अष्टापद तीर्थ
अष्टापद तीर्थ
अष्टापद पूर्वत श्री ऋषभदेवकालीन अयोध्या की उत्तर दिशा में स्थित था । भगवान ऋषभदेव का निर्वाण इस पर्वत पर हुआ था । भरत चक्रवर्ती ने उनके निर्वाणस्थल पर 'सिंहनिषदया' नामक अत्यन्त सुन्दर मंदिर बनवाया था । यह पर्वत हराद्वि, कैलास, स्फ्टिक आदि नाम से विख्यात हे । भगवान शिव कैलासवासी कहे जाते हैं । सच्चिदानंद आदिनाग शिवशंकर का यह धाम होने से इसे शिवधाम भी कहते हैं । वर्तमान में यह पर्वत भरत क्षेत्र से लोप है ।
भरत् चक्रवर्ती ने 'सिंअ निषद्या' चैत्य के द्वारों पर लोहमय यान्त्रिक द्वारपाल नियुक्त किये थे, इतना ही नहीं, पर्वत को चारों ओर से छिलवाक्र सामान्य भूमिविहारी मनुष्यों के लिए शिखर पर पहुँचना अशक्य करवा दिया था । ऐसा इसलिए किया कि कालान्तर में विवेकप्रष्ट मनुष्य अपनी स्वार्थलिप्सा से इसे अपवित्र न कर दें ।
भरत चक्रवर्ती ने इसकी आठ योजन ऊँचाई के आठ भाग कर क्रमशः आठ मेखलाएँ बनवाई थीं, इसी कारण इस पर्वत का 'अष्टापद' नाम विख्यात हुआ । चक्रवर्ती सगर के पुत्रों ने अष्टापद के चारों ओर खाई खुदवाई और उसमें पवित्र गंगाजल भरा ।
पौराणिक आख्यान के अनुसार सगर चुक्रवत्ती के साठ हजार पुत्र थे । ज्येष्ठ पुत्र जहनु था, उसके नेतृत्व में सगर के पुत्रों ने अष्टापद पर्वत के चारों ओर तीर्थ्रक्षार्थ खोद कर परिश्रम- पूर्वक गंगानदी को प्रवाहित किया, इसलिए गंगा का नाम जाह्नवी पड़ा।
पर्वत की तलहटी के नीचे भूभाग में नागकुमारों के भवन थे, जो खाई खोदने तथा उसमें गंगाजल भरते के कारण नष्ट हो गए । नागकुमारों ने कुपित होकर सगर पुत्रों को विष-ज्वाला से भस्म कर दिया । तीर्थ की सेवा करने के कारण सगरपुत्र बारहवें देवलोक में देव हुए ।
सगरपुत्रों के मन में नागकुमारों के प्रति लेशमात्र भी द्वेषभाव नहीं था, उन्होंने तो तीर्थ-भक्ति की निर्मल भावना से ही यह मंगल कार्य सम्पन्न किया था । इस तीर्थ की महिमा में भगवान महावीर ने अपनी धर्मसभा में यह बताया कि जो मनुष्य अपनी आत्मरशक्ति से अष्टापद पर्वत पर पहुँचता है, वह इसी जन्म में मोक्ष प्राप्त करता है ।
भगवान महावीर के प्रथम गणधर श्री गौतम स्वामी अपनी अलौकिक शक्ति से इस तीर्थ के दर्शनार्थ गये, वहाँ मौजूद पन्द्रह सौ तीन तापसों को देखकर उन्हें आश्चर्य हुआ । उन्होंने तापसों को प्रतिवोधित किया तथा अपनी अनन्त लब्धि से उनका परान्न (क्षीर) से पारणा किया । ये तापस तीर्थ-दर्शन से अति उत्तम शिवगति को प्राप्त हुए ।
जैनम् जयतु शासनम्
वास्तुगुरू महेन्द्र जैन (कासलीवाल)
अष्टापद पूर्वत श्री ऋषभदेवकालीन अयोध्या की उत्तर दिशा में स्थित था । भगवान ऋषभदेव का निर्वाण इस पर्वत पर हुआ था । भरत चक्रवर्ती ने उनके निर्वाणस्थल पर 'सिंहनिषदया' नामक अत्यन्त सुन्दर मंदिर बनवाया था । यह पर्वत हराद्वि, कैलास, स्फ्टिक आदि नाम से विख्यात हे । भगवान शिव कैलासवासी कहे जाते हैं । सच्चिदानंद आदिनाग शिवशंकर का यह धाम होने से इसे शिवधाम भी कहते हैं । वर्तमान में यह पर्वत भरत क्षेत्र से लोप है ।
भरत् चक्रवर्ती ने 'सिंअ निषद्या' चैत्य के द्वारों पर लोहमय यान्त्रिक द्वारपाल नियुक्त किये थे, इतना ही नहीं, पर्वत को चारों ओर से छिलवाक्र सामान्य भूमिविहारी मनुष्यों के लिए शिखर पर पहुँचना अशक्य करवा दिया था । ऐसा इसलिए किया कि कालान्तर में विवेकप्रष्ट मनुष्य अपनी स्वार्थलिप्सा से इसे अपवित्र न कर दें ।
भरत चक्रवर्ती ने इसकी आठ योजन ऊँचाई के आठ भाग कर क्रमशः आठ मेखलाएँ बनवाई थीं, इसी कारण इस पर्वत का 'अष्टापद' नाम विख्यात हुआ । चक्रवर्ती सगर के पुत्रों ने अष्टापद के चारों ओर खाई खुदवाई और उसमें पवित्र गंगाजल भरा ।
पौराणिक आख्यान के अनुसार सगर चुक्रवत्ती के साठ हजार पुत्र थे । ज्येष्ठ पुत्र जहनु था, उसके नेतृत्व में सगर के पुत्रों ने अष्टापद पर्वत के चारों ओर तीर्थ्रक्षार्थ खोद कर परिश्रम- पूर्वक गंगानदी को प्रवाहित किया, इसलिए गंगा का नाम जाह्नवी पड़ा।
पर्वत की तलहटी के नीचे भूभाग में नागकुमारों के भवन थे, जो खाई खोदने तथा उसमें गंगाजल भरते के कारण नष्ट हो गए । नागकुमारों ने कुपित होकर सगर पुत्रों को विष-ज्वाला से भस्म कर दिया । तीर्थ की सेवा करने के कारण सगरपुत्र बारहवें देवलोक में देव हुए ।
सगरपुत्रों के मन में नागकुमारों के प्रति लेशमात्र भी द्वेषभाव नहीं था, उन्होंने तो तीर्थ-भक्ति की निर्मल भावना से ही यह मंगल कार्य सम्पन्न किया था । इस तीर्थ की महिमा में भगवान महावीर ने अपनी धर्मसभा में यह बताया कि जो मनुष्य अपनी आत्मरशक्ति से अष्टापद पर्वत पर पहुँचता है, वह इसी जन्म में मोक्ष प्राप्त करता है ।
भगवान महावीर के प्रथम गणधर श्री गौतम स्वामी अपनी अलौकिक शक्ति से इस तीर्थ के दर्शनार्थ गये, वहाँ मौजूद पन्द्रह सौ तीन तापसों को देखकर उन्हें आश्चर्य हुआ । उन्होंने तापसों को प्रतिवोधित किया तथा अपनी अनन्त लब्धि से उनका परान्न (क्षीर) से पारणा किया । ये तापस तीर्थ-दर्शन से अति उत्तम शिवगति को प्राप्त हुए ।
जैनम् जयतु शासनम्
वास्तुगुरू महेन्द्र जैन (कासलीवाल)
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