अठारह पाप*
*अठारह पाप*
श्रृंखला -- 2
*पहला पाप -- प्राणातिपात पाप*
जैन वाड्मय में अठारह पाप बताए गए हैं । अठारह पापों में पहला पाप है प्राणातिपात पाप। प्राण-वियोग करने से जो कर्म बंधता है, वह प्राणातिपात पाप है।
प्राणातिपात का अर्थ है -- प्राणी के प्राणों का विसंयोग करना। जैन तत्वविद्या में प्राण के दस प्रकार बताए गए हैं -- श्रोत्रेन्द्रिय प्राण, चक्षुरिन्द्रिय प्राण, घ्राणेन्द्रिय प्राण, रसनेन्द्रिय प्राण, स्पर्शनेन्द्रिय प्राण, मनोबल, वचनबल, कायबल, श्वासोच्छ्वास प्राण और आयुष्य प्राण। संसार में जीने वाले सभी प्राणी चाहे एकेन्द्रिय हों या पंचेन्द्रिय, प्राण सहित होते हैं, किंतु सब प्राणियों में प्राणों की संख्या समान नहीं होती। एक इंद्रिय वाले प्राणियों में चार प्राण, दो इंद्रिय वाले प्राणियों में छह प्राण, तीन इंद्रिय वाले प्राणियों में सात प्राण, चार इंद्रिय वाले प्राणियों में आठ प्राण और पांच इंद्रिय वाले संज्ञी प्राणियों में दस प्राण होते हैं। इनमें से किसी भी प्राण का अतिपात करना प्राणातिपात है। केवल जीव की हिंसा करना ही अतिपात नहीं है, उसको किसी भी प्रकार से कष्ट देना भी प्राणातिपात है।
प्राणातिपात ऐसा पाप है जो आदमी की आत्मा को भारी बनाने वाला होता है। हर व्यक्ति यह सोचे कि मैं हिंसा से अपने आप को कैसे और कितना बचा सकता हूं ? मेरे जीवन में हिंसा का अल्पीकरण कैसे हो सकता है ? अगर अहिंसक चेतना का विकास हो गया और जीव हिंसा से विरत रहने की भावना हमारे मन में जाग गई तो जीवन का उत्थान अवश्यंभावी है।
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*अठारह पाप*
श्रृंखला -- 3
*दूसरा पाप -- मृषावाद पाप*
*मृषावाद पाप* -- झूठ बोलने से आत्मा के साथ चिपकने वाला पुद्गल समूह। जैन वाड्मय में झूठ बोलने के चार कारण बताए गए हैं -- *कोहा वा, लोहा वा, भया वा, हासा वा --* आदमी क्रोध के कारण झूठ बोल देता है, लोभ के कारण झूठ बोल देता है, भय के कारण झूठ बोल देता और हंसी मजाक में भी कभी-कभी झूठ बोल देता है।
अगर समाज में ईमानदारी प्रतिष्ठित रहे, लोग झूठ बोलने से बचते रहें तो समाज की व्यवस्था बहुत अच्छी बन सकती है, समाज की समस्याओं का समाधान हो सकता है।
सच्चाई की अपने शक्ति होती है। संस्कृत साहित्य का प्रसिद्ध सूक्त है -- *सत्यमेव जयते नानृतम्* अर्थात सत्य की विजय होती है, झूठ की नहीं। सत्य परेशान तो हो सकता है, परास्त नहीं होता। सत्य के सामने कठिनाइयों और संघर्ष तो आ सकते हैं, परंतु जो तत्त्व सत्य से प्राप्त होता है, वह झूठ से प्राप्त नहीं हो सकता। आदमी पूर्णतया सत्य की साधना न भी कर सके, पर कुछ अंशों में प्रयास अवश्य करे। वह यह संकल्प करें कि मैं छोटा-मोटा कष्ट भले सहन कर लूं, पर झूठ बोलने से बचूं। कहीं सत्य बोलने में कठिनाई हो तो आदमी मौन कर ले, कुछ भी न बोले।
