जैन महाभारत
*पोस्ट, 1*
🔘🔲🔘🔲🔘🔲🔘
एक राजा था।
*शांन्तनु* उनका नाम था। स्वभाव के शांत नदी के जैसे थे। तेज़ ऐसा था कि जैसे दूसरा सूर्य देख लो और न्याय के लिए तो आदर्श रूप थे।
वो राजा की प्रजा भी कैसी?
चतुर सार असार को समझने वाली अच्छे और बुरे का विवेक करने वाली धर्म वाली धन और ऐश्वर्य से युक्त थी।
राजा की नगरी भी अद्भुत थी जैसे देव नगरी को देख लो।
वो नगरी का नाम था *हस्तिनापुर*
शांतनु गुणों के भंडार थे।
पर जैसे निर्मल चंद्र में भी कलंक होता है वैसे ही शांतनु में भी एक भयंकर दोष था वो
*शिकार के बहुत शौकीन थे।*
समय होते ही वो शिकार पर निकल जाते थे।
इतना अच्छा राजा पर रंग प्राणियों पर दया नहीं थी दया होती तो शिकार जैसा क्रूर कार्य नहीं करता।
दया के बिना ना राज्य शोभता है और न राजा शोभता है और दिल में दया न हो तो मनुष्य देह भी नहीं शोभता ।
*एक समय की बात है।*
शांतनु राजा शिकार करने के लिए निकले। हैं शिकार की चाह में दूर दूर तक पहुँच गए है। बहुत दूर जाने के बाद राजा एक पेड़ के नीचे हरण और हरणी को देखा हरण और हरनी पेड़ की शीतल छाया में निश्चित होकर आनंदपूर्वक नाच रहे थे। राजा ने अपने घोड़े वो तरफ दौड़ा दिए।
पर ये तो हरण की जात थोड़ा बहुत आवाज सुनते उन्हें ख्याल आ गया।
हरण दौड़ रहा है। हरणी दौड़ रही। है और उनके पीछे राजा के घोड़े भी दौड़ रहे है। ऐसा दौड़ रहे है। जैसे आकाश में उड़ रहे हो दौड़े जा रहे हैं दौड़े जा रहे है जैसे दौड़ने की कोई प्रतियोगिता हो।
दौड़ते दौड़ते जंगल में आगे बढ़ते हुए हरण और हरिणी एक उपवन में आ गए।
पीछे पीछे शांतनु का घोड़ा भी उपवन में आ गया पर ये क्या हुआ थोड़ी दूर पर आते ही हरण और हरणी का जोड़ा उपवन में कहीं अदृश्य हो गया जैसे कहीं उड़ गया हो। कहीं भी वो दिखाई देता नहीं है।
शांतनु ने सब जगह देखा कहीं भी वो उसे नहीं दिखाई दिया।
अंत में वो थक गया और उसने अपने बाण रख दिए और उपवन की शोभा देखने लगा।
फिर उसने एक सुंदर महल देखा। जंगल के कोने में उपवन में इतना सुंदर महल इसमें कौन रहता होगा चलो देख के आता हूँ।
वहाँ उसने जैसे ही महल के अंदर प्रवेश किया वहां एक सुंदर रूपवती स्त्री को देखकर शांतनु स्तब्ध हो गया
रूप का अंबार !
इतना अद्भुत रूप।
मन में विचार आया ये
कोई देवकन्या है!
कोई नागकन्या है!
या कोई मानव कन्या!
ये स्वप्न है या हकीकत!
घंटी जिस तरह से बजती है। ऐसे कर्ण मधुर स्वर से युवती बोली
पधारो राजन!
हमारे आँगन को आप अपने चरण कमल से पवित्र करके हमें कृतार्थ करो सामने आसन है। उस पर विराजो।
*क्रमश*
🔘🔲🔘🔲🔘🔲🔘
*जैन महाभारत*
*पोस्ट, 2*
🔘🔲🔘🔲🔘🔲🔘
शांतनु विचार करते है। कैसी मीठी वाणी कैसा सुंदर विनय जैसा रूप सुंदर है। वैसी ही भाषा भी सुंदर है और व्यवहार भी इतना ही सुंदर रूप और गुण का कैसा सुंदर संगम
शांतनु बैठते है।और फिर पूछते है।
ऐसे वन के कोने में आये हुए ये उपवन किसका है? और ये महल किसका है?और आप की पानीदार मोती जैसी निर्मल और शुभ काया किसकी कोख से अवतरी है। और आपके पिता का शुभ नाम क्या है?
शांतनु के प्रश्न सुनने के बाद भी देवकन्या जैसी राजकुमारी कुछ भी नहीं बोलती है।
कन्या! तुम्हारा परीचय के लिए मैं अत्यंत उत्सुक हूँ इसलिए निःसंकोचता से निर्भयता पूर्वक आपका परिचय दो।
शांतनु के प्रश्न और राजकुमारी के मौन का जो दौर चला इतने में राजकुमारी की एक सखी वहां पहुँची।
कन्या ने उसे इशारा किया और उसकी सखी सब समझ गई और उसने राजा के प्रश्नों का उत्तर देना शुरू किया।
*रतनपुर* नाम का नगर है। वहाँ पे जहनु नाम के विद्याधर राज्य करते है। वो राजा को गंगानदी के नीर जैसी निर्मल और पवित्र काया वाली गंगा नाम की एक राजकुमारी है जो आपके समक्ष है।
एक दिन राजा सोचता है के रूपवान मेरी पुत्री के लिए कैसा पति की खोज करू चलो बेटी को ही पूछ लेता हूँ।
बेटी! *तुझे कैसा पति चाहिए।*
बेटी ने कहा मुझे तो ऐसा पति चाहिए कि मेरा कहा माने और मैं कहूँ वो ही करे राजकुमारी ने कहा उसका मुख शर्म से झुक गया और राजा हंसने लगा।
राजा को राजकुमारी पर बहुत प्रेम था इतना प्रेम था। क राजकुमारी की इच्छा के हिसाब से ही वो हर कार्य करता था। उन्होंने ऐसी घोषणा कर दी मेरी राजकुमारी को ऐसा पति चाहिए जो जिंदगी भर उसका कहाँ माने और कभी भी उसकी इच्छा विरुद्ध नहीं चले।
इस शर्त के हिसाब से कोई भी राज कुमार गंगा के साथ शादी करने को तैयार नहीं हुए।
राजा चिंता में पड़ गए राजकुमारी भी निराशा के अंधकार मे आ गई अब क्या होगा।
इतनी बात सहेली ने जब कही तब राजकुमारी ने शांतनु के विचार जानने की कोशिश की और उसके मुखाकृति को देखने लगी।
शांतनु मन में विचार करते हैं अभी तक किसी ने राजकुमारी का स्वीकार नहीं किया अथवा तो राजकुमारी ने कोई निर्णय नहीं किया है। तो मैं ही इस राजकुमारी से शादी कर लूं ऐसी रूपवान और गुणवत्ता राजकुमारी के लिए राजमहल के सुख छोड़ने हो तो भी मैं छोड़ सकता हूँ इससे ज्यादा कुछ भी करना पड़े तो भी मैं कर सकूंगा उसका हमेशा कहाँ मानना उसमें क्या बड़ी बात है।
मुझे लगता है भले ही ये राजकुमारी ने ऐसी शर्त रखी है पर उसका विनय व्यवहार पर से मुझे लगता है कि ये पति के ऊपर आज्ञा कभी भी नहीं करेगी और पति की सेवा में ही हमेशा रहेगी मुझे कैसे भी करके यह कन्यारत्न मिले तो मेरा जीवन धन्य समझु।
राजकुमारी भी राजा के मुख पर प्रसन्नता के भाव देख कर खुद प्रसन्नता अनुभव कर रही थी।
*अब सखी आगे कहती है।*
*पोस्ट, 3*
