कथा रत्नाकर पच्चीसी
🌹🌹 *रत्नाकर पच्चीसी* 🌹🌹
*✍🏼 भाग --1 ✍🏼*
*रतन का करते जतन, हुआ संयम जीवन से पतन ।*
*मिला सुघन श्रावक रतन, पश्चाताप से किया कर्म कर्तन ।।*
*रत्नाकर पच्चीसी* की रचना क्यों हुई *?* किसने की *?* कब हुई *?* कहा हुई *?*
श्री *रत्नाकरसूरिश्र्वरजी म.सा* विद्वान, प्रखर व्याख्याता एवं अनंतज्ञानी श्रमण थे। उनका तप एवं त्याग उच्च कोटि का था। उनकी वाणी में ओजस्विता एवं तेजस्विता थी।जब वे प्रवचन देते तब माँ सरस्वती उनकी वाणी पर विराजित हो ऐसा जन समुदाय पर प्रभाव होता था। उनकी वाणी में इतना जादू था कि पत्थर को भी पिघला देते।
एक बार विहार करते करते *पूज्यश्री* अपने शिष्य परिवार के साथ *गुजरात के रायखड वडली* गांव में पधारे। उनकी वाणी में इतना प्रभाव था कि जनसमुदाय स्वतः उनकी तरफ आकर्षित होता था। उनके प्रवचन के प्रभाव से कई व्यक्ति *वैराग्यवासित* होकर संत बने और कई *व्रतधारी श्रावक* बने। इस तरह *पूज्य श्री* प्रवचन द्वारा स्व पर कल्याण कर रहे थे।
*सुघन श्रावक एवं पूज्यश्री का मिलन*
*सुघन श्रावक धंधुका* नगरी का निवासी था। वह रूई का बडा व्यापारी था एवं सीजन में *रायखंड वडली* आकर रूई का बड़ा व्यापार करता था। माता पिता के दिए संस्कारों की वजह से उसके हृदय में धर्म भावना भरपूर थी। उसने अपने व्यक्तियों द्वारा जांच करवाई की *वडली गांव* में कोई साधु संत विराजित है या नहीं। जांच दौरान पता चला कि *पूज्य श्री रत्नाकरसूरिश्र्वरजी* यहां बिराजमान है। संस्कारवान *सुघन श्रावक* अपनी धर्म भावना अनुसार उन्हें वंदन करने पहुँचा।वंदन करके उनके प्रवचन को सुनकर *सुघन श्रावक* को संसार असार लगा। उसे संसार से विरक्ति हो गई। सारे दिन बजार में व्यापार हेतु घुमने वाला *सुघन* अब मुश्किल से दो तीन घंटे घूमता। उसे दुन्यवी संसार से तिरस्कार जगा और धर्मव्यवहार अच्छा लगा।
*सुघन श्रावक* के मन में विरक्ति जगाने वाले कोई और नहीं, *अध्यात्म योगीराज पू. रत्नाकरसूरिश्र्वरजी* ही थे। उनकी त्यागमयी वाणी ने मानो *सुघन श्रावक* का जीवन ही बदल लिया। उस पर पूज्य श्री की वाणी का गहरा प्रभाव पडा। अब अपना ज्यादा समय वह उपाश्रय में रहकर गुरूदेव के पास ज्ञान ध्यान को उपार्जन करने का प्रयास करने लगा।उसे अब गुरु केवल गुरु ही नहीं बल्कि भगवान तुल्य लगने लगे।पूज्य श्री के मन में भी *सुघन श्रावक* एक शिष्य एवं अनन्य भक्त लगने लगा। अब *सुघन श्रावक* उपाश्रय में रहकर धर्म ध्यान में समय व्यतीत करने लगा।
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*रत्नाकर पच्चीसी* 🌹🌹
✍🏼 *भाग -- 2* ✍🏼
*श्रद्धावंत श्रावक को आश्चर्य*
*पूज्य श्री दीक्षा पूर्व अबजपति श्रीमंत के पुत्र थे।* दीक्षा पूर्व वे एक अंगूठी पहनते थे। उस अंगूठी में कई सच्चे रत्न थे।जो बहुत किमती थे।रत्नों के प्रति आसक्ति होने के कारण उन्होने उन रत्नों को अंगूठी से निकाला ।अब उन्हें सफेद कपडे में बांधकर अपने पास ही रख लिया। उस कपडे की पोटली को अपने रजोहरण में गुप्त रूप से रखते थे। *रजोहरण का प्रतिलेखन वे स्वयं करते थे* धीरे धीरे ज्ञान में प्रगति की। पूज्य श्री के अनेक शिष्य हुए। उस रजोहरण का प्रतिलेखन अनेक शिष्य होने के बावजूद वे खुद ही करते थे। इसकी वजह सिर्फ उन रत्नों के प्रति उनकी आसक्ति । जब सारे शिष्य अन्य कार्य में लीन होते तब वे उस पोटली को खोलकर रत्नों को देखते और आनंदित होते ह।
एक बार *सुघन श्रावक* ने पूज्य श्री के हाथ में ये रत्न की पोटली को देखा तो वो आश्चर्यचकित हो गया।वो सोचने लगा कि जो वह देख रहा है वह कोई स्वप्न है या हकिकत ।उसके मन में अनेक तर्क वितर्क आने लगा। मेरे गुरूभगवंत बहुश्रुत हैं , शास्त्रों के ज्ञाता हैं।उन्हें यह पता है कि परिग्रह पाप का मूल है।हजारों लोगों को परिग्रह परिमाण व्रत देने वाले, ऐसे मेरे गुरूदेव रत्नों का परिग्रह जानते हुए भी क्यों पास में रखते हैं।अरे पूरा संसार छोड दिया पर रत्न नहीं छूटे। *सुघन श्रावक के मन में ऐसा तर्क वितर्क चल रहा था। उसी समय पूज्य श्री ने रत्नों की पोटली बांधकर फिर रजोहरण में रख दी। गुरूदेव के प्रति अटूट श्रद्धा, आस्था, समर्पण, भक्ति कोई अन्य गुरूदेव के विरोध में बोलता तो उसे तुंरत चुप कराने वाला *सुघन श्रावक सोच में डूब गया। उनके प्रति अटूट श्रद्धा और समर्पणभाव से ही अपना जीवन पूज्य श्री के चरणों में व्यतीत कर रहा था। अगर इन रत्नों की बात स्वयं नहीं देखी होती तो शायद बात अलग होती।पर अब तो प्रत्यक्ष देखा।
अब गुरू के प्रति अपार श्रद्धा का पहाड टूटने के कगार पर आ गया। *सुघन श्रावक* सामायिक लेकर बैठा है लेकिन उसके मन में वही विचार घूम रहा है। मैं अपने गुरूवर को क्या कहुँ , कैसे कहुँ *?* अगर वे न मिलते तो मेरा उद्धार कैसे होता।धर्म का गुढ़ रहस्य कौन समझाता *?* मेरे उपकारी गुरूदेव का अवर्णवाद तो नहीं कर सकता। उनकी भूल बताने के लिए उनके सामने मैं बहुत छोटा हुँ । फिर भी ऐसे ज्ञानी गुरूवर के संयमजीवन पर जो परिग्रह की ममता , आसक्ति का जो पर्दा है उसे तो हर हाल में दूर करना ही पडेगा।तभी मैं उनके उपकार का ऋण चुका पाऊंगा। लेकिन आचार्य श्री को कहना कैसे *?* अन्य शिष्यों को कहने से शिष्यों की गुरूभक्ति में कमी आने की संभावना है। समर्थ गुरु को सन्मार्ग पर लाने के लिए उपाय भी समर्थ चाहिए। जैसे तैसे उपाय करें तो अर्थ का अनर्थ हो जाये ।गुरु के दोष , भूल देखकर भी गुरु के प्रति अपनी आस्था, श्रद्धा समर्पण में कोई कमी नहीं आने दी। *सुघन श्रावक* की जगह अपने आप को रखकर सोचो अपने होते तो........
प्रति दिन नियमानुसार *सुघन श्रावक* उपाश्रय में आता है, वंदन करता है, सामायिक करता है। उसे तो पूरी श्रद्धा थी कि प्रेम से, आदर से ही इसका निराकरण होगा । द्वेष या तिरस्कार से नहीं। पूज्य श्री को कतई एहसास नहीं होने दिया कि *सुघन श्रावक* उनके संयमजीवन या साधुता के प्रति शंकाशील है ।
🙏🏼🙏🏼🙏🏼 *जय जिनेन्द्र सा* 🙏🏼🙏🏼🙏🏼
🌹🌹🌹 *रत्नाकर पच्चीसी*🌹🌹🌹
✍🏼✍🏼 *भाग --- 3* ✍🏼✍🏼
समय व्यतीत हो रहा है। *सुघन* को कोई उपाय नहीं सूझ रहा है।सीधे तो *पूज्य श्री* से यह सवाल नहीं कर सकता कि आप रत्न रखते हो। आपको रत्नों के प्रति मोह है।शिष्यों के मन में गुरु के प्रति जो बहुमान भाव है उसमें कभी कोई कमी नहीं आनी चाहिए और *पूज्य श्री* के मन में रत्न का मोह भी मिट जाए , ऐसा उपाय सोचना पड़ेगा।
*सुघन श्रावक* सोच रहा है कि शास्त्र की ऐसी कोई गाथा मिल जाय या ग्रन्थ का कोई सा कोई श्लोक मिल जाये तो उसका अर्थ पूछने गुरूदेव के पास चला जाऊँ।उस श्लोक का अर्थ समझाते हुए उनका हृदय जाग्रत हो जाएगा। ऐसे श्रावक ही साधु - साध्वी के माता- पिता कहलाते हैं। लेकिन ऐसा जटिल श्लोक मिले कैसे *?* हजारों श्लोक कंठस्थ करने वाले उनका अर्थ समझाने वाले विद्वान आचार्य श्री को श्लोक को समझाना कोई सरल बात तो नहीं है, फिर भी *सुघन* को पूरी श्रद्धा है कि इस कार्य में उसे सफलता जरूर मिलेगी ।
*श्रावक सुघन*; हृदय की हामी से एवं अंतर की भावना से गुरु के प्रति पूर्ण श्रद्धा से हस्तलिखित शास्त्र खोजने लगा ।बहुत सी हस्त - लिखित प्रतियां देखी पढी। अथक परिश्रम के बाद शास्त्रों के महासागर में से चार चरण रूप एक श्लोक मिला। जिसमें *4,000* पंक्तियों का सार था। *उपदेशमाला नामक ग्रंथ* का वह श्लोक लेकर उपाश्रय में आया। *पूज्य श्री* को वह श्लोक दिखाया एवं उसका अर्थ पूछा। *सुघन* जब श्लोक लेकर आया तब वहां कोई शिष्य मौजूद नहीं था। और गुरूदेव रजोहरण का प्रतिलेखन कर रहे थे और रत्नों की पोटली खोलकर रत्न देख रहे थे।
*सुघन* देखकर अटक गये और पूछा अभी क्यों *?* यह किस ग्रन्थ का है *?* गुरूवर यह श्लोक *"उपदेशमाला"* ग्रन्थ का है ।इसमें से इसी श्लोक का अर्थ समझ में नहीं आ रहा है। अगर आपको ज्ञात हो और आपकी अनुकूलता हो तो इसका अर्थ मुझे समझा दीजिए ।
*मोह का नशा उतारनेवाला गारूडी मंत्र सम श्लोक:*
*"दोस सयं मूलं जातं , पुव्वरिसिवि वज्जियं च।*
*जई इमं अत्थं वहसि अणत्थं किं निरर्थक तवं चरसिं"*
उपरोक्त श्लोक आचार्य श्री के हाथ में आते ही वे *सुघन* को समझाने लगे।परिग्रह रखने वाले साधु का उद्देश्य करके यह श्लोक लिखा गया है। उसका अर्थ इस प्रकार है । *सुनो : - श्लोक का अर्थ :-* धन एक दो नहीं पर सैकडों दोषों की भूल एवं सैकडों दोषों का जाल है ।इसलिए पूर्व ऋषियों ने धन का सर्वथा त्याग किया है। हे मुनि उस अनर्थकारी धन को अगर तुम अपने पास रखकर परिग्रह करता है तो फिर फालतु में ये तप का ढोंग क्यों कर रहा है।
*सुघन* ऐसा सरल अर्थ है इस श्लोक का अर्थ समझ में आया *? पूज्य श्री* आपने तो अर्थ सही ढंग से बताया पर मेरी समझ में तो कुछ भी नहीं आया ।तो आचार्य श्री ने फरमाया कल फिर आना , मैं विस्तारपूर्वक समझाऊँगा ।हजारों भक्तों के जटिल प्रश्नों का समाधान मिनटों में करने वाले गुरु अपने खास भक्त के एक श्लोक का समाधान नहीं कर पाए।रोज अर्थ समझाते हैं, परंतु रोज *सुघन* कहता है कि समझ में नहीं आया।
🌹🌹🌹 *रत्नाकर पच्चीसी* 🌹🌹🌹🌹
✍🏼✍🏼 *भाग-4* ✍🏼✍🏼
ऐसा करते करते *छ माह* का समय व्यतीत हो गया पर अर्थ समझ में नहीं आया।इतना होने के बावजूद *आचार्य श्री सुघन* पर थोडा भी क्रोध नहीं आया कि इतनी बार समझाने पर भी सरल सा अर्थ समझ में नहीं आ रहा है। धन्य है ऐसे गुरूवर को और धन्य है ऐसे अनन्य भक्त को।
आखिरकार गुरूवर की नींद खराब हो गई।भूख नहीं लग रही थी।अचानक रात को संथारे से उठे और सोचने लगे।*छ: छ: महिने के बीत जाने पर भी *सुघन* को एक मामुली श्लोक का अर्थ नहीं समझ सका।मनोमन बहुत दु:खी हुए।उनको अपनी विद्वता पर ही घृणा और तिरस्कार आने लगा, धिक्कार है मेरी विद्वता को।जनसमुदाय मेरे गुणों और विद्वता की प्रशंसा करते हैं पर मैं एक मामूली श्लोक का अर्थ अपने खास श्रावक को नहीं समझा सका तो ऐसी विद्वता किस काम की।
*जगत सो रहा था और आचार्य श्री जाग उठे।*
पूरा जग सो रहा था।शिष्यगण भी स्वाध्याय करके सो गये थे। *वडली गाँव* के उपाश्रय में सिर्फ आचार्य भगवंत जाग रहे थे। निद्रादेवी रूठ सी गयी थी सारी रात श्लोक के चिंतन में बिताई। *छ:माह* पूर्ण हो चुके। *सातवें माह* की प्रथम रात्रि। आँखों में आँसू आ गया। *सुघन* को श्लोक का अर्थ क्यों नहीं समझा सका।उन्हें रत्नों की पोटली याद आयी। *अहो ! मैं क्या कर रहा हूं ? नहीं, ये परिग्रह नहीं चाहिए।* प्रातः काल होते ही *सुघन* आया तब रत्नों की पोटली खोलकर रत्न बाहर निकाले।एक पत्थर लेकर रत्नों का चूरा कर दिया और उस चूरे किये हुए रत्नों को बाहर फेंक दिया। *सुघन* की भावना फली उसकी कोशिश रंग लायी। श्लोक के अर्थ से *आचार्य श्री* का मोह टूट गया। उसे अपनी क्रिया में सफलता मिली। फिर भी *सुघन* ने कहा गुरूदेव, आप इन रत्नों का चूरा क्यों कर रहे हो *?* ये तो बड़े किमती है। इन्हें चुरा करके नुकसान क्यों कर रहे हो *?* *सुघन* को गुरूदेव ने कहा तेरे श्लोक का अर्थ *छ: छ: माह* तक समझाने में असमर्थ रहा इसका कारण यह रत्न ही थे। अब तुम अपना श्लोक लाओ।फिर उस श्लोक का अर्थ गुरूदेव ने *सुघन* को समझाया । तो *सुघन श्रावक* ने कहा अब अर्थ समझ में आया।धन सैकडों अनर्थों का मूल है। गुरूदेव ने कृतार्थ भाव से कहा, *सुघन* - तुम मेरे शिष्य ही नहीं बल्कि , मेरी शिथिलता को दूर कर सन्मार्ग पर ले जाने वाला सच्चा श्रावक है।
उस दिन से पूज्य श्री ने जीवन की सारी शिथिलता को दूर किया और पश्चाताप करने लगे। अहो ! आज तक मैं साधु नहीं था। सिर्फ बाह्य दिखावा था ।मेरा क्या होगा *?* *"ठगवा विभु विश्व ने वैराग्य ना रंगों धर्या ।"* बाहर से साधुवेश , अंदर से दंभ । अरे, मैंने लोगों को मूर्ख बनाया ।अज्ञानतावश रत्नत्रयी को छोड़कर ऐसे रत्न रूपी काँच के टुकड़े में ममत्व रखा। आचार्य श्री ने अपने हृदय की वेदना को स्तुतिरूप में संकलित किया। पाप का प्रायश्चित करते -करते *25 श्लोकों* की रचना की और जगत को भेंट किया। महापुरुष की यही अंतर्वेदना जगत के लिए आशीर्वाद रूप बनी। इतिहास कहता है कि *वि.स 1384* में *रत्नाकरसूरीश्वरजी* का स्वर्गवास हुआ पर उनकी अमर कृति आज भी सभी के मुंह पर चल रही है। उनके माध्यम से आज अनेक लोग पश्चात्ताप की पावन गंगा में अपने पाप- मैल धोकर शुद्ध - विशुद्ध बनते हैं।
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🌹🌹🌹 *रत्नाकर पच्चीसी* 🌹🌹🌹🌹
✍🏼✍🏼 *भाग-4* ✍🏼✍🏼
ऐसा करते करते *छ माह* का समय व्यतीत हो गया पर अर्थ समझ में नहीं आया।इतना होने के बावजूद *आचार्य श्री सुघन* पर थोडा भी क्रोध नहीं आया कि इतनी बार समझाने पर भी सरल सा अर्थ समझ में नहीं आ रहा है। धन्य है ऐसे गुरूवर को और धन्य है ऐसे अनन्य भक्त को।
आखिरकार गुरूवर की नींद खराब हो गई।भूख नहीं लग रही थी।अचानक रात को संथारे से उठे और सोचने लगे।*छ: छ: महिने के बीत जाने पर भी *सुघन* को एक मामुली श्लोक का अर्थ नहीं समझ सका।मनोमन बहुत दु:खी हुए।उनको अपनी विद्वता पर ही घृणा और तिरस्कार आने लगा, धिक्कार है मेरी विद्वता को।जनसमुदाय मेरे गुणों और विद्वता की प्रशंसा करते हैं पर मैं एक मामूली श्लोक का अर्थ अपने खास श्रावक को नहीं समझा सका तो ऐसी विद्वता किस काम की।
*जगत सो रहा था और आचार्य श्री जाग उठे।*
पूरा जग सो रहा था।शिष्यगण भी स्वाध्याय करके सो गये थे। *वडली गाँव* के उपाश्रय में सिर्फ आचार्य भगवंत जाग रहे थे। निद्रादेवी रूठ सी गयी थी सारी रात श्लोक के चिंतन में बिताई। *छ:माह* पूर्ण हो चुके। *सातवें माह* की प्रथम रात्रि। आँखों में आँसू आ गया। *सुघन* को श्लोक का अर्थ क्यों नहीं समझा सका।उन्हें रत्नों की पोटली याद आयी। *अहो ! मैं क्या कर रहा हूं ? नहीं, ये परिग्रह नहीं चाहिए।* प्रातः काल होते ही *सुघन* आया तब रत्नों की पोटली खोलकर रत्न बाहर निकाले।एक पत्थर लेकर रत्नों का चूरा कर दिया और उस चूरे किये हुए रत्नों को बाहर फेंक दिया। *सुघन* की भावना फली उसकी कोशिश रंग लायी। श्लोक के अर्थ से *आचार्य श्री* का मोह टूट गया। उसे अपनी क्रिया में सफलता मिली। फिर भी *सुघन* ने कहा गुरूदेव, आप इन रत्नों का चूरा क्यों कर रहे हो *?* ये तो बड़े किमती है। इन्हें चुरा करके नुकसान क्यों कर रहे हो *?* *सुघन* को गुरूदेव ने कहा तेरे श्लोक का अर्थ *छ: छ: माह* तक समझाने में असमर्थ रहा इसका कारण यह रत्न ही थे। अब तुम अपना श्लोक लाओ।फिर उस श्लोक का अर्थ गुरूदेव ने *सुघन* को समझाया । तो *सुघन श्रावक* ने कहा अब अर्थ समझ में आया।धन सैकडों अनर्थों का मूल है। गुरूदेव ने कृतार्थ भाव से कहा, *सुघन* - तुम मेरे शिष्य ही नहीं बल्कि , मेरी शिथिलता को दूर कर सन्मार्ग पर ले जाने वाला सच्चा श्रावक है।
उस दिन से पूज्य श्री ने जीवन की सारी शिथिलता को दूर किया और पश्चाताप करने लगे। अहो ! आज तक मैं साधु नहीं था। सिर्फ बाह्य दिखावा था ।मेरा क्या होगा *?* *"ठगवा विभु विश्व ने वैराग्य ना रंगों धर्या ।"* बाहर से साधुवेश , अंदर से दंभ । अरे, मैंने लोगों को मूर्ख बनाया ।अज्ञानतावश रत्नत्रयी को छोड़कर ऐसे रत्न रूपी काँच के टुकड़े में ममत्व रखा। आचार्य श्री ने अपने हृदय की वेदना को स्तुतिरूप में संकलित किया। पाप का प्रायश्चित करते -करते *25 श्लोकों* की रचना की और जगत को भेंट किया। महापुरुष की यही अंतर्वेदना जगत के लिए आशीर्वाद रूप बनी। इतिहास कहता है कि *वि.स 1384* में *रत्नाकरसूरीश्वरजी* का स्वर्गवास हुआ पर उनकी अमर कृति आज भी सभी के मुंह पर चल रही है। उनके माध्यम से आज अनेक लोग पश्चात्ताप की पावन गंगा में अपने पाप- मैल धोकर शुद्ध - विशुद्ध बनते हैं।
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✍🏼✍🏼 *भाग - 5* ✍🏼✍🏼
*मंदिर छो मुक्तितणा, मांगल्य क्रीड़ा ना प्रभु।*
*ने इन्द्र नर ने देवता ,सेवा करे तारी विभु।*
*सर्वज्ञ छो स्वामी वली, शिरदार अतिशय सर्वना*
*घणुं जीव तुं, घणुं जीव तुं भंडार ज्ञान कला तणा ।। 1 ।।*
हे परमात्मा कितनी बार पैरों से चलकर तेरे द्वार तक आया। पर वो यात्रा सिर्फ पदयात्रा ही बनी रही।क्योंकि उससे मुझसे कोई परिवर्तन नहीं आया। ऐसे तो विचारों के माध्यम से भी मैं कई बार आपके पास आया पर वो यात्रा भी मेरी विचारयात्रा ही बनी रही। क्योंकि मेरे जीवन में उपस्थित दोषों में कोई कमी आयी हो ऐसा महसूस नहीं हुआ। पर आज मैं तुम्हारे समक्ष उपस्थित हुआ हूँ, अंत:करण पूर्वक हृदय की शुद्धता , मन की पवित्रता, आँखों में आँसू लिए हुए। आज मुझे पूर्ण विश्वास है कि ये यात्रा सिर्फ पदयात्रा या विचार- यात्रा न रहकर भावयात्रा में परिवर्तित होगी । और ये भावयात्रा मुझे भयमुक्त एवं भवमुक्त बनाकर ही रहेगी। ऐसा मुझे विश्वास है और मैं तुम्हें पहचानता हूँ, ऐसा तो कैसे कहूँ *? क्योंकि : -*
एक ओर चक्रवर्ती, देव देवेन्द्र पूजित प्रचंड पुण्य का स्वामी है। दूसरी ओर मुनि, महामुनि गणधर पूजित अंनतगुण के मालिक हैं। आपके चरणों में रहने का अवसर मिले ऐसा देवेंद्र भी चाहते हैं और अपना सौभाग्य मानते हैं। तुम्हारी कारणासागर भरी दृष्टि का एक बिन्दु भी किसी को प्राप्त हो जिसे गणधर भगवंत भी अपना सौभाग्य मानते हैं। ऐसे आपके प्रचंड पुण्य के वैभव की एवं अनंत गुण के वैभव को समझने की मुझ जैसी अज्ञानी आत्मा की क्या मिशाल है *?* फिर भी एक बात पक्की है कि तु सर्वज्ञ है , सर्वदर्शी है। जगत के सभी जीवों के भावों को तु जानता है। आश्चर्य तो इस बात का है कि जैसे दर्पण सभी पदार्थों को अपने में प्रतिबिंब करता है फिर भी अपनी निर्मलता एवं स्वच्छता नहीं खोता है। वैसे ही समस्त जगतरूपी अरूपी सभ स भाव तेरी ज्ञानदृष्टि से देखने के बाद भी तेरी निर्मलता , करूणा, गंभीरता, सरलता वही रहती है।कुछ कम नहीं होती। इसका आशय यह नहीं कि तुम आईना या दर्पण है। क्योंकि आईना तो सामने पड़ें हुए कचरे को अपने में प्रतिबिंब करके वो कचरे से वासित या गंदा तो नहीं होता लेकिन उस कचरे को उद्यान में नहीं बदल सकता है। जबकि तुम तो. ...... व्यभिचारीयों के व्यभिचार को, दुराचारियों के दुराचारी को, कामांधो की विषय - वासना को, धनलंपटों की अर्थलालसा को हत्यारों की क्रूरता को देखकर भी इनसे वासित तो नहीं होता लेकिन उन दोषों से ग्रसित आत्माओं के उन दोषों को नष्ट भी कर देता है। अरे ! उन सबको अपने जैसा बनाने का प्रयत्न करता है। इसका अर्थ *?* तुम मात्र सर्वज्ञ ही ब्लकि तेरी शरण में आने वाले को तुम सर्वज्ञ बनाने का प्रयत्न करता है। क्या कहुँ तुम्हें *?* मैं एक साथ आंसू आनंद
एवं आधारित ये तीन चीजें लेकर तुम्हारे पास आया हूँ अनंत दोषों से भरी ये आत्मा है। ये सोचकर आंखे भर आती हैं।मेरे तमाम दोषों को नष्ट करने का प्रयत्न करने की प्रचंड ताकत रखने वाले अब आपके जैसा नाथ मुझे मिल गया।यह सोचकर अत्यंत खुशी होती है।अब तो सतत यही भावना है कि आपके द्वारा बताए गए मार्ग पर चलकर जल्दी से जल्दी आपके जैसा बनुं। मुझे पूर्ण विश्वास एवं अटूट श्रद्धा है कि आपके चरणों को स्वीकार कर मेरे आंसू को भूतकाल बना देंगे ।मेरी अधीरता को नष्ट कर देगा और मेरे आनंद को शाश्वत रूप दे देगा। परंतु एक बात मेरे दिल में धर कर गयी है कि तेरे वचनों को सुनने का सौभाग्य कई बार मिला , उनको समझने में मेरी बुद्धि का उपयोग किया।पर मैं आपको अपना नहीं बना पाया।इसका कारण मात्र इतना है कि - मुझे कान से सुनना था, आँख से देखना था, बुद्धि से समझना था किंतु स्वीकार तो हृदय से करना था।वहां मैं हार गया।सुनने का काम अगर कान की बजाय आँख को दिया जाए तो मार खाने का ही वक्त आता है। ठीक वैसे ही तुझे स्वीकार करने का काम हृदय के बदले मन को दिया जाए तो परिणाम विपरीत ही आता है।मैंने एक बार भूल की है अब उसे दोहराना नहीं चाहता।
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🌹🌹🌹🌹 *रत्नाकर पच्चीसी*🌹🌹🌹🌹
✍🏼✍🏼 *भाग - 6* ✍🏼✍🏼
जैसे एक नन्हा बालक जिसने अभी आँख भी नहीं खोली वो अपनी माँ को बिना देखे, बिना सोचे - समझे सीधा उस माँ को स्वीकार करता हैँ और उसे स्वीकार कर अपने माँ के हाथों में अपनी सलामती समझता है।, ठीक वैसे ही तुझे देखने, सुनने, समझने की बातों में उलझे बिना तुम्हें स्वीकार करना चाहती हूं। इतनी ही अर्ज है मेरी कि *:-*
जैसे सम्पत्ति की सलामती के लिए घर के मालिक को जागृत रहना पड़ता है।वैसे ही मेरे सद्गुणों , समाधि एवं सद्बुद्धि की सलामती के लिए तुझे मेरे हृदय में रहना पड़ेगा।सतत् मुझे जागृत रखना पडेगा। आज तक मैंने अपने हृदय में पदार्थों को जिंदा रखा था।, परिवार को जिंदा रखा था।प्रसिद्धि की इच्छा कि थी उसके फलस्वरूप उसके कटुफल संसार में देखे। उन सबसे बचने का अगर कोई उपाय है तो वह है हृदय में तेरी प्रतिष्ठा । तेरी उपस्थिति।
जैसे *:-*
*चंदनवन में मोर की उपस्थिति और*
*चंदनवन में चंदनवृक्षों पर रहे सर्पों की समाप्ति ।*
*शहर में पुलिस की उपस्थिति और*
*सडकों पर रहनेवाले गुण्डों की समाप्ति।*
*प्रभु मेरे हृदय में तेरी उपस्थिति और*
*आत्मा में रहे हुए कर्मो की समाप्ति*
*दोषों की गैरहाजिरी , कुसंस्कारों की होली ।*
*संकलेशों की श्मशान - यात्रा, और दुर्बुद्धि की समाप्ति।*
*रत्नाकरसूरिजी महाराज रत्नाकर पच्चिसी* की प्रथम गाथा में कहते हैं कि. ...
मंदिर ये शब्द सुनते ही अपने दिमाग में संगमरमर के श्वेत पत्थरों से निर्मित गगनचुंबी जिनालय जिनके उपर स्वर्ण का कलश शोभायमान हो, ध्वजा फहराती हो, दीपक का प्रकाश हो, घंटनाद से गूंजता हो, धूप से सुगंधित हो, भक्तजनों की भीड हो सबका आकर्षण केन्द्र समान पवित्र स्थान आ जाता है।
यह शिल्प एवं स्थापत्य के अजोड़ उदाहरणरूप स्थावर मंदिर की बात नहीं है।आचार्य श्री ने तो चैतन्यवंता , महामना एवं जंगम मंदिर को स्मृति में लाया है। *" मंदिर छो मुक्ति तणा "* हे परमात्मा आप साक्षात् मुक्ति के मंदिर हो, मोक्ष के धाम हो।
परमात्मा मुक्ति के मंदिर कैसे बन सके।विश्व के सभी दर्शनों की आत्मा एवं परमात्मा के विषय में भिन्न भिन्न धारणा है।ईश्वर कर्तृत्ववाद एवं एकेश्वरवाद में माननेवाले दार्शनिक कहते हैं कि ईश्वर एक ही है वही सृष्टि का सर्जक। अन्य सभी जीव उसके अंश है।जबकि जैन दर्शन की मान्यता है कि *" अप्पा सो परमप्पा "* आत्मा ही परमात्मा बन सकती है। *कैसी आत्मा परमात्मा बन सकती है ?* जो मानव आकृति को प्राप्त होने के बाद मानव प्रकृति को प्राप्त करके परमात्मा बनते है , वो ही मुक्ति मंदिर बनना या मुक्ति के धाम को पाना है।
जैसे शुद्ध घी के पर्याय को प्राप्त करने के लिए दुध को अनेक क्रियाओं से पार होना पड़ता है वैसे ही मानव को महामानव , जीव से शीव, रागी से विरागी , विरागी से वितरागी या आत्मा से परमात्मा बनने के लिए अनेक कार्य या क्रियाएं पूरी श्रद्धा से करनी पड़ती है।
🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼 *जय जिनेन्द्र सा* 🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼
🌹🌹🌹🌹 *कृष्णगिरि मंडल 10* 🌹🌹🌹🌹
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🌹🌹🌹 *रत्नाकर पच्चीसी* 🌹🌹🌹
✍🏼✍🏼 *भाग - 9* ✍🏼✍🏼
हे परमात्मा माँ का इतना प्यार, वात्सल्य, स्नेह होता है कि वो अपने बच्चे को नीचे नहीं गिरने देती ये तो मुझे पता था।परंतु आपका हाथ एक भी जीव को दुर्गति में नहीं जाने दे, दुर्बुद्धि का शिकार नहीं बनने दे दु:खों के भाजन से दूर रखें।इसके बारे में मुझे अभी पता चला। तब सोचता हूँ कि ऐसा प्रचंड अद्भुत सामर्थ्य तुझ में कहा से आया *?* संत एवं सज्जन के लिए आधारभूत आलंबनरूप या सहायभूत हो वो मान सकते हैं, परंतु दुर्जन एवं दुर्व्यवहारी , कमजोर एवं कठोर आत्मा के लिए भी तुम आधार बनो ये कैसे हो सकता है *?* इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए मैंने आपके हृदय में झांका तो मुझे तुरंत समाधान मिल गया।वहाँ मैने निहारा करूणा का महासागर।अगर मेरा बस चले तो इस जगत के सभी जीवों को पापमुक्त दु:खमुक्त एवं दोषमुक्त और कर्मयुक्त बना दूँ।सवि जीव करूँ शासन रसी की भावना के हिलोरे लेते हुए, मैंने करूणा के महासागर में देखा। और मुझे विश्वास हो गया कि जिस हृदय में ऐसी करूणा व्याप्त हो उनके हाथ में आधार बनने का सामर्थ्य न हो तो दूसरे किसके हाथ में होगा *?* एक तरफ हम सबका आधार तुम हो, दूसरी तरफ हम सबका वैद्य भी तुम हो।
*वली वैद्य हे दुर्वार आ संसार ना दुखों तणा*
अगर अग्नि में शीतलता का अनुभव हो , सिंह अगर शाकाहारी हो जाये, अमावस्या की रात को चन्द्रमा देखने को मिले एवं पत्थर पर कमल खिलता होता तो इस संसार में केवल सुख ही सुख नजर आता लेकिन ये संसार दुख का दरिया है।इस संसार के दुख दूर्वार नाश नहीं हो पाये ऐसा हैं। इस संसार की इमारत दुख मूलक है इसलिए दुखों के मूल पर खड़ी हैं। इस दुख का मूल कारण है - आत्मभीति से अज्ञानता से किए हुए पापकर्म ।शास्त्रों के अनुसार दशांगी यानि सुख के दस प्रकार दिखाये गये हैं।उनमें से नौ सुख हो तो भी एक सुख के अभाव में वो नौ सुख के आनंद लुप्त कर देता है। और वो एक सुख को प्राप्त करने के लिए ही पुरूषार्थ करता ही रहता है।सांसारिक सुख दुखमिश्रित एवं विनाशी है।महावीराष्टक में कहा है -
*महा मोहे रोगे, सुखकर समा वैद्य जगना*
*विना पेक्षा बंधु , अशरण भयाकुल जनना*
*खरूं साधुनुं छे, भवशरण जे उत्तम गुणे*
*महावीर स्वामी नयन पथगामी जिनवरा*
संसार के सभी जीव मोहनिय कर्म के रोग से पीडित हैं म उनके दर्द को दूर करनेवाला परमात्मा वैद्य समान है।शारीरिक दर्द को करने के लिए जैसे जानकार वैद्य एवं सही निदान जरूरी है।वैसे ही जीव के अज्ञानरूपी रोग को दूर करने के लिए परमात्मा वैद्य समान है।परमात्मा तु ही मेरा वैध्य है, क्योंकि चाहे सताता हो वासना का रोग या संक्लेश का रोग, चाहे हम जलते हो क्रोध की अग्नि में या लोभ के दावानल में हम क्षत विक्षत बन गए हों चाहे माया के डंख से या अभिमान की ठोकर से, इन तमाम रागों एवं दुखों का नाश करने वाला एक मात्र तु ही है।क्योंकि तेरे हृदय में बहती हम सब पर बरसती तेरी अपार करूणा ।ऐसा आधारदाता करूणासागर रोग, दोष दु:खनाशक तु ही है। हम सबका वल्लभ अगर तु न बने तो ही आश्चर्य ।प्रीति पात्र न बनें तो ही आश्चर्य शरणभूत न बने तो ही आश्चर्य तेरी ऐसी निर्बाध्य करूणा देखकर ही तेरे पिछे पागल बने किसी भक्त ने कहा है-
*आम ने आम तुं वधारे गयो दिल नो लगाव*
*आखरे मारे प्रभु करवुं पड्युं तेडुं के तुं आव*
*आ समंदर नुं कयु तुफान ए कोने खबर?*
*मैं तो बस वेहती मुकी दरिया में टुटेली नाव*
स्वीकार है या संसार तो सिर्फ दुखों का सागर ही नहीं महासागर है।अच्छे से अच्छा तैरने वाला भी इसमें डूब जाता है।विराटकाय जहाज भी इसमें समा गये हैं।ये जानते हुए भी मैं इस महासागर में नाव लेकर खड़ा हूँ और वो नाव भी टूटी हुई है फिर भी मैं निश्चिंत हूँ क्योंकि ये नाव मैंने तेरे भरोसे छोड़ी है।
*संसार अगर दुखों का महासागर है।*
*तो तु करूणा का महासागर है।*
डुबाना ही इस संसार का स्वभाव है तो उगारना ये तेरा स्वभाव है।
रत्नाकर पच्चीसी
भाग- 7
रत्नाकरसूरिजी आगे कह रहे हैं कि -
" मांगल्य क्रीड़ा ना प्रभु "
क्रीड़ा आनंददायक ही होती है। उसके अनेक प्रकार होते हैं।यहाँ परमात्मा ने कहा है कि आप मांगल्य क्रीड़ा के धाम हो।स्थान वह हे जो आत्मा को आनंद दे।अज्ञानी की क्रीड़ा में मांगल्य के भाव नहीं होते।मंगल किसको कहते हैं *" मां पाप गालयति इति मंगलम् "* जो पाप का सर्वनाश करे वो मंगल।
*" मंगलं सुखं इति मंगलम् "* जो सुख को लाये वो मंगल।
जगत के जीवों के पापों को नष्ट करके सुख दिलाने वाले मंगलकारी क्रीड़ा के आप धाम हैं। शुद्ध आत्मा सत् , चित्त एवं आनंद स्वरूप होती है।परमात्मा इन तीनों चीजों से युक्त है इसलिए मांगल्य क्रीड़ा के धाम है।
अनेक देवता प्रभु की सेवा में तत्पर रहते हैं।इसलिए आगे आचार्य श्री कह रहे हैं।
*ने इन्द्र नर ने देवता सेवा करे तारी विभु ।*
*भक्तामर स्त्रोत* में मानतुंग सूरिजी कहते हैं कि भक्ति से देवलोक के देवतागण , इन्द्र आपके चरण में झुकते है। *श्री कल्याणमंदिर स्त्रोत* में सिद्दसेन दिवाकर सूरिजी कहते हैं कि :- *देवेन्द्र वन्ध विदिता खिल वस्तुसार -* विश्व के सार को जानने वाले हे प्रभु पार्श्वनाथ आप देवेंद्रों से बंध हो।नरेंद्र एवं देवेन्द्र उनकी विशिष्ट संपत्ति के अहम् का त्यागकर त्यागधर्म की साक्षात् मूर्ति समान आपके चरणों में नतमस्तक होने के लिए तत्पर रहते हैं।
विश्व के प्रत्येक क्षेत्र में दो वर्ग देखने को मिलते हैं:-
*सेव्य वर्ग - जिनकी सेवा की जाये वे*
*सेवक वर्ग - जो सेवा करे वो*
नोकर सेठ की सेवा करे, शिष्य की सेवा करे वैसे ही भक्तजन भगवान की सेवा करे। तीर्थंकर नाम कर्म के उदय से तीर्थंकरों की सेवा में करोड़ों में देवतागण उपस्थित होते हैं। अवधिज्ञान के उपयोग से परमात्मा जहाँ देशना देने वाले हैं वहां समवसरण की रचना करते हैं।परमात्मा जहाँ चरण धरे वहाँ लाखों पंखुडी सहित पद्मकमल उपस्थित होते हैं।बारह गुणा अशोक वृक्ष, छत्र, चामर , देव- दुंदुभि , पुष्प- वृष्टि आदि की रचना सब देव करते हैं। आगे कह रहे हैं कि -
*सर्वज्ञ छो स्वामी वली शिरदार अतिशय सर्वना*
जो सबको जानते हैं वे सर्वज्ञ हैं। हे परमात्मा आप सर्वज्ञ हो।उर्ध्वलोक अधोलोक एवं तिर्च्छालोक , ऐसे तीन लोक , तीन काल के सर्व भावों को हस्तरेखा की तरह जो देख सकते हैं, वे सर्वज्ञ हैं। परमात्मा आप सभी अतिशयों की विशिष्टताओं से शोभायमान हो ।अतिशय यानि जो सर्व - सामान्य जीवों में न हो सिर्फ तीर्थंकरों में हो वही अतिशय।
आदिनाथ परमात्मा के देह वैभव का वर्णन करते हुए श्रीमद् मानतुंगसूरि कहते हैं - हे नाथ शांत रसरूपी जो परमाणुओं में से त्रिभुवन के अतिशय युक्त ऐसे आपके शरीर का निर्माण हुआ है। इस लोक में आपके जैसा रूप दूसरे किसी का नहीं है।जैसे परमात्मा की आकृति अद्वितीय है वैसे ही परमात्मा के अतिशय भी अद्वितीय होते हैं।तीर्थंकर परमात्मा 34 अतिशय सहित होते हैं।
आज पुरूषों में प्रमुख आचार्य श्री कह रहे हैं कि - हे परमात्मा आप इन सब अतिशयों सहित प्रथम स्थान पर हो। आगे आचार्य श्री कहते हैं : -
*घणुं जीव तुं घणुं जीव तुं भंडार ज्ञान कला तणा*
आप बहुत बहुत जीओ आप अनंत अनंत ज्ञान, गुण, कला के भंडार हो।आपका खजाना भरा हुआ हो।वो भंडार अखंड है।
🙏🏼🙏🏼🙏🏼 *जय जिनेन्द्र सा*🙏🏼🙏🏼🙏🏼
🌹🌹🌹 *रत्नाकर पच्चीसी* 🌹🌹🌹
✍🏼 ✍🏼 *भाग-10* ✍🏼✍🏼
*भयभीत करते रहना संसार की खासीयत है,*
*तो निर्भयता प्रदान करना ये तेरी विशेषता है।*
अब तु ही कह कि मैं रोगमुक्ति के लिए तेरे पास अरज न करूँ तो किसके पास करूँ *?*
मैं अपने दोषों के निवारण के लिए तुझसे याचना ना करूँ तो किसके पास करूँ *?*
मेरे पापों के प्रायश्चित रूपी आंसू तेरे पास न बहाऊँ तो किसके पास जाकर बहाऊँ *?*
मैं मेरी कर्म कथनी को तेरे सामने पेषित न करूँ तो किसके पास पैश करूँ *?*
तू शायद ये कहेगा कि :-
तुझे तो मैं नख , शिख तक पहचानता हूँ।काले अंधकार में रात को 12 बजे तेरे मन में चलते विचार को मैं जानता हूँ।
श्वेत वस्त्रों में छुपी हुई तेरी शैतानियत को भी मैं अच्छी तरह जानता हूँ।
फिर भी मैं तेरे पास अपने जीवन के पुस्तक के सभी पन्नों को खोलकर रखना चाहता हूं क्योंकि कुछ दुख ऐसे भी होते हैं जिन्हें कहने मात्र से इन्सान हल्का हो जाता है।चाहे सामन ऐ वाला दुख दूर करने में सक्षम न भी हो। अब तेरी तो बात ही न्यारी है।
तेरे सामने पेश किया नहीं कि तुने मुझे पापमुक्त बनाया नहीं।तेरे सामने मैंने मेरा कलंकित भूतकाल को पेश किया नहीं कि तुने मेरा भविष्य उज्ज्वल बनाया है।तेरे सामने आंसू की गंगा बहाते ही तूने मेरे मुख के पल भर में स्मितमयी कर दिया। एक बात की मैं क्षमा चाहता हूँ तेरी सर्वज्ञता को मैंने स्वीकारा है फिर भी मैं तेरे समक्ष मेरी कलंक कथा कह रहा हूँ, इसका अर्थ यह नहीं कि मुझे तेरी सर्वज्ञता में शंका है।तेरी सर्वज्ञता में तो मुझे संपूर्ण श्रद्धा और आस्था है। इतनी अटूट श्रद्धा होते हुए भी मैं मेरी कथा तुझे सुना रहा हूँ तो उसका एक कारण है मैं अहंकारी हूँ।एक छोटा सा भी सत्कार्य करता हूँ तो सारे जग में ढिंढोरा पिटता हूँ और अपने अहंकार को पृष्ट करता हूँ।मेरे जीवन में असंख्य दोष विद्यमान हैं फिर भी अहं के कारण उनको छुपाने का काम करता हूँ।और अपने आपको बड़ा दिखाता हूँ।अपने अहं को भी छिपाता हूँ।मेरे अहं को तोड़ने का एक मात्र उपाय है कि मैं स्वयं ही मेरे जीवन के सारे दोष रूपी, अवगुण रूपी जहर के सामने रखे हुए दंभ यानी अहम् के पत्थर को हटा दूँ और तेरे समक्ष जैसा हूँ वैसा प्रकट हो जाऊँ ।
क्या कहूँ तुझे *?*
मल से भरे हुए पेट को खाली करने के स्थान तो इस जगत में कहाँ नहीं है वो प्रश्न है *?* मुझे तो मेरे हृदय में जमें हुए राग - द्वेष के मल को, विषय कषाय के मल को ,अपेक्षा अहंकार, असद्द आग्रह के मल को निकालने का स्थान ढूंढना था। अचानक तु मिल गया।मैं खुश हो गया।क्योंकि इस जगत में तु ही एक ऐसा स्थान है जहाँ एक बार उक्त दोष रूपी मल निकालने के बाद वापस नहीं जमता।
तू ही एक ऐसा स्थान है जहाँ हृदय के मल को खाली करके धिक्कार नहीं मिलता ब्लकि स्वीकार मिलता है।तिरस्कार नहीं मिलता ब्लकि प्यार मिलता है। अवगणना नहीं होती बल्कि गणना होती है।सजा नहीं मिलती बल्कि क्षमा मिलती है ।
रत्नाकर पच्चीसी
भाग -11
*शुं बालकों माँ - बाप पासे बाल क्रिड़ा नव करें ?*
*ने मुखमांथी जेम आवे तेम शुं नव उच्चरे ?*
*तेमज तमारी पास तारक, आज भोला भावथी*
*जेवुं बन्युं तेवुं कहुँ एमां कशु खोटुं नथी ।। 3 ।।*
हे परमात्मा हे देवाधिदेव , हे तरण-तारण नाथ ! मोह के नशे में लिप्त मेरी स्थिति एक शराब पीने वाले शराबी जैसी थी।
कहते हैं कि मुँह में से अयोग्य वचन एक शराबी बोलता है।विपरीत चेष्टाएं भी करता है।पर उसके वे वचन कर्णप्रिय नहीं होते और उसकी चेष्टायें भी चक्षुप्रिय नहीं बनती।क्योंकि उसके अयोग्य वचन और विपरीत चेष्टाओं के पीठबल में सरलता नहीं होती पर शराब का नशा होता है।जब कि छोटे बालक के मुँह से निकले अपशब्द या उसकी चेष्टाएं जो हास्यापद होती है वो उसके माता - पिता को कर्णप्रिय एवं चक्षुप्रिय भी बनती है।उसके पिछे दो कारण है। प्रथम तो वो है कि यह बालक मेरा है और दुसरा मुख्य कारण है कि बच्चे के पास सरल चित्त होता है निर्दोष एवं निर्दंभ चित्त होता है।...... हे परमात्मा
वो ही छोटे बच्चे की भूमिका लेकर आज मैं आपके सामने उपस्थित हुआ हूँ।हे परमात्मा आपने मुझे अपना माना ही है, आपने मुझे स्थान दिया ही है।ये तो मुझे पता है क्योंकि इस जगत में मेरे हित की चिंता अगर किसी ने की है तो परमात्मा ! आपने ही की है।माता - पिता तो बच्चे की ज्यादा से ज्यादा सुख की चिंता करते हैं लेकिन हे प्रभु ! आपने तो मेरे सुख से भी बढकर मेरे हित की चिंता की है । माता- पिता तो बच्चों को दु:ख से बचाने के लिए ही पुरूषार्थ करते हैं परंतु हे परमात्मा ! आपने तो दुःख से आगे बढ़कर मुझे दोष से , दुर्बुद्धि से एवं दुर्गति से भी बचाने का प्रयत्न किया है।तेरी ये सारी कोशिश यही साबित करती है कि आपके हृदय में आपने मुझे स्वजन का, आत्मीयजन का स्थान दे दिया है।हालांकि ये स्थान आपने मुझे आज या कल नहीं दिया बल्कि अनंत काल से ये स्थान आपने मुझे दिया हुआ है।पर हे परमात्मा. ......
*मैं था मोह के नशे में लिप्त*
*भक्ष्याभक्ष्य में आसक्त*
*हिताहित से रिक्त आत्मीयजन से अनजान*
*दुःख दोष के बीच अभेद*
*सुख सदगुण के लाभ को समझने की बुद्धि नहीं*
*आलोक - परलोक को निहारने की दृष्टि नहीं*
संक्षेप में शराबी जैसी थी मेरी स्थिति, परिस्थिती, मनस्थिति। शराबी जैसे अपने बाप को भी गालियाँ दे दे तो उसको भान नहीं रहता।वैसे मैंने भी आपको भला बुरा कहाँ।शराबी अगर दूर्गंध से भरी नाली में लेटने के लिए तैयार हो जाये ठीक वैसे ही मैं विषय- वासना, काम - वासना, कामांधता रूपी नाली में लोट रहा था।शराब पीने वाला अग्नि में भी कूदने के लिए तैयार हो जाए वैसे ही मैं भी दावानल समान कषायों में सतत लिप्त बनती गयी ।ऐसी परिस्थिति में भी मुझे भले ही तेरा मानना था फिर भी मैं तो इन सब में लिप्त होकर तेरे से दूर भागने की कोशिश की है। ऐसी परिस्थिति में आपको अपना नहीं बना सका मैं हृदय में आपको स्थान नहीं दे सकी ।पर आज परिस्थिति पूर्णतयाः विपरीत है।आपकी कृपा की वजह से ही मैं इस मोह के नशे में से कुछ मुक्त होकर आपके पास आने का भाव जगा रहा हूँ।
हित अहित के ज्ञान की संपूर्ण रीति समझ पाऊँ ऐसी प्रज्ञा एवं श्रद्धा के स्वामी बालक की तरह मैं अभी तक नहीं बना हूँ।पर जैसे बच्चा अपना पराय के भेद को समझ सकता है। अन्य स्त्री को छोंडकर अपनी ही माँ के पल्लु में छिपता है, अन्य पुरूषों को छोड़कर अपने ही बाप के कंधे पर खेलता है ठीक वैसे ही हे परमात्मा ! आप ही मेरे हितैषी है इस रिश्ते को में अच्छी तरह जान गई हूँ।
*तेरे चरणों में ही मेरी सलामती है।*
*तेरे शरण में ही मेरी समाधि है।*
*तेरी कृपादृष्टि में ही मेरी पवित्रता अटुट है।*
*तेरी आज्ञा पालन में ही मेरी परलोक की कमाई है।*
रत्नाकर पच्चीसी
भाग - 12* ✍🏼✍🏼
इस वास्तविकता का मुझे पक्का पता लग गया है। इसलिए आज मैं आपके समक्ष मेरा कलंकित भुतकाल जैसा है, वैसा प्रकट करने के लिए उपस्थित हुआ हूँ ।
क्या कहूँ तुझे *?*
बालक और मेरे बीच में जो भी फर्क है वो यह है कि बालक के पास निर्दोष नग्नता है और मेरे पास निर्दोष जबरदस्ती है ।माता पिता के समक्ष नग्नता के दर्शन कराने में बालक कोई शर्म, संकोच या भय नहीं होता ठीक उसी तरह आपके समक्ष मेरी जबरदस्ती प्रकट करने में संकोच या भय क्यों होगा।
मुझे पूर्ण श्रद्धा है कि जो स्नेह एवं वात्सल्य से बालक की नग्नता को उसकी माता ढक देती है। उसी प्रकार उससे भी अंनतगुणा वात्सल्य एवं परम करूणा से तु मेरी जबरदस्ती को सिर्फ ढकने वाला नहीं बल्कि सदा के लिए उस जबरदस्ती से मुक्त करने का प्रयत्न करेगा ।इसका मुझे दृढ़ विश्वास है।आज मुझे याद आ रही है रविन्द्रनाथ टैगोर की कि हुई प्रार्थना :-
*हे करूणामयी स्वामी*
*तेरी ही इच्छा पूर्ण हो*
*तेरा ही प्यार स्मरण में रखुं*
*तेरे ही चरण की आशा रखुं*
*दुःख आप ताप संताप सब सहन किया*
*तेरी प्रेम रूपी आँख सदा जागती है*
*ये जानकर भी मैं अनजान हो रहा हूँ*
*उस मंगल स्वरूप को भूल जाता हूँ*
*इसलिए मैं शोक सागर में डूब रहा हूँ*
*आनंदमय तेरा विश्व शोभा सुख से पूर्ण है*
*मैं मेरे दोषों से दुखी होता हूँ*
*मैं वासना का अनुगामी हूँ*
कठोर आघात से मेरे मोह के बंधन को नष्ट कर दे भीगी आँखों वाले हृदय में आप ही रहो।
अलबत्ता फिर भी. .....
तुम ऐसा कर तुम वैसा कर ऐसी में जब आपको विनती करता हूँ तब आप नहीं मानेंगे और सच है कि मैं उस समय अपराधभाव के सोच का अनुभव करता हूँ , क्योंकि मेरे हित की चिंता के लिए, हित को आबाद रखने के लिए आपके तरफ से आपने कोई कसर नहीं छोडी।
जो बदमाशी की है वो मैंने की है
आपने मुझे सद्गति में भेजने का सदअनुष्ठान दिखाया।
पर मैंने उनके सामने आंखें बंद रखी।
आपने मेरी समाधि को टिकाने के लिए सम्यक् समझ दी
पर मैंने दुर्बुद्धि को अपनाया।
आपने मुझे परमगति मोक्षगति की परम राह दिखाई पर मैंने दुर्गति की राह पर कदम रखे।
आपने मुझे पवित्र बनाने की कोशिश की है पर मैंने अपवित्रता से यारी की।
संक्षेप में
मेरे सब दुःखों, दोषों दुर्बुद्धि एवं दुर्गति की परंपरा की सारी जिम्मेदारी मेरी ही है।
आज तक उन तमाम दोषों, दुःखों को जन्म देने वाली क्रियायें जो भूतकाल में मैंने की है, वर्तमान काल में हो रही है वो सारी भावनायें तेरे समक्ष भोले भाव से जैसी थी वैसी प्रकट कर रही हूँ।आपको दिखाने के लिए नहीं बल्कि मेरे हृदय को रिक्त करने के लिए।
हे परमात्मा रूपी माँ या माँ रूपी परमात्मा तेरे इस बालक को तेरे चरणों में स्थान देकर पल पल जागृत करने की कोशिश करना।
अंत में हे परमात्मा
*आप ही मेरी वात्सल्यमयी हो माता*
*आप से ही जोडा है मैंने नाता*
*कर्मो का बंद करना है खाता*
*आज तक की है मैंने सिर्फ बातां*
*संसार की खायी है मैंने लाता*
*रत्नत्रयी का देना मुझे भाता*
*आपकी शरण में मिलती है शाता*
*आप हो परमात्मा बड़े दाता*
🙏🏼🌹🙏🏼 *जय जिनेन्द्र
रत्नाकर पच्चीसी
भाग - 14
उसके बारे में तो बोलने लायक भी नहीं हूँ। बिना कोट या दरवाजे और पहरे बिना के नगर पर सदा दुश्मन का भय रहता है। वैसे ही खुले खेत में खड़ी फसल को पशुओं के खाने का डर रहता है। आवारा गलियों में घूमने वाले पशु जैसे लकड़ी की मार सहन करते हैं।वैसे ही खुले में रखे जेवरात या अलमारी, तिजोरी में रखकर ताला न लगाओ तो उनको सतत चोर लूटेरों के ले जाने का डर रहता है। वैसे ही इन्द्रियों पर लगाम नहीं लगाने से मैं कर्मसत्ता के हाथ लुटाता ही रहा हूँ दुःखी होता ही रहा हूँ।परेशान होता ही रहा हूँ। कहते हैं कि पानी को बहाव या कटाव मिल जाये तो पानी टिकता नहीं बहने लगता है ठीक वैसे ही कुछ प्रलोभन लालच मिला और मैं पतन की खाई में गिरने के लिए भी तत्पर हो गया।लेकिन सही बात तो यह है. ......
अगर कान को सुनने से मन न भरा होता तो मैं विलासी गीतों के श्रवण से नहीं अटकी होता।जीभ को खाने से अगर अरूचि नहीं हुई होती तो मिष्ठान्न एवं मसालेदार भोजन से विरक्त नहीं बना होता। अगर आँखों शर्मित नहीं हुई होती तो विजातीयों के रूप दर्शन में पागल बन चुका होता। अगर शरीर की इन्द्रियों में शिथिलता नहीं आयी होती तो काम वासना से कभी संतुष्टि नहीं होती। इतना कहना चाहता हूँ कि इन्द्रियों ने भले ही थकान महसूस कर ली है परन्तु मन अभी भरा नहीं। मन तो स्वाद के नशे में मस्त बना है। अपना अस्तित्व और मान भूल गया है। शील और सदाचार की महिमा जानते हूए भी अनजान बन बैठा हूँ इसलिए भोग की मजा के सामने रोग की सजा को मैं भूल गया हूँ।
बिना अतिशयोक्ति कह सकती हूँ कि स्वेच्छाचार की दुनिया में मैंने पशुओं को भी पिछे छोड़ दिया है और सुअर का विष्टा प्रेम मेरे भोजन प्रेम के सामने कुछ भी नहीं है।सांड की कामांधता मेरी कामांधता के सामने कुछ भी नहीं है अर्थात शून्य है।समडी का चर्म प्रेम मेरा चमडी से खेलने, चाटने के प्यार के सामने नहींवत् है।सिंह की क्रूरता मेरी क्रूरता के सामने सामान्य है।संक्षेप में विषय सुखों के आकर्षण ने मुझे पूर्ण कषाय दृष्ट बना दिया है। किसी पुस्तक में पढी थी ये......
*जीवन शुं छे अमारूं ? मात्र आशा नी ननामी छे*
*निराशाए दीधी छे खांध दर्दीनी सलामी छे*
*दुखोए दीधो छे दाह चीता खडकावी चिंता नी*
*विरहनी आग जोई जा के एमां काई खामी छे*
हाँ यही जीवन स्थिति एवं एवं मन स्थिति है मेरी।
सड़ी हुई लकड़ी के ऊपर सनमाईका ,
छाती में केंसर और ऊपर कमीज टेरीकोटन का
गंदे पानी की नाली और ऊपर मार्बल की सीढी
बस वृत्ति पशुता की और प्रवृत्ति साधुता की।
जीव दुनियावी अशाश्वत क्षणिक रिश्तों संबंधों को रखने का निरर्थक प्रयास करता है।ये रिश्ते शाश्वत न आज तक कभी हुए हैं और न भविष्य में होंगे।जीव को परमात्मा के अलावा दूसरा कोई प्रियतम नहीं होना चाहिए।
रत्नाकरसूरि यह कह रहे हैं कि मैंने भवांतर में शील धर्म का पालन नहीं किया इसलिए मेरा जीवन निरर्थक है।
*तप थी दमी काया नहीं. ....* इच्छा निरोध स्तप: मन में उठती इच्छा का निरोध करना वह तप है ।इन्सान के मन में समय समय पर कई इच्छाएं उत्पन्न होती है।वे इच्छाएँ भी आकाश जीतनी अनंत होती है।
*चाह गयी चिंता मिटी मनवा बेपरवाह ।*
*जिसको कुछ न चाहिए वो ही शहंशाह ।।*
भगवान महावीर ने जगत् के सभी जीवों के लक्ष्य में रखकर , कोई भी जीव तप से वंचित न रहे इसी आशय से 12 प्रकार के तप बताए हैं। इसमें 6 बाह्य तप है ....
1. अनशन 2. ऊणोदरी 3. वृत्तिसंक्षेप 4. रसत्याग 5. कायक्लेश 6. प्रतिसंलीनता।
6 आभ्यंतर तप. .. 1. प्रायश्चित 2. विनय 3. वैयावच्च 4. स्वाध्याय 5. ध्यान 6. कायोत्सर्ग तप धर्म की प्ररूपणा की। ये 12 प्रकार का तप जीव मोहराजा की आज्ञा से , मोह के वश होकर करता है। यही तप अगर वीतराग कथित पद्धति के अनुसार किया जाए तो सही अर्थ में कर्म की निर्जरा हो एवं परंपरागत मोक्ष सुख को प्राप्त करे।लेकिन तप धर्म के बारे में संपूर्ण दिवाला ही किया है।हे पतित पावन ! खाने का मेरा शोक बेमर्यादा ।उसी शोक की वजह से पसंद न आए समय का बंधन जमता नहीं स्थल का बंधन एवं रूचता नहीं संयोग का बंधन ।कहीं भी जाना हो तो प्रथम चिंता खाने की।ना तो कुछ त्याग करना अच्छा लगता है ।कम द्रव्य चलता नहीं रसहीन द्रव्य चलता नहीं।शरीर को कष्ट पडे ऐसा कोई धर्म पसंद नहीं है । जहाँ भक्ष्याभक्ष्य , पेयापेय का विवेक रखने के लिए भी तैयार नहीं हो तो फिर तप की तो बात ही कहाँ *?*
🙏🏼🌹🙏🏼 *जय जिनेन्द्र सा*🙏🏼🌹🙏🏼
रत्नाकर पच्चीसी
भाग -15
मैंने दानशील तप नहीं किया उसका एक मात्र कारण यह है कि शुभ भाव मेरे हृदय में कभी उत्पन्न नहीं हुआ है।क्योंकि मैं आर्त - रौद्र ध्यान में ही मस्त रही हूँ।माया, स्वार्थवृत्ति सुखशीलता में आशक्त बना मै उपाश्रय जिनमंदिरों से दूर ही रही। तन और धन दोनों मिल जाए तो फिर धर्म क्या करना *?* ऐसे विचारों मैं ग्रस्त था मेरा मन। कहते हैं कि. ...
*कूड़े के ढ़ेर में जो गुलाब नहीं मिलते हैं।*
*दरिद्रों के घर में जेवरात नहीं मिलते हैं।।*
वैसे ही
*भंगारी के वहाँ शणगार के सामने नहीं मिलते हैं।*
*दुष्ट के मन में भाव देखने को कहाँ से मिलेगा ? ।।*
मेरे जीवन की पुस्तक में अगर कोई दृष्टि करे तो
*कुड - प्रपंचवृत्ति*
*क्रोध - वैरवृत्ति*
*आग्रह - अपेक्षावृत्ति*
*स्वार्थपूर्ति - सुखशीलता की वृत्ति*
बस यही है मेरे जीवन का हिसाब।
जिस जीवन को पाकर मैं तेरे जैसा हो सकता था उसी जीवन को पाकर मैं शैतान बन गया।
*दुकान मिली झवेरी बाजार में, पर मैं गरीब ही रह गया*
*रहा मैं अत्तर की दुकान में, पर हो गया बिमार*
*बैठने को मिला उद्यान में, पर मैं बेहोश हो गया।*
*जीवन मिला मानव का और मैं हो मोहांध।*
कहते हैं कि दान देना होतो संपत्ति चाहिए।शील का पालन करना हो तो सत्व चाहिए।तप करना हो तो शारीरिक शक्ति चाहिए। पर भाव धर्म में सिर्फ उत्तम विचार , अंतर्मुखता एवं स्थिर चित्त होना चाहिए।
सामान्य तप भी नहीं करने वाले कुरगडु मुनि समता भाव से केवलज्ञान प्राप्त किया। ज्ञान के अभाव में माषतुष मुनि ने शुभ चिंतन से केवलज्ञान पाया। साधु कच्चे पानी का उपयोग नहीं करते ऐसे विवेक के अभाव में अइमुत्ता मुनि ने ईरियावहियं करते करते केवलज्ञान प्राप्त किया।जैन दर्शन भाव प्रधान धर्म । जीव को शुभ भाव का आश्रय लेना हो तो 12 भावना के स्वरूप को जानना चाहिए।
इन भावनाओं का आश्रय लेकर कितने भालाधारी डाकू मालाधारी संत बने , भरत चक्रवर्ती काँच भुवन में, मरूदेवी माता हाथी के हौदे पर , इलायची कुमार कुमार नाचते नाचते, गुणसागर शादी के मंडप चवरी में फेरा फिरते फिरते केवलज्ञान पाया।सिर्फ भाव धर्म की प्रधानता।
जब चारों तरफ से ठोकरें खाई तब धर्म की उद्धार शक्ति में विश्वास हुआ है।अब जिंदगी की समयसीमा पूरी होने आई है।यह किराये का घर कब खाली करना पड़ेगा कुछ कह नहीं सकते।
एक ही लाइन में कहना हो तो मानव धर्म और जिन - शासन मिलने के बाद भी दान शील तप और भाव ये चार प्रकार का धर्म नहीं करके जो भूल मैंने की है। मेरी अनंत पुण्य राशि से मिला हुआ मानवजीवन को व्यर्थ गंवा दिया है।कहते हैं कि संपत्ति बिना इन्सान जहाँ भी जाता है वहाँ मार ही खाता है या ठोकरें खाता है।वैसे ही धर्म के बिना जहाँ भी जाऊंगा उस गति में मार ही पडनेवाली है।
हे परमात्मा खाली जमीन मिलने के बाद भी जो किसान उसमें कुछ नहीं बोता तो ज्यादा से ज्यादा वो सबकी दया का पात्र बनता है।पर गुणों के बीज बोने का श्रेष्ठ मानवजीवन रूपी खेत मिलने के बाद भी धर्माराधना नहीं करनेवाला में कर्मसत्ता के सामने हंसीपात्र ही बनुंगा ।हे देवाधिदेव, हे परमात्मा इस तकलीफ से बचने का उपाय *?* हे तारक इस भवसागर में मेरा ये जन्म मरण का भ्रमण न हो जाये इसलिए हे दीनानाथ मेरा हाथ पकड कर मुझे उबारो, उबारो....... उबारो।
अंत में हे परमात्मा
*चार प्रकार के धर्म को न अपनाया*
*भव भ्रमण में गोता खाया*
*भव धर्म को न भाया*
*संसार के प्रति रखी मैंने माया*
*फोकट में गुमायी मैंने ये काया*
*दादा तेरी ही है छाया*
*तुने आशिष तो बहुत बरसाया*
*फिर भी मैंने सब कुछ गंवाया*
*बहुत मुश्किल से दादा तुझे पाया*
रत्नाकर पच्चीसी
भाग - 16
*हूँ क्रोध अग्निथी बल्यो , वली लोभ सर्प डश्यो मने ।*
*गल्यो मान रूपी अजगरे , हूँ केम करी ध्यावुं तने ?*
*मन मारू मायाजाल मां मोहन महा मुंझाय छे।*
*चढी चार चोरो हाथ मां चेतन घणो चगदाय छे।।5 ।।*
हे परमात्म करूणानिधान समता निधान।कषायों के साथ की हुई गहरी मित्रता का कड़वा फल में भुगत रहा हूँ।
मानव की आकृति , उनकी कृति एवं प्रकृति भिन्न भिन्न देखने को मिलती है।संसार में आत्मा के परिभ्रमण का मुख्य कारण जीव की प्रकृति है ।क्रोध , मान, माया एवं लोभरूपी कषाययुक्त जिनकी प्रकृति है वो न तो शांति से जीता है और न ही शांति से जीने देता है।भगवान राम के उजाले पक्ष में केकैयी विचित्र थी। तो रावण के पक्ष में उदार दिल ऋजुस्वभाव वाला विभीषण था ।पांडव पक्ष में द्रौपदी के एक कटु शब्द के कारण 12 वर्ष तक पांडवों को वनवास भुगतना पडा ।जब युद्ध के समय कौरवों की माता गांधारी के पास आशीष लेने गए तब गांधारी ने यतो धर्मस्ततो जयः ऐसा सिर पर हाथ रखकर कहा था।कौरवों की काजल कोटडी में गांधारी रत्नदीपक के समान है।
शरीर में गांठ (ट्युमर ) के मूल में जैसे आंतों में रही हुई गरमी कारण बनती है वैसे ही क्रोध के मूल में जीव की विषय कामना छुपी है।पांच में से एक भी विषय में यदि व्यक्ति निष्फल जाता है तब उसको क्रोध आता है।अग्नि का स्वभाव गरम है इसलिए क्रोध को अग्नि की उपमा दी है।
*आग से मैत्री असंभव ।सर्प से दोस्ती अशक्य।*
*अजगर के सानिध्य में निर्भयता नामुमकिन*
*नागिन के संग प्यार नहीं हो सकता।*
पर हे प्रभु ये सब असंभव बातें मेरे लिए संभव हैं - क्रोध आग नहीं तो और क्या है *?*
जैसे निष्पक्षापक्ष आग में गिरने वाले सब को भस्मीभूत करती है। वैसे ही क्रोध रूपी अग्नि से दोस्ती करके मैं खुद स्वयं को एवं मेरे सानिध्य में आनेवाले सबको क्रोधित से ही वासित किया है।क्योंकि मेरा ऐसा मंतव्य था कि इस दुनिया में सभी हजीव लातों के भूत है। वे बातों से नहीं मानते।इसलिए मैंने भी जैसे को तैसा वाली पद्धति अपनायी। उसमें मुझे सफलता मिलने लगी।फिर मैं गरम मिजाज बन गया। कोई मुझे स्पर्श करें और गरमी का अहसास न -असंभव ! मेरा बताया कोई काम न हो तो मैं आगबबूला हो जाता। सब मुझसे डरने लगे। इसी डर से सब मेरे सामने झुकने लगे।मेरा कहना मानने लगे।क्रोध के ऐसे अनुभव से और क्रोधी बन गया। फिर तो क्रोध मेरा स्वभाव बन गया। कहतें है कि आग से होनेवाले विनाश से समाधि को कोई नुकसान नहीं होता।सद्बुद्धि दुखदायी बने ऐसा भी नहीं है। सद्गति में निमित्त बनकर परमगति से दूर फेक देने जैसा भी नहीं है। फिर भी क्रोध से होनेवाला विनाश तो शांति, समाधि, सद्बुद्धि , सद्गुण एवं सद्गति इन सबके लिए प्रतिबंधक बनकर परमगति को सिर्फ स्वप्न एवं शब्द का विषय ही बनाता है। ऐसा जानकर भी , अनुभव होने पर भी मैं क्रोध करती ही रही हूँ।क्रोध के साथ मेरी गाढ़ मित्रता हो गई।क्रोधी को नरक में जाना पड़ता है इसका मुझे एहसास ही नहीं था।पर क्रोध करते करते मैंने मेरे जीवन को नरक सा बना दिया था।
लेकिन एक दिन मेरे पुण्य का सितारा अस्त हो गया।जिस पुण्य के प्रताप से क्रोधी होते हुए भी मुझे एक हीरा बनाया था। उस पुण्य के खत्म होते ही मेरा मान घट गया।नोकर चाकर भी सामने जवाब देने लगे।जो लोग मेरे अनुकूल होकर चलते थे वे भी प्रतिकूल होने लगे।अब मुझे क्रोध रूपी दावानल की वास्तविकता के बारे में पता लगा।
रत्नाकर पच्चीसी
भाग - 17
वली लोभ सर्प डश्यो मने : -* हे परमात्मा सिर्फ क्रोध को ही पाल कर बैठी हूँ ऐसा नहीं है।पर लोभ भी मेरा स्वयंभूरमरण समुद्र की विशालता को भी शरमा दे ऐसा है। सर्व दोषों के शिकार बने हुए समस्त शरीर में सर्प का जहर व्याप्त होता है।वैसे लोभ रूपी सर्प के दंश से तृष्णा रूपी जहर मेरे आत्मा के प्रति प्रदेश में व्याप्त हो गया है।तृष्णा की इस पराकाष्ठा ने मुझे कृपण बनाया।जितना मिले उसमें संतोष नहीं ।तृष्णा के इस विष ने मुझे दरिद्र बना दिया।ज्यादा से ज्यादा प्राप्त करने की चाहत।तृष्णा के इस बल ने मुझे तुच्छ बनाया है।जितना भी मिले वो कम ही लगे।जो मिला है उसमें से कुछ कम न हो जाए इसका सतत् ध्यान रखा। रात - दिन खप कर खून का पानी करके लोभ की आज्ञा का पालन करते हुए धन समुद्र के पीछे दौड़ता रहा ।जिन्दगी का सुनहरा समय , मानवजीवन की अमूल्य क्षण शरीर एवं मन की सारी शक्ति धन प्राप्त करने की लालसा में काम पर लगा दी। मेरे सुख - चैन एवं नींद को भी धन की लालसा में नष्ट कर दिया।
पुण्योदय से मैं धनवान तो हो गया पर उसकी बहुत बडी कीमत चुकाई । इसका भान अब हुआ।क्योंकि धन से मैंने खाने के पदार्थ तो मनपसंद प्राप्त कर लिए पर खा नहीं सकता क्योंकि मेरे पेट का हाजमा बिगड गया।मन चाहे बडे डाक्टर को बता तो सकता हूँ पर मेरा शरीर भी साथ नहीं दे रहा । बालों को रंग तो लगा सकता हूँ पर जवानी के वो दिन कहाँ से लाऊँ *?* अब तक मैं भ्रम में ही जाता था कि धन ही सर्वस्व है। लेकिन अब पता चला है कि धन तो पुण्य पाप का खेल है।संतोषी नर सदा सुखी यह कहावत सही है। संतोषी आत्मा को तो चक्रवर्ती के ताजो - तख्त की एवं स्वर्ग के साम्राज्य की भी इच्छा नहीं है। लोभ को सर्प की उपमा दी है। चार कषायों में यह अंतिम है जो सभी आत्मगुणों का विनाशक है।जिस इन्सान में लोभ वृत्ति ज्यादा होती है उसका परिग्रह बढता ही जाता है। लोभ वृत्ति की वजह से परिग्रही इन्सान पाँच व्रतों का सामूहिक भंग करता है।
लोभ कषाय को नापने के लिए उपनिषद् में लिखा - पहले त्याग करो फिर भोगों । खाना खिलाने के बाद ही खाना।जहाँ लाहो तहाँ लोहो । जैसे - जैसे लाभ बढता है वैसे वैसे लोभ बढता है।लोभ घटाने का एक ही उपाय है।
*गोधन, गजधन, वाणिधन और रतन धन खान ।*
*जब आगे संतोष धन सब धन धुरी समान ।।*
आचार्य श्री कहते हैं कि लोभ के परिणाम स्वरूप मन एवं शरीर और जीवन की पल - पल में जहर व्याप्त हो चुका है ।तो हे परमात्मा मैं तुझे कैसे भजुं।
परमात्मा मैंने ऐसा सुना है कि तेरा जन्म तुच्छकुल, दरिद्रकुल या कृपणकुल में नहीं होता है। अगर ये सत्य है तो तुच्छता दरिद्रता और कृपणता के शिकार मेरे हृदय में तेरा आगमन कैसे होगा।
आज मुझे पता चला है कि तेरे मंदिर में पैदल चलकर आने में सफल बना पर मेरे हृदय में तुझे लाने में निष्फल क्यों बना *?* तेरे स्तुतियों को मेरी जीभ पर लाकर बोलने में सफल बना मैं पर मेरे हृदय में तुझे जन्म देने में क्यों निष्फल बना मैं। तेरे गर्भग्रह को धुप की सुवास से वासित करने में सफल बना मैं पर मेरे हृदय में सद्गुणों की सुवास से वासित करने में नाकामयाब क्यों बना।तेरे समक्ष चामर नृत्य करने में सफल बना मैं पर मेरे हृदय में तेरे उपकारों की स्मृति से नृत्य कराने में निष्फल क्यों बना *?* उसका एकमात्र कारण मेरा हृदय तुच्छ , कृपण एवं दरिद्र है।
और क्या कहूँ तुझे *?*
क्रोध और लोभ दो ही कमजोरी होती, तो फिर भी अनुभव से बोध पाठ लेकर दूर करने का प्रयत्न करती, पर मैं तो अभिमान से भी वंचित नहीं हूँ।
🙏🏼🌹🙏🏼 *जय जिनेन्द्र सा*🙏🏼🌹🙏🏼
🌹🌹🌹 *रत्नाकर पच्चीसी* 🌹🌹🌹
✍🏼✍🏼 *भाग - 20* ✍🏼✍🏼
मेरा दुश्मन ..... ये शब्द सुनना पसंद नहीं है।फिर भी अनंत संसारी को शत्रुता ही जिंदा रखती है।शास्त्रकार कहते हैं कि अधिकतर बाहर की दुनिया में शत्रु वही पैदा करता है जिसका आन्तरिक शत्रु भी जिंदा है।जिनके आन्तरिक शत्रु नष्ट हो जाते हैं उनका बाह्य दुनिया में दुश्मन कोई नहीं रहता। शत्रु का मुल राग है ।वही राग द्वेष को जन्म देता है। उसके अतिरिक्त सभी कषाय उसके पिछे परछाई बनकर चलते हैं।बाह्य शत्रु को दूर करने की कोशिश करते हैं पर आन्तरिक शत्रु को नष्ट या नाश करने की कोई तैयारी नहीं है।
काम, क्रोध, मद, मान, माया, लोभ ये रिपु से जगत मात्र कांपता है।जो आग से बचने का उपाय वही मोक्ष का उपाय।कहावत है कि अग्नि में हाथ डालने वाला जले बिना नहीं रहता।और अग्नि से दूर रहने वाला, उसको स्पर्श नहीं करने वाले को कोई नुकसान नहीं होता।ठीक वैसे ही विषय वासना कामादि विकारों के निमित्तों का सेवन करने वालों का पतन निश्चित है।
तीर्थंकरों का मार्ग है संतोष का, लोभ का अभाव होना चाहिए।लोभ वो पराकाष्ठा का शत्रु है। पाप का बाप लोभ हैं।पापवृत्ति पापकार्य में लोभ सहायक है।लोभी आत्म - लक्ष्य को भूल जाता है। लोभी ज्यादातर भविष्य को ही नजर समक्ष रखता है। अभी मेरे पास है उससे ज्यादा कैसे मिले *?* उसी चिंता में अभी मिला है उसका सुख भी नहीं भोग पाता , आनंद नहीं ले सकता इसलिए मन में सदा अशांति ही रहती है।
जब इच्छाओं का अंत होगा तब प्रभु की तरफ से सन्मान को प्राप्त करोगे।जब तक इच्छाएं है तब तक भिखारी समान हो। लोभ अशांति का विषचक्र है।
*जहाँ लाहो तहाँ लोहो लाहा लोहो पवढ्ढई*
जैसे जैसे लाभ बढता है वैसे वैसे लोभ बढता है।एक इच्छा के पूर्ण होते ही दस इच्छायें उत्पन्न हो जाती है।
इच्छा का जन्म होता ही रहता है।जिन्दगी उसमें ही पूरी हो जाती है। पूर्णता के अभाव में इच्छाएं पूरी नहीं होती है।इसलिए मन की शांति भंग हो जाती है। लोभ को जन्म देने वाली इच्छा पर जिसका अंकुश नहीं वो भंयकर कू्र है।मन मायाजाल में जाने से उदास हो जाता है।मन ही पाप की जड़ है। वैसे धर्म की भी जड़ मन ही है।मन से कई लोगों ने महल खड़े किए हैं, राष्ट्र निर्माण किया है।मन से ही स्वर्ग एवं मोक्ष सुलभ बनता है।
मन रूपी घोडे को काबू में रखने के लिए ज्ञानरूपी लगाम काफी है।मन को संयमित करने के लिए तप, संयम, स्वाध्याय, चिंतन , मनन का अभ्यास करना चाहिए।।मन को वशीभूत करने के लिए आत्मा में शुद्ध स्वरूप का बोध पाठ श्रेष्ठ साधन है ।मन को मोह के जाल में मुक्त करने के लिए परमात्मा का ध्यान अमोध साधन है। इसलिए हे परमात्मा अनंतगुणों के मालिक ऐसी यह आत्मा कषाय रूपी चोरों से ग्रसित है। अब तो चारों कषाय से मुक्त करने के लिए सिर्फ तेरी कृपादृष्टि , तेरी शरण ही श्रेयस्कर है।
अंत में हे परमात्मा : -
*मेरी एक ही है आशा*
*कषायों का करना नाश*
*अवगुणों का करना विनाश*
*आत्मगुणों का हो विकास*
*तेरे नाम की हो दिल में सुवास*
*नाम समरूं श्र्वासोश्वास*
*आशिष देना खास*
*केवलज्ञान हो जाए काश*
*सिद्धशिला पर हो मेरा वास*
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🌹🌹🌹 *रत्नाकर पच्चीसी* 🌹🌹🌹
*रत्नाकर पच्चीसी*
*भाग - 12*
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इस वास्तविकता का मुझे पक्का पता लग गया है। इसलिए आज मैं आपके समक्ष मेरा कलंकित भुतकाल जैसा है, वैसा प्रकट करने के लिए उपस्थित हुआ हूँ ।
क्या कहूँ तुझे *?*
बालक और मेरे बीच में जो भी फर्क है वो यह है कि बालक के पास निर्दोष नग्नता है और मेरे पास निर्दोष जबरदस्ती है ।माता पिता के समक्ष नग्नता के दर्शन कराने में बालक कोई शर्म, संकोच या भय नहीं होता ठीक उसी तरह आपके समक्ष मेरी जबरदस्ती प्रकट करने में संकोच या भय क्यों होगा।
मुझे पूर्ण श्रद्धा है कि जो स्नेह एवं वात्सल्य से बालक की नग्नता को उसकी माता ढक देती है। उसी प्रकार उससे भी अंनतगुणा वात्सल्य एवं परम करूणा से तु मेरी जबरदस्ती को सिर्फ ढकने वाला नहीं बल्कि सदा के लिए उस जबरदस्ती से मुक्त करने का प्रयत्न करेगा ।इसका मुझे दृढ़ विश्वास है।आज मुझे याद आ रही है रविन्द्रनाथ टैगोर की कि हुई प्रार्थना :-
*हे करूणामयी स्वामी*
*तेरी ही इच्छा पूर्ण हो*
*तेरा ही प्यार स्मरण में रखुं*
*तेरे ही चरण की आशा रखुं*
*दुःख आप ताप संताप सब सहन किया*
*तेरी प्रेम रूपी आँख सदा जागती है*
*ये जानकर भी मैं अनजान हो रहा हूँ*
*उस मंगल स्वरूप को भूल जाता हूँ*
*इसलिए मैं शोक सागर में डूब रहा हूँ*
*आनंदमय तेरा विश्व शोभा सुख से पूर्ण है*
*मैं मेरे दोषों से दुखी होता हूँ*
*मैं वासना का अनुगामी हूँ*
कठोर आघात से मेरे मोह के बंधन को नष्ट कर दे भीगी आँखों वाले हृदय में आप ही रहो।
अलबत्ता फिर भी. .....
तुम ऐसा कर तुम वैसा कर ऐसी में जब आपको विनती करता हूँ तब आप नहीं मानेंगे और सच है कि मैं उस समय अपराधभाव के सोच का अनुभव करता हूँ , क्योंकि मेरे हित की चिंता के लिए, हित को आबाद रखने के लिए आपके तरफ से आपने कोई कसर नहीं छोडी।
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*संग्रह // नवनित खींवसरा*
*महावीर पाठशाला*
*भाग - 13*
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*मैं दान तो दीधुं नहीं ने शीयल पण पाल्युं नहीं*
*तपथी दमी काया नहीं, शुभ भाव पण भाव्यो नहीं*
*ए चार भेदे धर्म मांथी , कांई पण प्रभु नव कर्युं*
*मारूं भ्रमण भवसागरे, निष्फल गयुं, निष्फल गयुं।। 4 ।।*
श्री तीर्थंकर परमात्मा ने गृहस्थ जीवन के चार धर्म दिखाये है - दान , शील, तप और भाव ।रत्नाकरसूरिजी इस स्तुति में इन चार धर्मों को प्रस्तुत करते हैं। आर्य संस्कृति की प्रणाली है कि *" प्रथम दान फिर दातण "*। श्रीमद् यशोविजयजी ने "ज्ञानसार" नामक ग्रंथ सुख के लिए एक बात बतायी है। *" खाली होके भरा जाओ "* ज्ञानसार ग्रंथ का श्लोक निम्न हैं :-
*अपूर्ण पूर्णता मेति पूर्य माणस्तु हियते ।*
*पूर्णानंद स्वभावोयं जगददभुत दायकः ।।*
अर्थात् - पर वस्तु के त्याग की भावना रखने वाला भले ही पुद्गलों से अपूर्ण किन्तु यह वो आत्मा के ज्ञानादि गुणों से पूर्णता को प्राप्त करता है। पुद्गलों के संयोग को ही जो पूर्ण मानते हैं वो आत्मा के ज्ञानादि गुणों से अपूर्ण है।महोपाध्याय यशोविजयजी कहते हैं कि कुका गिनने में एवं कीका को खोलने में ही जीवन की कृतकृत्या का अनुभव जो करता है उन मानवों के लिए भौतिकता के शिखर पर अशांति एवं अस्वस्थता ही है। आध्यात्मिकता के पांव पांव चलने से शांति , समाधि के देवालय शोभित होते हैं। अपूर्ण शब्द की विशेषता यह है कि उसमें कुछ डालने से वह पूर्ण नहीं बनता। सिर्फ "अ" शब्द निकाल देने से वो पूर्ण बन जाता है। पूर्णता बाहर की चीज नहीं है वह अंतर में रहती है। अपूर्णता पर जो कचरा है वो हटा दो जो रहे वो पूर्णता ।दान धर्म का पालन करने से पहले शून्य होना सीखना पड़ता है।
*पानी बढ़ियो नाव में घर में बढ़ियो दाम ।*
*दोनों हाथ उलेचिये यही सयानो काम ।।*
अर्थात् : - नाव में बढ़ा हुआ पानी एवं घर में बढ़ा हुआ धन दोनों को दोनों हाथों से उलेच कर खाली करना चाहिए।संपत्ति को इस तरह से खर्च करने वाला ही दान कर सकता है।लोभ वृत्ति वाला इंसान दान धर्म का आचरण नहीं कर सकता ।प्रायः दान करने वाले सब लोग कोई न कोई अपेक्षा रखते ही है। कोई नाम की, कोई ख्याति की, कोई प्रतिष्ठा की, कोई प्रशंसा की, कोई वाह वाह की एवं कोई अगले भव में सद्गति की।
*तलवार की चोरी करे, करे सोयनुं दान ।*
*पछी आकाशे जोया करे, केम न आव्युं विमान ।।*
रत्नाकरसूरिजि कहते हैं कि मैंने अपने पूर्व भव में इन चार धर्म में से एक का भी आचरण नहीं किया ।जो दूसरों पर उपकार करने के लिए अपनी मालिकी का त्याग करे वो दान कहलाता है।वरन् तो फिर कहते हैं कि -
*मध माखिये मध दीधुं , न खाधुं न खावा दीधुं लुटारये लुंटी लीधुं रे....*
दान के पांच प्रकार है।
1. अनुकंपा दान, 2.पात्रदान 3. सुपात्र दान 4. कीर्ति दान 5. अभयदान। भय, लोभ एवं स्नेह दान के इन तीन हेतुओं को छोड़कर जो दाता दान करता है वही मोक्षगामी होता है।
हे परमात्मा धन मेरे पास बहुत था।मैंने भोगों के लिए धन खर्च किया, स्वजनों को दिया, रिश्वत के रूप में दिया, मंदिरादि की प्रतिष्ठा में व्यवहार के हिसाब से, नाक, नामना एवं ख्याति के लिए खर्च किया ।वो धन भी विलंब, अनादर , अप्रियवचन तिरस्कार एवं पश्चात्ताप इन पांच दोषों में से कुछ दोषों सहित दिया।ऐसे दान में मेरे सांसारिक परिभ्रमण का अंत कैसे आयेगा।
निःस्वार्थ भाव से सात क्षेत्र में जो धन खर्च होता है वही सच्चा दान है। जैसे आम की गुठली हम बोते हैं उससे आम का पेड होता है।उस पर आम आते हैं और उसमें से फिर गुठली मिलती है।ठीक वैसे ही संपत्ति को शुभ भाव से, निस्वार्थ भाव से सात क्षेत्र में खर्च करते हैं तो पुण्य का उपार्जन होता है और उस पुण्य से संपत्ति तो मिलती ही है साथ में सद्बुद्धि भी मिलती है और इस संसार में विरक्त होकर एक दिन अवश्य परमगति मोक्ष को प्राप्त करता है।लेकिन मेरा दूषित दानधर्म मुझे संसार परिभ्रमण से कैसे विरक्त कर पायेगा *?* और शील पालन।
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*संग्रह // नवनित खींवसरा*
*महावीर पाठशाला*
रत्नाकर पच्चीसी
भाग - 14
उसके बारे में तो बोलने लायक भी नहीं हूँ। बिना कोट या दरवाजे और पहरे बिना के नगर पर सदा दुश्मन का भय रहता है। वैसे ही खुले खेत में खड़ी फसल को पशुओं के खाने का डर रहता है। आवारा गलियों में घूमने वाले पशु जैसे लकड़ी की मार सहन करते हैं।वैसे ही खुले में रखे जेवरात या अलमारी, तिजोरी में रखकर ताला न लगाओ तो उनको सतत चोर लूटेरों के ले जाने का डर रहता है। वैसे ही इन्द्रियों पर लगाम नहीं लगाने से मैं कर्मसत्ता के हाथ लुटाता ही रहा हूँ दुःखी होता ही रहा हूँ।परेशान होता ही रहा हूँ। कहते हैं कि पानी को बहाव या कटाव मिल जाये तो पानी टिकता नहीं बहने लगता है ठीक वैसे ही कुछ प्रलोभन लालच मिला और मैं पतन की खाई में गिरने के लिए भी तत्पर हो गया।लेकिन सही बात तो यह है. ......
अगर कान को सुनने से मन न भरा होता तो मैं विलासी गीतों के श्रवण से नहीं अटकी होता।जीभ को खाने से अगर अरूचि नहीं हुई होती तो मिष्ठान्न एवं मसालेदार भोजन से विरक्त नहीं बना होता। अगर आँखों शर्मित नहीं हुई होती तो विजातीयों के रूप दर्शन में पागल बन चुका होता। अगर शरीर की इन्द्रियों में शिथिलता नहीं आयी होती तो काम वासना से कभी संतुष्टि नहीं होती। इतना कहना चाहता हूँ कि इन्द्रियों ने भले ही थकान महसूस कर ली है परन्तु मन अभी भरा नहीं। मन तो स्वाद के नशे में मस्त बना है। अपना अस्तित्व और मान भूल गया है। शील और सदाचार की महिमा जानते हूए भी अनजान बन बैठा हूँ इसलिए भोग की मजा के सामने रोग की सजा को मैं भूल गया हूँ।
बिना अतिशयोक्ति कह सकती हूँ कि स्वेच्छाचार की दुनिया में मैंने पशुओं को भी पिछे छोड़ दिया है और सुअर का विष्टा प्रेम मेरे भोजन प्रेम के सामने कुछ भी नहीं है।सांड की कामांधता मेरी कामांधता के सामने कुछ भी नहीं है अर्थात शून्य है।समडी का चर्म प्रेम मेरा चमडी से खेलने, चाटने के प्यार के सामने नहींवत् है।सिंह की क्रूरता मेरी क्रूरता के सामने सामान्य है।संक्षेप में विषय सुखों के आकर्षण ने मुझे पूर्ण कषाय दृष्ट बना दिया है। किसी पुस्तक में पढी थी ये......
*जीवन शुं छे अमारूं ? मात्र आशा नी ननामी छे*
*निराशाए दीधी छे खांध दर्दीनी सलामी छे*
*दुखोए दीधो छे दाह चीता खडकावी चिंता नी*
*विरहनी आग जोई जा के एमां काई खामी छे*
हाँ यही जीवन स्थिति एवं एवं मन स्थिति है मेरी।
सड़ी हुई लकड़ी के ऊपर सनमाईका ,
छाती में केंसर और ऊपर कमीज टेरीकोटन का
गंदे पानी की नाली और ऊपर मार्बल की सीढी
बस वृत्ति पशुता की और प्रवृत्ति साधुता की।
जीव दुनियावी अशाश्वत क्षणिक रिश्तों संबंधों को रखने का निरर्थक प्रयास करता है।ये रिश्ते शाश्वत न आज तक कभी हुए हैं और न भविष्य में होंगे।जीव को परमात्मा के अलावा दूसरा कोई प्रियतम नहीं होना चाहिए।
रत्नाकरसूरि यह कह रहे हैं कि मैंने भवांतर में शील धर्म का पालन नहीं किया इसलिए मेरा जीवन निरर्थक है।
*तप थी दमी काया नहीं. ....* इच्छा निरोध स्तप: मन में उठती इच्छा का निरोध करना वह तप है ।इन्सान के मन में समय समय पर कई इच्छाएं उत्पन्न होती है।वे इच्छाएँ भी आकाश जीतनी अनंत होती है।
*चाह गयी चिंता मिटी मनवा बेपरवाह ।*
*जिसको कुछ न चाहिए वो ही शहंशाह ।।*
भगवान महावीर ने जगत् के सभी जीवों के लक्ष्य में रखकर , कोई भी जीव तप से वंचित न रहे इसी आशय से 12 प्रकार के तप बताए हैं। इसमें 6 बाह्य तप है ....
1. अनशन 2. ऊणोदरी 3. वृत्तिसंक्षेप 4. रसत्याग 5. कायक्लेश 6. प्रतिसंलीनता।
6 आभ्यंतर तप. .. 1. प्रायश्चित 2. विनय 3. वैयावच्च 4. स्वाध्याय 5. ध्यान 6. कायोत्सर्ग तप धर्म की प्ररूपणा की। ये 12 प्रकार का तप जीव मोहराजा की आज्ञा से , मोह के वश होकर करता है। यही तप अगर वीतराग कथित पद्धति के अनुसार किया जाए तो सही अर्थ में कर्म की निर्जरा हो एवं परंपरागत मोक्ष सुख को प्राप्त करे।लेकिन तप धर्म के बारे में संपूर्ण दिवाला ही किया है।हे पतित पावन ! खाने का मेरा शोक बेमर्यादा ।उसी शोक की वजह से पसंद न आए समय का बंधन जमता नहीं स्थल का बंधन एवं रूचता नहीं संयोग का बंधन ।कहीं भी जाना हो तो प्रथम चिंता खाने की।ना तो कुछ त्याग करना अच्छा लगता है ।कम द्रव्य चलता नहीं रसहीन द्रव्य चलता नहीं।शरीर को कष्ट पडे ऐसा कोई धर्म पसंद नहीं है । जहाँ भक्ष्याभक्ष्य , पेयापेय का विवेक रखने के लिए भी तैयार नहीं हो तो फिर तप की तो बात ही कहाँ *?*
🙏🏼🌹🙏🏼 *जय जिनेन्द्र सा*🙏🏼🌹🙏🏼
🌹🌹🌹 *रत्नाकर पच्चीसी* 🌹🌹🌹
*भाग -15*
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मैंने दानशील तप नहीं किया उसका एक मात्र कारण यह है कि शुभ भाव मेरे हृदय में कभी उत्पन्न नहीं हुआ है।क्योंकि मैं आर्त - रौद्र ध्यान में ही मस्त रही हूँ।माया, स्वार्थवृत्ति सुखशीलता में आशक्त बना मै उपाश्रय जिनमंदिरों से दूर ही रही। तन और धन दोनों मिल जाए तो फिर धर्म क्या करना *?* ऐसे विचारों मैं ग्रस्त था मेरा मन। कहते हैं कि. ...
*कूड़े के ढ़ेर में जो गुलाब नहीं मिलते हैं।*
*दरिद्रों के घर में जेवरात नहीं मिलते हैं।।*
वैसे ही
*भंगारी के वहाँ शणगार के सामने नहीं मिलते हैं।*
*दुष्ट के मन में भाव देखने को कहाँ से मिलेगा ? ।।*
मेरे जीवन की पुस्तक में अगर कोई दृष्टि करे तो
*कुड - प्रपंचवृत्ति*
*क्रोध - वैरवृत्ति*
*आग्रह - अपेक्षावृत्ति*
*स्वार्थपूर्ति - सुखशीलता की वृत्ति*
बस यही है मेरे जीवन का हिसाब।
जिस जीवन को पाकर मैं तेरे जैसा हो सकता था उसी जीवन को पाकर मैं शैतान बन गया।
*दुकान मिली झवेरी बाजार में, पर मैं गरीब ही रह गया*
*रहा मैं अत्तर की दुकान में, पर हो गया बिमार*
*बैठने को मिला उद्यान में, पर मैं बेहोश हो गया।*
*जीवन मिला मानव का और मैं हो मोहांध।*
कहते हैं कि दान देना होतो संपत्ति चाहिए।शील का पालन करना हो तो सत्व चाहिए।तप करना हो तो शारीरिक शक्ति चाहिए। पर भाव धर्म में सिर्फ उत्तम विचार , अंतर्मुखता एवं स्थिर चित्त होना चाहिए।
सामान्य तप भी नहीं करने वाले कुरगडु मुनि समता भाव से केवलज्ञान प्राप्त किया। ज्ञान के अभाव में माषतुष मुनि ने शुभ चिंतन से केवलज्ञान पाया। साधु कच्चे पानी का उपयोग नहीं करते ऐसे विवेक के अभाव में अइमुत्ता मुनि ने ईरियावहियं करते करते केवलज्ञान प्राप्त किया।जैन दर्शन भाव प्रधान धर्म । जीव को शुभ भाव का आश्रय लेना हो तो 12 भावना के स्वरूप को जानना चाहिए।
इन भावनाओं का आश्रय लेकर कितने भालाधारी डाकू मालाधारी संत बने , भरत चक्रवर्ती काँच भुवन में, मरूदेवी माता हाथी के हौदे पर , इलायची कुमार कुमार नाचते नाचते, गुणसागर शादी के मंडप चवरी में फेरा फिरते फिरते केवलज्ञान पाया।सिर्फ भाव धर्म की प्रधानता।
जब चारों तरफ से ठोकरें खाई तब धर्म की उद्धार शक्ति में विश्वास हुआ है।अब जिंदगी की समयसीमा पूरी होने आई है।यह किराये का घर कब खाली करना पड़ेगा कुछ कह नहीं सकते।
एक ही लाइन में कहना हो तो मानव धर्म और जिन - शासन मिलने के बाद भी दान शील तप और भाव ये चार प्रकार का धर्म नहीं करके जो भूल मैंने की है। मेरी अनंत पुण्य राशि से मिला हुआ मानवजीवन को व्यर्थ गंवा दिया है।कहते हैं कि संपत्ति बिना इन्सान जहाँ भी जाता है वहाँ मार ही खाता है या ठोकरें खाता है।वैसे ही धर्म के बिना जहाँ भी जाऊंगा उस गति में मार ही पडनेवाली है।
हे परमात्मा खाली जमीन मिलने के बाद भी जो किसान उसमें कुछ नहीं बोता तो ज्यादा से ज्यादा वो सबकी दया का पात्र बनता है।पर गुणों के बीज बोने का श्रेष्ठ मानवजीवन रूपी खेत मिलने के बाद भी धर्माराधना नहीं करनेवाला में कर्मसत्ता के सामने हंसीपात्र ही बनुंगा ।हे देवाधिदेव, हे परमात्मा इस तकलीफ से बचने का उपाय *?* हे तारक इस भवसागर में मेरा ये जन्म मरण का भ्रमण न हो जाये इसलिए हे दीनानाथ मेरा हाथ पकड कर मुझे उबारो, उबारो....... उबारो।
अंत में हे परमात्मा
*चार प्रकार के धर्म को न अपनाया*
*भव भ्रमण में गोता खाया*
*भव धर्म को न भाया*
*संसार के प्रति रखी मैंने माया*
*फोकट में गुमायी मैंने ये काया*
*दादा तेरी ही है छाया*
*तुने आशिष तो बहुत बरसाया*
*फिर भी मैंने सब कुछ गंवाया*
*बहुत मुश्किल से दादा तुझे पाया*
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*संग्रह // नवनित खींवसरा*
*महावीर पाठशाला*
🌹🌹🌹 *रत्नाकर पच्चीसी* 🌹🌹🌹
✍🏼✍🏼 *भाग - 16* ✍🏼✍🏼
*हूँ क्रोध अग्निथी बल्यो , वली लोभ सर्प डश्यो मने ।*
*गल्यो मान रूपी अजगरे , हूँ केम करी ध्यावुं तने ?*
*मन मारू मायाजाल मां मोहन महा मुंझाय छे।*
*चढी चार चोरो हाथ मां चेतन घणो चगदाय छे।।5 ।।*
हे परमात्म करूणानिधान समता निधान।कषायों के साथ की हुई गहरी मित्रता का कड़वा फल में भुगत रहा हूँ।
मानव की आकृति , उनकी कृति एवं प्रकृति भिन्न भिन्न देखने को मिलती है।संसार में आत्मा के परिभ्रमण का मुख्य कारण जीव की प्रकृति है ।क्रोध , मान, माया एवं लोभरूपी कषाययुक्त जिनकी प्रकृति है वो न तो शांति से जीता है और न ही शांति से जीने देता है।भगवान राम के उजाले पक्ष में केकैयी विचित्र थी। तो रावण के पक्ष में उदार दिल ऋजुस्वभाव वाला विभीषण था ।पांडव पक्ष में द्रौपदी के एक कटु शब्द के कारण 12 वर्ष तक पांडवों को वनवास भुगतना पडा ।जब युद्ध के समय कौरवों की माता गांधारी के पास आशीष लेने गए तब गांधारी ने यतो धर्मस्ततो जयः ऐसा सिर पर हाथ रखकर कहा था।कौरवों की काजल कोटडी में गांधारी रत्नदीपक के समान है।
शरीर में गांठ (ट्युमर ) के मूल में जैसे आंतों में रही हुई गरमी कारण बनती है वैसे ही क्रोध के मूल में जीव की विषय कामना छुपी है।पांच में से एक भी विषय में यदि व्यक्ति निष्फल जाता है तब उसको क्रोध आता है।अग्नि का स्वभाव गरम है इसलिए क्रोध को अग्नि की उपमा दी है।
*आग से मैत्री असंभव ।सर्प से दोस्ती अशक्य।*
*अजगर के सानिध्य में निर्भयता नामुमकिन*
*नागिन के संग प्यार नहीं हो सकता।*
पर हे प्रभु ये सब असंभव बातें मेरे लिए संभव हैं - क्रोध आग नहीं तो और क्या है *?*
जैसे निष्पक्षापक्ष आग में गिरने वाले सब को भस्मीभूत करती है। वैसे ही क्रोध रूपी अग्नि से दोस्ती करके मैं खुद स्वयं को एवं मेरे सानिध्य में आनेवाले सबको क्रोधित से ही वासित किया है।क्योंकि मेरा ऐसा मंतव्य था कि इस दुनिया में सभी हजीव लातों के भूत है। वे बातों से नहीं मानते।इसलिए मैंने भी जैसे को तैसा वाली पद्धति अपनायी। उसमें मुझे सफलता मिलने लगी।फिर मैं गरम मिजाज बन गया। कोई मुझे स्पर्श करें और गरमी का अहसास न -असंभव ! मेरा बताया कोई काम न हो तो मैं आगबबूला हो जाता। सब मुझसे डरने लगे। इसी डर से सब मेरे सामने झुकने लगे।मेरा कहना मानने लगे।क्रोध के ऐसे अनुभव से और क्रोधी बन गया। फिर तो क्रोध मेरा स्वभाव बन गया। कहतें है कि आग से होनेवाले विनाश से समाधि को कोई नुकसान नहीं होता।सद्बुद्धि दुखदायी बने ऐसा भी नहीं है। सद्गति में निमित्त बनकर परमगति से दूर फेक देने जैसा भी नहीं है। फिर भी क्रोध से होनेवाला विनाश तो शांति, समाधि, सद्बुद्धि , सद्गुण एवं सद्गति इन सबके लिए प्रतिबंधक बनकर परमगति को सिर्फ स्वप्न एवं शब्द का विषय ही बनाता है। ऐसा जानकर भी , अनुभव होने पर भी मैं क्रोध करती ही रही हूँ।क्रोध के साथ मेरी गाढ़ मित्रता हो गई।क्रोधी को नरक में जाना पड़ता है इसका मुझे एहसास ही नहीं था।पर क्रोध करते करते मैंने मेरे जीवन को नरक सा बना दिया था।
लेकिन एक दिन मेरे पुण्य का सितारा अस्त हो गया।जिस पुण्य के प्रताप से क्रोधी होते हुए भी मुझे एक हीरा बनाया था। उस पुण्य के खत्म होते ही मेरा मान घट गया।नोकर चाकर भी सामने जवाब देने लगे।जो लोग मेरे अनुकूल होकर चलते थे वे भी प्रतिकूल होने लगे।अब मुझे क्रोध रूपी दावानल की वास्तविकता के बारे में पता लगा।
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*संग्रह // नवनित खींवसरा*
*महावीर पाठशाला*
🌹🌹🌹 *रत्नाकर पच्चीसी* 🌹🌹🌹
✍🏼✍🏼 *भाग - 17* ✍🏼✍🏼
*वली लोभ सर्प डश्यो मने : -* हे परमात्मा सिर्फ क्रोध को ही पाल कर बैठी हूँ ऐसा नहीं है।पर लोभ भी मेरा स्वयंभूरमरण समुद्र की विशालता को भी शरमा दे ऐसा है। सर्व दोषों के शिकार बने हुए समस्त शरीर में सर्प का जहर व्याप्त होता है।वैसे लोभ रूपी सर्प के दंश से तृष्णा रूपी जहर मेरे आत्मा के प्रति प्रदेश में व्याप्त हो गया है।तृष्णा की इस पराकाष्ठा ने मुझे कृपण बनाया।जितना मिले उसमें संतोष नहीं ।तृष्णा के इस विष ने मुझे दरिद्र बना दिया।ज्यादा से ज्यादा प्राप्त करने की चाहत।तृष्णा के इस बल ने मुझे तुच्छ बनाया है।जितना भी मिले वो कम ही लगे।जो मिला है उसमें से कुछ कम न हो जाए इसका सतत् ध्यान रखा। रात - दिन खप कर खून का पानी करके लोभ की आज्ञा का पालन करते हुए धन समुद्र के पीछे दौड़ता रहा ।जिन्दगी का सुनहरा समय , मानवजीवन की अमूल्य क्षण शरीर एवं मन की सारी शक्ति धन प्राप्त करने की लालसा में काम पर लगा दी। मेरे सुख - चैन एवं नींद को भी धन की लालसा में नष्ट कर दिया।
पुण्योदय से मैं धनवान तो हो गया पर उसकी बहुत बडी कीमत चुकाई । इसका भान अब हुआ।क्योंकि धन से मैंने खाने के पदार्थ तो मनपसंद प्राप्त कर लिए पर खा नहीं सकता क्योंकि मेरे पेट का हाजमा बिगड गया।मन चाहे बडे डाक्टर को बता तो सकता हूँ पर मेरा शरीर भी साथ नहीं दे रहा । बालों को रंग तो लगा सकता हूँ पर जवानी के वो दिन कहाँ से लाऊँ *?* अब तक मैं भ्रम में ही जाता था कि धन ही सर्वस्व है। लेकिन अब पता चला है कि धन तो पुण्य पाप का खेल है।संतोषी नर सदा सुखी यह कहावत सही है। संतोषी आत्मा को तो चक्रवर्ती के ताजो - तख्त की एवं स्वर्ग के साम्राज्य की भी इच्छा नहीं है। लोभ को सर्प की उपमा दी है। चार कषायों में यह अंतिम है जो सभी आत्मगुणों का विनाशक है।जिस इन्सान में लोभ वृत्ति ज्यादा होती है उसका परिग्रह बढता ही जाता है। लोभ वृत्ति की वजह से परिग्रही इन्सान पाँच व्रतों का सामूहिक भंग करता है।
लोभ कषाय को नापने के लिए उपनिषद् में लिखा - पहले त्याग करो फिर भोगों । खाना खिलाने के बाद ही खाना।जहाँ लाहो तहाँ लोहो । जैसे - जैसे लाभ बढता है वैसे वैसे लोभ बढता है।लोभ घटाने का एक ही उपाय है।
*गोधन, गजधन, वाणिधन और रतन धन खान ।*
*जब आगे संतोष धन सब धन धुरी समान ।।*
आचार्य श्री कहते हैं कि लोभ के परिणाम स्वरूप मन एवं शरीर और जीवन की पल - पल में जहर व्याप्त हो चुका है ।तो हे परमात्मा मैं तुझे कैसे भजुं।
परमात्मा मैंने ऐसा सुना है कि तेरा जन्म तुच्छकुल, दरिद्रकुल या कृपणकुल में नहीं होता है। अगर ये सत्य है तो तुच्छता दरिद्रता और कृपणता के शिकार मेरे हृदय में तेरा आगमन कैसे होगा।
आज मुझे पता चला है कि तेरे मंदिर में पैदल चलकर आने में सफल बना पर मेरे हृदय में तुझे लाने में निष्फल क्यों बना *?* तेरे स्तुतियों को मेरी जीभ पर लाकर बोलने में सफल बना मैं पर मेरे हृदय में तुझे जन्म देने में क्यों निष्फल बना मैं। तेरे गर्भग्रह को धुप की सुवास से वासित करने में सफल बना मैं पर मेरे हृदय में सद्गुणों की सुवास से वासित करने में नाकामयाब क्यों बना।तेरे समक्ष चामर नृत्य करने में सफल बना मैं पर मेरे हृदय में तेरे उपकारों की स्मृति से नृत्य कराने में निष्फल क्यों बना *?* उसका एकमात्र कारण मेरा हृदय तुच्छ , कृपण एवं दरिद्र है।
और क्या कहूँ तुझे *?*
क्रोध और लोभ दो ही कमजोरी होती, तो फिर भी अनुभव से बोध पाठ लेकर दूर करने का प्रयत्न करती, पर मैं तो अभिमान से भी वंचित नहीं हूँ।
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✍🏼✍🏼 *भाग - 18* ✍🏼✍🏼
*गल्यो मान रूपी अजगरे : -* मान को अजगर की संज्ञा दी गई है। जैसे अजगर सब स्थान पर बैठे - बैठे ही सिर्फ फुंक मारकर दूर रहें हुए जीव को अपनी ओर खींचता है और फिर निगल जाता है।ठीक वैसे ही मेरे में रहे गुणों का मानरूपी अजगर ने नाश कर दिया है।गुणों के नष्ट होते ही मैं अक्कड़ बन गया।मेरे जैसे मूर्ख ने अपनी अकड़ को बहादुरी मान ली।मैंने मेरी शक्ति की , रूप की , योग्यता की, सत्ता की एवं संपत्ति की राई ऐसी दिमाग में भरी कि मैं देव गुरु धर्म के प्रति गलत धारणा रखने लगा और उन्हें पुराने जमाने का मानने लगा।जन्मदाता माता- पिता के उपकारों को भुल गया। हे परमात्मा मान रूपी अजगर मुझपर इतना हावी हो गया कि मेरे विनय गुण को संपूर्णतया नष्ट कर दिया।मान एवं विनय दोनों विरोधी हैं ये दोनों कभी साथ नहीं रहते। विनय गुण की प्राप्ति के लिए मान जैसे कषाय को अलविदा कहना ही पडेगा। अंहकार , मान, गर्व इन्सान में विनय रूपी गुण को नहीं रहने देता। अक्कड़पन आ जाता है।
अभिमानी सदा स्वप्रशंसा और परनिंदा ही करता है। उनको दूसरों की क्षति, भुल, त्रुटि दोष ही दिखते हैं। अपने दोषों को छुपाने की और दूसरों के अणु जितने दोषों को, दुर्गुण को , मेरू जितना बनाने की कला उन्हें आ जाती है। यह मानरूपी कषाय इन्सान को ज्ञानी नहीं बनने देती।
ब्राह्मी एवं सुन्दरी के प्रतिबोध से बाहुबली को अपनी भुल का एहसास हुआ कि एक वर्ष के कायोत्सर्ग से नहीं बल्कि अंश मात्र मान कषाय को नष्ट करने से ही केवलज्ञान प्राप्त होता है।मानरूपी सर्प के आठ फण है।
1. जातिमद 2. कुलमद 3. बलमद 4. रूपमद 5. तपमद 6. श्रुतमद 7. लाभमद 8. एश्वर्य मद। इन आठ मदों का सेवन करने वाले का पतन निश्चित है। फिर भी हे परमात्मा किस बात का अभिमान *?* करूणता तो यह है कि अभिमान करने जैसा पुण्य भी नहीं है। एवं मेरे पास गुणों का कोई वैभव भी नहीं है फिर भी अभिमान अपार
रूप इतना सुंदर नहीं है, कंठ ऐसा सुरीला नहीं है,
तंदुरूस्ती ऐसी आकर्षक नहीं है, संपत्ति इतनी ज्यादा नहीं है
सत्ता का कोई ठिकाना नहीं है।
पुण्य के क्षेत्र में ये हाल है तो गुण के क्षेत्र में कैसी भयानक स्थिति होगी।
विनय क्षेत्र शुन्य, विवेक क्षेत्र हालत दयनीय
चित्तवृत्ति संतोषजनक नहीं है पवित्रता का नामोनिशान नहीं
नहीं हृदय में संवेदनशीलता , नहीं दिल में सौजन्यशिलता
संक्षेप में आँखें उँची रखकर चल सकुं ऐसा बाह्य अभ्यंतर कोई वैभव नहीं है।फिर भी मूँछें तानकर चलता हूँ।
*जल रहा हूँ क्रोध की अग्नि में, डंस रहा है लोभ सर्प*
*एवं ग्रसित हो गया हूँ अभिमान के अजगर से*
*इतना कम हो ऐसे*
*प्रतिपल आसक्त बन चुका हूँ मायारूपी नागिन में*
*लोभ को हासिल करने में माया का सेवन ।*
*अभिमान को पृष्ट करने में माया का सेवन ।*
*अपनी ख्याति को बढ़ाने में माया का सहारा लिया*
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*संग्रह // नवनित खींवसरा*
*महावीर पाठशाला*
🌹🌹🌹 *रत्नाकर पच्चीसी* 🌹🌹🌹
✍🏼✍🏼 *भाग - 19* ✍🏼✍🏼
मेरा सही स्वरूप किसी को पता न चले।विश्वासघात, छल - कपट , धोखा, दंभ प्रपंच वगैरह करने में मेरे मित्रों, स्वजनों और यहां तक कि अपने माता पिता को भी नहीं छोडा।
बाहर की अच्छी पैकिंग दिखाकर अंदर नकली माल डालकर बेचने में, अच्छा माल दिखाकर खराब माल देने में मुझे मेरी होशियारी कुशलता के दर्शन होते हैं।सभी जगह छाप पड़ने लगी और मैं प्रसिद्ध हो गया।
पल पल में रंग बदलता गिरगिट या पलभर में नष्ट होनेवाले संध्या के रंग, क्षणभर में अदृश्य होनेवाला पानी का परपोटा या क्षणभर में बिखरने वाले मेघ धनुष के रंग , इन सबका मेरे मायावी स्वरूप के सामने कोई मूल्य नहीं है।मेरे असली स्वरूप को इस माया के कारण कोई समझ नहीं सकता। कभी कभी तो मैं भी अपनी दंभी एवं मायावी स्वरूप को सही मान लेता हूँ।मेरे चारों तरफ माया रूपी नागिन के जाल का डेरा डाला हुआ है।
एक चोर के शिकंजे में फसनेवाला भी हैरान परेशान हो जाता है तो हे परमात्मा मैं तो चार - चार चोरों के चक्कर में फंस गया हूँ।कैसी दयनीय दशा है मेरी इसकी कल्पना तु तो कर ही सकता है। अंत में थकान लगी , जिगर के आँसू कम हो गये।गिरगिट के सभी रंग बदलने लगे।मेरी सारी पोल खुल जाएगी ये सोचकर मेरा सुख चैन व नींद दोनों हराम हो गया। मेरे ख्याति व प्रसिद्धि भी मुझे भार रूप लग रही थी।
फिर भी हे परमात्मा मैं एक बात का स्वीकार करता हूँ कि ये चारों चोर बिना बुलाए मेरी आत्मा में नहीं आये ब्लकि मैंने खुद इनको आमंत्रण देकर बुलाया है। एवं उल्लासपूर्वक प्रतिष्ठित किया है। ये आजकल से नहीं अनंतकाल से प्रतिष्ठित किये हुए हैं।
*करोड़ो की कीमत के रत्न पर कीचड से लिप्त ।*
*अनंत गुणों का मालिक आत्मा पर कषायों में आसक्त।*
कीचड में फसे हुए रत्न की कीमत कोडी की ओर कषायों से युक्त आत्मा की कीमत पाई की।प्रभु यही है मेरी कर्मकथा ।
हे परमात्मा तेरा और मेरा स्वरूप एक समान फिर भी तुम आसमान और मैं पाताल में , तू सद्गुणों के सरोवर में और मैं दुर्गुणों के ढेर में, तू पवित्रता के शिखर पर और मैं अपवित्रता की खाई में। इस फर्क को दूर करने का उपाय *?*
क्रोध के अधीन होकर आत्मगुणों का नाश किया। लोभ के चक्कर में पड़ा तो सर्प ने दंश दिया। अजगर रूपी मान के सूपुर्द होने से मेरा ग्रास बनाकर मुझे खा गया, मायारूपी जाल में पक्षी की तरह बंध गया।मेरी भावना थी कि हे नाथ ! तेरी भक्ति से मुक्ति मंजिल को प्राप्त करूँ.... क्रोध से ज्यादा मान, मान से ज्यादा माया और माया से ज्यादा लोभ के वश होकर गाढ़ कर्मबंधन किया।
क्रोधादि कषायों के अधीन हुआ और उसका घोर परिणाम प्राप्त होता है।कर्जा, घाव, कषाय एवं अग्नि, इन चारों को कभी बढ़ने नहीं देना चाहिए।कर्जा बढ़ने से घर के बर्तन भी बेचने का वक्त आता है।घाव का इलाज नहीं करने पर शरीर को रोगीष्ट बना सकता है। अग्नि से थोडी भी असावधानी मकान को जलाकर राख कर देती है। इन तीनों से ज्यादा ...... कषाय आत्मा को अनंत भाव में भटकते हैं। जन्म मरण के चक्कर में फंसते है। ऐसे अवगुणों के पाप से शरीर रोगों से ग्रसित होकर आर्तरौद्र ध्यान में जाने के परिणाम स्वरूप नरक तिर्यंच गतिरूपि बहना उसका स्वागत करती है।
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*संग्रह // नवनित खींवसरा*
*महावीर पाठशाला*
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✍🏼✍🏼 *भाग -21* ✍🏼✍🏼
*मैं पर भवे के आ भवे पण, हित कांई कर्युं नहीं*
*तेथी करी संसार मां,सुख अल्प पण पाम्यो नहीं*
*जन्मो अमारा जिनजी, भव पूर्ण करवाने थया*
*आवेल बाजी हाथ मां, अज्ञान थी हारी गया ||6||*
धर्म वाली एक न नीपजे,धर्म हाटे न वहेंचाय
धर्म विवेक नीपजे, जो करिये तो थाय
हेय ज्ञेय उपादेय इन तीन भागों में जगत की वस्तु , इन्सान और कार्य विभक्त हुए हैं। किंतु इस तथ्य को सही ढंग से समझने वाले, उसके अनुरूप आचरण करने वाले कोई विरल महान विभूति ही होती है। आचार्य रत्नाकरसूरि कह रहे हैं कि मैंने पूर्व भव में या इस भव में हित की कोई प्रवृत्ति नहीं की है क्योंकि हेय, ज्ञेय तथा उपादेय की विवेक बुद्धि ही नहीं थी।वैसे भी विवेक तो जीवन के हर मोड पर जरूरी है।अविवेकी एवं असहिष्णुता ये दोनों तत्त्व जीवन की शांति को नष्ट करते हैं।कार्य अकार्य का विवेक , मन वचन एवं काया की सहिष्णुता हो तो ही जीवन में आनंद, शान्ति एवं प्रसन्नता प्राप्त होती है। इन सब बातों का विचार मनशील व्यक्ति ही कर सकता है। इसलिए विश्व में सभी धर्मों ने मानवभव की महत्ता को समझाया है । किन्तु मानव जीवन मिलने के बाद भी अंतर आत्महित करने का पुरूषार्थ जागृत न हो तो मानवभव भी निष्फल होता है।
क्षुधा शान्ति के लिए भोजन आवश्यक है।तृषा तृप्ती के लिए पानी जरूरी है।सामाग्री खरीदने के लिए धन जरूरी है।तंदरूस्ती के लिए औषध सेवन जरूरी है।ये सब तो मेरे ध्यान में था पर हे परमात्मा सुख प्राप्ति के लिए हित कार्य करना जरूरी है ये मेरी समझ में कभी नहीं था।
*इच्छा सुख की, पर हित की अपेक्षा ।*
*इच्छा प्रसन्नता की, पर सत्कार्यों की अवगणना।*
*इच्छा शान्ति की, पर सद्गुणों की अपेक्षा*
*इच्छा आनंद की, पर साधना की अवगणना ।*
क्योंकि कारण के बारे में अज्ञान कार्य को सफल कैसे करेगा *?* वैसे तो मैं स्वयं और मेरे इर्द गिर्द रहने वाले सभी मुझे बुद्धिशाली मानते हैं।