श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया -- *स्वल्पप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्* अर्थात धर्म का थोड़ा-सा अंश भी जीवन में आ जाता है तो वह आदमी को महान भय से उबारने वाला होता है। आदमी कोई भी काम-धंधा करे, व्यापार करे, फाइलें देखें, डॉक्टरी करे, वकालत करे, अध्यापन करे, कोई भी काम कर, यह चिंतन रहे कि मेरे कार्य में प्रामाणिकता है या नहीं ? मेरे कार्य में सच्चाई है या नहीं ? मैं अप्रामाणिकता से स्वयं को कितना बचा सकता हूं ? ऐसा चिंतन करते हुए व्यक्ति अपने आपको सच्चाई के पथ पर आगे बढ़ाने का प्रयास करे, यह जीवन की बहुत बड़ी सफलता है।
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*अठारह पाप*
श्रृंखला -- 4
*तीसरा पाप -- अदत्तादान पाप*
*अदत्तादान पाप* -- चोरी करने से आत्मा के साथ चिपकने वाला पुद्गल-समूह।
जैन वाड्मय में निर्दिष्ट अठारह पापों में तीसरा पाप है -- अदत्तादान। यह शब्द अदत्त और आदान, इन दो शब्दों से मिलकर बना है। अदत्त का मतलब है नहीं दिया हुआ और आदान यानी ग्रहण करना। जो चीज उसके स्वामी द्वारा नहीं दी गई है, उसका आदान या ग्रहण करना अदत्तादान है। इसका सीधा-सा अर्थ है चोरी।
आर्हत् वाड्मय में कहा गया है -- संयमी मुनि सजीव या निर्जीव, अल्प या बहुत, दंतशोधन मात्र वस्तु का भी उसके अधिकारी की आज्ञा लिए बिना स्वयं ग्रहण नहीं करे, न दूसरों से ग्रहण कराए और ग्रहण करने वालों का अनुमोदन भी न करे।
चोरी करने वाला व्यक्ति उस वस्तु के मालिक के मन को आहत कर सकता है और वहां फिर वहा हिंसा भी हो सकती है। आचार्य सोमप्रभ सूरि जी ने कहा -- "हित के आकांक्षी पुरुषों के लिए चोरी अनुपादेय है, अग्रहणीय हैं, अस्वीकार्य है, अनाचरणीय है। यह चोरी दूसरे मनुष्यों के मन को पीड़ा पहुंचाने वाली है। मारने की भावना का भवनरूप है, भूमंडल में व्याप्त विपत्तिरूप बैलों के लिए मेघमंडल के समान है, कुगति में जाने का मार्ग है, स्वर्ग और मोक्ष के द्वारों के आगे अर्गला है।"
चोरी करना तो एक प्रकार की हिंसा है। व्यक्ति एक जन्म में चोरी करता है तो पता नहीं अगले जन्म में वे कर्म उसको किस रूप में भोगने पड़ जाएं ? कितनी तकलीफ उसके जीवन में आ जाए ? इसलिए थोड़ा कष्ट पाना स्वीकार कर लेना चाहिए, परंतु आदमी को चोरी जैसा काम नहीं करना चाहिए।
आदमी को अपराध में तरक्की नहीं करनी चाहिए। अपराध तो कम होना चाहिए, रुकना चाहिए।अदत्तादान जैसा पाप आत्मा को मलिन बनाने वाला होता है। इसलिए आदमी उससे बचने का प्रयास करे।
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*अठारह पाप*
श्रृंखला -- 5
*चौथा पाप -- मैथुन पाप*
*मैथुन पाप* -- अब्रह्मचर्य सेवन से आत्मा के साथ चिपकनेवाला पुद्गल-समूह ।
परम पूज्य गुरुदेव तुलसी ने *श्रावक संबोध* नामक काव्य में लिखा है --
*गरीबी गौरव गमाना, अमीरी अभिशाप है।*
*मांग खाना, मान खोना, मानसिक संताप है।।*
साधु हाथ फैलाए, यह तो गौरव की बात है। पर गृहस्थ हाथ फैलाए, यह स्वाभिमान और गौरव के अनुकूल बात नहीं होती। गृहस्थ जीवन में काम भी चलता है। इसकी संपूर्ति के लिए विवाह का प्रावधान है। भारतीय संस्कृति में विवाह को 'पाणिग्रहण' कहा गया है। पाणिग्रहण यानी एक-दूसरे का हाथ थामना। विवाह के पीछे तीन उद्देश्य होते हैं --
पहला उद्देश्य -- एक ऐसे जीवनसाथी को प्राप्त करना, जो सुख-दुःख में साथ रह सके।
दूसरा उद्देश्य -- वंश परंपरा को आगे चलाना।
तीसरा उद्देश्य -- संयमित रूप में कामेच्छा सम्पूर्ति करना।
साधु पूर्ण संयम की साधना में लीन होते हैं, किंतु गृहस्थ के लिए पूर्ण संयम करना कठिन होता है। गार्हस्थ में काम भी चलता है और उसमें अर्थ की भी अपेक्षा होती है। इन दोनों पर धर्म का अंकुश रहता है तो गृहस्थ जीवन में भी कुछ अंशों में संयम रह सकता है।
दुनिया में दो चक्र है -- कांता और कांचन यानी स्त्री और पैसा। इनमें तीनों लोक भ्रांत हो रहे हैं, चक्कर काट रहे हैं। इनसे जो विरक्त हो जाता है, वह साधु कहलाता है अथवा यह कहें कि वह परमात्मा का दूसरा रुप होता है। एक साधु के लिए अपेक्षित है कि वह पूर्णतया शील की साधना करे। परंतु जो गृहस्थ है, पूर्ण शील की साधना जिनके लिए संभव न हो, उनके लिए एक व्रत दिया गया -- स्वदार संतोष / स्वपति संतोष व्रत। गृहस्थ को स्वदार में संतोष करना चाहिए। इसके लिए संयम का संकल्प आवश्यक है। अगर संयम का संकल्प नहीं होता है तो बड़ा कठिन है स्वदार संतोष व्रत धारण करना।
संयम न हो तो इंद्रिय-निरोध की साधना में कठिनाई पैदा हो जाती है।
भारतीय संस्कृति में स्वदार संतोष और स्वपति संतोष का एक सुंदर मार्गदर्शन दिया गया है। यह धर्म की दृष्टि से तो अच्छा है ही, सुंदर सामाजिक व्यवस्था की दृष्टि से भी अच्छा है। विवाह करके आदमी जीवन भर के लिए एक-दूसरे का साथ निभाने के लिए संकल्पित होता है।
जैन वाड्मय में एक सुंदर पथदर्शन दिया गया कि गार्हस्थ्य में स्वदार/ स्वपति संतोष व्रत हो तो वह अध्यात्म की साधना है और समाज व्यवस्था की दृष्टि से भी यह एक अच्छा उपक्रम है।
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**अठारह पाप*
श्रृंखला -- 6
*पांचवां पाप -- परिग्रह पाप*
*परिग्रह पाप* -- परिग्रह रखने से आत्मा के साथ चिपकनेवाला पुद्गल-समूह ।
आर्हत वाड्मय में कहा गया है -- *इच्छा उ आगाससमा अणंतिया* अर्थात् इच्छा आकाश के समान अनंत होती है। हमारी दुनिया में सबसे बड़ा कोई पदार्थ है तो वह आकाश है। आकाश से बड़ा कुछ नहीं होता। जो कुछ भी है, वह आकाश में है। जैसे आकाश का कोई ओर-छोर नहीं होता, वैसे ही इच्छाओं का भी अंत नहीं होता है। वे आगे से आगे बढ़ती जाती है, अपार, अनंत, असीम हो जाती है।
अठारह पापों में पांचवा पाप है -- परिग्रह। *मुच्छा परिग्गहो वुत्तो* अर्थात् मूर्छा परिग्रह हैं। पदार्थों का उपयोग करना एक बात है और उसके पति मूर्छा या आसक्ति का होना अलग बात है। वास्तव में पदार्थों के प्रति जो आसक्ति होती है, वह परिग्रह है। मनुष्य पदार्थों के उपभोग की सीमा करे और उससे भी बड़ी बात यह है कि इच्छा का सीमांकन करे, आसक्ति को निर्मूल करने का प्रयास करे। आसक्ति ही परिग्रह का रूप धारण कर लेती है।
इच्छा के संदर्भ में तीन शब्दों का प्रयोग होता है -- महेच्छ, अल्पेच्छ, अनिच्छ। महेच्छ वह होता है जिसमें खूब इच्छाएं होती है, ज्यादा आसक्ति होती है। अल्पेच्छ वह होता है, जिसमें इच्छाएं कम होती है। जो पूर्ण रूप से इच्छा रहित हो, वह अनिच्छ होता है। एक गृहस्थ के लिए अनिच्छ होना बहुत कठिन है, किंतु वह महेच्छ न बने।
परम पूज्य गुरुदेव तुलसी ने विसर्जन का सूत्र दिया था। वह भी एक आसक्ति परिसीमन या आसक्ति अल्पीकरण का प्रयोग माना जा सकता है। आयारो में कहा गया -- *अमरायइ महासड्ढी* अथार्त् बहुत आसक्ति वाला आदमी सोचता है कि मैं अमर हूं, मुझे मरना नहीं है। मेरी भी एक दिन मृत्यु होगी, पदार्थासक्त आदमी इस बात को भुला देता है और अमर की तरह आचरण करता है। कोई स्वयं को अमर न माने। अमर तो केवल आत्मा है। शरीर नश्वर है और आत्मा अविनश्वर है। इसलिए व्यक्ति पदार्थ में आसक्त न बने और इस नश्वर शरीर से अमर आत्मा के कल्याण का प्रयत्न करे। इसके लिए वह अपनी इच्छाओं का परिसीमन करे और जितना संभव हो सके, परिग्रह के पाप से बचता हुआ अपनी आत्मा को निर्मलता की दिशा में अग्रसर करे।
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अठारह पाप*
श्रृंखला -- 7
*छठा पाप -- क्रोध पाप*
*क्रोध पाप* -- क्रोध करने से आत्मा के साथ चिपकनेवाला पुद्गल-समूह ।
आर्हत वाड्मय में कहा गया है *उवसमेण हणे कोहं* अर्थात उपशम के द्वारा क्रोध को जीतो। आदमी में अनेक वृत्तियां होती है। अच्छी वृत्तियां भी होती है और बुरी वृत्तियां भी होती है। उसके भीतर अहिंसा का संस्कार भी होता है और हिंसा का संस्कार भी होता है। सत्संस्कार भी होता है और असत् संस्कार भी होता है। अनादिकाल से राग-द्वेष के संस्कार हैं, इसलिए आदमी कई बार गुस्से में भी आ जाता है, कभी अहंकार में भी आ जाता है, कभी माया में तो कभी लोभ में आ जाता है और पाप का बंध कर लेता है।
अठारह पापों में छठा पाप है -- क्रोध। आदमी अपने भीतर झांके और देखे तो उसे ज्ञात होगा कि मुझे कितना गुस्सा आता है। पारिवारिक जीवन में गुस्सा आ जाता है और सामाजिक जीवन में भी गुस्सा आ जाता है। गुस्सा करने वाला व्यक्ति दूसरों को भी कष्ट में डाल देता है और स्वयं भी उससे संत्रस्त हो जाता है। कई बार गुस्सा करने वाला स्वयं बड़ा दुखी होता है कि मैंने गुस्सा क्यों किया ? उसे पश्चाताप भी होता है। गलत कार्य के लिए पश्चाताप या अनुपात होना अच्छी बात है। कम से कम उसे अपने द्वारा की गई गलत कार्य की अनुभूति तो हो जाती है।
परम पूज्य गुरुदेव महाप्रज्ञ जी प्रेक्षाध्यान का प्रयोग कराते थे। प्रेक्षाध्यान में गुस्से पर नियंत्रण रखने के लिए ज्योतिकेंद्र प्रेक्षा का प्रयोग निर्दिष्ट किया गया है। प्रयोग के द्वारा आदमी गुस्से पर नियंत्रण करने का प्रयास करे। गुस्सा शांत है तो कितनी शांति रहती है। हम चिंतन करें। चिंतन से भी परिवर्तन ला सकते हैं। जो काम प्रेम से और शांति से हो सकता है, उसके लिए हमें गुस्सा क्यों करना चाहिए ? गुस्सा नहीं करना भी एक साधना है।
अगर गुस्सा आए तो और कुछ नहीं, इतना-सा मानसिक संकल्प कर लें कि अभी मैं कुछ देर तक नहीं बोलूंगा। संभव है कुछ समय निकल जाने के बाद गुस्से को प्रकट होने का, कार्य रूप में परिणत होने का, व्यवहार में आने का अवसर ही न मिले।
संस्कृत साहित्य में कहा गया है *क्षमा वीरस्य भूषणम्* अर्थात् क्षमा शूरवीर आदमी का भूषण है। किसी को क्षमा करना कमजोरी नहीं, अपितु शक्तिशाली और सक्षम होने का परिचायक है।
राष्ट्रकवि दिनकर ने अपने काव्य 'कुरुक्षेत्र' में कहा है -- दंतहीन और विषहीन सर्प शान्त रहे और किसी को दंशित न करे तो यह कोई बड़ी बात नहीं, लेकिन भयंकर विषदंतवाला, जहर से परिपूर्ण नागराज छेड़ने पर भी शांत रहे, अपना विरोध प्रदर्शित न करे तो यह बड़ी बात है। उसकी क्षमा प्रशस्य है। आदमी उपशम के द्वारा क्रोध को शांत करने का प्रयास करे।
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**अठारह पाप*
श्रृंखला -- 8
*सातवां पाप -- मान पाप*
(भाग -- 1 )
*मान पाप* -- मान करने से आत्मा के साथ चिपकनेवाला पुद्गल-समूह ।
*मान पाप*
आर्हत वाड्मय में कहा गया है -- *माणं मद्दवया जिणे* अर्थात् मृदुता से मान को जीतो। आदमी के भीतर अहंकार की वृत्ति होती है। अहंकार की वृत्ति साधना के क्षेत्र में बाधक होती है। न केवल साधना के क्षेत्र में, व्यवहारिक जगत में भी अहंकार शोभायमान नहीं होता। आदमी दूसरों पर अधिकार जमाना चाहता है। किंतु स्वयं किसी के अधीन रहना नहीं चाहता। इस वृत्ति को कैसे समाप्त किया जाए, यह एक प्रश्न है। शास्त्रकार ने उपाय बताएं कि मार्वद के द्वारा मान को जितना चाहिए। अहंकार विनय का नाश करने वाला होता है तो विनय अहंकार का नाश करने वाला होता है।
सामाजिक दृष्टि से देखें तो जहां अनेकों का सहवास होता है, वहां अहंकार विगलन आवश्यक होता है। यदि परिवार का हर सदस्य अपने आप को बड़ा मानने लगे हो और सम्मान पाने की इच्छा रहे, किंतु सम्मान देने की इच्छा न रहे तो परिवार में शांतिपूर्ण सहवास नहीं हो सकता है। अहंकार के मुख्य दो रूप हैं -- मैं और मेरा। जहां मेरापन या अपनापन जुड़ जाता है, वहां दुःख होता है। शास्त्रों में अहंकार के आठ स्थान माने गए हैं -- जाति, कुल, बल, रूप, तप, श्रुत, लाभ और ऐश्वर्य। किसी को जाति का मद हो सकता है, किसी को अपने रूप का मद हो सकता है तो किसी को ऐश्वर्य आदि का। आदमी इस सच्चाई को जानता है कि यह धन-वैभव आज तक किसी का नहीं बना और न ही किसी के साथ गया, फिर भी इतना मेरापन का भाव जुड़ जाता है कि वह धन के मद में अंधा बना हुआ किसी भी प्रकार का अवांछनीय काम कर सकता है ।
*क्रमशः....... अगली पोस्ट में*
लिखने में कुछ गलती हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडं
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अठारह पाप*
श्रृंखला -- 9
*सातवां पाप -- मान पाप*
(भाग -- 2 )
अहंकार का भाव मन में आते ही उन सब चीजों का क्षरण शुरू हो जाता है, जिनके कारण व्यक्ति विशिष्ट बना होता है। लेकिन यह व्यक्ति के भीतर मौजूद विजातीय तत्त्वों का प्रभाव है कि आदमी अहंकार में चला जाता है। किसी को रूप का भी अहंकार हो सकता है। रूपवान होना एक बात है, किंतु गुणवत्ता न हो तो पूरा रूप किस काम का ? संस्कृत साहित्य में कहा गया है -- *स्वयमायाति सम्पदः।* अगर पात्रता है तो कई बार संपदा स्वयं व्यक्ति के पास आ जाती है। अगर योग्यता नहीं है और संपदा आ गई तो उसके टिकने और उसके सही उपयोग में संदेह रहता है।
नम्रता एक ऐसा गुण है जो व्यक्ति को जोड़ना जानता है। जो झुकना जानता है वह विकास को प्राप्त कर सकता है और जो अकड़कर रहता है वह टूट जाता है, उसका विकास अवरुद्ध हो जाता है। किसी ने ठीक लिखा है --
*नमन्ति फलिनो वृक्षा:, नमन्ति गूणिनो जना: ।*
*शुक्ककाष्ठानि मूर्खाश्च, न नमन्ति कदाचन।।*
फल युक्त वृक्ष और गुणवान / ज्ञानी व्यक्ति झुक जाते हैं, किंतु सूखा काष्ठ और मूर्ख टूट जाते हैं, कभी झुकते नहीं।
व्यवहारिक जीवन में भी विनय का प्रयोग जिसके सामने जितना उचित हो, उतना करना ही चाहिए। साधु मिलें और हाथ न जोड़ें तो यह विनय का अतिक्रमण है। अहंकार विकास में बाधा पैदा करने वाला तत्त्व है, इसलिए इसे जितना जल्दी हो सके, छोड़ देना चाहिए। कहा गया है -- *लघुता से प्रभुता मिले, प्रभुता से प्रभु दूर।* जो व्यक्ति लाघव को स्वीकार करता है, झुकता है, विनम्र होता है, उसको प्रभुता, महानता, स्वामित्व की प्राप्ति होती है और जो स्वयं को बड़ा और श्रेष्ठ दिखाने का प्रयास करता है, उससे प्रभुता दूर चली जाती है। आदमी लघुता से प्रभुता को पाने का प्रयास करे।
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*Evening 7 to 8 pm samayik bhi kare*
*अठारह पाप*
श्रृंखला -- 10
*आठवां पाप -- माया पाप*
(भाग -- 1 )
*माया पाप* -- माया करने से आत्मा के साथ चिपकनेवाला पुद्गल-समूह ।
आर्हत वाड्मय में कहा गया है -- *मायं चज्जवभावेण* अर्थात् ऋजुता से माया को जीतो। मनुष्य यदा-कदा माया का प्रयोग भी कर लेता है। आयारो में कहा गया है -- *माई पमाई पुणरेई गब्भं* अर्थात् मायावी और प्रमादी आदमी बार-बार गर्भ ( जन्म ) धारण करता है। आत्मा को मलिन बनाने के लिए माया भी जिम्मेवार तत्त्व है। आचार्य सोमप्रभसूरि ने कहा -- *मायाविश्वास-विलासमंदिरम्* अर्थात् माया अविश्वास के रमण करने का एक स्थान है। जहां छलना है, प्रवंचना है, वहां विश्वास को टिकने में कठिनाई होती है। दसवेआलियं में कहा गया -- *माया मित्ताणि नासेइ* अर्थात् माया मित्रता का नाश करने वाली होती है। जो मायाशील है, उसके ज्यादा मित्र बनने कठिन होते हैं, क्योंकि पता नहीं वह कब धोखा दे दे। वे पुरुष, वे मनुष्य पवित्र होते हैं, जो सरलता और निश्चलता का जीवन जीते हैं। संस्कृत साहित्य में कहा गया है --
*मनस्येकं वचस्येकं वपुष्येकं महात्मनाम्।*
*मनस्यन्यद् वचस्यन्यत् वपुष्यन्यद् दुरात्मनाम्।।*
जो महात्मा या संत होते हैं, उनके मन में जो होता है, वही वाणी में होता है और वही उनके आचरण में होता है। जो दुरात्मा होता है, उसके मन में कुछ, वाणी में कुछ और कार्यकलाप में कुछ होता है। कथनी-करनी में असामानता रहती है। सरलता के लिए बच्चे को उद्धत किया जाता है। गुरुदेव महाश्रमण जी ने कहा है -- *मेरा ऐसा मानना है कि बच्चे में सरलता होती है तो उसमें नादानी भी होती है। बच्चे जैसी सरलता को स्वीकार करने के लिए, कोई बच्चे जैसे नादानी कर ले, यह तो अच्छी बात नहीं है। बच्चा अज्ञानी होता है। वह न तो सर्प को समझता है, न अग्नि को समझता है। वह कहीं भी हाथ डाल देता है। ऐसी ही नादानी बीस-पचीस वर्ष का युवक करने लगे तो वह कैसा लगेगा ? बच्चे की सरलता तो अनुमोदनीय है, पर उसमें अज्ञानता भी होती है। मैं उस सरलता को अधिक महत्व देना चाहूंगा जो ज्ञान के साथ जुड़ी हुई है। धोखा दे सकने में समर्थ व्यक्ति यदि सरलता को नहीं छोड़ता तो वह विशिष्ट बात होती है।*
*क्रमशः....... अगली पोस्ट में*
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*अठारह पाप*
श्रृंखला -- 1
*आठवां पाप -- माया पाप*
(भाग -- 2 )
धर्म के क्षेत्र में सरलता का बड़ा महत्व है। उत्तराध्यनन सूत्र में कहा गया है कि निर्वाण वह प्राप्त करता है, जिसके हृदय में धर्म होता है। धर्म उसके ह्रदय में होता है, जो शुद्ध होता है और शुद्ध वह होता है, जो ऋजु होता है, सरल होता है।
गार्हस्थ में भी सरल रहने का प्रयास करना चाहिए। जितना संभव हो आदमी को कुटिलता से बचना चाहिए। व्यक्ति को अपने जीवन में पारदर्शिता रखनी चाहिए कि जब चाहो, जहां चाहो, जिस तरफ से भी चाहो, देख लो, हमारे पास छुपाने को कुछ भी नहीं है। व्यापार-धंधा करते हुए भी आदमी को चाहिए कि वह सरलता का दामन कभी न छोड़े। बेईमानी से कमाई गई करोड़ों की दौलत की अपेक्षा इमानदारी से कमाए गए कुछ सौ या हजार कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण होते हैं। इमानदारी और सरलता भी एक बड़ी संपत्ति है। हमारी आस्था सच्चाई के प्रति हो। हमें सच्चाई को खोजने का, सच्चाई को आत्मसात् करने का और वैसा ही व्यवहार करने का प्रयास करना चाहिए। माया और झूठ -- इन दोनों का गठजोड़ है। माया और मृषा -- दोनों मिल जाते हैं तो यों लगता है, जैसे पाप और ज्यादा सघन हो गया हो।
हमें विचार करना चाहिए कि दिन-रात में कभी कुटिलता का मौका आता है क्या ? आत्म चिंतन करें कि आज सवेरे उठने के बाद से लेकर शयन करने तक किसी के साथ कुटिलता तो नहीं की ? अगर कपटाई की है तो सोचें कि उसके बिना मेरा काम नहीं चल सकता क्या ? बिना कपट किए अगर काम चल सकता है तो कपट पूर्ण व्यवहार मैंने क्यों किया ? क्यों नहीं मैंने सरलता का व्यवहार किया ? जहां सरलता है, वहां माया से होने वाला कर्मबंध नहीं होता। इसके विपरीत जहां कपट है, छलना है, झूठ है, वहां आदमी कर्म बंधन कर लेता है। जो आदमी माया, गूढ़ माया, असत्य वचन और कूट तौल- माप करता है, उसके तिर्यंच गति के आयुष्य का बंध हो सकता है। वह पशु की योनि में भी जा सकता है। फिर पता नहीं कितना कष्ट उसे भोगना पड़ सकता है, उसकी गति खराब हो सकती है। हम अभी मनुष्य हैं तो तिर्यंच गति में क्यों जाएं ? देव गति में जाएं तो वह एक बात है, मोक्ष में जाएं तो वह परम बात है। लेकिन मनुष्य होकर नरक गति में जाना पड़े, तिर्यंच गति में जाना पड़े, यह वांछनीय बात नहीं है। शास्त्रकार ने कहा -- ऋजुता का अभ्यास करके हमें माया को जीतने का प्रयास करना चाहिए।
*कल 26/8/20 को पूछे गए सवालों के जवाब*
प्रश्न 2511 किस मां बेटे ने तीर्थंकर गोत्र बांधा?
*उत्तर देवकी और कृष्ण।*
प्रश्न2512 पंडित संयमी जीवो का सकाम मरण कम से कम और उत्कृष्ट कितनी बार होता है?
*उत्तर-1,15*
प्रश्न 2513 जैन जीवन शैली के 9 सूत्र में से सातवां सूत्र कौन सा है?
*उत्तर- सम्यक संस्कार*
प्रश्न 2514 तेरापंथ के कौन कौनसे आचार्यो द्धारा अपना पट्टोत्सव मनाया गया?
*उत्तर-तेरापंथ के आचार्यो द्धारा अपना पट्टोत्सव मनाया गया*
*(1) आचार्य जीतमलजी*
*(2) आचार्य माणकगणी*
*(3) आचार्य डालगणी*
*(4) आचार्य कालूगणी*
*(5) आचार्य तुलसी*
*(6) आचार्य महाप्रज्ञजी*
*(7) आचार्य महाश्रमणजी*
*नोट - आचार्य मघवागणी अपना पट्टोत्सव न मनाकर आचार्य जीतमल जी का पट्टोत्सव मनाते थे*
प्रश्न 2515 *पहचानो कौन-*
पूरणमल जी की लाडली,बन्नाजी का हूँ मान
मघवागणी की भगिनी, क्या है मेरा नाम।
*उत्तर-गुलाबा जी*
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