पार्श्वनाथ के पूर्व भव
पार्श्वनाथ के पूर्व भव
मरुभूति
पोदनपुर में महाराजा अरविन्द अपनी राजसभा में स्वर्ण सिंहासन पर विराजमान थे। उनके विश्वभूति नामक मंत्री ने राज्य के कुशल समाचार बताकर महाराज से जिनदीक्षा की आज्ञा मांगते हुए अपने पुत्र कमठ और मरुभूति को महाराज के चरणों में समर्पित कर दिया। उन मंत्रिवर के दीक्षा लेते ही महाराज अरविन्द ने उनके दोनों पुत्रों को परम्परागत मंत्री पद पर नियुक्त कर दिया। पुन: एक दिन राजा अरविन्द अपने शत्रु राजा वङ्कावीर्य को जीतने हेतु चतुरंगिणी सेना के साथ मरुभूति मंत्री को लेकर युद्ध करने चल पड़े और कमठ कुमार मंत्री पर पोदनपुर के राज्य की सम्पूर्ण व्यवस्था डाल दी। कमठ जो कि स्वभाव से ही कुटिल परिणामी दुष्टात्मा था, वह समय पाकर मंत्री पद में अत्यन्त निरंकुश हो गया और सर्वत्र अन्याय का साम्राज्य फैला दिया। किसी समय मंत्री कमठ ने अपने छोटे भाई मरुभूति की पत्नी वसुंधरी को अप्सरा के समान सुन्दर देखकर उसके साथ जबर्दस्ती दुराचार किया। राजा के वापस आने पर जब उन्हें यह पता चला तो उनकी आज्ञा से कोतवाल ने कमठ का सिर मुंडा कर मुंह काला करके उसे गधे पर बिठाकर सारे शहर में घुमा कर देश से निकाल दिया। उस दण्ड से अपमानित होकर कमठ एक तापस आश्रम में जाकर हाथ में पत्थर की शिला लेकर खड़ा होकर तपश्चरण करने लगा। इधर मरुभूति अपने भाई के वियोग से दुखी हो उसे मनाकर वापस लाने हेतु आश्रम में गया और कमठ के पैरों में गिरकर क्षमायाचना करने लगा किन्तु क्रोधी कमठ ने उसके सिर पर पत्थर की शिला पटक दी अत: मरुभूति तुरंत वहीं मर गया और आत्र्तध्यान से मरकर वह सल्लकी वन में हाथी बनकर जन्मा।
मरुभूति
पोदनपुर में महाराजा अरविन्द अपनी राजसभा में स्वर्ण सिंहासन पर विराजमान थे। उनके विश्वभूति नामक मंत्री ने राज्य के कुशल समाचार बताकर महाराज से जिनदीक्षा की आज्ञा मांगते हुए अपने पुत्र कमठ और मरुभूति को महाराज के चरणों में समर्पित कर दिया। उन मंत्रिवर के दीक्षा लेते ही महाराज अरविन्द ने उनके दोनों पुत्रों को परम्परागत मंत्री पद पर नियुक्त कर दिया। पुन: एक दिन राजा अरविन्द अपने शत्रु राजा वङ्कावीर्य को जीतने हेतु चतुरंगिणी सेना के साथ मरुभूति मंत्री को लेकर युद्ध करने चल पड़े और कमठ कुमार मंत्री पर पोदनपुर के राज्य की सम्पूर्ण व्यवस्था डाल दी। कमठ जो कि स्वभाव से ही कुटिल परिणामी दुष्टात्मा था, वह समय पाकर मंत्री पद में अत्यन्त निरंकुश हो गया और सर्वत्र अन्याय का साम्राज्य फैला दिया। किसी समय मंत्री कमठ ने अपने छोटे भाई मरुभूति की पत्नी वसुंधरी को अप्सरा के समान सुन्दर देखकर उसके साथ जबर्दस्ती दुराचार किया। राजा के वापस आने पर जब उन्हें यह पता चला तो उनकी आज्ञा से कोतवाल ने कमठ का सिर मुंडा कर मुंह काला करके उसे गधे पर बिठाकर सारे शहर में घुमा कर देश से निकाल दिया। उस दण्ड से अपमानित होकर कमठ एक तापस आश्रम में जाकर हाथ में पत्थर की शिला लेकर खड़ा होकर तपश्चरण करने लगा। इधर मरुभूति अपने भाई के वियोग से दुखी हो उसे मनाकर वापस लाने हेतु आश्रम में गया और कमठ के पैरों में गिरकर क्षमायाचना करने लगा किन्तु क्रोधी कमठ ने उसके सिर पर पत्थर की शिला पटक दी अत: मरुभूति तुरंत वहीं मर गया और आत्र्तध्यान से मरकर वह सल्लकी वन में हाथी बनकर जन्मा।
भगवान पार्श्वनाथ 2वें भव हाथी
राजा अरविन्द ने भी एक बार आकाश में मेघों को विघटते देखकर जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली थी पुन: अपने संघ के साथ सम्मेदशिखर की यात्रा करते हुए सल्लकी वन में ठहरे थे। तभी अकस्मात् वङ्काघोष नामक विशालकाय हाथी (मरुभूति का जीव) सारे संघ में खलबली मचाता हुआ विचरण करने लगा। उस हाथी के पैरों के नीचे दबकर अनेक मनुष्य-पशु आदि मर गये अत: सर्वत्र हा-हाकार मच गया। पुन: ज्यों ही वह ध्यानस्थ गुरुदेव श्री अरविन्द मुनिराज के निकट पहुँचा, उनके वक्षस्थल में श्रीवत्स का चिन्ह देखकर उसे जातिस्मरण हो गया और वह एकदम शांत होकर बैठ गया। तब मुनिराज कहने लगे- हे गजराज! तू अपने भाई कमठ के मोह में मरकर इस पशु पर्याय में जन्मा है, अब तू समस्त आत्र्तध्यान छोड़कर सम्यक्त्व को धारण कर और अपने अगले भव को सुधारने हेतु श्रावक के व्रतों को धारण कर। इस प्रकार गुरुदेव के मुख से विस्तारपूर्वक सम्यक्त्व एवं व्रतों का उपदेश सुनकर उस हाथी ने गुरुदेव को नमन करके श्रावक व्रतों को स्वीकार कर लिया। एक दिन वह हाथी पानी पीने हेतु वेगवती नदी के तट पर गया और कीचड़ में फस गया। वहाँ से निकलने का साधन न देखकर उसने चतुराहार का त्याग कर सल्लेखना धारण कर ली और णमोकार महामंत्र के ध्यान में लीन हो गया। कुछ ही देर में एक कुक्कुट जाति के साँप ने (कमठ का जीव जो मरकर साँप हो गया था) पूर्व जन्म के वैर के संस्कारवश उसे डस लिया, तब वह हाथी शांत भाव से मरकर बारहवें स्वर्ग में ‘‘सहस्त्रार देव’ नाम का देव हो गया।
सहस्त्रार देव’3 भव
स्वर्ग में उपपाद शय्या पर जन्म लेते ही सहस्त्रार देव’हुआ देव को अवधिज्ञान से ज्ञात हो गया कि मैं तिर्यंचयोनि की हाथी पर्याय से मरकर यहाँ उत्पन्न हुआ हूँ। वहाँ पर गुरुदेव की कृपा से जो मैंने सम्यक्त्वरूपी रत्न एवं अणुव्रतरूपी निधि प्राप्त की थी, उसी के फलस्वरूप मुझे यह तेजोधाम स्वर्गपुरी का अतुल वैभव प्राप्त हुआ है। स्वर्ग में सोलह सागर तक वह देव असीम सुखों को भोगता रहा। कभी वह जम्बूद्वीप, नंदीश्वरद्वीप आदि द्वीपों में जाकर अकृत्रिम चैत्यालयों की वंदना करता, कभी तीर्थंकरों के पंचकल्याणकों में भाग लेता तो कभी चारणऋद्धिधारी मुनियों की एवं अपने सच्चे हितकारी गुरु अरविन्द मुनिराज की पूजा करता.......आदि। देखो! धर्म एवं व्रतरूपी कल्पवृक्ष के प्रसाद से जहाँ एक हाथी का जीव स्वर्ग के सुखों को भोग रहा है, वहीं जिस कुक्कुट सर्प ने हाथी को डसा था, उसने अपनी आयु पूर्ण कर अधोलोक के पाँचवे नरक में जन्म ले लिया। वहाँ सत्रह सागर तक असीम दु:खों का अनुभव करता रहा। पुन: शशिप्रभ देव तो पुण्य के प्रभाव से स्वर्ग की आयु बिताकर विद्याधर मनुष्य हो गया एवं बेचारा नारकी (कुक्कुट सर्प का जीव) मरकर अजगर सर्प की योनि में आ गया।
4 भव
भगवान पार्श्वनाथ 4वें भव पूर्व-किरणवेग विद्याधर
सहस्त्रार देव’3 भव
स्वर्ग में उपपाद शय्या पर जन्म लेते ही सहस्त्रार देव’हुआ देव को अवधिज्ञान से ज्ञात हो गया कि मैं तिर्यंचयोनि की हाथी पर्याय से मरकर यहाँ उत्पन्न हुआ हूँ। वहाँ पर गुरुदेव की कृपा से जो मैंने सम्यक्त्वरूपी रत्न एवं अणुव्रतरूपी निधि प्राप्त की थी, उसी के फलस्वरूप मुझे यह तेजोधाम स्वर्गपुरी का अतुल वैभव प्राप्त हुआ है। स्वर्ग में सोलह सागर तक वह देव असीम सुखों को भोगता रहा। कभी वह जम्बूद्वीप, नंदीश्वरद्वीप आदि द्वीपों में जाकर अकृत्रिम चैत्यालयों की वंदना करता, कभी तीर्थंकरों के पंचकल्याणकों में भाग लेता तो कभी चारणऋद्धिधारी मुनियों की एवं अपने सच्चे हितकारी गुरु अरविन्द मुनिराज की पूजा करता.......आदि। देखो! धर्म एवं व्रतरूपी कल्पवृक्ष के प्रसाद से जहाँ एक हाथी का जीव स्वर्ग के सुखों को भोग रहा है, वहीं जिस कुक्कुट सर्प ने हाथी को डसा था, उसने अपनी आयु पूर्ण कर अधोलोक के पाँचवे नरक में जन्म ले लिया। वहाँ सत्रह सागर तक असीम दु:खों का अनुभव करता रहा। पुन: शशिप्रभ देव तो पुण्य के प्रभाव से स्वर्ग की आयु बिताकर विद्याधर मनुष्य हो गया एवं बेचारा नारकी (कुक्कुट सर्प का जीव) मरकर अजगर सर्प की योनि में आ गया।
4 भव
भगवान पार्श्वनाथ 4वें भव पूर्व-किरणवेग विद्याधर
जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में विजयार्ध पर्वत के लोकोत्तम नगर के विद्युत्गति विद्याधर राजा की रानी विद्युन्मालिनी से जन्मा शिशु अग्निवेग दूज चन्द्रमा के समान स्वयं बढ़ने लगा और सबकी खुशियों को भी वृद्धिंगत करने लगा। राज्यसम्पदा को भोगते हुए सहसा भरी जवानी में ही अग्निवेग ने एक दिन समाधिगुप्त मुनिराज से संबोधन प्राप्त कर जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली और घोर तपश्चरण करते हुए वे अपनी शुद्धात्मा का ध्यान करने लगे। एक दिन वे महामुनि हिमगिरि पर्वत की गुफा के अन्दर ध्यान में लीन थे, तब वहाँ एक अजगर सर्प आया और मुनि को देखते ही उसने पूर्व भव के वैर संस्कारों के कारण भयंकर क्रोध से प्रेरित होकर उन्हें निगल लिया। मुनिराज परम समताभाव से मरकर सोलहवें स्वर्ग के पुष्कर विमान में देव हो गये तथा कालांतर में वह अजगर सर्प मुनिहत्या के घोर पाप एवं जीव हिंसा आदि व्रूर परिणामों से आयु पूर्ण कर छठे नरक में चला गया, वहाँ बाईस सागर तक अनंत दु:खों को भोगता रहा।
*भगवान पार्श्वनाथ 5वें भव* *पूर्व-अच्युत स्वर्ग में*
सरलता और क्षमा की प्रतिमूर्ति वह मरुभूति का जीव पांचवे भव में अच्युत स्वर्ग के दिव्य सुखों का अनुभव कर रहा है। वहाँ बाईस सागर की आयु कैसे बीत गई उसे पता ही नहीं चलता है क्योंकि सम्यग्दर्शन से सहित वह देव सदैव तत्त्व चर्चा, जिनेन्द्र भक्ति एवं अकृत्रिम चैत्यालयों की वंदना आदि में अपना समय व्यतीत करता है। पुण्य फल के रूप में प्राप्त उस अलौकिक वैभव को भोगते हुए भी उसे आत्मा और शरीर की भेदभिन्नता का पूर्ण ज्ञान है इसीलिए आयु के अंत में समाधिमरणपूर्वक शरीर छोड़कर अतिदुर्लभ मानवपर्याय में जन्म धारण कर लेता है तथा छठे नरक का नारकी (कमठ का जीव) वहाँ से निकलकर भील की पर्याय में जन्म ले लेता है।
*भगवान पार्श्वनाथ 6वें भव* *पूर्व-वज्रनाभि चक्रवर्ती*
अच्युत स्वर्ग का वह देव जम्बूद्वीप के पश्चिम विदेह क्षेत्र के अश्वपुर नगर में जब राजा वङ्कावीर्य की रानी विजया के गर्भ में आया तब रानी ने एक रात्रि को पिछले प्रहर में सुदर्शन मेरु, सूर्य, चन्द्रमा, देवविमान और सरोवर ये पाँच स्वप्न देखे। पुन: पति से सपनों के फल में चक्रवर्ती पुत्र को प्राप्त करने का समाचार जानकर रानी विजया अतीव प्रसन्न हुर्इं। युवावस्था में वज्रनाभि राजा ने चक्ररत्न प्राप्त कर छह खण्ड वसुधा पर एक छत्र शासन किया किन्तु वे निरंतर श्रावक के षट्कर्तव्यों का पालन करते हुए जिनधर्म को कभी नहीं भूले। प्रत्युत् दिन-प्रतिदिन जिनेन्द्रभक्ति में उनकी रुचि बढ़ती ही गई। ठीक ही है कि पुण्यात्माजन सांसारिक वैभव को पाकर कभी धर्म से विमुख नहीं होते हैं। एक दिन शहर के बाहर बगीचे में पधारे एक महामुनिराज के दर्शन करके चक्रवर्ती महाराज ने उनसे धर्मोपदेश सुना और तुरंत उन्होंने अपना राजपाट त्याग करके दीक्षा धारण कर ली। वे वज्रनाभि मुनिराज घोर तपश्चरण करते हुए एक बार वन में ध्यानलीन थे, तब उस कमठ के जीव ने जो छठे नरक से निकलकर जंगल में भील बना था, उसने मुनि को देखते ही उनके ऊपर बाण चला-चला कर छेदन-भेदन का खूब उपसर्ग किया।
अच्युत स्वर्ग का वह देव जम्बूद्वीप के पश्चिम विदेह क्षेत्र के अश्वपुर नगर में जब राजा वङ्कावीर्य की रानी विजया के गर्भ में आया तब रानी ने एक रात्रि को पिछले प्रहर में सुदर्शन मेरु, सूर्य, चन्द्रमा, देवविमान और सरोवर ये पाँच स्वप्न देखे। पुन: पति से सपनों के फल में चक्रवर्ती पुत्र को प्राप्त करने का समाचार जानकर रानी विजया अतीव प्रसन्न हुर्इं। युवावस्था में वज्रनाभि राजा ने चक्ररत्न प्राप्त कर छह खण्ड वसुधा पर एक छत्र शासन किया किन्तु वे निरंतर श्रावक के षट्कर्तव्यों का पालन करते हुए जिनधर्म को कभी नहीं भूले। प्रत्युत् दिन-प्रतिदिन जिनेन्द्रभक्ति में उनकी रुचि बढ़ती ही गई। ठीक ही है कि पुण्यात्माजन सांसारिक वैभव को पाकर कभी धर्म से विमुख नहीं होते हैं। एक दिन शहर के बाहर बगीचे में पधारे एक महामुनिराज के दर्शन करके चक्रवर्ती महाराज ने उनसे धर्मोपदेश सुना और तुरंत उन्होंने अपना राजपाट त्याग करके दीक्षा धारण कर ली। वे वज्रनाभि मुनिराज घोर तपश्चरण करते हुए एक बार वन में ध्यानलीन थे, तब उस कमठ के जीव ने जो छठे नरक से निकलकर जंगल में भील बना था, उसने मुनि को देखते ही उनके ऊपर बाण चला-चला कर छेदन-भेदन का खूब उपसर्ग किया।
*भगवान पार्श्वनाथ 7 भव*
*मध्यम ग्रेवेयक*
*मध्यम ग्रेवेयक*
वज्रनाभि मुनिराज ने भील के तीक्ष्ण बाणों का उपसर्ग शांतिपूर्वक सहन किया और समाधिपूर्वक मरण करके वे सोलहवें स्वर्ग से भी ऊपर मध्यम ग्रैवेयक में अहमिन्द्र बन गये, वहाँ सत्ताईस सागर तक दिव्यसुखों को उपभोग किया। लेकिन वह पापी भील मुनिहत्या के फलस्वरूप सातवें नरक में चला गया, जहाँ के दु:खों का वर्णन मुख से कर पाना भी असंभव है अर्थात् सत्ताईस सागर तक वह नरक में भीषण दु:ख भोगता रहा। वहाँ उसे कुअवधिज्ञान के प्रभाव से पूर्व भवों की सब बातें याद हो आर्इं कि मैंने पिछले जन्मों में बहुत पाप किये हैं। अनेकों पश्चात्ताप करने पर भी वहाँ क्षेत्रजन्य प्रभाव के कारण उसे तिल-तुषमात्र भी सुख की प्राप्ति नहीं होती है। कर्म की विचित्रता देखो, मरुभूति का जीव जो मुनि अवस्था से अहमिन्द्र बना था, वह सत्ताईस सागरों तक स्वर्ग में तत्त्वचर्चा आदि के द्वारा असीम सुखों का भोग करता रहा।
*भगवान पार्श्वनाथ भव8*
*सुवर्ण बाधु चक्री*
*सुवर्ण बाधु चक्री*
ग्रैवेयक विमान के उस अहमिन्द्र ने सत्ताईस सागर की आयु बिताकर मध्यलोक की अयोध्या नगरी में महामंडलीक राजा सुवर्ण बाधुके रूप में मनुष्य जन्म धारण कर लिया और कमठ का जीव सातवें नरक से निकलकर वहीं निकटवर्ती वन में सिंह हो गया। महाराजा सुवर्ण बाधु ने राज्य सुखों का उपभोग करते हुए एक बार फाल्गुन अष्टान्हिका पर्व में मंदिर में नंदीश्वर पूजन के मध्य पधारे विपुलमती मुनिराज के मुखारविन्द से तीनों लोकों के अकृत्रिम चैत्यालयों का वर्णन सुना तो उन्हें सूर्य विमान के जिनमंदिर के प्रति अगाढ़ श्रद्धा हो गई। अत: उन्होंने कुशल कारीगरों से अयोध्या की धरती पर ही मणि और सुवर्ण का एक सूर्य विमान बनवाया और उसमें रत्नमयी जिनप्रतिमाएं विराजमान करार्इं पुन: शास्त्रोक्त विधि से वहाँ अनेक प्रकार से महापूजाएं की। उत्तरपुराण में कहा है कि इस लोक में उसी समय से सूर्य की उपासना चल पड़ी है। सुवर्ण बाधु
नरेश ने एक दिन राजसभा में बैठे-बैठे दर्पण में अपना मुख देखा तो सिर में एक सफेद बाल देखते ही उन्हें राज्य-वैभव से वैराग्य हो गया और उन्होंने अपने सुयोग्य बड़े पुत्र को राज्यभार सौंपकर सागरदत्त मुनिराज के पास दीक्षा धारण कर ली। पुन: गुरुचरणों में सोलहकारण भावनाओं को भाकर तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया। वे सुवर्ण बाधु मुनिराज एक बार वन में ध्यान लीन थे तब सिंह वहाँ आकर उन्हें खा लेता है और मुनि समता भाव से उपसर्ग सहन कर प्रणातस्वर्ग के विमान में इन्द्र हो जाते हैं। आगे सिंह मरकर पांचवे नरक मेें चला जाता है।
नरेश ने एक दिन राजसभा में बैठे-बैठे दर्पण में अपना मुख देखा तो सिर में एक सफेद बाल देखते ही उन्हें राज्य-वैभव से वैराग्य हो गया और उन्होंने अपने सुयोग्य बड़े पुत्र को राज्यभार सौंपकर सागरदत्त मुनिराज के पास दीक्षा धारण कर ली। पुन: गुरुचरणों में सोलहकारण भावनाओं को भाकर तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया। वे सुवर्ण बाधु मुनिराज एक बार वन में ध्यान लीन थे तब सिंह वहाँ आकर उन्हें खा लेता है और मुनि समता भाव से उपसर्ग सहन कर प्रणातस्वर्ग के विमान में इन्द्र हो जाते हैं। आगे सिंह मरकर पांचवे नरक मेें चला जाता है।
भगवान पार्श्वनाथ 9 भव पूर्व-प्रानत स्वर्ग में इन्द्र
समता परिणामों की विशेषता के कारण आनंद मुनिराज ने तेरहवें स्वर्ग के इन्द्र का पद प्राप्त किया था। वहाँ उस इन्द्र को दिव्य अवधिज्ञान से ज्ञात हो जाता है कि पूर्व जन्म में मैंने महामुनि बनकर जो तपस्या की थी उसी के प्रभाव से यहाँ मुझे इन्द्र का वैभव प्राप्त हुआ है। अत: वहाँ के वैभव को देखकर वे आनंदचर इन्द्रराज धर्म और धर्म के फल में और अधिक श्रद्धा करने लगते हैं। वे इन्द्रराज अपने परिवार देवों के साथ कभी नन्दीश्वर द्वीप में पूजन करने जाते हैं, कभी विदेहक्षेत्र में सीमंधर स्वामी आदि तीर्थंकर के समवसरण में दिव्यध्वनि का पान करते हैं तो कभी देव-देवांगनाओं के साथ मनोविनोद करते हैं। भावी तीर्थंकर वे देवेन्द्र इस अतुल वैभव को भोगते हुए भी उसमें आसक्त नहीं हो रहे हैं और वहाँ बीस सागर तक दिव्य सुखों का अनुभव कर रहे हैं।
समता परिणामों की विशेषता के कारण आनंद मुनिराज ने तेरहवें स्वर्ग के इन्द्र का पद प्राप्त किया था। वहाँ उस इन्द्र को दिव्य अवधिज्ञान से ज्ञात हो जाता है कि पूर्व जन्म में मैंने महामुनि बनकर जो तपस्या की थी उसी के प्रभाव से यहाँ मुझे इन्द्र का वैभव प्राप्त हुआ है। अत: वहाँ के वैभव को देखकर वे आनंदचर इन्द्रराज धर्म और धर्म के फल में और अधिक श्रद्धा करने लगते हैं। वे इन्द्रराज अपने परिवार देवों के साथ कभी नन्दीश्वर द्वीप में पूजन करने जाते हैं, कभी विदेहक्षेत्र में सीमंधर स्वामी आदि तीर्थंकर के समवसरण में दिव्यध्वनि का पान करते हैं तो कभी देव-देवांगनाओं के साथ मनोविनोद करते हैं। भावी तीर्थंकर वे देवेन्द्र इस अतुल वैभव को भोगते हुए भी उसमें आसक्त नहीं हो रहे हैं और वहाँ बीस सागर तक दिव्य सुखों का अनुभव कर रहे हैं।
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