पार्श्वनाथ जी का जीवन
पोदनपुर में महाराजा अरविन्द अपनी राजसभा में स्वर्ण सिंहासन पर विराजमान थे। उनके विश्वभूति नामक मंत्री ने राज्य के कुशल समाचार बताकर महाराज से जिनदीक्षा की आज्ञा मांगते हुए अपने पुत्र कमठ और मरुभूति को महाराज के चरणों में समर्पित कर दिया। उन मंत्रिवर के दीक्षा लेते ही महाराज अरविन्द ने उनके दोनों पुत्रों को परम्परागत मंत्री पद पर नियुक्त कर दिया। पुन: एक दिन राजा अरविन्द अपने शत्रु राजा वङ्कावीर्य को जीतने हेतु चतुरंगिणी सेना के साथ मरुभूति मंत्री को लेकर युद्ध करने चल पड़े और कमठ कुमार मंत्री पर पोदनपुर के राज्य की सम्पूर्ण व्यवस्था डाल दी। कमठ जो कि स्वभाव से ही कुटिल परिणामी दुष्टात्मा था, वह समय पाकर मंत्री पद में अत्यन्त निरंकुश हो गया और सर्वत्र अन्याय का साम्राज्य फैला दिया। किसी समय मंत्री कमठ ने अपने छोटे भाई मरुभूति की पत्नी वसुंधरी को अप्सरा के समान सुन्दर देखकर उसके साथ जबर्दस्ती दुराचार किया। राजा के वापस आने पर जब उन्हें यह पता चला तो उनकी आज्ञा से कोतवाल ने कमठ का सिर मुंडा कर मुंह काला करके उसे गधे पर बिठाकर सारे शहर में घुमा कर देश से निकाल दिया। उस दण्ड से अपमानित होकर कमठ एक तापस आश्रम में जाकर हाथ में पत्थर की शिला लेकर खड़ा होकर तपश्चरण करने लगा। इधर मरुभूति अपने भाई के वियोग से दुखी हो उसे मनाकर वापस लाने हेतु आश्रम में गया और कमठ के पैरों में गिरकर क्षमायाचना करने लगा किन्तु क्रोधी कमठ ने उसके सिर पर पत्थर की शिला पटक दी अत: मरुभूति तुरंत वहीं मर गया और आत्र्तध्यान से मरकर वह सल्लकी वन में हाथी बनकर जन्मा।
भगवान पार्श्वनाथ ९वें भव पूर्व-हाथी
राजा अरविन्द ने भी एक बार आकाश में मेघों को विघटते देखकर जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली थी पुन: अपने संघ के साथ सम्मेदशिखर की यात्रा करते हुए सल्लकी वन में ठहरे थे। तभी अकस्मात् वङ्काघोष नामक विशालकाय हाथी (मरुभूति का जीव) सारे संघ में खलबली मचाता हुआ विचरण करने लगा। उस हाथी के पैरों के नीचे दबकर अनेक मनुष्य-पशु आदि मर गये अत: सर्वत्र हा-हाकार मच गया। पुन: ज्यों ही वह ध्यानस्थ गुरुदेव श्री अरविन्द मुनिराज के निकट पहुँचा, उनके वक्षस्थल में श्रीवत्स का चिन्ह देखकर उसे जातिस्मरण हो गया और वह एकदम शांत होकर बैठ गया। तब मुनिराज कहने लगे- हे गजराज! तू अपने भाई कमठ के मोह में मरकर इस पशु पर्याय में जन्मा है, अब तू समस्त आत्र्तध्यान छोड़कर सम्यक्त्व को धारण कर और अपने अगले भव को सुधारने हेतु श्रावक के व्रतों को धारण कर। इस प्रकार गुरुदेव के मुख से विस्तारपूर्वक सम्यक्त्व एवं व्रतों का उपदेश सुनकर उस हाथी ने गुरुदेव को नमन करके श्रावक व्रतों को स्वीकार कर लिया। एक दिन वह हाथी पानी पीने हेतु वेगवती नदी के तट पर गया और कीचड़ में फस गया। वहाँ से निकलने का साधन न देखकर उसने चतुराहार का त्याग कर सल्लेखना धारण कर ली और णमोकार महामंत्र के ध्यान में लीन हो गया। कुछ ही देर में एक कुक्कुट जाति के साँप ने (कमठ का जीव जो मरकर साँप हो गया था) पूर्व जन्म के वैर के संस्कारवश उसे डस लिया, तब वह हाथी शांत भाव से मरकर बारहवें स्वर्ग में ‘‘शशिप्रभ’’ नाम का देव हो गया।
भव
स्वर्ग में उपपाद शय्या पर जन्म लेते ही शशिप्रभ देव को अवधिज्ञान से ज्ञात हो गया कि मैं तिर्यंचयोनि की हाथी पर्याय से मरकर यहाँ उत्पन्न हुआ हूँ। वहाँ पर गुरुदेव की कृपा से जो मैंने सम्यक्त्वरूपी रत्न एवं अणुव्रतरूपी निधि प्राप्त की थी, उसी के फलस्वरूप मुझे यह तेजोधाम स्वर्गपुरी का अतुल वैभव प्राप्त हुआ है। स्वर्ग में सोलह सागर तक वह देव असीम सुखों को भोगता रहा। कभी वह जम्बूद्वीप, नंदीश्वरद्वीप आदि द्वीपों में जाकर अकृत्रिम चैत्यालयों की वंदना करता, कभी तीर्थंकरों के पंचकल्याणकों में भाग लेता तो कभी चारणऋद्धिधारी मुनियों की एवं अपने सच्चे हितकारी गुरु अरविन्द मुनिराज की पूजा करता.......आदि। देखो! धर्म एवं व्रतरूपी कल्पवृक्ष के प्रसाद से जहाँ एक हाथी का जीव स्वर्ग के सुखों को भोग रहा है, वहीं जिस कुक्कुट सर्प ने हाथी को डसा था, उसने अपनी आयु पूर्ण कर अधोलोक के पाँचवे नरक में जन्म ले लिया। वहाँ सत्रह सागर तक असीम दु:खों का अनुभव करता रहा। पुन: शशिप्रभ देव तो पुण्य के प्रभाव से स्वर्ग की आयु बिताकर विद्याधर मनुष्य हो गया एवं बेचारा नारकी (कुक्कुट सर्प का जीव) मरकर अजगर सर्प की योनि में आ गया।
सरलता और क्षमा की प्रतिमूर्ति वह मरुभूति का जीव पांचवे भव में अच्युत स्वर्ग के दिव्य सुखों का अनुभव कर रहा है। वहाँ बाईस सागर की आयु कैसे बीत गई उसे पता ही नहीं चलता है क्योंकि सम्यग्दर्शन से सहित वह देव सदैव तत्त्व चर्चा, जिनेन्द्र भक्ति एवं अकृत्रिम चैत्यालयों की वंदना आदि में अपना समय व्यतीत करता है। पुण्य फल के रूप में प्राप्त उस अलौकिक वैभव को भोगते हुए भी उसे आत्मा और शरीर की भेदभिन्नता का पूर्ण ज्ञान है इसीलिए आयु के अंत में समाधिमरणपूर्वक शरीर छोड़कर अतिदुर्लभ मानवपर्याय में जन्म धारण कर लेता है तथा छठे नरक का नारकी (कमठ का जीव) वहाँ से निकलकर भील की पर्याय में जन्म ले लेता है।
भगवान पार्श्वनाथ ५वें भव पूर्व-वज्रनाभि चक्रवर्ती
अच्युत स्वर्ग का वह देव जम्बूद्वीप के पश्चिम विदेह क्षेत्र के अश्वपुर नगर में जब राजा वङ्कावीर्य की रानी विजया के गर्भ में आया तब रानी ने एक रात्रि को पिछले प्रहर में सुदर्शन मेरु, सूर्य, चन्द्रमा, देवविमान और सरोवर ये पाँच स्वप्न देखे। पुन: पति से सपनों के फल में चक्रवर्ती पुत्र को प्राप्त करने का समाचार जानकर रानी विजया अतीव प्रसन्न हुर्इं। युवावस्था में वज्रनाभि राजा ने चक्ररत्न प्राप्त कर छह खण्ड वसुधा पर एक छत्र शासन किया किन्तु वे निरंतर श्रावक के षट्कर्तव्यों का पालन करते हुए जिनधर्म को कभी नहीं भूले। प्रत्युत् दिन-प्रतिदिन जिनेन्द्रभक्ति में उनकी रुचि बढ़ती ही गई। ठीक ही है कि पुण्यात्माजन सांसारिक वैभव को पाकर कभी धर्म से विमुख नहीं होते हैं। एक दिन शहर के बाहर बगीचे में पधारे एक महामुनिराज के दर्शन करके चक्रवर्ती महाराज ने उनसे धर्मोपदेश सुना और तुरंत उन्होंने अपना राजपाट त्याग करके दीक्षा धारण कर ली। वे वज्रनाभि मुनिराज घोर तपश्चरण करते हुए एक बार वन में ध्यानलीन थे, तब उस कमठ के जीव ने जो छठे नरक से निकलकर जंगल में भील बना था, उसने मुनि को देखते ही उनके ऊपर बाण चला-चला कर छेदन-भेदन का खूब उपसर्ग किया।
भगवान पार्श्वनाथ चौथे भव पूर्व-अहमिन्द्र
ग्रैवेयक विमान के उस अहमिन्द्र ने सत्ताईस सागर की आयु बिताकर मध्यलोक की अयोध्या नगरी में महामंडलीक राजा आनंद के रूप में मनुष्य जन्म धारण कर लिया और कमठ का जीव सातवें नरक से निकलकर वहीं निकटवर्ती वन में सिंह हो गया। महाराजा आनन्द ने राज्य सुखों का उपभोग करते हुए एक बार फाल्गुन अष्टान्हिका पर्व में मंदिर में नंदीश्वर पूजन के मध्य पधारे विपुलमती मुनिराज के मुखारविन्द से तीनों लोकों के अकृत्रिम चैत्यालयों का वर्णन सुना तो उन्हें सूर्य विमान के जिनमंदिर के प्रति अगाढ़ श्रद्धा हो गई। अत: उन्होंने कुशल कारीगरों से अयोध्या की धरती पर ही मणि और सुवर्ण का एक सूर्य विमान बनवाया और उसमें रत्नमयी जिनप्रतिमाएं विराजमान करार्इं पुन: शास्त्रोक्त विधि से वहाँ अनेक प्रकार से महापूजाएं की। उत्तरपुराण में कहा है कि इस लोक में उसी समय से सूर्य की उपासना चल पड़ी है। आनन्द नरेश ने एक दिन राजसभा में बैठे-बैठे दर्पण में अपना मुख देखा तो सिर में एक सपेâद बाल देखते ही उन्हें राज्य-वैभव से वैराग्य हो गया और उन्होंने अपने सुयोग्य बड़े पुत्र को राज्यभार सौंपकर सागरदत्त मुनिराज के पास दीक्षा धारण कर ली। पुन: गुरुचरणों में सोलहकारण भावनाओं को भाकर तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया। वे आनंद मुनिराज एक बार वन में ध्यान लीन थे तब सिंह वहाँ आकर उन्हें खा लेता है और मुनि समता भाव से उपसर्ग सहन कर तेरहवें स्वर्ग के विमान में इन्द्र हो जाते हैं। आगे सिंह मरकर पांचवे नरक मेें चला जाता है।
भगवान पार्श्वनाथ दूसरे भव पूर्व-आनत स्वर्ग में इन्द्र
समता परिणामों की विशेषता के कारण आनंद मुनिराज ने तेरहवें स्वर्ग के इन्द्र का पद प्राप्त किया था। वहाँ उस इन्द्र को दिव्य अवधिज्ञान से ज्ञात हो जाता है कि पूर्व जन्म में मैंने महामुनि बनकर जो तपस्या की थी उसी के प्रभाव से यहाँ मुझे इन्द्र का वैभव प्राप्त हुआ है। अत: वहाँ के वैभव को देखकर वे आनंदचर इन्द्रराज धर्म और धर्म के फल में और अधिक श्रद्धा करने लगते हैं। वे इन्द्रराज अपने परिवार देवों के साथ कभी नन्दीश्वर द्वीप में पूजन करने जाते हैं, कभी विदेहक्षेत्र में सीमंधर स्वामी आदि तीर्थंकर के समवसरण में दिव्यध्वनि का पान करते हैं तो कभी देव-देवांगनाओं के साथ मनोविनोद करते हैं। भावी तीर्थंकर वे देवेन्द्र इस अतुल वैभव को भोगते हुए भी उसमें आसक्त नहीं हो रहे हैं और वहाँ बीस सागर तक दिव्य सुखों का अनुभव कर रहे हैं।
भगवान पार्श्वनाथ के गर्भ-जन्मकल्याणक
वाराणसी नगरी में महाराजा अश्वसेन अपनी महारानी वामा देवी के साथ नौ मंजिल वाले शिखराकार दिव्य महल में रहते थे। एक दिन उनके आंगन में धनकुबेर ने स्वर्ग से आकर रत्नवृष्टि शुरू कर दी और प्रतिदिन करोड़ों रत्न बरसाने लगा। कुछ दिन (६ माह) बाद एक दिन (वैशाख वदी दूज) रात्रि के पिछले प्रहर में महारानी वामा देवी ने ऐरावत हाथी, बैल, सिंह आदि सोलह स्वप्न देखे पुन: प्रात: अपने पति से यह जानकर अत्यन्त प्रसन्न हुर्इं कि तुम्हारे पवित्र गर्भ से तीर्थंकर महापुरुष का जन्म होगा। इसीलिए इन्द्र, देव, देवियाँ सभी तुम्हारी सेवा में लगे हुए हैं। इस प्रकार अतिशय सुखपूर्वक दिन व्यतीत करते हुए वामा देवी ने पौष कृष्णा एकादशी के दिन सूर्य के समान तेजस्वी तीर्थंकर पुत्र को जन्म दिया। तब सौधर्मइन्द्र के साथ असंख्य देवों ने आकर प्रभु का जन्मकल्याणक महोत्सव मनाया। इन्द्र ने ऐरावत हाथी पर ले जाकर सुमेरु पर्वत की पाण्डुकशिला पर उनका जन्माभिषेक किया और उन्हें दिव्य वस्त्राभूषण से अलंकृत कर ‘‘पार्श्वनाथ’’ नाम से अलंकृत किया।
भगवान पार्श्वनाथ का नागयुगल को संबोधन, दीक्षा, उपसर्ग एवं केवलज्ञान
Ert11 (Small).JPG
इन्द्र द्वारा अंगूठे में स्थापित अमृत का पान करते हुए जिनबालक पार्श्वनाथ ने शैशव से युवावस्था में प्रवेश किया। एक दिन पाश्र्वकुमार ने अपने अनेक मित्रों के साथ बनारस नगरी के उद्यानों में विचरण करते हुए एक तापसी साधु को देखा जो पंचाग्नि तप कर रहा था। पार्श्वनाथ वहाँ खड़े होकर उसकी मिथ्या क्रियाएं देखने लगे, तब तापसी ने सोचा कि देखो! मैं इस बालक का नाना हूँ, फिर भी यह मेरी विनय नहीं कर रहा है पुन: वह क्रोध में भड़क कर कुल्हाड़ी से लकड़ी चीरने लगा। तत्क्षण अवधिज्ञानी पार्श्वनाथ बोल उठे कि इस लकड़ी में नागयुगल हैं, इसे मत चीरो।
तापसी को यह सुनकर और अधिक गुस्सा आ गया, किन्तु उसने ज्यों ही लकड़ी के दो टुकड़े किये, उसमें से कटे हुए छटपटाते नागयुगल भी निकल पड़े। तब पार्श्वनाथ के सम्बोधन से वे दोनों मरकर धरणेन्द्र-पद्मावती नामक यक्ष जाति के देव-देवी हो गये। इस प्रकार अपनी अमृतमयी वाणी से अनेक जीवों का कल्याण करते हुए युवराज पार्श्वनाथ तीस वर्ष की उम्र में एक दिन सुखपूर्वक बैठे हुए थे, उसी समय अयोध्या नरेश जयसेन महाराज का दूत आ गया और उसने अनेक प्रकार की भेंट समर्पित कर अयोध्या के वैभव एवं भगवान ऋषभदेव के दशभव आदि का वर्णन सुनाया। जिससे पार्श्वनाथ को वैराग्य हो गया अत: उन्होंने दीक्षा धारण कर ली।
वे भगवान एक बार किसी वन के अन्दर ध्यान में लीन थे, तभी कमठ का जीव जो पाँचवें नरक से निकलकर पशुयोनि के दु:ख सहन करते हुए राजा महीपाल के रूप में महीपालपुर का राजा हो गया, पुन: मिथ्यातप से मरकर शंबर नामक ज्योतिषी देव हो गया, इसने अब भी पार्श्वनाथ का पीछा नहीं छोड़ा और उनके ऊपर घोर उपसर्ग करने लगा। उसी समय धरणेन्द्र-पद्मावती ने आकर उपसर्ग दूर किया और भगवान को केवलज्ञान प्राप्त हो गया। इस उपसर्ग विजय की भूमि को ही ‘‘अहिच्छत्र’’ तीर्थ की प्रसिद्धि प्राप्त हुई, जहाँ पार्श्वनाथ भगवान का प्रथम समवसरण अधर आकाश में निर्मित हुआ था।
भगवान पार्श्वनाथ का शाश्वत निर्वाणभूमि सम्मेदशिखर से निर्वाण
समवसरण में बारह सभाओं के मध्य धर्मोपदेश करते हुए प्रभु पार्श्वनाथ ने लगभग सत्तर वर्ष तक विहार किया। अंत में जब उनकी आयु एक माह की शेष रह गई तब वे विहार बंद कर सम्मेदाचल पर्वत के शिखर पर छत्तीस मुनियों के साथ प्रतिमा योग धारण कर विराजमान हो गये। पुन: श्रावण शुक्ला सप्तमी के दिन प्रात: समस्त कर्म नष्ट करके निर्वाण धाम को प्राप्त कर लिया। इन्द्रों ने उस समय उनका निर्वाण कल्याणक खूब महोत्सवपूर्वक मनाया। तब से लेकर आज तक सम्मेदशिखर के स्वर्णभद्रकूट पर भगवान पार्श्वनाथ का मोक्षकल्याणक प्रतिवर्ष भक्तगण धूमधाम से मनाते हुए निर्वाणलाडू चढ़ाते हैं। पंचकल्याणक वैभव को प्राप्त ऐसे उन भगवान पार्श्वनाथ के जन्म को सन् २००५ में २८८३ वर्ष हुए । इसलिए जैनसमाज की सर्वोच्च साध्वी पूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी ने पूरे देश को भगवान पार्श्वनाथ जन्मकल्याणक तृतीय सहस्राब्दि महोत्सव मनाने की प्रेरणा प्रदान की, जिसका उद्घाटन ६ जनवरी २००५ को जन्मभूमि वाराणसी में किया गया।
तीन वर्ष तक इस महोत्सव को विविध आयोजनों के साथ मनाया गया। उसमें गर्भ-जन्म एवं दीक्षाकल्याणक तीर्थ वाराणसी, केवलज्ञान कल्याणक तीर्थ अहिच्छत्र, निर्वाणकल्याणक तीर्थ सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र के साथ-साथ पार्श्वनाथ के समस्त अतिशय क्षेत्रों का भी प्रचार-प्रसार किया गया।
ललित गर्ग जैन धर्म के 23 वें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ अज्ञान-अंधकार-आडम्बर के बीच क्रांति का बीज बनकर प्रकट हुए। लगभग 3 हजार वर्ष पूर्व वाराणसी में अश्वसेन नाम के इक्ष्वाकु वंशीय राजा थे। उनकी रानी वामा ने पौष कृष्ण एकादशी के दिन महातेजस्वी पुत्र को जन्म दिया, जिसके शरीर पर सर्पचिन्ह है।] नाम रखा गया 'पार्श्व'। जैन पुराणों के अनुसार तीर्थंकर बनने के लिए पार्श्वनाथ को 9 जन्म लेने वाले थे। पूर्व जन्म के संचित पुण्यों और दसवें जन्म के तप के फल से ही वे 23 तीर्थंकर बने। भगवान पार्श्वनाथ ऐसे प्रकट हुए, जैसे वर्षों तप में लीन रहने के बाद सहसा ज्ञान का तीसरा नेत्र खुल जाता है। पार्श्व प्रभु ने उपदेश दिया कि यदि धर्म इस जन्म में शांति और सुख नहीं देता तो उसे पारलौकिक शांति की कल्पना व्यर्थ है।उन्होंने आस्था को नए आयाम दिए और कहा कि हमारे भीतर अनंत शक्ति है, असीम क्षमता है। उन्होंने जो धर्म का उपदेश दिया, वह किसी कुल, जाति या वर्ण की परिधि में सिमटा नहीं था। बचपन में पार्श्वनाथ का जीवन राजसी वैभव में व्यतीत हुआ।उन्होंने धर्म की प्रतिध्वनि को जीवंत किया।सोलह साल की उम्र में एक दिन वन में उनकी नजर एक तपस्वी पर पड़ी, जो कुल्हाड़ी से पेड़ पर प्रहार कर रही थी।यह देखकर पार्श्वनाथ सहज ही चीख उठे और बोले- 'ठहरो! उन मानह जीवों को मत करो। ' उस तपस्वी का नाम महीपाल था। अपनी पत्नी की मृत्यु के दुख में वह साधु बन गया था। उसने गुस्से से पार्श्वनाथ की ओर पलटा और कहा- मैं मार रहा हूँ? देखें नहीं, मैं तो तप के लिए लकड़ी काट रहा हूं।पार्श्वनाथ ने व्यथित स्वर में कहा- लेकिन उस वृक्ष पर नाग-नागिन का जोड़ा है। महीपाल ने तिरस्कारपूर्वक कहा- क्या त्रिकालदर्शी है? और फिर से पेड़ पर वार करने लगा।केवल वृक्ष के चिरे तने से छटपटाता, रक्त से नहाया हुआ नाग-नागिन का एक जोड़ा बाहर निकल गया। एक बार तो बिप्लब उन्हें देखकर कांप उठा, लेकिन अगले ही पल वह धूर्ततापूर्वक हंसने लगा। केवल पार्श्वनाथ ने नाग-नागिन को णमोकार मंत्र सुनाया, जिससे उनकी मृत्यु की पीड़ा शांत हो गई।इस घटना ने पार्श्वनाथ की जीवन दिशा बदल दी। संसार के जीवन-मृत्यु से उनकी विरक्ति हो गई। उन्होंने ऐसा कुछ करने की ठानी, जिससे जीवन-मृत्यु के बंधन से हमेशा के लिए मुक्ति मिल सके।वे सत्योपलब्धि की साधना में जुटे और जन-जन को रोशनी बांटी।तब पार्श्व ने कहा- 'दयाहीन' धर्म किसी काम का नहीं। बचपन से ही पार्श्वनाथ चिंतनशील और दयालु थे। सभी विद्याओं में प्रवीण थे। उन्होंने अपने समय की हिंसक स्थितियों को नियंत्रित कर अहिंसा का प्रकाश फैलाया। तीर्थंकर बने।वे सम्राट से संन्यासी बने, वर्षों तक तप किया,जैन दर्शन के रूप में शाश्वत सत्यों का उद्घाटन किया। उनका संपूर्ण व्यक्तित्व जैन इतिहास का एक अमित आलेख बन गया है। पार्श्वनाथ ने संसार और संन्यास दोनों को जीया। वे पदार्थ छोड़ परमार्थ की यात्रा पर निकल जाते हैं। उन्होंने जीवन शुद्धि के लिए कठोर तप किया। उनकी तप में सादगी थी और जीवन शुद्धि का मर्म था। जीवन स्वयं एक तपस्या है।वास्तव में तप वही है, जिसके साथ न प्रदर्शन जुड़ा है और न प्रलोभन। इसमें न उपदेश काम करता है और न अनुकरण।सुविधाओं के बीच सीमाकरण में रहना और अभावों के बीच तृप्ति को पा लेना भी तप है। प्रतिकूलताओं को समत्व से सह लेना, वैचारिक संघर्ष में सही समाधान पा लेना, इन्द्रियों को विवेकी बना लेना, मन की दिशा और दृष्टि को बदल देना भी तप है और ऐसे ही तप के माध्यम से पार्श्वनाथ न केवल स्वयं तीर्थंकर बने, बल्कि जन-जन। उन्होंने ऐसी ही पात्रता को विकसित किया। उनकी साधना की कसौटी थी- शुद्ध आत्मा में धर्म का स्थिरीकरण। बल्कि जन-जन में ऐसी ही पात्रता को उन्होंने विकसित किया। उनकी साधना की कसौटी थी- शुद्ध आत्मा में धर्म का स्थिरीकरण। बल्कि जन-जन में ऐसी ही पात्रता को उन्होंने विकसित किया। उनकी साधना की कसौटी थी- शुद्ध आत्मा में धर्म का स्थिरीकरण। जिसके साथ न प्रदर्शन जुड़ा है और न प्रलोभन।इसमें न उपदेश काम करता है और न अनुकरण। प्रतिकूलताओं को समत्व से सह लेना, वैचारिक संघर्ष में सही समाधान पा लेना, इन्द्रियों को विवेकी बना लेना, मन की दिशा और दृष्टि को बदल देना भी तप है और ऐसे ही तप के माध्यम से पार्श्वनाथ न केवल स्वयं तीर्थंकर बने, बल्कि जन-जन। उन्होंने ऐसी ही पात्रता को विकसित किया। उनकी साधना की कसौटी थी- शुद्ध आत्मा में धर्म का स्थिरीकरण। जिसके साथ न प्रदर्शन जुड़ा है और न प्रलोभन। इसमें न उपदेश काम करता है और न अनुकरण। जीवन स्वयं एक तपस्या है। प्रतिकूलताओं को समत्व से सह लेना, वैचारिक संघर्ष में सही समाधान पा लेना, इन्द्रियों को विवेकी बना लेना, मन की दिशा और दृष्टि को बदल देना भी तप है और ऐसे ही तप के माध्यम से पार्श्वनाथ न केवल स्वयं तीर्थंकर बने, बल्कि जन-जन। । उन्होंने ऐसे ही पात्रता को विकसित किया।जीवन स्वयं एक तपस्या है। सुविधाओं के बीच सीमाकरण में रहना और अभावों के बीच तृप्ति को पा लेना भी तप है।सुविधाओं के बीच सीमाकरण में रहना और अभावों के बीच तृप्ति को पा लेना भी तप है।उनकी साधना की कसौटी थी- शुद्ध आत्मा में धर्म का स्थिरीकरण। बल्कि जन-जन में ऐसी ही पात्रता को उन्होंने विकसित किया।उनकी साधना की कसौटी थी- शुद्ध आत्मा में धर्म का स्थिरीकरण। बल्कि जन-जन में ऐसी ही पात्रता को उन्होंने विकसित किया। उनकी साधना की कसौटी थी- शुद्ध आत्मा में धर्म का स्थिरीकरण।
पार्श्वनाथ ने संसार और संन्यास दोनों को जीया। वे पदार्थ छोड़ परमार्थ की यात्रा पर निकल जाते हैं। उन्होंने जीवन शुद्धि के लिए कठोर तप किया। उनकी तप में सादगी थी और जीवन शुद्धि का मर्म था। वास्तव में तप वही है जिसके साथ न प्रदर्शन जुड़ा है और न प्रलोभन। इसमें न केवल उपदेश काम करता है और न अनुकरण। जीवन स्वयं एक तपस्या है। सुविधाओं के बीच सीमाकरण में रहना और अभावों के बीच तृप्ति को पा लेना भी तप है। प्रतिकूलताओं को समत्व से सह लेना, वैचारिक संघर्ष में सही समाधान पा लेना, इन्द्रियों को विवेकी बना लेना, मन की दिशा और दृष्टि को बदल देना भी तप है और ऐसे ही तप के माध्यम से पार्श्वनाथ न केवल स्वयं तीर्थंकर बल्कि जन-जन में। ऐसे ही पात्रता को उन्होंने विकसित किया। उनकी साधना की कसौटी थी- शुद्ध आत्मा में धर्म का स्थिरीकरण। पवित्रता के बिना धर्म का आचरण नहीं हो सकता। जैसे- मुखपृष्ठों में सच नहीं छिपता, उसी तरह वासनाएँ, कामनाएँ, असत् संस्कार और असत् व्यवहार धर्म को आवरण नहीं बना सकते। इसलिए उपासना के इस बिंदु से जोड़ें कि धर्म मंदिर या पूजा पाठ में नहीं, धर्म मन के मंदिर में है।
पार्श्वनाथ ने अहिंसा का दर्शन दिया। अहिंसा सबके रहने का अधिकार है, उन्होंने इसे स्वीकृत किया। प्राचीन उद्घोष एक बार फिर से करते हुए उन्होंने जनता को संदेश दिया- 'सव्वे पा पियाउवा, सव्वे दुक्ख पडिकुला'- यानि सबको जीवन प्रिय है, दुख को कोई नहीं चाहता। शी हमने अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर प्रकृति पदार्थ, प्राणी और पर्यावरण को नकार दिया। तीर्थंकर पार्श्वनाथ भी उन धर्मनायकों और तीर्थंकरों में से ऐसे महापुरुष थे, जो धर्म नीतियों का प्रकाश संसार में लेकर आए और ऐसे जीवन मूल्यों की स्थापना की जिनके माध्यम से धर्म एक नए रूप में प्रस्तुत हुआ। इस धर्म दर्शन में जीवन के इर्द-गिर्द छिपी बाहरी ही नहीं, आंतरिक परछाइयां भी रोशनी बनकर प्रस्तुत होती हैं। अच्छाइयों की सही पहचान होती है, अहिंसक मन कभी किसी के सुख में व्यवधान नहीं बनता है।
भगवान पार्श्वनाथ हमारे जीवन दर्शन के स्रोत हैं, प्रेरक आदर्श हैं। उन्होंने जैसा जीवन जीया, उसका हर अनुभव हमारे लिए साधना का प्रयोग बन गया। उन्होंने हमारे भीतर सुलभ बोधि जगाई, व्रत की संस्कृति विकसित की। बुराइयों का परिष्कार कर अच्छा इंसान बनने का संस्कार भरा। पुरुषार्थ से भाग्य बदलने का सूत्र दिया। क्योंकि हम कुछ होना चाहें और पुरुषार्थ न करें तो फिर बिना लंगर खोले रात भर नौका खेने वाले नादान मल्लाह की तरह असफलता हाथ आएगी। इसलिए उन्होंने कर्मवीर बनने का संदेश दिया।
भगवान पार्श्वनाथ के जन्मदिवस के अवसर पर जरूरत है हम ऐसा संकल्प लें कि भगवान पार्श्वनाथ को सिर्फ शास्त्रों में ही न पढ़ें, प्रवचनों में ही न सुनें बल्कि पढ़ी और सुनी हुई ज्ञान-राशि को जीवन में उतारें तभी एक महाप्रकाश को अपने भीतर उतरते हुए देखेंगे। हम स्वयं पार्श्वनाथ बनने की तैयारी करें।
ऐसा माना जाता है कि महात्मा बुद्ध के अधिकांश पूर्वज भी पार्श्वनाथ धर्म के अनुयायी थे। श्रावण शुक्ल सप्तमी के दिन उन्हें सम्मेदशिखरजी पर निर्वाण प्राप्त हुआ। ऐसे 23वें तीर्थंकर को भगवान पार्श्वनाथ शत्-शत् नमन्।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें