संभवनाथ जी
📚 *ज्ञानवर्धक कथायेँ* 📚
_*भगवान संभवनाथ*_
महापुरुष कोई एक दिन में नहीं बन जाता | इसके लिए वर्षो नहीं , कई जन्मो तक साधना करनी पड़ती है | भगवान श्री संभवनाथ के जीव ने भी अनेक भवों में साधना की थी , मानवीय गुणों का विकास किया था | उसी के परिणाम स्वरुप वे तीर्थंकर बने |
*पूर्व भव*
एक बार वे घातकीखंड द्वीप के ऐरावत क्षेत्र में क्षेमपुरी नगरी के विपुलवाहन नामक राजा थे | राज्य में भयंकर दुष्काल पड़ा | राजा के मन में दायित्व-भाव उमड़ पड़े | उसने अपने भंडार के द्वार खोल दिए | अधिकारियों को निर्देश दिया कि भंडार में भले ही कुछ न बचे , किंतु राज्य का एक भी व्यक्ति भूखा नहीं रहना चाहिए | राजा ने बाहर से अन्न मंगाया , ग्राम-ग्राम में अन्न क्षेत्र बनाये | स्वयं देहाती क्षेत्रों का दौरा किया और अन्न वितरण की व्यवस्था देखी | राज्य में चल रहे विकास कार्यों की गतिविधि को देखा | राजा के इस आत्मीय व्यवहार से प्रजा में अद्भुत एकात्मता आ गई |
दुष्काल के कारण अनेक साधु सुदूर जनपदों में चले गए ; किंतु कुछ शरीर से अस्वस्थ या अक्षम साधु और उनकी परिचर्या करने वाली मुनि अभी शहर में थे | उन्हें शुद्ध आहार कभी मिलता और कभी नहीं मिलता | जानकारी मिलते ही राजा तत्काल मुनियों के पास गया और भोजन के लिए निमंत्रण दिया | मुनि की चर्या से राजा अपरिचित था | मुनियों ने अपने कल्प-अकल्प की विधि बतलाई | राजा ने निवेदन किया :- ' कोई बात नहीं ,
राजमहल में अनेक भोजनालयों में सात्विक भोजन बनता है | मेरे सहित सभी व्यक्ति कुछ न कुछ कम खाकर आपको देंगे , आप पधारिए | '
मुनि गए , राजमहल से यथोचित आहार ले आए | राजा ने शहर में अन्न संपन्न व्यक्तियों को भी समझाया , वे भी मुनियों को भक्ति से भिक्षा देने लगे | दुष्काल के दिनों में प्रतिदिन राजा संतो को आहार मिला या नहीं , इसकी जानकारी लेता और धर्म-दलाली करता | इस धर्म-दलाली और शुद्ध-दान से राजा को विशिष्ट कर्म निर्जरा हुई एवं अपूर्व पुण्य का बंद हुआ |
अगले वर्ष बारिश हुई | अच्छी फसल होने से सर्वत्र अमन छा गया | पूर्ववत सारी व्यवस्थाएं चालू हो गई | राजकीय सहायता केंद्र जरूरत के अभाव में बंद कर दिए गए , किंतु राजा के प्रति निष्ठा के भाव प्रजा में स्थायी रूप से जम गए |
*तीर्थंकर नाम कर्म का बंध*
एक बार राजा विपुलवाहन ने बादलों की घनघोर घटा को हवा के साथ उमड़ते और बिखरते देखा | राजा को संसार व परिवार का स्वरूप भी ऐसे ही छिन्न-भिन्न होने वाला लगा | वे भौतिक जीवन से विरक्त हो गए और स्वयंप्रभ आचार्य के पास दिक्षित होकर अध्यात्म में लीन हो गए | मनी विपुलवाहन ने अपनी उदात्त भावना के द्वारा कर्म निर्जरा के बीस विशेष स्थानों की साधना की । अशुभ कर्मों की निर्जरा के साथ तीर्थंकर नाम कर्म जैसी शुभ पुण्य-प्रकृति का बंध किया | अंत में समाधिपूर्वक आराधक पद पाकर नौंवे देवलोक में देव बने | तिलोयपण्णत्ति आदि ग्रंथों में विपुलवाहन ग्रैवेयक में गए , ऐसा उल्लेख है ।
*जन्म*
सुखमय देवायु को पूर्णत: भोग लेने के बाद उनका वहां से च्यवन हुआ | भरत क्षेत्र में सावत्थी नगरी के राजा जितारि की पटरानी सेनादेवी की कुशि में वे अवतरित हुए | रात्रि में सेनादेवी को तीर्थंकरत्व के सूचक चौदह महास्वप्न आए | रानी ने सम्राट जितारि को जगाकर स्वप्न बतलाए | हर्षोंमत्त राजा ने रानी से कहा :- ' कोई भुवन-भास्कर अपने घर में आया है | ये स्वप्न उसी के सूचक है | अब तुम नींद मत लो , धर्म- जागरण करो | सवेरे में स्वप्नशास्त्रीयों से पूछकर इसका विस्तृत ब्यौरा बताऊंगा |
सवेरे राजा ने स्वप्न-पाठकों को बुलाया | आसन आदि देकर उनका सम्मान किया | उन्हें रानी को आए हुए चौदह महास्वप्नों को सपनों का विवरण सुनाया और उनके फलाफल के बारे में जिज्ञासा की | उन्होंने स्वप्न-शास्त्रों व अपने अध्ययन के आधार पर एक मत से यह निर्णय सुनाया कि रानीजी के कुशि से पुत्र रत्न पैदा होगा , लाखों व्यक्तियों को उनसे त्राण मिलेगा | राजन ! आपका नाम इस पुत्र के कारण अमर हो जाएगा | स्वप्न पाठकों की बात से राजमहल सहित सारे जनपद में खुशी की लहर फैल गई |
गर्भकाल पूरा होने पर महारानी सेनादेवी ने मिगसर शुक्ला चतुर्दशी की मध्य-रात्रि में बालक को जन्म दिया | सर्वप्रथम इंद्रों ने जन्मोत्सव किया | बाद में राजा जितारि और सावित्थी जनपद के भावुक लोगों ने जन्मोत्सव मनाया | ग्यारह दिनों तक राजकीय उत्सव चला |
*नामकरण*
पुत्र के नामकरण के उत्सव में परिवार व राज्य के प्रतिष्ठित नागरिक एकत्रित हुए | उन्होंने बालक को आशीर्वाद दिया | नाम के संबंध में सम्राट जितारि ने बताया कि इस बार राज्य की पैदावार अभूतपूर्व हुई है | इस वर्ष की फसल राज्य के इतिहास में कीर्तिमान हैं | मैं सोचता हूं कि ऐसी फसल इस बालक के आने के उपलक्ष में ही संभव हो सकी है , अतः पुत्र का नाम संभवनाथ रखा जाना उपयुक्त होगा | यह नाम सबको उचित लगा और बिना किसी विकल्प के सबने बालक को संभवकुमार पुकारा |
*विवाह और राज्य*
अवस्था के साथ संभवकुमार ने यौवन में प्रवेश किया , तब राजा जितारि ने सुयोग्य कन्याओं से विवाह कर दिया | कुछ समय के बाद आग्रहपूर्वक संभवकुमार को सिंहासनारूढ़ करके स्वयं निवृत हो गए |
संभवकुमार का मन युवावस्था में भी राज्यसत्ता व अपार वैभव पाकर आसक्त नहीं बना | वे केवल कर्तव्यभाव से राज्य का संचालन करते रहे | उनके शासन-काल में राज्य में अद्भुत शांति रही | चारों और समृद्धि का वातावरण छाया रहा | वे 59 लाख पूर्व तक घर में रहे |
*दीक्षा*
भोगावली कर्मों की परिसमाप्ति निकट समझकर भगवान ने वर्षीदान दिया | भगवान के अभिनिष्क्रमण की बात सुनकर अनेक राजा व राजकुमार विरक्त होकर राजा संभव के साथ घर छोड़ने को तैयार हो गए | निश्चित तिथि मिगसर शुक्ला पूर्णिमा को एक हजार राजा और राजकुमारों के साथ राजा संभव सहस्त्राम्र वन में आए , पंचमुष्टि लुंचन किया , हजारों लोगों के देखते-देखते जीवन भर के लिए सावद्य योगों का प्रत्याख्यान किया | चरित्र के साथ ही उन्होंने सप्तम गुणस्थान का स्पर्श किया | उन्हें चौथे मन:पर्यव ज्ञान की प्राप्ति हुई । प्रत्येक तीर्थंकर को दीक्षा के साथ की चौथा मन:पर्यव ज्ञान उत्पन्न हो जाता है | इस ज्ञान का उपयोग कर वे चाहें तो अढ़ाई द्वीप (जंबू द्वीप , घातकी खंड तथा अर्ध पुष्कर द्वीप ) में समनस्क प्राणियों के मनोगत भावों को जान सकते हैं |
दीक्षा के दिन भगवान के चौविहार बेले का तप था | दूसरे दिन सावत्थी नगरी के राजा सुरेंद्र के यहां प्रथम पारणा हुआ |
भगवान संभवनाथ चौदह वर्ष तक मुनि अवस्था में विचरण करते रहे | उन्होंने जितेंद्रियता के साथ कर्म-बंधनों का पूर्णत: सफाया करना प्रारंभ कर दिया | विचरते-विचरते वे पुनः सावत्थी में पधारे | वहीं पर उन्होंने छदमस्थ काल का अंतिम चातुर्मास किया |
साधना करते-करते वहीं पर कार्तिक कृष्णा पंचमी को शुक्ल-ध्यान के साथ भगवान उच्च-श्रेणी पर आरूढ़ हुए | मोह को क्षय करने के साथ क्षायिक चरित्रवान बने | अन्तर्मुहूर्त्त में ही शेष तीन घाती कर्मों का क्षय करके उन्होंने सर्वज्ञता प्राप्त की |
इंद्रों ने भगवान का केवल- महोत्सव किया | भगवान के जन्म व दीक्षा-भूमि के लोगों ने जब भगवान की सर्वज्ञता सुनी तो सुखद आश्चर्य के साथ उद्यान में दर्शनार्थ उमड़ पड़े | वंदन करके सुर-रचित समाज समवसरण में सारे बैठ गए | भगवान ने देशना दी | आगार व अणगार दोनों प्रकार की उपासना निरूपित की | प्रथम देशना में चतुर्विध ( साधु ,साध्वी , श्रावक , श्राविका ) संघ की स्थापना हो गई |
*निर्वाण*
प्रभु ने आर्य जनपद में दीर्घकाल तक विचरण किया | लाखों भव्य जनों का उद्धार किया | अंत में अपना महाप्रयाण निकट समझ कर उन्होंने सम्मेद शिखर पर 1000 साधुओं के साथ अनशन कर लिया | शुक्ल ध्यान के चतुर्थ चरण में पहुंच कर उन्होंने क्रिया मात्र का विच्छेद कर दिया | अयोगी अवस्था को पाकर उन्होंने शेष अघाति कर्मों को क्षय किया और सिद्धत्व को प्राप्त हुए |
*प्रभु का परिवार --*
◆ गणधर -- १०२
◆ केवलज्ञानी -- १५,०००
◆ मन:पर्यवज्ञानी -- १२,१५०
◆ अवधिज्ञानी -- ९,६००
◆ वैक्रिय लब्धिधारी -- २९,८००
◆ चतुर्दश पूर्वी -- २,१५०
◆ चर्चावादी -- १२,०००
◆ साधु -- २,००,०००
◆ साध्वी -- ३,३६,०००
◆ श्रावक -- २,९३,०००
◆ श्राविका -- ६,३६,०००
*एक झलक --*
● माता -- सेना
● पिता -- जितारि
● नगरी -- श्रावस्ती(सावत्थी)
● वंश -- इक्ष्वाकु
● गोत्र -- काश्यप
● लक्षण -- अश्व
● वर्ण -- सुवर्ण
● शरीर -- ४०० धनुष्य
की ऊंचाई
● यक्ष -- त्रिमुख
● यक्षिणी -- दुरितारि
● कुमारकाल -- १५ लाख पूर्व
● राज्य काल -- ४ पूर्वांग
अधिक ४४लाख पूर्व
● छद्मस्थ काल -- १४ वर्ष
● कुल दीक्षा -- ४ पूर्वांग कम
पर्याय १ लाख पूर्व
● आयुष्य -- ६० लाख पूर्व
*पंच कल्याणक --*
तिथि _' स्थान '_ नक्षत्र
★ *च्यवन -* फाल्गुन शुक्ला ८ _' विजय_ ' मृगशीर्ष
★ *जन्म -* मिगसर शुक्ला १४ _'आनत_ ' मृगशीर्ष
★ *दीक्षा -* मिगसर शुक्ला १५ _'श्रावस्ती_ ' मृगशीर्ष
★ *केवलज्ञान-* कार्तिक कृष्णा ५ _'श्रावस्ती_ ' मृगशीर्ष
★ *निर्वाण-* चैत्र शुक्ला ५ _'सम्मेदशिखर_' मृगशीर्ष
द्वितीय। अजितनाथ भगवान तीर्थन्कर के निर्वाण के बाद के दस लाख कोटि सागर काल बीत जाने पर।समय बाद श्री संभव नाथभवागन हुए?बहुत काल बीत जाने पर तर्तीय तीर्थन्कर श्री सन्भवनाथ जी का जन्म हुआ | भगवान श्री संभवनाथ की पूर्वं पर्याय का नाम
श्री विसवाहनथा। वहां से ग्रैवेयक देवलोक गए वहां से च्यव कर । से गर्भ में आये?प्रभु का जीव श्रावस्ती नगरी के राजा जितारि की रानी सेनादेवी की रत्न कुक्षी मे उत्पन्न् हुआ | माता ने चोदह मन्गल स्वप्न देखे | मार्गशीर्ष शुक्ल १५ मृगासिरानक्षत्र में जन्म लिया? को तीर्थकर देव का जन्म हुआ | सर्वत्र हर्ष का सन्चार हो गया |
प्रभु के गर्भ मे आने पर महाराज जितारि के असन्भव प्राय : कार्य भी सहज स्न्भव हो गए | बन्जर भुमि पर फ़सले लहलहाने लगी | इन बातो से प्रेरित हो महाराज ने पुत्र का नाम सन्भवनाथ रखा |
काल्क्रम से सन्भवनाथ युवा हुए | कई राजकन्याओ से उनका पाणी – ग्रहण कराया गया | बाद मे उन्हे राजपद पर प्रतिष्ठित करके महाराज जितारि ने प्रव्रज्या अन्गीकार कर ली
चवालिस लाख वर्ष पूर्व चार पूर्वांग तक भगवान ने राज्य किया
| एक बार महाराज सन्भवनाथ सन्ध्या के समय अपने प्रासाद की छ्त पर टहल रहे थे | सान्ध्याकालीन बाद्लो को मिलते -बिखरते देखकर उन्हे वैराग्य की प्रेरणा हुई | प्रभु के मनोभावो को देखकर जीताचार से प्रेरित हो लोकान्तिक देव उपस्थित हुए | उन्होने प्रभु के सन्कल्प की अनुमोदना की |
पुत्र को राज्य सोन्पकर सन्भवनाथ वर्षीदान मे सन्लग्न हुए | एक वर्ष तक मुक्त हस्त से दान देकर सन्भवनाथ ने जनता का दारिद्रय दुर किया | तत्पश्चात मार्गशीर्ष शुक्ल पुर्णिमा के दिन सन्भवनाथ ने श्रमण -दीक्षा। सहेतुक वन में। अन्गीकार की
दीक्षोपवास की संख्या तिर्तिय उपवास
| चोदह वर्षो की साधना के पश्चात प्रभु ने
अपरान्ह काल में।केवल् ज्ञान प्राप्त कर धर्मतीर्थ की स्थाप्ना की| प्रभु के धर्मतीर्थ मे सहस्त्रो -लाखो मुमुक्षु आत्माओ ने सहभागिता कर अपनी आत्मा का कल्याण किया | सुदीर्घ काल तक लोक मे आलोक प्रसारित करने के पश्चात प्रभु सन्भवनाथ ने चैत्र शुक्ल पन्चमी को सम्मेद शिखर से निर्वाण प्राप्त किया |
भगवान के धर्म परिवार मे चारुषेण आदि एक सो पान्च गणधर , दो लाख श्रमण , तीन लाख छ्त्तीस हजार श्रमणिया , दो लाख तिरानवे हजार श्रावक एवम छ्ह लाख छ्त्तीस हजार श्राविकाए थी |
भगवान के चिन्ह का महत्व
अश्व – यह भगवान सम्भवनाथ का चिन्ह है | जिस प्रकार अच्छी तरह से लगाम डाला हुआ अश्व युद्धों में विजय दिलाता है, उसी प्रकार संयमित मन जीवन में विजय दिलवा सकता है | अश्व से हमें विनय ,संयम , ज्ञान की शिक्षाएं मिलती हैं | यदि भगवान सम्भवनाथ के चरणों में मन लग जाए तो असम्भव भी सम्भव हो सकता हैं | यदि भगवान सम्भवनाथ के चरणो में मन लग जाए तो असम्भव भी सम्भव हो सकता है | जैन शास्त्रों में कहा है- ‘मणो साहस्सिओ भीमो , दुटठस्सो परिधावइ ‘ मन दुष्ट अश्व की तरह बडा साहसी और तेज दौडने वाला है |
श्री संभवनाथ भगवान का साधार्मिक भक्ति से तीर्थंकर नाम कर्म का बंध :-
श्री संभवनाथ भगवान का जीव पूर्व की तीसरे भव में घातकी खंड के एरावत क्षेत्र मे क्षेमपुरी नगर था । वहां के राजा का नाम विपुलवाहन था । वे इंद्र के समान शक्तिशाली थे किन्तु अहंकार नहीं था ।
एक बार भयंकर सुखा पड़ा । अन्न का कष्ट बहुत बढ़ गया, लोग भूख से तड़प तड़प कर मरने लगे । राजा ने अपने सारे भंडार खोल दिए । इतना ही नहीं मुनियों को प्रसुख आहार अपने हाथो से देने व श्रावको को सामने से भोजन कराकर पुण्य उपार्जन करने लगे । इस प्रकार जब तक सुखा रहा तब तक सारे देश की और ख़ास कर समस्त संघ की भली भांति देखभाल करता रहा । इससे उन्होने तीर्थंकर नाम कर्म का बंध किया ।
एक बार राजा छत पर बैठा था, संध्या का समय था, आकाश में बादल छाये हुए थे । देखते देखते जोर की हवा चली और बादल छिन्नभिन्न हो गए । उसने सोचा इन् बादल की तरह संसार की सारी वस्तुए छिन्नभिन्न हो जाएगी । मौत हर धडी सर पर सवार रहती है, वह ना जाने कब आएगी । वह नहीं आती तब तक आत्मकल्याण कर लेना चाहिए । अपने पुत्र विमलकीर्ति को राज्य देकर विपुलवाहन राजा ने स्वयंप्रभसूरी के पास दीक्षा ली । संयम का पालन करते हुए अंत में आयुष्य पूरा कर आनत नाम के नवमे देवलोक में उत्पन्न हुए ।
29 सागरोपम का आयुष्य पूर्ण कर श्रुतज्ञान , मतिज्ञान और अवधिज्ञान के साथ इक्ष्वाकुवंश के कश्यप गोत्र के कृणाल देश की श्रावस्ती नगरी के राजा के जितारी की सोनाराणी की कुक्षी में च्यवन हुआ। माता ने 14 स्वप्न देखे। प्रभु माता के उदर में 9 माह 6 दिन रहे। मार्गशीर्ष सुद 14 के दिन प्रभु का जन्म हुआ।
द्वितीय तीर्थन्कर के निर्वाण के बाद बहुत काल बीत जाने पर तर्तीय तीर्थन्कर श्री सन्भवनाथ जी का जन्म हुआ | ग्रैवेयक देवलोक से च्यव कर प्रभु का जीव श्रावस्ती नगरी के राजा जितारि की रानी सेनादेवी की रत्न कुक्षी मे उत्पन्न् हुआ | माता ने चोदह मन्गल स्वप्न देखे | मार्गशीर्ष शुक्ल १५ को तीर्थकर देव का जन्म हुआ | सर्वत्र हर्ष का सन्चार हो गया |
प्रभु के गर्भ मे आने पर महाराज जितारि के असन्भव प्राय : कार्य भी सहज स्न्भव हो गए | बन्जर भुमि पर फ़सले लहलहाने लगी | इन बातो से प्रेरित हो महाराज ने पुत्र का नाम सन्भवनाथ रखा |
काल्क्रम से सन्भवनाथ युवा हुए | कई राजकन्याओ से उनका पाणी – ग्रहण कराया गया | बाद मे उन्हे राजपद पर प्रतिष्ठित करके महाराज जितारि ने प्रव्रज्या अन्गीकार कर ली | एक बार महाराज सन्भवनाथ सन्ध्या के समय अपने प्रासाद की छ्त पर टहल रहे थे | सान्ध्याकालीन बाद्लो को मिलते -बिखरते देखकर उन्हे वैराग्य की प्रेरणा हुई | प्रभु के मनोभावो को देखकर जीताचार से प्रेरित हो लोकान्तिक देव उपस्थित हुए | उन्होने प्रभु के सन्कल्प की अनुमोदना की |
पुत्र को राज्य सोन्पकर सन्भवनाथ वर्षीदान मे सन्लग्न हुए | एक वर्ष तक मुक्त हस्त से दान देकर सन्भवनाथ ने जनता का दारिद्रय दुर किया | तत्पश्चात मार्गशीर्ष शुक्ल पुर्णिमा के दिन सन्भवनाथ ने श्रमण -दीक्षा अन्गीकार की | चोदह वर्षो की साधना के पश्चात प्रभु ने केवल् ज्ञान प्राप्त कर धर्मतीर्थ की स्थाप्ना की| प्रभु के धर्मतीर्थ मे सहस्त्रो -लाखो मुमुक्षु आत्माओ ने सहभागिता कर अपनी आत्मा का कल्याण किया | सुदीर्घ काल तक लोक मे आलोक प्रसारित करने के पश्चात प्रभु सन्भवनाथ ने चैत्र शुक्ल पन्चमी को सम्मेद शिखर से निर्वाण प्राप्त किया |
भगवान के धर्म परिवार मे चारुषेण आदि एक सो पान्च गणधर , दो लाख श्रमण , तीन लाख छ्त्तीस हजार श्रमणिया , दो लाख तिरानवे हजार श्रावक एवम छ्ह लाख छ्त्तीस हजार श्राविकाए थी |
भगवान के चिन्ह का महत्व
अश्व – यह भगवान सम्भवनाथ का चिन्ह है | जिस प्रकार अच्छी तरह से लगाम डाला हुआ अश्व युद्धों में विजय दिलाता है, उसी प्रकार संयमित मन जीवन में विजय दिलवा सकता है | अश्व से हमें विनय ,संयम , ज्ञान की शिक्षाएं मिलती हैं | यदि भगवान सम्भवनाथ के चरणों में मन लग जाए तो असम्भव भी सम्भव हो सकता हैं | यदि भगवान सम्भवनाथ के चरणो में मन लग जाए तो असम्भव भी सम्भव हो सकता है | जैन शास्त्रों में कहा है- ‘मणो साहस्सिओ भीमो , दुटठस्सो परिधावइ ‘ मन दुष्ट अश्व की तरह बडा साहसी और तेज दौडने वाला है |
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