🔑39 श्री चंपा पार्श्वनाथ
🔒40) जैसलमेर के लोद्रवा पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा जी किस बहुमूल्य पत्थर से निर्मित है?
🔑40) कसौटी पत्थर
🔒41)श्रृंगार के लिए स्त्रियों के मांग में भरी जाने वाली चीज़ का नाम कौन से पार्श्व प्रभु के नाम में आता है?
🔑41)श्री कुंकुमरोल पार्श्वनाथ
🔒42) एक पार्श्व प्रभु का नाम, जो कि शंकर भगवान का एक प्रसिद्ध नाम भी है?
🔑42) श्री महादेवा पार्श्वनाथ
🔒43) एक अन्य तीर्थंकर के नाम पर कौन से पार्श्व प्रभु हैं?
🔑43) श्री विमल पार्श्वनाथ
🔒44) श्री ऋषभदेव भगवान के एक विश्वप्रसिद्ध तीर्थ पर विराजमान, उस तीर्थ के नाम से ही जो पार्श्व प्रभु हैं?
🔑44) श्री राणकपुरा पार्श्वनाथ
🔒45) भक्तों के मन में रही हुई इच्छा को पूरी करने वाले पार्श्व प्रभु?
🔑45) श्री मनोवांछित पार्श्वनाथ
🔒46) हम अपने घर के वडील पुरुष को जिस नाम से संबोधित करते हैं, उस नाम से जो पार्श्व प्रभु हैं?
🔒46) श्री दादा पार्श्वनाथ
🔒47) श्यामलिया पार्श्वनाथ किस तीर्थ के मूल नायक है?
🔑47) सम्मेतशिखर
🔒48) आषाढ़ी श्रावक द्वारा निर्मित, देवो द्वारा पूजित प्रतिमा ?
🔑48) शंखेश्वर पार्श्वनाथ
🔒49) वह प्रतिमा जिसका प्रभाव अलाउद्दीन खिलजी पर भी पड़ा, और उसने कहा यह देव तो बादशाहों का बादशाह है ?
🔑49) सुल्तान पार्श्वनाथजी
🔒50) इस प्रतिमा को चोरी करने आये चोरों के आँखों की रौशनी चली गयी पर जैसे ही चोरी का इरादा त्यागा तो रोशनी वापस आ गयी!!!
🔑50) श्री वही पार्श्वनाथजी
🔒51) *myself*+🌎 - parshvanathji ka ek naam
🔑51) श्री स्वयंभू पार्श्वनाथजी
🔒52) कौन से पार्श्वनाथजी की प्रतिष्ठा February में होने वाली हैं?
🔑52) जीरावला पार्श्वनाथजी
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