कथा शय्यंभवसूरिजी
दशवैकालिक सूत्र के रचयिता शय्यंभवसूरिजी
- भाग 1
पांचवे आरे के अंतिम समय तक जो सूत्र विद्दमान रहेगा और जगत को सत्यमार्ग का प्रकाश देता रहेगा ,ऐसे पवित्र ग्रंथ ‘श्री दशवैकालिक सूत्र ‘ के रचयिता चौदह पूर्वधर महर्षि श्रुत्र केवली शय्यंभव सूरिजी म., जो जन्म से जैन नही थे ….परंतु जिस प्रकार पारसमणि के संग से लोहा सुवर्ण बन जाता है, उसी प्रकार सद्गुरु के समागम से जिनकी आत्मा में अद्भुत निखार आया , ऐसे पवित्र महापुरुष का चरित्र अवश्य पठनीय हैl तो चले ,हम भी उनके पवित्र जीवन चरित्र की गंगा में स्नान कर अपनी आत्मा को पावन करे l
चरम केवली जम्बुस्वामी के पट्ट प्रभावक चौदह पूर्वधर महर्षि प्रभव स्वामी अपनें चरण कमलों से पृथ्वीतल को पावन कर रहे थें।
एक बार आवश्यक श्रुत के अध्ययन से श्रमित बना हुआ शिष्य-समुदाय निद्राधीन बना हुआ था – तभी मध्य रात्री में वे अचानक जाग्रत हुए और सोचने लगे , ‘अहो! मेरी काया तो वृद्ध हो चुकी हे ;जब तक मेरी काया सशक्त थी ,तब तक मेने अपने कर्तव्य का यथाशक्य पालन नही किया ,परंतु अब मेरी काया शिथिल बनती जा रही है …
शासन की विविध जवाबदारियों को वहन करने में असमर्थ बन रही है ; अतः क्यों न योग्य पात्र को अपने पद पर नियुक्त कर अपने कार्य भार से हल्का बन जाऊ!’ इस प्रकार विचार कर अपने भावी पट्टधर की नियुक्ति के लिए उन्होंने सर्वप्रथम अपने शिष्य समुदाय पर नजर डाली ….
परन्तु उन्हें एक भी शिष्य ऐसा नजर नही आया , जो उनका योग्य उत्तराधिकारी बन सके । इसके बाद उन्होंने श्रावक वर्ग पर नजर डाली । श्रावक वर्ग में कोई योग्य जीव होतो उसे प्रतिबोध देकर , उसे दीक्षित कर, संघ का नेतृत्व -भार उसे सोपा जा सके । परन्तु यह क्या? श्रावक वर्ग में ऐसा एक भी श्रावक नजर नही आया जो उनका सुयोग्य उत्तराधिकारी बन सके।
इसके बाद उन्होंने अन्य दर्शन के व्यक्तियों पर अपनी नजर दौड़ाई और उसी समय उन्हें राजगृह नगर में वत्सकुल में उत्प्पन हुए शय्यंभव हर तरह से योग्य दिखाई दिए । वह शय्यंभव ब्राह्मणों के पास यज्ञ करा रहा था।
अपने भावी उत्तराधिकारी को नियुक्त करने के लिए प्रभवस्वामी ने राजगृही नगरी की और यात्रा प्रारम्भ की। श्रमणों का तो यह कर्तव्य कि जिस क्षेत्र में विचरण से लाभ होता हे उस क्षेत्र में विचरण करते ही है।
प्रभवस्वामी राजगृही नगरी में पधारे । प्रभवस्वामी ने आर्य शय्यंभव को अपनी और आकर्षित करने के लिये बहुत ही सुंदर योजना बनाइ ।
उन्होंने दो मुनियो को आज्ञा देते हुए कहा ‘आज तुम यज्ञशाला में जाओ और वहा आहार मिले या नही , फिर भी लौटते समय जोर से कहना -‘
*अहो कष्टं ,अहो कष्टं तत्त्वं विज्ञा याते न हि*।
‘बहुत खेद की बात हे की बहुत सा कष्ट उठाने के बाद भी तत्व को नही पहिचाना जा रहा है।
दो मुनियो ने गुरुदेव की आज्ञा शिरोधार्य की और उन्होंने भिक्षा के लिये यज्ञशाला की और प्रयाण कर दिया ।
वे दोनो आगे बढ़ते हुए यज्ञ मंडप के समीप पहुचे गये । उन्होंने यज्ञ मंडप के द्वार को सुसज्जित देखा । समुन्नत ध्वजा शोभा में चार चाँद लगा रही थी। जल पात्र भरे हुए थे ।ब्राह्मण मंत्रोच्चार पूर्वक यज्ञ द्रव्य समर्पण करने के लिए तैयार थे।
इसी बीच वे दोनों मुनि भिक्षा के लिए यज्ञशाला में आये परन्तु उन ब्राह्मणों ने उन्हें भिक्षा नही दी।
वापस लौटते समय उन दोनो मुनियो ने जोर से कहा –
‘अहो कष्टं ,अहो कष्टं तत्त्वं विज्ञायते न ही’।
यह पद्य उन्होंने अनेक बार दुहराया।
दीक्षित शय्यंभव यज्ञ शाला के द्वार के पास बैठा हुआ था ।जैन मुनियो के मुख से इस पद्य को सुनकर शय्यंभव ब्राह्मण सोचने लगा , ‘अहो! उपशम प्रधान ये साधु कभी भी असत्य भाषण नही करते हे ; अतः लगता हे की अभी तक हमने सत्य तत्व को प्राप्त नही किया है।’
शय्यंभव ब्राह्मण सन्देह के झूले में झूलने लगा । उसने तुरन्त की उपाध्याय को बुलाकर पूछा ,’कृपया मुझे बतलाये की वास्तविक तत्व क्या है?’
उपाध्याय ने कहा ‘स्वर्ग और अपवर्ग को प्रदान करने में समर्थ ये वेद ही परम तत्व है; इनसे अतरिक्त कोई तत्व नही है।’
शय्यंभव ने कहा ‘यज्ञ की दक्षिणादि के लाभ से तुम लोग हमारे जेसो को ठग रहे हो , क्योकि राग द्वेष से रहित ,निर्मम, निष्परिग्रही ये जैन मुनि कभी असत्य नही बोलते है । तुम लोग वास्तविक गुरु नही हो। तुम लोगो ने दुनिया को ठगने का काम ही किया है; अतः तुम शिक्षा के पात्र हो । यदि तुम सत्य तत्व नही बतालाओगे तो मेरी यह तलवार तुम्हारे मस्तक को धड़ से अलग कर देगी ‘।
उपाध्याय ने जब आपकी आँख के सामने मौत को घूमती हुई देखा तो वह भी भय के मारे काँप उठा और सोचा ; अब सत्य तत्व प्रगट करने में ही मेरा ही मेरा हित है; इस प्रकार विचार कर बोला , ‘इस यज्ञस्तम्भ के नीचे अरिहंत की रत्नमयी प्रतिमा रही हुई है। गुप्त रीति से प्रतिदिन उसका पूजन होता है और उसी के प्रभाव से हमारा यज्ञादी अनुष्ठान निर्विध्न पूर्ण होता है। यदि वह प्रतिमा नही होती तो विघ्न पैदा हुए बिना नही रहते।’
उसी समय उपाध्याय ने यज्ञ स्तम्भ को उखाड़ा और उसके नीचे रही हुई रत्नमयी अरिहंत की प्रतिमा बतलाकर कहा ,’जिस अर्हत की यह प्रतिमा है, उसके द्वारा निर्दिष्ट धर्म ही परम तत्व है। अन्य यज्ञ आदि तो सिर्फ विडम्बना मात्र है । अरिहंत परमात्मा के द्वारा निर्दिष्ट जीवदयात्मक धर्म ही सच्चा धर्म है और जिस यज्ञ में पशुओं की हिंसा रही हुई है , वहा धर्म कहा से हो? हम तो माया जाल करके जी रहे है…..तुम तत्व को जानो और अपना कल्याण साधो । अपने पेट की पूर्ति के लिए मेने निरर्थक ही तुम्हे ठगा है; अब में तुम्हारा वास्तविक उपाध्याय नही हु।,’
क्रमशः...
दशवैकालिक सूत्र के रचयिता शय्यंभवसूरिजी
- भाग 2
शय्यंभव को सन्मार्ग की प्राप्ति हो चुकी थी, अतः उसने नम्रता पूर्वक कहा , पूज्यवर! आपने सत्य तत्त्व को बतलाकर मुझे सत्य मार्ग प्रदान किया है; अतः आप मेरे उपाध्याय हो।’
उसके बाद शय्यंभव ने उस उपाध्याय को सुवर्ण व ताम्र के विविध उपकरण भेंट किए । तत्पश्चात उन मुनियो को शोध में वह शय्यंभव निकल पड़ा ।
कुछ दूरी पार करने पर उसे दोनो मुनियो के पद चिन्ह दिखाई दिए । उन पद चिन्हों के अनुसार वह प्रभव स्वामी के पास पहुँच गया । उसने प्रभव स्वामी के चरणों में भाव पूर्वक नमन किया। आचार्य भगवंत ने भी उसे धर्मलाभ की आशीष दी।
उसके बाद उसने आचार्य भगवंत को मोक्ष के कारण भूत, धर्म तत्त्व के बारे में पुछा ।
आचार्य भगवंत ने उसे धर्म का तत्त्व समझाते हुए कहा ,’ इस संसार में जैसे अपने को जीना पसन्द है और मरना पसन्द नही है; उसी प्रकार संसार में जीव मात्र को जीना पसन्द हे ,मरना पसन्द नही है। अतः अपने निजी स्वार्थ के लिए दूसरे जीवो को मौत के घाट नही उतारना चाहिए । ‘ दया’ ही सबसे बड़ा धर्म है । सत्य , अचौर्य , ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का पालन भी अहिंसा धर्म के पालन रक्षण के लिए ही है । जो व्यक्ति हिंसादि पांच पापो का सर्वथा त्याग करते है; वे ही शाश्वत अजरामर मोक्ष पद प्राप्त करते है।’
इसके बाद आचार्य भगवंत ने उसे जैनदर्शन में निर्दिष्ट जीवादि तत्त्वों का विस्तृत स्वरूप समझाया, जिसे सुनकर शय्यंभव के दिल में इस असार संसार के प्रति तीव्र वैराग्य भाव उत्पन्न हो गया ।
प्रभव स्वामी के चरणों में नमस्कार करके वह बोला , ‘प्रभो! सद्गुरु के समागम के आभाव के कारण आज तक मुझे अतत्त्व में ही तत्त्व बूद्धि बनी रही । आज मेरे ज्ञान चक्षु खुल गए है । आपके अनुग्रह से मुझे तत्त्व अमृत की प्राप्ति हुई है; मैं इस संसार से विरक्त बन चूका हूँ। भागवती दीक्षा प्रदान कर आप मेरा उद्धार करे।’
बस, उसी समय शय्यंभव की योग्यता को जानकर आचार्य भगवंत ने उसे भागवति दीक्षा प्रदान की । आचार्य भगवंत चिंता मुक्त बन गए …… उन्हें जिस योग्य उत्तराधिकारी की आवश्यकता थी , वह उत्तराधिकारी उन्हें मिल गया था।भागवती दीक्षा स्वीकार करने के बाद शय्यंभव मुनि ज्ञान ध्यान की साधना में लीन बन गए । अनुकूल प्रतिकूल परिषह उपसर्गो को वे अत्यंत ही समतापूर्वक सहन करने लगे । उपवास , छट्ठ , अट्ठम आदि विविध तपो के द्वारा उनका बाह्य-अभ्यन्तर तेज खूब खूब बढ़ने लगा।. . . इसी प्रकार गुरु शुश्रुषा में लीन बने शय्यंभव मुनि ने अल्पकाल में चौदह पूर्वो का अध्ययन कर लिया।
गुरुदेव ने उन्हें योग्य जानकर आचार्य पद प्रदान किया। उसके बाद प्रभवस्वामी अत्यंत ही समाधिपूर्वक कालधर्म प्राप्त कर देवलोक में उत्पन्न हुए।
शय्यंभव ब्राम्हण की दीक्षा की बात सुनकर और उसकी पत्नी को युवावस्था में देखकर आसपास के लोग शय्यंभव की निंदा करने लगे और कहने लगे , ‘अहो! यह शय्यंभव कितना निष्ठुर है…… अपनी युवा-पत्नी को इस प्रकार अकेली छोड़कर उसने दीक्षा अंगीकार कर ली। पति के अभाव में स्त्री, पुत्र के आधार पर अपना जीवन व्यतीत करती है; परन्तु इसे तो पुत्र भी पैदा नही हुआ है। अहो! यह किस प्रकार अपना जीवन व्यतीत करेगी।
उसी समय किसी स्त्री ने शय्यंभव की स्त्री को पूछ ही लिया , ‘ क्या तुम्हारे उदर में गर्भ की संभावना लगती है?’
उसने प्राकृत भाषा में कहा, ‘मणयम्’ अर्थात कुछ संभावना है।
धीरे-धीरे समय व्यतीत हुआ और गर्भ भी बढ़ने लगा । गर्भकाल पूर्ण होने पर उसने एक अत्यंत ही तेजस्वी पुत्र-रत्न को जन्म दिया।
गर्भकाल के दौरान माता ने जो ‘मणयं’ शब्द का प्रयोग किया था उसके अनुसार उस बालक का ‘मनक’ नाम पड़ा और इस नाम से वह प्रसिद्ध हो गया ।
शय्यंभव की स्त्री के लिए अब मनक ही आधार स्तम्भ था। वह अत्यंत ही लाड़-प्यार से उस बालक का पालन पोषण करने लगी। तीक्ष्ण-प्रज्ञा के कारण वह अल्पकाल में ही अनेक विद्याओं में निपुण हो गया।
मनक जब आठ वर्ष का हुआ, तब उसके दिल में एक सन्देह उत्पन्न हुआ। उसने अपने घर पर कभी भी अपने पिता के दर्शन नही किये और दूसरी और उसकी माता के सुहागिन के वस्त्र देखे। एक बार उसने माँ को पूछ ही लिया, ‘माँ! मेरे पिता कहा है? में उन्हें देखना चाहता हूँ।
बेटे की इस बात को सुनकर माँ की आँखे डबडबा गई। उसकी आँखों में पति वियोग की पीड़ा के आंसू उभर आए। कुछ समय बाद साहस करके वह बोली, ‘बेटा! जब तू गर्भ में था, तभी तेरे पिता शय्यंभव नाम के यज्ञ में रत थे, परन्तु किसी धूर्त श्रमणों ने ठगकर उन्हें दीक्षा दे दी है।’
बालक के दिल में पिता के दर्शन की तीव्र उत्कंठा पैदा हुई और एक दिन माता को ठगकर वह पिता की शोध में निकल पड़ा।
उस समय शय्यंभव सूरि जी. म. चंपा नगरी में विचरण कर रहे थे। भाग्य योग से वह बालक भी चंपा नगरी के बहार आ पंहुचा। उस समय शय्यंभव सूरि जी म. स्थंडिल भूमि से वापस नगर की और आगे बढ़ रहे थे।
बालक ने दूर से ही आचार्य भगवंत को देखा और आचार्य भगवंत ने उस बालक को देखा । बालक को देखते ही आचार्य भगवंत के ह्रदय में सहज ही प्रेम का सागर उमड़ पड़ा। अपरिचित अवस्था में भी पूर्व संबंध के कारण प्रेम का सागर उछल पड़ता है।
निकट आने पर आचार्य भगवंत ने उस बालक को पूछा, ‘वत्स! तुम कोन हो? कहाँ से आए हो और तुम्हारे माता-पिता कौन है?’
बालक ने कहा, ‘ मैं राजगृही नगरी से आया हूँ। मैं वत्स गोत्रीय शय्यंभव ब्राह्मण का पुत्र हूँ। मैं जब गर्भ में था तभी मेरे पिता ने दीक्षा अंगीकार कर ली थी । अतः उनकी शोध करने के लिए मैं घर छोड़कर निकल पड़ा हूँ। क्रमशः घूमते हुए यहां आया हूँ। क्या आप मेरे पिता को पहिचानते हो? यदि आप उनके बारे में मुझे जानकारी देंगे तो मैं आपके उपकार को कभी नही भूलूंगा। पिता को जानकर मैं भी उनके चरणों में दीक्षा अंगीकार कर लूंगा, उनका मार्ग ही मेरा मार्ग है।’
आचार्य भगवंत ने कहा, वत्स! मैं तुम्हारे पिता को अच्छी तरह से पहिचानता हूँ। उनमे और मुझमे कोई फर्क नही है। इस प्रकार समझाकर उसे उपाश्रय में ले गए। तत्पश्चात् उसकी योग्यता जानकर आचार्य भगवंत ने उसे भागवती दीक्षा प्रदान कर दी।
आचार्य भगवंत ने अपने ज्ञान के बल से बालमुनि मनक के भविष्य पर दृष्टिपात किया। उन्हें पता चला की इसका आयुष्य बहुत ही अल्प है। छः मास में ही इसका जीवन पूरा हो जाएगा। अतः यह श्रुत पारगामी तो नही बन सकता है।
उन्होंने सोचा, ‘ कोई चौदहपूर्वी, दशपूर्वी विशेष प्रयोजन उत्पन्न होने पर श्रुतसागर का समुध्दार कर सकते है। मणक के प्रतिबोध का प्रसंग उपस्थित हुआ है, अतः क्यों न सिद्धान्त के अर्थ के समुच्चय रूप सिद्धान्तसार का उद्धार करू’-इस प्रकार विचार कर विभिन्न पूर्वो के अध्ययन की सारभूत गाथाओं का चयन कर शास्त्र का सर्जन किया। विकाल वेला में उसका सर्जन हुआ होने से उस ग्रन्थ का नाम ‘दशवैकालिक’ पड़ा।
क्रमशः...
दशवैकालिक सूत्र के रचयिता शय्यंभवसूरिजी
- भाग 3
दया के महसागर शय्यंभव सूरी जी ने मणक मुनि को वह ग्रन्थ अच्छी तरह से पढ़ाया । इसके परिणाम स्वरूप वे बालमुनि अत्यंत ही अप्रमत्त भाव से संयम धर्म की आराधना साधना करने लगे । मणक मुनि आत्म साधना में एकदम रम गए। अत्यंत ही आत्म जागृति पूर्वक मणक मुनि ने छः मास व्यतीत किये और एक दिन अत्यंत ही समाधी पूर्वक बालमुनि ने अपना देह छोड़ दिया। काल धर्म प्राप्त कर वे बालमुनि देवलोक में उत्पन्न हुए।
यद्यपि जैन मुनि के किसी के मरण का किसी प्रकार का शोक नही होता है। फिर भी मनक मुनि कालधर्म के बाद चौदह पूर्वधर शय्यंभव सूरी जी म. की आँखों में आंसू आ गए । यह दृश्य देख उनके शिष्यो को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने पूछ ही लिया , ‘ प्रभो! आप तो निर्मोही हो फिर आपको यह मोह कैसे?’
आचार्य भगवंत ने कहा , ‘मनक के साथ मेरा पिता पुत्र का संबंध था और इसी पुत्र मोह के कारण मेरी आँख में आंसू आ गए ।’ इतना कहकर आचार्य भगवंत ने मनक के जीवन का सारा पूर्व वृत्तान्त कह सुनाया।
उसी समय यशोभद्र सूरी जी ने कहा, ‘भगवंत! आपने यह अपत्य सम्बन्ध हमसे छिपाकर क्यों रखा?, यदि आप पहले ही संकेत कर देते तो आपकी तरह आचार्य पुत्र की भी सेवा शुश्रुषा करते।’
आचार्य भगवंत ने कहा, ‘ मैंने उसके हित के लिए यह बात सबसे छिपाकर रखी थी। तपस्वी मुनियों की वैयावच्च आदि से उसे जो कर्म निर्जरा का लाभ मिला, यह तभी सम्भव हो सका , जब तुम , उनके और मेरे सम्बन्ध से अज्ञात रहे’।
तत्पश्चात् आचार्य भगवंत ने कहा, मैंने उसके उद्धार के लिए पूर्वो के सार रूप इस ‘दशवैकालिक’ की रचना की है; अब मुख्य उद्देश्य समाप्त हो चूका है, अतः मैं चाहता हूँ कि उन अध्ययनों को संवृत्त कर यथा स्थान स्थापित कर दूँ।’
यशोभद्र सूरी जी आदि मुनियो ने यह बात संघ को कही । संघ ने निवेदन करते हुए कहा , ‘ मनक के हित के लिए बनाया हुआ ग्रन्थ समस्त जगत् के उपकार का निमित्त बना रहे, क्योकि भविष्य ने प्राणी अल्प बुद्धि वाले होंगे । मनक की तरह वे जीव भी इस ग्रन्थ से कृतार्थ बन सकेंगे। अतः आप इसका संवरण न करे।’
शय्यंभव सूरी म. ने संघ की भावना का सम्मान किया और दशवैकालिक ग्रन्थ को वैसा ही बनाये रखा।
भव्य जिवों पर उपकार करते हुए शय्यंभव सूरी म. अत्यंत ही समाधिपूर्वक कालधर्म को प्राप्त कर देवलोक में उत्पन्न हुए ।
पंचमकाल के अंत तक जो सूत्र जगत को मोक्षमार्ग दिखलाता रहेगा , ऐसे परम पवित्र दशवैकालिक ग्रन्थ के रचयिता चौदह पूर्वधर महर्षि शय्यंभव सूरी जी म. के पवित्र चरण कमलों में कोटि कोटि वन्दना ।🙏🙏
- भाग 1
पांचवे आरे के अंतिम समय तक जो सूत्र विद्दमान रहेगा और जगत को सत्यमार्ग का प्रकाश देता रहेगा ,ऐसे पवित्र ग्रंथ ‘श्री दशवैकालिक सूत्र ‘ के रचयिता चौदह पूर्वधर महर्षि श्रुत्र केवली शय्यंभव सूरिजी म., जो जन्म से जैन नही थे ….परंतु जिस प्रकार पारसमणि के संग से लोहा सुवर्ण बन जाता है, उसी प्रकार सद्गुरु के समागम से जिनकी आत्मा में अद्भुत निखार आया , ऐसे पवित्र महापुरुष का चरित्र अवश्य पठनीय हैl तो चले ,हम भी उनके पवित्र जीवन चरित्र की गंगा में स्नान कर अपनी आत्मा को पावन करे l
चरम केवली जम्बुस्वामी के पट्ट प्रभावक चौदह पूर्वधर महर्षि प्रभव स्वामी अपनें चरण कमलों से पृथ्वीतल को पावन कर रहे थें।
एक बार आवश्यक श्रुत के अध्ययन से श्रमित बना हुआ शिष्य-समुदाय निद्राधीन बना हुआ था – तभी मध्य रात्री में वे अचानक जाग्रत हुए और सोचने लगे , ‘अहो! मेरी काया तो वृद्ध हो चुकी हे ;जब तक मेरी काया सशक्त थी ,तब तक मेने अपने कर्तव्य का यथाशक्य पालन नही किया ,परंतु अब मेरी काया शिथिल बनती जा रही है …
शासन की विविध जवाबदारियों को वहन करने में असमर्थ बन रही है ; अतः क्यों न योग्य पात्र को अपने पद पर नियुक्त कर अपने कार्य भार से हल्का बन जाऊ!’ इस प्रकार विचार कर अपने भावी पट्टधर की नियुक्ति के लिए उन्होंने सर्वप्रथम अपने शिष्य समुदाय पर नजर डाली ….
परन्तु उन्हें एक भी शिष्य ऐसा नजर नही आया , जो उनका योग्य उत्तराधिकारी बन सके । इसके बाद उन्होंने श्रावक वर्ग पर नजर डाली । श्रावक वर्ग में कोई योग्य जीव होतो उसे प्रतिबोध देकर , उसे दीक्षित कर, संघ का नेतृत्व -भार उसे सोपा जा सके । परन्तु यह क्या? श्रावक वर्ग में ऐसा एक भी श्रावक नजर नही आया जो उनका सुयोग्य उत्तराधिकारी बन सके।
इसके बाद उन्होंने अन्य दर्शन के व्यक्तियों पर अपनी नजर दौड़ाई और उसी समय उन्हें राजगृह नगर में वत्सकुल में उत्प्पन हुए शय्यंभव हर तरह से योग्य दिखाई दिए । वह शय्यंभव ब्राह्मणों के पास यज्ञ करा रहा था।
अपने भावी उत्तराधिकारी को नियुक्त करने के लिए प्रभवस्वामी ने राजगृही नगरी की और यात्रा प्रारम्भ की। श्रमणों का तो यह कर्तव्य कि जिस क्षेत्र में विचरण से लाभ होता हे उस क्षेत्र में विचरण करते ही है।
प्रभवस्वामी राजगृही नगरी में पधारे । प्रभवस्वामी ने आर्य शय्यंभव को अपनी और आकर्षित करने के लिये बहुत ही सुंदर योजना बनाइ ।
उन्होंने दो मुनियो को आज्ञा देते हुए कहा ‘आज तुम यज्ञशाला में जाओ और वहा आहार मिले या नही , फिर भी लौटते समय जोर से कहना -‘
*अहो कष्टं ,अहो कष्टं तत्त्वं विज्ञा याते न हि*।
‘बहुत खेद की बात हे की बहुत सा कष्ट उठाने के बाद भी तत्व को नही पहिचाना जा रहा है।
दो मुनियो ने गुरुदेव की आज्ञा शिरोधार्य की और उन्होंने भिक्षा के लिये यज्ञशाला की और प्रयाण कर दिया ।
वे दोनो आगे बढ़ते हुए यज्ञ मंडप के समीप पहुचे गये । उन्होंने यज्ञ मंडप के द्वार को सुसज्जित देखा । समुन्नत ध्वजा शोभा में चार चाँद लगा रही थी। जल पात्र भरे हुए थे ।ब्राह्मण मंत्रोच्चार पूर्वक यज्ञ द्रव्य समर्पण करने के लिए तैयार थे।
इसी बीच वे दोनों मुनि भिक्षा के लिए यज्ञशाला में आये परन्तु उन ब्राह्मणों ने उन्हें भिक्षा नही दी।
वापस लौटते समय उन दोनो मुनियो ने जोर से कहा –
‘अहो कष्टं ,अहो कष्टं तत्त्वं विज्ञायते न ही’।
यह पद्य उन्होंने अनेक बार दुहराया।
दीक्षित शय्यंभव यज्ञ शाला के द्वार के पास बैठा हुआ था ।जैन मुनियो के मुख से इस पद्य को सुनकर शय्यंभव ब्राह्मण सोचने लगा , ‘अहो! उपशम प्रधान ये साधु कभी भी असत्य भाषण नही करते हे ; अतः लगता हे की अभी तक हमने सत्य तत्व को प्राप्त नही किया है।’
शय्यंभव ब्राह्मण सन्देह के झूले में झूलने लगा । उसने तुरन्त की उपाध्याय को बुलाकर पूछा ,’कृपया मुझे बतलाये की वास्तविक तत्व क्या है?’
उपाध्याय ने कहा ‘स्वर्ग और अपवर्ग को प्रदान करने में समर्थ ये वेद ही परम तत्व है; इनसे अतरिक्त कोई तत्व नही है।’
शय्यंभव ने कहा ‘यज्ञ की दक्षिणादि के लाभ से तुम लोग हमारे जेसो को ठग रहे हो , क्योकि राग द्वेष से रहित ,निर्मम, निष्परिग्रही ये जैन मुनि कभी असत्य नही बोलते है । तुम लोग वास्तविक गुरु नही हो। तुम लोगो ने दुनिया को ठगने का काम ही किया है; अतः तुम शिक्षा के पात्र हो । यदि तुम सत्य तत्व नही बतालाओगे तो मेरी यह तलवार तुम्हारे मस्तक को धड़ से अलग कर देगी ‘।
उपाध्याय ने जब आपकी आँख के सामने मौत को घूमती हुई देखा तो वह भी भय के मारे काँप उठा और सोचा ; अब सत्य तत्व प्रगट करने में ही मेरा ही मेरा हित है; इस प्रकार विचार कर बोला , ‘इस यज्ञस्तम्भ के नीचे अरिहंत की रत्नमयी प्रतिमा रही हुई है। गुप्त रीति से प्रतिदिन उसका पूजन होता है और उसी के प्रभाव से हमारा यज्ञादी अनुष्ठान निर्विध्न पूर्ण होता है। यदि वह प्रतिमा नही होती तो विघ्न पैदा हुए बिना नही रहते।’
उसी समय उपाध्याय ने यज्ञ स्तम्भ को उखाड़ा और उसके नीचे रही हुई रत्नमयी अरिहंत की प्रतिमा बतलाकर कहा ,’जिस अर्हत की यह प्रतिमा है, उसके द्वारा निर्दिष्ट धर्म ही परम तत्व है। अन्य यज्ञ आदि तो सिर्फ विडम्बना मात्र है । अरिहंत परमात्मा के द्वारा निर्दिष्ट जीवदयात्मक धर्म ही सच्चा धर्म है और जिस यज्ञ में पशुओं की हिंसा रही हुई है , वहा धर्म कहा से हो? हम तो माया जाल करके जी रहे है…..तुम तत्व को जानो और अपना कल्याण साधो । अपने पेट की पूर्ति के लिए मेने निरर्थक ही तुम्हे ठगा है; अब में तुम्हारा वास्तविक उपाध्याय नही हु।,’
क्रमशः...
दशवैकालिक सूत्र के रचयिता शय्यंभवसूरिजी
- भाग 2
शय्यंभव को सन्मार्ग की प्राप्ति हो चुकी थी, अतः उसने नम्रता पूर्वक कहा , पूज्यवर! आपने सत्य तत्त्व को बतलाकर मुझे सत्य मार्ग प्रदान किया है; अतः आप मेरे उपाध्याय हो।’
उसके बाद शय्यंभव ने उस उपाध्याय को सुवर्ण व ताम्र के विविध उपकरण भेंट किए । तत्पश्चात उन मुनियो को शोध में वह शय्यंभव निकल पड़ा ।
कुछ दूरी पार करने पर उसे दोनो मुनियो के पद चिन्ह दिखाई दिए । उन पद चिन्हों के अनुसार वह प्रभव स्वामी के पास पहुँच गया । उसने प्रभव स्वामी के चरणों में भाव पूर्वक नमन किया। आचार्य भगवंत ने भी उसे धर्मलाभ की आशीष दी।
उसके बाद उसने आचार्य भगवंत को मोक्ष के कारण भूत, धर्म तत्त्व के बारे में पुछा ।
आचार्य भगवंत ने उसे धर्म का तत्त्व समझाते हुए कहा ,’ इस संसार में जैसे अपने को जीना पसन्द है और मरना पसन्द नही है; उसी प्रकार संसार में जीव मात्र को जीना पसन्द हे ,मरना पसन्द नही है। अतः अपने निजी स्वार्थ के लिए दूसरे जीवो को मौत के घाट नही उतारना चाहिए । ‘ दया’ ही सबसे बड़ा धर्म है । सत्य , अचौर्य , ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का पालन भी अहिंसा धर्म के पालन रक्षण के लिए ही है । जो व्यक्ति हिंसादि पांच पापो का सर्वथा त्याग करते है; वे ही शाश्वत अजरामर मोक्ष पद प्राप्त करते है।’
इसके बाद आचार्य भगवंत ने उसे जैनदर्शन में निर्दिष्ट जीवादि तत्त्वों का विस्तृत स्वरूप समझाया, जिसे सुनकर शय्यंभव के दिल में इस असार संसार के प्रति तीव्र वैराग्य भाव उत्पन्न हो गया ।
प्रभव स्वामी के चरणों में नमस्कार करके वह बोला , ‘प्रभो! सद्गुरु के समागम के आभाव के कारण आज तक मुझे अतत्त्व में ही तत्त्व बूद्धि बनी रही । आज मेरे ज्ञान चक्षु खुल गए है । आपके अनुग्रह से मुझे तत्त्व अमृत की प्राप्ति हुई है; मैं इस संसार से विरक्त बन चूका हूँ। भागवती दीक्षा प्रदान कर आप मेरा उद्धार करे।’
बस, उसी समय शय्यंभव की योग्यता को जानकर आचार्य भगवंत ने उसे भागवति दीक्षा प्रदान की । आचार्य भगवंत चिंता मुक्त बन गए …… उन्हें जिस योग्य उत्तराधिकारी की आवश्यकता थी , वह उत्तराधिकारी उन्हें मिल गया था।भागवती दीक्षा स्वीकार करने के बाद शय्यंभव मुनि ज्ञान ध्यान की साधना में लीन बन गए । अनुकूल प्रतिकूल परिषह उपसर्गो को वे अत्यंत ही समतापूर्वक सहन करने लगे । उपवास , छट्ठ , अट्ठम आदि विविध तपो के द्वारा उनका बाह्य-अभ्यन्तर तेज खूब खूब बढ़ने लगा।. . . इसी प्रकार गुरु शुश्रुषा में लीन बने शय्यंभव मुनि ने अल्पकाल में चौदह पूर्वो का अध्ययन कर लिया।
गुरुदेव ने उन्हें योग्य जानकर आचार्य पद प्रदान किया। उसके बाद प्रभवस्वामी अत्यंत ही समाधिपूर्वक कालधर्म प्राप्त कर देवलोक में उत्पन्न हुए।
शय्यंभव ब्राम्हण की दीक्षा की बात सुनकर और उसकी पत्नी को युवावस्था में देखकर आसपास के लोग शय्यंभव की निंदा करने लगे और कहने लगे , ‘अहो! यह शय्यंभव कितना निष्ठुर है…… अपनी युवा-पत्नी को इस प्रकार अकेली छोड़कर उसने दीक्षा अंगीकार कर ली। पति के अभाव में स्त्री, पुत्र के आधार पर अपना जीवन व्यतीत करती है; परन्तु इसे तो पुत्र भी पैदा नही हुआ है। अहो! यह किस प्रकार अपना जीवन व्यतीत करेगी।
उसी समय किसी स्त्री ने शय्यंभव की स्त्री को पूछ ही लिया , ‘ क्या तुम्हारे उदर में गर्भ की संभावना लगती है?’
उसने प्राकृत भाषा में कहा, ‘मणयम्’ अर्थात कुछ संभावना है।
धीरे-धीरे समय व्यतीत हुआ और गर्भ भी बढ़ने लगा । गर्भकाल पूर्ण होने पर उसने एक अत्यंत ही तेजस्वी पुत्र-रत्न को जन्म दिया।
गर्भकाल के दौरान माता ने जो ‘मणयं’ शब्द का प्रयोग किया था उसके अनुसार उस बालक का ‘मनक’ नाम पड़ा और इस नाम से वह प्रसिद्ध हो गया ।
शय्यंभव की स्त्री के लिए अब मनक ही आधार स्तम्भ था। वह अत्यंत ही लाड़-प्यार से उस बालक का पालन पोषण करने लगी। तीक्ष्ण-प्रज्ञा के कारण वह अल्पकाल में ही अनेक विद्याओं में निपुण हो गया।
मनक जब आठ वर्ष का हुआ, तब उसके दिल में एक सन्देह उत्पन्न हुआ। उसने अपने घर पर कभी भी अपने पिता के दर्शन नही किये और दूसरी और उसकी माता के सुहागिन के वस्त्र देखे। एक बार उसने माँ को पूछ ही लिया, ‘माँ! मेरे पिता कहा है? में उन्हें देखना चाहता हूँ।
बेटे की इस बात को सुनकर माँ की आँखे डबडबा गई। उसकी आँखों में पति वियोग की पीड़ा के आंसू उभर आए। कुछ समय बाद साहस करके वह बोली, ‘बेटा! जब तू गर्भ में था, तभी तेरे पिता शय्यंभव नाम के यज्ञ में रत थे, परन्तु किसी धूर्त श्रमणों ने ठगकर उन्हें दीक्षा दे दी है।’
बालक के दिल में पिता के दर्शन की तीव्र उत्कंठा पैदा हुई और एक दिन माता को ठगकर वह पिता की शोध में निकल पड़ा।
उस समय शय्यंभव सूरि जी. म. चंपा नगरी में विचरण कर रहे थे। भाग्य योग से वह बालक भी चंपा नगरी के बहार आ पंहुचा। उस समय शय्यंभव सूरि जी म. स्थंडिल भूमि से वापस नगर की और आगे बढ़ रहे थे।
बालक ने दूर से ही आचार्य भगवंत को देखा और आचार्य भगवंत ने उस बालक को देखा । बालक को देखते ही आचार्य भगवंत के ह्रदय में सहज ही प्रेम का सागर उमड़ पड़ा। अपरिचित अवस्था में भी पूर्व संबंध के कारण प्रेम का सागर उछल पड़ता है।
निकट आने पर आचार्य भगवंत ने उस बालक को पूछा, ‘वत्स! तुम कोन हो? कहाँ से आए हो और तुम्हारे माता-पिता कौन है?’
बालक ने कहा, ‘ मैं राजगृही नगरी से आया हूँ। मैं वत्स गोत्रीय शय्यंभव ब्राह्मण का पुत्र हूँ। मैं जब गर्भ में था तभी मेरे पिता ने दीक्षा अंगीकार कर ली थी । अतः उनकी शोध करने के लिए मैं घर छोड़कर निकल पड़ा हूँ। क्रमशः घूमते हुए यहां आया हूँ। क्या आप मेरे पिता को पहिचानते हो? यदि आप उनके बारे में मुझे जानकारी देंगे तो मैं आपके उपकार को कभी नही भूलूंगा। पिता को जानकर मैं भी उनके चरणों में दीक्षा अंगीकार कर लूंगा, उनका मार्ग ही मेरा मार्ग है।’
आचार्य भगवंत ने कहा, वत्स! मैं तुम्हारे पिता को अच्छी तरह से पहिचानता हूँ। उनमे और मुझमे कोई फर्क नही है। इस प्रकार समझाकर उसे उपाश्रय में ले गए। तत्पश्चात् उसकी योग्यता जानकर आचार्य भगवंत ने उसे भागवती दीक्षा प्रदान कर दी।
आचार्य भगवंत ने अपने ज्ञान के बल से बालमुनि मनक के भविष्य पर दृष्टिपात किया। उन्हें पता चला की इसका आयुष्य बहुत ही अल्प है। छः मास में ही इसका जीवन पूरा हो जाएगा। अतः यह श्रुत पारगामी तो नही बन सकता है।
उन्होंने सोचा, ‘ कोई चौदहपूर्वी, दशपूर्वी विशेष प्रयोजन उत्पन्न होने पर श्रुतसागर का समुध्दार कर सकते है। मणक के प्रतिबोध का प्रसंग उपस्थित हुआ है, अतः क्यों न सिद्धान्त के अर्थ के समुच्चय रूप सिद्धान्तसार का उद्धार करू’-इस प्रकार विचार कर विभिन्न पूर्वो के अध्ययन की सारभूत गाथाओं का चयन कर शास्त्र का सर्जन किया। विकाल वेला में उसका सर्जन हुआ होने से उस ग्रन्थ का नाम ‘दशवैकालिक’ पड़ा।
क्रमशः...
दशवैकालिक सूत्र के रचयिता शय्यंभवसूरिजी
- भाग 3
दया के महसागर शय्यंभव सूरी जी ने मणक मुनि को वह ग्रन्थ अच्छी तरह से पढ़ाया । इसके परिणाम स्वरूप वे बालमुनि अत्यंत ही अप्रमत्त भाव से संयम धर्म की आराधना साधना करने लगे । मणक मुनि आत्म साधना में एकदम रम गए। अत्यंत ही आत्म जागृति पूर्वक मणक मुनि ने छः मास व्यतीत किये और एक दिन अत्यंत ही समाधी पूर्वक बालमुनि ने अपना देह छोड़ दिया। काल धर्म प्राप्त कर वे बालमुनि देवलोक में उत्पन्न हुए।
यद्यपि जैन मुनि के किसी के मरण का किसी प्रकार का शोक नही होता है। फिर भी मनक मुनि कालधर्म के बाद चौदह पूर्वधर शय्यंभव सूरी जी म. की आँखों में आंसू आ गए । यह दृश्य देख उनके शिष्यो को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने पूछ ही लिया , ‘ प्रभो! आप तो निर्मोही हो फिर आपको यह मोह कैसे?’
आचार्य भगवंत ने कहा , ‘मनक के साथ मेरा पिता पुत्र का संबंध था और इसी पुत्र मोह के कारण मेरी आँख में आंसू आ गए ।’ इतना कहकर आचार्य भगवंत ने मनक के जीवन का सारा पूर्व वृत्तान्त कह सुनाया।
उसी समय यशोभद्र सूरी जी ने कहा, ‘भगवंत! आपने यह अपत्य सम्बन्ध हमसे छिपाकर क्यों रखा?, यदि आप पहले ही संकेत कर देते तो आपकी तरह आचार्य पुत्र की भी सेवा शुश्रुषा करते।’
आचार्य भगवंत ने कहा, ‘ मैंने उसके हित के लिए यह बात सबसे छिपाकर रखी थी। तपस्वी मुनियों की वैयावच्च आदि से उसे जो कर्म निर्जरा का लाभ मिला, यह तभी सम्भव हो सका , जब तुम , उनके और मेरे सम्बन्ध से अज्ञात रहे’।
तत्पश्चात् आचार्य भगवंत ने कहा, मैंने उसके उद्धार के लिए पूर्वो के सार रूप इस ‘दशवैकालिक’ की रचना की है; अब मुख्य उद्देश्य समाप्त हो चूका है, अतः मैं चाहता हूँ कि उन अध्ययनों को संवृत्त कर यथा स्थान स्थापित कर दूँ।’
यशोभद्र सूरी जी आदि मुनियो ने यह बात संघ को कही । संघ ने निवेदन करते हुए कहा , ‘ मनक के हित के लिए बनाया हुआ ग्रन्थ समस्त जगत् के उपकार का निमित्त बना रहे, क्योकि भविष्य ने प्राणी अल्प बुद्धि वाले होंगे । मनक की तरह वे जीव भी इस ग्रन्थ से कृतार्थ बन सकेंगे। अतः आप इसका संवरण न करे।’
शय्यंभव सूरी म. ने संघ की भावना का सम्मान किया और दशवैकालिक ग्रन्थ को वैसा ही बनाये रखा।
भव्य जिवों पर उपकार करते हुए शय्यंभव सूरी म. अत्यंत ही समाधिपूर्वक कालधर्म को प्राप्त कर देवलोक में उत्पन्न हुए ।
पंचमकाल के अंत तक जो सूत्र जगत को मोक्षमार्ग दिखलाता रहेगा , ऐसे परम पवित्र दशवैकालिक ग्रन्थ के रचयिता चौदह पूर्वधर महर्षि शय्यंभव सूरी जी म. के पवित्र चरण कमलों में कोटि कोटि वन्दना ।🙏🙏
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