मंदी के माहौल में पैसा कैसे कमाना, उसकी सलाह के लिए सबको मेरे पास आना पड़े।
असाध्य रोग को कैसे मिटाना उसकी पर्याप्त जानकारी मेरे पास है।
जनता के बीच अपनी साख कैसे जमाना और अपनी वाहवाही कैसे लुटाना इसकी जानकारी लेने अच्छे अच्छे लोग मेरे आगे - पीछे घुमते है।
संक्षेप में कहना है तो कह सकते हैं कि मरूभूमि में नाव चलाने का स्वामी हूँ।
पर बाजी यहां हार गया जहाँ सुख एवं हित के बीच प्रसन्नता एवं सत्कार्य, शांति एवं सद्गुण के बीच आनंद एवं साधना के बीच के कार्य के कारण भाव को समझने की बात है।
परिणाम जो आना था वही आया।
कल्पना सुख की थी पर दुःखों का पहाड़ टूटा।
प्रसन्नता की ख्वाहिश फिर भी संक्लेशों का नहीं पार।
शान्ति की अपेक्षा पर अंतर में अशांति की आग
चाहना आनंद की पर उद्वेग के हमले होते ही रहे।
कहीं देखी थी एक शायर की पंक्तियाँ-
*" इच्छा इच्छा ये ढलवुं पड़े, वलांके वलांके वलवुं पड़ें, हलवुं पड़े, मलवुं पड़े, आवे ओछुं रडवुं पड़े "*
अभी ये ही हो रहा है।मेरे जीवन के साथ मन में उठाने वाली सभी इच्छाएं मेरे लिए ढाल की गरज सार रही है। जैसे ढ़ाल पानी के नीचे उतार देता है वैसे ही सभी इच्छाएं मुझे निम्न कोटि में ले जा रही है।नीचे उतार रही है मतलब *?* लाचार बना रही है, दीन बना रही हैं एवं निःसत्व बना रही है।
इच्छा थी संपत्ति को पाने की पर पुण्य कम है।मन सतत दीनता का अनुभव कर रहा है।इच्छा हो रही है अत्र - तत्र सर्वत्र सफलता पाने की। ललाट छोटी पड़ रही है।मन सतत् उद्विग्न रहता है।ख्वाहिश होती है एक नंबर पर , सबसे अव्वल रहने की पर नसीब साथ नहीं देता है।मन निःसत्व बन रहा था इसलिए सुख प्राप्त नहीं हुआ। सुख प्राप्त नहीं होने की वजह - सरकार भ्रष्टाचारी है, व्यापारी सब चोर हैं, दोस्त धोखेबाज हैं, परिवार स्वार्थी हैं, ऐसी भावनाएं आने लगी।
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*संग्रह // नवनित खींवसरा*
*महावीर पाठशाला*
✍🏼✍🏼 *भाग - 22* ✍🏼✍🏼
एक तरफ असफल इच्छाएं इतना परेशान कर रही है तो दूसरी ओर रोजमर्रा के कार्य करने पड़ते है वे गलत, असंगत समाधान मुझे हर निचली कक्षा के इंसान से भी खुशामद करने को मजबूर होना पड़ता है ।संपत्ति के लिए मैंने व्यभिचारी के पांव पकड़े और आवश्यकता पूर्ति के लिए मैं दुराचारियों की भी प्रशंसा करने लगा।स्वार्थ पूर्ति के लिए खुनी के पास भी मैंने हाथ फैला दिया।अपेक्षा पूर्ति के लिए गुंडों के पास जाकर अपने पांव घिसने लगा।
क्या कहूँ तुझे *?* जैसे संपत्ति से दरिद्र इन्सान हर गलत समाधान कर सकता है वैसे ही पुण्य के दरिद्र इंसान को हर तरह की गलत बांध छोड करनी पड़ती है।
इतना होने के बावजूद करूणता तो इस बात की है कि मेरी धारणा लायक कुछ होता नहीं और बिन सोचे समझे सब कर रहा हूँ।सफलता नहीं मिलती, समाधि टिकती नहीं और परिणाम स्वरूप आँखों से आँसू बहते रहते हैं।
ऐसा लगता है कि -
गाडी नहीं आने पर इंसान जैसे स्टेशन पर इधर उधर चक्कर मारता है गाड़ी की प्रतीक्षा में, ठीक उसी प्रकार मैं भी मौत रूपी गाड़ी नहीं आने के कारण जीवन रूपी स्टेशन पर इधर उधर चक्कर मार रहा हूँ।
पुण्यहीनता की वजह से सतत् क्लेशों का शिकार बन गया। गुणहीनता के कारण संक्लेशों ने मुझ पर धावा बोल दिया है।
अंनतगुणों का स्वामी आप मिले।अनंत कल्याणकारी आपका शासन मिला।अनंत हितकारक आपके बताये हुए सद्अनुष्ठान मिले ।अनंत सुखकारक आपके वचन मिले।
*फिर भी मोहांधता ने मुझे भान भुलाया ।*
*अज्ञानदशा ने मुझे व्युदग्राहित बनाया ।*
*रागांधता ने मुझे आसक्त बनाया।*
*द्वेषांधता ने मुझे वैरी बनाया।*
परिणाम यह जीवन ।भुतकाल में मिले अनंत जन्मों में एक जन्म का इजाफा (बढोतरी)।
परमात्मा एक विनती है आपसे।जैसे बच्चे की हर इच्छा उसकी माँ पूरी नहीं करती।बच्चे के पेट में तकलीफ हो या उसे दस्तें लग रही हो और बच्चा दूध पीने के लिए रो रहा हो। उस वक्त माँ बच्चे के आँसुओं की परवाह नहीं करती ।ठीक वैसे ही उसी न्याय से मुझे अगर सुख की इच्छा हो पर मेरी बुद्धि बिगड़ी हुई हो तो उस समय हे परमात्मा तु मेरी इच्छा की अवेहलना करना।
हित को नुकसान कारक समाधि को बिगाड़नेवाली एवं परलोक को बरबाद करे ऐसी मेरी एक भी इच्छा आप पूरी मत करना।क्योंकि अब मुझे पता चल गया है कि मेरी तो इच्छा सुख की है।जबकि-
मेरे लिए आपकी इच्छा हितकारी है, मेरी इच्छा सिर्फ शरीर को स्वस्थ रखने की एवं मन को प्रसन्न रखने की होगी।
जबकि मेरे लिए आपकी इच्छा मेरी आत्मा को पवित्र बनाने की है।मेरी इच्छा तो सिर्फ इस भव को ही उज्जवल करने की है जबकि मेरे लिए तेरी इच्छा अनंत भवों को भी उज्जवल बनाने की है।
*मैं परम अज्ञानी और आप परम ज्ञानी*
*मैं निर्गुणियों में चक्रवर्ती एवं आप गुणवानों में मूर्धन्य*
*मैं क्रोधादि कषायों से लिप्त एवं आप उपशम रस में आसक्त*
*मैं मोह का सेवक एवं आप मोह के भंजक*
हाँ मुझे विश्वास है कि आप मेरे अहं एवं अज्ञान को तोडने का ही प्रयत्न करेंगे।जब वो दोनों टूट जायेंगे तब नाव का डूबना असंभव हो जायेगा।
लेकिन इस बात का पता बहुत समय के बाद चला कि इस जगत में जितना भी सुख है वो सब धर्म का फल है और जितना भी दुःख है वो सब पाप का फल है।जब ये पता चला तब मेरी आयुष्य रूपी डोर के टूटने का समय आ गया है।
अनंत पुण्य राशि से मनुष्य भव मिला ।आर्यक्षेत्र मिला, जैन कुल मिला, देवगुरु धर्म मिले, तत्त्वत्रयी एवं रत्नत्रयी
की आराधना करके आत्मकल्याण का मार्ग मिला।फिर भी अज्ञानतावश मैं मेरे मनुष्य भव को हार गया, कल्याणकारी मार्ग चूक गया।
अंत में हे परमात्मा
*तुने मानवभव की महत्ता को समझाया*
*तेरी ही शरण में मैं आया*
*गुणगान मैंने तेरा ही गाया*
*अब तो लगी है तेरी माया*
*सफल करना मेरी काया*
*पुण्य कर्मों को मैंने गंवाया*
*पाप कर्मों को साथ में लाया*
*पायी है तेरी शीतल छाया*
*दादा तुने आशीष बरसाया।*
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✍🏼✍🏼 *भाग - 23* ✍🏼✍🏼
*अमृत झरे तुझ मुखरूपी चंद्रथी तो पण प्रभु*
*भीजाय नहीं मुझ मन अरे रे, शु करूं हूँ तो विभु?*
*पत्थर थकी पण कठण मारूं मन खरे क्यांथी द्रवे ?*
*मरकट समा आ मन थकी हूँ तो प्रभु हार्यो हवे ।।7। ।*
हे तीन जगत के नाथ परमात्मा।सवा योजन की धरती को पवित्र करने वाली बारह प्रकार की पर्षदा को परमात्मा की वाणी एकाएक करती है। तीर्थंकर नाम गोत्र के प्रभाव से एवं वचनातिशय युक्त तीर्थंकर परमात्मा की वाणी पैंतीस गुणों से युक्त है। जिस वाणी के प्रभाव से पशु भी अपने जन्म जात वैर को भूल जाते हैं।उस वाणी के प्रभाव से समवसरण के चारों तरफ 25- 25 योजन तक मारी, मरकी एवं स्वचक्र परचक्र का भय नहीं रहता है।देवता, तिर्यंच , मनुष्य सभी अपनी अपनी भाषा में परमात्मा की वाणी को समझ सकते हैं । ऐसे परमात्मा का अतिशय होता है।जैसे मान लो पुष्करावर्त मेघ की धारा। मधुर मृदु स्यादवाद से सुशोभित एवं भव्य जीवों के लिए उपकारी परम हितकारी पूरे विश्व को आह्लादकारी सशांत धीर- गंभीर एवं अमृतमयी वाणी तीर्थंकरों के मुख से बह रही है।तीर्थंकरों का जीवन स्वयं जीवंत शास्त्र है । उनकी वाणी में अहिंसा, सत्य, अचौर्य ,ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, अप्रमाद एवं अनेकांत का नाद गुंज रहा है।वे मानव समाज के आधार स्तंभ है।परमात्मा के इस वाणी को रत्नाकर सूरि ने अमृत की उपमा दी है।
पेट में गड़बड़ हो तो पकवान के प्रति रूचि कैसे जागेगी ? आँखें ही कमजोर हो तो मनोहर दृश्य क्या प्रसन्नता दे सकता है? कान ही बहरे हो तो कर्णप्रिय संगीत भी क्या खुशी दे सकेगा ? नाक ही सर्दी लगी हो तो वृंदावन का उद्यान भी किस काम का? ठीक वैसे ही परमात्मा मेरा मन ही कलुषित हो तो तेरी अमृतमयी वाणी जो तेरे मुख से बह रही है वो मेरे को कहाँ से सुधार पायेगी ?
हे प्रशम निर्जर ! रंगारंग में मस्त एवं दुनियादारी में व्यस्त ऐसा मेरा मन अब आपके मुखचंद्र से बहती अनराधार बरसती अमृत वर्षा में भीगने वाला नहीं रहा ।क्योंकि मेरे छोटे दुःख में भी मैं संवेदनशील हूँ और दूसरों के बडे दुःख में भी संवेदनाहीन बन रहा हूँ।मेरे छोटे से दुःख को दूर करने के लिए सब लोग मेरे पास आने ही चाहिए, यही है मेरी मान्यता ।जबकि दूसरों के बडे दुःखों के प्रति में देखा- अनदेखा कर रहा हूँ।यही है मेरी कठोर वृत्ति। ऐसी वृत्तियों ने मेरे मन की भूमि को सूखी निर्जन एवं बेडौल बना दिया है।यही मेरी बदमाशी है।
जन्म से ही जिसका चित्त पत्थर था ऐसे कठोर पत्थर में से प्रतिमा निर्मित करने का कार्य शिल्पी ने किया जबकि जन्म से ही जिसमें परमात्मा बनने की क्षमता थी ऐसा में आज पत्थर समान बन गया हूँ।मेरी इस करूण दशा की बात किसके सामने करूँ ।कौन सुनेगा तेरे बिना ?
ऐसा कह सकते हैं कि जगत के जीवों में दुःख को तू देख नहीं सकता था, सतत् करूणा दृष्टि रखता था। इसलिए तुम परमात्मा बन और जगत के जीवों के दुःख दर्द को नहीं देखा इसलिए मैं अंध बन गया।इसलिए मैं पत्थर बन गया।
प्रश्न मैं अपने आप से पूछता हूँ।प्रेम का जो रास्ता है वो आत्मा को परमात्मा बनाने में सक्षम है। उस रास्ते को त्याग करके द्वेष का रास्ता जो आत्मा को पत्थर बनाता है उस रास्ते पर कदम रखने की गलती क्यों कि मैंने ? ऐसी कारमाईकल की प्रेम की महिमा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि -
प्रेम को तुम्हारे जीवन का सर्वोच्च ध्येय बनाना क्योंकि निडर प्रेम जोखिम जरूर लगता है लेकिन फिर पिछे हट कभी नहीं करता।गतिशील होता है ।वो थकना या हारना नहीं जानता।पत्थरों का बोझ भी पुण्य जैसा हल्का होता है।ऐसा प्रेम मेरे अंदर के, बाहर के, नभ एवं धरती के, सभी मार्गों एवं दिशाओं को गति प्रदान करता है। उज्ज्वल बनाता है मेरी इच्छा है कि प्रेम प्रतिक्षण मेरे नस-नस में प्रवाहित रहे।मेरी पूरी जिंदगी में प्रेम हर क्षण मेरा साथी या पथ प्रदर्शक बना रहे।कई बार मेरे पढने में या सुनने में आया लेकिन उसे मैंने शब्दों तक ही सीमित रखा या आदर्श रूप ही माना। उसे मेरे जीवन में आचरण में नहीं लाया। उसकी जगह मैंने द्वेष को अपने जीवन में आचरण में लाया।गंभीरता से सोचता हूँ तो लगता है कि मैं सुरक्षा प्रेमी इंसान हूँ।संपत्ति भी मैं इसलिए इकट्ठी कर रहा हूं कि उसमें मुझे सुरक्षा के दर्शन हो रहे हैं।सामग्री या घर गत्थु चीजें भी मैं इसलिए एकत्रित कर रहा हूँ तो उसमें भी मेरी सुरक्षा ही दिख रही है।कई लोगों के साथ मैं अपने संबंध भी इसलिए बना, बढा रहा हूँ कि इन संबंधों में मुझे सुरक्षा का एहसास हो रहा है।
रत्नाकर पच्चीसी
भाग - 24
ये सब बातें मेरे दिलो दिमाग में घर कर गई है।संक्षेप में मुझे अपने आप को सुरक्षित रखना हो तो संपत्ति, सामग्री और संबंध इन तीनों का व्यापार जितना बढ़ सके, जितना विस्तरित हो सके उतना बढाना ही पडेगा।।पर मुश्किल इस बात की है कि संपत्ति को छोडने का साहस किए बिना , सामग्री (परिग्रह) की ममता का त्याग किए बिना एवं संबंधों का विस्तरण किये बिना प्रेम को आत्मसात करना नामुमकिन है।हे परमात्मा ! मेरी एक अर्ज है कि मुझ पर ऐसी कृपादृष्टि करो कि मुझे प्रेम में ही अपने सुरक्षा के दर्शन हों ।
अगर परमात्मा तेरी असीम कृपा से इस काम में सफल हुआ तो फिर पत्थर जैसे मेरे दिल को मक्खन जैसा मुलायम और पुष्प जैसा कोमल बनाने में लेशमात्र भी तकलीफ नहीं होगी।
*मन लोभी मन लालची, मन चंचल मन चोर*
*मन के मते न चलिए, पलक पलक मन ओर*
अलबत्ता , जीव क्षेत्र मेरा मन पत्थर जैसा है ये वास्तविकता मेरे लिए जितनी त्रासदायक , कष्टदायक है उतनी कष्टदायक और त्रासदायक ये वास्तविकता भी है कि हे तारक धर्म क्रिया के क्षेत्र में मेरा मन मर्कट (बंदर) जैसा है।सतत् एक स्थान से दूसरे स्थान पर, एक डाल से दूसरे डाल पर जाने का कूदने का स्वभाव मर्कट का है ।ठीक वैसा ही स्वभाव मेरे मन का भी है।पलभर वो स्वस्थ नहीं , कहीं पर स्थिर नहीं है।मर्कट भले ही एक जगह पर बैठा हो लेकिन उसकी नजर चारों तरफ फिरती ही रहती है।वैसे ही मैं एक स्थिर आसन पर बैठने के बावजूद मेरा चंचल मन चारों तरफ भटकता ही रहता है। ऐसा भी कह सकते हैं कि -
पानी की तरलता, पारा की चपलता और मर्कट की चंचलता ।ये तीनों ही मेरे मन की तरलता , चपलता और चंचलता के सामने कुछ भी नहीं है।कुछ पंक्तियाँ भी मन के इस विचित्र स्वभाव को ही प्रदर्शित करती है।
*मन राई नो दाणो ने, आ मन पत्थरियो पहाड*
*मन फूल नो बाग बगीचों, मन कांटा नी वाड ।।*
एक मन में अनेक मन है। अनेक मन में एक।यानि पूरे लिखावट से भरे हुए कागज पर कितनी काट छांट प्रभु ।
मन के क्षेत्र में सबसे बडी करूणता तो यह है कि अन्य जीवों के प्रति पत्थर जैसा मैं -
अपने लिए तो मक्खन से भी मुलायम हूँ ।
धर्म क्रिया के क्षेत्र में मर्कट जैसा चपल एवं चंचल मन पाप क्रिया के प्रति तो मन पूरा ध्यानमग्न और उसमें लीन रहता है।पूजा करते वक्त मन भटकता है पर सिनेमा देखते हुए तो पलक भी नहीं झपकता , माला गिनते वक्त मन चंचल हो रहा है पर नोट गिनते वक्त मन संपूर्णतया उसमें लीन रहता है। दूसरे के दुख दूर करने के लिए पांच हजार रुपये भी खर्च करना पडे तो मेरा मन पत्थर जैसा है।मुझे अगर कोई तकलीफ हो तो हजारों खर्च करने में देर नहीं करता।संक्षेप में तराजू के दो पलडे होते हैं।वैसे मेरे मन के भी दो स्वरूप है। उदारता कोमलता सहृदयता मुझे पसंद है मगर मेरा मन अपने के लिए।लेकिन दूसरों के लिए मेरे मन में कठोरता, कृपणता संवेदनहीनता ही होती है।
मन की स्थिरता और तल्लीनता मुझे पसंद है परंतु सिर्फ पाप किया और स्वार्थपूर्ति में। धर्म के क्षेत्र में मेरा मन भटक रहा है, अटक रहा है।पर मुझे उसकी कोई व्यथा दुःख या परेशानी नहीं।
हे परमात्मा ! अब तो मैं ऐसे पत्थर जैसे मन से थक गया हूँ।मर्कट सम मन से मैं हार गया हू ।अब तो करूणादृष्टि करके इस दुख से मुझे मुक्त कर ।तू ही तारणहार है, तू ही रक्षणहार है, तू ही दीन दयाल है ।अब इस रंक , अबोध , अज्ञानी बालक का उद्धार , उन्नति और कल्याण कर।तेरे चरणों में मुझे स्थान दे, वास दे।मैं तड़प रहा हूँ, तरस रहा हूँ।हे परमात्मा ! मेरी पुकार सुनो, सुनो, सुनो. ......।ये दिल से निकली हुई दुखी बाल की आवाज हैं।
अंत हे परमात्मा -
*तु सद्गुणों की खान*
*रखना तु मेरा ध्यान*
*गाऊगी तेरा गुणगान*
*करूंगी अमृतरस का पान*
*दादा सुनो लगा के कान*
*अब तेरी की है मैंने पहचान*
*देना ऐसा सम्यग्ज्ञान*
*बढ़ाऊंगी दादा तेरी शान*
*अब तो दादा मेरी मान*
*क्योंकि तेरे में मग्न हैं मेरी जान*
🙏🏼🌹🙏🏼 *जय जिनेन्द्र सा*🙏🏼🌹🙏🏼
🌹🌹🌹 *कृष्णगिरि मंडल 10* 🌹🌹🌹
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रत्नाकर पच्चीसी
भाग - 25
*भमता महा भव सागरे पाम्यो पसाये आपना*
*जे ज्ञान दर्शन चरणरूपी रत्नत्रयी दुष्कर घणा*
*ते पण गया प्रमाद ना वश थी प्रभु कहुँ छुं खरूं*
*कोनी कने किरतार आ पोकार हूँ जईने करूं।। 8।।*
अनादि काल से संसारी जीव इस जगत , भव सागर में परिभ्रमण कर रहे हैं।जन्म मरण करते करते महा दुर्लभ ऐसा चिंतामणी रत्न समान मनुष्य भव प्राप्त हुआ है। इससे भी बढकर जैन कुल, आर्य क्षेत्र, शरीर की स्वस्थता ये सब पुण्य प्रताप के बिना प्राप्त नहीं होता है ।
हे दयानिधे ।संसार महासागर में फिरते, फिरते आपकी कृपा से मुझे दुष्कर ऐसे सम्यग्दर्शन , सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र रूपी रत्नों की प्राप्ति हुई है। भगवान महावीर ने कहा था कि *" श्रद्धा परम दुल्लहा "* इन तीनों रत्नों पर श्रद्धा रखकर धार्मिक अनुष्ठान करना।पर मैंने तो आलस और प्रमाद के नशे में संसार की ओर दृष्टि रखते हुए इसे भी खो दिया।जिनाज्ञा का पालन सम्यग्दर्शन के बिना शक्य नहीं है।सम्यग्दर्शन के बिना भवों की गिनती नहीं होती है और जब तक भवों की गिनती शुरू नहीं होती तब तक मोक्ष नहीं होता है।तत्वार्थ सूत्र में उमास्वाति जी ने कहा है -
*सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग :*
इन तीन रत्नों से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है।ऐसा जानते हुए भी मैं पाँच इन्द्रियों के मनपसंद प्रमाद के नशे में मस्त बना।आँखों से विजातीय को देखा , कानों से विलासी और फिल्मी गीतों को सुना।नाक को सुगंध लेने में व्यस्त कर दिया।जीभ को मनपसंद , मसालेदार जायकेदार खाना दिया और स्पर्श में डनलोप की गद्दी पर सोने का काम। यही मेरा आकर्षण था ।मोह के नशे में पेट में अभक्ष्य पदार्थों का भक्षण करते हुए जी रहा था, निंदा करना, वासना के नशे में जीना इसे ही मेरी जीवनी बना दी और मिले हुए रत्नों को मैंने खो दिया। ठगा गया मैं।अब मैं अपनी व्यथा कहाँ जाकर किसको सुनाऊँ ?....एक छोटा सा उदाहरण
एक भिखारी था और वो भी शराबी ।पैसे की कमाई का कोई जरिया नहीं।कभी कभार किसी उदार व्यक्ति से मिल भी जाता तो शराब की लत की वजह से उसके हाथ में ज्यादा देर तक टिकता नहीं ।ऐसे व्यसनी कामभागी भिखारी का नसीब एक दिन खुल गया।किसी उदार दाता की नजर इस भिखारी पर पड़ी और उसने एक लाखों का किमती का हीरा उसके हाथ पर रख दिया। परंतु वो भिखारी सिर्फ भिखारी ही होता तो ठीक लेकिन उसे तो शराब की बुरी लत जो थी। व व्यसनी था और वो भी जुगार का नहीं शराब का व्यसन।अंत में जो होना था वही हुआ। भिखारी वो हीरा हाथ में लेकर शराब के अड्डे पर पहुंच गया।वहाँ उस हीरे को एक हाथ में रखा और दूसरे हाथ में शराब की बोतल ले ली।वो पीने लगा।बेशुमार पीने लगा। अंत में शराब के नशे में धुत होकर गिर पडा और दूसरे हाथ में रहा हुआ हीरा छुट गया।वो हाथ से गिरा , उसका इस शराबी को कोई भान नहीं था।लेकिन वहाँ बैठे और खडे प्रपंची अन्यायी
दगाबाज लोगों ने देखा और उसे लेकर वहाँ से चलते बने।कुछ वक्त बाद इसको होश आया तब उसे लगा कि उसके श्रीमंत बनने का सौभाग्य जो उसे मिल रहा था वो फिर दुर्भाग्य में परिवर्तित हो गया। उस समय उसकी आँखों में आँसू आ गए लेकिन आँसू बहाने के अलावा उसके पास कुछ भी शेष नहीं था।
हे प्रभु ये हाल मेरा भी है। पुण्यक्षेत्र और गुणक्षेत्र दोनों के तरफ से मैं भिखारी हूँ।न बाहर की दुनिया में मुझे कोई आदर सम्मान दे रहा है और न आभ्यांतर जगत में आदर सम्मान पा रहा हूँ।बाहर मेरी दरिद्रता देखकर जगत मुझसे दूर भागता है और मेरी आभ्यांतर दरिद्रता देखकर मैं खुद मुझसे दूर जा रहा हूँ।
पुण्यहीन होने के कारण दुनिया को मैं पसंद नहीं हूँ और गुणहीन होने के कारण मेरे खुद को मैं पसंद नहीं हूँ।ऐसे जालिम, दुखी एवं भयंकर दोषित व्यक्ति मुझ जैसे को अनमोल ज्ञान दर्शन चारित्र मिल जाये ये कतई संभव नहीं है।पर पता नहीं किस भव में मेरे पुण्य का उदय हुआ ?
🙏🏼🌹🙏🏼 *जय जिनेन्द्र सा*🙏🏼🌹🙏🏼
🌹🌹🌹 *कृष्णगिरि मंडल 10* 🌹🌹🌹
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रत्नाकर पच्चीसी
भाग - 26
हे परमात्मा मेरी अभी दृष्टि पड़ी मुझ पर और मेरी अपात्रता होने के बावजूद तेरी उदारता से मैं निहाल हो गया।मुझ जैसे अभागे को ज्ञान दर्शन चारित्र रूपी रत्नों के दर्शन भी दुर्लभ थे फिर भी आपने उदार बनकर ये ही रत्न मुझे सौंप दिया रातोंरात आपने मुझे अभ्यंतर जगत के श्रीमंत की कतार में खडा कर दिया।पर ! रे दुर्भाग्य ! उस भिखारी की तरह मैं भी नशेबाज निकला।
वो भिखारी शराब के नशे में मस्त।
*मैं मोह के नशे में व्यस्त।*
वो भिखारी किचड़ और गंदगी में लोटे।
*मैं वासना के नशे में उसी गंदगी में लिप्त।*
वो भिखारी नशे में गंदी भाषा का प्रयोग करे।
*मैं मोह के नशे में निंदा कुथली करू।*
वह भिखारी नशे में अपने पेट में गंदे द्रव्य डाल रहा है, वैसे मैं भी मोह के नशे में अपने पेट में अभक्ष्य पदार्थ खा रही हूँ। वो भिखारी अपने हाथ में रहे हुए लाखों के हीरे की कीमत से अनजान , वैसे ही मैं अपने पास रहे हुए अनमोल रत्नत्रयी की कीमत से अनजान। अन्यायी , प्रपंची , दगाखोर लोगों ने उस भिखारी से श्रीमंत बनने का सौभाग्य छीन लिया ठीक वैसे ही राग- द्वेष और अज्ञानता रूपी शत्रुओं ने मेरे परमात्मा बनने का सौभाग्य छीन लिया है।
प्रभु....... तेरे पास एक बात का मैं इकरार करती हूँ।आज तक मैं एक भ्रम में जी रहा था कि परिणाम का आधार प्राप्ति है तंदुरूस्ती के परिणाम का आधार बादाम की प्राप्ति है , ख्याति के परिणाम का आधार संपत्ति की प्राप्ति है , समाधि- सद्गति के परिणाम का आधार तेरी प्राप्ति है।पर तेरे मिलने के बाद एवं तेरी तरफ से रत्नत्रयी की प्राप्ति होने के बाद भी आज मेरी दयनीय स्थिति को देखकर अनुभव करने के बाद मेरी भ्रमणा नष्ट हो गयी है और अब समझ में आता है कि परिणाम का आधार प्राप्ति नहीं , प्रकिया नहीं पर पात्रता है।
सागर को भी पानी तो आकाश से ही प्राप्त होता है पर वो उसे खारा बना देती है जबकि वही पानी नदी मीठा बनाती है।सर्प उस पानी को जहर बना देती है जबकि किसी सीप के मूँह में वही पानी स्वाति नक्षत्र में जाए तो उसे मोती बना देती है।सागर, नदी , सर्प और सीप सबको पानी एक ही जगह से प्राप्त होता है पर परिणाम में कितना अंतर है ? कारण. ....... पात्रता।
बादाम खाने में भी बीमार में और तंदुरुस्त कितना अंतर है।बीमार को बादाम नहीं पचती वो और ज्यादा बीमार हो जाता है जबकि तंदुरुस्त और हृष्ट - पृष्ट होता है। कारण ......पात्रता।
जो रत्नत्रय परमात्मा तुने गौतम गणधर को दिया वही रत्नत्रय मुझे भी दिया। मेघकुमार के पास चारित्र जैसा था वैसा चारित्र मुझे भी मिला।स्थूलिभद्र के पास जो स्वाध्याय था वो ही मेरे पास भी था ।सुलसा को मिला तेरा दर्शन वैसा ही दर्शन मुझे भी मिला फिर भी परिणाम में अंतर वो सब तेरे जैसे हो गए या होने का निश्चय कर लिया है जबकि मैं अब भी भटक रहा हूँ।संसार से न तो मेरी सद्गति निश्चित हुई और नहीं मेरी समाधि निश्चित हुई है।
*सद्गुणों का दिवाला और सद्बुद्धि की कमी।*
*शांति स्वप्न में और संक्लेश हकिकत में ।।*
परिणाम में इतना भारी अंतर होने का एकमात्र कारण मेरी अपात्रता ।और इस अपात्रता का कारण मेरी मोहांधता ।सुख के स्थान पर दुख के दर्शन
*अरिहंत के स्थान पर हित के दर्शन*
*जिनसे निर्भय होना था उससे भयभीत*
*जहाँ से भागना था वहीं लिया विश्राम*
ये सब दुर्बुद्धिजन्य प्रवृत्तियां एवं वृत्तियों का एकमात्र कारण मोहनीय कर्म एवं उनकी संपूर्ण आज्ञा।
हे प्रभु. ...... अंधे को आँखे मिलने के बाद भी जब वो दुबारा अंधा बन जाए तो उसकी वेदना।भिखारी को संपत्ति मिल जाए और वापस वो भिखारी हो जाए तो उस समय उसके दुःख पीड़ा का अनुभव।उससे कई गुना वेदना और पीड़ा मैं भुगत रहा हूँ। उसका अनुभव कर रहा हूँ।तेरी कृपादृष्टि से ही इस संसाररूपी महासागर में अनमोल रत्नत्रय मिलने के बाद भी मैं प्रमाद के पाप एवं मोहांधता के कारण मेरे हाथ से फिसल रही है।
हे परमात्मा किसी कवि की पंक्तियाँ मैं तुझे कहता हूँ.......
*दिन हो या रात मुझे मिले तेरा साथ*
*इतना दे दे फिर मैं और न मांगु नाथ।।*
तेरा साथ मुझे मिल जाए यानि मेरी मोहांधता का अंत एवं मेरी पात्रता का उदय ।....
अंत में हे परमात्मा
*दिन हो या रात*
*तु करना मुझसे बात*
*न देखना रीत - भात*
*तु ही मेरी मात्*
*मारना मत मुझे लात*
*रखना सदा तेरे साथ*
*कर्मों का करना है घात*
*तो उगेगी मंगल प्रभात ।।*
🙏🏼🌹🙏🏼 *जय जिनेन्द्र सा*🙏🏼🌹🙏🏼
🌹🌹🌹 *कृष्णगिरि मंडल 10* 🌹🌹🌹
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रत्नाकर पच्चीसी
भाग - 27
*ठगा विभु आ विश्व ने वैराग्य ना रंगों धर्या*
*ने धर्म ना उपदेश रंजन लोक ने करवा कर्या*
*विद्या भण्यो हूँ वाद माटे केटली कथनी कहूँ*
*साधु थईने बाहर थी तामसिक अंदर थी रहने || 9 ||*
हे परमात्मा! अति दुर्लभ संयम जीवन को प्राप्त करने के बाद भी मैं प्रमाद के परवश बना । इसलिए प्रवृत्ति में साध्वाचार का आचार है पर मेरी वृत्ति में विषयाभाषा विद्यमान है । अंग पर रंग वैराग्य और मन में संग संसार का ।
हृदय में क्रूरता सिंह जैसी पर बाहर में भोले कबूतर जैसा, मन की उद्दंडता शियाल को भी टक्कर मारे पर बाहर मैं सरल गाय जैसा, शरीर को नोचने की वृत्ति समडी जैसी फिर भी बाहर दिखावा पुष के रस को चुसने वाले भ्रमर जैसा । गद्दारी मेरी कपटी बगुला जैसी पर बाहर वफादारी कुत्ते जैसी ।
*संक्षेप में :-* मेरी वृत्ति संपूर्णतयाः जहर एवं मेरी प्रवृत्ति में संपूर्णतया अमृत।
प्रभु ! वृत्ति प्रवृत्ति के बीच के विरोधाभास को देखें तो अनायास ऐसा लगता एवं विचार आता है कि -
बम्बई के रानीबाग में जानवरों को रखने के बदले मुझे ही रखना चाहिए। क्योंकि सिंह तो हर पल सिंह ही रहता है।पिंजरे में और पिंजरे के बाहर ।उसके रूप में कोई भेद या फर्क नहीं होता।वह हर पल क्रूर ही है।मगरमच्छ को दूर से या पास से देखें तो एक समान ही दिखता है।सर्प की अविश्वसनीयता हर वक्त एक जैसी ही रहती है।पर मेरी तो बात ही न्यारी है।ग्राहक के आगे मेरा रूप अलग होता है और व्यापारी के सामने मेरा रूप बिल्कुल अलग ही होता है स्वार्थपूर्ति पहले को मेरा व्यवहार और बाद में मेरा रूप।भगवान के सामने स्तुति बोलते वक्त जैसे मैं परम भक्त लगता हूँ।गुरु की भक्ति करते समय उनका शिष्य लगता हूँ।पर ..... अपेक्षा भंग में आग, सफलता में पर्वत, मायासेवन में सर्प, वक्रता में जंगल , संवेदनहीनता में रेगिस्तान।संक्षेप में कहूँ तो मेरा कोई निश्चित रूप नहीं है, कोई निश्चित चेहरा नहीं है और कोई निश्चित वृत्ति प्रवृत्ति भी नहीं है।
त्याग के बिना वैराग्य नहीं टिकता है।हकिकत में वैराग्य को वेश के साथ कोई लेना देना नहीं है।जैसे साधु वैरागी होता है वैसे गृहस्थ भी वैरागी होता है।वेश - धारण करने मात्र से कोई साधु नहीं बन जाता।जो साधुत्व के मूल को जाने पहचाने और पालन करे वो ही उसके फल को जान सकता है।वेश धारण करने के बाद मन वैरागी है या शरीर ये तो उस व्यक्ति का मन ही जान सकता है। आचार्य श्री यहाँ आत्मनिंदा करते हुए कहते हैं कि हे प्रभु. ... मेरे ज्ञान वैभव के कारण लोगों में श्रद्धा भक्ति का पात्र बना किन्तु मेरा अंतःकरण कह रहा है कि तु भोले भक्तजनों को ठग रहा है।हे प्रभु, लोगों को ऐसे ठगने के कारण मेरी दशा क्या होगी ? मैं भी दंभी साधु बना, मैंने मेरे साधु वेश में कितने लोगों को भरमाया।
*ने धर्म ना उपदेश रंजन लोक ने करवा कर्या*
आचार्य श्री आगे कह रहे हैं कि मैंने धर्म के उपदेश देकर लोक रंजन किया है।धर्मोपदेश देने के पीछे ऐसा भाव नहीं है कि लोग धर्म प्राप्त करे, आत्मा का उत्थान करे, गृहस्थाश्रम में रहकर भी आदर्श श्रावक बने या सर्वविरति के मार्ग में आवे। लोगों की भी ऐसी आदत होती है कि वाह क्या व्याख्यान दिया है। एवं संतो के मन में भी जाने अनजाने अप्रकट लोकेषणा का भाव होता है। हमारा चातुर्मास बहुत ठाठ- बाट से हो, बहुत तपश्चर्या हो, धूमधाम हो, वाह वाह हो जाए।कोई विरला आत्मा ही होगी जो इन सब विचारों से विरक्त होगी।
मेरी वृत्ति एवं प्रवृत्ति दोनों में जमीन आसमान का अंतर है।हाँ एक बात में बिलकुल स्पष्ट हूँ मैं।
मेरे मन की गंदगी को कोई देख न ले, जान न जाए, कहीं प्रकट न हो जाए, कहीं में बदनाम न हो जाऊं इसलिए दंभ की खाई में जितना भी नीचे उतरना पडे उसके लिए मैं तैयार हूँ।
सभी मुझे अच्छा कहें, अच्छा होने का प्रमाण पत्र दे, मेरी किर्ति चारों तरफ फैले उसके लिए मैं कुछ भी करने को तैयार हूँ।
🙏🏼🌹🙏🏼 *जय जिनेन्द्र सा*🙏🏼🌹🙏🏼
🌹🌹🌹 *कृष्णगिरि मंडल 10* 🌹🌹🌹
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*रत्नाकर पच्चीसी* 🌹🌹🌹
भाग - 28
अच्छा आचरण करने की तैयारी।
प्रसिद्धि और नाम के लिए लाखों में दान देने में तत्पर।
ब्रह्मचर्य का पालन करने को तैयार।
तपश्चर्या करके शरीर को कृष करने के लिए भी तैयारी तमाम प्रकार की शारीरिक तकलीफ उठाने को भी तैयार।
किंतु हे प्रभु - ! आज तेरे सामने सत्य कहना चाहता हूँ।मैं अपने इस जीवन से तंग आ चुका हूँ।अत्यंत परेशान हो गया हूँ।
जैसे दिल के कैंसर जैसे रोग को कपड़े पहनने मात्र से छुपाने में सफलता मिल जाती हो।या उससे कैंसर की तकलीफ में कोई कमी आ जाती हो ऐसा नहीं है। ठीक वैसे ही मन की तमाम प्रकार की मलीनता एवं चित्त की चंचलता को दंभ के आवरण के नीचे छुपाने में मुझे सफलता मिल जाए तो भी उस मलीनता युक्त आवरण से मैं मुक्त नहीं हो पाऊँगा।
रात होते ही जब मैं अकेला होता हूँ और मेरी आँखों के सामने मेरे मन की मलिनता रूप गंदगी भुतकाल की तरह चित्रित होती है तो मैं घबरा जाता हूँ। सोचता हूँ कि मौत के समय मेरा क्या होगा ? परलोक में मेरी कैसी दशा होगी ? कैसी दुर्गति होगी ? कितना पतन होगा ?
एक फोटोग्राफर फोटो को अच्छा लेना चाहे तो उसे आधुनिक साधनों से कर सकता है पर X-ray तो जो तथ्य है वहीं दिखायेगा।ठीक वैसे ही दंभ के कारण अगर मैं अच्छा दिख भी जाऊँ तो भी कर्मसत्ता के सामने मेरी वास्तविकता प्रकट हो जाएगी।परिणाम असमाधि मेरी निश्चित,
*दुर्गति मेरी निश्चित, दुर्गति में दुखों का मार निश्चित*
*दुखों की मार के साथ दोषों की परंपरा निश्चित*
*दोषों की परंपरा के साथ दुर्बुद्धि का टकराव निश्चित*
एक छोटा सा दुःख भी असहनीय लगता है तो दंभ सेवन के मार्ग पर आने वाले जालिम दुखों में हे प्रभु मैं स्वस्थ कैसे रहूँगा।समाधि मेरी कैसे टिकेगी ?
इस प्रसंग पर हरजीवन की पंक्तियाँ याद रही है जो यहाँ प्रस्तुत है।
*वारा फरथी वारा मांथी निकलवुं छे*
*मारे आ जन्मारा मां थी निकलवुं छे*
*जन्मोंथी हूँ एनी अंदर जकड़ायो छे*
*इच्छाओं ना भारा मांथी निकलवुं छे*
*तेथी सधलुं जगना चरणे अर्पण किधुं*
*मारे तारा-मारा मांथी निकलवुं छे*
*कायम शा ने जन्म-मरण ना भयमां रहेवुं ?*
*संसारी आ धारा मांथी निकलवुं छे*
*अजवाला ना स्वामी थोड़ो टेको करजो*
*भीतर ना अंधारा मांथी निकलवुं छे*
*मेरी भी यही मनोकामना, इच्छा है।*
अब मुझे पता चल गया है कि खुले नाले या गटर को सुखा सकते हैं और साफ कर सकते हैं परंतु उसे ढककर रखना चाहे तो उसकी मलिनता गंदगी और भी बढ जाएगी या उसे अभयदान ही मिलेगा।ठीक उसी प्रकार से उसी न्याय से -
*दोष चाहे क्रोध का हो या लोभ का*
*सतामणी चाहे वासना की हो या माया की*
*आवेग चाहे अभिमान का हो या वैर का और*
*जोर चाहे कपट का हो या उद्दंडता का*
इन तमाम गलत वृत्तियों को अपने जीवन में शासन है, इसका पता अगर आस - पास वालों को है तो प्रयत्नपूर्वक पुरूषार्थ पूर्वक दूर भी कर सकते हैं। किन्तु दंभ के सेवनरूपी ढक्कन के नीचे रखने में शायद यह प्रकट न हो परंतु इस तमाम गंदगी रूप मलिनता को अभयदान ही मिलने वाला है।परंतु सावधान, अब मैं भावि अनंतकाल को अंधकारमय बनाने की पाश्वी ताकत रखने वाली इस भूल को वापस दोहराना नहीं चाहता।
हो सकता है एक रोगी अपनी सारी तकलीफों का एक डाक्टर के पास कह दे और उसकी बताई दवाईयां लेने के बावजूद भी ठीक न हो
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🌹🌹🌹 *रत्नाकर पच्चीसी* 🌹🌹🌹
✍🏼✍🏼 *भाग - 29* ✍🏼✍🏼
एक न्यायाधीश के सामने अपनी सारी भूलों और गुनाहों को कबूल करने के बाद भी सजा से बच नहीं सकता हो लेकिन ........
मेरे जीवनरूपी पुस्तक से काले कारनामे, घोर - पाप, दुर्बुद्धि, दुर्विचार , पाप सेवना, विषय - वासना, दुर्मति सारे पत्ते अनंत करूणा के सागर तेरे समक्ष में खोल दूँ तो मुझे सिर्फ माफी मिल जायेगी इतना ही नहीं सिर्फ माफी ही नहीं, सिर्फ प्रेम और वात्सल्य नहीं बल्कि अनंतगुण भी मिलते हैं, अनंतसुख भी मिलते हैं।सब कर्मों दोषों एवं पापों से मुक्ति भी मिल जाती है।
सब पापयुक्त , दोषयुक्त, आत्मा को दोषमुक्त और पापमुक्त करने की तेरी शक्ति एवं घोरपापी को भी वात्सल्य देने का तेरा स्वभाव अनंत करूणा के स्त्रोत उन सब पर पूर्ण श्रद्धा, विश्वास , आस्था रखकर हे करूणानिधान ! आज मैं तेरे पास आया हूँ।
दंभ के ढक्कन को मैं खोल दूँगा।मेरे जीवन में बहती दोषरूपी गटर को , दुर्गुण रूपी नालों को , दुर्विचार रूपी सरिता को सुखाने की , उलेचने की , एवं उनको साफ करने की जिम्मेदारी आपकी होगी।उसको सुधारने की सारी तैयारी तेरी।
*विद्या भण्यो हूँ वाद माटे : -* विद्यावान जैसे जैसे विद्या प्राप्त करते हैं वैसे अहंकारी बन जाते हैं और ज्ञानी जैसे जैसे ज्ञान प्राप्त करते हैं वो नम्र बनते हैं।विद्वान मानता है कि "मेले वो सच्चा" जबकि ज्ञानी मानता है कि "जो सच्चा है वो मेरा" ।ज्ञानी यथार्थ का ही कथन करता है।आचार्य श्री ने यहाँ ज्ञान शब्द का उपयोग न करके विद्या शब्द का उपयोग किया है ।आचार्य श्री पश्चाताप करते हुए परमात्मा को कह रहे हैं कि मैंने मेरी विद्या द्वारा कितनों के साथ वाद विवाद किया , कितनों को हराया। मैंने जो भी विध्याभ्यास किया था या स्वाध्याय रूप से जो भी पढा था वो दूसरों की मान्यताओं को तोड़ने के लिए, दूसरों की दलीलें, तर्क -वितर्क को चूर चूर करने के लिए, वाद विवाद में विजय प्राप्त करने के लिए, मेरी प्रसिद्धि प्राप्त करने के लिए और मेरी लोकप्रियता बढाने के लिए ही ग्रहण किया था।।मैं अंदर से दांभिक, दंभी, मायावी, विश्वासघाती, कपटी, प्रपंची बनता गया। हे प्रभु मेरी कितनी कथनी कहूँ ? कितनें पापों को प्रकट करूँ ? क्योंकि मेरे पापों का खजाना भरा हुआ है।
*साधु थईने बाहरथी दांभिक अंदरथी रहूँ. ....*
विश्वासी मानव को ठगने में क्या विशेषता ? साथ में रहे या सोये हुए साथी को ठगने में क्या पराक्रम ? जो श्रद्धावान समाज या विश्वसनीय भक्तजन है उनको ठगना बहुत ही सरल है।आचार्य श्री स्वनिंदा करते हुए कहते हैं कि हे परमात्मा मैंने भी दूसरों को ठगने का अमानवीय कार्य किया है।जिन्होंने मेरे जीवन में विश्वास किया, जो मेरी साधुता के प्रति श्रद्धावान बने ।साधु जानकर जिन लोगों ने मेरी सेवा भक्ति, वैयावच्च की , मैंने उनको ही ठग लिया है। उनको गलत भ्रम में रखा। ऐसे श्रद्धावान को ठगने में मैंने अनंत संसार को बढाया ।मैं मेरी कितनी कथनी कहुँ ।
पर मेरे नाथ !.... अब मुझे सच्चा साधु बनना है , साधुता को निभाना है, इस संसार को घटना है , कर्मों का क्षय करना है, मन की मलिनता एवं चित्त की चंचलतारूपी गंदगी को दूर करना है। इसलिए हे परमात्मा सच्चे हृदय से, सच्ची आस्था से मैं तेरी शरण में आया हूँ।अब तु मेरा उद्धार कर, करूणा बहाकर मेरे भव संसार का निस्तार कर ।अब इस जंजाल में से मुझे मुक्त कर- अब नहीं सहा जा रहा है, नहीं रहा जा रहा है, और नहीं कहा जा रहा है। ....... हे प्रभु ! हे परमात्मा, हे विभु उगार उगार उगार डूबती नैया को तार ।एक तेरा है आधार, होगी नैया पार।
अंत में हे परमात्मा -
*हे विभु उगार उगार उगार*
*मैं हुँ तुम बिन निराधार*
*मेरा करना तुम उद्धार*
*तेरा ही है एक आधार*
*डूबती नैया को तार*
*भवचक्र में नहीं कोई सार*
*कर्मों का बडा भार*
*अब नहीं खानी मुझे मार*
*तेरे समक्ष स्वीकारी मैंने हार*
*आप हो मेरे कृपावतार*
*अब तो दादा तार तार तार...*
🙏🏼🌹🙏🏼 *जय जिनेन्द्र सा*🙏🏼🌹🙏🏼
🌹🌹🌹 *कृष्णगिरि मंडल 10* 🌹🌹🌹
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रत्नाकर पच्चीसी
भाग - 31
ठीक वैसे ही -
जब दोषों की चर्चा करनी हो तो मेरे जीवन में रहे दोषों को नहीं, अन्य के जीवन में रहे हुए दोषों की ही।
इस खतरनाक अभिगम ने मुझे दोनों तरफ से मारा।मेरे खुद के दोषों की उपेक्षा ने मुझे दोष सभर बनाया। और अन्य लोगों के दोषों को अवर्णवाद ने मेरे में उन दोषों के प्रवेश के लिए द्वार खोल दिये।
एक तरफ मेरे जीवन में गुणों का सर्वथा दुष्काल ।दूसरी तरफ अन्य के गुणों के प्रति मेरी आँख मिचौनी करके मैने खुद को ही खड़ा किया है भव वन में जैसे काल में अधिक मास।
क्या होगी मेरी हालत परलोक में ? हे परमात्मा ! दोष दृष्टि अकेली है मुझमें ऐसा नहीं है।मेरे जीवन में दूसरी भी एक कड़ी है जो इससे भी खतरनाक है वह है दृष्टिदोष।
हे देवाधिदेव ! हे वितराग ! मुझमें दोष दृष्टि के साथ दृष्टिदोष ने भी लगाम छोड दी है।नजर जहां भी पड़े यत्र, तत्र, सर्वत्र ।जिस पर भी पड़े वहाँ विकार वासना जगने की बात ।मनोरम दृश्य देखते ही आँख विकारी बनती है।
स्व प्रशंसा के शब्द सुनते ही कान खड़े हो जाते हैं।भोजन में मिष्ठान द्रव्य पर नजर पड़ते ही जीभ में से लार टपकने लगती है।मुलायम स्पर्श की अनुकूलता मिलते ही स्पर्शेन्द्रियाँ उत्तेजित हो जाती है।हे परमात्मा इन सबसे भी मेरी सबसे हल्की कड़ी है - विजातीय शरीर। इनके दर्शन के लिए आँखें सदा तत्पर रहती है।
कहते हैं कि चील जहाँ भी जाए उसकी नजर सदैव मुर्दे को ही ढुंढती है।ठीक वैसे ही मेरी आँखे रास्ते में आते जाते विजातीय शरीर में मनपसंद रूप को ही ढुंढती है।घर की बाल्कनी में बैठकर नगर चर्या या कुदरती दृश्य को देखने के बहाने रास्ते से गुजरने वाले विजातीय रूप को देखने के लिए आँखें तरसती है। उस दृश्य को देखने के बाद- न मन शांत रहे न शरीर, मिले कुछ भी नहीं होने का कुछ नहीं फिर भी वेदना, पीड़ा एवं व्यथा का पार नहीं।
रोज ही विजातीय शरीर को देखकर थकान नहीं लगती। इन सबसे बचने के लिए से नाथ - आप मेरे आँखों में दिव्य अंजन आज दो ताकि विजातीय के प्रति मेरी लालसा या उनमें रही हुई गरमी को मैं शांत चित्त से निहार सकुं और बिना विकार के मेरी आँखें उनके दुष्प्रभाविक न हों।
*1. पहला पाठ दोष दृष्टि का*
*2. दूसरा पाप दृष्टि दोष का*
इन दो पाप के अलावा तीसरा पाप भी मेरे जीवन में है और वो है - पर दुःख चिंतन
हे परमात्मा, हे पर दुःख भंजन।किसी ने मुझे किसी तरह से दुःख दिया हो, मेरे स्वार्थ में आड़े आया हो , मेरे कहे अनुसार न किया हो, मुझे तकलीफ दी हो, मेरी आपत्ति में मुझे सहकार न दिया हो, ऐसी सब फरियाद वालों को मै अपना शत्रु मान रहा हूँ।
इन सबको सजा देना, दुःखी करना वो तो मेरे बस में नहीं है।क्योंकि उन सबका पुण्य मेरे से ज्यादा है।इसलिए उनका बुरा, खोटा, सर्वनाश या अति बुरा हो ऐसा खराब चिंतन में करता हूँ ताकि वे सब दुःखी हो जाए, तकलीफ में आए बीमार पड़ें, बेआबरू हो जाए, उनकी इज्जत चली जाए , वे मर जाए।ऐसे घटिया विचार करके मैंने मेरे चित्त को चिंतित किया है, बेकार बनाया है।
*दूसरा दुःखी न हो, उसका चिंतन नहीं है, किन्तु*
*दूसरा दुःखी कैसे हो, उसका चिंतन चलता है।*
*दूसरा सुखी कैसे हो, उसका चिंतन नहीं है किन्तु*
*दूसरा सुखी न हो जाए, उसकी ही विचारणा है।*
*मेरे दुःख से मैं दुःखी नहीं हूँ, दूसरों के सुख से मैं दुःखी हूँ।*
*मेरे सुख से मैं सुखी नहीं हूँ, दूसरों के दुःखी होने से मैं सुखी हूँ।*
मेरे मन ऐसी कनिष्ठ , घटिया वृत्ति एवं मनस्थिति को देखकर कही पढी हुई एक लेखक की कुछ पंक्तियाँ यहाँ रखने को मन कर रहा है. ......
🙏🏼🌹🙏🏼 *जय जिनेन्द्र सा*🙏🏼🌹🙏🏼
🌹🌹🌹 *कृष्णगिरि मंडल 10* 🌹🌹🌹
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रत्नाकर पच्चीसी भाग - 42
*मृगनयनी हम नारीतणा, मुखचंद्र निरखावावती*
*मुझ मन विषे जे रंग लाग्यो, अल्प पण गाढ़ो अति*
*ते श्रुतरूप समुद्र मा धोया छतां जातो नथी*
*तेनु कहो कारण तमे बचुं केम हुँ आ पाप थी ।।14।।*
हे परमात्मा ! हे मेरे हृदय दीपक - मेरी ये कामवासना कितनी गहरी है वो उन नारियों की हिरणी जैसी आँखे और चंद्रमा जैसे मुख को देखने के लिए मेरे मन में जो रंग लगा है उसे धोने के लिए सागर में कई बार डूबकी लगाई परंतु मन की काम वासना तो उससे भी नहीं धुली।इसका एक मात्र कारण है कि मैंने भूतकाल में अज्ञानदशा एवं मोहांध दशा से कई भवों में सुख का बहुत गहरा अनुभव विजातीय शरीर के माध्यम से किया।मिष्ठान्न खाने में, संगीत सुनने में , सुगंध सूंघने में आत्मा का स्मरण एवं जागृति रखी थी परंतु वासना की इस परवशता के पलों में मैंने मेरी आत्मा का स्मरण एवं जागृति नहीं रखी।
कहत् हैं कि समस्त जीवन पर असर स्मरण का एवं स्मरण पर असर था तो श्रवण का या दर्शन का जो सुनते हैं वो जमा हो जाता है, स्मृतिपथ पर एवं जो दिखता है वो जमा हो जाता है स्मृति पटल पर। परमात्मा परिस्थिति आज मेरे जीवन में ऐसी खड़ी हुई है कि मुझे पाने से पहले जिन गलत परिबलों के साथ मैंने प्यार किया था वो तमाम परिबल आज मेरे सामने दृश्य रूप में हाजिर नहीं है फिर भी मन पर उनका बहुत ही प्रभुत्व या प्रभाव तो जमा है ही।
मन सतत् उन परिबलों यानी उन चीजों के लिए उनके सानिध्य के लिए , संपर्क के लिए, संबंध के लिए, दर्शन के लिए इधर- उधर घुम रहा है। इन सबमें में सबसे खतरनाक परिबल है वो विजातीय शरीर ।भुतकाल में अज्ञानदशा के भवों में मोहांधदशा के भवों में मैंने सुख का सबसे अधिक भारी, प्रगाढ अनुभव जो किया हो तो विजातीय शरीर के माध्यम से।
वैसे तो मैने मिठाई खाकर भी सुख का अनुभव किया है।कर्णप्रिय संगीत के श्रवण में भी मैने खुशी का अभाव किया है।सुवासित द्रव्यों या सुगंधित पुष्पों में भी पागलता का अनुभव किया है। किन्तु विजातीय शरीर का जो सुख मैने अनुभव किया है उसके सामने दुसरा कोई सुख मायना नहीं रखता।
बहुत ही गंभीरता से सोचने पर मेरी नजर में आ रहा है कि अन्य क्षेत्र संबंधी सुख के अनुभव में आत्मा को स्मरण में रखना फिर भी सरल है।किंतु वासनाजन्य सुख का अनुभव तो आत्मा को संपूर्णतया विस्मृत कर देता है।
कहते हैं कि -
*पेट में मिष्ठान्न को पधारते समय में*
*मुझे विवेक रखना हो तो रख सकता हूँ।*
*कर्णप्रिय संगीत के श्रवण के समय में भी*
*मुन को जागृत रखना चाहूं तो रख सकता हूँ।*
*इत्र की शीशी को सूंघते समय भी*
*रहना चाहे तो सावध रह सकता हूँ।*
*प्रशंसा के शब्द सुनते हुए भी*
*मन को स्थिर रखना हो तो सरल है।*
किन्तु वासना की परवशता के पलों में सावधानी रखना तो लोहे के चने चबाने के बराबर है।तथापि उससे भी कठिन कार्य। यह बात मैं अपने भूतकाल के अनुभव से कह रही हूँ।
आत्मसमर्पण जितना गाढ़ उतनी आनंद की अनुभूति ज्यादा से अध्यात्म जगत का गणित है।
आत्मा विस्मरण जितना ज्यादा इतना सुख का अनुभव ज्यादा ये इन्द्रिय जगत का गणित है ।
हे परमात्मा ! मेरी करूणदशा की मै क्या बात करूँ ? प्रत्यंचा खींच गई , तीर छूट गया। फिर पता चला कि वो तीर गलत दिशा में चला गया है।
चिंगारी प्रगट हुई ।आग शुरू हो गई।फिर पता चला कि चिंगारी गंदगी के ढेर में लगने के बजाय रूई के ढेर में लग गयी है।
संपर्क किया, संबंध बांधा ।फिर पता चला कि जिससे संबंध स्थापित किया है
पैर उठाया।धरती पर चलने के लिए नीचे रखा।फिर पता चला कि धरती पर तो कांटा है।
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*संग्रह // नवनित खींवसरा*
*महावीर पाठशाला*
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*संग्रह // नवनित खींवसरा*
*महावीर पाठशाला*
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रत्नाकर पच्चीसी भाग - 46
अगर इन दोनों कारणों में से अगर एक भी कारण बाधारूपी नहीं होता तो शायद मैं पापसेवन करने में पीछे रहा होता वो भी एक शंका है।
संक्षेप में कहुँ तो पुण्यहीन एवं गुणहीन तो मैं हूँ उनके साथ साथ दोषों का भंडार भी हूँ।फिर भी दुनिया के सामने अभिमान से फूलकर मैं फिर रहा हूँ।पूरे जगत को परिधि पर रखकर अपने आप को मैं केंद्र स्थान पर रखने के लिए सतत् प्रयत्नशील बनता हूँ।
मैं जहाँ भी जाऊं वहाँ मुझे आदर मिलना ही चाहिए, मैं जो भी काम करूँ, उन सारे कामों की कदर होनी चाहिए।मेरी इस मनोवृत्ति को पूर्ण करने में मुझे सफलता मिले उसके लिए मुझे जितना भी प्रयास करना पड़ें मैं करने को तैयार हूँ।
आधा घड़ा छलके ।यह कहावत भी शायद मेरे मनोवृत्ति के सामने गलत साबित होती है। ऐसा मुझे लग रहा है।क्योंकि छलकता हुआ घड़ा भले ही आधा भरा हो, पर उसमें थोडा पानी तो है परंतु मुझमें तो अंश मात्र भी पानी नहीं है।
नहीं पुण्य प्रकर्ष या नहीं गुण वैभव ।हाँ मुझमें जालिम दोषरूपी दुर्गंधरूपी गंदगी का ढेर है जो चारों तरफ दुर्गंध फैला रहा है।
इतना भयंकर दयनीय , तिरस्कारशील स्थिति है मेरी, फिर भी अभिमान मेरू को भी शरमाये जितना है। आज आनंद इस बात का है कि मुझे मेरी अभिमान वृत्ति आज बिलकुल गलत लग रही है।
हरीन्द्र देव ने की हुई प्रार्थना आज मेरी प्रार्थना बन चुकी है। वो मुझे याद आ रही है।
मारा नाना नाना खेंचाणों, ने नानी नानी तणो थी, तंग आवी गयो छुँ, प्रभु मने एक प्रगाढ़, आकर्षण आप जेने सामे छेडे तुं हो, मने एक प्रचंड ताण आप, जे आ पिंजरा ने तोड़ी - फोड़ी मने मुक्त करी शके ।
क्या कहुँ परमात्मा, जेवो गुणे तेवो प्रभु तथापि बाल तारो छुँ ।तु मारे के उबारे बाल तारो छुँ ।
हे परमात्मा ,
भले ही मैं दोष रूपी गंदगी का ढेर हूँ उस पर चिंगारी बनकर पड़ने का मेरा तुझे प्रेम भरा निमंत्रण है ।
भले में दुर्गुणों का पर्वत हूँ मैं वज्र बनकर उनको चूर चूर करने का मेरी तरफ से तुझे आहवान है ।भले ही मैं पापों का जंगल हूँ। बिजली बनकर उस पर गिरना वो मेरी ओर से दिल की आरजू है। भले मैं कषायों का पथरीला रास्ता हूँ ज्वालामुखी बनकर उन रास्तों को सुधारना वो मेरी ओर से अंतःस्वर से की हुई प्रार्थना है।
भले ही मैं हजारों मिल के विस्तार मै फैला हुआ दुर्गुणों का राष्ट्र हुँ बन बनकर उसको राख करने को मेरी तरफ से आपको खुला निमंत्रण है ।
परमात्मा बिना निमंत्रण चंडकौशिक सर्प के निकट जाकर उसके दोषों को नष्ट कर दिया था वो तेरा इतिहास मेरे ध्यान में ही ।ठीक वैसे ही मेरे दोषों को नष्ट करने के लिए मेरे हृदय में पधारने का दिया हुआ निमंत्रण ओ हृदयेश्वर निष्फल न जाए वो दिखाना तेरी जिम्मेदारी है। निभायेंगे तो जरूर ना। मुझे आशा ही नहीं बल्कि पूर्ण विश्वास है मेरी अरज को स्वीकार कर तु मेरा उद्धार जरूर करेगा।
हे परमात्मा. .....
*मैं तुम बिन निराधार*
*मुझे तेरा ही आधार*
*विनती करना तु स्वीकार*
*करना मुझे उद्धार*
*आपो छो एक तारणहार*
*जीवन नैया को उगार*
*नहीं अहीं कांई ज सार*
*मोक्ष भणी लई जा कृपा अवतार*
रत्नाकर पच्चीसी
भाग - 47
*आयुष्य घटतुं जाय तो पण पाप बुद्धि नव घटे ।*
*आशा जीवननी जाय पण विषयाभिलासा नव मटे*
*औषध विशे करूँ यत्न पण हूँ धर्मने तो नव गणुं*
*बनी मोहमां मस्तान हुँ पाया विनाना घर चणु ।। 16 ।।*
जैन दर्शन का कर्मवाद समझा रहा है कि सभी कर्मों में चार प्रकार का बंध होता है। प्रकृति बंध, स्थिति बंध, प्रदेश बंध और अनुभाग बंध ।जीव के बांधे हुए कर्म की स्थिति पूर्ण होते ही जीव कर्म से मुक्त होता है।
प्रायः आठ कर्मों में से जैसे जैसे कर्म की स्थिति पूर्ण होती है और जीव आनंद मनाता है।जैसे ज्ञानावरणीय कर्म की स्थिति पूर्ण होते ही स्मरणशक्ति बढती है। वेदनीय कर्म की स्थिति पूर्ण होते ही वेदना कम होती है।मोहनीय कर्म की स्थिति कम होती है तो त्रितत्व पर श्रद्धा होती है। एक मात्र आयुष्य कर्म ऐसा होता है जिसकी स्थिति जैसे जैसे कम होती है वैसे ही जीव दुःखी होता है क्योंकि शास्त्रों में कहा है -
सभी जीव जीना पसंद करते हैं मरना किसी को अच्छा नहीं लगता। जैसे ही आयुष्य कर्म की स्थिति पूर्ण होती है तो मरण निश्चित है, इसलिए जीव दुःखी होता है।जैसे देवलोक में देवों का आयुष्य पूर्ण होने के छः माह पहले से ही उनकी फूल माला मुरझाने लगती है। उनको भौतिक सुख संपत्ति छोड़नी पड़ेगी ।उनका समय पूर्ण होने आया है ऐसा जानकर उनकी देह क्रांति भी फिकी पड़ जाती है, उनका मन उदास हो जाता है।
दूसरे की मौत देखकर भी ऐसे भाव नहीं आते कि एक दिन मेरी भी इसी तरह मौत आने वाली है। प्रमाद और आलस में अमूल्य अवसर खो रहा हूँ।धर्माराधना, साधना, उपासना करके समय को सार्थक करने की बजाय आलस करके आयुष्य की क्षणों को निरर्थक गँवा रहा हूँ।
प्रसिद्धि अंग्रेजी नाट्यकार शेक्सपियर ने एक जगह लिखा था कि इन्सान भोजन करने बैठता है तो ऐसा मानता है कि दूसरा मिलने वाला या देनेवाला नहीं है। और जब मकान बनाता या मरम्मत करवाता है तब ऐसा मानता है कि वो कभी मरनेवाला नहीं है।
कहते हैं कि संपत्ति चले जाने के बाद भी वापस मिल सकती है। समुद्र में जहाज जाने के बाद भी वापस ला सकते हैं। किंतु बीता हुआ अवसर ( समय) या गया हुआ प्राण वापस नहीं आ सकता।
काल तो सदा नया ही रहता है वो कभी जीर्ण नहीं होता। अन्य द्रव्य, जीव, अजीवादि के पर्यायों के कारण परिवर्तित होते हैं।नये से पुराना, पुराने से जीर्ण होता है। दूसरी बात यह है कि संपत्ति को बैंकों में, गहनों को तिजोरी में रख सकते हैं।स्वास्थ्य को अच्छा रखने के कई उपाय है। सत्ता को कायम रखने के कई व्यूह है।किंतु समय को संभालने रोकने और संग्रह करने का कोई उपाय नहीं है। ऐसे स्वतंत्र रहने वाले समय को पहचानना है, और आत्मगुणों को जागृत कर समय का सदुपयोग करने में ही जीवन की सार्थकता एवं सफलता है।
आयुष्य पल पल कम होता जा रहा है।ये जानकर भी सत्कार्य करने के लिए उद्यम नहीं करता है।पाप बुद्धि कम करने के लिए जागृत नहीं होता है,।समय के साथ आयुष्य कम होता जा रहा है पर पाप बुद्धि कम नहीं हो रही है।
आनंदघनजी म.सा काया को उद्देश्य कर कहते हैं हे काया मैंने तेरा बहुत जतन किया, संभाला तेरे लिए हिंसा, चोरी, असत्य, अब्रह्म सेवन एवं परिग्रह धारण किया।मैंने तेरे लिए क्या नहीं किया ? अब तु मेरे साथ चल ।किंतु काया कब तक किसी के साथ गयी है। बिचारा वो जीव पापबुद्धि का सेवन करके परलोक चला जाता है।
*आशा जीवननी जाय पण विषयालिभाषा न मटे......*
इन्सान के जीने की बिलकुल आशा न हो, मृत्यु की तलवार सिर पर हो , एक पल में क्या होगा, कहा न जाय, ऐसी परिस्थिति में भी इन्सान को इन्द्रियों में विषयों का आकर्षण, अंतिम सांस तक भी रहता है वो सब कुछ जानकर भी अपने जातिय मोह को छोड़ नहीं सकता।ये एक आश्चर्य है।
बहते हुए पानी के प्रवाह को बंध बनाकर आगे बढ़ने में रोकने में सफलता मिल सकती है।
🙏🏼🌹🙏🏼 *जय जिनेन्द्र सा*🙏🏼🌹🙏🏼
🌹🌹🌹 *कृष्णगिरि मंडल 10* 🌹🌹🌹
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रत्नाकर पच्चीसी
भाग - 48
पुण्य और पुरूषार्थ के बल पर मिली दस लाख की रकम को करोड़ो रूपयों तक ले जाने में सफलता मिल सकती है।
किंतु समय।ना तो उसने स्थगन में सफलता मिलती है और ना ही उसके वर्धन में सफलता मिलती है और ना ही उसके परिवर्तन में सफलता मिलती यह सतत चल ही रहा है।इतना सब कुछ जानने के बाद भी मेरा पाप के प्रति आकर्षण जैसा का तैसा ही है। मैंने ऐसे कई उदाहरण देखे भी हैं परंतु. ......
22 साल की युवती को मैंने विधवा होते हुए देखा है। 65 साल के बुढे बाप को अपने बेटे की लाश को जलाते देखा है।7 साल के बच्चे को लीवर में कैन्सर के कारण परलोक सिधारते देखा है। 7 इन्सानों के एक परिवार को एक साथ अग्नि में जलकर मरते हुए देखा है।शादी के मंडप में हस्त - मिलाप की क्रिया होते ही वरराजा को दिल का दौरा पड़कर मौत के मुख में जाते हुए मैंने अपनी आंखों से देखा है।
परंतु हे परमात्मा - कठोर एवं निष्ठुर ऐसा मैं आज भी ऐसा ही पाप विचारों एवं पाप आचारों में इतना मस्त एवं व्यस्त हूँ कि जैसे मैंने मौत पर विजय प्राप्त कर ली है।
एक दृष्टांत सुना था वही प्रस्तुत है -
एक 65 साल वृद्ध था।करोड़ो का मालिक था, डायबिटीज, कैन्सर, किडनी, हृदयरोग , अन्न नली एवं श्वास नली ये सब भंग दुषित थे। उसका कोई अंग स्वस्थ नहीं था ऐसा कहने में अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस वृद्ध की तबीयत एकाएक ज्यादा बिगडी ।तब अंतिम समय पिता के कान में परमात्मा का नाम पड़े उसी न्याय से बेटे ने बाहर से अन्य एक व्यक्ति को बुलाया कि वो परमात्मा का नाम सुनायेंगा ।इस व्यक्ति ने बड़े बेटे से परमात्मा का नाम सुनाने का 1000 रू. में पका किया था और वो व्यक्ति अंदर आया जैसे ही पलंग पर सोये हुए वृद्ध पर उसकी नजर पड़ी वो आश्चर्यचकित हो गया।.....
बोटल चढ़ना चालु थी, नाक में नली थी, गले में छेद करके उसमें ही प्रवाही डाला जा रहा था।पिशाब की नली लगी हुई थी। आँखों में आँसू थे।मुँह से लार टपक रही थी।उसको करोडो की संपत्ति कुछ राहत नहीं दे रही थी।
उसी विचार से स्तब्ध बने उस व्यक्ति ने वृद्ध के कान में परमात्मा का नाम, नवकार मंत्र और शांति पाठ वगैरह सुनाया।किंतु उस वृद्ध का ध्यान तो उसकी वेदना पर ही था ।कुछ समय में वृध्द ने अपने प्राण त्याग दिए। बेटे ने रोती आँखों के साथ अपने पिता को चादर ओढ़ाई ।उस व्यक्ति को दूसरे कमरे में ले जाकर कहा, 1000 रू. देने लगा। तो उस व्यक्ति ने पैसा लेने से इनकार कर दिया।पुत्र ने उससे कहा - तुमसे तो बात पक्की हुई थी फिर क्यों नहीं लेते। फिर उस व्यक्ति ने कारण बताया :-
तुम्हारे पिताजी की बंद हुई आँखों ने मेरी आँखे खोल दी।तुम्हारे पिता को उनकी करोड़ो की संपत्ति नहीं बचा पायी ।और ना ही उनकी वेदना में कोई शांति मिली ।अगर ये संपत्ति इतनी कमजोर है तो फिर ये 1000 रू. मुझे कहा शांति देने वाले हैं। एक काम करना।यह 1000 रू. किसी दुःखी इन्सान को दे देना , उसकी वेदांत शांत हुई तो उसके द्वारा दुआ मिल जाएगी तो उससे शायद तेरी मौत सुधर जाए। हाँ एक श्रीमंत की मौत को देखकर एक गरीब इन्सान अपने हक के 1000 रू. छोड़ सकता है किन्तु हे परमात्मा
मेरी सगी आँखों से अनेक लोगों को इस जगत से विदा होते देखा है मुझे भी एक दिन इस जगत से जाना है , यह जानते हुए भी मैंने अपने पाप विचारों में पूर्ण विराम नहीं लगाया ।न ही उनसे दूर होने का या उन बुरे विचारों को नष्ट करने का विचार किया है ।इतना सब कुछ होते हुए मैं अब तक उन पाप क्रियाओं से ऊबा नहीं हूँ। अरे......
🙏🏼🌹🙏🏼 *जय जिनेन्द्र सा*🙏🏼🌹🙏🏼
रत्नाकर पच्चीसी भाग - 49
जब मौत की आमंत्रण पत्रिका रूप पैदा होने वाले कई रोग मेरे शरीर में दृष्टिगोचर होते हैं।तब भी हे परमात्मा ! तु याद नहीं आता है बल्कि डाक्टर, औषधि व दवायें याद आती है। उस समय मेरा मन तेरा ध्यान नहीं करता औषधों का ध्यान करता है।उस वक्त तेरे पास आने का मन नहीं होता, बल्कि डाक्टर के पास जाने का मन होता है। उस समय मुझे मेरी आत्मा की चिंता नहीं होती बल्कि अपने स्वप्नों की चिंता होती है।जब ऐसी मेरी स्थिति है तो हे परमात्मा ! -
*परलोक गमन निश्चित, इहलोक की समाप्ति निश्चित, बिमारी निश्चित, इस जीवन में किए हुए शुभाशुभ कर्मों का फल निश्चित।*
ये सब निश्चित होते हुए भी मुझे अपने परलोक को सुधारने की कोई चिंता नहीं, मौत को सुधारने की बोर में बिलकुल बेफिक्र।हे परमात्मा क्या कारण होगा इसके पिछे ?
दुर्गति का आयुष्य मेरा कौन- सा बंध होगा ? संसार में अनंतकाल तक भटकने का निर्णय मेरे लिए क्या निश्चित हो गया होगा ? मेरे कर्म कितने भारी हो गए होंगे ! कुसंस्कारों का भार मेरे सिर पर कर्जारूप बना होगा ? इसके सिवाय ऐसी निष्ठुरता एवं कठोरता मुझमें आने की संभावना नहीं है।बहुत ही गहन विचार करने पर मुझे एक ही कारण दिखता है कि मैंने मोहरूपी शराब बहुत पी लिया है। उसका नशा बेहद हो गया है।
प्रखर से प्रखर वैज्ञानिक के पेट में भी अगर शराब चली जाए तो वो भी अच्छे बुरे का भान भूल जाता है और पगलों जैसी चेष्टा करने लगता है।ठीक उसी प्रकार. .....
मोहनीय कर्म जिस आत्मा पर कब्जा जमा लिया है वो आत्मा कितनी भी साधक एक बुद्धिमान हो, ज्ञानी हो या तपस्वी हो ध्यानी हो मौनी हो फिर भी अच्छे बुरे का भान भुल जाता है। एवं अधम जन सुलभ वृत्ति प्रवृत्ति का शिकार बन जाता है।इस मौके पर ये पंक्तियाँ याद आती है।.......
*जिंदगीनी साझ ढलती देखाय छे*
*मीणबत्तीनी जेम रोज बलती देखाय छे*
*हे जीव जीवनने सुधारों जेटलुं*
*एटली भूलों निकलती जाय छे !*
हाँ यही अनुभव मुझे हो रहा है।जीवन में जो हो गयी और जो हो रही भूलों को मिटाने के लिए, उनका नाश करने आयुष्यरूपी रबड़ मिला है।वो रबड़ घिसता ही जा रहा है।दो चार भूलों को मिटाने में सफलता मिलती है तो 15 -20 नई भूल जीवन में और होने को लगती है।रबड़ खत्म हो जायेगा और अगर मेरी भूल रह गई तो हे परमात्मा परलोक में मेरा क्या होगा ?
प्रभु मेरी एक विनती है कि. .....
रबड़ बड़ा करने में मुझे कोई रस नहीं है। मै ऐसी भूलों से मुक्त हो जाऊँ।ऐसी जागृति का स्वामी तु मुझे बना दे मैं तेरे उपकार जन्मों जन्म तक नही भूलूंगा।
*बनी मोहमां मस्तान हुँ पाया बिनाना घर चणु।*
हे परमात्मा ! मोहनीय कर्म में मस्त बनकर राग दशा से मोहभाव से मेरी जो स्थिति हुई है वो दया जनक है।मकान बनाने के लिए उसकी ऊंचाई, ईंट का बांध, काम, नींव वगैरह के सिद्धांत जाने बिना मैं अब तक हवा में ही घर बना रहा था। ठीक वैसे ही धर्म क्षेत्र श्रद्धा रूपी नींव को समझे बिना मेरी ऐसी हालत हो गई है।हे परमात्मा ! मुझे दया कर क्षमा कर।
मोहनीय कर्म का नशा मुझे चढ़ा है, इस बात का एहसास नहीं है।मोह में मस्त बनकर संसार में कहलाते मिथ्यासुख से ओत- प्रोत बनकर मैंने भारी कर्मबंधन किया है। उन सारी पाप क्रियाओं की मैं क्षमा माँगता हूँ। प्रभु मुझे बचाओ, मुझ पर कृपादृष्टि रखो। हे प्रभु मुझे तार, मुझे उबार. .....अंत में इतना ही कहना है मुझे-
*मेरी हो गई है बेहाल दशा, कर्म चक्र में हुँ मैं फंसा*
*मोह माया का लगा है नशा, अब मेरे दिल में तु है बसा*
🌹🌹🌹 *कृष्णगिरि मंडल 10* 🌹🌹🌹
रत्नाकर पच्चीसी भाग - 50
*आत्मा नथी परभव नथी, वली पुण्य पाप कशुं नथी,*
*मिथ्यात्वीनी कटुवाणी में धरी कान पीधी स्वादथी*
*रवि शम हता ज्ञाने करी, प्रभु आपश्री तो पण अरे,*
*दीवो लई कूवे पड्यो , धिक्कार छे मुझने खरे ।। 17 ।।*
हे जगदीपक । शराबी को शराब पीने से होने वाले नुकसान का पता होता है।शराब की लत से मैं सभी तरह से बर्बाद हो चुका हूँ ये जानते हुए भी उस व्यसन की ओर हमेशा अग्रसर होता है। शराब के व्यसनी को जहाँ से भी मिले, जिसके पास मिलती हो वहाँ से वो शराब प्राप्त करने में तत्पर रहता है।वो व्यसनी दूध पीने से लाभ और शराब पीने से नुकसान है ऐसी समझ देनेवाले से दोस्ती करे या बात भी करे *" असंभव "* ।अनजान में ऐसी बात करने वाला उसके पास आकर खड़ा भी रह जाए तो शराबी वहां खड़ा रहेगा, ये *" असंभव "* ऐसी सही बात समझने वाले व्यक्ति के प्रति उस शराबी को सद्भाव भी रहे *" असंभव "* । मौका मिलते ही उस व्यक्ति के अवर्णवाद से वो बच पाये *" असंभव "* ।ठीक ऐसी ही परिस्थिती मेरी भी हुई है । हे परमात्मा ।
अनादि से मैं रसिया शरीर की सुखशीलता का एवं उसको पृष्ट करने का उसके लिए जो भी पाप करना पड़े उसके लिए मैं तैयार हूँ।
जो भी गलत रास्ता अपनाना पड़ें तो मैं तैयार ।
जो भी सद्गुणों का बलिदान देना पड़े तो मैं तैयार।
परमात्मा मेरी हालत भी बिलकुल उस चील जैसी है।जो उड़ती रहे भले ऊँचे आसमान में पर उसकी नजर तो हरदम नीचे जमीन पर ही रहती है। उसमें भी जमीन पर रहे हुए उद्यान या मंदिर की तरफ नहीं,डगमग चलते हुए बच्चे पर या दौड लगाने वाले युवान की तरफ नहीं परंतु उसकी नजर सिर्फ जमीन पर पड़े हुए मुर्दे की तरफ रहती है।जैसे ही कोई मुर्दा नजर चढ जाए तो आकाश की ऊंचाई छोड़ने में एक पल भी विचार न करे।पंख सिकुडकर कुछ ही पलों में आ जाए नीचे जमीन पर और बैठ जाए उस मुर्दे पर ।और अपनी चोंच को मारकर खाना शुरू करे और उसकी मौत और खुशी का आनंद मनाने लगे।ठीक उसी चील का प्रतिबिंब हूँ मैं।
*खाने के लिए जो मिष्ठान्न और मसालेदार मिले*
*देखने और भोगने के लिए विजातीय का शरीर मिले*
*सुनने के लिए कर्ण प्रिय संगीत मिले*
स्पर्श करने के लिए मुलायम, चीज मिल जाए ।तब मैं तेरे दर्शन को छोड़ने के लिए तैयार।
तेरे जिनवाणी रूप वचन सुनने को मौका मिले तो वो भी छोड़ने को तैयार।
पूर्व की आराधना भी छोड़ने को तैयार ।
तीर्थ की अवगणना आशातना करने को भी तैयार ।
शिष्ट पुरूषों की बनायी हुई मर्यादा का उल्लंघन करने के लिए भी तैयार।
सज्जनता छोड़ने के लिए भी तत्पर।
ऐसे शुभ अनुष्ठानों, शुभालंबनों का त्याग करने के पीछे कोई अफसोस भी नहीं बल्कि आनंद।उसका कोई दुख नहीं बल्कि प्रशंसा ।क्या कहुँ परमात्मा तुझे।
शराब के नुकसान का शराबी को पता नहीं होता ऐसी बात नहीं। उसे पूरा ख्याल है कि ये शराब का सेवन वाला मार्ग मुझे हर स्तर पर खत्म ही करने वाला है।फिर भी यह शराबी हर वक्त उसी शराब के अड्डे की तरफ ही डोलता रहता है क्योंकि उसने खुद ने ये व्यसन पाला है।शुरुआत शायद एक प्याली से ही की होगी पर आज उसकी रोज की आदत ने एक पूरी बोतल का व्यसनी बना दिया है।
हे परमात्मा, एक ही जीवन में पड़ा हुआ शराब का व्यसन अगर शराबी की ये स्थिति कर देता है तो इन्द्रियों को तृष्ट पृष्ट करने में पड़े हुए व्यसन मात्र इस जन्म का नहीं बल्कि जन्मोंजन्म का है।समझ मेरे पास थी या नहीं ये प्रश्न महत्व का नहीं है किंतु हरेक गति में मैंने यही काम किया है।
इन्द्रियों को तृष्ट - पृष्ट करने का ऐसी शरीर की सुखशीलता का मैं व्यसनी , आत्मा परमात्मा की बात, पुण्य पाप की बात, सद्गति दुर्गति की बात, समाधि संक्लेश की बात, मुझे सुननी भी पसंद नहीं है। अगर कोई सुना भी दे तो मुझे स्वीकारना पसंद नहीं है।
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रत्नाकर पच्चीसी
भाग - 51
मिथ्यात्वीयों ने मुझे समझाया कि आत्मा जैसी कोई चीज ही नहीं है। ना ही आत्मा का कोई अस्तित्व है, आत्मतत्व, आत्मभाव, आत्मदर्शन ये तो किसी की उपजाई हुई बाते ई।अगर आत्मा जैसी कोई चीज होती तो विज्ञान को इसकी खोज करने में क्या समय लगता।कम्प्यूटर, इन्टरनेट, टी.वी., फेक्स, उपग्रह, आकाश को पार करने में यानि चंद्र मंगल पर पहुंचे हुए विमानों, सेलफोन और सेटेलाइट फोन जैसी खोज करनेवाले वैज्ञानिकों ने आत्मा को कब का खोज लिया होता।आत्मा, परमात्मा, पुण्य-पाप ये सब बकवास है।ये सब तो भूतकाल की भारत की भोली प्रजा को नियमन में रखने का सिर्फ करतूत उसमें और कुछ भी नहीं है। गुजराती में एक कहावत है कि-
*भावतुं तुं ने वैद्ये किधुं।* यानि ये सब कुछ तो मुझे अच्छा ही लगता था, वैसे भी मौज शौक में मस्त रहना ।इसमें भी पुण्य-पाप का इन्कार करनेवाली मिथ्यावाणी मिल गयी, फिर तो जाने मेरे कान में अमृत का सिंचन हुआ हो ।फिर मैंने कार्य - अकार्य , पेय - अपेय, भक्ष्य - अभक्ष्य की बातों में न पड़कर मजे से भोग भोगने लगा।
दुःख तो इस बात का है कि सम्यक ज्ञान का प्रकाश फैलाने वाला सूर्य सम तु मेरे समक्ष हाजिर था। तेरे इस ज्ञान प्रकाश में मुझे जगत का डरावना स्वरूप दिख रहा था।
इन्द्रियों के विषय के पीछे मस्त बनी आत्माओं की कर्मसत्ता ने कैसी हालत बनायी है उसका भी स्पष्ट दर्शन मुझे पता है।दुर्गति में उन जीवों की कितनी बेहाल दशा होती है, कितनी मार पड़ती , वो सब मैंने अपनी नजरों से देखा है।
फिर भी मैं खुद ही आत्मघातक मार्ग पर दौड़ता ही रहा। शराब की भयानकता जानने के बाद भी शराबी जैसे शराब पीते ही रहता और अपने सर्वनाश को आमंत्रण देता है।ठीक वैसे ही उसी न्याय से विषयों की भयंकरता जानने के बाद भी मैं विषयों का सेवन करता ही रहा और परिणामस्वरूप मेरी आत्मा को दुर्गति का मेहमान बना दिया।
*आँख खुली है दीपक हाथ में है*
*फिर भी कुदा मैं, अंधेरे कुएं में*
*समझण साची, प्रकाश सही*
*फिर भी पागलता पापों में*
प्रश्न तो परमात्मा वो होता है कि दुःख की कल्पना मात्र से कांपने वाला मैं हूँ, पर मुझ पर दुःख जब वास्तविकता में टूट टूट कर गिर रहा है , फिर भी मैं उसी रास्ते पर खुशी -खुशी कदम रख रहा हूँ।
दुर्गंध का दुश्मन में गंदगी की तरफ कदम नहीं रखता, गर्मी का दुश्मन मैं, आग की तरफ अग्रसर नहीं होता।ठीक वैसे ही दुःख का दुश्मन मैं, फिर भी दुःख के रास्ते पर कदम क्यों रखें ?
गंभीरता से इस प्रश्न पर चिंतन करता हूँ तो मुझे एक ही जवाब मिलता है कि दुःख मुझे पसंद नहीं था। ये बात सही है किंतु दुःख जिन पाप के रास्ते से आ रहे थे वे पाप मुझे बेहद पसंद थे।क्योंकि पाप सेवन का मेरा अनुभव सुखद एवं आह्लालादक और मधुर था।प्रभु मेरी हालत उस कुत्ते जैसी थी।
जिसके सामने जो लड्डू था वो जहर वाला ही था।परंतु वो उसे अपने पेट में पधारने के लिए तलपापड़ हो रहा था।ये लड्डू विष मिश्रित है इसकी जानकारी एक वृद्ध पुरुष को थी और वो वृद्ध पुरुष लकड़ी लेकर कुत्ते के पीछे भाग रहा था ताकि कुत्ता वो लड्डू ना खाये । उसके विपरीत कुत्ते उस वृद्ध पुरुष को अपना शत्रु मानक उसे काटने को दौड़ा तो वह वृद्ध पुरुष तंग आकर घर के भीतर चले गए ।और कुत्ते ने जहर वाला लड्डू खा लिया और परिणामस्वरूप कुत्ता दुःखी होकर तड़प कर कुछ ही देर में परलोक सिधार गया।ठीक उस कुत्ते जैसी हालत मेरी भी है।विष मिश्रित लड्डू की समानता में इन्द्रियों के विषय।कल्याण मित्र वृद्ध पुरुष के रूप में परमात्मा तू है।
कई बार तुने मुझे जागृत करने के लिए कहा कि इन विषयों की ओर मत भाग फिर भी मैंने उन विषयों के बदले मैंने तुझे ही दुश्मन मान लिया।
आसक्त बना उन विषयों में, उसके फलस्वरूप मुलाकात होती रही , दुर्गतिओं की एवं भुगतता रहा मैं जालिम दुःख।
ना प्रभु अब मुझे उस रास्ते पर नहीं जाना है , मुझे दुःख नहीं चाहिए ये निर्णय पक्का है। अब पापों का सेवन नहीं करना ये निर्धार भी पक्का है। अब हे परमात्मा ! मुझे बचाओ, मेरा उद्धार करो ।मैं तुम बिन निराधार हुँ ।मुझे अपने आप से घृणा हो रही है।कृपा कर इस अज्ञानी, अबोध बालक को तार, तार, तार... अंत में हे परमात्मा. ..
*इस संसार में नहीं कोई सार*
*मेरे दुःखों का नहीं कोई पार*
*परमात्मा तुझे किया है स्वीकार*
*करना तू मेरा भव निस्तार*
*भूलूंगा नहीं मैं तेरा उपकार*
*तार... तार... तार........*
🙏🏼🌹🙏🏼 *जय जिनेन्द्र सा*🙏🏼🌹🙏🏼
रत्नाकर पच्चीसी भाग - 52
*में चित्त नहीं देवनी के पात्रनी पूजा चही।*
*ने श्रावको के साधुओं नो धर्म पण पाल्यो नहीं*
*पाम्यो प्रभु नरभव छतां, रण मा रड्या जेवुं थयुं ,*
*धोबी तणा कुत्ता समुं , मम जीवन सहु एले गयुं ।।18।।*
हे पुण्यमूर्ति परमात्मा !
मिथ्यात्व की संगत की वजह से धर्म मुझे ढोंग लगने लगा था।ये धर्म तो बेकार, निकम्मे और कमजोर इन्सानों के लिए है ऐसा में मानता थी।इसलिए मुझे कभी देवपूजा या गुरूभक्ति का विचार, भी नहीं आता था।श्रमणाचार और श्रावकाचार का पालन करने से आत्मिक शांति मिलती है, ऐसा मुझे पता नहीं था इसलिए मैंने धर्म का पालन ही नहीं किया।
महा पुण्योदय से मेरा जन्म मनुष्य भव में देव गुरु धर्मरूपी सुवर्ण की खाई में हुआ था।फिर भी मैं संसार रूपी महाभयंकर रणविस्तार में जाकर मैंने खोद काम किया।
मिलों ही मिलों के अंतर में विस्तारित रण विस्तार गर्मी की ऋतु, समय मध्याह्न काल का , ऊपर गगन में अग्नि बरस रही थी, नीचे धरती में से आग का प्रकटीकरण, बैठने के लिए छोटे से पेड़ की छाया या सहारा भी नहीं, पीने के लिए पानी का छोटा सा गिलास भी नहीं, पैरों में जूते नहीं, आँखों से निकल रहे थे आँसू , मुँह में से निकल रही थी चीख ,ऐसी दयनीय परिस्थिती थी मेरी, फिर भी न किसी ने आँसू पोंछे , न किसी ने सान्त्वना दी और कुछ ही समय में तड़प-तड़प कर आत्मा इस देह को छोड़कर परलोक की ओर प्रयाण कर गई ।हे परमात्मा ऐसी दयनीय हालत है मेरी. ...
रणविस्तार जैसा भयंकर यह संसार
जालिम आग तृष्णा की
पवन प्रतिकूलता का भयंकर
चोतरफ से टूट रही अपेक्षाएं
फिर भी आश्वासन देना वाला कोई नहीं
किसी के अंतर के दो शब्द भी न सुनाये
बहुत बहाये आंसू बहुत चिल्लाया
संकट में ही किया जीवन पूरा
चला गया मैं दुर्गति की यात्रा पर
अलबत्त मेरे सिर पर आये हुए दुर्भाग्य का कारण दूसरा कोई नहीं पर मैं खुद ही था।क्योंकि संपत्तिहीन को इस जीवन में कोई सामाग्रीयां नहीं मिलती है ठीक वैसे ही पुण्यहीन को भी संसार में कोई अनुकूलता नहीं मिलती।नहीं मिलती शांति , नहीं मिलती स्वस्थता, नहीं मिलती प्रसन्नता, नहीं मिलता प्यार , नही मिलती विश्रांति और नहीं मिलती लागणी ।मैं पुण्यहीन था क्योंकि पुण्यबंध के सब स्थानों के साथ मैंने दुश्मनावट बांध ली थी।
हे परमात्मा ! तेरे प्रति मेरा कोई आदरभाव नहीं था । सुपात्रदान की भक्ति करने का कभी विचार ही नहीं आता था।दान देने की इच्छा नहीं, शील जमे नहीं, तप चले नहीं और भाव का कोई ठिकाना नहीं। स्वार्थ खातिर भी परमार्थ का कार्य करने की कोई तैयारी नहीं। हास्य के खातिर भी किसी के आंसू पोंछने का मन में कोई विचार नहीं।ऐसी विषम परिस्थिति मेरी आत्मा के खाते में छोटा सा भी पुण्य कैसे जमा होगा ? बिना पुण्योदय के भी मनुष्य जन्म प्राप्त किया है फिर भी मेरी हालत हो गई है, रणप्रदेश में रो रहे मुसाफिर जैसी ना किसी ने आंसू पोंछे , मेरी हालत हुई " धोबी के कुत्ते के समान " " न घर का ना घाट का " न किसी ने मेरी देखरेख की। हे परमात्मा !
पैदा हुई इस परिस्थिति पर गंभीरता से विचार करूं तो एक बात स्पष्ट नजर आती है।
सामाग्री संपत्ति से और संपत्ति व्यापार से बंधी हुई है।इतनी स्पष्ट समझ मुझमें है।किंतु सुख पुण्य से और पुण्य धर्म से बंधा हुआ है ये समझ मुझमें नहीं है। इसी बात का ये दुखद परिणाम आया है।
सुख प्राप्ति के लिए मेरे प्रचंड पुरूषार्थ होते हुए भी सुख मेरे लिए मात्र कल्पना ही रहा, आशा ही रहा, जबकि मेरे सर पर दुःख ही दुःख आता रहा। क्या कहुँ हे परमात्मा तुझे. .............
शरीर में जब खून कम हो जाता है तो जीवन के लिए खतरा बढ जाता है। अगर ये हकीकत है तो .... शरीर में चरबी अगर बढ जाती है तो भी जीवन के लिए खतरा बढता है।ये भी एक हकीकत है।
🌹🌹🌹 *कृष्णगिरि मंडल 10* 🌹🌹🌹
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रत्नाकर पच्चीसी भाग - 53
कम होता खुन जो रोग प्रतिकारक शक्ति गंवा देता है। एवं बढ रही चर्बी शरीर में रोगों के आमंत्रण का कारण बनता है।बस ऐसा ही हुआ है मेरे जीवन के बारे में।तमाम पुण्य की उत्पत्ति स्थान।
तेरे बताये हुए अनुष्ठानों के प्रति मेरे मन में कोई आदरभाव नहीं था इसलिए मैं पुण्य से वंचित रह गया। इसी पुण्यहीनता ने मेरे जीवन को अनेक दोषों का शिकार बना दिया।
पुरूषार्थ होते हुए भी सफलता नहीं मिलती है।तब मन में संक्लेश पैदा होते है, जीवों के प्रति वैर विरोध बढ गया, आवेश आते ही शब्दोच्चार बिगाड़ दिया, अपेक्षाओं ने संबंधों में दरार खड़ी की, स्वार्थवृत्ति ने दुश्मनों की कतार खड़ी की।
इतनी सारी प्रतिकूलताओं के बीच भी कभी -कभार पुण्ययोग से मिली हुई सफलता ने मेरे मन में अहंकार पैदा किया और उसे बढाया और बढ रहे अहंकार ने जीवन को संख्याबद्ध दोषों से ग्रसित बना दिया है।उपकारियों को अवर्णवाद बोलना शुरू किया।कमजोर व्यक्तियों को दबाना शुरू किया।शराबी की तरह बोलने में भाषा में विवेक का मैंने सर्वनाश कर दिया। संक्षेप में :-
तेरे प्रति घट रहा आदरभाव ने एवं मेरे खुद में बढ़ रहे अहंकार भाव ने इस संसार में मेरी हालत बेहद बेकार बना दी है जिसकी कल्पना भी नामुमकिन है।संतोष है तो सिर्फ इतना है कि इस दयनीय दशा के कारणों की मुझे स्पष्ट जानकारी है ।जैसे रोगों का पूर्ण निदान होने के बाद रोगों के कारणों को दूर करना जैसे आसान है ठिक वैसे ही मेरे दुःखों का निदान मेरे ख्याल में आ गया है इसलिए दुःखों के कारणों को दूर करना मेरे लिए सरल बन गया है ।मुझे आज स्पष्ट पता लग गया है कि
*काग को उड़ाने के लिए काम आनेवाली कंकरी*
*कुत्ते को भगाने के लिए काम नही आ सकती*
*कुत्ते को भगाने के लिए काम आनेवाला पत्थर*
*सिंह को दूर करने के लिए काम नहीं आ सकता।*
शत्रु जितना बलवान, शस्त्र भी उतने ही मजबूत चाहिए जिससे उन पर विजय प्राप्त कर सकें। ठीक वैसे ही मेरे अंतर में रहे हुए काम क्रोध आदि शत्रु इस जगत तमाम बाह्य शत्रुओं से बलवान है तो उन सब पर विजय प्राप्त करने के लिए मुझे तेरे प्रति आदरभाव को, तेरे बताये हुए अनुष्ठानों के प्रति बहुमान भाव को, तेरी बतायी हुई धर्माराधनाओं के प्रति सद्भाव को, पराकाष्ठा तक ले जाना ही पड़ेगा ।इसका मुझे संपूर्णतया ख्याल आ गया है और मैंने इस दिशा में कदम उठाना भी शुरू कर दिया है।
पूजा तेरी, भक्ति सुपात्र की , साधनों अनुष्ठानों की, उपासना उपकारिओं की, मैत्री जगत के सर्वजीवों की, उपशांतता कषायों की, विरक्ति विषयों की इन सबको हृदयस्थ बनाकर जीवनस्थ करने के लिए मैं कटिबद्ध बन गया हूँ।फिर भी किसी अज्ञातकवि की ये याचना तेरे पास कर रहा हूँ : -
*हे ईश्वर बनावी दे मने साधन शांतिनुं*
*हो धिक्कार त्यां रोपवा दे बीज तेमनुं*
*ज्यां जख्म के त्यां क्षमा छे, जहाँ हताशा है वहाँ आशा है*
*जहाँ तिमिर है वहाँ प्रकाश है, जहाँ गमगीनी है वहाँ आनंद है*
*ओ देवी ! विभूति, मुझको वरदान दे*
मुझे किसी बात का असंतोष न हो।मुझे इस बात का विशेष ध्यान रहे। आश्वस्त होने के बजाय आश्वासन में।कोई समझे उसके बजाय प्रेम देने में ।क्योंकि कारण स्पष्ट है कि देने में ही फायदा है।माफी मांगने में ही खुद को माफी मिलती है।मृत्यु से ही फिर से शाश्वत जिंदगी मिलती है।
हे परमात्मा ! मेरी ये याचना अगर सफल हो गई तो फिर मेरा रूदन स्थगित हो जाएगा।कृपा तू बरसना।मेरी याचना सफल करना ।
उबारना. ...... उबारना. ..... उबारना...
अंत में हे परमात्मा : -
*मेरे मन मंदिर तू आना, गाऊंगा तेरा ही गाना*
*चाहा है तुमको है पाना, अब तो परमात्मा मान जाना*
*करूणा को दिल में लाना, तू ही तारणहार है ऐसा माना*
*अब तो कृपादृष्टि बरसाना ।*
रत्नाकर पच्चीसी भाग - 54
*हुँ कामधेनु कल्पतरू , चिंतामणीना प्यारमां*
*खोटा छतां जंख्यो घणुं, बनी लुब्ध आ संसारमां*
*जे प्रगट सुख देनार त्हारो धर्म में सेव्यो नहीं*
*मुझ मूर्ख भावोने निहाली, नाथ कर करूणा कंइ ।।19।।*
ज्ञानी भगंवतो ने मोह को उद्देश्य करके कहा है, हे मोह तेरी बलिहारी है।तुने तो अच्छे अच्छों को भव के चक्कर में घूमाया है।तेरे प्रभाव से विवेकावान ने अपना विवेक खोया है।कई ज्ञानी संतों ने हिता - हित का भान भूलाया है।कई त्यागी तपस्वी हेय, ज्ञेय, उपादेय आदि का विभाजन नहीं कर पाये।ऐसे अनेकों को तुमने संसार में घुमाया है।तेरे कारण कई संसारीयों से भी त्यागियों को दुर्गति की भेंट मिलती है।
हर इंसान अपने दुःखों से मुक्त होना चाहता है किंतु दुःख मुक्ति तभी होती है जब पापमुक्ति हो और पाप मुक्ति भी तब होती है जब इच्छा मुक्ति हो।अगर इच्छाए कम हुई तो पाप कम होगा और जब पाप कम होगा तो दुःख भी कम होगा । कामधेनु नामक गाय का वर्णन ग्रंथों में पढ़ने आता है। कामधेनु गाय के बारे में प्रचलित है कि वो ब्रह्मचारी होते हुए भी दूध देती है।ये उसकी विशेषता है।पहले के समय में दिलीप राजा के पास नंदिनी नामक कामधेनु गाय थी। इस युग में ऐसी गाय देखने को नहीं मिलती।
पहले, दूसरे, और तीसरे आरे तक कल्पतरू नामक वृक्ष था। इस वृक्ष के फल बहुत ही मधुर थे उसे खाने वाले को संतोष होता था।उस समय आजीविका के लिए कोई कार्य नहीं करते थे।उस समय में दस प्रकार के कल्पवृक्ष थे। उन वृक्षों से जीव अपनी आजीविका पूर्ण करते थे हम इन कल्पवृक्षो से युगलिया मनुष्यों की आजीविका चलती थी।ये वृक्ष दस प्रकार की चीज वस्तु की पूर्ति करता था परंतु इन्सान जो चाहे वो प्राप्त नहीं होता था।
चिंतामणी एक ऐसा रत्न है जिससे मनवंछित सुख, संपत्ति एवं समृद्धि मिलती थी। उसकी कीमत चाहे कितनी भी हो लेकिन ज्ञानीजनों के लिए तो पृथ्वीकाय कलेवर मात्र ही था। पारसमणि सोना देता है। लोहे को स्पर्श मात्र से वो सोना बन जाता है वही पारसमणि है।यहाँ *रत्नाकरसूरिजी* कह रहे हैं हे परमात्मा - मैं जानता हूँ कि भौतिक सुख, मोह, ममत्व में भावना के कारण कामधेनु, कल्पवृक्ष एवं चिंतामणि रत्न वगैरह में आसक्त बना। उन्हें प्राप्त करने के प्रयास किए।परमात्मा मैं जानता हूँ कि ये सब खोटे है मोहक है , आकर्षक है।वास्तव में अपने भाग्य में जितना लिखा है उतना ही मिलता है।जैसे जैसे मैं उन वस्तुओं का दिवाना बन गया हूँ वैसे वैसे मैं क्रुद्ध बनता गया। और प्रत्यक्ष फल देने वाले धर्म का सेवन मैंने नहीं किया।
हे विश्र्वश्रेष्ठ परमात्मा ! मेरे जीवन की खासियत है जो तुम्हें दिखाना चाहता हूँ । मुझे जो चाहिए वो अच्छा ही चाहिए, ये मेरी पहली खासियत है।जो भी अच्छा लगे वो जल्दी चाहिए, ये मेरी दूसरी खासियत है।एवं जो अच्छा है जल्दी मिले और वो भी सरल रास्ते से मिले।ये मेरी तिसरी खासियत है।
जैसे सुख मुझे अच्छा लगा।वो भी जल्दी चाहिए उसके लिए मेरे मन में लगी तड़प और वो भी सरल रास्ते से ही मिलना चाहिए। ऐसे मेरे मन में जगी हुई आकांक्षा ने मुझे दौड़ता किया जात -जात के आकर्षक बाह्य परिबलों की ओर। उन परिबलों से भले ही तावीज भी आ गया या मंत्रित काला पत्थर भी आ गया काला धागा भी आ गया या कोई देवता का जाप भी ....... आ गया। फिर भी इतना दौड़ने के बाद भी सुख प्राप्त करने के सरल रास्ते में मुझे अल्प भी सफलता नहीं मिली क्योंकि सुख बंधा हुआ है धर्म के साथ।
*तृप्ति अगर भोजन के साथ बंधी हुई है*
*सामग्री अगर संपत्ति के साथ बंधी हुई है*
*शांति अगर समाधान वृत्ति के साथ बंधी हुई है*
*तो सुख सिर्फ और सिर्फ धर्म से ही बंधा हुआ है।*
रत्नाकर पच्चीसी भाग - 55
इस बात की शुरू में मुझे समझ नहीं थी।किसी के समझ देने पर भी उसके कहने पर श्रद्धा नहीं हुई।अंत में श्रद्धा हुई तो भी सरल रास्ते के आकर्षण के कारण। उस श्रद्धा का अमल करने जितना सत्व मुझमें प्रगट नहीं हुआ। परिणाम - संसार के बाजार में सुख खरीदने निकलने वाले मैने सिर्फ दुख का अनुभव किया।
हे परमात्मा ! मंजिल को पाने के लिए सिर्फ पैर मजबूत हो इतना ही काफी नहीं है गति में भी तीव्रता होनी चाहिए।ये दोनों बातें मेरे दिमाग में बैठी हुई थी इसलिए सुख प्राप्त करने के लिए मजबूत पुरूषार्थ शुरू किया और उसके साथ ही पुरूषार्थ के बीच विश्राम लेना ही छोड़ दिया।
पुरूषार्थ का प्राबल्य एवं पुरूषार्थ का सातत्य इन दोनों को जीवनमंत्र बनाकर मैं प्रयत्न करता रहा सुख की मंजिल को पाने का पर मैं यह भूल गया कि सिर्फ मजबूत पैर और गति की तीव्रता ही काफी नहीं बल्कि उसके साथ दिशा भी बराबर होनी चाहिए।ठीक वैसे ही हे परमात्मा - सुख प्राप्ति का मेरा लक्ष्य सही, उसके लिए पुरूषार्थ का मेरा प्राबल्य सही, प्राबल्य के साथ साथ पुरूषार्थ का सातत्य भी सही पर सुख प्राप्ति के लिए सम्यग दिशा को समझने एवं पकड़ने में मैं धोखा खा गया।
सुख प्राप्ति के लिए मुझे सम्यग दिशा पकड़नी थी धर्म की ओर मैंने पकड़ ली, पदार्थ की, पदार्थ को पाने के लिए पुरूषार्थ की और पुरूषार्थ को सफल बनाने के लिए पुण्य की।सामाग्रीयां प्राप्त करने में सफलता मिली परंतु सुख का अंश मात्र भी अनुभव नहीं हुआ।
जीवन में सफलताएं बहुत प्राप्त की परंतु जीवन की सफलता मेरे अनुभव का विषय न बनी।
मुझे पकड़ना था आपके बताये हुए शुद्ध धर्म और मैं स्वीकार कर बैठा पुण्य कर्म।
मुझे पागल होना था चंद्र के पीछे और चांदनी को देखकर ही अटक गया।
मुझे नजर दौड़ानी थी पानी की टंकी पर, मेरी नजर अटक गई नल पर ही।
मुझे मुहब्बत करनी थी पावर हाउस के साथ , किंतु मैं दोस्ती कर बैठा ग्लोब के साथ ।
आज मुझे पता चल रहा है कि मैं इस संसार में मूर्ख कहाँ बना ?
चांदनी को संभालने गया पर चंद्र की अपेक्षा करके फिर चांदनी वंचित न रहूँ तो क्या होगा ?
नल के पानी को प्राप्त करने के लिए दौड़ा पर टंकी की अपेक्षा करके पानी से वंचित न रहूँ तो क्या ?
ग्लोब के प्रकाश के लिए पागल बना परंतु पावर हाउस की अवगणना करके फिर ग्लोब के प्रकाश को भी न गाऊँ तो होगा भी क्या ? ठीक वैसे ही ......
पुण्य को पाने के लिए दौड़ा पर धर्म की अपेक्षा करके फिर पुण्य से वंचित न रहुँ तो क्या होगा ? परमात्मा : -
संसार के बजाय मैं सुख की खरीदी करने निकला हुआ मुझे पता चला कि धर्म से पुण्य का बंध होता है। और पुण्य से सुखी बन सकते हैं। इहलोक से उपकारी एवं परलोक में हितकारी जैसे अणुव्रत, महाव्रत एवं सामायिक आदि आचारों का जाना। दान, शील , तप एवं भाव आदि चार प्रकार के धर्म को जाना।किंतु सरल रास्ता पाने के चक्कर में मन ने धर्म के इस कष्टमय रास्ते को स्वीकारने की अनुमति नहीं दी।अनंतकाल के संसार परिभ्रमण में यही एक मूर्खता पाल रखी है।
हे परमात्मा !
मैं मेरी मूर्खता की माफी मांग रहा हूँ और साथ ही विनती भी कर रहा हूं कि मुझ पर तू ऐसी करूणा बहा कि जिंदगी में ऐसी मूर्खता का शिकार न बनूं। हँसी तो मुझे अपने आप पर आ रही है कि अनंतकाल के परिभ्रमण में बार - बार मैंने यही गलती की है।
*लक्षण की चिंता पर कारण की उपेक्षा*
*ताव की चिंता पर कफ की उपेक्षा*
*दुःख की चिंता पर दोष की उपेक्षा*
*मार न खाता रहुँ तो और क्या होगा ?*
रत्नाकर पच्चीसी भाग - 57
*में भोग सारा चिंतव्या, ते रोग सम चिंत्या नहीं,*
*आगमन इच्छयुं धन तणुं पण मृत्यु ने प्रीछ्युं नहीं*
*नहीं चिंतव्यु में नर्क, काराग्रहं समी छे, नारियो*
*मधु बिंदुनी आशा मही, भय मात्र हूँ भूली गयो ।।20।।*
भारतीय आर्य संस्कृति त्याग प्रधान संस्कृति है ।ये भारतीय संस्कृति जन्म से ही जिसको प्राप्त हुई है ऐसे आर्य लोगों ने भोग को निस्सार मानकर त्याग को अपनाया है।षटखंडाधिपति 12 में से सब चक्रवर्ती राजाओं ने त्याग अपनाया और उसी भव में मोक्षगामी हो गए।कितने राजा महाराजा, मांधाताओ ने राजकुमारों ने श्रेष्ठि पुत्रों ने शरीर की सुकोमलता को स्वेच्छा से त्याग कर पुण्ययोग से मिली हुई विपुल संपत्ति का त्याग कर त्यागी, साधु, सन्यासी, जोगी और यति बन गए हैं।
*त्याग में ताकत है, भोग में ताकत नहीं है।*
*त्याग में सुख है, भोग में दुःख ही दुःख है।*
*त्याग का राग करना है और भोग का त्याग करना है।*
ऐसा संतों का कहना है पर हम लोगों ने त्याग का त्याग किया और भोग का राग किया है।भोग में क्षण भर का सुख है और चिरकाल दुःख ही है।संसार से मुक्त होने में विपक्षभूत, अवरोधक ऐसे काम भोग अनर्थ की खान है।
इस मानव शरीर में साढ़े तीन करोड़ रोमराशि है।प्रत्येक रोम में दो - दो रोग सत्ता में पड़े हुए हैं।जैसे ही अशाता वेदनीय कर्म का उदय होता है और रोग बाहर आते हैं। पांच इन्द्रियों का सेवन करके अज्ञानी जीव रोगों को आमंत्रण देते हैं।विषयों में आसक्ति भाव वो ही भोगेच्छा है।उसका परिणाम सही नहीं आता है।
*आगमन इच्छ्युं धन तणुं पण मृत्यु ने पीछ्युं नहीं*
अपने अचेतन मन में वित्तैषणा (धन प्राप्त की इच्छा) उत्पन्न होती है। इस वजह से सब जीव धन प्राप्ति की ही इच्छा रखते हैं। उसके लिए परिश्रम करता है।
एक बार विद्वानों की सभा में प्रश्न उपस्थित हुआ कि ज्यादा खतरनाक कौन है ? अर्थ या काम ? श्री या स्त्री ?
एक विद्वान ने जवाब दिया कि स्त्री रूप तो सिर्फ युवानों को ही आकर्षित करता है जबकि लक्ष्मी यानी श्रीश्री , बच्चे, युवक, बूढ़े और नपुंसक को भी ललचाती है।सभी लक्ष्मी को अमृत कहते हैं, इसलिए उसमें संतोष हरगिज नहीं है।जैसे कामतुर इन्सान अंध होता है, उसको लज्जा नहीं होती । क्षुधातुर को रूचि या समय का भान नहीं होता । वैसे ही धनातुर व्यक्ति को एकबार जब धन प्राप्ति हो जाती है फिर तो भूतकाल को भूल जाता है। वो ही सर्वस्व है उसे ऐसा एहसास होता है।उसके लिए कोई गुरूजन या बंधुजन नहीं होता है। उसको अच्छे बुरे का भान नहीं होता है। पैसे की गर्मी गजब की होती है।ज्यादा से ज्यादा धन पाने की लालसा, तृष्णा, मान एवं काम की भूख एवं क्रोध की ज्वाला एक साथ धनपति में जागृति होती है। अगर धन किसी कृपात्र के हाथ में चला जाए तो वो उसका दुरुपयोग करता है, धनपति स्वयं अंधा होता है।उसे यह भान नहीं होता है कि अगर क्षण भर में यह हृदय बंद हो जाए तो ये सारी लक्ष्मी देकर भी एक क्षणभर का आयुष्य नहीं बढा सकते हैं।
रत्नाकर पच्चीसी भाग - 56
परमात्मा आज मैं तुझे वचन देता हूँ कि जन्मों-जन्म की इस मूर्खता पर मैंने पूर्णविराम लगा दिया है। पुण्य का आकर्षण मुझमें इसलिए था कि उस मार्ग पर मुझे सुख मिलते थे।
धर्म के प्रति लगाव नहीं था क्योंकि उस मार्ग पर मुझे कष्ट और दुःख मिल रहे थे।
पर आज मुझे स्पष्ट ख्याल आ रहा है कि गुलाब की प्राप्ति जैसे कांटों से सही हुई वेदना को सार्थक करती है कि ठीक वैसे ही धर्म मार्ग में आये हुए कष्टों को सहन करने की और सार्थक बनाने का काम समाधि, सद्गति , सद्बुद्धि के द्वारा प्रदत्त धर्म की प्राप्ति में हैं।
जैसे अग्नि में जाकर सुवर्ण ज्यादा विशुद्ध होता है और घड़ा ज्यादा मजबूत बनता है ठीक उसी न्याय से धर्म मार्ग में आने वाले जो भी कष्ट है उससे आत्मा विशुद्ध बनती है, निर्मल पवित्र बनती है, मोक्षाभिमुख बनती है तो फिर उन कष्टों को उपकारक मानने में क्या तकलीफ हो सकती है।
*मांगु छुं आजे तारी पासे, एवी बुद्धि के जे बुद्धि मने संसार ना सुखमां दुःख ना दर्शन करावे आवता कष्टों मा सुख माना दर्शन करावे अने तारा मार्गे क्रोध थी मलता विजयमां पराजय ना अने प्रेमना रास्ते आवाता पराजयमा विजयना दर्शन करावे लोभने पृष्ट करती संपत्ति प्राप्ति मा दुर्गति ना एवं दान ना मार्गो ओछी थती संपत्ति मा सद्गति ना दर्शन करावे ।*
*स्वच्छंद मतिथी पृष्ट थतां अहंकार मा आत्माना अहितना एवं समर्पण ना मार्गे टूटता अहंकार मा आत्मा ना हित ना दर्शन करावे*
संक्षेप में मुझे मोतिया वाली आँख का भी दर्शन नहीं चाहिए और झामर वाली आँख का भी दर्शन नहीं चाहिए किंतु मुझे तो स्वच्छ आँख का स्पष्ट दर्शन चाहिए । बस ।.....
मोह की आँखें, स्वार्थ की आँखों में अपेक्षापूर्ति की आँखों से दर्शन तो मैंने इस जगत का अनंता बार किया । उसके फलस्वरूप चार गति रूपी संसार में भटक रहा हूँ। किंतु मुझे हे परमात्मा ऐसी आँखे जैसी आँखे तेरे पास है और जैसी आँख से तुने इस जगत का दर्शन किया वो केवलज्ञान रूपी आँख। वे आँखें प्राप्त होने के बाद कोई दुःख दुःख नहीं है, और कोई सुख सुख नहीं है। अर्थ है आईने में पड़नेवाले प्रतिबिंब जैसा। हे परमात्मा तु शायद कहेगा कि *" पग तारा हजी धरती पर डगमगे छे अने तु आकाश मा उडवानी वात करे छे "* ।
पर हाँ प्रभु मैं कौन हूँ इसकी मुझे परवाह नहीं है, पर मैं तेरा हूँ इस बात का मुझे बड़ा गर्व है। भक्त तेरा और उसकी बातें अधूरी। असंभव कदापि नहीं हो सकती।
हे दीनानाथ अब तो मुझ पर करूणा बहाओ करूणा बरसाओ।
हे परमात्मा।मुझे पता है कि केवली प्ररूपित जैन धर्म रोकडिया धर्म है वहां उधार नहीं चलता।हर व्यापारी को रोकड़ का व्यापार ही पसंद आता है, उधार का नहीं।जैसे व्यापार का सूत्र है "आज नगद कल उधार" वैसे धर्म के क्षेत्र में उद्देश्य को भी ख्याल में रखना चाहिए।कि :-
*धर्म आजे पाप काले, वात्सल्य आजे वासना काले*
*त्याग आजे भोग काले, समाधि आजे संक्लेश काले*
*स्वीकार आजे सामना काले, दान आज अनीति काले*
हे परमात्मा ऐसा मूर्खता भरा भाव निहारकर मैं ऐसा दिखाता हूँ कि हे प्रभु ! मुझे क्षमा कर, मुझ पर करूणा बहाओ, अंत में हे परमात्मा
*दूर करना मेरा अज्ञान*
*बढाऊंगा मैं तेरी शान*
*भूल गया था मैं भान*
*गाऊँ तेरा गुण गान*
*ऐसा देना मुझे सम्यग ज्ञान*
रत्नाकर पच्चीसी भाग - 58
हे विश्व वत्सल ।मैंने खाना, पीना, ओढ़ना, पहनना, चलना-फिरना, आमोद-प्रमोद करना, रूप भोग क्रिया को ही अच्छा माना।किंतु ये सभी भोग क्रियाएं अनादिकाल से लगा हुआ कर्मजनित रोग है। इस बात को मैं भूल गया।भोग क्रिया के लिए धन चाहिए।उसके लिए उल्टा सीधा, आडा-तीरछा, कला-सफेद, जो भी करना पड़ा मैंने किया।कैसे भी करके धन प्राप्त करने के प्रयत्न किए।सारे दिन भर धन प्राप्त करने के ही संकल्प विकल्प किए और रात को भी धन के ही सपने देखे।मुझे धनवान बनना है इसका ही चिंतन किया।किंतु मुझे मृत्यु के शरण में जाना है उसका चिंतन नहीं किया।जो धन परलोक में भी साथ आने वाला नहीं है जो मेरे मरण तक साथ रहेगा या नहीं वो भी निश्चित नहीं है।फिर भी उस धन के लिए मैंने मेरी जिंदगी का मूल्यवान सुनहरे. .... समय को बर्बाद किया।
*" नहीं चिंतव्युं में नर्क कारागृह समी छे नारियो "*
जैसे नरक में गया हुआ जीव वहाँ के सभी दुःखों से पीड़ित है, फिर भी वहाँ से छुट नहीं सकता।नर्क के जीवों का अपवर्ती आयुष्य होता है इसलिए वो आयुष्य संपूर्ण न हो तब तक वहाँ से छूट नहीं सकता और अन्य गति में जा नहीं सकता।ठीक वैसे ही कारागृह में कैद को जितना समय रखना निश्चित हुआ हो उतने समय तक कारागृह में रहना पड़ता है। उससे पहले वो छुट नहीं सकता ।ठीक वैसे ही नारी भी कारावास जैसी है।नर्क में ले जाने वाली है।ये जानते हुए भी विजातीय शरीर को देखने के लिए आँखें सतत् तरसती रहती है ।जब भी वो दिखने लगे तो आँख वहां से हटने का नाम नहीं लेती । उसे देखने के बाद न मन शांत रहे न दिल काबू में रहे।नर्क में ले जाने वाली है ऐसे विद्याधर समान सद्गुरु को जानने के बाद भी भोग, धन, स्त्री रूपी शहद की बूंदों के लालच में रोग, मृत्यु एवं दुर्गति रूपी तीनों भय को भूला दिया।
हे परमात्मा, जीवन में अगर सबसे बड़ी भूल कोई भी की है तो वह यह कि मैंने अंत से वचने का प्रयत्न किया किंतु आरंभ को समझने में मात खा गया।
रोग से बचने की चाहत रखी पर भोग को शुरू करने में बिल्कुल बेदरकार रहा ।अपमान के साथ मैंने दुश्मनावट रखी परंतु सम्मान की भूख को तृप्त करने के सारे प्रयत्न किए।मौत की कल्पना मात्र से मैं कांपता था किंतु जन्म दिन मनाता था और मिठाई खाकर खुशियाँ मनाता था। दुर्गति गमन की बातों से मैं थरथर कांपता था किंतु पाप तो मैं जी भर कर पूरे आनंद से करता था।
संक्षेप में - तेरी स्पष्ट सलाह थी कि अंत में अगर बचना है तो आरंभ से ही बचना है।रोग से अगर बचना है तो भोग में प्रवृत्त नहीं होना अपमान सहन नहीं करना हो तो सम्मान की अपेक्षा नहीं रखना।
मौत से बचना हो तो पाप नहीं करना।दुःख से अगर छुटना हो तो सुख के पीछे पागल नहीं होना निराशा से छुटकारा पाना हो तो किसी की आशा नहीं रखना कारण ? सभी आरंभ आखिर तो परिणाम की ओर का ही प्रयाण है।बचना हो तो आरंभ से ही बचना।परंतु आरंभ होने के बाद अंत में बचने में कभी सफलता नहीं मिलती । यही थी तेरी सलाह स्पष्ट रूप से पर मैंने उसे माना नहीं उसे ध्यान में नहीं रखा।और सच कहुँ तो मैं इस अभिमान में था कि आरंभ करके भी मैं अंत में बचकर ही रहूंगा ।भोग में मस्त रहकर भी मैं अपने शरीर को रोग ग्रस्त नहीं होने दूंगा।
गले में सम्मान का हार पहनता रहूँगा पर अपमानजनक वातावरण नहीं होने दूंगा ।उससे बचता रहूँगा।जन्मदिन मनाता रहूंगा और मौत को दूर धकेलकर ही दम लूंगा उसमें सफलता मिलती रहेगी।
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✍🏼✍🏼 *भाग - 59* ✍🏼✍🏼
पापों में आसक्त होकर पाप करता रहूँगा पर, आत्मा को दुर्गति में नहीं जाने दूंगा।सुख को प्राप्त करता ही रहूँगा फिर भी दुख को मेरे पास फटकने भी नहीं दूंगा।आशा पूरे जगत की रखूंगा पर मन को हताशा का शिकार नहीं होने दूंगा। ऐसे अभिमान ने मुझे पछाडा।भोग के क्षेत्र में या लोभ के क्षेत्र में, वासना के क्षेत्र में या प्रतिष्ठा के क्षेत्र में, सुख के क्षेत्र में या अभिमान के क्षेत्र में क्योंकि कभी भी भटकने का नाम नहीं लिया और तीव्र गति में दौड़ाता ही रहा।
मेरे शरीर की सारी शक्ति का उपयोग मैंने भोग में ही कर दिया।मिली हुई तमाम संपत्ति का उपयोग मैंने सामाग्री बसाने में और मौज शौक के साधन एकत्रित करने में कर दिया ।
*आँखें सतत् विलासी दृश्य देखने में व्यस्त थी।*
*कान सतत् विलासी गीत श्रवण में रत्*
*जीभ सदा मिष्ठान्न और नमकीन खाने में व्यस्त*
*मन सदा सोच-विचार में व्यस्त।*
और इन सबका परिणाम जो आना था वही आया।रोगों ने शरीर में डेरा जमाया।हताशा ने मन को घेर लिया ।मौत की आशंका से मन फड़कने लगा।दुर्गति गमन की कल्पना ने रातों की नींद हराम कर दी। अलबत्त इतने सारे कटु परिणामों के बाद भी मन जागृत नहीं हुआ।शिकारी का तीर चील की ओर है।
समड़ी अपने मुँह में आये हुए सर्प को देखकर खुश हैं। सर्प समड़ी के मुँह में फंसा है फिर भी सर्प के मुँह में मेंढक आया है।इसलिए वो खुश है। मेंढक सर्प के मुँह में फंसा है फिर भी एक मक्खी मेंढक के मुँह में आयी है इसलिए वो मेंढक आनंद मना रहा है। परमात्मा यही परिस्थिति आज मेरी भी है -
रोग शरीर में प्रवेश करने लगे है, संपत्ति नष्ट होने लगी है।स्वजनों की ओर से उपेक्षा हो रही है, मित्रगण दूर जा रहे है, समय मौत के नजदीक ला रहा है।समाधि टिकना मुश्किल है।दुर्गतिगमन निश्चित लग रहा है।
इतने सारे भय से ग्रस्त होने के बाद भी मुझे अल्प भी इन्द्रियों का सुख मिलता है, तो मैं इन सब भयों को भूलकर इन्द्रियों के सुख में लीन हो जाता हूँ।
कभी कभी तो मुझे खुद पर शंका होती है कि मुझमें बुद्धि है या नहीं। शेर सामने खड़ा हो और बकरी के सामने हरे चने भी रखो तो उन्हें खाने का आनंद बकरी को पलभर भी नहीं टिकता।ये तथ्य। इसी तरह फांसी की सजा जाहिर हो गयी है कुछ वक्त बाकी है उस समय भोजन की थाली में मेवे मिष्ठान्न भी रखें तो उन्हें खाने का मन नहीं करता, अपितु उन्हें देखना भी पसंद नहीं आता ये भी हकीकत है।ठीक वैसे ही रोग, मौत और दुर्गति इन तीन भयों से ग्रसित ऐसा मैं इन्द्रियों का क्षणिक सुख मिलते ही उसमें आनंदित हो जाता हूँ और उन भयों को भूल जाता हूँ इसका अर्थ तो यही है कि-
मेरे सामने विचार तो शायद बहुत हैं पर विचारशीलता नाम मात्र भी नहीं है।मेरी आँख खुली है किंतु दृष्टि के खुलेपन के सामने मैंने दिवाला ही निकाला है।मेरे पास मन है किंतु मनन के बारे में मैं मूर्ख ही साबित हुआ हूँ।
एक मुसाफिर के पिछे पड़ा हुआ पागल हाथी, उसके हमले से बचने के लिए पकड़ी है वटवृक्ष की डाली नीचे कुआ है, उस कुए में चार अजगर है।जिस डाली को मुसाफिर ने पकड़ा है उस वटवृक्ष को सफेद और काले दो चुहे काट रहे हैं।
🙏🏼🌹🙏🏼 *जय जिनेन्द्र सा*🙏🏼🌹🙏🏼
🌹🌹🌹 *कृष्णगिरि मंडल 10* 🌹🌹🌹
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रत्नाकर पच्चीसी
भाग - 60
सूंड में पकड़कर वट वृक्ष को हिलाने वाला पागल हाथी , उसके वटवृक्ष को हिलाने से वटवृक्ष में रहे हुए मधुमक्खी के छत्ते से मधुमक्खी उड़ी और उन मधुमक्खीयों के डंक मारने से ग्रसित वो मुसाफिर। इतने भय दुःख से शहद की बूंदें मुसाफिर के मुँह में टपक रही थी।शहद की दो-चार बूंदें मुसाफिर की जीभ पर पड़े उसी पल आकाश मार्ग में जा रहे किसी देवता ने उस मुसाफिर को अपने विमान में आने का दिया हुआ आमंत्रण।परंतु रे करूणता शहद की बूंदों को लालच में उस मुसाफिर ने देवता के उस आमंत्रण को ठुकरा दिया या ध्यान नहीं दिया।हे परमात्मा वो मुसाफिर में खुद ही था।
*जन्म था रूदन के साथ, जी रहा हूँ, फरियादों के साथ मौत होगी मेरी हताशा के साथ।*
भले ही बना हुँ बेटे का बाप, पत्नी का पति या नौकरों का सेठ ।किंतु हकिकत ये है कि मैं इन सब का गुलाम हूँ।बेटे की बात माननी पड़ती है।पत्नी की आज्ञा में रहना पड़ता है।नौकरों की बदजुबानी को मुझे संभालना पड़ता है।
संक्षेप में सभी को खुश रखने के लिए ही मेरा जन्म हुआ है और मैं अभी जा रहा हूँ।
इतने सारे दुख मेरे जीवन में है और इन दुखों के बीच रही हुई उन शहद की बूंदों का क्षणिक सुख भी मिल जाता है तो मैं अपने सिर पर रहे हुए मौत और दुर्गति के भय को भूल जाता हूँ।
गुलामी के प्रतिकूलता और रोग की संभावना के दुखों को भूला देता हूँ। हे परमात्मा इतनी विनती करता हूँ कि इन सारे भयों के बीच ही अगर जीना है तो तु मुझे इतनी जागृति का बल दे दे जिससे मैं मेरे भविष्य को भयमुक्त बना दूँ उसमें सफलता को प्राप्त कर पाऊँ। हे परमात्मा मेरी स्थिति उस मधु बिन्दु जैसी हो गई है।
संसार रूपी जंगल में मैं जन्मा हुआ हूँ और मृत्युरूपी हाथी मेरे पीछे पड़ा है।उससे बचने के लिए आयुष्यरूपी वटवृक्ष मुझे सुरक्षित रहने के लिए मिला है। उसकी शाखा को पकड़ा है। उस शाखा को दिन और रात रूपी दो चूहे काट रहे हैं।नीचे नरक रूपी कुआ है । आधि, व्याधि और उपाधि रूपी मधुमक्खी डंक मारकर काट रही है। उसमें पंचेन्द्रिय के विषयरूपी शहद का स्वाद मिला है और मैं विद्याधर जैसे सद्गुरु की बात का जवाब नहीं देता हुँ।वे मुझे संसार से छुडाकर मोक्ष में ले जाने को तैयार है। किंतु मधु बिंदु की आशा में रोग , मृत्यु, दुर्गति के भय को भी मैंने भूला दिया है।
मुझे उबारो हे प्रभु, मुझ पर दया करो। अंत में हे परमात्मा
*मेरे दिल में तुम प्रभु आना*
*यहाँ से कभी मत जाना*
*गाऊंगा में तेरा ही गाना*
*सफलता को ही है पाना*
*मेरे भावि को भयमुक्त बनाना*
*ऐसे आशीष तु बरसाना*
🙏🏼🌹🙏🏼 *जय जिनेन्द्र सा*🙏🏼🌹🙏🏼
🌹🌹🌹 *कृष्णगिरि मंडल 10* 🌹🌹🌹
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रत्नाकर पच्चीसी
भाग - 61
हुँ शुद्ध आचारो वडे, साधु हृदयमां नव रह्यो
करी काम पर उपकार ना यश पण उपार्जन नव कार्यो
वली तीर्थना उद्धार आदि कोई कार्यो नव कर्या
फोगट अरे आ लक्ष चोराशी तणा फेरा फर्या ।।21।।
हे शुद्धानंद ....... सभी अनुष्ठानों में शुद्धि आवश्यक है।जैसे भावों की शुद्धि अज्ञानुसारिता से होती है।विचारों की शुद्धि आत्मजागृति से होती है।क्रिया की शुद्धि विधि के पालन से होती है ।तप की शुद्धि वासना की कमी से होती है ।दान की शुद्धि ममत्व की कमी से होती है।धर्म की शुद्धि गुणानुराग से होती है। वैसे आचार की शुद्धि यथा तथ्य पालन से होती है। ठीक वैसे ही रत्नाकरसूरि आचार्य अपने आचार धर्म में आयी हुई शिथिलता को प्रभु समक्ष प्रगट करते हुए कहते हैं. .....
*हुँ शुद्ध आचारो वडे साधु हृदयमां नव रह्यो,*
*करी काम पर उपकारना यश पण उपार्जन नव कर्या*
मनुष्य पशु , पक्षी सभी अपना कार्य करते हैं उसमें कोई विशेषता नहीं है।परंतु जिनके द्वारा दूसरे को मदद रूप या सहायक हो ऐसे परोपकार के कार्य तो कोई विरल व्यक्ति ही कर सकता है।परोपकारी व्यक्ति " दूसरों के दुख को अपना दुख" समझकर उनकी मदद करते हैं ना कि लोगों की प्रशंसा , यश, मान सम्मान पाने के लिए दूसरों पर उपकार करता है।इंसान को सिर्फ अपने लिए ही नहीं बल्कि औरों के लिए जीना है ऐसा मानकर वे दूसरों की मदद रूप बनकर परोपकारी बनते हैं।
ठीक वैसे ही परमात्मा ! सज्जन पुरूषों के हृदय में स्थान पा संकू ऐसे शुद्ध आचारों का भी मैंने पालन नहीं किया है।जगत् में यश फैला संकू ऐसे परोपकार के कार्य या तीर्थोद्धार आदि सुकृत कार्य भी मैंने नहीं किए है।चौराशी लाख योनि में गिरते पड़ते अकाम निर्जरा के कारण महामूल्यवान ऐसे मनुष्य भव पाने के बाद भी मैंने उस अमेरिका गये हुए मूढ़ इंसान की तरह वक्त को व्यर्थ गवाया है।
तीन युवान अमेरिका में चार साल रहकर अब भारत आये हैं। इन तीनों के बीच चर्चा का विषय था कि अमेरिका में चार साल रहकर क्या किया ? तीनों एक दूसरे से पूछ रहे है। अब पहले युवक ने कहा कि मैंने अमेरिका में रहकर M.B.A., पूर्ण किया, दूसरे ने कहा कि मैंने L.L.B., संपूर्ण किया।तिसरे ने कहा कि मैंने समय पसार किया। अगर आप हे परमात्मा - मुझे ये सवाल पूछते ही अनंतकाल में संसार परिभ्रमण के दौरान तूने क्या किया ?
तुझे अनंताबार विपुल संपत्ति मिली, धारदार बुद्धि मिली, तंदुरुस्त शरीर मिला। अनेकों बार अनेकों सामग्रियाँ मिली, अरे मैं खुद मिला, मेरे प्रवचन सुनने को मिले, सद्आलंबन और सद्अनुष्ठान मिले, सुंदर सुंदर धर्म सामाग्रीयां मिली, गुणवान और चारित्रवान चर्तुविध संघ मिला। तारक ऐसे महान तीर्थ मिले। इतना सब कुछ मिला परंतु तूने क्या किया।
हे परमात्मा आपके इतने बडे सवाल का जवाब एक ही वाक्य में देना हो तो दे सकता हूँ कि "मैंने समय व्यतीत किया।होतो गति में सब भवों में मैंने अपने शरीर की संभाल रखी और मन को बहलाने में मिली हुई शक्ति व सामाग्री का उपयोग किया, पुण्य को खर्च किया और कीमती समय को व्यर्थ में बिताया।
🙏🏼🌹🙏🏼 *जय जिनेन्द्र सा*🙏🏼🌹🙏🏼
🌹🌹🌹 *कृष्णगिरि मंडल 10* 🌹🌹🌹
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🌹🌹🌹 *कृष्णगिरि मंडल 10* 🌹🌹🌹
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🌹🌹🌹 *रत्नाकर पच्चीसी* 🌹🌹🌹
✍🏼✍🏼 *भाग - 62* ✍🏼✍🏼
भुख लगी भोजन के विविध द्रव्यों को पेट में डाला , वासना जगी विजातीय के सहवास का सहारा लिया, खुजली हुई आँख में तो मनोहर दृश्यों को व्यस्त रखा। इर्ष्या जगी किसी की निंदा कुथली की , लोभ जगा क्रूरता दिखाया। क्रोध आया तो दुश्मनावट खडी की।आवेश पैदा हुआ हाथ में हिंसा के कार्य किए।राजा महाराजा के जीवन के लिए जैसे कहा जाता है कि - *"खाया पिया और राज किया "*।
वैसे मेरे विराट संसार परिभ्रमण की कहानी को एक वाक्य में कहुँ तो *" खाया पिया और मौज किया "*।
हे परमात्मा करूणता तो ये है कि जो समय सामाग्री और संयोग मुझे मिला है वही समय, सामाग्री और संयोग तुझे भी मिला था।किंतु उन्होंने सब के सदुपयोग से तू बन गया दुखमुक्त पापमुक्त और कर्ममुक्त । जबकि मैंने उन सबका दुरूपयोग किया और कर्म के चक्कर में फंसा और रवाना हो गया दुर्गति में।
*संपत्ति मिली फिर भी किसी के आँसू नहीं पोंछे।*
*जीभ मिली फिर भी किसी को तसल्ली नहीं दी।*
*आँखें मिली फिर भी प्रभुदर्शन नहीं किए।*
*तंदुरुस्त शरीर मिला फिर भी तपस्या नहीं की।*
*तन मिला फिर भी सद्विचार न किया*
*हृदय मिला कोमल फिर भी ना संवेदनशीलता प्रगटी*
निमित्त मिले अद्भुत फिर भी जीवन में उसका कोई असर नहीं क्या कहूँ तुझे ?
पैसे को बटुए में रख पाया , रत्नों को तिजोरी में रख पाया, संपदा को अलमारी में रख पाया, गेहूँ को भंडारण में रख पाया ,मिष्ठान्न को डिब्बे में रख पाया।
पर मैं खुद किसी के दिल में नहीं बस पाया क्योंकि दूसरों के दिल में बसने के लिए मेरे जीवनरूपी किताब में जो आचार - विचार होने चाहिए वो मेरे नहीं थे। परमार्थ के कार्य मुझसे होते नहीं।तीर्थों के जीर्णोद्धार मैंने सहयोग नहीं किया।
किसी ने कहा है :-
*रोज जन्मे हजारों लाखों, रोज पाये हजारों लाखों*
*केटलाक ने लोको करे याद, मात्र तेने जो जे छोड़ी जाए सुवास।*
जिसने जिंदगी को सिर्फ स्वार्थपूर्ति में ही बिताई है, मिली हुई संपत्ति सिर्फ भोग विलास में ही खरची है, अपेक्षापूर्ति के लिए ही जिसने संबंध स्थापित किए हैं, विश्वासघात और व्यभिचार ये दो ही जिनके जीवन की जीवनशैली है। उनके जीवन में "सुवास" क्या ? उनके जीवन की "याद" क्या ?
हे परमात्मा ! सागर के सफर में तो "मछुआरा" भी जाता है और मरजीवा भी जाता है।
*" मछुआरे का कार्य है "* :- मछली पकडना, उनको बर्फ में रखना, उनपर डालता रहता है पानी, कभी सुखाता है धूप में, उस दुर्गंधमय वातावरण में रहने की आदत पड़ जाती है, टोकरी में रखकर खड़ा रहता है और बाजार में उन्हें बेचता है और पैसे कमाता है, और उसी कमाई से आजीविका चलाता है और व्यतीत करता है जिंदगी।
*" मरजीवा का कार्य है "* :- वो जीवन को जोखिम में डालकर सागर के तट पर पहुंचता है और खोजता है किमती मोती।कई बार प्रयत्न करने के बाद शायद एकबार सफलता मिलती है किंतु वो सफलता उसकी सात पिढ़ी की दरिद्रता का नाश करती है।
🙏🏼🌹🙏🏼 *जय जिनेन्द्र सा*🙏🏼🌹🙏🏼
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🌹🌹🌹 *रत्नाकर पच्चीसी* 🌹🌹🌹
✍🏼✍🏼 *भाग - 63* ✍🏼✍🏼
हे परमात्मा ! :
भयंकर सागर जैसे इस संसार का परिभ्रमण मैं अनंतकाल से कर रहा हूं किंतु सब भवों में सब गतियों में, सभी योनियों में मैंने प्रतिनिधित्व तो मछुआरे का ही किया है। जहाँ भी गया वहाँ ढूंढता रहा इन्द्रियों के विषयों को, प्राप्त करता रहा इन्द्रियों के विषयों को, पागल बनता रहा इन्द्रियों के विषयों में, सुख प्राप्त करता रहा इन्द्रियों की गुलामी से उस मार्ग पर तृप्ति मिली पर काम चलाऊ, इस विषय से प्रसन्नता मिली पर काम चलाऊ उस मार्ग में मन मस्त बना पर काम चलाऊ।थोडा समय व्यतीत हुआ।
संयोग से अल्प परिवर्तन आया
स्थान में थोड़ा सा बदलाव आया
और मैंने मेरी पसंदगी को बदल दिया
मेरे सुख की परिभाषा में बदलाव आ गया
मेरी प्रसन्नता की भूमिका में परिवर्तन आ गया
क्या कहुँ परमात्मा - मुझे जो संसार मिला था वही संसार तुझे भी मिला था किन्तु तू "मरजीवा" बन गया।
अंतर्मुख बनकर तु आत्मगुणों की साधना में लग गया।ना परवाह की शरीर की सुखशीलता की , ना चिंता की मन की स्वच्छंदता की, ना चित्त लगाया जड़ पदार्थों में, ना तुने मन बिगाडा दुर्ध्यानों से।
इन सबके फलस्वरूप तू बन गया सर्वदोषों से विमुक्त एवं सर्वगुणों से युक्त। पूर्ण दोष रहित और सर्वगुण सहित ।सर्व दुःखों से मुक्त एवं अनंत सुख से युक्त।
हे परमात्मा अब मैं इतना ही कहूँगा कि तु मुझे आशीर्वाद दे दे कि मछुआरे से मैं भी मरजीवा बन जाऊँ। सुख के अलावा सद्गुण मेरे जीवन का लक्ष्य बन जाए। विनाशी के अलावा अविनाशी मेरे आकर्षण का केंद्र बन जाए । दुःख के अलावा दुर्गुणों के हटाने का ध्येय बना लूं।फिर मुझे "घर संसार में मैंने समय बिताया है" ऐसा कहने की जरूरत नहीं पड़ेगी और ना ही मुझे कोई ऐसा सुना पायेगा। परमात्मा ऐसे जीव में शिव , रागी में से विरागी, विरागी में से वितरागी, पत्थर में से कोहिनूर, पामर में से पावन, मछुआरे में से मरजीवा।
आत्मा में से मय जीवन बनाऊँ, अनादिकाल की इस संसार परिभ्रमण से अब मुझे छुटकारा पाना है। रत्नत्रयी के आभूषणों में मन लगाना है। तत्वत्रयी की आराधना साधना और उपासना करनी है।चार प्रकार के कषायों को नष्ट कर चार प्रकार के धर्मों में मन को पिरोना है। इन सबके लिए परमात्मा तेरे आर्शीवाद की खास जरूरत है। तेरी करूणा दृष्टि और तेरी कृपादृष्टि भी साथ में देना प्रभु ।तेरे पे एक भिखारी, पामर, मूढ, अज्ञानी तेरा चाकर बनकर आया है। तु अगर ठुकरायेगा तो दर दर धक्का खाना पडेगा।बहुत ठोकर खाई परमात्मा अब नहीं रहा जाता....... अब नहीं सहा जाता. ........
*हे परमात्मा मुझे मत ठुकराना, चाहे तो मार देना ताना*
*थोडी मेरी सिफारिश लगाना, मेरे पास नहीं है कोई बहाना*
*मुक्तिनगर को हे पाना, संसाररूपी किचड़ से पार पाना*
*ऐसे आशीष बरसाना, अब तो तू ही तारण हार है माना।।*
🙏🏼🌹🙏🏼 *जय जिनेन्द्र सा*🙏🏼🌹🙏🏼
🌹🌹🌹 *कृष्णगिरि मंडल 10* 🌹🌹🌹
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🌹🌹🌹 *रत्नाकर पच्चीसी* 🌹🌹🌹
भाग - 64
*गुरूवाणीमां वैराग्य केरो रंग लाग्यो नहीं अने*
*दुर्जनतणा वाक्यों महि शांति मले क्यांथी मने ?*
*तरू केम हूँ संसार आ, अध्यात्म तो छे नहीं जरी*
*तुटेल तलियानो घडो जलथी भराय केम करी ! ।।22।।*
जैन दर्शन में मुख्य तीन तत्व है- देव, गुरू और धर्म ।तराजू के दोनों पलड़े बराबर तभी रहते हैं जब बीच की धूरी स्थिर रहती है ।ठीक वैसे ही गुरू तत्व तीनों तत्व(तुला) में मध्य स्थान यानि केंद्र स्थान में आता है।धर्म की पहचान कराने वाला भी गुरू है और परमात्मा तक पहुँचाने वाला भी गुरु है। केंद्र स्थान में होने से उनकी जिम्मेदारी और ज्यादा हो जाती है। इसलिए गुरूत्व का महत्व भी ज्यादा है। तीर्थंकरों के बाद सद्धर्म का उपदेशक गुरु ही होता है। ऐसे सद्गुरु के सानिध्य से ही, उनकी आज्ञा से ही शिष्य के सब कार्य सिद्ध होते हैं।
समाज में एक दूसरे के साथ अनेक प्रकार के संबंध होते हैं। जैसे शिक्षक और विद्यार्थी के बीच विद्या का संबंध, नौकर और सेठ के बीच व्यवसायिक संबंध, मित्रों के बीच निस्वार्थ प्रेम का संबंध, ठीक वैसे ही गुरु और शिष्य के बीच आत्मिक संबंध होता है जो निस्पृह होता है ।अन्य संबंधों का ऋण चुकाना आसान है किंतु गुरु का उपकार तो उनके जैसा बनकर ही चुका सकते हैं। वरना अनंतकाल में भी नहीं चुका सकते । उनकी शुभाशीष, कृपादृष्टि अमी नजर शिष्यों के जीवन में आमुल परिवर्तन लाता है एवं केवलज्ञान की प्राप्ति कराता है। उपरोक्त आतंरिक संबंध रखनेवाले जिनकी कृपादृष्टि से मेरे आत्मगुणों का प्रकाशन हुआ ऐसे वात्सल्यमूर्ति गुरू मिले, उन्होंने कल्याण की राह बताई फिर भी मैं उनकी वैराग्यवाणी से वासित न बना, वैराग्य तभी आता है जब धर्मराधना के प्रति आदरभाव जगे और संसार की सारी सुख सामाग्रीयों के प्रति विरक्तभाव आये। कहते हैं कि हे परमात्मा. ....
दूध की डेयरी पर दूध पीने का मन नहीं हुआ तो शराब के अड्डे पर तो मुझे दूध याद ही नहीं आयेगा, हलवाई की दुकान पर मिष्ठान्न का आकर्षण नहीं हुआ तो कोयले की दुकान पर मिठाई स्मृति पटल पर कैसे आयेगी ? जौहरी की दुकान पर गहने का आकर्षण नहीं हुआ तो कपड़े की दुकान पर तो गहने का आकर्षण हो ही नहीं सकता ।उद्यान में गुलाब की सुवास न ले पाए तो गंदगी के ढ़ेर में उसकी चाहना भी व्यर्थ है।ठीक वैसे ही हे परमात्मा !
मन की प्रसन्नता को चरमसीमा पर ले जाने की ताकत रखनेवाले, जगत में तुच्छ शुद्र एवं मूल्यहीन पदार्थों की पहचान करनेवाले, जगत के जीवों के प्रति मैत्री भावना जगाने का शंखनाद बजानेवाले और तेरे जैसा बनने के लिए लालियत करनेवाले ऐसे एकांत हितकारक, समाधि प्रापक एवं सद्गति दायक, उपकारक तेरे वचन यानि जिनवाणी मुझे सुनने को मिली गुरू गम से फिर मैं न बना शांत, न बना प्रशांत, न बना उपशांत ।
मेरे कषायों का खात्मा हुआ नहीं, मेरे राग भाव में कमी आयी नहीं, मेरे लोभ में ओट आवी नहीं।
हे परमात्मा !- तेरे इतने अनमोल, जिनवाणी के वचन सुनने के बावजूद मेरी ये हालत है तो फिर दुर्जनों के वचनों के श्रवण से मेरी हालत में कोई सुधार होगा इसकी तो कोई संभावना नहीं है।
रत्नाकर पच्चीसी भाग - 65
*दुर्जन तणा वाक्यो मही शांति मले क्यांथी मने*
विश्व के सब धर्मों ने सत्संग की महिमा गायी है। कुसंगत से दूर रहने को कहा है। दुर्जनों की संगत करने से मना किया है। नीति शास्त्रों ने यहाँ तक कहा है कि :- हाथी से हजार हाथ दूर। सींगवाले प्राणी से सौ हाथ दूर।किंतु दुर्जन तो जिस गाँव में रहता हो, उस गाँव को भी छोड देना चाहिए।क्योंकि कुत्ता काटता है, गधा लात मारता है, सर्प डंक मारता है जबकि दुर्जन तो ये भव और परभव दोनों ही बिगाडता है। दुर्जन के जीवन में ही शांति नहीं है तो वो दूसरों को शांति क्या देगा। वैसे कहावत है कि -
*"कुएं में होगा तो अवाड़ा में आयेगा"*
दुर्जन की संगत से मेरा उद्धार होगा ? - ये असंभव ही है।
घड़ा कितना भी छोटा क्यों न हो। कुए में पानी कितना भी गहरा क्यों न हो।फिर भी घड़ा पानी से भर जाएगा जिसका पेंदा (तलिया) अखंड हो । घड़ा भले ही बहुत बड़ा हो और उसका पेंदा फूटा हुआ हो और कुए में पानी पूरा भरा हुआ हो तो भी घड़ा पानी से भर नहीं सकता क्योंकि घड़े का पेंदा ही फूटा हुआ है।
पात्र कैसा भी हो, उसके पेंदे में छिद्र हो या कोई पतली सी दरार हो तो उसमें पानी नहीं टिक सकता। बरसते बरसात में अगर घड़ा उल्टा रखा हो तो वो घड़ा कभी नहीं भर सकता। साधक किसी भी स्तर का क्यों न हो अगर उसमें दुर्गुण रूपी छिद्र हो तो उसकी साधना नष्ट हो जाती है। हे परमात्मा मेरी भी स्थिति ऐसी ही है बिना पेंदे की घड़े जैसी।
तेरे वाणीरूपी पानी को झेलने के लिए मेरा पास श्रद्धा संपन्न हृदय होना चाहिए जो मेरे पास नही है।मुझमें चित्त की निर्दोषिता भी होनी चाहिए वो भी मेरे पास नहीं है।मेरे मन में जीवामृत के प्रति मैत्री भाव होना चाहिए था लेकिन वो भी मेरे पास नहीं है। मेरे पास चित्त की प्रसन्नता और हृदय की विशालता जरूरी थी लेकिन वो मेरे पास नहीं है।मेरे पास मौजूद होना था मेरे मन में तेरे वचनों के प्रति आदरभाव, लेकिन वो भी मेरे पास नहीं है। हाँ मेरे पास है तर्क वितर्क करने की अडियल बुद्धि शंका भटकने वाला चित्त, चित्त की चंचलता, मन की मलिनता। तेरे प्रत्येक वचन की उलट जाँच पड़ताल करने के लिए तत्पर मन। महत्वाकांक्षा से व्याप्त हृदय।कहते हैं कि :-
घड़े की दीवार मजबूत है परंतु पेंदा ही नहीं है तो पानी का संग्रह असंभव। बुद्धि मेरी तेज धारदार पर श्रद्धा संपन्न हृदय नहीं है तो मेरे वचनों का संग्रह असंभव।किसी शायर की ये पंक्तियाँ प्रस्तुत है -
*श्वास नी सीढी उपर चढतो रहुँ,*
*काल केरी खीण मां पडतो रहुँ,*
*उन्नति ना मार्ग तो सरीयाम छे,*
*हुँ पोते पत्थर थई मुजने नडतो रहुँ*
आज मेरी उम्र बत्तीस साल , अगले साल ये उम्र तेतीस साल।देखा जाए तो हर समय मेरी उम्र बढ़ती जा रही है किंतु मुझे बडा बनाने वाले ये समय मुझे दिन - प्रतिदिन मौत के निकट ले जा रहा है। चढ रहा हूँ एक तरफ श्वास की सीढी पर। और गिरती रही दूसरी काल रूपी खीण में ये वास्तविकता होते हुए भी इस संसार सागर से पार पाना चाहता हूँ।मेरी आत्मा को कषायमुक्त एवं कर्ममुक्त बनाने के लिए तत्पर हूँ।तो सत्ता में पड़े हुए ज्ञानादि अनंतगुण को प्रकाशन करना... चाहता भी हूँ तो उसके लिए सहायक बने ऐसे तेरे वचन तो आज भी उपलब्ध है। इसके लिए प्रोत्साहक बने ऐसी तेरी साधना का जीवन आज भी मेरी आँखों के समक्ष है।
परंतु रे तेरी करूणता मैं खुद ही मेरे लिए पत्थररूप बन गया हुँ । तेरे वचनों के प्रवाह को मैं मेरे हृदय तक पहुंचने नहीं देता।मैं खुद ही मेरे लिए दावानल बन गया हूँ।
रत्नाकर पच्चीसी
भाग - 66
तेरे सद्गुणों के पुष्पों को मेरे जीवन में टिकने नहीं देता हूँ।क्योंकि मैं खुद ही मेरे लिए तुफान बन गया हूँ।
तेरे प्रति रही हुई श्रद्धा की ज्योति को हृदय में टिकने नहीं देता क्योंकि मैं खुद ही मेरे लिए गंदगी का ढेर बन गया हूँ।
सद्वर्तन के पौधों को जीवन में विकसित ही नहीं होने देता।जब इन सबके अंजाम की कल्पना करता हूँ तो सारा शरीर कंपायमान होने लगता है।कहते हैं कि. ..... संपत्ति की अवगणना करनेवाला जीवन में कमियों का ही शिकार होता है। मित्रों की अवगणना (असुविधाओं) करने वाला जीवन में शायद अकेलेपन का ही शिकार होता है। भोजन में द्रव्यों की अवगणना करने वाला शायद अशक्ति का शिकार होता है।किंतु हे परमात्मा तेरे वचनों की अवगणना करनेवाला तो. .....
*दुःखों का और दोषों का, दुर्बुद्धि एवं दुर्गतियों का,*
*दुर्भाग्य एवं दुःस्वप्नों का, संक्लेशों एवं शत्रुता का,*
*मार एवं मौत का, भय का एवं भव का,*
*दुर्ध्यान एवं दुर्भाव का शिकार बनता है।*
हे परमात्मा. .... तेरे जैसा करूणावंत स्वामी मिलने के बाद भी अगर मेरा भाव ऐसा अंधकारमय ही रहता है तो फिर मैं अपने भावी को प्रकाशमय कैसे बनाऊंगा ?
अलबत्ता इसमें दोष किसी और का नहीं है सिर्फ मेरा और मेरा ही दोष है।क्योंकि तुने तो भारी कर्मों वाले को भी तारा है, घोर पापीयों को भी उबारा है, विषयलंपट लोगों को भी मोक्ष में भेजा है और कषाय दृष्टों को भी तुने निष्कषायी बनाया है। तेरे दुश्मन को भी तूने तुझ स्वरूप बनाया है तेरे वैरी को भी तुने क्षमा भंडार बनाया है। अब अगर मुझे मेरी आत्मा का कल्याण करना है तो मुझे ही मेरे जीवन में सम्यक परिवर्तन लाना है।
मेरे अभिगम को सम्यक दिशा में ले जाना है।मुझे अब समझ में आ गया है कि. ...
नदी से सागर बनने में देर नहीं लगती है।पर सागर तक पहुंचने में देर लगती है।
पानी को भाप बनने में देर नहीं लगती परंतु पानी को गरम होने में देर लगती है। वैसे ही आत्मा को परमात्मा बनने में देर नहीं लगती परंतु परमात्मा के मार्ग पर कदम बढाने में देर लगती है। हे परमात्मा तु ऐसी कृपा बरसा मुझ पर कि मेरे मन के सभी विचार तेरी ओर अग्रसर होने के लिए लालियत करे।मेरी आँखें तुझे देखने के लिए तरसें ।मेरे कान तेरी वाणी सुनने के लिए तड़पे।और मेरे पैर तेरे दर्शन और तुझे देखने के लिए दौड़ते रहे।
मेरे हाथ तेरी सेवा पूजा करने में लगे रहें।
मेरा हृदय तेरे पीछे पागल बना रहें।
संक्षेप में मुझमें जो *"मैं"* का भाव है उसको छोड़ने की हिम्मत तु मुझमें पैदा कर दे। फिर मुझे तेरे जैसा बनने में विशेष समय नहीं लगेगा इसका मुझे पूर्ण विश्वास है।कहते हैं कि
*पहाड़ की ऊंचाई छोड्या पछी*
*आ नदी पहोंची शकी सागर सुधी*
अंत में हे परमात्मा
मेरा आत्मघट टूटे हुए पैंदे जैसा है उसमें आत्मप्रशंसा, परनिंदा रूपी छिद्र पड़े हुए हैं जिससे उसमें साधना रूपी जल नहीं भरा जा सकता है प्रभु ! मेरे दोषों को माफ करो, मेरी रक्षा करो।
अंत में हे परमात्मा !
*मेरे आत्मछूट को खोल, वचन तेरे है अनमोल*
*मेरी समस्या करना सोल्व, रखना नही कुछ पोल*
*दादा एक बार तो बोल, स्वीकारूंगा तेरा कोल*
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🌹🌹🌹 *रत्नाकर पच्चीसी* 🌹🌹🌹
✍🏼✍🏼 *भाग - 67* ✍🏼✍🏼
*में परभवे नथी पुण्य कीधुं ने नथी करतो हजी*
*तो आता भव मां क्यांथी थशे हे नाथजी*
*भूत भावि ने सांप्रत त्रणे भव नाथ हुँ हारी गयो*
*स्वामी त्रिशंकु जेम हुँ, आकाश मार्ग लटकी रह्यो ।।23।।*
हे त्रैलोक्य दीपक ! इस विशाल जगत में संसार के जीव और अजीव सृष्टि पर काल महाराज का साम्राज्य है।जैन दर्शन में मान्य छः द्रव्यों में काल स्वतंत्र द्रव्य है ।ये नए को पुराना और पुराने को जीर्ण-शीर्ण करता है। सभी जीवों की बाल्यावस्था, कुमारवस्था, यौवनावस्था और वृद्धावस्था। ये सभी काल नामक द्रव्यों से ही होता है।निरंतर व्यतीत होने वाले इस कालरूपी प्रवाह को कोई भी नहीं रोक पाया है।
अनंत भूतकाल चला गया है और और अनंत भविष्य काल शेष है।वर्तमान तो सिर्फ एक समय का या क्षणमात्र का है। इस तरह काल का चक्र चलता ही रहता है। पूज्य रत्नाकरसूरिजी कहते हैं कि या मनरूपी मोती को परमसत्ता के धागे में पिरोना है।मतलब इश्वरीय बनाने का सूचन है। और ये वर्तमान में ही हो सकता है। इस आरे के 21,600 वर्ष शेष है।इसमें अपना आयुष्य 60 का समझो।जो आँख की पलक झपकने में पूरा हो जाएगा।
काल भी एक अद्भुत ऊक्ति है उसके तीन विकल्प है।उनका सदैव स्मरण, चिंतन मनन करने का महापुरुषों ने बताया है ।
*अतीत निंदामी - भूतकाल में पापों की निंदा*
*पडुपन्न संवरेमी - वर्तमान में पापों का संवर*
*अणायं पच्चक्खाण - भविष्य में पाप नहीं करने का पच्चक्खाण*
इस प्रकार भूत, भावी और वर्तमान तीनों काल में पापों का पश्चाताप करने का महापुरुषों ने कहा है।
जैसे नदी के प्रवाह को रोकना असंभव है। आकाश के तारों को गिनना अशक्य है। ठीक वैसे ही समय को रोकना भी अशक्य है।जो भी समय मिले उसका सदुपयोग करने और सार्थक करने में ही बुद्धिमता है।
हे त्रिलोकीनाथ मेरे इस जन्म में आये हुए विघ्नों अंतरायों दुःखों एवं कष्टों की कहानी बता रही हैं कि मैंने पूर्व भव में कोई पुण्य कार्य किया नहीं है अभी इस भव में अब तक तो मेरा जीवन अज्ञान एवं रंग राग में बिताया है यानी धर्मराधना कुछ भी नहीं की है।और अब जब धर्म की आवश्यकता एवं अनिवार्यता समझ में आयी है तो मैं प्रमाद के परवश बन गया हूँ यानी धर्म के कार्य में आलस प्रमाद का ही अमारा लिया है। इस प्रकार मैं मेरे भूतकाल, वर्तमान और भावि तीनों भवों में हार गया हूँ अब मेरा क्या होगा ? परमात्मा मैं कितना मूर्ख हुँ की मैंने मेरे पीने के दूध में ही पानी मिला दिया।
मकान के बनाने में मैंने हल्के सीमेंट का उपयोग किया परंतु वो भी मेरे रहने के भवन में ही। मैंने कीचड़ लगाकर मुँह तो खराब किया वो भी मेरा खुद का ही। मैंने दवाई में हल्के पदार्थों का उपयोग किया परंतु वो भी मेरे लेने की दवाई में ही। परिणाम. ... पानीवाले दूध ने मेरे शरीर को जमने नहीं दिया । हल्के सीमेंट का उपयोग मेरे मकान की दीवारों में मजबूती आने नहीं दी। कीचड़ लगाने से मेरे चहरे की गंदगी ने मुझे परेशान किया। हल्की दवा ने मेरे शरीर को तंदुरुस्त नहीं होने दिया। परंतु हे परमात्मा इन सारी गलतियों को अच्छा दिखाने की एक गलती और भी की है वो है - मैंने मेरे सुखी शांति सलामती समाधि सद्गति को निश्चित कर सके ऐसे तमाम सत्कार्यों को मैंने *"कल"* के लिए छोड़ दिया या कल के भरोसे छोड़ दिया है।
🙏🏼🌹🙏🏼 *जय जिनेन्द्र सा*🙏🏼🌹🙏🏼
🌹🌹🌹 *कृष्णगिरि मंडल 10* 🌹🌹🌹
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रत्नाकर पच्चीसी भाग - 70
अथवा नकामुं आप पासे नाथ शुं बकवुं घणुं*
*हे देवताना पूज्य आ चरित्र मुझ पोता तणुं*
*जाणो स्वरूप त्रण लोकानुं तो माहरू शुं मात्र आ*
*ज्यां क्रोडनो हिसाब नहीं त्या पाईनी तो वात क्या।। 24 ।।*
हे विश्व वत्सल ! पूज्य रत्नाकरसूरी आचार्य मेधावी हैं। शास्त्रों के ज्ञाता है, आत्महित में अपने ज्ञान का इस्तेमाल कर रहे हैं।फिर भी खुद, अबुध, अज्ञानी हो ऐसा आचरण करते हुए बहुमान और समर्पणता के साथ परमात्मा को कह रहे हैं कि हे परमात्मा ! मेरे जीवन में किए हुए सारे पाप, अवगुण आपके समक्ष प्रगट किए हैं। अब इससे ज्यादा बकवास करने जैसा शेष कुछ नहीं है।
और हे परमात्मा मेरे जैसे कितने ही पापी, अधर्मी जीवों ने आपके समक्ष अपने मन की बातें कहकर दिल खोलकर मन को शांत किया है। जब व्यक्ति संसार में स्नेहीओं, मित्रों, आत्मीयजनों से थक जाता है तब हे परमात्मा ! वे सारे जीव तेरी शरण में आते हैं और अपने मन की गाथा एवं व्यथा तेरे समक्ष प्रकट करते हैं। उन सबकी दुःख भरी तुने विशाल दिल रखकर सुनी है ।कई जीवों की आंतरिक वेदना आपने सागरवर गंभीर बनकर सुनी है।फिर भी हे परमात्मा तू तो निरंजन, निराकार, शुद्ध बुद्ध दशा को प्राप्त किए हुए हैं अतः सबकी मनोव्यथा सुनने के बाद भी किसी को आश्वासन के दो शब्द आपने तो नहीं कहे।तथापि आश्चर्य इस बात का है कि आपके समक्ष पापों के प्रकट करने के बाद सब दुःखी जीवों का दुःख हल्का हो जाता है। उनके पूर्व जन्म के पाप कम हो जाते हैं। उन दुःखी जीवों की मनोभूमिका में सांत्वनारूपी नयी ताजगी आ जाती है। और आगे ऐसे पाप नहीं करने के लिए तेरा भक्त जागृत हो जाता है। वैसे ही हे परमात्मा मैंने मेरे दिल के द्वार खोलकर मेरे जीवन के हर कोने में पड़े हुए पापों को ढुंढकर तेरे समक्ष प्रकट किए हैं।अब मैं कहुँ या न कहुँ तो भी हे परमात्मा आप अपने केवल ज्ञान रूपी वैभव से सब कुछ जान चुके हो अब मेरा ज्यादा बकवास निरर्थक है।
हे ज्ञानानंद -दर्दी के सब रोगों का निदान पूर्ण जांच पड़ताल होने के बाद भी दर्दी अपने रोग की पीड़ा की बात बार बार करता ही है।तब समझना ही पड़ता है कि दर्दी अपने शरीर में रहे रोग की पीड़ा से बहुत दुखी हो गया और डाक्टर को दर्दी की मनस्थिति का ख्याल आ जाता है और इसलिए दर्दी की सारी बात को अत्यंत सहानुभूति से सुनता है।
हे परमात्मा ! मेरी हालत भी वो दर्दी जैसी ही है।फर्क मेरे और उसके बीच में इतना ही है कि - वो रोगों की पीड़ित है और मैं दोषों से पीड़ित हुँ।
*उसकी इच्छा शरीर को रोगमुक्त करने की है*
*मेरी इच्छा आत्मा को दोषमुक्त करने की ह।*
रोगमुक्त बनने के लिए दर्दी जिस डाक्टर के पास पहुंचा है वो डाॅक्टर खुद रोग का शिकार बन सकता है। इसकी संभावना जरूर है। जबकि दोषमुक्त बने हुए आप के पास मेरे जैसे करोड़ों दोषित आयेंगे तो भी आपके दोषमुक्त बनने की कोई संभावना नहीं है।
इसलिए ही मैंने भूतकाल के अनंत भवों की और उन भवों की असर में लिप्त वर्तमान जीवन की काली कहानी मैंने तेरे समक्ष प्रकट की है। परंतु अब मुझे ऐसा लग रहा है कि मेरी बाल चेष्टा पर पूर्ण विराम रखना ही पड़ेगा। क्योंकि तु सर्वज्ञ है, सर्वदर्शी है यानि सब कुछ जानता है और देख सकता है।सिर्फ मेरे ही भूत, भावि और वर्तमान के बारे में सब जानता है ऐसा नहीं बल्कि इस जगत के सब जीवों के सर्वकाल के सर्व भावों को तु जानता और देखता है।
तुझ जैसे अनंतज्ञानी और अनंतदर्शी के समक्ष मेरे दूषित चरित्र को पेश करके मैंने मेरी मूर्खता का ही प्रदर्शन किया है पर इस प्रयास के पीछे भी एक खास वजह है जो बताता हूँ।
रत्नाकर पच्चीसी भाग - 71
रास्ते के बीच में एक भिखारी बैठा है। इसके शरीर की हालत देखें तो उसकी तरफ देखने का मन नहीं होता।शरीर पर रहे हुए परिधान इतने मलिन है कि अचानक किसी की नजर पड़ें तो तुरंत वहां से नजर हटा ले या उसे नजर अंदाज कर दे।पर उस भिखारी को जीना है। और जीने के लिए पेट भरना है। पेट भरने के लिए रोटी की जरूरत है। अगर आवाज नहीं लगायेगा तो उसका ठिकाने पड़ने वाला नहीं है। *" मुझे कुछ खाने को दे दो ना।मैं तीन दिन से भूखा हूँ।भगवान आपको सुखी रखेगे।सौ साल की उम्र करेंगे। "* इस तरह वह भिखारी आवाज लगाता ही रहता है। उस रास्ते से जाने वाले लोगों में से एक दो लोग उसकी तरफ नजर करते हैं। उनको देखकर वो भिखारी आशाभरी नजरों से उनसे याचना करता है - सेठ मुझे कुछ दो ना ! भगवान आपका भला करेगा। इतनी याचना करके वो फिर चुप होकर जानेवाले की तरफ देखता है कि शायद कुछ देगे।
हे परमात्मा ! कुछ अंशों में मेरी हालत भी उस भिखारी जैसी है। जीवन में गुण तो नहींवत् है।और दोषों की भरमार है। जिसकी सीमा नहीं है। इसलिए सज्जन लोग मेरे साथ प्रीत करना या रखना नहीं चाहते। संतों में भी प्रिय हो सकुं ऐसा मेरे में कोई योग्यता नहीं है।परंतु हे परमात्मा तु तो करूणा का महासागर है।
इसलिए मैं तेरी कृपा को भाजन हुँ, सदा के लिए बनता ही रहा हुँ। ये हकीकत है। फिर भी तेरी कृपा को सार्थक करने के लिए मैं तत्पर और तैयार हो गया हूँ। इस बात की प्रतीति कराने के लिए ही मैंने इस काली कहानी को तेरे समक्ष लेश या दंभ रखे विना प्रकट की है।
मेरी इस चेष्टा को मैंने नाम दिया है *"स्वीकार"* और मुझे अब महसुस हो रहा है कि तेरे कान तक मेरे इस प्रकार की आवाज बराबर पहुंच गई है। तू आज मेरे समक्ष मेरी आवाज सुनने ही खड़ा हुआ है।
अब तु ही कह परमात्मा - तेरे जैसा समर्थ मेरे समक्ष खड़ा हो और मैं तुझे प्रार्थना करने में पीछे हट करूं ऐसा कैसे हो सकता है। अत्यंत आर्द स्वर से और भावसभर हृदय से आज तुझे कह रही हूँ कि हे परमात्मा ! मुझे देने से तेरा कुछ कम होने वाला नहीं ये तो तथ्य है और ऐसे मैं निहाल हुए बिना भी नहीं रहुंगी ।
एक बात तो ये है और दूसरी बात ये है तुझे ही मुझको तारना है, मुझे तैराना है।
तिरने के लिए मुझे तेरे पास ही आना पड़ेगा। और देर - सवेर तु ही तारने वाला है अगर यही हकिकत है तो मुझे तुमसे पूछना है कि हे परमात्मा अब देर कीस बात की ? मैं सिर्फ यही याद दिलाना चाहता हूं कि -
*वहेला मोड़ा तुम्ही ज तारक*
मैं तुझे आज इतना ही कहती हूँ कि - आज मारा प्रभुजी, सामुं जुओने, सेवक कहीने बोलावो रे - हाँ यही है मेरी तरफ से तुझे प्रार्थना । और मैं तैयार होकर कर रहा हूँ तेरी प्रतिक्षा।मेरे से भी कई गुणा खराब और खराब आत्मा भी अगर तुझे पाकर तेरे चरण शरण को स्वीकार करके तैर गए हैं एवं शुद्ध, बुद्ध, मुक्त निरंजन निराकार बन गए है तो फिर मेरा उद्धार क्यों नहीं ?
मैं भी सर्व दोषमुक्त क्यों न बनुं ? संसार का परिभ्रमण मेरा समाप्त क्यों नहीं होता ? मेरे भव संसार का निस्सार क्यों नहीं ?
हे परमात्मा ! एक मेरी खास बात भी सुन ले। पतीत पावन के मिले हुए बिरूद को सार्थक करने के लिए भी तुमको मुझे जल्दी से पावन बनाना है। करूणासागर के मिले हुए उपनाम को मुझ पर करूणादृष्टि बहाकर सार्थक करना है।
🙏🏼🌹🙏🏼 *जय जिनेन्द्र सा*🙏🏼🌹🙏🏼
रत्नाकर पच्चीसी भाग - 72
*" भवसागर में सेतु "* की तेरी यह पहचान भी मेरे लिए सेतु बनकर तुझे चरितार्थ करने जैसी है। ज्यादा तो मैं क्या कहूँ ?
मेरे जैसे अनेकों को तुने तारा है तो मुझे भी जल्दी से तार देना ।मेरे द्वारा हुए सब दोषों को तु माफ कर देना।मेरे जीवन में रहे हुए सब दोषों को तु साफ कर देना। व्यवहार में कहा जाता है कि व्यापारी मेहनत करके धीरे धीरे कमाता है जबकि जुगारी एक झटके में लाखों की हेराफेरी कर देता है।
ठीक वैसे ही पाप सेवन के रास्ते पर यहाँ मैंने जुआरी की भूमिका ही अपनायी है। जीवन में एक दो नहीं पर असंख्य दोषों को स्थान देता रहा हूँ। जबकि गुण के क्षेत्र में भी तुने भी सदा जुआरी की ही भूमिका अपनायी है। एक दो नहीं बल्कि अनंतगुण एक साथ तुने कमाये है। इस तरह मैं भी जुआरी और तु भी जुआरी। जुआरी के इस चक्कर में तू मुझे ऐसी मार दे कि आगे से तेरे सामने जुगार खेलने का ही भुल जाऊँ। मेरी इतनी विनती जरूर स्वीकारना परमात्मा।
हे परमात्मा ! हे त्रिलोक के नाथ प्रभु ! ज्ञाना वरणीय कर्म संपूर्णतया नष्ट करके केवलज्ञान की ज्योत प्राप्त करने के बाद त्रिलोक को आप जानते हैं। अरिहंत सिद्ध परमात्मा मन मन की बातें, घट घट की, समय समय की बातों को जानने हैं, और देखते हैं।सब जीवों को होता है । परमात्मा सर्व भावों को, सर्व द्रव्यों, सर्व गुणों एवं सर्व पर्यायों को जानता है।वो पापी जीवों की पाप वृत्तियों एवं पापचरणों को भी जानता है।
*रागियों के राग को जानता है*
*द्वेषीयों के द्वेष को पहचानता है।*
*धर्मी जीवों की भावना को भी देखता है।*
फिर भी निरंजन निराकार परमात्मा किसी भी जीव में किसी भी भव में मिले नहीं हे परमात्मा तीनों लोकालोक को जानने वाला इसमें मैं भी शामिल हूँ। आप पवित्र, निर्मल, यशस्वी, ओजस्वी चरित्र के कारण तीनों लोक के देवेंद्रों, नरेन्द्रों में पूज्य बने और मैंने आगे दिखाया ऐसा मेरा दीन - हीन मटमैला मेरा चरित्र।जिसमें अनेक प्रकार के दंभ के, पाप के दाग और धब्बे पड़ें हुए हैं।जानबूझकर ही मैंने मेरे साधुजीवन को पापकर्मों से मटमैला बनाया है।
*ज्यां क्रोड नो हिसाब नहीं त्यां पाई नी तो बात क्यां ?*
हे परमात्मा आप तो अखंड ज्ञान के खजाने के मालिक हो।इसलिए मेरे मन के भाव को जानने में करोड़ रूपये के सामने पाई की बात के समान है। अर्थात आपके लिए सहज और सरल है।
हे देवाधिदेव समर्पण भाव में नम्रता से मैंने मेरे पाप को आपके समक्ष प्रकट किया है। आप तो सर्वज्ञ हैं आपको तो मेरे चरित्र का हाल पहले ही विदित है।
जैसे सहस्र किरणों से युक्त सूर्य जगत को प्रकाशमान करता है।पूरे विश्व के गाढ अंधकार को हटाता है। उस सूर्य के लिए एक झोपडी को प्रकाशील करने का कार्य एकदम सरल है ठीक वैसे ही केवलज्ञानी परमात्मा ऐसे आप के लिए मेरे जैसे पामर मनुष्य के पाप, दोष, अवगुण, दुर्गुण को जानना, देखना तो सामान्य बात है।
हे परमात्मा ऐसे मेरे तमाम पापों की क्षमा याचना करती हूँ।आप मुझे माफ करना। मेरे पापों पर पूर्ण विराम लगाओ। दादा कृपा करो, मुझे बचाओ। उबारो मुझे माफ करो, मुझ पर करूणा बहाओ।
आप मेरे जैसे करोड़ो के जीवन उद्धारक बने हो तो हे परमात्मा मुझ जैसे अज्ञानी, पामर, जीव का भी उत्थान करना ।हे परमात्मा तु ही मेरा खेवैया, नाविक है तु ही मेरा मालिक हैं। तारना, तारना, उबारना उबारना।
अंत में हे परमात्मा इतना ही कहना है कि. .........
*मुझ अंतर घट को खोल*
*करना है तुझको कोल*
*मेरी समस्या करना सोल*
*तेरा ना हो सके तोल*
*एक बार तो दादा तु बोल*
*तेरा चुका न पाऊंगा मोल*
*दादा तु है बड़ा अनमोल*
🌹🌹🌹 *कृष्णगिरि मंडल 10* 🌹🌹🌹
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रत्नाकर पच्चीसी भाग - 73
*ताराथी न समर्थ अन्य दीननो उद्धारनारो प्रभु*
*माराथी नहीं अन्य पात्र जगमां जोता जडे हे विभु*
*मुक्ति मंगल स्थान तोय मुझने इच्छा न लक्ष्मी तणी*
*आपो सम्यग् ज्ञान श्याम जीवने तो तृप्ति थाय घणी ।।25।।*
हे दीनदयाल ! विश्व के आस्तिक दर्शनों ने भी परमात्मा की सर्वोपरिता, उद्धारकता स्वीकारी है। विश्व के सामने ये सिद्ध करके दिखाया है कि विश्व में सबसे समर्थ व्यक्ति - हजारों, लाखों नहीं करोड़ो दृष्टिकोणों से समर्थ तो परमात्मा ही है। ईश्वर कतृत्ववाद को माननेवाले तो यहाँ तक कहते हैं कि, ईश्वर की इच्छा के विना एक पता भी नहीं हिलता।जैन दर्शन आत्मा को अकर्ता मानते हैं।सृष्टि के कर्ता, हर्ता या भर्ता परमात्मा को नहीं मानते फिर भी करूणावश विश्व के दिन - हीन प्राणियों को धर्म का उत्तमोत्तम मार्ग बताकर श्रेय साधने के लिए प्ररूपणा करता है और जीव का उद्धार करता है।
तीर्थंकर परमात्मा की देशना सुनने के लिए आनेवाले तिर्यंचों एवं मनुष्यों के समूह अवश्यमेव कुछ न कुछ व्रत प्रत्याख्यान, देशविरति या सर्वविरति धर्म अंगीकार करके आत्मा का उद्धार करते हैं। पापी अधर्मी, हिंसक, निंदक, दुराचारी का भी समर्थ आत्मा ने उद्धार किया है।उनकी शक्ति अमाप है कृपा असीम है और दया के सिंधु है।
*ताराथी न समर्थ अन्य दीननो उद्धारनारो प्रभु*
हे परमात्मा दीन - दुःखी का उद्धार करने में आपके अलावा कोई समर्थ नहीं है। आप चंद्र से शीतल, सूर्य से तेजस्वी, सागर से गंभीर, पृथ्वी से सहनशील, मेरू से धीर, वनराज से भी शौर्यराज, गजराज से भी बलवान, अनंत शक्ति के पुंज - हे परमात्मा मुझे संपूर्ण विश्वास है कि तेरे बिना इस विश्व में हम जैसे दीनदुखियों के उद्धारक और कोई नहीं है।
*छोरू कछोरू थाय पण मावतर कमावतर न थाय*
ऐसी कहावत है इसलिए मुझे तेरे चरणकमल में थोड़ी जगह देकर मेरा उद्धार करना परमात्मा।
हे परमात्मा - भवान्तर में मुझे चक्रवर्ती बनने का योग हो पर जैन धर्म नहीं मिलने वाला हो तो ऐसा चक्रवर्ती का पद मुझे नहीं चाहिए।मुझे जैन धर्म जरूर देना प्रभु। अरिहंत परमात्मा मुझे मिले।संसारी जीवों का सर्वज्ञ के साथ विरोधाभास।हे परमात्मा -
आप सदा वितरागी, मैं रोज का रागी। आप निर्बंधन, मैं सदा जकडा हुआ। आप संपूर्ण, मैं अपूर्ण (अधुरो)।आप निराभिमानी, मैं अभिमानी (मान से भरा ) आप केवलज्ञानी, मैं अज्ञानी। आप उपशांत सागर, मैं क्रोधी। आप विद्वेषी, मैं द्वेषी ।
हे परमात्मा ! तेरा और मेरा मेल जमनेवाला नहीं है। फिर भी आप सर्व शक्तिमान हो, मुझ पर दया करो।पापों के सेवन से और दुःखों के त्रास से त्रस्त बने हुए एवं व्यथित हुए मेरे जैसे हतभागी को आपके दिए हुए आश्वासन और किसी लेखक की ये पंक्तियाँ कहती है -
*तुम गभराशो ना, आंसुये न बहावे अत्यारे*
*बीजा कोई होय के ना होय, पण हूँ छुं तमारो*
*मैं खुशी के गीत गा गा के सुनाऊंगा*
*मैं मानता हूँ ठोकर तुमने सदा खायी है*
*जिंदगी के खेल में सदा हार पायी है।*
*बिजलिया दुःख की निराशा की सदा गिरि है*
*मन गगन पर वेदना के बादल छाये हुए हैं।*
फिर भी परमात्मा कह रहे हैं कि. ......
*मैं तुम्हारे जख्मों को धोकर मल्हम लगाऊंगा*
*तेरे विजय के गीत गा गा के सुनाऊंगा।*
हाँ ऐसा विश्वास तेरी तरफ से मिले तो ही मेरे जैसे अनेकों की स्वस्थता और प्रसन्नता टिक सकती है।क्या कहूँ तुझे।
गरीब और श्रीमंत बनाने वाले समर्थ इन्सान इस जगत में कम नहीं है। रोगी को निरोगी बनाने वाला डाॅक्टर और वैद्यों की कमी नहीं है।इस जगत में निराश को उत्साहित करने वाले ज्ञानी भी शायद मिल जाए।
🌹🌹🌹 *रत्नाकर पच्चीसी* 🌹🌹🌹
✍🏼✍🏼 *भाग - 74* ✍🏼✍🏼
परंतु -
घोर पापी को निष्पाप बनाने वाले, कामांधो को निर्विकारी, शैतान को संत, दुर्जन को सज्जन, संसारियों को सिद्ध, आत्मा को परमात्मा बनाने वाले, तेरे जैसे समर्थ इस जगत में ज्यादा तो नहीं है तो कम भी नहीं है। वो सामर्थ्य तेरा और सिर्फ तेरा ही है। एक बात तो ये है और दूसरी बात ये है कि इस जगत में कोई विषय दुष्ट है तो कोई कषाय दुष्ट है।
किसी को जालिम त्रास वासना का है तो किसी को आहार संज्ञा की परवशता का है, किसी का लोभ हिमालय के शिखर को पार करे ऐसा है तो किसी भी माया के आगे विराट सर्प भी शरमा जाते हैं, किसी के क्रोध के आगे दावानल भी हार स्वीकारता है तो किसी के अभिमान के सामने रावण भी गिड़गिड़ाता है। जबकि मैं इन सब दोषों और पापों का संग्रह मेरे अंदर घर करके बैठी है।
उत्कृष्टता के शिखर पर तु है तो अधमता के अंतिम छोर पर मैं हुँ । इस बात को इसलिए तुझे याद दिलाता हुँ कि मुझे उबरने के लिए तेरे अलावा किसी और के पास जाना ही नहीं है। तेरी करूणा के भाजन बनाने में मेरे अलावा किसी दूसरे पर नजर ठहराने जैसी नहीं है।
कृपादृष्टि अगर आपका अधिकार है तो कृपापात्रता मेरी पहचान है। अगर तुझ में दोष का अंश देखने को न मिले ऐसा है तो मुझमें गुण का एक भी अंश देखने को नहीं मिल सकता। हे परमात्मा एक बात कहने जैसी है कि मेरे जीवन को इस काली कहानी को सुनकर ये मत समझना कि मैं हताशा, निराशा का शिकार बन गयी हुँ या जीवन विकास की बाबत में मैंने नहा लिया है। तु ये भी मत समझना कि मेरी समाधि के लिए मैं शंकाशील बन गयी हुँ। या मेरी सद्गति के लिए मुझे कोई आस्था श्रद्धा या विश्वास ही नहीं है। ना-
*मैं भरपूर उत्साह मे हुँ ? मैं भरपूर आनंदित हुँ,*
*मैं संपूर्ण आशावादी हुँ, क्योंकि "तु मुझे मिल गया है।"*
कहते हैं कि शरीर में रोग बहुत है ये तथ्य है परंतु जिस दर्दी को धन्वन्तरि वैद्य ही मिल जाता है तो फिर उसे हताश होने की क्या जरूरत है ?
शरीर पर वस्त्र एकदम मैले हो गए हैं ये सच है पर इन्सान को जब धोबी की दुकान ही मिल जाए तो उसे परेशान होने की जरूरत ही क्या है ?
किसी इन्सान ने व्यापार में बहुत नुकसान कर लिया है पर उस इन्सान का हाथ कोई उदार दिल सेठ श्रीमंत पकड़ ले तो उसे रोने की कोई जरूरत नहीं हैं। ठीक वैसे ही उसी न्याय से अनंता दोषों दुर्गुणों, अवगुणों और पापों का संग्रह करके मैं बैठा हुँ ये तथ्य है, हकीकत है परंतु जिनके : -
स्मरण मात्र शाता, वंदन मात्र से से वांछित प्राप्ति, दर्शन मात्र से दुःखों का नाश एवं पूजन मात्र से सारे दोषों का नाश ।ऐसे सामर्थ्यशाली व्यक्ति का हाथ मैंने पकड़ा है तो मुझे हताश या निराश होने की कोई जरूरत ही नहीं है।
मेरी समाधि के विषय में भयभीत और मेरी सद्गति के लिए शंकाशील होने का रहेगा ही कैसे ? मेरी स्मृति पटल में लाने का भी मन न हो ऐसा मेरा कलंकित भूतकाल होने के बावजूद भी आज अगर मैं अपने उज्जवल भविष्य के बारे में सर्वथा निश्चिंत हुँ उसका एक मात्र कारण मैंने मेरे हृदय में तुझे स्थान दे दिया है वही है हे परमात्मा -
फिर भी मेरे कलंकित भूतकाल के ख्याल से मेरी आँखें से अश्रुधारा है।मुझे जैसे तेरी करूणा सभर स्वभाव के सामर्थ्य पर अटूट विश्वास है वैसे ही मेरे आँखों से बह रहे दोषजन्य वेदना के आँसू के सामर्थ्य पर भी अटूट विश्वास है।
तुझ पर लिखे हुए तपश्चर्या के, स्वाध्याय के चेक वापस हो सकते हैं । तुझ पर लिखे हुए दान के, ध्यान के चेक वापस हो सकते हैं। तुझ पर लिखे हुए विद्वता के प्रभावकता के चेक वापस हो सकते हैं लेकिन - तुझ पर लिखे गए, लिखित एवं लिखनेवाले पश्चात्ताप के आँसूवाले चेक आज दिन तक कभी वापस नहीं हुए, नहीं होते और भविष्य में नहीं होंगे।
🙏🏼🌹🙏🏼 *जय जिनेन्द्र सा*🙏🏼🌹🙏🏼
🌹🌹🌹 *कृष्णगिरि मंडल 10* 🌹🌹🌹
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रत्नाकर पच्चीसी भाग - 75
आँसू के हस्ताक्षर वाले पश्चाताप के चेक का सामर्थ्य मेरे ख्याल में था उसी ख्याल से मैंने तेरे समक्ष लेश मात्र भी दंभ रखे विना मेरे जीवनरूपी किताब के सब काले पन्नों को अश्रुसभर आँखों से खोल दिया। हे परमात्मा - मुझे इतना ही कहना है कि तु मुझ पर ऐसी कृपा बरसा की मैं जल्दी तेरे जैसा बन जाऊँ।
जब तक तेरे जैसा बनुं तब तक मेरी आँखों में पश्चात्ताप रूपी अश्रु का जो बहुमूल्य धन है उसको संभाल के रखूं। एक मांग तो मेरे तरफ से यही है और दूसरी मांग किसी अज्ञात लेखक की ये है कि :- परमात्मा
हुँ माध्यम बनुं तमारो ज्या घृणा छे त्यां प्रीत आपुं, तिरस्कार ने रीति आपुं, निर्बल ने आस्था नो सहारो आपुं, हताशा ने आशा निर्मल, खिन्न हृदय ने हर्ष ज्योति आपुं, ज्यां घेरावो अंधकार सारो माध्यम बनुं तमारो।
संक्षेप में - *या तो "मैं" "तु" बनुं या मैं तेरा माध्यम बनुं*
हे उजाले के स्वामी मेरी इस मांग को सफल बनाना। बनाओगे ना ? आप सर्वशक्तिमान हो मुझ पर कृपा बरसाना।
पश्चात्ताप की पावन गंगा में आत्मस्नान करके पवित्रतात्मा बना हुआ मैं सोचता हुँ कि मैंने प्रायश्चित और आत्मनिंदा द्वारा कर्म के बोझ को कम किया हुँ वो मेरे लिए काफी है। मुझे द्रव्य लक्ष्मी नहीं चाहिए मुझे भावलक्ष्मी की जरूरत है।
हे परमात्मा - आप करूणासागर हो। सागर यानि रत्नाकर। यद्यपि आप रत्नाकर हो । विभु सागर और रत्नाकर से क्या मांगुं ? कोई सामान्य चीज क्यों मांगु ? तुम समर्थ हो तुम शक्तिशाली हो।
*आपो सम्यग् रत्न श्याम जीवने तो तृप्ति थाये घणी*
मैं तुझसे सम्यग रत्न मांगती हुँ । जो मिलने से मेरी आत्मा को संतोष होगा। सम्यग रत्न मिल जाए तो फिर मैं अपने आप सम्यग चरित्र शील बन सकती हूँ।
इस कड़ी के माध्यम से पता चलता है कि पूज्य श्री कितने कुशल हैं, काबिल हैं उन्होंने तो खास चीज ही मांग ली। सम्यक्तव हो तो मोक्ष निश्चित है। ऐसे तो आपने सब को ही परमात्मा मिले हैं देव गुरु और धर्म मिले हैं, जैन कुल मिला है तो सर्वप्रथम परमात्मा की पहचान चाहिए। परमात्मा की करूणादृष्टि है कि *" सवि जीव करू शासन रसी "* सर्व जीवों का कल्याण हो। सभी को सम्यक्तव मिले और मोक्ष को प्राप्त करे।
ऐसे विरल परमात्मा के पास हमने भी जो कर्मबंधन किए हैं उसमें से मुक्ति प्राप्त करने के लिए पश्चात्ताप की सरिता में स्नान कर सभी कर्मों के मैल को धोकर अपनी आत्मा को निर्मल बनाकर मोक्ष प्राप्त करे।
मोक्ष सुख का अनुभव कीजिए।सभी जीवों का कल्याण हो। सभी को सम्यक्तव को मिले ।सभी जीव मोक्षगामी बने ।सर्वजीवों का निर्वाण हो । और सुखी हो, मुक्ति पथ के स्वामी बने. ...... अंत में हे परमात्मा ! इतना ही कहना है -
*इस संसार से गया मैं हार, भवचक्र से होना है पार*
*शरण में आया हूँ तुम्हार, तेरी महिमा अपरंपार*
*कोशिश करूँगा बारंबार, कर्मसत्ता का काफी भार*
*कब आयेगा मेरा किनार, अजब है तेरा कारोबार*
*तु देना आशिष अपार, जल्दी पाऊँ मैं मुक्तिनार*
*पश्चात्ताप के है ये आँसू, पलटेगा कब जब जीवन पासु*
*यहाँ से दूर है खासू, मेरे रोम - रोम हरखासु*
*बनु दादा तेरा दास, ऐसी आशिष बरसासु*
*वो दिन कब आसु, मुक्ति नगर में कब जासु*
हे परमात्मा !
*आप हो करूणावंत, कृपा बरसाओ महंत*
*बनुं साचो रे संत, कर्मों का करूं अंत*
रत्नाकर पच्चीसी. भाग - 76
*युद्ध के मैदान की विजय शायद खुन के हस्ताक्षर मांगती है।*
*संपत्ति के क्षेत्र की विजय शायद स्याही के हस्ताक्षर मांगती है।*
*किंतु अध्यात्म जगत में दोष नाश के क्षेत्र की विजय सिर्फ*
*आँसू के हस्ताक्षर अर्थात पश्चाताप के आंसू ही मांगते है।*
*अति दूर्लभ गिने जाने वाले ऐसे पश्चाताप के आंसू को कैसे*
*करना आत्मसात*
*शुरू करो इस पुस्तक का वाचन शायद पढते पढते*
*इस पश्चाताप के आंसुओं के तुम स्वामी बन जाओ।*
पुस्तक :- *पश्चाताप के आँसू (रत्नाकर पच्चीसी )*
विवेचिका:- *पू. साध्वी श्री डाॅ. अमृतरसाश्रीजी म.सा*
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