🔘🔲🔘🔲🔘🔲🔘
*अब सखी आगे कहती है।*
निराश होकर राजकुमारी ने तप करना शुरू किया।
श्री जिनेश्वर देव की पूजा विशिष्ट कोटि से की आराधना की बड़े बड़े मुनी जितनी कठोर साधना नहीं करे उतनी साधना
राजकुमारी ने की और इसी उद्देश्य से नगर से दूर इस आश्रम में राजकुमारी ने वास किया।
कल की ही एक बात है। अचानक राजकुमारी के पिता जहनु विद्याधर यहाँ आये और राजकुमारी को उन्होंने कहा
*बेटी!*
बहुत वर्षो की कठिन साधना का फल अब आने वाले कल तुझे मिलेगा। शिकार का शौकीन शांतनु राजा एक हरण हरनी का पीछा करते हुए यहां आएगा। और वो ही तेरा स्वीकार करेगा।
राजा शांतनु कब आयेंगे कब आयेंगे उसी की अधीरता पूर्वक हम राह देख रहे थे। और दूर से आपको आते हुए देखा। और हमें ऐसा लगा कि अवश्य ये हस्तिनापुर नगर के स्वामी महाराज शांतनु ही है। आप राजा शांतनु ही हो ऐसा स्पष्ट करके हमारे हृदय के शल्य को दूर करो।
राजा तो राजकुमारी के रूप पर मुग्ध हो गए थे।और सामने से इस तरह की बात आई फिर तो बाकी ही क्या रहे जिसकी इच्छा हो वह स्वयं सामने आये तो आनंद ना हो।
राजा ने सहमति दर्शायी और राजकुमारी गंगा को कहा।
हे राजकुमारी। इस वक्त तो वो हरण और हरनी के जोड़े। का जितना उपकार मानु उतना कम है। आपके और मेरे मिलने का मुख्य कारण तो वो ही है। इसलिए अभी मुझे वो अगर कहीं दिख गए तो धनुष पर तीर चढ़ाने के बदले उसके कंठ में पुष्प माला पहनाऊंगा।
*प्रिये!*
पूरी दुनिया लक्ष्मी को चाहते हैं। और मुझे तो स्वयं लक्ष्मी ही चाहती है। ये मेरा छोटा सदभाग्य है।
आपके जैसी रूपवती गुणवंती राजकुमारी मेरी झंखना करती हो वो तो मेरा
ही बहुत बड़ा सदभाग्य है।
अब रही बात *शर्त* की तो ये मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ। कि मरते दम तक भी आपके *वचन* का *उल्लंघन* नहीं करूँगा। इतना ही नहीं पर *रोगी* जैसे *वैद्य* का कहा हुआ मानता है वैसे ही मैं भी आपके वचन को हमेशा हितकारक समझ के मानुंगा।
कहीं आपके मन में ऐसा होता हो की मे आपका *वचन* न मानू तो? तो उसका *दंड* भी मैं ही आपको बता देता हूँ।
*जिस दिन आपके वचन का उल्लंघन करो उसी दिन उसी समय आप मुझे छोड़कर कहीं भी जाने के लिए स्वतंत्र हो।*
उसी समय राजा जहनु भी वहां पहुंचते है।
पिता को देख कर राजकुमारी। शर्म से खड़े होते हुए नीचे देखने लगती है।
राजकुमारी की सखी ने राजा जहनु को सब हकीकत बताई।
*शहनाई बजने लगी और नगाड़े बजने लगे।*
*महाराजा शांतनु और राजकुमारी गंगा लग्न ग्रंथि से बंध चुके।*
*क्रमश*
https://chat.whatsapp.com/Kx9QtEKHrjMIFj7h33lPma
🔘🔲🔘🔲🔘🔲🔘
*जैन महाभारत*
*पोस्ट, 4*
🔘🔲🔘🔲🔘🔲🔘
राजकुमारी गंगा को लेकर महाराजा शांतनु अपने *हस्तिनापुर* नगर में आए और गंगा को *पट्टरानी* पद पे स्थापना की।
राजा और रानी संसार के सुख भोग रहे है।समय बीत रहा है। उसकी खबर भी नहीं है।बहुत *काल* इस तरह बीत गया।
महारानी गंगादेवी ने शादी के पहले जो *शर्त* रखी थी की मेरी अवगणना कभी नहीं करनी तथा मेरी हर बात माननी पर गुणवंती गंगा ने पति के ऊपर कभी भी आज्ञा चलाने का प्रयत्न भी नहीं किया।
इतना ही नहीं पर राजा के चरणों की दासी बन कर रही।
पति के सुख में सुखी और पति के दुःख में दुखी इस तरह से वो रहती थी।
काल क्रम से महारानी गंगा देवी ने एक *तेजस्वी पुत्र* को *जन्म* दिया राजमहल मे पुत्र जन्म का उत्सव हुआ। प्रजाजनो को खुश किया। कर माफ किया।
बंदी खाने से कैदियों को छोड़ा गया।
नगर में सर्वत्र आनंद ही आनंद छा गया।
वो बालक का नाम रखा
*गांगये*
एक समय की बात है महाराजा शांतनु *शिकार* के लिए जाने की तैयारी कर रहे थे पर जहाँ बाहर निकले उसी समय सामने *गंगा देवी* मिल गए गंगा देवी पूछते है.
*नाथ!* अभी आप किस तरफ़ जाने की तैयारी कर रहे हो हाथ में धनुष क्यों लिया हुआ है क्या कोई शत्रु सैन्य के सामने लड़ने जाने की आवश्यकता हो गयी है।
राजा ने हँस कर जवाब दिया ऐसा नहीं है।
*प्रिये!* मेरे राज्य पर आक्रमण करने की शक्ति रखने वाला कोई राजा है ही नहीं इसलिए उसकी तो मुझे चिंता ही नहीं।
ये तो मेरा। आनंद के लिए *शिकार* खेलने जा रहा हूँ।
*क्रमश.....*
https://chat.whatsapp.com/D63sdMr1gBNKBGqECJgjkO
🔘🔲🔘🔲🔘🔲🔘
*जैन महाभारत*
*पोस्ट, 5*
🔘🔲🔘🔲🔘🔲🔘
शिकार का नाम सुनते ही गंगा देवी के हृदय में दुःख हुआ और दुखी स्वर से वे बोली
*नाथ!*
आप तो प्रजा वात्सल्य हो ये *निर्दोष पशु* ये भी आपकी *प्रजा* ही है।
फिर उनका *वध* करना आपके जैसे न्याय प्रिय राजा को *शोभता* है?
राजा तो गरीब और निर्मल के जीवन के आधार होते है। वो ही गरीब और निर्भय पशुओं पर अत्याचार गुजारे तो फिर फरियाद किसे करे? इसलिए
*नाथ!*
*कुछ नहीं पर आप मेरे ऊपर भी दया करके आप ये शिकार खेलने का व्यसन त्याग करो जिससे मेरा हृदय भी प्रफुल्लित हो जाये।
*शांतनु गंभीर स्वर से कहते है।*
*देवी!*
आपकी बात सच्ची है। हिंसा *दुर्गति* का कारण है। और भवांतर में भी *महादुखदायी* है।
ये मैं जानता हूँ। पर कौन जाने मैं अपने आपको *शिकार* के इस *व्यसन* से रोक नहीं पा रहा हूँ।
शिकार के बिना मुझे कुछ अच्छा ही नहीं लगता है। और शिकार करने का किसी का उपदेश मुझे कोई असर भी नहीं करता।
देवी आप इस बारे में मुझे आग्रह नहीं करो।
इसमें अपरिमित पाप है। ऐसा जानते हुए भी मुझसे ये छूटे ये असंभावित है।
गंगा देवी कहती है।
*नाथ!*
अभी इस पृथ्वी पर रूप मे गुण मे बुद्धि में बल मे धन मे ऐश्वर्य मे आपकी तुलना कर सके।
ऐसा कोई राजा है?
फिर भी चंद्र की तरह आप में भी एक कलंक है। शिकार के व्यसन का
*कलंक!*
*अमृत के पात्र में गिरा हुआ एक विष का बिंदु भी समस्त अमृत को दूषित कर डालता है।*
आप में रहे हुए समस्त गुण को एक दोष कलंकित कर देते है।
इसलिए आपके जैसे
समझदार को ये छोड़ने जैसा है।
शांतनु ने कहा
*देवी!*
मैं सब जानता हूँ पर ये शिकार का शौक मुझे बहुत ज्यादा है। और मैं *लाचार* हूं। इसीलिए मैं आपको कह रहा हूँ। इस बात को ज्यादा मत बढ़ाओ मैं समझता हूं। कि ये पाप है। पर मेरा कुतूहल इसे छोड़ने को तैयार नहीं है।
यह सुनकर गंगा देवी को भी *दुःख* हुआ।
उन्होंने कहा
*नाथ!*
आपके जैसे कुशल राजनीतिज्ञ के लिए *निरपराध* पशुओं का *वध* करना किसी भी तरह से उचित नहीं है।
सामने से आये हुए शत्रु भी अगर निशस्त्र हो तो उसके ऊपर शस्त्र चलाना क्षत्रियत्व को कलंक जैसा है।
तो इन बिचारे पशुओं के ऊपर शस्त्र चल कैसे सकते हो?
शांतनु तो इस तरह से खड़े थे के जैसे उन्हें कोई असर ही नहीं हो रही थी पत्थर ऊपर पानी
गंगा देवी मौन हो गयी तो राजा आगे बढ़ने लगे।
जैसे ही पैर उठाया गंगा देवी के दिमाग में एक दम एक विचार आया।
उन्हें कुछ याद आया। और राजा के मार्ग में आकर खड़े हो गई।
*राजा ने पूछा अभी क्या है?*
तब गंगा देवी ने कहा एक बात है।
शादी के वक़्त आप ने मुझे *वचन* दिया था कि मरते दम तक भी मैं आपके वचन का उल्लंघन नहीं करूँगा।
*आपके वचन और उस वचन के मुताबिक मैं कहती हूं कि आज से आप कभी भी शिकार के लिए नहीं जायेंगे।*
राजा कहते है।
*देवी!*
मैं कबूल करता हूँ। कि मैंने आपको वचन दिया था। और मुझे पालना भी चाहिए। पर ये शिकार के लिए मुझे माफ करो आपकी कोई भी दूसरी बात होगी तो मैं जरूर मानूँगा। आपका वचन उल्लंघन करने की मेरी इच्छा नही है।पर अभी ये शिकार का व्यसन आपके वचन का उल्लंघन करा रहा है।
पर मुझे आशा है। कि आप मुझे इतना प्रेम करते हो कि मुझे अवश्य माफ कर दोगे। इतना कह कर राजा वहाँ से चले गए।
गंगा देवी तो देखती ही रह गयी। उनकी आँखों में आँसू भर आये। इस प्रसंग से गंगा देवी का दिल और उनके सम्मान को बहुत ठेस लगी। गंगा ने तुरंत निर्णय कर लिया कि मैं मेरे पुत्र को लेकर यहां से चली जाऊँगी। अभी यहां एक पल भी नहीं रुकुंगी।
*शादी के वक़्त राजा ने मेरे वचन का उल्लंघन का यही दंड मंजूर किया था।*
*क्रमश.....*
https://chat.whatsapp.com/D63sdMr1gBNKBGqECJgjkO
🔘🔲🔘🔲🔘🔲🔘
*जैन महाभारत*
*पोस्ट, 6*
🔘🔲🔘🔲🔘🔲🔘
शिकार करने के बाद *शांतनु* जब *वापस* आए तो उन्होंने क्या देखा?
महल में *गंगा* नहीं है। *गांगेय* भी नहीं है। कहाँ गए दोनों?
मंत्रियों को बुलाया सैनिको को बुलाया सभी को पूछा पर *संतोष* कारक जवाब नही मिला।
फिर उन्हे अंन्त:पुर से खबर मिली के महारानी *गंगा देवी* तो महाराज *शिकार* खेलने गए उसके बाद तुरंत ही *गुस्से* में *राजपुत्र* को लेकर कहीं चले गए।
राजा ये सुन कर बहुत दुखी हुए। उनका मन *उदास* हो गया सब उनको कड़वा लगने लगा *पत्नी* गयी और प्राण से भी प्यारा *पुत्र* भी गया राजा को *पश्चाताप* का पार नहीं था।
मन बहुत *दुखी* था पर अभी करें क्या? तीर छूट चुका था।
राजा को हुआ के *गंगा* जो वापस आ जाये तो उससे *माफ़ी* मांग लूँ।
अभी कभी शिकार पे नही जाऊँगा पर जो बीत गयी बात उसका पछतावा करने से क्या लाभ?
महारानी गंगा देवी के *वियोग* में राजा बहुत तड़पते है।
अपने पुत्र की याद में बहुत *दुखी* होते है। दोनों का मुख नज़र के समक्ष बारम्बार दिखाई देता है।
समय बीतने लगा राजा *शोक* और *दुःख* धीरे धीरे भुलने लगा। अभी तो पत्नी और पुत्र मिलने की संभावना नही थी।
तो फिर वापस शिकार खेलने के आनंद में वो चले गए। उन्होंने शिकार में ही अपना ध्यान लगा दिया। धीरे धीरे *गंगा* और *गाएंगे* दोनों की याद उनके *दिल* से *जाने* लगी।
*अति दुःख शोक और निराशा इंसान को दुराग्रही बना देता है।*
व्यसन की जाल में फंसा हुआ इंसान सभी दु:खों को भूल जाता है।
स्वच्छदंता पूर्वक व्यसन को करता है।
*शांतनु* भी *शिकार* खेलने के *व्यसन* में *गंगा* और *गांगेय* के वियोग के दुःख को बिल्कुल भूल गया है। अपनी इच्छा से *शिकार* करके अपना मन बहलाता है।
एक समय की बात है शांतनु शांत बैठे हुए है।
मन में शिकार की योजना बना रहे है।
मन में विचार आया कि नगर के आसपास के जंगल में तो अब शिकार खेलने का आनंद ही रहा नही है।
क्योंकि बहुत समय से वहां के जो मृग वगैरे है वो
शिकार में मारे गए।
बहुत भयभीत होकर भाग गए। अब इस जंगल में शिकार करने का कोई अर्थ नहीं है। कोई नई जगह मिले तो आनंद आ जाए।
राजा के आदेश पर सभी जंगल ढूंढने में लग गए जिस वन में शिकार करने योग्य प्राणियों का निवास हो ऐसा वन राजा को चाहिए शीघ्र सभी को समाचार पहुंचा दिये। के राजा की कृपा मिले इसलिए सभी लोग रात दिन परिश्रम में लग गए।
शांतनु विचार में बैठे थे। उसी वक्त एक व्यक्ति अंदर आते हैं राजा को प्रणाम करते हैं और फिर कहते हैं।
*महाराज!*
नदी के किनारे से थोड़े दूर एक वन है। उसके जैसा वन यहाँ मिलना दुर्लभ है। असंख्य मृग आदि प्राणी वहाँ फिर रहे है।
चित्ता और हाथी वन मे है।बस एक बार आप पधारो और शिकार का आनंद लो।
राजा ये सुनकर आनंदित हो गए।
शिकार पे जाने की तैयारी की घोड़े तैयार कराने का आदेश दिया शिकार के लिए शिकारी कुत्तों को तैयार करवाया
तीक्ष्ण बाण और हथियार लिये और कुछ लोगो के साथ *शिकार* के लिए निकल गए।
*क्रमश.....*
https://chat.whatsapp.com/GmUXJ6UOA08CRK79XGCMzr
https://chat.whatsapp.com/D63sdMr1gBNKBGqECJgjkO
🔘🔲🔘🔲🔘🔲🔘
*जैन महाभारत*
*पोस्ट, 7*
🔘🔲🔘🔲🔘🔲🔘
*युवान जोर जोर से हसने लगा।*
आपको पता है मे कोन हूँ। में ये *वन* का *राजा* हूँ।
ये भोले प्राणी मेरी *प्रजा* है।
मेरे *राज्य* में खड़े होकर मेरे ही सामने इतनी बड़ी बात कह सकते हो आप?
*सावधन!*
एक भी *प्राणी* पर *तीर* चलाया तो!
*शांतनु*
*भोले युवान!* तेरा मुख देख कर मुझे *दया* आती है। इसलिए कह रहा हूँ सीधे सीधे तेरे रस्ते जा। नही तो बिना वजह मेरे तीर का पहला *भोग* तु ही होगा।
युवान और जोर से हँसने लगा। जैसे उसे राजा के इस वाक्य की परवाह ही नही।
*युवान*
राजा होकर आप इन *निर्दोष* प्राणियों को मारते हो उसमें आपको आनंद कैसे आता है।
*शांतनु*
शिकार करना तो मेरा राज धर्म है उसमें हिंसा कैसी इसलिए तो चुपचाप रह और मेरे शिकार खेलने का आंनद तु भी ले।
*युवान*
निरपराध प्राणियों की हिंसा करना उसमें *आनंद* लेना ये तो कोई *राक्षस* ही कर सकता है। पर इतना याद रखना मेरे *शरीर* में जब तक *प्राण* है तब तक यहाँ एक भी *प्राणी* को मैं *आंच* नहीं आने दूंगा।
*राजा* और *युवान* दोनो तैयार हो गए धनुष और तीर निकाल दिए।
राजा कुछ कर सके उसके पहले ही युवक ने राजा का *रथध्वज* तोड़ दिया जो उसने सोचा होता तो वो तीर राजा की *छाती* पर भी चला सकता था।
पुरुष की निरर्थक हिंसा करना इतना *क्रूर* उसका *हृदय* नहीं था।
छोटे छोटे प्राणियों और सूक्ष्म जंतुओं को भी *बचाने* की इच्छा वाला मानव पंचेद्रिय की *हिंसा* तो कैसे करेगा।
तरुण ने इतना ही शीघ्र *दूसरा बाण* भी छोड़ दिया *राजा* के के ऊपर।
*स्वप्रमोहन* नाम का *बाण* इस बाण से *लगती* है लेकिन कोई *मर* नहीं जाता है सिर्फ *बेहोश* हो जाता है।
राजा का सारथी बेहोश होकर नीचे गिरा ये देख कर राजा को *क्रोध* आया राजा ने एक के बाद एक *बांण* छोड़े पर *युवान* कोई *कम* नहीं था उसने अपने *बांण* से राजा के सभी *बांणो* को आधे रास्ते में ही *तोड़* दिया।
राजा के सभी बांण इस तरह से *निष्फल* होते हुए देख कर राजा के सभी सिपाही उस युवान पर टूट पड़े। पर *युवान* तो अब *रंग* में आ गया था। चुराई युद्ध कला की देख कर सब मुंह में उंगली डाल दे ऐसी थी।
थोड़ी देर में तो राजा के सभी सिपाही घायल हो गए इस कारण से *राजा* और *गुस्से* में आ गया राजा ने तरुण पर। *बांण* का निशान लिया पर ये क्या राजा का बाण छूटे उसके पहले ही तरुण ने बार छोड़ दिया और राजा के *धनुष* की डोरी ही टूट गई। राजा परेशान होकर ऐसे ही वहाँ खड़ा रह गया।
*क्यों महाशय!*
अभी और कोई पराक्रम बाकी तो नहीं है ना?
हो तो दिखा दो ये कहकर तरुण फिर जोर जोर से हंसने लगा। उसकी *हंसी* से पूरा वन *गूंजने* लगा।
*इतने में एक स्त्री वहां आती है।*
*क्रमश....*
https://chat.whatsapp.com/ISpCGq2vYDRFWt51g5drT7
🔘🔲🔘🔲🔘🔲🔘
*जैन महाभारत*
*पोस्ट, 8
🔘🔲🔘🔲🔘🔲🔘
*तभी एक स्त्री वहां पर आती है।*
युवान उसे नमस्कार करके एक बाजू खड़ा रहता है और कहता है।
*मां!*
तू यहाँ क्यों आई हो ये कोई *हस्तिनापुर* के *राजा* हमारे निर्दोष प्राणियों को *दुःख* दे रहे थे तो मैंने उन्हें कहा वन के प्राणियों को मारकर आपको क्या मिलेगा?
अब तू ही देख ले माँ कैसे *बुद्धू* की तरह खड़ा है।
*ना ना बेटा!* ऐसा नहीं बोलते ये तुम्हारे *पिताजी* है। जो स्त्री ने कहा वो *गंगा* थी।
शांतनु ने भी उसे पहचान लीया और उसके *आश्चर्य* का पार नहीं रहा।
*क्या* आश्चर्य से *गांगये* का आवाज फट गया
*मेरे पिता जी*
नहीं नहीं मेरे पिता जी इतने क्रूर और *घातकी* हो ही नहीं सकते *गांगेय* बोला।
चुप कर और ज्यादा बात किये बिना उनके पैर पढ़कर नमस्कार कर गंगा ने कहा।
*गांगये* के पैर नहीं उठते है। फिर शांतनु राजा ने हाथ खुले करके कहा
आजा मेरे बेटे एक बार गले लग कर मेरे मन को शांत कर सच में ही मैं *घातकी* हूँ। पर
आज इसी पल मैं ये *प्रतिज्ञा* करता हूँ। कि आज के बाद कीसी भी हालत में *शिकार* नहीं करूँगा। नहीं खेलूंगा।
गंगा *पिता* को नमस्कार करते हुए *गले* मिलता है। पिता और पुत्र गले मिलते है।
*राजा गंगा को पूछते हैं पर तू यहाँ वन में कैसे?*
राजा का प्रश्न सुनकर गंगा मंद मंद मुस्कुराती है।
गंगा आनंदपूर्वक मुस्कुराती है ये देखकर राजा के मुख पर भी स्मिथ हुआ।
और गांगये कुछ समय माता को और कुछ समय पिता को हंसते मुख से देख रहा है।
*शांतनु कहता है यहां तो लगता है मुझे मैं कभी आया हूँ।*
चारों बाजु नज़र घुमाकर यहां की भूमि परिचित लगती है।
गंगा हंसती ही रहती है उसका हास्य ज्यादा से ज्यादा *रहस्यमय* हो गया।
*शांतनु* कहता है। तू इस तरह से हँसती ही रहेगी या कुछ बोलेगी।
*गंगा* क्या कहूँ
*शांतनु* जो बोलना हो वो बोल पर मेरे प्रश्न का जवाब तो दे।
*गंगा* मुझे आप से बात न करनी हो तो?
*शांतनु* पर *क्यों* राजा के आवाज में अधीरता और भीरुता एक साथ रणक रही थी।
*आप जानते हो!*
गंगा ने एकदम निरपेक्ष भाव से कहा
*शिकार* करता हूँ वही न राजा ने कहा पर अब नहीं करूंगा शिकार *प्रतिज्ञा* की ना?
*प्रतिज्ञा* तो पहले भी की थी गंगा ने कहा।
शांतनु ने कहा शिकार नहीं खेलने की *प्रतिज्ञा* कब की थी *आश्चर्य* से पूछा।
शिकार की *प्रतिज्ञा* नहीं और भी एक प्रतिज्ञा की थी याद आ रही है। नही याद आता हो तो चारो बाजू नज़र घुमाओ और उपवन को देखो।
*जिनालय* को देखो
वो महल के ऊपर नज़र डालो। कुछ याद आ रहा है।
*शांतनु*
कहते है।
मैंने कहा ना वन *परिचित* लग रहा है राजा ने सोचते हुए कहा।
क्या याद करूँ तुम्हारे जाने के बाद मेरी सभी शक्तियां छीन हो गई कुछ याद नहीं आता है।
शिकार खेलने के सिवाय की शक्तियां बरोबर ना कहते हुये *गंगा* सहज हस पड़ी।
फिर गंगा ने कहा ठीक है। मैं कहती हूँ!
तुम याद करो आपको इस भूमि के साथ कोई संबंध है?
शांतनु कहते हैं चलो मान लिया सबंध होगा।
पर उसका अभी क्या करना है अब ये सब बात को छोड़ो और *आप* और *गांगये* मेरे साथ चलो तब मेरे जीव को *शांति* मिलेगी।
गंगा कहती हैं दूसरे के जीव का जो होना हो वो हो।
*शांतनु* कहता है।
शिकार खेलना *छोड़* दूँगा तो भी तुझे शांति नहीं होगी। तो फिर आप जो कहोगे वो करूँगा।
गंगा का आवाज थोड़ा भारी हो गई।
*महाराज!* इसके पहले भी आपने ऐसे ही प्रतिज्ञा की थी याद करो *हरण* के पीछे पीछे। आप इसी *उपवन* में आये थे।
हमेशा तुम्हारी बात मानूँगा ऐसा मुझे *वचन* दिया था और फिर मुझसे *शादी* की थी वो आप ही थे ना ?
वो *प्रतिज्ञा* आपने पाली ?
वो प्रतिज्ञा आपने जो *पाली* होती तो
मुझे इस *वन* में वापस आना ही नहीं पड़ता।
राजा *शांतनु* चुपचाप खड़े हो गए सुन रहे थे और उसे पूरा *भूतकाल* याद आ गया खुद ने की हुई प्रतिज्ञा ना पाल नहीं सका इसलिए क्या कहूँ।
*बोलो महाराज*
*गंगा* का स्वर और भारी हो गया यही भूमि पर की हुई *प्रतिज्ञा* आपने तोड़ी अब दूसरी बार नहीं तोड़ोगे उसका क्या *भरोसा* ?
*क्रमश.....*
https://chat.whatsapp.com/ISpCGq2vYDRFWt51g5drT7
🔘🔲🔘🔲🔘🔲🔘
*जैन महाभारत*
*पोस्ट, 9
🔘🔲🔘🔲🔘🔲🔘
गंगा गंगा राजा का आवाज मे दर्द था।
मैंने जिस दिन प्रतिज्ञा तोड़ी उसी समय से मैं मरा हुआ ही हूँ। फिर अब मरे हुए को अधिक नहीं मार एक बार प्रतिज्ञा पालने का।
अवसर मुझे दे। फिर देख राजा से आगे बोला नहीं जा रहा था उसे लगा। अब मैं आगे बोलूँगा तो मैं रो पडूँगा।
नाच मैं तो आप की दासी हूँ। गंगा ने पैर में पढ़ते हुए कहा भविष्य में शिकार जैसे पाप से बचो। इसलिए इतना बोली हूँ।
क्षमा करना नाथ गंगा की आँख में। मोतियो के बिंदु जैसे अश्रबिंदु चमक उठे।
गंगा को तो ये क्या हो रहा है। उसकी पूरी बात का पता ही नहीं चल रहा था। वो दर्शक की तरह कुछ समय माता को और कुछ समय पिता को देखा करता था।
वो ज्यादा कुछ तो समझ नहीं पा रहा था। पर उसके हृदय में भी पिता के लिए स्नेह का जन्म हो गया था।
तू तो मेरी गुरु है। राजा ने कहा चरण का दास होने के लिए... तो इतना बोलते ही गंगा ने राजा के मुंह पर हाथ रख दिया और बोलते हुए रोक दिया।
ऐसा मत कहो कुछ भी हो पर आप मेरे नाथ हो।
मेरे साथ आओगे ना बेटा शांतनु ने गांगेय को कहा गांगये गंगा के सामने देख रहा था।
जाना है ना बेटा गंगा ने हँस कर कहा ये तेरे पिता है। तेरा पुरा ध्यान रखेंगे।
गांगये ने पूछा तू भी आयेगी ना माँ मेरे साथ।
मेरा क्या काम है वहां गंगा बोली तू ओर तेरे पिता दोनों साथ में रहना।
गांगये ने कहा आपके बिना मुझे अच्छा नहीं लगेगा।
मैं मर जाऊँगी तो गंगा ने हँसते हुए कहा।
*गांगये* ने गुस्से मे कहा माँ ऐसा मत बोल। मैं नहीं जाऊँगा तेरे बिना और मुझे तेरे साथ भी नहीं रहना।
गांगये का गुस्सा देखकर शांतनु और गंगा दोनों हंसने लगे।
*शांतनु* ने गंगा से कहा तेरा बेटा बहुत *जिद्दी* है।
गंगा ने कहा मेरा बेटा आपका नही?
*शांतनु* ने कहा बेटा
तो मेरा भी है। पर उसके संस्कार का सिंचन तो तूने ही किया है।
*गांगये* की तरफ देखकर राजा ने कहा।
गांगये तू तेरी *माँ* का है या मेरा क्या कर *शांतनु* हँसने लगे।
गांगये गुस्से में किसी का नही।
देखा युवान हो गया फिर भी अपनी मां से कितना प्रेम है शांतनु ने गंगा से कहा
इसके *प्रेम* और *बदमाशि की वजह से ही तो ही मैं यहाँ आई हूँ।
शांतनु ये क्या नई बात!
मेरे मना करने के बाद भी आप शिकार पर गए। और मैं इसे लेकर अपने पिता के घर आई। धीरे धीरे ये बड़ा होने लगा सभी कला मे कुशल हो गया। शस्त्रकला मे तो मामा को भी पीछे छोङ दे।
*अच्छा?* राजा ने कहा तभी तो मुझे धनुष बिना का कर दिया और हरा दिया। कह कर राजा हंसने लगा।
*पुत्रात् शिष्यात् पराभव*
पुत्र और शिष्य से हुआ पराभव भी मानव को मीठा लगता है। गौरव का कारण लगता है।
पुत्र या शिष्य से पराभव का गौरव न ले सकने वाला पिता या गुरु या तो लम्बी बुद्धि वाला नहीं होता या ईर्षा का भयंकर रोगी हो सकता है।
फिर वहां इसके पराक्रम इतने हो गए कि पूछो मत
फिर मुझे लगा कि इसके कारण कोई मुझे कुछ कह दे।
इससे अच्छा शादी के पहले मै जिस *उपवन* में रहती थी वहां आराधना करु ऐसा विचार करके यहाँ आ गई ।
*क्रमश....*
https://chat.whatsapp.com/F6fZhXmQVZx6F9MT3mbcge
🔘🔲🔘🔲🔘🔲🔘
*जैन महाभारत*
*पोस्ट, 10*
🔘🔲🔘🔲🔘🔲🔘
*गांगये* ने चालीस माईल तक ये सुरक्षित *भूमि* बनाई जिसमें *निर्दोष* *प्राणी* बिना फिक्र के रह सके इस *अभय* भूमिका ये *राजा* है। और उसके राज्य में हस्तक्षेप करने की दशा क्या होती है
ये आपको मुझे कहने की जरूरत नही है।
*गंगा ने प्रश्नात्मक तरीके से कहा।*
तो अभी हम चलेंगे, गंगा?
राजा शांतनु ने जाने की इच्छा बताते हुए कहा।
कांहा? गंगा ने कहा
*शांतनु* राज महेल मे नगर मे
*गंगा* ने निरपेक्ष भाव से कहा मेरा नगर और मेरा *राजमहल* सब यही है।
मेरी तो अब एक ही इच्छा है। कि यहां रहकर *धर्म* की *आराधना* करु और उसमें आप सहमति दो बस इतना ही चाहिए।
*शांतनु* आवेश में बोलते है।
अभी तक मुझ पर इतना गुस्सा है। इंसान हूँ एक बार भूल हो गयी।
*गंगा! क्या एक बार तुम मुझे माफ नहीं कर सकती?*
*नाथ!* आप मेरे स्वामी हो आपको मैं क्या माफ करूँ पर सच में अब मेरा मन संसार में रहा नहीं इसीलिए यहां रहकर *आराधना* करने की आज्ञा दो गंगा ने *विनय* भाव से कहा और आपका ये पुत्र आप इसे ले जाओ।
*गांगये* ने कहा नहीं *माँ* तू यहाँ रहेगी तो मैं भी यहीं रहूंगा।
तेरा बेटा तेरे बिना नहीं आयेगा और उसे अच्छा भी नहीं लगेगा और मुझे भी आपके बिना नहीं चलेगा राजा शांतनु ने कहा।
गंगा कहती है। मुझे अब आराधना के बिना नहीं चलता उसका क्या? आराधना के सिवाय अब मुझे कुछ भी करने की इच्छा नहीं है।
*गंगा* के उत्तर से राजा *शांतनु* के ऊपर *उदासी* छा गई। *गांगये* का कोमल हृदय को भी ऐसा लगा की माता के जवाब से *पिता* का *हृदय* दुखी है। और माता नहीं आ रही और मुझे *भेजेगी* वो कारण से भी हृदय दुखी है।
तो आप अपनी *जिद्द* नहीं छोड़ोगे, राजा शांतनु ने कहा उनकी आवाज में करूँगा छलक उठी।
इतने साल के *वियोग* से तुझे अभी भी *संतोष* नहीं हुआ। संतोष की उसमें बात ही नहीं है गंगा ने कहा भगवान *वीतराग देव* की *सेवा* से अब ये संसार सार बिना का लग रहा है।
संसार से दूर रहने की इच्छा है। इसीलिए आने को मना कह रही हूँ।
*गंगा के स्वर में बहुत ही नम्रता आ गयी थी।*
*नाथ!*
*विश्वास* करो नही आने का कारण गुस्सा नहीं है। आपके प्रति *नाराजगी* भी नहीं है।
सिर्फ *आत्मसाधना* की प्रबल इच्छा की वजह से मना कह रही हूँ।
मुझे विश्वास है कि आप मेरे आराधना में *अंतराय* नहीं करोगे।
गंगा की *आँख* में थोड़ा पानी आ गया।
शांतनु को लगा के इसकी *मुक्ति साधना* में सहायक बनु यही पति के तौर पर मेरा *कर्तव्य* है।
*हृदय* में दुख हो रहा है। आंखों में आंसू बह रहे है। *गंगा* को छोड़ने का मन नहीं हो रहा है फिर भी शांतनु *मूक* सहमति देते है।
गंगा के हर्ष का पार नहीं होता।
*नाथ* मुक्ति साधना के *भव्य पंथ* पर आगे बढ़ने के लिए आपने मुझे *सहमति* दी है।
इसलिए मैं जन्म जन्मांतर में भी आपकी *कृतज्ञ* रहूंगी।
आप सही मायने में आज मेरे सच्चे *जीवन साथी*
*हो स्वामी! आप भी अपना जीवन अहिंसक बनाकर सार्थक करना।*
आप खुद समझदार हो इसलिए ज्यादा आपसे कुछ नहीं कहूंगी।
गांगये के आँखों के अश्रु रुक ही नहीं रहे थे।
माता के वियोग की कल्पना ही है। उसके लिए *दुखदाई* थी।
माँ तू नहीं आएगी तो मैं भी नहीं जाऊँगा। *गांगये* रुदन स्वर में बोला।
*समझदार* हो आप बेटा गंगा ने कहा।
ऐसे तू मुझे नहीं फंसा सकेगी माँ गंगे ने कहा समझदार हूँ ऐसा सुनकर मां को छोड़ दूँ इतना। मूर्ख भी नहीं हूँ।
मां का कहना नहीं मानेगा बेटा गंगा ने *वात्सल्य* भाव से कहा
मानूँगा पर तुझे भी मेरी बात माननी होगी गांगये ने मां से कहा।
ऐसे जिद मत कर मुझे तो अब *मुक्ति* साधना करनी है।
इसलिए यहीं रहना होगा।
गांगये ने कहा और मुझे मुक्ति साधाना करनी हो तो? और मुक्ति साधना करती हुई मां की *सेवा* करनी हो तो? आपको ही मुक्ति चाहिए मुझे नहीं चाहिए ?
गंगा ने कहा मेरी सेवा तो ठीक।
पर मुक्ति की साधना करनी हो तो उससे उत्तम कुछ नही।
अपने पिता की आज्ञा प्राप्त कर लो।
मैं तो उन्हें विशेष पहचानता नहीं हूँ। गांगये ने कहा मैं तो तुझे ही पहचानता हूँ। उनसे कैसे आज्ञा माँगु।
तुम मुझे आज्ञा दे बस।
तेरी माँ यहां साधना करेगी शांतनु बोले और तू भी यहां रहकर साधना करेगा तो फिर मैं मुक्ति का मंत्र किससे सुनूँगा।
माँ बेटे को संसार सागर से तरना है। और बाप को डूबाना है। ऐसा ही सोचा है न आपने।
*क्रमश.....*
https://chat.whatsapp.com/D63sdMr1gBNKBGqECJgjkO
🔘🔲🔘🔲🔘🔲🔘
*जैन महाभारत*
*पोस्ट, 11*
🔘🔲🔘🔲🔘🔲🔘
https://chat.whatsapp.com/ISpCGq2vYDRFWt51g5drT7
🔘🔲🔘🔲🔘🔲🔘
*जैन महाभारत*
*पोस्ट, 12*
🔘🔲🔘🔲🔘🔲🔘
*सरदार ने राजा का स्वागत किया।*
पर राजा ने जब उनकी *बेटी* के लिए बात की तब सरदार ने उनकी बेटी जिसका नाम *सत्यवती* था।
उसकी शादी के लिए *स्पष्ट* मना कर दिया।
राजा को बहुत *दुःख* हुआ।
जब से *सत्यवती* को देखा था तभी से राजा के *मन* मे वो *बस* गई थी।
शांतनु सोचने लगा
मेरे जैसे राजा की
*याचना* को एक सामान्य नाविक के सरदार ने *निःसंकोच* अस्वीकार किया ऐसा तो उसने *स्वप्न* में भी नहीं सोचा था।
शांतनु राजा ने सरदार से कहा आपकी *कन्या* किसी भी तरह से *दुखी* नहीं होगी।
सरदार ने कहा आपकी बात सच है पर *सत्यवती* को *स्वयंवर* करने की इच्छा है।
उसके बीच में मैं नहीं आना चाहता।
उसके अलावा भी एक और *बात* है।
आपकी *याचना* के मुताबिक सत्यवती आपको दूं।
पर *गांगये* जैसा आपका *महावीर पुत्र* है।
उसके सामने *सत्यवती* के *पुत्र* को *राजगदी* मिलने की *कल्पना* ही *अशक्य* है।
तो फिर ऐसी *राजरानी* होने का क्या *लाभ* होगा।
और ऐसे नगर के राजा के साथ *शादी* कराने की *सार्थकता* ही क्या है।
शांतनु *निराश* होकर वहां से वापस आ गया अपनी *नगरी* में आया पर उसे कहीं भी *चैन* नहीँ पड़ रहा है।
*गांगये* पिता के दुःख को देख लेता है राज्य मंत्रियों द्वारा *सत्यवती* की पूरी *घटना* जान लेता है।
गांगए ऐसा तो *पितृभक्त* था। कि कोई भी कारण से पिता की *इच्छा पूर्ण* करने के लिए तैयार हो जाता था।
बिना *विलम्ब* से गांगये *नाविक सरदार* के पास जाने के लिए निकला।
कितने ही *दिन* में वहाँ पहुँचा सरदार को मिला।
सरदार *गांगये* को आया हुआ देख कर बहुत ही *प्रेमपूर्वक सत्कार* करते है।
*गांगये*
नाविक!
हस्तिनापुर के स्वामी की *प्रार्थना* का *भंग* करके तुने बहुत ही *गलत* कार्य किया है वो *भूल सुधार* लेने की तक देने के लिए मैं फिर यहाँ आया हूँ।
*नाविक*
कहता है पर मेरी *पुत्री* और उसके संतान *दुखी* हो ऐसा मैं नहीं इच्छता हूं।
*गांगये:* हस्तिनापुर में महाराज *शांतनु* के यहां पे *दुःख* कल्पना भी करना *मूर्खता* है उनको वहाँ कौनसा दुःख?
*नाविक*
सबसे बड़ा दुःख तो *कुमार आप खुद* हो।
*गांगये:* मैं गांगये चौंक गया।
*नाविक:* हाँ आप ही निर्भयता से नाविक ने कहा।
*क्रमश.....*
*जिन ग्रुप*
*7972818385*
*गंगा*
गांगये से कहती है। पिताजी की बात सही है।
गांगये तू वहाँ पिताजी के साथ रहेगा तो *धर्म* की *आराधना* भी करा सकेगा। *पिता* को *मुक्ति* के *मंत्र* सुनाना वो भी एक *मोक्ष* की साधना ही है।
मेरे *अभय क्षेत्र* का क्या?
*गांगये* ने कहा उन *जीवों* का फिर कोन देखेगा?
उनका ध्यान तो तुम वहाँ रहकर और *अच्छे* से रख पायेगा गंगा ने कहा।
राजा *शांतनु* ने कहा अभी के अभी जितनी चाहिए उतनी *चौकी पहरा* में लगा देता हूँ।
बेटे यहाँ कोई *शिकार* के लिए आ ही नहीं पायेगा ऐसी में *व्यवस्था* कर दूंगा।
तो मैं जाऊँ ऐसे ही तेरी *इच्छा* है *माँ।*
*गाएंगे* रोते हुए मां से यह कह रहा था। और आगे उससे कुछ कहा ही नहीं गया।
माँ के पैरो मे गिरकर रोते हुए गांगये ने कहा *आशीर्वाद* दे।
*अहिंसा* न भूलू *वितराग* का *धर्म* न भूलूँ *मोक्ष* मार्ग न भूलूँ और माँ *तुझे* न भूलूँ।
*गांगये* ने रोते हुए कहा।
राजा शांतनु रो रहे थे गांगेय रो रहा था।
रोते हुए गंगा ने पिता और पुत्र दोनों को हमेशा के लिए विदाई दे दी पीठ दिखती रही वहाँ तक गंगा देखते रहीं आँखों के आँसू पोंछ के वापस उपवन में आई ।
*आत्म साधना में मन लगाया*।
महाराजा शांतनु और गांगये *हस्तिनापुर* नगर में धाम धूम से *प्रवेश* किया महाराजा शांतनु का दिल राज कारोबार में लग नहीं रहा है।
गंगा के ऊपर कारभार सौप के शांतनु राजा निश्चित हो गये। इतना ही नहीं निवृत्त भी हो गये। ना राजकाज देखना पड़ता है और ना ही गृह का संभालना पड़ता।
राजसी प्रकृति का इंसान ऐसे खाली बैठा रहना उसे कोई अच्छा लगेगा।
बावरा *मन* उड़ उड़कर जैसे चारे बाजू से मधुरस चुसता है उसी तरह से भोगी इंसान को देश विदेश *पर्यटन* का *आनंद* लेने का *मन* हुआ।
*शांतनु:*
गांगये!
ऐसे खाली बैठना मुझे अच्छा नहीं लग रहा है।
*गांगये:*
आप आज्ञा दो आप क्या इच्छा रखते हो आपका मन प्रसन्न हो ऐसी व्यवस्था मैं करा देता हूँ।
*शांतनु:*
मेरा मन ऐसा हो रहा है। मैं पृथ्वी की परिभ्रमण का आनंद लेना चाहता हूँ।
*गांगये:*
जैसी आपकी इच्छा आपके आदेश के हिसाब से तुरंत ही पर्यटन की व्यवस्था कर देता हूँ।
*शांतनु :*
राज्य ज्योतिष को, बुलाओ। और जल्द से जल्द जो पहला मुहूर्त आता हो वो मूर्त मेरे पर्यटन की व्यवस्था कराओ।
*गांगये :* जैसी महाराज की आज्ञा
जाने का दिन आ गया। नगाड़ा बजने लगा *शंखनाद* से वातावरण गूंज उठा। कोकिल कंठ से मंगल गीत राजमहल में गाए जा रहे थे।
सुंदर और सजाए हुए अश्व पर राजा शांतनु निकले। और साथ में बड़ा *काफिला* बहुत सी सामग्री नगर जन राजा को विदाई के लिए निकले।
शांतनु अपने काफिले के साथ आगे बढ़ते जा रहा है। और प्राकृतिक सौंदर्य निरखते हुए प्रसन्नता का अनुभव कर रहे है।
*प्रवास का अद्भुत आनंद लूट रहे है।*
*क्रमश.....*
https://chat.whatsapp.com/F6fZhXmQVZx6F9MT3mbcge
🔘🔲🔘🔲🔘🔲🔘
*जैन महाभारत*
*
🔘🔲🔘🔲🔘🔲🔘
*जिन ग्रुप*
*7972818385*
https://chat.whatsapp.com/ISpCGq2vYDRFWt51g5drT7
🔘🔲🔘🔲🔘🔲🔘
*जैन महाभारत*
*पोस्ट, 13*
🔘🔲🔘🔲🔘🔲🔘
नाविक कहता है। सबसे बड़ा दुःख तो कुमार आप खुद हो।
*गांगये:* मैं गांगये चौंक गया।
*नाविक:* हाँ आप ही निर्भयता से नाविक ने कहा।
*गांगये:* *कैसे*
*नाविक:* राजा के *जेष्ट*
*पुत्र* आप हो की नही।
*गांगये:* हाँ! पर उससे क्या?
*नाविक:* उसका कारण ये है कि आप हो जहाँ तक हो सत्यवती का पुत्र राजगद्दी का अधिकारी तो नहीं हो पायेगा ?
जिसकी संतान राजगद्दी का उत्तराधिकारी न हो सके वो राजरानी हुई तो क्या और नहीं हुई तो क्या?
गांगये विचार में पड़ गए। और फिर बोले।
*गांगये:* वो दुःख अगर मै दूर कर दूँ तो कोई आपत्ति तो नही है ना?
*नाविक:* आप हो वहाँ तक वो दुःख दूर होगा नही। और शायद दूर हो भी जाये तो भी एक और दुःख खड़ा है।
*गांगये:* दूसरा और कौन सा दुःख गांगये के स्वर में चिंता और आश्चर्य के भाव व्यक्त हो गए।
*नाविक:* आप शायद उदारता दिखाकर सत्यवती के पुत्र को राज गद्दी दे दो वो हो सकता है पर वो तो आप जहाँ तक जीवित हो वहाँ तक उसके बाद आपके जैसे वीर के संतान सत्यवती के पुत्र और पौत्रो को राजगद्दी नहीं देंगे।
*गांगये:* *हं*
वातावरण में मौन छा गया। दोनों गंभीरता से खड़े थे।
*गांगये* हमारे कुल की उत्तमता के लिए मुझे विश्वास देने की जरूरत नहीं है पर फिर भी आपके संतोष के लिए
*आज अभी यहां पर इसी वक्त*
*मैं हस्तिनापुर नरेश शांतनु का पुत्र!*
ये *प्रतिज्ञा ग्रहण* करता हूँ। प्रथम तो मैं कभी *राज गददी* ग्रहण *नही* करूंगा और राज गद्दी का *उत्तराधिकारी* मेरे माता तुल्य *देवी सत्यवती* का पुत्र ही होगा।
दूसरी बात *माता तुल्य* देवी सत्यवती के *पुत्र* को *राज्य अधिकार* भविष्य में भी *मेरे संतान* की तरफ से कोई *दखल* न हो उस कारण से
*मैं आजीवन ब्रह्मचारी रहूँगा शादी नहीं करूंगा*
पितृभक्त पुत्र ने पिताजी की अनुकूलता के लिए
इतनी बड़ी *भीष्म प्रतिज्ञा* का *स्वीकार* किया तभी से लोगों में वो *भीष्म* नाम से *पहचाने* गए।
गांगये की ऐसी भीष्म प्रतिज्ञा सुनकर नाविक भी *प्रसन्न* हुआ।
*गांगये* सत्यवती को *रथ* में बैठाकर ले जाने की तैयारी कर रहा था। तभी
*नाविक सरदारज आगे आके गांगये को कहते है।*
*क्रमश......*
पोस्ट, 14*
🔘🔲🔘🔲🔘🔲🔘
नाविक सरदार आगे आकर गांगये को कहते है।
*नाविक:*
*गांगये कुमार!*
सत्यवती ये *मेरी पुत्री* नहीं है।
मैंने तो इसको पाल कर बड़ा किया है।
मैं तो मात्र इसका पालक पिता हूँ।
इसका कुल बहुत ऊंचा है।
आप उसे नाविक की कन्या नही समझना।
ये मुझे यमुना किनारे मिली थी मैं निःसंतान था। इसलिए इसको देख कर मुझे बहुत आनंद आया मैं उसे घर लाया उस वक़्त आकाशवाणी हुई थी।
ये कन्या *रतनपुर* नाम के नगर के *रत्नागंद* नाम के राजा और *रत्नवती* रानी की *पुत्री* है।
उनके पिता के शत्रु उन्हें यहाँ फेंककर गए थे।
तुम इसका ध्यान रखना ये बड़ी होगी। *हस्तिनापुर* नगर के स्वामी राजा *शांतनु* इसके पति होंगे।
*गांगये:*
*आश्चर्य* के साथ कहा अच्छा महाराज *शांतनु* के साथ इनकी शादी होगी ऐसा आपको पता था।
फिर भी आपने इतनी *माथाफोड़ी* की उसका कारण?
*नाविक:* कारण तो और क्या होगा!
आपका *धैर्य* देखा और मेरे आत्मा को संतोष हुआ।
मैंने आपको अभी इसके लिए कहा है।
आप इसे मामूली नाविक की *कन्या* मत समझना ये तो उत्तम कुल की *कन्यारत्न* है।
*गांगये:* ऐसा है तभी तो ये कन्या रत्न के ऊपर *उत्तम* कुल वाले का मन आया है। कहकर
गांगये सहज *मुस्कुराया* और *रथ* को वहाँ से ले गया।
गांगये *हस्तिनापुर* में आये और शांतनु और सत्यवती की *शादी* हुई।
इस तरह से काफी समय *शांतनु* और *सत्यवती* का आनंदपूर्वक निकला।
*सत्यवती* को *चित्रांगद* और *विचित्रवीर्य* नाम के दो *पुत्र* हुए।
बहुत काल के बाद *शांतनु* राजा संसार के अगणित सुख भोगकर *अंतिम* समय *धर्म ध्यान* में मन को लगा कर *नश्वरदेह का त्याग* करके *परलोक* में गये।
*सत्यवती* के *दोनों* पुत्र अभी *छोटे* थे।
अपनी *प्रतिज्ञा* के हिसाब से गांगये ने *चित्रांगद* का *राज्यभिषेक* किया।
गांगये खुद *राज्य कर्मचारी* की तरह राज्य की *व्यवस्था* चलाते थे।
*महापुरुषों की प्रतिज्ञा अखंड ही होती है।*
*जय कीर्ति*
*महापुरुषों की प्रतिज्ञा अखंड ही होती है।*
हस्तिनापुर में चित्रांगद राज कर रहे है।
एक बार *चित्रांगद* का *निलांगद* नाम के दूसरे *राजा* के साथ *युद्ध* करना पड़ा।
*भीष्म* गांगये की बिना *सलाह* लिए वो *युद्ध* में *उतर* गये।
*निलांगद* के हाथों से *चित्रांगदा* मारे गये।
*चित्रांगद* के *मृत्यु* से *भीष्म* को बहुत *क्रोध* आया।
उन्होंने *निलांगद* के साथ *युद्ध* किया।
*भीष्म ने उसे यमराज के घर भेज दिया।*
तभी उन्हें *संतोष* हुआ।
*चित्रांगद* मारे गए *विचित्रवीर्य* का *राज्याभिषेक* किया *विचित्रवीर्य* बहुत ही नम्र थे।
*भीष्म* की *सलाह* के बिना एक भी काम वो नहीं करते थे।
*भीष्म को भी उनके ऊपर बहुत ही स्नेह था।*
*आनंद* में दिन *बीत* रहे थे।
*भीष्म* को एक दिन विचार आया के *विचित्र वीर्य* के लिए *राज्य कन्या* की *शोध* करनी चाहिए।
देश विदेश में राज्य कन्या की शोध के लिए राजदूतों को भेजा जाता है।
बहुत दिन के बाद एक राजदूत वापस आता है। और *भीष्म* को समाचार देते है।
*काशी* में काशी राज्य की *तीन कन्या* का *स्वयंवर* रचा गया है।
वो तीनों कन्या महाराज विचित्र वीर्य के लिए *योग्य* है।
वो स्वयंवर मंडप की *शोभा* का पूरा *वर्णन* करना *शक्य* नहीं था।
ऐसा वो मंडप था।
भीष्म विचार करते है। *काशीराज* के वहाँ पे *स्वयंवर* और हमें *आमंत्रण* भी नहीं आमंत्रण के बिना वहाँ *जाना* ठीक नहीं लगता।
पर *आमंत्रण* न देने का *फल* मैं उन्हें ज़रूर बताऊंगा।
भीष्म ने *सारथी* को *रथ* निकालने के लिए कहा और *काशी* की तरफ चल दिए।
*रथ* काशी पहुंचा।
*काशी* में काफ़ी भीड़ थी।
देश विदेश के *राजा स्वयंवर* में आये हुए थे।
पर *भीष्म* ने सभी को देखा अनदेखा करके सीधा *स्वयंवर मंडप* में पहुँच गए।
स्वयंवरमंडप मे, *बगला* जिस तरह से *मछली* का ध्यान धरता है।
उसी तरह सभी *राजा* *तीनों कन्याओं* का ध्यान धरते हुए बैठे है।
सभी ऐसा ही मानते है।
ये *कन्या* के साथ उनकी ही *शादी* होगी।
ये देखकर भीष्म को कुछ समय के लिए *हंसने* का मन होता है।
कुछ देर बाद वहाँ का *वातावरण* कैसे बदलने वाला है।
उसकी किसी को कल्पना भी नही थी।
भीष्म का रथ सडसडाट करते हुए *स्वयंवर मंडप* के *मध्य स्थभ* के पास आ गया।
तीनों राजकुमारीया वहां बैठी थी।
भीष्म ने उन तीनों को अपने रथ में बैठा दिया।
रथ को हस्तिनापुर की तरफ दौड़ा दिया।
सभी मूर्ख की तरह देखते ही रह गये और भीष्म वहां से निकल गए।
थोड़ी दूर जाने के बाद भीष्म ने पीछे मुड़के रथ में देखा।
तीनों राजकुमारीयाँ भयभीत थी। थर थर धुज रही थी।
भीष्म ने उन तीनों को अपना परिचय कराया और कहा कि!
मैं तुम्हें मेरे छोटे भाई के साथ शादी के लिए ले जा रहा हूँ।
रूप और गुण यहां आये हुए सभी राजकुमारों से वो चढ़े हुए है।
इसलिए आप घबराओ नहीं निश्चित हो जाओ और बैठ जाओ मैं आपका हितैषी हूँ। उसमें लेश भी शंका करना मत।
राज कन्याओ की चिँता मिट गई।
उतना ही नहीं पर उन्हें पता चला कि ये विश्व प्रसिद्ध महावीर भीष्म है।
हमारे वो जेठ होंगे उस बात का उन्हें आनंद का कोई पार नही था।
गुणवान या धनवान पुरुषों के साथ दूर का संबंध हो और शायद वो संबंध में कारणवश कड़वाश हो गयी हो तो भी अवसर आने पर उनके गुणों की और धन की गौरव लेने का मन होता है।
इस कारण से अपने जेठ जो *महावीर* थे उनका।
तीनों राज्य कन्या को *गौरव* अनुभव करना वो *स्वाभाविक* ही था।
*भीष्म को वापस कुछ और विचार आया।*
*क्रमश....*
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें