कथा स्थूलभद्र स्वामी
ब्रह्मचर्य सम्राट स्थूलभद्र स्वामी भाग 1
मंगलम भगवान वीरो, मंगलम गौतम प्रभु, मंगलम स्थूलिभद्राद्य, जैन धर्मोस्तु मंगलम।"
प्रातः स्मरणीय महापुरुष आचार्य श्री स्थूलभद्रचार्य जी"
द्वादशांगी को बचाने के लिए आचार्य श्री स्थूलभद्र जी ने बहुत ही मेहनत की थी, इसीलिए जैन इतिहास में, आचार्य श्री स्थूलभद्र जी का नाम हमेशा सम्मानीय है और रहेगा। श्वेताम्बर परंपरा अनुसार, इसीलिए, प्रभु वीर और गौतम स्वामी जी के बाद उनके साथ, स्थूलभद्र जी का नाम लिया जाता है।
स्थूलभद्र जी का जन्म और उनके जीवन के विशिष्ट प्रसंग:-
भारत देश!
पाटलीपुत्र नगर!!
नौवां नंद राजा !!!
नंद राजा अत्यंत ही पराक्रमी और प्रजा वत्सल था। उस राजा के कल्पक वंश के कुल तिलक समान शकटाल नाम का मुख्य मंत्री था। जो अत्यंत ही न्यायप्रिय और बुद्धिनिधान था। उस मंत्री के लक्ष्मीवती नाम की मुख्य स्त्री थी। सद्धर्म प्रवृत्ति में वह अत्यंत ही आदर वाली थी। शील ही उसके जीवन का सर्वश्रेष्ठ अलंकार था।
शकटाल मुख्यमंत्री के दो पुत्र थे। ज्येष्ठ पुत्र का नाम स्थूलभद्र था,जो अत्यंत ही बुद्धिशाली ,तेजस्वी और रूपवान् था । कनिष्ठ पुत्र का नाम श्रेयक था, जो अत्यंत ही कर्त्तव्यनिष्ठ और पराक्रमी था।
शकटाल मंत्री के यक्षा ,यक्षदत्ता,भूता ,भूतदत्ता ,सेणा ,वेणा और रेणा नाम की सात पुत्रियाँ थी । सबसे बड़ी पुत्री यक्षा की यह विशेषता थी कि वह कुछ भी पाठ एक बार सुनती ,और उसे बराबर याद कर लेती। दूसरी पुत्री यक्षदत्ता कुछ भी पाठ दो बार सुनती और उसे याद हो जाता। तीसरी पुत्री भूता कुछ भी पाठ तीन बार सुनती तो उसे याद रह जाता। इस प्रकार क्रमश: चौथी, पांचवी, छठी व सातवीं पुत्री चार ,पाँच ,छः और सात बार कुछ भी पाठ सुनती तो उन्हें याद रह जाता था।
उसी नगर में रूप और लक्ष्मी के संगम समान कोशा नाम की एक वेश्या रहती थी । मंत्री पुत्र स्थूलभद्र उस कोशा के रूप और सौंदर्य में अत्यंत ही आसक्त बना हुआ था। मंत्री पुत्र होने के नाते स्थूलभद्र को धन की तो किसी प्रकार की कमी थी नहीं , अतः यौवन के प्रांगण में प्रवेश करने के बाद वह वेश्या के घर पर ही रहने लगा – समय का प्रवाह आगे बढ़ने लगा और देखते ही देखते बारह वर्ष का दीर्घकाल भी प्रसार हो गया . . . परन्तु स्थूलभद्र अभी तक तृप्त नहीं हो पाया।
अज्ञानी आत्माए भोग द्वारा तृप्ति पाना चाहती है, परन्तु यह किसी काल में सम्भव नही हैं। यदि जल से सागर , ईंधन से अग्नि और धनप्राप्ति से मन तृप्त हो सकता हो तो यह मानव मन भोग सुखों से तृप्ति पा सकता है। परन्तु जिस प्रकार अग्नि , ईंधन से कभी तृप्त नही होती है, उसी प्रकार मानव , भोगो से कभी तृप्त नही होता है।
अनंतज्ञानी महापुरुषो का वचन है कि ये भोग तो अनर्थों की खान है। भोग का गुलाम बनकर अनेक आत्माओ ने अपने जीवन को बर्बाद किया है। सचमुच , व्यक्ति भोग को नही भोगता हैं; किंतु वे भोग ही उसके जीवन को समाप्त कर डालते है।
भोगो से होने वाली तृप्ति क्षणिक होती है। जिस प्रकार खुजली के दर्दी को खुजलाने पर पहले आनन्द की अनुभूति होती है, परन्तु बाद में तो खुजलाने से होने वाली पीड़ा से पछताना ही पड़ता है। बस, इसी प्रकार व्यक्ति ज्यों-ज्यों इन भोग सुखों का अनुभव करता जाता है, त्यों-त्यों भोग संबन्धी उसकी भूख दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जाती है।
जिस प्रकार कितना ही भोजन करने पर भी भस्मक के रोगी को तृप्ति का अनुभव करने पर भी आत्मा को कभी तृप्ति नही होती है।
बारह बारह वर्षों तक वेश्या के संग में रहने पर भी स्थूलभद्र अतृप्त ही था।
मंत्रिपुत्र श्रेयक वय में छोटा होने पर भी अपने कर्तव्य पालन के प्रति अत्यंत ही जागरूक था, इसके परिणाम स्वरूप उसने नंदराजा का विश्वास प्राप्त किया। नन्द राजा ने उसे अपना अंगरक्षक बना दिया।
उसी नगर में वररुचि नाम का ब्राह्मण पंडित रहता था। उसके पास अद्भुत कवित्व शक्ति थी। राजा की कृपा प्रसादी पाने के लिये वह प्रतिदिन नए नए 108 काव्यों की रचना करता और राजसभा में जा कर वे काव्य राजा को सुनाता।मिथ्यादृष्टि की प्रशंसा नही करना चाहये। मिथ्यादृष्टि की आम सभा में प्रशंसा करने से मिथ्यामत को प्रोत्साहन मिलता है’ – इस आशय से शकटाल मंत्री कभी भी वररुचि के काव्यों की प्रशंसा नही करता था। परिणाम स्वरूप वररुचि को राजा की और से ईनाम नही मिल पाता था क्योंकि अधिकांशतः राजा, मंत्री के संकेतानुसार ही प्रवत्ति करते होते है।
वररुचि को इनाम नही मिलने के रहस्य का पता लग गया , अतः एक दिन उसने मंत्री की पत्नी को खुश करने के उपाय ढूंढ निकाला। आखिर , किसी उपाय द्वारा वररुचि ने मंत्री की पत्नी को खुश कर दिया ।
‘मेरे योग्य कोई कार्य हो तो कहना’ – इस प्रकार मंत्री पत्नी के पूछने पर वररुचि ने इतना की कहा , ‘तुम्हारा पति(मंत्री) राजा के सामाने मेरे काव्यों की प्रशंसा करे।’
मंत्री पत्नी ने वररुचि को आश्वासन देते हुए कहा, तुम्हारा काम हो जायेगा । इस बात को सुनकर वररुचि खुश हो गया । मंत्री पत्नी ने अपने पति के सामने वह बात रखी ।
मंत्री ने कहा , वह ब्राह्मण मिथ्या दृष्टि है, इसी कारण मै उसके काव्य की प्रशंसा नही करता हूँ।
परन्तु पत्नी के आग्रह के कारण आखिर मंत्री को झुकना पड़ा और राज सभा में उसे वररुचि के काव्यों की प्रशंसा करनी पड़ी।
मंत्री के मुख्य से वररुचि के काव्यों की प्रशंसा सुनकर राजा ने तत्काल उस वररुचि को 108 सुवर्ण मुद्राएँ भेंट प्रदान की।
बस ,अब तो प्रतिदिन वररुचि राजसभा में आकर नए- नए काव्य सुनाने लगा और राजा भी उसे प्रतिदिन 108 सुवर्ण मुद्राएँ भेंट देने लगा ।
मंत्री ने सोचा ,’अहो! यह तो बड़ी गड़बड़ हो गई है।’
एक दिन मंत्री ने राजा को पूछ ही लिया , ‘राजन्! आप इस वररुचि को रोज – रोज इनाम क्यों देते हैं?’
राजा ने कहा , ‘उस दिन तुमने उसके काव्य की प्रशंसा की थी , इसलिए देता हूँ।’
मंत्री ने सोचा ,’किसी भी उपाय से यह इनाम बंद कराना ही चाहियें ।’ इस प्रकार सोचकर मंत्री ने कहा ,’राजन! मैंने उसकी प्रशंसा नहीं की थी , मैंने तो दूसरों के रचे हुए उन काव्यों की प्रशंसा की थी । वह वररुचि जो काव्य पढ़ता है, वे काव्य उसके द्वारा रचे हुए नहीं है; वे काव्य तो दूसरों के द्वारा रचे हुए है।’
मंत्री! क्या तुम सच बात कह रहे हो?
‘ हाँ, महाराजा! वह जो काव्य बोलता है; वे काव्य तो मेरी छोटी- छोटी पुत्रियाँ भी सुना सकती है। यदि आपको मेरी बात पर विश्वास नहीं होता हो तो कल ही मैं आपको इस सत्य की प्रतीति करा दूंगा।’
दूसरे दिन मंत्री अपनी सातों पुत्रियों को लेकर राज दरबार में आ गया । उसने अपनी पुत्रियों को पास में बिठा दीया। तत्पश्चात वररुचि ने राजसभा में प्रवेश किया। उसने नित्यक्रम के अनुसार अत्यंत ही मधुर कंठ से स्वनिर्मित एक सौ आठ काव्य राजा को सुनाए ।
तत्काल मंत्री ने अपनी बड़ी पुत्री को वे ही काव्य सुनाने का आदेश दिया। एक ही बार ध्यानपूर्वक सुनने से मंत्री – पुत्री यक्षा को सब कुछ याद रह जाता था , अतः जो काव्य वररुचि ने सुनाए – वे सभी काव्य एक बार सुनने से यक्षा को याद हो गए थे, अतः उसने उसी लय से वे सभी काव्य राजा को सुना दिए।
यक्षा के मुख से वे सभी काव्य सुनकर राजा के आश्चर्य का पार रहा । तत्पश्चात् राजा को और अधिक विश्वास में लेने के लिए मंत्री ने अपनी दूसरी पुत्री यक्षदत्ता को वे सभी काव्य बोलने का आदेश दिया। यक्षदत्ता की यह विशेषता थी कि वह जो भी काव्य दो बार सुन लेती, उसे अच्छी तरह से याद रह जाता था, अतः वररुचि और यक्षा के मुख से दो बार उन काव्यों को सुनने के कारण यक्षदत्ता को वे सभी काव्य याद हो गए थे। उसने वे काव्य अच्छे ढंग से राजा को सुना दिए।
यक्षदत्ता के मुख से भी उन्ही काव्यों को सुनकर राजा के आश्चर्य का पार न रहा।
तत्पश्चात मंत्री की आज्ञा से क्रमशः तीसरी, चौथी, पांचवी आदि कन्याएँ भी जब उन्हीं काव्यों को अच्छी तरह से सुनाने लगी , तब तो राजा को पूर्ण विश्वास हो गया कि मंत्री की बात बिल्कुल सत्य है।
बस , मंत्री की सातों पुत्रियों के मुख से उन काव्यों को सुनने के बाद राजा ने वररुचि को कुछ भी इनाम देने से इन्कार कर दिया ।
इनाम नहीं मिलने से वररुचि ने अपने दिल में मंत्री के प्रति वैर की गांठ बांध ली . . . समय बीतने पर वह वैर की गांठ तीव्र बनती गई।
क्रमशः...
ब्रह्मचर्य सम्राट स्थूलभद्र स्वामी भाग 2
नगरजनों में अपना प्रभाव- चमत्कार दिखलाने के लिए वररुचि ने एक नई योजना बनाई । उसने गंगानदी के जल प्रवाह के नीचे एक यंत्र स्थापित किया। वह प्रतिदिन प्रातः गंगा नदी में खड़ा रहकर गंगा नदी की स्तुति करने लगा । नदी के भीतर रहे यंत्र में वह 108 सुवर्ण मुद्राओं की पोटली रख लेता। स्तुति के बाद वह अपने पैरों से उस यंत्र को दबाता । परिणामस्वरूप वह पोटली उछलकर उसके हाथों में आ जाती ।प्रतिदिन वह इस प्रकार गंगा की स्तुति करने लगा ।लोगों को यह बात फैलने लगी की वररुचि की स्तुति से तुष्ट बनी गंगा मैया प्रतिदिन 108 सुवर्ण मुद्राएँ प्रदान करती है। वररुचि के इस चमत्कार की बात राजा तक पहुँची।
राजा ने मंत्री को कहा, `मंत्रिश्र्वर! यदि चमत्कार की यह बात सत्य हो तो प्रातः काल जाकर यह दृश्य प्रत्यक्ष देखना चाहियें।’
मंत्री ने राजा की बात स्वीकार कर दी।
वररुचि के चमत्कार के वास्तविक भेद को जानने के लिए मंत्री ने एक गुप्तचर को सायंकाल में गंगा तट पर भेज दिया । उसी समय वह वररुचि 108 सुवर्ण मुद्राओं की पोटली गंगानदी के प्रवाह में यंत्र के नीचे छुपाने के लिए वहां आया हुआ था। मंत्री के गुप्तचर ने यह सारा भेद अपनी आंखों से प्रत्यक्ष देख लिया । इधर जैसे ही वररुचि 108 सुवर्ण मुद्राओं की पोटली गंगा नदी के प्रवाह के नीचे छिपाकर अपनें घर गया, उसी समय उस गुप्तचर ने आकर वह पोटली यंत्र से हटा दी और उसे ले जाकर मंत्रीश्वर को सौंप दी।
दूसरे दिन प्रातः काल की मधुर वेला में राजा अपनें मंत्री के साथ गंगा नदी के किनारे पहुँचा। `मेरे चमत्कार को देखने के ये राजा भी आया है’- यह जानकर वररुचि एकदम प्रसन्न हो गया ।
गंगा नदी के जल प्रवाह के बीच में खड़ा रहकर वह गंगा मैया की स्तुति करने लगा । स्तुति के बाद उसने यंत्र को दबाया । परन्तु आश्र्चर्य! रोज की तरह सुवर्ण मुद्रा की थैली उछलकर उसके हाथ में नहीं नही आ पाई। वह एकदम शर्मिंदा हो गया और अपनें हाथों से गंगानदी में रही धन की पोटली को शोधने लगा।
उसी समय मंत्री ने कहा ,`क्या आज गंगा मैया तुम्हें सुवर्ण मुद्राएँ नहीं दे रही है ? अथवा तुम छुपाए हुए धन को ही पुनः – पुनः शोध रहे हो?’ इतना कहकर मंत्रिश्र्वर ने वह सुवर्ण मुद्राओं की पोटली वररुचि के हाथ में थाम दी।
मंत्री ने राजा को कहा,`राजन्! लोंगो को ठगने के लिए यह सायंकाल धन की पोटली नदी के भीतर छुपा देता है और प्रातः काल में यंत्र को दबाकर वह धन प्राप्त करता है। इसकी इस प्रवृत्ति में कोई चमत्कार नहीं है , सिर्फ ,माया – कपट ही है।’
राजा ने कहा ,`मंत्रिश्र्वर! तुमने बहुत अच्छा किया . . . इसके भेद को तुमने पकड़ लिया ।’ इस प्रकार कहकर राजा व मंत्री पुनः अपनें महल में आ गए।
अपना भेद खुल जाने के कारण वररुचि को अत्यंत ही आघात लगा। अपनी इज्जत पर लगी चोट के कारण उसके दिल में मंत्रिश्र्वर के प्रति तीव्र रोष पैदा हुआ । वह किसी भी उपाय से मंत्रीश्र्वर का बदला लेना चाहता था ।इर्ष्यालु व्यक्ति कभी किसी के गुण नही देख सकता है। उसे तो सर्वत्र दोष ही दिखाई देते है। जिस व्यक्ति के प्रति ईर्ष्या की भावना होती है; उस व्यक्ति में रहे गुणों को देखने के लिए ईर्ष्यालु व्यक्ति अंध ही होता है।
गंभीर भूल धीरे धीरे समय बीतने लगा !
श्रीयक की शारीरिक मानसिक योग्यता , परिपक्वता को जानकर मंत्रीश्वर ने सुयोग्य कन्या के साथ उसका पाणिग्रहण करने का निश्चय किया।
मंत्रीश्वर ने सोचा ‘ श्रीयक के लग्न प्रसंग पर महाराजा मेरे घर पधारेंगे , अतः उन्हें योग्य भेंट देनी पड़ेगी।’
इस प्रकार विचार कर मंत्रीश्वर ने महाराजा को अतिप्रिय ऐसी शस्त्र सामग्री देने का निश्चय किया। बस, तत्काल मंत्रीश्वर ने अपने महल में नवीन शस्त्रो के निर्माण के लिये योग्य कारीगरों को बिठा दिया । बड़ी संख्या में वे कारीगर मंत्रीश्वर के महल में अनेक प्रकार की शस्त्र सामग्रियां तैयार करने लगे । नगर में गुप्त रूप से घूमते हुए वररुचि को इस बात का पता चल गया कि मंत्रीश्वर अपने महल में शस्त्र सामग्रियां तैयार करा रहा है। बस, इस बात का पता लगते ही मंत्रीश्वर को खत्म करने के लिए वररुचि ने षड्यंत्र रचना प्रारंभ कर दिया।
छोटे-छोटे नन्हें-मुन्हे बच्चो को खाने पीने की सामग्री प्रदान कर वररुचि सभी बच्चों को एक श्लोक सिखाने लगा ।
वररुचि के सिखाने के अनुसार वे बच्चे बोलने लगे।
‘न वेत्ति राजासौ शकटाल: किं करिष्यति?
व्यापाद्य नन्दं, तदराज्ये , श्रीयकं स्थापयिष्यति ।।’
राजा को इस बात का पता नही है कि शकटाल क्या करेगा , वह तो नन्द राजा को मरवाकर उसकी गद्दी पर श्रीयक को बिठा देगा।
स्थान स्थान पर वे बच्चे यह श्लोक बोलने लगे।
जनश्रुति के माध्यम से जब राजा को इस बात का पता चला, तब राजा ने सोचा , ‘ बालको का वचन मिथ्या नही हो सकता। ‘दिन में चमकने वाली बिजली निष्फल नही जाती है, रात्रि में हुई गर्जना निष्फल नही जाती है’- इसी प्रकार बालक का वचन और देव का दर्शन निष्फल नही जाता है।’
बालको के वचन की सत्य प्रतीत करने के लिए राजा ने किसी गुप्तचर को मंत्रीश्वर के घर भेजा। गुप्तचर ने आकर राजा को इतने समाचार दिए की मंत्रीश्वर के घर पर शस्त्रों का निर्माण चालू है।
बस, शस्त्र निर्माण कि बात की गहराई में उतरे बिना राजा ने मनोमन निश्चय के लिया, ‘हाँ! मंत्रीश्वर मुझे खत्म करने के लिए ही शस्त्रों का निर्माण कर रहा है।’
राजा ने पक्का निर्णय कर लिया की मंत्रीश्वर मेरा दुश्मन है।
दूसरे दिन मंत्रीश्वर ने जैसे ही राजसभा में प्रवेश किया , मंत्रीश्वर के आगमन को जानकर राजा ने तुरंत ही अपना मुंह मोड़ लिया।
राजा के इस बर्ताव को समझते मंत्रीश्वर को कुछ भी देर नही लगीं।
मंत्रीश्वर अपने घर लौट आया।
उसने सोचा की , ‘अवश्य ही मेरे किसी दुश्मन ने राजा के कान फूंक लिए है। राजा भी कान के कच्चे है;, अतः अब निकट भविष्य में ही मेरे परिवार पर भयंकर आपत्ति आ सकती है। आवेश में अंध बनने पर राजा शायद मेरे सम्पूर्ण कुल का भी क्षय करा सकता है; अतः अब किसी भी उपाय से मुझे अपने कुल का विनाश अवश्य रोकना चाहिये।’
इस प्रकार विचार कर मंत्रीश्वर अपने कुल का क्षय रोकने का उपाय सोचने लगा ।
काफी लम्बे समय तक सोचने पर आखिर मंत्रीश्वर को एक उपाय मिल ही गया।
मंत्रीश्वर ने अपने पुत्र श्रीयक को बुलाकर कहा, ‘बेटा! आज मेरे किसी पापोदय से अपने कुल के क्षय का प्रसंग उपस्थित हुआ है………. अतः उसके लिए कुछ उपाय करना चाहिये।’
‘पिताजी! बात क्या है?’
‘ बेटा! बात इस प्रकार है। मुझे लगता है कि किसी द्वेषी व्यक्ति ने जाकर राजा के कान फूंक लिये है। आज जब में राजसभा में गया , तब राजा ने मुझे देखकर अपना मुंह फेर लिया .. मुझे संदेह है कि राजा अपने सम्पूर्ण परिवार का भी नाश करा सकता है; अतः किसी उपाय से इस कुलक्षय को बचाना जरुरी है।’
पिताजी! राजा को पूछ लिया जाय की हमने कोनसा अपराध किया है?’
‘ बेटा यह बात अब शक्य नही है। राजा लोग कान के कच्चे होते है। सत्य परीक्षण के लिए उनके पास धैर्य नही होता है। राजा मेरी बात सुनेगा, ऐसा अवसर अब नही रहा है।’
क्रमशः.....
ब्रह्मचर्य सम्राट स्थूलभद्र स्वामी भाग -3
‘ पिताजी! आप मुझे आज्ञा दिजिए। आपकी आज्ञा मुझे शिरोधार्य है। अपने कुल क्षय को बचाने के लिए में अपने जीवन का बलिदान देने के लिए भी तैयार हूँ। पिताजी! फरमाइए! क्या आज्ञा है?’
‘ बेटा! अपने कुलक्षय को बचाने के लिए मैंने जो योजना तैयार की है; उसमे तूं अपना सहयोग देगा न?’
पिताजी! आप यह कैसी बात कर रहे है मै आपका समर्पित पुत्र हूँ ,आपकी आज्ञा के पालन के खातिर में अपने प्राणों का बलिदान देने के लिए भी तैयार हूँ।
‘बेटा! फिर तूं बदल नही जायेगा न?’
‘नही! पिताजी ‘
‘ बेटा! मै ऐसे भी वृद्ध हो चूका हूँ। मृत्यु मेरा स्वागत करने के लिए समुत्सुक बनी हुई है। जंहा तक मेरा सोचना है अपने कुल के रक्षण के लिए मेरा बलिदान अत्यंत ही जरुरी है।’
‘ नही! पिताजी नही! बलिदान आपका नही, मेरा हो।’
‘बेटा! मैं राजा के मंत्री पद पर हूँ परन्तु राजा के दिल में मेरे प्रति विश्वास नही रहा है ,परन्तु तू राजा के अंगरक्षक के पद पर है; और विश्वास पात्र है, अतः कल ज्योही में राजसभा में राजा को प्रणाम करने के लिए अपना सिर झुकाऊँ , त्योंही तुम मेरे मस्तक को अपनी तलवार से उड़ा देना।’
पिताजी! पितृ हत्या का यह घोर पाप मुझसे सम्भव नही है। इसके बजाय तो मैं ही क्यों न अपनी आत्महत्या कर लूँ।’
बेटा! तेरी मौत से कुलक्षय को बचाना शक्य नही है। राजा की दृष्टि में मैं गुन्हेगार हूँ तुम निर्दोष हो। और अपनी पितृ हत्या का तुम जो सवाल उठा रहे हो , उसका भी मैंने उपाय शोध लिया है।’
राजसभा में प्रवेश के बाद मै अपने मुंह में विष की गोली डाल दूंगा ,
उस विष के प्रभाव से ऐसे भी मै मरने ही वाला हूँ अतः मेरी गर्दन पर प्रहार करने पर भी तुम पितृ घातक नही गिने जाओगे।’
यद्यपि श्रीयक पिता के मस्तक को छेदने के लिए तैयार नही था.परन्तु पिता के वचन के खातिर उसे अनिच्छा से भी यह बात स्वीकार करनी पड़ी।
रात्रि व्यतीत हुई।
दूसरे दिन मंत्रीश्वर ने राज सभा में जाने के लिए प्रयाण किया। उसे अपनी आंखों के सामने मौत दिखाई दे रही थी , अपनी मृत्यू को सुधारने के लिए उसने प्रभु नाम का स्मरण किया। तत्पश्चात् राजसभा में प्रवेश करने के बाद उसने अपने मुँह में विष डाल दिया।
महाराजा के निकट पहुचने के बाद मंत्रीश्वर ने राजा के चरणों में प्रणाम किया परन्तु उसी समय राजा ने अपना मुंह फेर लिया और तत्क्षण श्रीयक ने तलवार से मंत्रीश्वर का शिरोच्छेद कर दिया।मंत्रीश्वर का मस्तक देह से अलग होकर नीचे गिर पड़ा। चारो और खून खून हो गया।
एक अंगरक्षक पुत्र के द्वारा अपने ही पिता मंत्री की हत्या के दृश्य को देखकर राजा के आश्चर्य का पार न रहा।
राजा ने पूछ ही लिया, ‘ श्रीयक! तूने यह क्या कर डाला’?
श्रीयक ने कहा, राजन! जो मेरे स्वामी का द्रोही हो वह मेरे लिए हंतव्य है; वह चाहे मेरा पिता भी क्यों न हो!’
श्रीयक के दिल में राज्य के प्रति रही वफादारी को जानकर राजा के आश्चर्य का पार न रहा!
राजा ने मन ही मन सोचा, श्रीयक ने अपने प्राण प्यारे पिता की भी हत्या कर डाली ,अवश्य ही इस घटना के पीछे कोई भेद होना चाहिये।
राजा ने आग्रह करके श्रीयक को पूछा, श्रीयक! मेरे प्रति तूं पूर्ण वफादार है, इस बात में लाश अंश मात्रा भी संदेह नही है, परन्तु पिता की हत्या के पीछे कुछ रहस्य अवश्य होना चाहिये।
राजा की इस बात को सुनकर श्रीयक ने अवसर देखकर सत्य का घटस्फोट करते हुए कहा, राजन्! मेरे पिता जीवन पर्यंत आपके प्रति पूर्ण समर्पित और वफादार रहे है, और आपके दिल में भी उनके लिए पूर्ण प्रेम और आदर भाव था परन्तु पिछले दो दिनों से उन्होंने यह अनुभव किया कि आपके दिल में उनके प्रति रहा विश्वास उठ गया है, आपके ह्रदय में रहा प्रेम का झरना सुख गया है। बस , इस घटना से वे समझ गए की अवश्य ही किसी विद्वेषी ने आकर आपके कान फूंक लिए है। सत्य असत्य की परीक्षा करने के बजाय आप तत्काल की संपूर्ण कुल क्षय के लिए आदेश न कर दे, इसके पूर्व ही उन्होंने मुझे आज्ञा कर दी की अपने कुलक्षय को बचाने के लिए मैं स्वयं विष का भक्षण कर दूंगा और तुम राजसभा में ही मेरा मस्तक उड़ा देना।
श्रीयक की इस बात को सुनकर राजा एकदम चौक उठा।
‘राजा ने कहा, श्रीयक! क्या तेरे घर पर शस्त्रों का निर्माण हो रहा था?’
‘हाँ! जी!’
‘किसके लिए?’
निकट भविष्य में ही मेरा लग्न प्रसंग आ रहा था, और उस प्रसंग पर मेरे पिताजी आपको शस्त्रों की भेंट देना चाहते थे , इसीलिए नवीन शस्त्रो का निर्माण कार्य चल रहा था।
श्रीयक की इस बात को सुनकर राजा तो अवाक् रह गया। वह एकदम शोकसागर में डूब गया। उसे अपनी भूल समझ में आ गई।
राजा ने सोचा, अहो! मेरे हाथों से एक गम्भीर भूल हो गई है। राष्ट्र के प्रति पूर्ण वफादार मंत्री की हत्या हो गई।
राजा के पश्चाताप का पार न रहा। उसने तत्काल उस दुष्ट वररुचि ब्राह्मण को देश निकाल की सजा कर दी ।
तत्पश्चात राजा ने अत्यंत ही आदर सम्मान के साथ शकटाल मंत्री का अग्नि संस्कार कराया।
महाभिनिष्क्रमण
भवितव्यता के आगे पुरुषार्थ भी पंगु है। जो हानि है, उसे कोन टाल सकता है?
शकटाल की अकाल मृत्यु से राजा को अत्यंत ही आघात लगा। उसे अपनी भूल का तीव्र पश्चात्ताप होने लगा।
खाली पड़े मंत्री पद की पूर्ति के लिए राजा ने श्रीयक को बुलाकर कहा , श्रीयक! पिता के खाली पड़े स्थान की पूर्ति के लिए तुम्हे मंत्री मुद्रा का स्वीकार करना चाहिये। तुम इस पद के लिए हर तरह से काबिल हो।’
राजा की इस बात को सुनकर श्रीयक ने कहा, राजन! इस मंत्री पद के लिए मैं नही , किन्तु मेरा ज्येष्ठ बन्धु अधिक योग्य है।’
‘क्या तुम्हारा ज्येष्ठ बन्धु है?’
‘हा! राजन्! मेरा ज्येष्ठ बन्धु स्थूलभद्र है। वह हर तरह से सुयोग्य है।’
‘वह अभी कहा है?’
‘वह अभी कोशा वेश्या के वहा रहा हुआ है। वहां रहे हुए उसे 12 साल बीत गए है।’
श्रीयक की इस बात को सुनकर राजा ने तत्काल स्थूलभद्र को बुलाने के लिए सुयोग्य सेवक को भेज दिया।
श्रीयक की यह कैसी महानता!
आज व्यक्ति पद की प्राप्ति के लिए अनेक प्रकार से माया कपट का आश्रय लेता है, परन्तु श्रीयक राजा की और से मिल रहे मंत्री पद को भी ठुकराने के लिए तैयार हो गया । मंत्री मुद्रा स्वीकार करने के बजाय अपने ज्येष्ठ बन्धु को मंत्री पद देने का आग्रह रखा।
राजा की आज्ञा होते ही राजसेवक कोशा वेश्या के भवन में पहुँच गया।
राज सेवक ने गौरवर्णीय , हष्ट पुष्ट शरीर वाले और अत्यंत ही कांतिमान ऐसे स्थूलभद्र को कोशा वेश्या के साथ प्रसन्नता पूर्वक वार्ता विनोद करते हुए देखा। राजसेवक के अचानक आगमन से उनके वार्तालाप के रंग में भंग पड़ा।
स्थूलभद्र ने पूछा, ‘भाई! तुम कोन हो और क्यों आये हो?’
राजसेवक ने कहा, महाराज ने आपको याद किया है।
महाराज ने और मुझे? स्थूलभद्र ने आश्चर्य से पूछा।
राजसेवक ने कहा ,’शकटाल मंत्रीश्वर की अकाल – मृत्यु के बाद मंत्री पद का स्थान रिक्त बना हुआ है, जब महाराजा वह पद श्रीयक को देने लगे, तब श्रीयक ने वह पद लेने से इन्कार करते हुए कहा , ‘इस पद के लिए मेरा ज्येष्ठ बंधु अधिक योग्य है । ‘ अत:इस पद को ग्रहण करने के लिए महाराजा ने आपको याद किया है।’
स्थूलभद्र ने पूछा ,’क्या मेरे पिता की मृत्यु हो गई है?
‘हाँ! जी!’
‘मृत्यु कैसे हुई?’
स्थूलभद्र के पूछने पर राजसेवक ने वररुचि के षड्यंत्र की सारी बात बतला दी।
‘माया -कपट से भरी राजनीति ने मेरे पिता के प्राण ले लिये ‘-यह जानकर स्थूलभद्र के दिल को बड़ा धक्का लगा। राजा की आज्ञा होने से स्थूलभद्र तत्काल खड़ा हक गया और उसने कोशा के पास राजमहल में जाने की अनुमति मांगी।
कोशा ने कहा,’ स्वामीन! आपके बिना मेरा प्राणाधार कौन?’
‘प्रिये!तूं निश्चित रह, मुझे राजनीति की गंदी जाल पसंद नहीं है, मैं किसी भी उपाय से छुटकारा पाकर शीघ्र ही वापस लौट आऊंगा।’
‘स्वामिन!आपके वियोग की प्रत्येक क्षण मेरे लिए असहा है।आपके वियोग की एक – एक पल मेरे लिए वर्ष जितनी लंबी होगी…. अतः मेरी आपसे यही नम्र प्रार्थना है कि आप राजनीति के जाल में फंसे बिना शीघ्र ही वापस लौट आना।’
‘प्रिये,तेरे दिल की वेदना को मैं अच्छी तरह से जानता हूँ । कमल के समान कोमल तेरे ह्रदय को लेश भी चोट पहूँचना , मुझे कतई पसंद नहीं है. परंतु एक राज-आज्ञा के खातिर मुझे वहां जाना पड़ रहा है। मैं तुझे विश्वास दिलाता हूँ कि अपने वियोग का काल थोड़ा भी लम्बा नही होगा।’
इस प्रकार कोशा वेश्या को आश्वासन देकर स्थूलभद्र तेजी से राजमहल की ओर आगे बढ़े। कुछ ही देर में वह राजमहल में आ पहुँचे।
राजा ने उसकी बलिष्ट व नष्ट-पुष्ट काया, गौरवर्ण , और तेजस्वी मुख -मंडल देखा । उसकी बाह्य -प्रतिभा के साथ ही उनका व्यक्तित्व भी उतना ही आकर्षक था।
क्रमशः.....
ब्रह्मचर्य सम्राट स्थूलभद्र स्वामी भाग -4
इस प्रकार कोशा वेश्या को आश्वासन देकर स्थूलभद्र तेजी से राजमहल की ओर आगे बढ़े। कुछ ही देर में वह राजमहल में आ पहुँचे।
राजा ने उसकी बलिष्ट व नष्ट-पुष्ट काया, गौरवर्ण , और तेजस्वी मुख -मंडल देखा । उसकी बाह्य -प्रतिभा के साथ ही उनका व्यक्तित्व भी उतना ही आकर्षक था।स्थूलभद्र ने महाराजा के चरणों में प्रणाम किया। राजा ने उसे सप्रेम आशीष दी।
राजा ने पूछा, ‘ क्या तुम ही स्थूलभद्र हो ? ‘
‘ जी! महाराजा! ‘
स्थूलभद्र ! तुम्हारे पिता के वियोग में रिक्त बने मंत्री पद को ग्रहण करने के लिए मेरा तुम्हे आमंत्रण है। ‘
‘ राजन्! कुछ सोच विचार कर इस सम्बन्ध में अपना निर्णय प्रस्तुत करना चाहता हूँ।
‘तुम्हारा निर्णय आज ही हो जाय तो ठीक रहेगा।’ राजा ने कहा।
‘जी! महाराजा!’ इतना कहकर स्थूलभद्र पास ही अशोक वाटिका में चले गये और सोचने लगे, ‘ अहो! इस मंत्री पद में तो कितनी अधिक पराधीनताये है? वह न तो सुखपुर्वक खा पी सकता है और न ही संसार के भोग सुखों का अनुभव कर सकता है। इस मंत्री पद पर आसीन व्यक्ति पर राज्य के कार्य का सार भार लगा रहता है ,और यदि राजा की आज्ञा विरुद्ध कुछ भी प्रव्रत्ति हो जाय तो अकाल मृत्यु भी हो सकती है।
ठीक ही कहा है; ‘ जो दरिद्री है, रोगी है, मुर्ख है, प्रवासी है और किसी की सेवा में नित्य उपस्थित है, ये पांच जीवित होते हुए भी मरे हुए के सामान ही है।’
संसार की उपाधियों का विचार करते करते अचानक पूर्वभव के शुभ कर्म के उदय से स्थूलभद्र के दिमाग में बिजली की भांति एक शुभविचार उत्पन्न हुआ और वे सोचने लगे , अहो ! वे बुद्धिमान पुरुष धन्यवाद के पात्र है; जो भोग सुखों का परित्याग कर संयम धर्म का स्वीकार करते है और उत्कृष्ट संयम धर्म का पालन कर शाश्वत अजरामर मोक्षपद प्राप्त करते है।
इस प्रकार संसार की असारता , सयंम धर्म की उपादेयता और मोक्ष सुख की स्वाधीनता का विचार करते करते उनके दिमाग में इस असार संसार के प्रति तीव्र वैराग्य भाव पैदा हो गया।
अहो! स्थूलभद्र का यह कैसा महान पुण्योदय! 12-12 साल से वेश्या के संग में आसक्त होने पर भी एक ही पल में संसार के समस्त भौतिक सुखों को तिलांजलि देने का कैसा उत्तम विचार !
बस, चरित्र धर्म के प्रति उनके ह्रदय में तीव्र अनुराग पैदा हो गया । चरित्र के आगे उन्हें संसार के ऊंचे से ऊंचे पद भी निरस प्रतीत होने लगे, और उसी समय एक क्षण का भी विलम्ब किए बिना उन्होंने अपने हाथों से केश लोंच प्रारंभ कर दिया । लोच करने के बाद रत्नकंबल का ही रजोहरण बनाकर साधुवेष का स्वीकार कर लिया।
महासत्वशाली स्थूलभद्र ने राज सभा में प्रवेश किया और जोर से राजा को धर्मलाभ की आशीष प्रदान की।
मंत्री मुद्रा को स्वीकार करने के प्रसंग पर अचानक धर्मलाभ के शब्दो को सुनकर राजा भी चोंक उठा।’ अरे यह क्या! यह कौन ? स्थूलभद्र! क्या स्थूलभद्र ने साधुवेष स्वीकार कर लिया?’
राजा ने पूछा, क्या सोच लिया?
‘हाँ राजन्! मेने सोच लिया। सोच विचार कर ही मैंने इस साधु वेष का स्वीकार किया है। अब न मुझे मंत्री मुद्रा की आवश्यकता है और न ही कोशा वेश्या की। अब तो मैने संयम धर्म से प्रीति जोड़ ली है,मेने अपना सर्वस्व संयम धर्म को सौंप दिया है। अब वो ही मेरा मार्ग है- वो ही मेरा जीवन है, वो ही मेरी साधना है ‘
राजा के आश्चर्य का पार न रहा।
वह सोच में पड़ गया, ‘अहो! 12-12 वर्षों से वेश्या के संग में आसक्त पुरुष क्या एक ही क्षण में ही उन समस्त भोग सुखों को तिलांजलि दे सकता है? जगत् में इससे बढ़कर और क्या आश्चर्य हो सकता है?
बस, अगारी मिटकर अणगार बने स्थूलभद्र मुनि ने वन की और अपनी यात्रा प्रारंभ कर दी।
राजा ने सोचा, ‘यह दीक्षा का बहाना करके वापस कोशा वेश्या के भवन की और तो नही जा रहा है न ? ‘-इस प्रकार का विचार कर राजा राजमहल के झरोखे में से देखने लगा ,परन्तु वेश्या के महल की सर्वथा उपेक्षा कर ईर्यासमिति के पालन पूर्वक जंगल की और आगे बढ़ते हुए स्थूलभद्र को देख राजा ने आश्चर्य से अपना मस्तक झुका दिया।
इधर संभूतिविजय मुनि के पास जाकर स्थूलभद्र ने विधि पूर्वक भागवती दीक्षा अंगीकार की। वे भोगी मिटकर योगी बन गए।
स्थूलभद्र की दीक्षा के बाद राजा ने श्रीयक को मंत्री मुद्रा ग्रहण करने के लिए आग्रह किया। आखिर राजा के आग्रह को जानकर श्रीयक ने मंत्री मुद्रा स्वीकार की। श्रीयक न्याय व नीतिपूर्वक राज्य के कार्यभार को वहन करने लगा ।
स्थूलभद्र की दीक्षा की बात जब कोशा वेश्या को पता चली , तब उसके पश्चात्ताप का पार न रहा। उसकी आंखों में आंसु बहने लगे । स्थूलभद्र के सिवाय उसका चित्त कही नही लगता था। उसका वियोग उसके लिए असह्य हो गया।
संभूति विजय आचार्य भगवंत के चरणों में पूर्ण समर्पित बने स्थूलभद्र मुनि रत्नत्रयी की आराधना साधना में एकदम तल्लीन बन गए। उनके तत्कालीन जीवन को देखकर कोई कल्पना भी नही कर सकता था कि ये स्थूलभद्र भुतकाल में 12-12 वर्ष तक वेश्या के संग में रहे होंगे।
रत्नत्रयी की निर्मल आराधना के द्वारा उन्होंने अपने ह्रदय को स्फटिक की भांति एकदम स्वच्छ बना दिया । उनकी आँखों निर्विकार बन चुकी थी । उनके मन में स्त्री या स्त्री देह के सौंदर्य का लेश भी आकर्षण नही था। संयम की साधना के फलस्वरूप अब उनके मन में स्त्री का देह एक मात्र हाड़ मांस की पुतली ही रह चूका था।
गुरुदेव के चरणों की उपासना द्वारा उन्होंने सम्यग् ज्ञान प्राप्त किया ,
परिणाम स्वरूप वे शास्त्र के रहस्य भूत पदार्थो को अपने जीवन में आत्मसात करने में समर्थ बन सके।
धीरे धीरे समय बीतने लगा।
चातुर्मास का समय निकट आया और संभूति विजय आचार्य भगवंत के शिष्य कठोर तप साधना और भयंकर परीषहों को सहन कर अलग अलग जगह पर चातुर्मास करने के लिए अपने गुरुदेव के पास अनुज्ञा मांगने लगे।
एक मुनिवर ने कहा , हे गुरुदेव ! मैं सिंह की गुफा के पास कायोत्सर्ग में खड़ा रहकर चातुर्मास व्यतीत करना चाहता हूँ।
गुरुदेव ने अप इस प्रकार उसकी योग्यता जानकर गुरुदेव ने कहा, ‘तथास्तु!वत्स! मेरी तुझे अनुमति है। तुम अपनी भावना को पूर्ण कर सकोगे।’
उसके बाद एक मुनिवर ने कहा , हे भगवंत! मैं दृष्टिविष सर्प के बिल के पास चार महीने उपवास करके कायोत्सर्ग में खड़ा रहना चाहता हूँ। प्रभो! इसके लिए आप मुझ पर अनुग्रह कर अनुमति प्रदान करने की कृपा करें।
गुरुदेव ने उस मुनिवर के दृढ़ मनोबल और सत्त्व को देखा और कहा, मुनिवर! मेरी तुम्हे अनुमति है। इस प्रकार के कठोर परिषह को सहन करने की तुम्हारी मनोकामना अत्यंत ही अनुमोदनिय है।
तत्पश्चात् एक मुनिवर ने कहा, ‘हे भगवंत! आप मुझे अनुग्रह करे; मैं कुँए की दीवाल पर खड़े रहकर चार महीने उपवास एवं कायोत्सर्ग की साधना द्वारा चातुर्मास व्यतीत करना चाहता हूँ। ‘
गुरुदेव ने उसकी मन की स्थिरता देखकर उसे भी सम्मति प्रदान कर दी ।
तत्पश्चात् स्थूलभद्र मुनि ने कहा; मैं कोशा वेश्या के वहां जो काम के आसनों से चित्रित चित्रशाला है; उस चित्रशाला में कुछ तप किए बिना षडरस भोजन कर चार मास व्यतीत करना चाहता हूँ। है गुरुदेव! मेरे इस अभिग्रह को पूर्ण करने के लिए आप मुझे अनुमति प्रदान करे।
स्थूलभद्र मुनिवर की इस प्राथना को सुनकर गुरुदेव ने अपने ज्ञान का उपयोग लगाया और देखा की काम के गृह में रहकर काम विजेता बनने वाला एक मात्र यह स्थूलभद्र ही है; इस प्रकार स्थूलभद्र मुनिवर की योग्यता जानकर गुरुदेव ने उन्हें कोशा वेश्या के वहा चातुर्मास रहने के लिए अनुमति प्रदान कर दी।
बस, गुरुदेव की आज्ञा होते ही वे सभी मुनि चातुर्मास काल निकट आने के साथ ही अपनी अपनी दिशा की और आगे बढ़ने लगे।
ईर्ष्या की आग
गुरुदेव के चरणों में बैठकर जिन वचन का अमृत पान करने वाले स्थूलभद्र मुनि पौद्गालिक पदार्थों में जलकमलवत् अनासक्त योगी बन चुके थे । गुरुदेव के शुभ – आशिर्वाद प्राप्त कर स्थूलभद्र महामुनि चातुर्मास के लिए कोशावेश्या के भवन की और क्रमशः आगे बढ़ने लगे ।
उनकी चाल में ईर्यासमिति के दर्शन होते थे , उनके मुखमंडल पर ब्रह्मचर्य का अपूर्व तेज था।
कोशा वेश्या के द्वार पर पहुँचने के साथ ही स्थूलभद्र मुनिवर ने जोर से `धर्मलाभ’ कहा।
`धर्मलाभ’ की मधुर ध्वनि के स्वर जैसे ही कोशा वेश्या के कान में गिरे, वह एकदम चौंक उठी। वह तत्काल अपनें भवन के द्वार पर आ गई ।
उसने जैसे ही प्रशांत मुख मुद्रा वाले स्थूलभद्र मुनिवर को देखा , उसने आश्चर्य का पार न रहा ।
जिनके आगमन की वह प्रतिपल प्रतीक्षा कर रही थी , परन्तु जिसे स्वप्न में भी स्थूलभद्र के आगमन की कल्पना नहीं थी ,ऐसे स्थूलभद्र मुनिवर को अपनी आंखों के सामने प्रत्यक्ष देखकर वह विचारों में खो गई।
इस प्रकार मनोमन विचार कर कोशा वेश्या ने कहा , `स्वामिन्! पधारो! पधारो! सुस्वागतम्! आपके आगमन से मैं धन्य बन गई हूँ। आप मुझे आज्ञा फरमाइए । मेरा देह , मेरा धन , मेरे नौकर – चाकर ये सब आपको पूर्ण रूप से समर्पित है।
स्थूलभद्र मुनिवर ने कहा , `यहाँ चातुर्मास व्यतित करने के लिए आया हूँ। अतः मुझे रहने के लिये स्थान चाहिये। तुम मुझे अपनी चित्रशाला प्रदान कर सकोगी?’
तत्काल कोशा वेश्या ने स्थूलभद्र मुनिवर को चित्रशाला प्रदान कर दी । चित्रशाला की दीवारों पर काम वासना को उत्तेजित करने वाले विविध कामासन चित्रित थे, जिन्हें देखकर मन में सुषुप्त अवस्था में रही काम वासना उत्तेजित हुए बिना नहीं रह पाती। `समुद्र के जल में रहना और मगर से वैर रखना’ – की तरह काम वासना को उत्तेजित करने वाले वातावरण के बीच रहना और काम से अलिप्त रहना – अत्यंत ही दुष्कर साधना है . . . परन्तु स्थूलभद्र महामुनिवर ने वह साधना भी सुकर करके बतला दी।
स्थूलभद्र मुनिवर ने चित्रशाला में प्रवेश किया । तत्पश्चात् भोजन के समय पर वह वेश्या स्थूलभद्र मुनिवर को षड्रस से युक्त भोजन बहोराने लगी।
क्रमशः.....
ब्रह्मचर्य सम्राट स्थूलभद्र स्वामी भाग 5
षडरस का आहार भी काम को उत्तेजित करने वाला है। उसके बाद वह कोशा वेश्या सुंदर वस्त्र एवं आभूषणों से अलंकृत होकर स्थूलभद्र मुनिवर के समीप आई। और अपने हाव भाव से स्थूलभद्र मुनिवर को अपने वश में करने लगी । परन्तु यह क्या? फूल की भांति कोमल ह्रदयवाले ये स्थूलभद्र मुनि आज उसे वज्र की भांति कठोर प्रतीत होने लगे।
उसने सोचा आज नही तो कल ही सही! मुझे अवश्य सफलता मिलेगी।
बस, दूसरे दिन कोशा वेश्या ने अपना प्रयास पुनः जारी रखा। स्थूलभद्र के कोमल दिल को बहलाने के लिए उसने लाख लाख प्रयत्न किए। परन्तु यह क्या? स्थूलभद्र के रोम में लेश भी विकार की भावना उत्पन्न नही हुईं।
अहो! एक और काम के आसनों से चित्रित चित्रशाला ! षडरसयुक्त भोजन , कोशा वेश्या का अद्भुत रूप और लावण्य!! कोशा वेश्या का पूर्ण समर्पण!….. सब कुछ होने पर भी स्थूलभद्र के मन में कोशा के प्रति लेश भी आकर्षण नही बन पाया।
वह कोशा वेश्या अपनी विभिन्न चेष्ठाओं के द्वारा स्थूलभद्र के मन को लुभाने का प्रयत्न करने लगी।
वह अपने भूतकाल को पुनः पुनः याद कराकर स्थूलभद्र को मोहित करने का प्रयास करने लगी ,परन्तु उसके सारे प्रयत्न निष्फल ही गए। उसे लेश भी सफलता नही मिल पाई। स्थूलभद्र को लुभाने के लिए वह ज्यों-ज्यों प्रयास करने लगी त्यों-त्यों मानो स्थूलभद्र का ह्रदय और अधिक कठोर बनता गया।
परन्तु स्थूलभद्र महामुनि कोशा वेश्या के सभी सानुकूल उपसर्गों से लेश भी चलित नही हुए। प्रतिकूल उपसर्गो को जीतनेवाले भी कई मुनि, अनुकूल उपसर्गो में परास्त हो जाते है! परंतु स्थूलभद्र महामुनी ने तो अनुकूल उपसर्गो को भी सम्पूर्णतया परास्त कर दिया था।
कोशा वेश्या ज्यों-ज्यों अनुकल उपसर्ग करती गयी, त्यों-त्यों स्थूलभद्र महामुनि की ध्यान धारा और अधिक प्रदीप्त बनती गयी।
कोशा वेश्या ने निरन्तर चार चार मास तक स्थूलभद्र को लुभाने के दावँ फेंक दिए ,परन्तु उसे निष्फलता ही हाथ लगी,आखिर हार खाकर वह उनके चरणों में गिर पड़ी । उसी समय स्थूलभद्र महामुनि ने उसे सन्मार्ग का बोध दिया। क्षण विनश्वर देह के सौंदर्य में पागल बनी कोशा वेश्या को उन्होंने आत्मा के शाश्वत और अद्भुत सौन्दर्य का भान कराया। स्थूलभद्र की वाणी सुनकर कोशा वेश्या का मोह दूर हो गया और वह जिनधर्म की उपासिका , श्राविका बन गई। उसने स्थूलभद्र महामुनि के पास जाकर श्रावक जीवन के अलंकार स्वरूप बारह व्रत स्वीकार किए । चतुर्थव्रत के विषय में उसने प्रतिज्ञा की कि राजा प्रसन्न होकर किसी पुरुष को मेरे पास भेजेगा तो उस पुरुष को छोड़कर अन्य सभी पुरुषों का त्याग करती हूँ।स्थूलभद्र महामुनि के ब्रह्मचर्य की कैसी यह अपूर्व साधना।काम के घर में रहकर भी उन्होंने काम का नाश कर दिया। एक कोशा वेश्या को भी उन्होंने उच्चकोटि की श्राविका बना दी।
वर्षाकाल व्यतीत हुआ और संभूति विजय आचार्य भगवंत के सभी शिष्य चातुर्मास पूर्ण कर अपने गुरुदेव के चरणों में उपस्थित होने लगे।
सर्वप्रथम सिंह गुफा के पास खड़े रहकर चार मास के उपवास पूर्वक कायोत्सर्ग की साधना करने वाले मुनि गुरुदेव के चरणों में उपस्थित हुए ।
मुनिवर को देखकर गुरुदेव ने कहा, ‘वत्स! तुम्हारा स्वागत हो, तुम दुष्कर कारक हो।
तत्पश्चात् सर्प के बिल के पास और कुँए की दीवार पर चातुर्मास करने वाले मुनियो का भी गुरुदेव ने इसी प्रकार स्वागत किया।
इन तीनो मुनियो के आगमन के बाद स्थूलभद्र महामुनि पधारे। उनके आगमन के साथ ही गुरुदेव अपने आसन पर खड़े हो गए और बोले, ‘दुष्कर दुष्कर दुष्करकारक! मुनिवर! तुम्हारा स्वागत हो!’
गुरुदेव ने स्थूलभद्र महामुनि का जब सविशेष स्वागत किया तो यह बात उन तीन मुनियो को पसंद नही आई। वे तीनों मुनि परस्पर बातचीत करने लगे की हमने तो कठोर साधना और तपश्चर्याएँ की है, जब की स्थूलभद्र ने तो कुछ भी तप नही किया है। वेश्या के महल में रहते हुए उसने न तो ठंडी सहन की और न ही गर्मी। वहाँ रहते हुए उसने कुछ भी तप नही किया, फिर भी आश्चर्य है कि गुरुदेव हमसे भी अधिक उनकी प्रशंसा करते है। हाँ! वे मंत्री पुत्र है, इसीलिए उनकी गुरुदेव प्रशंसा करते हैं।
वे तीनो मुनि ईर्ष्याग्रस्त होने के कारण इस बात को भूल गए की कठोर जीवन जीना तो सरल है, किन्तु काम को जितना अत्यंत ही कठिन है।
इस प्रकार मन में ईर्ष्याग्रस्त बने हुए उन मुनियो ने आठ मास का समय प्रसार किया और जब वर्षा काल आया तब सिंहगुफावासी मुनि ने गुरुदेव को कहा, ‘ भगवन्! मैं नित्य षडरस का भोजन करते हुए कोशा वेश्या के वहाँ चातुर्मास व्यतीत करना चाहता हू I
सिंहगुफावासी की इस प्रार्थना को सुनकर गुरुदेव समझ गए की यह स्थूलभद्र के साथ ईर्ष्या रखकर यह बात कर रहा है। गुरुदेव ने अपने ज्ञान का उपयोग लगाकर निर्णय किया कि कोशा वेश्या के वहाँ अन्य किसी भी मुनि का चातुर्मास उनकी आत्मा के लिए हितकर नही है, इस बात को जानकर गुरुदेव ने उस मुनि को समझाते हुए कहा, वत्स! तुम इस प्रकार का अतिदुष्कर अभिग्रह धारण मत करो । मेरु की तरह स्थिर एक मात्र स्थूलभद्र ही इस प्रकार के अभिग्रह को धारण कर पूर्ण करने में समर्थ है।’
गुरुदेव के इन वचनों को सुनकर उस मुनि ने कहा , गुरुदेव! मेरे लिए यह अभिग्रह कोई दुष्कर नही है तो फिर दुष्कर दुष्कर कैसे हो सकता है।
गुरुदेव ने कहा, वत्स! इस प्रकार के अभिग्रह से तुम पूर्व के तप से भी भ्रष्ट हो जाओगे। अपनी शक्ति के उपरांत भार को वहन करने से लाभ के बदले नुकसान ही होता है।
गुरुदेव के द्वारा इस प्रकार समझाने पर भी अपने आपको शूरवीर मानने वाले उस मुनि ने गुरु के वचन की अवज्ञा की और अभिमानी बनकर कोशा वेश्या के भवन की और निकल पड़े।
कोशा वेश्या के भवन में पहुचने पर उन्होंने चातुर्मास व्यतीत करने के लिए चित्रशाला प्रदान करने की मांग की ।
मुनि की प्रार्थना सुनकर वह कोशा वेश्या समझ गई कि ये मुनि, स्थूलभद्र मुनि से ईर्ष्या रखते हुए यहाँ आए है। ये अपने आपको तपस्वी मान रहे है, परन्तु पतन की गर्त में डूबने की तैयारी करने वाले इनका, किसी भी उपाय से अवश्य रक्षण करना चाहिए। इस प्रकार विचार कर कोशा वेश्या ने उन्हें रहने के लिए चित्रशाला प्रदान कर दी। तत्पश्चात् षडरस भोजन बहोराया। उसके बाद मुनि के सत्त्व की परीक्षा करने के लिए रूप और लावण्य की साक्षात् प्रतिमा सामान वह कोशा अपने देह का अद्भुत श्रृंगार कर मुनिवर के सामने उपस्थित हुई।
काम के आसनों के विविध चित्र , षडरस युक्त भोजन और कोशा वेश्या के अद्भुत रूप को देखकर वे मुनि तत्काल क्षुब्ध हो गए। उनके अंतर्मन पर काम शत्रु ने जोरदार हमला किया और तत्क्षण वे परास्त हो गए।
काम के घर में रहकर काम से अलिप्त रहने वाले तो स्थूलभद्र जैसे विरले ही हो सकते है।कामातुर बने हुए वह मुनि कोशा के सामने भोग की प्रार्थना करने लगे।
मुनि के मन व तन को चालित देखकर पुनः उन्हें स्थिर करने के उद्देश्य से कोशा वेश्या ने कहा, ‘हम तो धन के अधीन है; अतः यदि मेरा संग चाहते होतो मुझे धन प्रदान करे।
मुनि ने कहा, यदि नदी की रेती में से तेल निकलता होतो हमारे पास से धन मिल सकता है। हम धन कहाँ से लाए?
कोशा ने कहा यदि तुम मेरा संग चाहते होतो एक उपाय है; नेपाल देश का राजा प्रत्येक नवीन साधु को एक लाख की कीमत का रत्नकम्बल प्रदान करता है; अतः वहां जाकर रत्नकम्बल लेकर आओ, उसके बाद ही तुम अपनी मनोकामना को पूर्ण कर सकोगे ।
कोशा के इन वचनों को सुनकर कामातुर बने वे मुनि अपने श्रमण जीवन की आचार संहिता को भूल गए और वेश्या के देह संग को पाने के लिए, उसकी इच्छानुसार चालू वर्षा ऋतु में ही नेपाल जाकर रत्नकम्बल लाने के लिए तैयार हो गए।
कामवासना से पीड़ित वे मुनि चातुर्मास दरम्यान विहार करते हुए नेपाल पहुँचे। वहाँ के राजा ने उन्हें लक्षमूल्य का रत्नकम्बल भेंट किया। उस रत्नकम्बल को लेकर जब मुनि चोरो की एक पल्ली में से प्रसार हो रहे थे , तभी वृक्ष पर बैठा पोपट चिल्लाया ,’ लक्ष जा रहा है- लक्ष जा रहा है।’
पोपट की इस बात को सुनकर चोरो ने उन मुनि को पकड़ लिया और उनके पास रहा रत्नकम्बल ले लिया। वे मुनि वापस नेपाल देश में गए और रूप परिवर्तन कर पुनः दूसरी बार राजा के पास से रत्नकम्बल प्राप्त किया । इस बार रत्नकम्बल को उन्होंने बांस की भुगली में छिपा दिया। वापस उस पोपट ने चिल्लाया, ‘लाख जा रहा है, लाख जा रहा है।’
चोरो ने पुनः उन मुनि को घेर लिया, परन्तु उनके पास से रत्नकम्बल नही मिल पाया।
आखिर अत्यंत कष्ट उठाकर वे मुनि रत्नकम्बल को लेकर कोशा वेश्या के भवन ने आ पहुँचे। उनके मन में इस बात की अपार खुशी थी की इस बार तो वेश्या अवश्य ही मेरी इच्छा को पूर्ण करेगी।
मुनि ने वह रत्नकम्बल कोशा वेश्या को प्रदान किया और कोशा वेश्या ने स्नान के पश्चात् उस रत्नकम्बल से अपने शरीर को पोछा और उसे गट्टर में फेंक दिया।
बड़ी कठिनाई से लाए हुए उस रत्नकम्बल को इस प्रकार गट्टर में फेंकते हुए देखकर मुनिवर ने कहा, अरे कोशा! क्या तुम इस रत्नकम्बल की कीमत समझती हो या नही? मैने कितना कष्ट उठाकर यह रत्नकम्बल लाया है और तू इसे इस प्रकार गट्टर में फेंकने के लिए तैयार हो गयी?
क्रमशः....
ब्रह्मचर्य सम्राट स्थूलभद्र स्वामी भाग -6
मुनि ने वह रत्नकम्बल कोशा वेश्या को प्रदान किया और कोशा वेश्या ने स्नान के पश्चात् उस रत्नकम्बल से अपने शरीर को पोछा और उसे गट्टर में फेंक दिया।
बड़ी कठिनाई से लाए हुए उस रत्नकम्बल को इस प्रकार गट्टर में फेंकते हुए देखकर मुनिवर ने कहा, अरे कोशा! क्या तुम इस रत्नकम्बल की कीमत समझती हो या नही? मैने कितना कष्ट उठाकर यह रत्नकम्बल लाया है और तू इसे इस प्रकार गट्टर में फेंकने के लिए तैयार हो गयी?उसी समय अवसर देखकर कोशा ने कहा , ओ मूढ़ मुनिवर!तुम इस रत्नकम्बल की कीमत समझते हो, किन्तु गुरुदेव द्वारा प्रदत्त ज्ञान दर्शन और चारित्ररूपी रत्नों को अशुचि से भरपूर मेरी देह रूपी गट्टर में फेंकते हुए तुम्हे शर्म नही आ रही है? तुम मुझे मुर्ख कहते हो परन्तु क्या तुम स्वयं महामूर्ख नही हो?
वेश्या के कटाक्ष युक्त वचन सुनकर मुनिवर का कामावेग तत्काल शांत हो गया ।उन्हें अपनी भूल का पश्चात्ताप होने लगा।
मुनिवर ने कहा, हे कोशा! मै अत्यंत दुःख को देनेवाले महामोह के जाल में फंस गया था, परन्तु बुद्धि पूर्वक तुमने मेरा उद्धार किया। व्रत में लगे अतिचार आदि दोषों की शुद्धि के लिए मैं गुरुदेव के पास जाता हूं और उनके पास अपने पापो की आलोचना करके अपनी आत्मा को शुद्ध बनाता हूँ। तुम्हे हमेशा धर्मलाभ हो।
कोशा ने कहा, ब्रह्मचारी ऐसे आपको प्रतिबोध देने के लिए मैने आपकी कोई आशातना की हो, उसके लिए मैं आपसे क्षमा याचना करती हूं।
स्थूलभद्र महामुनि की स्तुति करती हुई कोशा बोली, पर्वत की गुफा में रहकर काम को जीतने वाले हजारों नर पैदा हुए है, परन्तु युवतिजन के निकट, एकांत में, भव्यमहल में रहने पर भी काम को वश करने वाले तो एक मात्र स्थूलभद्र ही है।
वह मुनि भी गुरुदेव के वचनों को याद करने लगे और मनोमन स्थूलभद्र महामुनि के महासत्त्व की भूरी भूरी अनुमोदना करने लगे।
वे मुनि अपने गुरुदेव के पास पहुचे और अपने पापो की आलोचना की।
गुरुदेव ने भी कहा, हे महानुभाव! मैंने पहले ही तुम्हे निषेध किया था। स्थूलभद्र जो कर सकता है, वह करने में कोई समर्थ नही है।
गुरुदेव के इन वचनों को सुनकर मुनिवर ने अपनी भूल स्वीकार की और गुरुदेव से क्षमा याचना की।
रथिक की दीक्षा
‘नन्दराजा को कोशा वेश्या के चरित्र संबंधी जानकारी मिली। एक बार उस राजा ने एक रथिक को वह कोशा वेश्या सौंप दी । वह रथिक कोशा वेश्या के महल में गया। कोशा ने उसे प्रतिबोध देने का निश्चय किया। वह कोशा उस रथिक के आगे स्थूलभद्र के महान् गुणों का बार-बार वर्णन करने लगी। स्थूलभद्र को छोड़कर इस जगत् में अन्य कोई धर्मी या कुशल पुरुष नही है।’
स्थूलभद्र की पुनः-पुनः प्रशंसा को सहन नहीं कर पाने के कारण उस रथिक ने अपनी कलाओं के प्रदर्शन का निश्चय किया। वह रथिक उस कोशा को गृह- उद्यान में ले गया। और वहां आपनी शय्या ( प्लयंक) पर बैठे- बैठे ही कोशा के मनोरंजन के लिए उसने अपनी कलाओं का प्रदर्शन चालू कर दिया। उसने एक बाण छोड़कर आम्र के गुच्छे ( लूंब) को वींध लिया। उसके बाद अर्ध चंद्राकर बाण से उस लूंब का छेदकर मूल सहित उस लूंब को लेकर उस वेश्या के हाथ में दे दिया और बोला, `देखी मेरी कला!’
रथिक की इस कला को देखकर उसके अभिमान को तोड़ने के लिए कोशा वेश्या ने सरसों के ढेर के बीच सूई रखकर उस पर पुष्प रखा और उस पर उसने नृत्य करना प्रारंभ किया। इस नृत्य करने पर भी सूई पुष्प तथा सरसों का एक दाना भी नहीं हिल पाया ।
वेश्या की इस कला से संतुष्ट होकर रथिक ने कहा, `बोल, मैं तुझे क्या दूँ?’
कोशा ने कहा , `मैंने जो कुछ किया, यह कोई विशिष्ट कला नहीं है। पूर्वाभ्यास से यह सब कुछ संभव है।’
मछलियाँ जल में तैरती है या पक्षी आकाश में उड़ते है, यह सब प्रकृति सिद्ध है , इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है।
लूंब को तोड़ना या पुष्प पर मेरा नृत्य करना कोई दुष्कर कार्य नहीं है; वह तो अभ्यास से संभव है; परन्तु भोग से ही जिसका उज्ज्वल शरीर है और जो भोग सुखों के बीच ही हुआ है, ऐसे स्थूलभद्र ने जो दुष्कर कार्य किया है; वह न तो जन्मसिद्ध है और न ही अभ्यास से सिद्ध है – यही सबसे बड़ा आश्चर्य है।
जिस स्थूलभद्र ने 12-12 वर्ष तक भोग सुखों का अनुभव किया, जिस चित्रशाला में रहकर षडरस का भोजन किया, उसी स्थूलभद्र ने इसी चित्रशाला में लेश भी व्रत का खंडन नहीं किया; यही सबसे अधिक आश्चर्यकारी है। किसी कवि ने कहा है:-
( आम्र की लूंब का तोडना दुष्कर नहीं है और न ही सरसों के ढेर पर नृत्य करना दुष्कर है, परन्तु स्त्री के बीच रहकर स्थूलभद्र ने जो कुछ किया है;वह सबसे अधिक दुष्कर कार्य है ।)
रथिक ने कहा , `वह स्थूलभद्र कौन है , जिसकी तुम इतनी अधिक प्रशंसा करती हो?’
वेश्या ने कहा ,`वे शकडाल मंत्री के पुत्र स्थूलभद्र है।’
रथिक ने कहा ,`यदि ऐसा ही है तो मैं उनका दासानुदास हूँ।’
कोशा के मुख से स्थूलभद्र के स्वरूप का वर्णन सुनकर भव से विरक्त बने उस रथिक ने राजा की अनुज्ञा प्राप्त कर गुरुदेव के पास जाकर भागवती – प्रव्रज्या अंगीकार कर ली ज्ञान प्राप्ति भवितव्यता के योग से जगत में परिस्थितियाँ बदलती रहती है। उस समय 12 वर्ष का भयंकर अकाल पड़ा। इस अकाल के कारण साधुओं को भिक्षा की प्राप्ति दुर्लभ बनती गई . . . परिणामस्वरूप भूख से पीड़ित अनेक मुनि स्वाध्याय करने में असमर्थ बनते गए । फलस्वरूप श्रुत व सिद्धान्त का विस्मरण होने लगा। पाटलीपुर नगर में समस्त श्रमण- संघ इकट्ठा हुआ। जिस मुनि को जिस सूत्र का जो अध्ययन याद था, उसे इकट्ठा किया गया . . . इस प्रकार श्री संघ ने मिलकर ग्यारह अंगों का संयोजन किया।
उस समय 12 वें दृष्टिवाद को जानने वाले एक मात्र भद्रबाहु स्वामी ही थे, जो नेपाल देश में महाप्राण नाम का ध्यान कर रहे थे।
उस समय अन्य साधुओं के दृष्टिवाद के अभ्यास के लिए श्री संघ ने दो मुनियों को तैयार कर भद्रबहुस्वामी जी के पास भेजा।
उन दोनों मुनियों ने प्रणाम करके कहा, `गुरुदेव ने आपको पाटलीपुत्र नगर में पधारने के लिए आदेश दिया हैं।’
भद्रबाहु स्वामी ने कहा,`अभी मैं महाप्राण ध्यान कर रहा हूँ , अतः अभी तो मैं वहां नहीं आ सकूंगा ।’
उन दोनों मुनियों ने आकर श्रीसंघ व गुरुदेव को बात बता दी।
भद्रबाहु स्वामीजी के इस प्रत्युत्तर को जानकर श्रीसंघ व गुरुदेव ने पुनः दो शिष्यों को तैयार कर भद्रबाहु स्वामी जी म.के पास भेजा।
उन दोनों शिष्यों ने जाकर भद्रबाहु स्वामी जी म. को पूछा ,`यदि कोई संघ की आज्ञा नहीं मानता हो तो उसे क्या दंड देना चाहिये ? ‘
भद्रबाहु स्वामी जी ने कहा,`उसे संघ के बहिष्कृत के देना चाहिये? ‘
उन शिष्यों ने कहा, ‘इस वचन से तो आप ही संघ के बहार हो जाते है।’
भद्रबाहु स्वामी जी ने कहा, ‘मैं संघ की आज्ञा शिरोधार्य करता हूँ, परन्तु अभी मेरा महाप्राण ध्यान चालू होने से मुझे अधिक अवकाश नहीं मिल पा रहा है , फिर भी यदि दृष्टिवाद के अभ्यास के लिए जो मुनि यहाँ पधारेंगे, उन्हें मैं प्रतिदिन सात वाचना प्रदान करूंगा और ध्यान की समाप्ति के बाद विशेष वचनाएँ भी दे सकुंगा । इस प्रकार करने से मेरा कार्य भी सिद्ध होगा और संघ की आज्ञा का भी पालन हो सकेगा ।
भद्रबाहु स्वामी जी के इन वचनों को सुनकर वे दोनों मुनिवर अत्यंत सन्तुष्ट हुए। उन्होंने जाकर संघ व गुरुदेव को बात बताई।
भद्रबाहु स्वामी के इस प्रत्युत्तर को जानकर संघ भी प्रसन्न हुआ और श्रीसंघ ने स्थूलभद्र आदि 500 मुनियों को दृष्टिवाद सिखने के लिए भद्रबाहु स्वामी जी के पास भेजा ।
भद्रबाहु स्वामी जी अपनी अनुकूलतानुसार प्रतिदिन 7-7 वाचनाएँ देने लगे । परन्तु अन्य साधु तो अध्ययन करते करते उदविग्न बन गए. . . परिणाम स्वरूप स्थूलभद्र को छोड़कर सभी मुनि अन्यत्र चले गए।
स्थूलभद्र के मनोभंग को देखकर भद्राबाहुस्वामी ने पूछा ,`तू खेद क्यों पा रहा है?’
स्थूलभद्र ने कहा,`अल्प वाचना के कारण।’
भद्रबाहु स्वामी जी ने कहा, `तूं चिंता मत कर मेरा ध्यान लगभग पूर्ण होने आया है । ध्यान की समाप्ति के बाद मैं तुझे पूर्ण सन्तुष्ट करने की कोशिश करूँगा।’
कुछ समय बाद भद्रबाहुस्वामी का महाप्राण ध्यान पूर्ण हो गया। उसके बाद वे स्थूलभद्र को खूब वाचनाएँ देने लगे – परिणाम स्वरूप वे अल्पकाल में ही दशपूर्व के ज्ञाता बन गए।
क्रमशः.....
ब्रह्मचर्य सम्राट स्थूलभद्र स्वामी भाग -7
कुछ समय बाद भद्रबाहुस्वामी का महाप्राण ध्यान पूर्ण हो गया। उसके बाद वे स्थूलभद्र को खूब वाचनाएँ देने लगे – परिणाम स्वरूप वे अल्पकाल में ही दशपूर्व के ज्ञाता बन गए।
पश्चात्ताप
संभूतिविजय आचार्य भगवंत के वैराग्यपूर्ण धर्मोपदेश को सुनने से श्रीयक के मन में भी इस संसार के प्रति वैराग्य भाव उत्पन्न हुआ और वह दीक्षा लेने के लिए तैयार हो गया । चरित्र धर्म अंगीकार करने की श्रीयक की इच्छा जानकर उसकी 7 बहिनें भी दीक्षा लेने के लिए तैयार हो गई और एक शुभ दिन श्रीयक ने अपनें पुत्र श्रीधर को मंत्रिपद प्रदान कर राजा की आज्ञा प्राप्त कर, अपनी सातों बहनों के साथ संसार के बंधनों का परित्याग कर भागवती दीक्षा अंगीकार कर ली ।
भागवती दीक्षा अंगीकार करने के बाद श्रीयक मुनि अपनें गुरुदेव के साथ पृथ्वीतल पर विचरनें लगे। पूर्व के क्षुधा वेदनीय कर्म के उदय के कारण श्रीयक के लिए उपवास आदि बाह्य तप की साधना अत्यंत ही कठिन थी।
इस प्रकार दिन पर दिन बीतने लगे और पर्युषण महापर्व के दिन आए । क्रमशः संवत्सरी का दिन आया।
श्रीयक मुनि प्रतिदिन नवकारसी का पच्चक्खाण करते थे। उस दिन श्रीयक की बहिन यक्षा ने कहा, `बंधु मुनिवर! आज वार्षिक पर्व का दिन है, अतः रोज की अपेक्षा कुछ विशेष तप आराधना करनी चाहियें , क्योंकि पर्व दिनों में दान- पुण्य-तप आदि करने से विशेष लाभ होता है।’
बहन साध्वी के प्रेरणा से श्रीयक मुनि ने उस दिन पोरिसी करने का निश्चय किया।
तत्पश्चात् पुनः यक्षा साध्वी ने प्रेरणा दी। इसके फलस्वरूप उन्होंने साढ पोरिसी का निर्णय लिया। तत्पश्चात् पुनः- पुनः प्रेरणा होने से पुरिमडढ, अवड्ढ और क्रमशः उपवास का पच्चक्खाण कर लिया ।
पूरा दिन तो प्रवचन , महोत्सव आराधना आदि में आराम से बीत गया।
रात्रि प्रारम्भ हुई । अत्यंत क्षुधा के कारण उनकी नींद हराम हो गई । और अंत में उसी रात्रि में पंचपरमेष्ठी भगवंत का स्मरण करते हुए अत्यंत समाधिपूर्वक कालधर्म को प्राप्त हुए।
प्रातः काल होने पर जब यक्षा साध्वी को इस बात का पता चला तो उसे अत्यंत ही आघात लगा । उसने श्री संघ को कहा , `मैंने बिना सोचे समझे ही उनको उपवास करा दिया .और उसी कारण उनकी मृत्यु हओ गई . अतः मुझे मुनि – हत्या का पाप लगेगा . मैं इस पाप में से कैसे छूट पाऊंगी, अहो! मुझे नरक में जाना पड़ेगा . . . मैं किसी को मुंह दिखाने के लिए योग्य नहीं हूँ । अतः मैं आत्मघात कर मर जाऊंगी।’
श्री संघ ने कहा , `इसमें तुम्हारा दोष नहीं है। तुमने तो हितबुद्धि से ही उनके पास उपवास कराया है; अतः तुम निर्दोष हो । तुम्हें तो पुण्य ही होगा।
उसने कहा , मै जिनवचन के बिना मानने के लिए तैयार नही हु।
उसी समय संघ ने कायोत्सर्ग की साधना की । जिसके प्रभाव से शाशन देवी प्रकट हुई और उन्हें सीमंधर स्वामी के पास ले गई।
यक्षा साध्वी ने सीमंधर स्वामी भगवंत के आगे अपने पापो का निवेदन किया।
भगवंत ने कहा, तुम निर्दोष हो। श्रीयक मुनि तो उपवास के प्रभाव से कर्मो की अपूर्व निर्जरा कर प्रथम देवलोक में गये है और भविष्य में वे मोक्ष में जाएंगे।
उसके बाद सीमंधर स्वामी ने धर्मोपदेश द्वारा यक्षा साध्वी को चार चूलिकाए प्रदान की।
यक्षा साध्वी ने वे चारो चुलिकाए अपने ह्रदय में धारण की । तत्पश्चात शाशन देवी ने यक्षा साध्वी को पुनः अपने स्थान पर लाकर रख दी।
यक्षा साध्वी ने वे चूलिकाए संघ को अर्पित की। उनमे से दो चूलिकाए आचारांग सूत्र व दो चूलिकाए दशवैकालिक सूत्र के साथ जोड़ दी गई। जो आज विद्यमान है।एक समय की बात है।
यक्षा आदि सभी सातो साध्वी अपने भाई मुनि स्थूलभद्र को वंदन करने के लिए गुरुदेव के पास आई और पूछा, हमारे भाई मुनि कहा है?
आचार्य भगवंत ने कहा तुम आगे जाओ , वे अशोकवृक्ष के नीचे स्वाध्याय कर रहे है।
वे सातो साध्वी अशोकवृक्ष की और आगे बढ़ी परन्तु वहा पर उन्होंने स्थूलभद्र के बजाय एक सिंह को बैठा देखा।
वे एकदम भयभीत हो गयी और सोचने लगी ,क्या इस सिंह ने हमारे भाई मुनि का भक्षण तो नही कर लिया? वे तत्काल गुरुदेव के पास आई और बोलने लगी ,वहा हमारे भाई मुनि तो नही है, वहा तो एक सिंह बैठा है। क्या उस सिंह ने भाई मुनि का भक्षण तो नही किया है न?
आचार्य भगवंत ने अपने ज्ञान का उपयोग लगाकर कहा, खेद न करों, तुम्हारा भाई विद्यमान है; तुम वापस जाओ, वही पर तुम्हे अपने भाई मुनि मिलेंगे।
गुरुदेव की आज्ञा से वह सातो साध्वियां पुनः अशोकवृक्ष के निकट पहुँची, वहां पर उन्होंने अपने भाई मुनि को देखा, सिंह वहा से गायब था।
वंदन करने के बाद जब साध्वी जी भगवंत ने सिंह के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा, यह सिंह का रूप तो मैंने ही किया था।
अब कुछ समय बाद जब स्थूलभद्र महामुनि आचार्य भगवंत के पास वाचना लेने के लिए आए तब उन्होंने कहा, मैं तुम्हे वाचना नही दूंगा, क्योंकि अब अधिक ज्ञान पाने के लिए तुम योग्य नही हो। तुमने भी यदि सिंह का रूप कर लिया तो फिर दुसरो की तो क्या बात की जाए? अब कालक्रम से विद्या का पाचन कम होता जाएगा। विद्या भी पात्र को ही देने से लाभ का कारण बनती है, अपात्र को दी गई विद्या स्व पर को नुकसान ही पहुँचाती है।
स्थूलभद्र ने गुरुदेव के चरणों में गिरकर क्षमा याचना की।। फिर भी गुरुदेव ने वाचना देने से इंकार कर दिया।
तत्पश्चात संघ के अति आग्रह से भद्रबाहु स्वामी म. ने शेष चार पुर्वो का ज्ञान, मात्र सूत्र से प्रदान किया किन्तु उसका अर्थ नही बतलाया।
इस प्रकार मूलमूत्र की अपेक्षा स्थूलभद्र महामुनि चौदह पूर्वधर हुए।
उसके बाद पृथ्वी तल पर विचरण कर स्थूलभद्र महामुनि ने अनेक भव्यजीवो को प्रतिबोध दिया अंत में अत्यंत ही समाधिपूर्वक कालधर्म को प्राप्त के प्रथम देवलोक में उत्पन्न हुए।
काम के घर में रहकर काम का नाश करनेवाले स्थूलभद्र महामुनि का नाम 84-84 चौबीसी तक अमर रहेगा।
ऐसे महान ब्रह्मचर्य सम्राट के चरणों में वन्दना!!!!🙏🙏
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें